दिनांक; सोमवार, 16
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान,
मैं
तो अब तक
शास्त्रों
में ही उलझा
रहा; और
आप कहते हैं:
शास्त्र
व्यर्थ हैं।
अब मैं क्या
करूं?
2—भगवान,
उपलब्धि
की क्या
अनुभूति होती
है? कैसे
साधक जाने कि
वास्तव में
कुछ घट गया है?
कैसे वह स्व—निर्मित
कल्पना से
भिन्न
वास्तविकता
को जाने? कैसे
उपलब्ध
व्यक्ति की
उपलब्धि का
अन्य को पता
चले?
3—भगवान,
जन्मना, रोटी—रोजी
कमाना, बच्चे
पैदा करना और
फिर मर जाना—क्या
यही जिंदगी है?
4—भगवान, क्या आप पतियों
को सच ही निपट
गधे मानते हैं?
5—भगवान,
मैं
एक टूटा—फूटा
आदमी हूं, क्या मेरे
लिए भी कोई
आशा है? क्या
मैं भी कभी
प्रकाश, प्रेम
और परमात्मा
को प्राप्त कर
सकूंगा?
पहला
प्रश्न:
भगवान, मैं तो अब तक
शास्त्रों
में ही उलझा
रहा; और आप
कहते हैं:
शास्त्र
व्यर्थ हैं।
अब मैं क्या
करूं?
मोतीलाल, शास्त्र
व्यर्थ हैं—तुम्हारे
लिए, मेरे
लिए नहीं।
शास्त्र
व्यर्थ हैं, क्योंकि
अनुभव नहीं है
जो शास्त्रों
का गवाह बन
सके। शास्त्र
सार्थक हो
जाते हैं, अगर
तुम साक्षी दे
सको। शास्त्र
अपने में तो मुर्दा
हैं, कागज
पर खींची गई
स्याही की
लकीरें हैं, शास्त्रों
में तो सत्य
कैसे होगा, लेकिन अगर
तुम्हारे
ध्यान में
सत्य का अवतरण
हो, तुम्हारे
भीतर समाधि का
कमल खिले, तुम्हारे
भीतर सुवास
उठे जीवन के
आनंद की, तुम
गवाह बन सको, तुम कह सको
कि हां, ऐसा
ही है, तुम
सील मोहर मार
सको शास्त्र
पर, तो
शास्त्र
सार्थक हो
जाते हैं।
तुम्हें
डालना होगा
अर्थ, तुम्हें
देनी होगी
महिमा
उन्हें।
सदा
तुमसे उल्टी
बात कही गई
है। तुमसे कहा
गया है:
शास्त्र को पढ़ो, गुनो,
कंठस्थ करो
और इसी तरह
तुम सत्य को
जान लोगे। पंडित
हो जाओगे, प्रज्ञावान
नहीं। और
पांडित्य एक
सुंदर बंधन
है। प्रज्ञा
मुक्ति है। स्वयं
जाने बिना कोई
मार्ग नहीं
है। उपनिषद के
ऋषियों ने
जाना, जरूर
जाना, खूब
जाना, भरपूर
जाना; मगर
शास्त्र पढ़कर
नहीं जाना, ध्यान की
गहराइयों में
उतर कर जाना।
ज्ञान से नहीं
जाना, ध्यान
से जाना। जाना
तो फिर
शास्त्र बहे।
जहां
भी ध्यान की
गंगोत्री
उपलब्ध हो
जाती है, वहीं
शास्त्रों की
गंगा बह उठती
है। फिर वे शास्त्र
उपनिषद हों, कि वेद, कि
गीता, कि
कुरान, कि
बाइबिल, इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। एक ही
जलस्रोत से
बहुत धाराएं
बह सकती हैं।
वह जलस्रोत
अनंत है। उससे
एक गंगा नहीं,
बहुत गंगाएं
निकल सकती
हैं। वह चुकता
नहीं, चुकाया
जा सकता नहीं।
उससे वेद बहे,
उपनिषद बहे,
गीता बही, धम्मपद बहा,
कुरान—बाइबिल
बहे। और बहुत—से
शास्त्र बहेंगे,
बहते
रहेंगे
गंगोत्री
चुकने वाली
नहीं है।
लेकिन
गंगोत्री की
तलाश तुम्हें
करनी होगी।
तुम
अगर किताबें
पकड़ कर बैठ गए, तो बोझ से दब
जाओ। पंडित की
छाती पर
हिमालय जैसा
बोझ हो जाता
है—शब्दों का,
निर्जीव
शब्दों का, निर्वीर्य
शब्दों का। वह
शब्दों के
जंगल में ऐसा
भटक जाता है
कि राह मिलनी
मुश्किल हो
जाती है। पापी
को भी मिल जाए
राह, पंडित
को नहीं
मिलती।
क्योंकि पापी
कम—से—कम
विनम्र तो
होता है। पापी
कम—से—कम रो तो
सकता है। पापी
कम—से—कम झुक
तो सकता है।
पापी के पास अकड़ने को
कुछ भी नहीं
है, अहंकार
को भरने को
कुछ भी नहीं
है; उसकी
आंखें झुकी
हैं, उसका
सिर झुका है, वह जानता है
कि मैं ना—कुछ
हूं, कि
मैं पाप की एक
गठरी हूं, अकडूं
तो क्या अकडूं!
मगर पंडित के
पास अकड़ने
को बहुत कुछ
है। गठरी में
शास्त्र हैं।
उसकी याददाश्त
में सुभाषित
हैं। पर
दूसरों के
शब्द तुम्हारे
लिए न सत्य
हुए हैं, न
हो सकते हैं।
इसलिए
तुमसे अब तक
तो कहा गया था, शास्त्र को
जाने तो ज्ञान
मिलेगा, मैं
तुमसे कहता
हूं, ज्ञान
मिले तो तुम
शास्त्र को
जान सकोगे। फिर
ज्ञान कहां से
मिलेगा? ज्ञान
ध्यान से
मिलता है।
ज्ञान की ही
परिपक्वता
है।
ठीक
हुआ कि
तुम्हें यह
बात दिखाई
पड़ने लगी कि अब
तक शास्त्रों
में उलझा रहा।
निश्चित ही दुविधा
पैदा हुई होगी, द्वंद्व जगा
होगा, बड़ी
बेचैनी आई
होगी, क्योंकि
मैं कहता हूं
शास्त्र
व्यर्थ हैं।
निश्चित कहता
हूं व्यर्थ
हैं। अर्थ डालना
होगा तुम्हें,
तो सार्थक
हो जाएंगे!
शास्त्र
तो बोतलों
जैसे हैं।
शराब उंडेलो
तो भर जाएंगे।
मगर शराब पहले
तुम्हारे ऊपर
निर्मित होनी
चाहिए, तो
उंडेल सकोगे।
तुम्हारे
भीतर आनंद पके
तो शास्त्र भी
भर जाएंगे
तुम्हारे आनंद
से। शास्त्र
ही क्या, तुम्हारी
भावभंगिमा
में सत्य होगा,
तुम देखोगे
तो तुम्हारी
आंखों से सत्य
चमकेगा, तुम
चलोगे, उठोगे,
बैठोगे तो
सत्य का
प्रसाद
वायुमंडल में बिखरेगा; तुम फिर जो
भी करोगे, वही
सत्य होगा।
तुम मिट्टी छुओगे, सोना
हो जाएगी। अभी
तो तुम सोना
भी छुओ तो
मिट्टी ही
होने वाली है।
अभी सोने को देखने
वाली आंखें
कहां? अभी
सोने को परखने
वाला हृदय
कहां? अभी
तुम पारस
पत्थर नहीं
हो। समाधिस्थ
व्यक्ति पारस
पत्थर हो जाता
है। लोहे को
छू दे, सोना
हो जाता है।
गालियों को छू
दे, गीत बन
जाएं। कांटों
को छू दे, फूल
बन जाएं।
अंधेरे को
स्पर्श कर दे
तो अंधेरा
रोशन हो जाए।
जानने
वाले के हाथ
में शास्त्र
ही नहीं, जीवन
की छोटी—छोटी
घटनाएं भी बड़े
गहन, बड़े
गंभीर अर्थ ले
लेती हैं।
गुदे
शब्द
पर
अर्थ—खाइयां
खोद रहे,
गोद
रहे श्रीमान
गुदने
गोद रहे!
माल
पुए
लिख
दिए पेट पर
माथे
लिखा मकान
धोती—कुताः
लिख
देही पर
हंसते
हैं शैतान!
लिखी
पीठ पर
पर्वत
माला
छाती
पर शमशान
आंसू
को
मोती
लिख करके
पढ़ते
हैं भूदान!
कानों
पर गुड़बतियां
लिख दीं
हाथों
पर अहसान
गालों
पर लिख गंगा—जमुना
करते
रहे नहान
हाथ पर
एहसान लिख
दोगे, एहसान
हो जाएगा? माथे
पर ध्यान लिख
दोगे, ध्यान
हो जाएगा?
गालों
पर लिख गंगा—जमना
करते
रहे नहान
गुदे
शब्द
पर
अर्थ—खाइयां
खोद रहे,
गोद
रहे श्रीमान
गुदने
गोद रहे!
पंडित गुदने
गोदता रहता
है। पंडित का
जगत बड़ा झूठा
जगत है। कहता
संसार को माया
है, लेकिन
जैसी माया में
पंडित रहता है
वैसी माया में
संसारी भी
नहीं रहता।
संसारी के जगत
में कुछ वास्तविकता
है, पंडित
का जगत तो
केवल कोरे
शब्दों का है।
माल—पुए
लिख
दिए पेट पर
पर
पेट भरेगा?...
माथे
लिखा मकान
धोती—कुर्ता
लिख
देही पर
हंसते
हैं शैतान!
तुम्हारे
शास्त्र—ज्ञान
पर शैतान
प्रसन्न होते
हैं। क्योंकि
तुम्हारा
शास्त्र—ज्ञान
परमात्मा तक
जाने में
जितनी बड़ी
बाधा है, कोई
और चीज उतनी
बड़ी बाधा नहीं
हो सकती है।
जिसे यह भ्रम
हो गया कि
मैंने
सिद्धांत, शास्त्र
समझ लिए, जान
लिया, अब
और जानने को
क्या बचा, पड़ा
गर्त में
भयंकर! उबारना
उसका मुश्किल
हो जाएगा।
पापी को जगाया
जा सकता है, पापी जगना
चाहता है—क्योंकि
पाप पीड़ा देता
है—लेकिन
पंडित को कैसे
जगाओगे? उसका तो
सारा न्यस्त
स्वार्थ उसके
पांडित्य में
है। वही तो
उसके अहंकार
की सजावट है, शृंगार है।
कागज
पर छपे सूर्य
से
दिन
नहीं उगे,
ऐसे
कुछ वक्त ने
ठगे!
मुर्गों
की कलगियां
लगा
शाख—शाख
कउए
तैनात
बांगते
रहे दोपहरी,
बेचारे
काल के सगे!
चौराहे
धूप सूंघ कर
गर्वाए
देव—द्वार—से
जयकारे
चांदी के नाम,
बिस्तर
क नाम रतजगे!
वातायन
द्वार हो गए
अंबर
तक छल की
मीनार
गलियों
में रो रहे
कबीर,
कीकर
पर आम क्या
लगे!
कागज
पर छपे सूर्य
से
दिन
नहीं उगे
कितना
ही सुंदर छपा
हो सूरज कागज
पर, दिन नहीं
होगा!
और कउए?—
मुर्गों
की कलगियां
लगा
शाख—शाख
कउए
तैनात
बांगते
रहे दोपहरी,
कागज
पर तो छपा
सूर्य था, कउवों ने कलगियां
लगा ली थीं मुर्गों
की, बांगते रहे। न तो
कागज पर छपे
सूर्य से सुबह
होगी, न कउवों
के बांग देने
से सुबह होगी,
सूरज
निकलेगा।
ऐसे हम
खूब ठगे जाते
रहे हैं।
हमारी सारी
जिंदगी ठगे
जाने का एक
लंबा क्रम हो
गई है। मोतीलाल, अब जगो!
पूछते हो, अब
क्या करूं? अब
शास्त्रों से
मुक्त होओ, स्वयं में
चलो, वहीं
है शास्त्रों
का शास्त्र।
अब शब्दों को छोड़ो, शून्य
को गहो।
क्योंकि
शून्य से ही
उठेगा वह
महिमा का अनुभव,
जो सारे
शब्दों को
सुगंध दे जाए;
जो सोने में
सुगंध दे जाए।
लेकिन बहुत
हुआ! कब तक
बाहर—बाहर
खोजते रहोगे?
अब भीतर! अब
अंतर्यात्रा
पर चलो।
और
अंतर्यात्रा
की प्रक्रिया
क्या है? छोड़ो विचार, छोड़ो
शब्द, छोड़ो शास्त्र, छोड़ो ज्ञान। ये
ही अटकाए
रखते हैं। जाग—जागकर
देखते रहो, कोई शब्द पकड़े
न, तुम
किसी शब्द को
न पकड़ो। न
हिंदू हो, न
मुसलमान, न
ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध। ये सब
शब्दों के ही
जाल हैं। अब
तो तुम अपनी
तलाश करो, पूछो
कि मैं कौन
हूं? विचार
तुम्हारी सतह
है और
निर्विचार तुम्हारा
केंद्र है। अब
निर्विचार
में उतरो। एक
डुबकी लग जाए
निर्विचार
में, चकित
हो जाओगे, अवाक
रह जाओगे, भरोसा
न आएगा एकदम
से। क्योंकि
जैसे ही स्वयं
में डुबकी
लगती है, वैसे
ही सारे बुद्ध,
सारे कृष्ण,
सारे
क्राइस्ट सही
सिद्ध हो जाते
हैं। एक साथ!
ऐसा नहीं कि
बुद्ध सही
सिद्ध होते और
महावीर गलत हो
जाते; ऐसा
नहीं कि
क्राइस्ट सही
सिद्ध होते और
कृष्ण गलत हो
जाते। जब तक
ऐसा होता रहे,
तब तक जानना
अभी शब्दों के
जाल के बाहर
नहीं हुए। यह
कसौटी है। जब
एक साथ सारे बुद्धपुरुष,
सारे जगत के—कितनी
ही भिन्न हो
उनकी भाषा और
कितनी ही
भिन्न हो उनकी
अभिव्यक्ति; कितनी ही
उनके रंग—ढंग
अलग—अलग हों; रूप, आकृतियां
अलग—अलग हों—जब
सारे सदपुरुष
एक साथ सही हो
जाएं, तो
जानना कि
तुमने जाना।
जब तक चुनाव
कायम रहे, कि
लगे कि कृष्ण
ठीक जानते हैं,
क्राइस्ट
ठीक नहीं
जानते, तब
तक समझना अभी
तुम शब्दों के
जंगल में अटके
हो, अभी
जंगल पर नहीं
हुआ, अभी
घर नहीं मिला
है।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, उपलब्धि की
क्या अनुभूति
होती है? कैसे
साधक जाने कि
वास्तव में
कुछ घट गया है?
कैसे वह स्व—निर्मित
कल्पना से
भिन्न
वास्तविकता
को जाने? कैसे
उपलब्ध
व्यक्ति की
उपलब्धि का अन्य
को पता चले?
योगेश, उपलब्ध
व्यक्ति की
उपलब्धि का
पता अन्य को
नहीं चल सकता।
अनुमान ही हो
सकता है। अंधे
को कैसे पता
चलेगा कि आंख
वाले को
प्रकाश दिखाई
पड़ता है? अनुमान
कर सकता है।
क्योंकि टटोल
कर देख सकता है
कि आंख वाला
आदमी बिना टटोले
चलता है। टटोल
कर देख सकता
है कि आंख
वाले आदमी के
हाथ में लकड़ी
नहीं है। अंधा
है, लेकिन
इतना अनुमान
कर सकता है कि
आंख वाला उठता
है तो किसी से
पूछता नहीं कि
दरवाजा कहां
है, चुपचाप
निकल जाता है।
बिना पूछे
निकल जाता है।
जरूर दिखाई
पड़ता होगा।
क्योंकि मुझे
तो पूछकर
निकलना पड़ता
है। मुझे तो
लकड़ी से खट—खट
खोजना पड़ता
है। मुझे तो
एक—एक कदम राह
पर चलता हूं
तो सम्हलना
पड़ता है। मैं
दौड़ नहीं सकता
और मैं दूसरों
को दौड़ते देखता
हूं। बच्चे
उसके पास
किलकारी
मारते हैं और
दौड़ते हैं, बाहर और
भीतर घर के
होते हैं, इतनी
सुगमता से, तो जरूर
उनके पास कुछ
है जो मेरे
पास नहीं है।
पर यह अनुमान
ही होगा, प्रमाण
नहीं।
ऐसे ही
तुम भी उपलब्ध
व्यक्ति के
संबंध में कुछ
अनुमान कर
सकते हो। जिन
स्थितियों
में तुम विषाद
ग्रस्त हो
जाते हो, उसे
विषाद नहीं
छूता। जिन
स्थितियों
में असफलताएं
तुम्हारे
प्राणों को बर्छी की
तरह छेद देती
हैं, उसे
कांटा भी नहीं
लगता। कांटा
लगना तो दूर, जैसे असफलता
में भी उस पर
फूल ही बरसते
रहते हैं। सफल
हो कि असफल, उसके सम्यक्त्व
में बाधा नहीं
पड़ती। उसकी
समता बनी रहती
है। ऐसे
अनुमान तुम
लगा सकते हो!
वह उठता है, बैठता है, जीता है, लेकिन
कुछ—कुछ यहां
नहीं होता, कहीं और
होता है। यहां
होकर भी यहां
पूरा नहीं
होता, किसी
और लोक में
होता है। जल
में कमलवत।
ऐसे अनुमान
तुम लगा सकते
हो। प्रमाण
नहीं, अनुमान
ही रहेंगे।
क्योंकि
तुम्हारा
स्वयं का तो
कोई अनुभव
नहीं है। कौन
जाने ऊपर से
ही साध रखा हो,
अभिनय करता
हो—संदेह तो
बने ही
रहेंगे।
इसलिए कहता
हूं, अनुमान।
संदेह मिट
नहीं जाएंगे—संदेह
तो सिवाय
अनुभव के
मिटते नहीं।
अनुभव के बिना
श्रद्धा कभी
पूर्ण नहीं
होती, संदेह
बचा ही रहता
है। कोने—कातरों
में कहीं मन
के दब जाए भला,
अंधेरे में
छुप जाए भला, लेकिन मौजूद
रहता है। कहीं—न—कहीं
सिर उठाएगा।
प्रश्न
बनेगा। छोटी—छोटी
बातों में फिर—फिर
खड़ा हो जाएगा।
लेकिन, अगर अनुमान
भी करने में
तुम समर्थ हो
जाओ, तो भी
तुम्हारे लिए
संभावना का एक
द्वार खुलता
है। फिर
प्रत्येक बुद्धपुरुष
का व्यवहार
अलग—अलग है, क्योंकि
प्रत्येक बुद्धपुरुष
एक अनूठी, अद्वितीय
घटना है।
इसलिए अगर
तुमने पहले से
ही कुछ
सिद्धांत तय
कर रखे हों, कि ऐसा होना
चाहिए बुद्धपुरुष,
अनुभूत
व्यक्ति ऐसा
होना चाहिए, तो तुम
अनुमान भी न
कर पाओगे। तो
तुम बड़ी अड़चन में
पड़ोगे।
महावीर नग्न
हैं, और
बुद्ध नग्न
नहीं है!
हालैंड
में
कृष्णमूर्ति
का एक शिविर
था। एक महिला
भारत से हालैंड
गई शिविर में
सम्मिलित
होने। लौट कर
आई तो उसने
मुझे कहा कि
मेरी भ्रांति
टूट गई! मैं तो
फिर शिविर में
उपस्थित हो ही
नहीं सकी। बात
ही कुछ ऐसी हो
गई! जल्दी आ गई
थी तो मैंने
पूछा भी कि अभी
तो शिविर
समाप्त ही
नहीं हुआ, तू वापिस भी
आ गई? उसने
कहा, सब
व्यर्थ है।
क्योंकि
मामला ऐसा हुआ
कि शिविर के
एक दिन पहले
मैं बाजार गई,
कुछ सामान
खरीदने, मैंने
एक दुकान पर
कृष्णमूर्ति
को टाई खरीदते
देखा। बुद्धपुरुष
और टाई
खरीदें!
महावीर
स्वामी और टाई
खरीदें। एक तो
नंग—धड़ंग
और फिर टाई
बांधें, तो
खूब मजाक हो
जाएगी। जैन
महिला है। तो
कहीं—न—कहीं
छिपी तो
महावीर की
धारणा बैठी
रही होगी। कृष्णमूर्ति
से भी अपेक्षा
तो वही होगी।
चाहे प्रगट न
हो, चेतन
में न हो, अचेतन
में होगी। यही
तो उपद्रव है।
तो कृष्णमूर्ति
और टाई
खरीदें! और
बाजार पाई
खरीदने आएं!
और न केवल
इतना, वह
खड़ी हो गई
दुकान में
भीतर जाकर, ठीक से
निरीक्षण
करने को, न
केवल
कृष्णमूर्ति
टाई खरीद रहे
थे, बल्कि
उन्होंने कम—से—कम
दो सौ टाइयां
फैला रखी थीं।
यह भी नहीं
जंच रही; वह
भी नहीं जंच
रही; इसका
रंग नहीं मेल
खा रहा, इस
का ढंग नहीं
मेल खा रहा।
उसने कहा, वह
जो मैंने देखा,
अपनी आंखों
से जो देखा, मैंने कहा, यह आदमी
क्या ज्ञान को
उपलब्ध होगा!
इस आदमी को
कैसा
बुद्धत्व! अभी
जो टाइयों
में उलझा है!
फिर
शिविर में
सम्मिलित
होने का कोई
कारण ही न
रहा।
लेकिन
अगर कोई कृष्ण
का भक्त होता, तो शायद
अड़चन न होती।
क्योंकि कृष्ण
कुछ कम
वस्त्रों की
चिंता नहीं
करते मालूम होते
हैं। पीतांबर,
मोरमुकुट—टाई
तो उन दिनों
नहीं होती थी
नहीं तो जरूर बांधते, छोड़ सकते
नहीं थे; जब
मोरमुकुट तक
बांधने में न झेंपे, तो
टाई बांधने
में कुछ अड़चन
होती!
लेकिन
जैनों ने तो
कृष्ण को नर्क
में डाल दिया
है—उसी
मोरमुकुट के
कारण। और थोड़े—बहुत
दिन के लिए
नहीं डाला है, जब तक यह
सृष्टि है तब
तक नर्क में
रहेंगे। यह सृष्टि
नष्ट होगी, फिर दूसरी
सृष्टि बनेगी,
तब मुक्त हो
पाएंगे। छोटे—मोटे
पापी तो कई
दफा आ जाएंगे,
चले जाएंगे,
आवागमन हो
जाएगा बहुत, लेकिन कृष्ण
तो सातवें
नर्क में पड़े
हैं सो पड़े ही
रहेंगे।
मोरमुकुट को
क्षमा न कर
पाए!
अगर
तुमने कोई एक
धारणा बांध ली
है मजबूती से, तुमने कोई
पक्षपात बना
लिया है, तो
फिर अड़चन
होगी। फिर तो
तुम अनुमान भी
करने में
समर्थ न रह
जाओगे।
अनुमान भी वही
कर सकता है जो
पक्षपातरहित
हो। थोड़ा
मुक्त हो। कोई
धारणा पहले से
ही निर्णीत न
हो। और कोई
धारणा काम
नहीं आएगी।
क्योंकि महावीर
महावीर
हैं, कृष्ण
कृष्ण, बुद्ध बुद्ध,
मुहम्मद
मुहम्मद। सब
उस एक को
उपलब्ध हुए
हैं, लेकिन
फिर भी सबने
गीत तो अपनी
ही आवाज में
गाए। सबने
अभिव्यक्ति
तो अपने ही
ढंग से दी। इन
छोटी—छोटी
बातों से
निर्णय नहीं
होगा। हां, अगर इन सारी
बातों की
तलहटी में
उतरोगे, तो
कुछ बातें
जरूर पाओगे—जैसे
एक समता पाओगे,
सुख में, दुख में; सफलता
में, असफलता
में, दरिद्रता
में, समृद्धि
में; एक समतुलता
पाओगे, तराजू
हिलेगा ही
नहीं, दोनों
पलड़े
हमेशा बराबर
ही रहेंगे।
कपड़े पहनें
कि न पहनें,
नग्न हों कि
मोरमुकुट
बांधे,
इससे भेद नहीं
पड़ेगा। वह जो सम्यक्तत्व
है, उससे
कपड़ों से क्या
लेना—देना? एक दिन भोजन
करें, एक
दिन उपवास
करें; दिन
में दो बार
भोजन करें, कि तीन बार
भोजन करें, कुछ फर्क
नहीं पड़ेगा।
फर्क तो पड़ेगा
अंतरतम में।
वहां एक
ज्योति सदा
प्रज्वलित
रहेगी। लेकिन
उस ज्योति की
प्रतीति केवल
उन्हीं को हो
सकती है जो
निष्कर्ष
रहित हैं।
इसलिए सदगुरु के
पास जब जाओ, तो निष्कर्ष
लेकर मत जाना।
नहीं तो
तुम्हारे निष्कर्ष
तुम्हारी आंख
पर परदे हो
जाएंगे। और
कोई दो सदगुरु
एक से नहीं
होते, इसलिए
तुम्हारे सब
निष्कर्ष
व्यर्थ हैं, घातक हैं, अनुमान करने
तक में
तुम्हारे लिए
बाधा बन जाएंगे।
तो पहली बात, तुम पूछते
हो: कैसे
उपलब्ध
व्यक्ति की
उपलब्धि का
अन्य को पता
चले? उसकी
शांति, उसका
आनंद, उसकी
सौम्यता, उसका
प्रसाद, उसकी
सुगंध; उसके
पास बैठने का
रस; उसकी
सन्निधि में
अचानक घट जाने
वाली तुम्हारे
भीतर भी शांति
की हिलोर; उसकी
मौजूदगी में
अचानक
तुम्हारे मन
का कभी—कभी
मिट जाना, खो
जाना; उसके
चरणों में सिर
रखकर अनुभव
में आना कि
मैं नहीं हूं,
अहंकार का
तिरोहित हो
जाना; उसके
पास उठते—बैठते,
उसके रंग
में रंगते—रंगते
तुम्हारे
भीतर एक
अपूर्व नृत्य
का जन्म हो जाना;
तुम्हारे
भीतर भी कोई
गीत
गुनगुनाने को मचलने लगे,
तुम्हारे
पैर में भी
पुलक और थिरक
आ जाए नृत्य
की, तुम्हारे
भीतर भी कोई
बीज फूटने लगे,
अंकुरित
होने लगे, उसकी
मौजूदगी में
तुम्हें
अनुभव होने
लगे थोड़ा—थोड़ा
कि यह जगत
जितना दिखाई
पड़ता है इतना
ही नहीं है, इससे ज्यादा
है, जहां
रहस्य की थोड़ी—सी
गंध मिले।
लेकिन यह सब
अनुमान
होंगे। मैं नहीं
कह रहा हूं कि
प्रमाण।
इसलिए
जोर से मुट्ठी
पकड़कर
इनको मत कसना, अन्यथा ये
मर जाएंगे। ये
बहुत सुकोमल
फूल हैं। इनको
मुट्ठी कसकर
नहीं पकड़ा
जाता। यह पारे
की तरह तरल
है। इन्हें
जोर से पकड़ोगे,
छितर—बितर
हो जाएंगे। और
पारा बिखर जाए
तो इकट्ठा करना
मुश्किल हो
जाता है। यह
कोई सीधे—सीधे
गणित की भाषा
में, तर्क
की भाषा में पकड़े जाने
वाले सत्य
नहीं हैं। हां,
प्रेम के
जाल में जरूर
ये मछलियां
फंसती
हैं। अगर
प्रेमपूर्ण
ढंग से तुम
किसी परमात्मा
को उपलब्ध
व्यक्ति के
पास बैठोगे, तो जरूर
तुम्हारा जाल
खाली नहीं
आएगा, उसके
सागर से बहुत
हीरे—मोती, बहुत अनुभव
तुम लेकर
लौटोगे। पर
फिर दोहरा दूं,
यह सिर्फ
अनुमान ही
रहेगा, जब
तक कि स्वयं
का अनुभव न हो
जाए।
तुमने
यह भी पूछा, योगेश, उपलब्धि
की क्या
अनुभूति होती
है? तुमने
सुना नहीं, सारे ज्ञानी
कहते हैं:
गूंगे का गुड़?
कबीर ने कहा,
गूंगे केरी सरकरा।
ऐसे ही नहीं
कहा, खूब
सोचकर कहा है।
कहने की खूब
कोशिश की और
नहीं कह पाए, तब कहा है।
क्यों
नहीं कही जा
सकती वह
अनुभूति? बहुत
कारण हैं।
महत्वपूर्ण
कारण तुम्हें
याद दिलाऊं।
पहला, हमारे सब
शब्द लोक—व्यवहार
के लिए हैं।
और वह अनुभव
है, लोकातीत।
उस अनुभव के
लिए हमारे
शब्द बने नहीं
हैं। बाजार
में ठीक हैं, दुकान में
ठीक हैं, दफ्तर
में ठीक हैं, कामचलाऊ हैं,
संसार के
संबंध में
बातचीत करनी
हो तो सार्थक
हैं, लेकिन
जैसे ही तुम
लोकातीत
अनुभव की तरफ
उठते हो, वैसे
ही तुम पाते
हो—ये सारे
शब्द व्यर्थ
हैं। इनमें से
किसी भी शब्द
का उपयोग करो
तो अड़चन होती
है।
उदाहरण
के लिए, अगर
कहो कि वह
अनुभव प्रकाश
का है—जैसा
बहुत संतों ने
कहा। मजबूरी
में कहा। तुम
पीछे पड़ते हो,
तुम मानते
ही नहीं, तुम
हाथ जोड़े खड़े
रहते हो कि
कुछ—न—कुछ तो
कहें, तो
संतों को
मजबूरी में
कहना पड़ा कि
वह अनुभव प्रकाश
का अनुभव है।
परम प्रकाश।
लेकिन, संतों
को पता है कि
ऐसा कह कर वे
अन्याय कर रहे
हैं। क्योंकि
वह परमात्मा
जिस तरह परम
प्रकाश है, उसी तरह परम
अंधकार भी है।
वह दोनों एक
साथ है। मगर
इसे कैसे कहो?
उपनिषद
कहते हैं, वह दूर से भी
दूर और पास से
भी पास है। अब
अगर सोचो, तो
दो में से एक
ही बात सच हो
सकती है। दूर
से भी दूर और
पास से भी पास,
फिर तो
पहेली हो गई!
या तो कहो दूर,
या कहो पास।
मगर उपनिषद
ठीक कह रहे
हैं। वह दूर
से भी दूर है
और पास से भी
पास है। दोनों
बातें एक साथ
सच हैं। हमारे
सारे शब्द
द्वंद्वात्मक
हैं। अंधेरा—प्रकाश,
जीवन—मृत्यु,
सर्दी—गर्मी,
सुख—दुख, सौंदर्य—कुरूपता,
हमारे सारे
शब्द
द्वंद्वात्मक
हैं। और वह द्वंद्वातीत
है। तो उसे
कैसे कहें? वह फूल भी है
और कांटा भी
है, वह राम
भी है और दिन
भी है, वह
जन्म भी है और
मृत्यु भी है—अगर
जन्म कहें तो
अधूरा कहा और
मृत्यु कहें
तो अधूरा कहा।
उसे जिस शब्द
से भी कहने
जाएं, वही
शब्द आधा हो
जाता है।
और
ध्यान रहे, आधे सत्य असत्यों
से भी खतरनाक
होते हैं।
क्योंकि आधे सत्यों
में वह जो आधा
सत्य होता है,
वह लोगों को
भरमा सकता है,
भटका सकता
है। तो पहली
तो अड़चन, शब्द
हैं
द्वंद्वात्मक
और अनुभव है द्वंद्वातीत।
शब्द हैं
कामचलाऊ, लोक—व्यवहार
के लिए और वह
अनुभव है लोक—व्यवहार
के बाहर, समय—क्षेत्र
के बाहर। वह
कोई कामचलाऊ
अनुभव नहीं है।
दूसरी
बात, हमारे
सारे शब्दों
की सीमा है और
वह अनुभव है असीम।
न उसका कोई
प्रारंभ, न
कोई अंत।
हमारे शब्द
हैं छोटे—छोटे
आंगन और वह है
विराट आकाश।
कैसे समाएं
उसे इस आंगन
में? नहीं
समाता। अगर
उसको ध्यान
में रखें तो
चुप ही रहना
पड़े। लेकिन
तुम्हें
ध्यान में
रखते हैं संत,
तो कुछ
बोलते हैं। वह
बोलते हैं
इसलिए नहीं कि
परमात्मा को
बोला जा सकता
है, बोलते
हैं इसलिए कि
तुम पर करुणा।
बोलते हैं इसलिए
कि तुम बोलने
के अतिरिक्त
और कुछ तो
समझोगे न।
तुम
संत की अड़चन
समझो! परमात्मा
बोला नहीं जा
सकता, तुम
बिना बोले कुछ
समझ नहीं
सकते।
तुम्हें देखते
हैं तो बोलना
पड़ता है, उसे
देखते हैं तो
चुप रहने की
इच्छा होती
है।
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ, तो वह सात
दिन तक चुप
बैठे रहे।
कहानी है कि
देवता स्वर्ग
में बड़े बेचैन
हो गए।
क्योंकि कभी—कभी
सदियां बीत
जातीं हैं तब
कोई व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है। और देवता
भी तरसते हैं
बुद्धत्व की
वाणी को सुनने
को। बुद्धत्व
का उदघोष
सुनने को। वह
सिंहनाद
सुनने को
पत्थरों से लेकर
पौधों, पशुओं,
पक्षियों, मनुष्यों, देवताओं तक
सभी के प्राण तड़फते
हैं। क्योंकि
देवता भी तो
बंधन में हैं।
उतने ही बंधन
में जितने तुम।
उनके बंधन जरा
प्यारे हैं, सोने के हैं,
तुम्हारे
लोहे के हैं; उनके बंध
हीरे—मणि—माणिक्य
जड़े हैं, तुम्हारे
बंधन साधारण
हैं, दो कौड़ी
के हैं; उनके
कारागृह सोने—चांदियों
के होंगे, तुम्हारे
कारागृह
साधारण
मिट्टी—पत्थर
के बने हैं, बस इतना ही
फर्क है
अन्यथा कुछ
भेद नहीं है।
इंद्र
भी उतनी हीर्
ईष्या से जलता
है, जितनी से
तुम जलते हो।
हां, उसकीर् ईष्या और
ढंग की।
तुम्हारे धन सेर्
ईष्या नहीं
करता—तुम
कितने ही धनी
हो जाओ, इंद्र
को चिंता नहीं
होती। उस पर
अनंत, उसके
पास अनंत धन
है, तुमसे
क्या चिंता
लेनी!
तुम्हारे पास
कितना ही हो, गिनती के
भीतर रहेगा, गिनती के
बाहर नहीं हो
सकता। तुम बड़े
पद पर पहुंच
जाओ, इंद्र
को चिंता नहीं
होती।
क्योंकि उससे
ऊपर और
सिंहासन
किसका है? लेकिन
इंद्र चिंतित
हो जाता है तपस्वियों
से, ध्यानियों
से। कहते हैं,
उसका
सिंहासन
डोलने लगता
है। घबड़ा जाता
है! जब भी कोई
तपस्वी
गहराइयों में
उतरने लगता है,
इंद्र को घबड़ाहट
होती है कि
कहीं यह
तपस्वी इतनी
तपश्चर्या न कर
ले कि इंद्र
होने की
क्षमता जुटा
ले—अन्यथा
मेरा पद गया।र्
ईष्या से जल
उठता है, भभक
उठता है। और
जो भी कर सकता
है तपस्वी को
भ्रष्ट करने
के लिए, वे
सारे उपाय
करता है।
भेजता है
उर्वशी को, अप्सराओं को, सब
तरह के
प्रलोभन खड़े
करता है—किसी
तरह तपस्वी
डोल जाए अपनी
तपश्चर्या
से।
यह तो
वही खेल हुआ, जो संसार
में चलता है।
इस खेल में और
उस खेल में
कुछ भेद न
हुआ। देवता भी
तरसते हैं कि
कोई बुद्धत्व
को उपलब्ध व्यक्ति
कहे कुछ, तो
माना कि हम
सुख के सपने
देख रहे हैं, मगर हैं तो
सपने ही, हम
भी जागना
चाहते हैं।
देवता
बेचैन हो गए।
बुद्ध चुप हैं, कहीं ऐसा तो
न होगा कि वे
चुप ही रह
जाएंगे। तो इंद्र
अपने सारे
दरबार को लेकर
बुद्ध के
चरणों में
उपस्थित हुआ
और उसने
प्रार्थना की
कि आप बोलें।
सदियों बाद यह
सौभाग्य घटता
है, कोई
बुद्ध होता है,
आप क्या
बोलेंगे नहीं—हम
सात दिन से
प्रतीक्षा
करते हैं कि
आपकी अमृतवाणी
घोलें।
लोग प्रतीक्षातुर
हैं, अंधेरे
में भटक रहे
हैं, अंधे
हैं, इनको
आंखें दें, इनको मार्ग
दें, दिशा
दें। कहते हैं,
बुद्ध ने
कहा, व्यर्थ
है बोलना, क्योंकि
जो मैंने जाना,
पहली तो बात
कहा नहीं जा
सकता। कहूंगा
तो सत्य के
साथ अन्याय
होगा। दूसरी
बात, मैं
लाख कहूं, कौन
समझेगा? और
जो मेरे
शब्दों को समझ
सकता है, वह
मेरे बिना
शब्दों के भी
पहुंच जाएगा।
उसकी चिंता
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। मेरे
शब्दों को वही
समझ सकता है
जो समझने के
करीब ही आ गया,
बिलकुल
किनारे पर खड़ा
है—एक कदम और!
वह उठा ही
लेगा एक कदम, कुछ मेरे
बोलने से
उठाएगा, ऐसा
नहीं। मेरा
बोलना कारण
नहीं बनेगा, हो सकता है
निमित्त हो जाए।
शायद थोड़े
जल्दी उठा ले
कदम। मगर देर—अबेर
से क्या फर्क
पड़ता है इस
अनंत काल में?
आज कि कल कि
परसों, जिसको
पहुंचना है वह
पहुंच ही
जाएगा। और
जिसको नहीं
पहुंचना है, वह मेरे
शब्दों को भी
गलत समझेगा।
आखिर शब्द लोगों
को पता तो हैं
ही। शास्त्र
मौजूद हैं। शास्त्रों
को लोग नहीं
समझे, उनसे
भी उन्होंने
जंजीर ढाल लीं,
मेरे
शब्दों से भी
ढाल लेंगे। तो
पहले तो जो कहूं,
वह कहने में
आता नहीं; दूसरा
अगर मेहनत भी
करूं कहने की,
तो वह समझने
में नहीं
आएगा। मुझे
क्यों परेशान
करते हो? मुझे
चुप ही रह
जाने दो।
लेकिन
इतनी आसानी से
देवता छोड़ भी
न सकते थे।
उन्होंने
मंत्रणा की
आपस में, सोच—विचार
किया, कि
बुद्ध को किसी—न—किसी
तरह बुलवाना
तो होगा ही।
यह वाणी, यह
अमृतवाणी
बिखरनी
ही चाहिए। फूल
खिले और सुगंध
हवाओं तक न
पहुंचे, दीया
जले और रोशनी
अंधेरे में
भटकते लोगों
तक न पहुंचे, यह तो नहीं
हो सकता, कुछ
करना ही होगा।
उन्होंने खूब
सोच—विचार
करके फिर
बुद्ध से कहा
और एक ऐसा
तर्क दिया कि
बुद्ध को राजी
हो जाना पड़ा।
उन्होंने
कहा कि आप ठीक
कहते हैं, जो नहीं कहा
जा सकता उसे
कहना मुश्किल
है। असंभव है।
हम स्वीकार
करते हैं।
लेकिन इशारे
तो किए जा
सकते हैं।
गूंगा न बता
सके कि गुड़ का
स्वाद कैसा है,
गुड़ तो बता
सकता है कि यह
रहा! उंगली से
इशारा तो कर
सकता है।
गूंगा भी पानी
पीने के लिए
हाथ बांधकर
इशारा कर देता
है कि मुझे
प्यास लगी है,
तो लोग समझ
जाते हैं, उसकी
अंजुली को
पानी से भर
देते हैं।
गूंगा भी बोल
लेता है। नहीं
शब्दों से बोल
पाता, तो भावभंगिमा
से बोल लेता
है। आपकी
आंखें, आपका
उठना, बैठना,
आपकी
मुद्राएं!
नहीं कह
सकेंगे आप
शब्दों से, कोई चिंता
नहीं, लेकिन
शब्दों के
कारण लोग आपके
पास आ जाएंगे,
आपका
सान्निध्य कह
सकेगा। शब्द
समझने लोग आएंगे
और आपको समझकर
लौट जाएंगे।
और हम
भी स्वीकार
करते हैं कि
सौ में से कोई
एक समझेगा।
लेकिन एक भी
समझ ले तो
क्या कम है!
जहां अनंत—अनंत
लोग अंधेरों
में भटक रहे
हों, वहां अगर
सौ में से एक
भी समझ ले, तो
क्या कम है!
फिर एक और
किसी एक को
समझा सकेगा।
ऐसे शृंखला
बनती है
बुद्धों की।
दीए से दीए
जलते चले जाते
हैं। ज्योति
से ज्योति जले।
और आप
ठीक कहते हैं
कि कुछ हैं, जो पहुंच ही
गए हैं, आप
न भी बोलेंगे
तो पहुंच
जाएंगे। यह सच
है। और कुछ
हैं कि आप लाख
सिर पटकें,
तो भी नहीं
पहुंचेंगे—यह
भी सच है। मगर
दोनों के बीच
में भी कुछ
लोग हैं, आप
उसे इनकार
नहीं कर
सकेंगे।
दोनों के बीच
में भी कुछ लोग
हैं, जो आप
बोलेंगे तो
पहुंच जाएंगे
और आप नहीं
बोलेंगे तो
चूक जाएंगे।
बुद्ध
को स्वीकार
करना पड़ा कि
इशारे
करूंगा। जरूर
बीच में कुछ
लोग हैं, उनके
लिए बोलूंगा।
तुम
पूछते हो, उपलब्धि की
क्या अनुभूति
होती है? आज
तक किसी ने
कही नहीं।
इशारे किए
हैं। इशारे
मैं भी कर रहा
हूं। कुछ
इशारे खयाल
में रखना।
उस
अनुभव में मैं
नहीं होता, अनुभव करने
वाला नहीं
होता, मात्र
अनुभव होता
है। बस उलझन
शुरू हो गई!
तर्क कहेगा, यह कैसे हो
सकता है? बिना
अनुभोक्ता के
अनुभव कैसे? मगर जैसा है
वैसा ही कह
रहा हूं।
अनुभोक्ता
नहीं होता, बस अनुभूति
होती है।
कुछ
इशारे समझो।
कभी—कभी, अगर तुम्हें
नृत्य में रस
आता हो तो ऐसे
क्षण तुमने
जाने होंगे, जब नर्तक
मिट जाता है
और नृत्य ही
होता है।
पश्चिम
का बहुत बड़ा
नर्तक निजिंस्की
कभी—कभी ऐसे
क्षणों में
पहुंच जाता
था। तब वह ऐसी
छलांग लगाता
था, जो लग
नहीं सकती—पृथ्वी
के
गुरुत्वाकर्षण
के कारण लग
नहीं सकती।
वैज्ञानिक
चकित थे! वैसी
छलांग...ऐसा
लगता था जैसे
पंख लग गए हों
उसको और
पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण,
कशिश काम न
कर रही हो। और
फिर जब वह
छलांग लगाता
था इतनी ऊंची
कि भरोसा न आए,
उससे भी बड़ा
चमत्कार यह था
कि जब वह
वापिस लौटता
था, तो ऐसे
ही नहीं लौटता
था जैसे पत्थर
धड़ाम से
गिरता है, जैसे
तुम उछलोगे
तो धड़ाम
से गिरोगे
वापिस, ऐसे
नहीं, ऐसे
उतरता था जैसे
किसी पक्षी का
पंख, डोलता,
हवा में
मस्त, धीरे—धीरे,
आहिस्ता आहिस्ता
शनैः—शनैः!
उसका उतरना भी
अदभुत था।
जैसे उसमें
कोई वजन न हो।
जैसे वह भारविहीन
हो गया हो। भारशून्य
हो गया हो।
और जब
भी निजिंस्की
से पूछा जाता
कि तू यह करता
कैसे है, तो निजिंस्की
कहता, मैंने
करने की जब भी
यह कोशिश की
है, यह
नहीं होता।
बहुत बार
मैंने करने की
कोशिश की है, असफल रहा
हूं। यह तो
होता है कभी—कभी,
जब मैं नहीं
होता; जब
नृत्य ऐसे गति
पकड़ लेता है, ऐसी त्वरा
और तीव्रता और
ऐसी समग्रता,
जब नृत्य ही
नृत्य रह जाता
है और निजिंस्की
बचता ही नहीं,
बस तब जैसे
तुम चकित होकर
देखते हो कि
क्या हुआ, ऐसे
ही मैं भी
चकित, विस्मयविमुग्ध रह जाता हूं!—क्या
हुआ? कैसे
हुआ? किसने
किया? मैं
तो नहीं हूं
करने वाला, इतना
निश्चित है।
मैं तो होता
ही नहीं उस
क्षण में। बस
एक आश्चर्य रह
जाता है। एक
आश्चर्य की
लकीर छूट जाती
है। एक स्मृति
रह जाती है।
मगर यह घटना
घटती है तभी
जब मैं नहीं
होता।
अगर
तुम गीत गाना
जानते हो, तो कभी
तुमने जाना
होगा कि गायक
मिट जाता है और
गीत ही रह
जाता है। अगर
तुम कवि हो, तो तुमने
जाना होगा कि
कभी कवि नहीं
होता, तभी
कविता उतरती
है। मगर यह
अनुभव तो सभी
के नहीं
होंगे। सभी
नर्तक नहीं
हैं।...होना तो
चाहिए सभी को
नर्तक। अभी भी
आदिवासी तो
सभी नाचते
हैं। यह सिर्फ
सभ्य आदमी का
दुर्भाग्य है
कि वह नाच भूल
गया। और नाच के
भूलने के साथ
कुछ
आध्यात्मिक
विधा खो गई। कोई
आयाम खो गया।
मोर नाचते
हैं। ऐसे ही
सारे मनुष्य
आदिम अवस्था
में नाचते
रहे। अब भी
नाचते हैं
जंगल के
आदिवासी। और
उस नृत्य से
उनके जीवन में
कुछ घटित होता
है जिससे तुम
वंचित
हो।...गीत गाते
भी सभी लोग
नहीं, बांसुरी
भी सभी नहीं
बजाते, सितार
के तार भी सभी
नहीं छेड़ते—हमने
तो अपने जीवन
को बड़ा
संकीर्ण कर
लिया है और
क्षुद्र कर
लिया है; बस
रुपए गिनते
रहो, रुपए
खनखनाते रहो,
तिजोड़ी भरते रहो! और
यही तिजोड़ी
तुम्हारी
छाती पर वजन
होकर ले डूबेगी—इसलिए
हमारे जीवन
में वे सारे
क्षण तिरोहित
हो गए हैं, जहां
से तुम्हें
इशारा दिया जा
सके।
कभी
किसी को प्रेम
किया है? तो
प्रेम में
जरूर ऐसी घटना
घटती है जब
प्रेमी मिट
जाते हैं।
प्रेम होता है,
प्रेमी मिट जाते
हैं। दुई मिट
जाती है। एक
तरंग रह जाती
है, अपूर्व,
अतिशय।
अघटनीय घटता
है। मगर प्रेम
भी दुनिया से
खो गया है।
प्रेम की जगह
हमने नकली
व्यवस्था
विवाह की खड़ी
कर ली है। हम
प्रेम होने ही
नहीं देते।
डर के
कारण हम बाल—विवाह
कर देते थे।
छोटे—छोटे
बच्चों का
विवाह कर देते
थे। क्योंकि
बड़े होंगे, कहीं प्रेम
इत्यादि में
फंस जाएं इसके
पहले ही झंझट
खतम कर दो! न
रहेगा बांस, न बजेगी
बांसुरी।
छोटे—छोटे
बच्चे, जिनको
कंधों पर ले
कर बारात जा
रही है; जिनको
अभी उठने—बैठने
की तमीज नहीं
है, इन
छोटे—छोटे
बच्चों को
विवाह करके हम
प्रेम से बचने
का आयोजन कर
रहे थे। एक
नैसर्गिक अनुभव,
एक रोमांचक
अनुभव, उससे
वंचित कर रहे
थे।
न
प्रेम, न
नृत्य, न
संगीत, न
गीत, सब
छीन लो—सब छीन
ही लिया है—फिर
आदमी पूछता है,
उपलब्धि की
क्या अनुभूति
होती है? अब
किस ढंग से
कहो!
झेन
फकीर रिंझाई
को जापान के
सम्राट ने
बुलाया था कि
कुछ उपदेश दें, बुद्ध—धर्म
का कुछ उपदेश
दें। और
रिंझाई ने
क्या किया, मालूम? गया,
खड़ा हुआ मंच
पर, झोली
में बांसुरी
निकाली, बस
एक स्वर
बांसुरी में
फूंका, एक
बांसुरी की
टेर दी, झोली
में बांसुरी
वापिस रखी, उतर कर
दरवाजे के
बाहर हो गया।
सम्राट तो समझ
ही नहीं पाया
कि इतनी जल्दी
यह क्या हुआ? और उपदेश
कहां? बुद्ध
धर्म का उपदेश
कहां? वजीर
से पूछा कि यह
आदमी पागल तो
नहीं है? कितने
दिन से
प्रतीक्षा की
थी उपदेश की, और यह क्या
मामला हुआ? या तो यह
पागल है, या
मजाक कर रहा
है। यह
बांसुरी पर एक
स्वर फूंकना—और
सिर्फ एक स्वर—और
बांसुरी रखी
झोले में और
वापिस दरवाजे
के बाहर ही हो
गया! आदमी
जाते वक्त
नमस्कार भी
करता है, कहता
है कि अब जाता
हूं—मगर कुछ
भी नहीं! यह
कैसा व्यवहार!
बूढ़े वजीर ने
कहा, आप
समझे नहीं, उसने बुद्ध
धर्म का उपदेश
दे दिया।
संक्षिप्त, सूत्रबद्ध।
बांसुरी बजा
दी, और
इतना कह दिया
कि जैसे
बांसुरी
बजाने में मैं
खो गया हूं इस
क्षण—काश आप
उसकी तरफ
देखते, तो
आप पाते कि
भीतर शून्य है,
शून्य
बांसुरी बजा
रहा है, बजाने
वाला नहीं है,
तो आप बुद्ध
धर्म का अर्थ
समझ जाते।
इशारे
ही हो सकते
हैं। अनुभूति
तो तुम्हें
करनी ही होगी।
स्वयं करनी
होगी।
तुम
पूछते हो, कैसे साधक
जाने कि
वास्तव में
कुछ घट गया है?
जब सिरदर्द
होता है तो
कैसे जानते हो
कि सिरदर्द हो
रहा है?
मैं
स्कूल में
पढ़ता था। एक
मुसलमान
शिक्षक थे।
शायद अब भी
जीवित हैं, रहमुद्दीन उनका नाम था,
प्यारे
आदमी थे। मगर
एक बात में
बहुत सख्त थे।
किसी तरह उनसे
कोई बहाने से
छुट्टी लेना
मुश्किल था।
छुट्टी असंभव
ही थी, वह
बिलकुल
दुश्मन ही थे
छुट्टी के। न
खुद कभी छुट्टी
लेते थे, न
किसी
विद्यार्थी
को छुट्टी
लेने देते थे।
और मुझे आए
दिन छुट्टी की
जरूरत रहती।
तो मैं कभी
कहूं कि पेट
में दर्द, कभी
कहूं कि सिर
में दर्द—उन्होंने
कहा कि सुनो!
मैं बुखार को
मानता हूं, मैं सिरदर्द
और पेट दर्द
को मानता ही
नहीं। क्योंकि
बुखार हो तो
मैं कम—से—कम
तुम्हारा हाथ हाथ में
लेकर देख तो
सकूं कि है
बुखार, अब
वह पेट दर्द
और सिरदर्द
मैं कैसे समझूं
कि हो रहा है
असली में कि
नहीं हो रहा
है? मैंने
उनसे कहा कि
आप जब पूछते
ही हैं, तो
मैं आपसे
पूछता हूं:
कभी आपको
सिरदर्द हुआ है
या नहीं? पेट
दर्द कभी हुआ
है कि नहीं? उन्होंने
कहा कि हुआ
है। तो मैंने
कहा कि आप क्या
प्रमाण दे
सकते हैं उसके
होने का? आप
मानें या न
मानें, मुझे
सिरदर्द हो
रहा है और
छुट्टी
चाहिए। और प्रमाण
क्या हो सकता
है सिरदर्द का?
कोई हो आपके
पास जांच की
व्यवस्था तो
कर लें।
उन्होंने
पीछे मुझे
बुलाया और कहा
कि सुनो, तुम्हें
छुट्टी लेनी
हो, तो
मुझे पहले बता
दिया कर। यह
सिरदर्द और
पेट दर्द की
बीमारी अगर
फैल गई, तो
मैं झंझट में
पडूंगा! तुम
बात तो ठीक कह
रहे हो—हालांकि
मैं पक्का
जानता हूं कि
तुम्हें सिर दर्द
नहीं है, मगर
यह भी सिद्ध
नहीं किया जा
सकता—तुम्हें
छुट्टी चाहिए,
यह मैं
जानता हूं।
मगर यह बीमारी
फैलनी नहीं चाहिए।
तुम मुझसे
चुपचाप पहले
ही कह दिया
करो, और
तुम्हें जब
छुट्टी लेनी
हो ले लिया
करो, मगर
यह सिरदर्द और
पेट दर्द, यह
बात तुम
चालबाजी की कर
रहे हो!
क्योंकि इसमें
न कोई प्रमाण
हो सकता, न
कोई उपाय हो
सकता। डाक्टर
भी कुछ नहीं
कर सकता।
डाक्टर के भी
पास जाकर कहो
कि सिरदर्द हो
रहा है, तो
वह क्या करे? जांचने का कोई उपाय
नहीं।
तुम्हें
लेकिन जब
सिरदर्द होता
है तो पता चलता
है या नहीं? तब तुम्हें
स्पष्ट पता
चलता है कि हो
रहा है। दुनिया
माने कि न
माने, प्रमाण
हो कि न हो।
ठीक यह अनुभव
भी ऐसा ही स्वतः
प्रमाण है।
तुम यह
पूछते हो, साधक कैसे
जाने कि
वास्तव में
कुछ घट गया है?
योगेश, जब
घटता है तो
कोई उपाय ही
नहीं होता
नहीं जानने
का। जब अंधे
को आंख खुलती
है और रोशनी
दिखाई पड़ती है,
तो क्या तुम
सोचते हो अंधा
पूछेगा कि
अंधा कैसे
जाने कि अब
आंख खुल गई और
रोशनी दिखाई
पड़ने लगी? जब
दिखाई ही पड़ने
लगी, तो यह
प्रश्न नहीं
उठता। यह
प्रश्न
इसीलिए उठ रहा
है कि तुम अनुभव
में तो उतरने
की फिक्र में
कम हो, पहले
से ही सब
निश्चय कर
लेना चाहते हो—कैसे?
यह
काल्पनिक
प्रश्न है, दार्शनिक
प्रश्न है।
ऐसे प्रश्नों
का कोई मूल्य
नहीं होता।
तुम यह पूछ
रहे हो कि
मेरा जब किसी
से प्रेम हो
जाएगा तो मैं
कैसे जानूंगा
कि प्रेम हो
गया? जानोगे,
बिलकुल
बेफिक्र रहो! रोयां—रोयां
जानेगा कि
प्रेम हो गया।
हृदय की धड़कन—धड़कन
जानेगी कि
प्रेम हो गया।
और सारी
दुनिया कहेगी
कि पागल हो गए
हो, कुछ
नहीं हुआ, कल्पना
कर रहे हो, तो
भी तुम मानोगे
नहीं।
क्योंकि कौन
अपने प्रत्यक्ष
प्रमाण के
सामने दूसरों
का प्रमाण
मानने जाता
है।
दुनिया
माने या न
माने, जब
घटना घटती है
तो जानी ही
जाती है।
और यह
घटना तो इतनी
महान है, इतनी
विराट है, इतनी
अभिभूत कर
लेने वाली है—बाढ़
की तरह आती है,
सब दिशाओं
से आती है, रोशनी
की बाढ़, और
ऐसे भर जाती
है तुम्हारे
कोने—कोने में
प्राणों के, सब अंधेरे
को निकाल बाहर
कर देती है।
सब पीड़ा गई, सब दुख गए, सब चिंता गई;
अहंकार गया,
अहंकार से
बंधे हुए सारे
संताप, सारे
विषाद गए—कैसे
बच सकोगे
जानने से? इतनी
बड़ी घटना
घटेगी और
तुम्हें पता न
चलेगा?
लेकिन
अगर सिर्फ दार्शनिक
ढंग से पूछो, पहले से ही
पूछो, तो
अड़चन है। अभी
तुम काल्पनिक
रूप से कुछ
रहे हो, कैसे
साधक जाने कि
वास्तव में
कुछ घट गया है?
जब तक ऐसा
प्रश्न उठे, तब तक जानना—अभी
नहीं घटा है।
जब घटता है तो
कोई प्रश्न नहीं
उठते। घटना
इतनी बड़ी है
और इतनी स्वतः
सिद्ध है, स्वतः
प्रमाण है कि
जब घटती है तो
कोई शेष नहीं
रह जाता।
श्रद्धा, पूर्ण
श्रद्धा का
जन्म होता है।
और यह
भी तुम पूछते
हो कि कैसे वह
स्वनिर्मित कल्पना
से भिन्न
वास्तविकता
को जाने? वहां
तो कोई स्व
बचता नहीं, न कोई
कल्पना बचती
है—विचार ही
नहीं बचते, तो कल्पना कैसे
बचेगी; नींद
ही टूट गई, तो
सपने कैसे
बचेंगे—स्वयं
ही नहीं बचा, एक शून्य रह
जाता है। एक
गहन सन्नाटा,
एक निबिड़
सन्नाटा। और
उस सन्नाटे
में आनंद का
उत्सव है।
आनंद का रास।
आनंद की लीला।
जब
होगा, तब
तुम निश्चय ही
जान लोगे।
इसलिए बजाय इस
चिंता में
पड़ने के पहले
से कि हम कैसे
निर्णय
करेंगे, खोज
में लगो। हो
जाए, इसके
लिए तैयार
होओ। पात्र को
निर्मित करो,
परमात्मा
तो बरसने को
प्रतिपल राजी
है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, जन्मना, रोटी—रोजी
कमाना, बच्चे
पैदा करना और
फिर मर जाना—क्या
सही जिंदगी है?
नारायण
दास, भीड़ तो
इसी को जिंदगी
मानती है। मगर
भीड़ तो भेड़ों
की है। भीड़
में आदमी कहां?
यह जिंदगी
आदमी की
जिंदगी नहीं
है, भेड़ की जिंदगी
है। आदमी की
जिंदगी और
इतनी ओछी, इतनी
छोटी, इतनी
क्षुद्र, इतनी
तुच्छ, तो
फिर आदमियत और
पशुता में भेद
कहां रहा? पशु
भी जन्मते हैं
और पशु भी
रोटी—रोजी कमा
लेते हैं—और
तुमसे कहीं
ज्यादा अच्छी
तरह कमा लेते
हैं! आदमियों
में तो
तुम्हें
बेकार भी मिल
जाएंगे, पशु—पक्षियों
में बेकार भी
नहीं मिलते।
आदमियों को तो
रोजगार—दफ्तर
के सामने क्यू
में खड़े हुए
पाओगे, पशु—पक्षियों
का कहीं क्यू
भी नहीं लगा
दिखाई पड़ता।
आदमियों को तो
बड़े चिंतित
पाओगे कि कल
की रोटी भी आज
इकट्ठी कर लग,
पशुओं को कल
की चिंता भी
नहीं है। अजगर
करै न
चाकरी, पंछी
करै न काम;
दास मलूका
कह गए, सबके
दाता राम। पशु—पक्षी—पौधे
भी अपना भोजन
जुटा रहे हैं—मजे
से जुटा रहे
हैं। बिना काम
किए। राम दे
रहा है। यह तो
बिलकुल पशु से
भी नीचे गिर
जाना है—रोटी—रोजी,
जन्मना, फिर
बच्चे पैदा
करना...बच्चे
पैदा करना भी
कोई कला है?
कुछ
लोग यही सोचते
हैं कि बच्चे
पैदा करना बड़ी
कला है। जिनको
बच्चे पैदा
नहीं होते, वे बड़े
उदास। जैसे
उनकी जिंदगी
बेकार हो गई।
बड़े दुखी, कि
जैसे जीवन में
कोई सार्थकता
न रही। जो
कतार लगा देते
हैं बच्चों की,
वह बड़े अकड़
कर चलते हैं।
कि उन्होंने
एक महान कार्य
किया। यह तो
पशु—पक्षी भी
कर रहे हैं और
तुमसे ज्यादा
अच्छी तरह कर
रहे हैं। यह
तो कीड़े—मकोड़े
भी कर रहे हैं
और एक—एक साथ
हजार—हजार
अंडे रखने
वाले कीड़े—मकोड़े
हैं।
तुम्हारी
बिसात क्या!
साल—डेढ़
साल में एकाध
बच्चा तैयार
कर पाते हो।
यह भी कोई
रिकार्ड है? कीड़े—मकोड़े
काफी कर रहे
हैं। मच्छर
तुम्हें हरा
दें। एक—एक
मच्छर इतने
मच्छर पैदा
करता है कि
आदमी मार—मार
कर मरा जाता
है, मगर
मच्छर मरते
नहीं।
नहीं, यह तो जिंदगी
नहीं है। यह
तो जिंदगी का
धोखा है। यह
तो जिंदगी
नहीं, यह
तो बोझ है।
जिंदगी तो एक
नृत्य है।
जिंदगी तो एक
आनंद है।
जिंदगी तो एक
अपूर्व गीत है—अमृत
का, रस का।
जिंदगी
जी
नहीं
बर्दाश्त
की
ऊसर
में काश्त की!
कितनी
है बदतमीज
बिन
बोए उग आईं और—और
चीज
बो
करके हाय रक्त—बीज,
कैसी
शुरुआत की!
छत्त—छत्त
मेघ—रास
बरस
रही खेतों के
आस—पास प्यास
होठों
तक बजता अहसास,
हद
है उत्पात की!
जैसे
खुद हों सलीम
ताक
रहे मेढ़ों
से आक, ढाक,
नीम
जीभों
से लेप दी अफमी,
जब
भी दरख्वास्त
की!
आंखों
में आसमान
कहां
गए इस बारी
दीवारी कान
सांस—सांस
हो गई लगान,
क्या
सोचें बाद की!
जिंदगी
जी
नहीं
बर्दाश्त
की
ऊसर
में काश्त की!
यह तो
जिंदगी नहीं
है। यह तो ऊपर
में काश्त करना
है। जहां कुछ
पैदा न हो, वहां कुछ
पैदा करने की
चेष्टा है। यह
तो रेत से तेल निचोड़ने
की कोशिश है।
जिसे तुम
जिंदगी समझते
हो, वह
जिंदगी का
धोखा है। बस, किसी तरह
बर्दाश्त कर
रहे हो, यह
और बात है।
नृत्य कहां? उत्सव कहां?
आनंद कहां?
ढो रहे हो
एक बोझ, मौत
की प्रतीक्षा
है, कि
आएगी और मुक्त
कर देगी।
सिग्मंड
फ्रायड ने
मनुष्य के मन
के विश्लेषण
में जैसे—जैसे
गहराई तक खोज
की, वैसे—वैसे
पाया कि मनुष्य
के जीवन में
दो आकांक्षाएं
हैं। एक, जीवेषणा।
एक जीने की
आकांक्षा।
उसको उसने लिबिडो
कहा। और एक, मृत्वेषणा। मरने की
आकांक्षा।
उसे उसने
थानाटोस कहा।
मृत्यु
की आकांक्षा!
जब
पहली—पहली बार
उसने इस बात
की घोषणा की
कि मनुष्य के
भीतर मरने की
भी बड़ी तीव्र
आकांक्षा
छिपी पड़ी है, तो किसी को
भरोसा न आया।
आमतौर से कौन
मरना चाहता है?
किसी से भी
पूछो कि भई, मरना चाहते
हो? वह
झगड़ने को खड़ा
हो जाएगा, कि
आप बात कैसी
पूछते हो? यह
तो पूछा ही
नहीं जा सकता,
किसी से भी,
कितने ही
प्रेम से पूछो,
कितने ही
सम्मान से, कि आप मरना
चाहते हो? वह
एकदम झगड़ा
करने को खड़ा
हो जाएगा।
लेकिन फिर भी सिग्मंड
फ्रायड ठीक
कहता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसा आदमी
खोजना कठिन है
जिसने कभी—न—कभी
आत्महत्या का
विचार न किया
हो। खोजना ही
कठिन है ऐसा
आदमी, जो
कभी—न—कभी
सोचता न हो कि
अब बहुत हो
गया, थक गए,
अब तो मौत
उठा ले! अब तो
किसी तरह
छुटकारा हो
जाए इस बंधन
से!
यह तो
जिंदगी नहीं
है, जिससे
छूटने की
आकांक्षा
इतनी प्रगाढ़ता
से पैदा होती
है।
भारत
के तो सारे
धर्म आवागमन
से छुटकारा
पाने के लिए
ही चेष्टारत
हैं। कि हे
प्रभु, उठा
लो! फिर
दुबारा न
भेजना। बहुत
हो गया, अब
क्षमा करो!
दंड काफी दे
दिया! जीवन
दंड है। जरूर कहीं
चूक हो रही
है। कहीं भूल
हो रही है।
कहीं भयंकर
भूल हो रही
है। हम जन्म
को ही जीवन
समझ लेते हैं,
इसलिए भूल
हो रही है।
जीवन निर्मित
करना होता है,
सृजन करना
होता है।
जीवन
सिर्फ उन्हें
उपलब्ध होता
है, जो जीवन
को सृजित करते
हैं, जो
अपने भीतर
जीवन को
निखारते हैं।
जन्म के साथ
तो केवल अवसर
मिलता है जीवन
का, जीवन
नहीं। अनगढ़
पत्थर है जन्म,
मूर्ति
नहीं। फिर
छेनी उठाकर
मूर्तिकार
बनना होता है।
फिर तुम्हारे
ऊपर निर्भर है
कि तुम कैसी
मूर्ति
बनाओगे? कितनी
सुंदर मूर्ति
बनेगी? राम
की बनेगी, कि
कृष्ण की, कि
बुद्ध की; और
कितनी सुंदर
होगी, सब
तुम पर निर्भर
है। अनगढ़
पत्थर की तरह
तो तुम पैदा
होते हो, मगर
अधिक लोग अनगढ़
पत्थर की तरह
ही मर जाते
हैं, क्योंकि
जन्म को ही
जीवन समझ लेते
हैं—वहीं चूक
हो जाती है।
हृदय
आकाश होता है
जिसमें—
सूरज, चांद और
सितारे
चमकते
रहते हैं
जिनकी
रोशनी से हम
वस्तुओं
और रास्तों को
देखते हैं
लेकिन
सूरज!
हर
हृदय में नहीं
होता
उसे
उगाना पड़ता है
जब
हमें
मालूम
हो जाता है
कि
चंद्रमा और
सितारों की
ठंडी
रोशनी से
नहीं
तपेगी
हमारे
जिस्म की जमीन
जिसकी
नर्म तहों में
हमारा
दृष्टि—बीज
गुमसुम
पड़ा है।
एक तो
जीवन मिलता है
जन्म के साथ, वह केवल
कोरा अवसर है,
जैसे कोरी
किताब। फिर
तुम उसमें
गालियां लिखोगे
कि गीत लिखोगे?
तुम्हारी
कोरी किताब भगवदगीता
बन सकती है।
या हो सकता है,
खाता—बही
बनकर खतम हो
जाए। कोरी
किताब तो कोरी
किताब है। तुम
उसमें सुंदर
चित्र उभार
सकते हो, या
केवल स्याही
के धब्बे। या
यही भी हो
सकता है कि
खाली—का—खाली
छोड़ दो। ऐसे
ही जीओ, ऐसे ही मर
जाओ। न जीए
ठीक से, न
मरे ठीक से। न
तुम्हारे
जीवन में कोई
दम, न
तुम्हारे
मरने में कोई
दम। लेकिन
अधिक लोग तो
किताब को गंदा
करके मरते
हैं। उसमें
हिसाब—किताब
लिख जाते हैं।
मैं कलकत्ते
में मेहमान
होता था, एक
बहुत अदभुत
व्यक्ति थे, उनके घर पर।
उनमें खूबियां
कई थीं। एक
खूबी तो उनकी
यह थी कि वह
हिंदुस्तान
के सबसे बड़े सटोरिये
थे।...जुआरियों
से मेरी
दोस्ती जल्दी
बन जाती
है।...वह जुआरी
थे। उनकी खूबी
यह थी कि वह
खाता—बही नहीं
रखते थे। जब
उनके घर मैं
पहली बार मेहमान
हुआ, तब
मुझे पता चला
कि खाते—बही
क्यों नहीं
रखते? वह
अपने बाथरूम
की दीवालों पर
सब लिखे हुए
थे। सटोरिए
थे, खाता—बही
रख भी नहीं
सकते थे!
क्योंकि सब
जुए का मामला।
सब छिपा कर
चलाना पड़ता।
दान भी बहुत
करते थे।
जितना जुआ
खेलते थे, उतना
ही दान भी
करते थे। मगर
टैक्स
उन्होंने कभी
नहीं भरा।
खाते ही बही
नहीं, टैक्स
काहे पर
लगाओगे!
हालांकि दान
उन्होंने सबको
दिया। गांधी
को भी, नेहरू
को भी, सबको।
जब
नेहरू
प्रधानमंत्री
हुए और
उन्होंने कहा कि
अब कुछ टैक्स
वगैरह भी देने
का इंतजाम करो—उन
सज्जन का नाम
था: सोहनलाल
कोठारी—उन्होंने
कहा, टैक्स
जितना आप
मांगो उतना भर
दूं, मगर
खाते—बही नहीं
हैं मेरे पास।
और न मैं खाते—बही
रखूंगा कभी।
कौन झंझट में
पड़े!
मगर
उनके बाथरूम
में जब मैं
नहाया, तब
मैंने देखा
सारा बाथरूम
गुदा पड़ा है।
जगह—जगह लिखे
हुए हैं।
खाते—बही
में न लिखोगे
तो कहीं और लिखोगे।
लेकिन
तुम जो करोगे, वह लिख ही
जाएगा। वही
तुम्हारी
विधि बनती, वही
तुम्हारा
भाग्य; वही
तुम्हारी
नियति।
तुम
कोरी किताब की
तरह पैदा होते
हो। धन—पद—प्रतिष्ठा, इसी को
इकट्ठा करते
रहे, तो
फिर जिंदगी बस
ऐसी ही है
जैसी तुम पाते
हो—भीड़ की
जिंदगी! लेकिन
चाहो तो यह अनगढ़
पत्थर गढ़ा
जा सकता है।
यह कोरी किताब
गीता बन सकती,
कुरान बन
सकती है। आखिर
मुहम्मद ने
इसी कोरी किताब
को कुरान
बनाया। आखिर
कृष्ण ने इसी
कोरी किताब को
गीता बनाया।
तुम क्यों गीता
और कुरान पढ़ते
हो? तुम्हारी
क्षमता भी
उतनी ही है।
तुम क्यों नहीं
गीता और कुरान
बनते? तुम
क्यों नहीं
अपने भीतर उमगाते
कुछ गुलाब के
फूल; क्यों
नहीं चेतना की
झील में कमल
को तैराते? यह हो सकता
है। थोड़ा
ध्यान जगे,
थोड़ा प्रेम जगे, बस
क्रांति घटनी
शुरू हो जाती
है। फिर तुम भेड़ न रह
जाओगे।
नारायण
दास, अभी तो
जिंदगी तुम
जैसी कहते हो
ऐसी है। यह नाममात्र
की जिंदगी है।
थोथी। दो कौड़ी
की। लेकिन
संपदा मिल
सकती है।
हकदार तुम हो।
परमात्मा का
साम्राज्य
तुम्हारा है।
मगर कुछ
कुशलता जुटाओ।
कुछ अपनी
बुद्धिमत्ता
पर धार रखो।
परमात्मा बुद्धुओं
क लिए नहीं
है।
बुद्धिमत्ता
पर धार चाहिए।
प्रतिभा
चाहिए। और सब
प्रतिभा लेकर
पैदा होते हैं।
लेकिन तुम कभी
प्रतिभा पर
धार नहीं
रखते। जंग खा
जाती है
प्रतिभा, धूल
जम जाती है
तुम्हारे
दर्पण पर, तुम
ऐसे ही मर
जाते हो, व्यर्थ
की आपाधापी
में।
बाहर
जो कुछ भी मिल
सकता है, सब
व्यर्थ है।
सार्थक भीतर
है। बच्चे
जन्माते हो, उतने से काम
नहीं होगा।
अपने को जन्माओ।
स्वयं को जन्म
दो। मैं इस
स्वयं को जन्माने
की प्रक्रिया
को ही संन्यास
कहता हूं। यह
निर्णय है—अपने
को द्विज
बनाने का। यह
निर्णय है—शूद्र
से ब्राह्मण होने
का। जन्मते
सभी शूद्र की
भांति हैं, मरते थोड़े—से
लोग ब्राह्मण
की भांति हैं।
कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई नानक, कोई पलटू, बस थोड़े—से
लोग ब्राह्मण
होकर मरते
हैं। बाकी सब
लोग शूद्र की
तरह पैदा होते,
शूद्र की
तरह मरते हैं।
जन्म
से कोई
ब्राह्मण
नहीं होता।
जन्म से कोई
ब्राह्मण हो
नहीं सकता।
ब्राह्मण तो
वह, जो
ब्रह्म को
जाने। और
जिसने अपने को
ही नहीं जाना,
क्या खाक
ब्रह्म को
जानेगा।
अभी भी
समय है। अभी
भी देर नहीं
हो गई है। जागो, अपने को
जगाओ, धूल—धमास
पोंछो, कूड़ा—कर्कट हटाओ,
चित्त को
शून्य करो, चित्त को मौन
करो—मौन
कीमिया है।
मौन है कला—और
तुम निश्चित
ही मूर्ति बन
जाओगे। और तुम
मूर्ति बनो तो
जीवन मंदिर
है।
चौथा
प्रश्न:
भगवान, क्या आप पतियों
को सच ही निपट
गधे मानते हैं?
सूरजमल, मैं तो ऐसा
कैसे मान सकता
हूं! मेरे आधे
संन्यासी पति
हैं। इतने
संन्यासियों
को नाराज नहीं
कर सकता।
नहीं
फिर सभी पति
गधे भी नहीं
होते। और न
सभी गधे पति
होते हैं।
लेकिन पत्नियां
ऐसा ही समझती
हैं।
मैं तो
जो उस दिन कह
रहा था, वह
पत्नियों की
दृष्टि
तुम्हें समझा
रहा था। अपनी
तरफ से कुछ
नहीं कह रहा
था। पत्नियां
ऐसा ही समझती
हैं कि सब पति
गधे होते हैं।
कहतीं
नहीं! या कभी—कभी
प्रकरांतर
से कहती भी
है।
पति
पत्नी से कह
रहा है, अब
समझाओ अपने लाड़ले को! जिद्द कर
रहा है कि गधे
की पीठ पर
बैठकर सवारी
करेगा। पत्नी
ने कहा, तो बिठाकर
अपनी पीठ पर
घुमा क्यों
नहीं देते?
सीधे
नहीं कहती।
परोक्ष। सीधे
तो कहती है:
पति
परमात्मा। कि
मैं आपके
चरणों की दासी।
मगर भीतर
भलीभांति
जानती हैं कि
चरणों के दास।
पत्नियां
होशियार हैं।
कहती हैं
चरणों की दासी
और बनाए रखती
हैं चरणों का
दास।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी
चिट्ठी लिख
रही थी।
चिट्ठी पूरी
हुई तो उसके
बेटे ने कहा
कि लाओ, मम्मी,
मैं जाकर
पोस्ट आफिस
डाल आऊं। उसने
कहा कि नहीं
बेटा, देखते
नहीं, बाहर
मूसलाधार
वर्षा हो रही
है। ऐसे में
तो गधे भी छिप
जाते हैं। सड़क
पर गधा तक भी
दिखाई नहीं दे
रहा है, कुत्ते
तक दिखाई नहीं
दे रहे हैं।
ऐसे धुआंधार
पानी में और
तू चिट्ठी
डालने जाएगा?
नहीं, ठहर!
तेरे पापा को
आने दे, वह
डाल आएंगे।
चंदूलाल
की पत्नी
कविता करती
है। कवि—सम्मेलन
है और चंदूलाल
की पत्नी
कविता पढ़ रही
है, और बड़ी हूट की जा
रही है। लोग
शोरगुल मचा
रहे हैं, जूते
पटक रहे हैं, हू—हल्ला कर
रहे हैं। चंदूलाल
भी पीछे से
खड़े बहुत
बेचैन हो रहे हैं।
वह बार—बार
पीछे से कहते
हैं, अपनी
पत्नी से कि
मुन्नू की मां,
अरे, वह
कविता क्यों
नहीं पढ़तीं—गधे
के सिर पर
कितने सींग? हास्य—रस की
कविता है। चंदूलाल
सोच रहे हैं
कि वह कविता पढ़े यह, तो
अभी प्रभाव बढ़
जाए, अभी
लोग मस्त हो
जाएं; यह
हू—हल्ला, शोर—शराबा,
हूटिंग बंद
हो जाए। मगर
पत्नी परेशान
है हूटिंग से
और साथ में
परेशान है चंदूलाल
की इस आवाज से—बार—बार
वह कह रहे हैं
पीछे से:
मुन्नू की मां,
अरे, वह
कविता क्यों
नहीं पढ़तीं?
गधे के सिर
पे कितने सींग?
आखिर
बर्दाश्त क
बाहर हो गया
मुन्नू की मां
के और मुन्नू
की मां ने कहा
कि मुन्नू के
पापा, जरा
खड़े हो जाओ, यहां से
मुझे दिखाई
नहीं पड़ता।
सिर ही दिखाई
नहीं पड़ता तो
गिनती कैसे
करूं कि गधे
के सिर पर कितने
सींग?
ऐसे
परोक्ष।
प्रत्यक्ष
नहीं।
मैं तो
पत्नियों का
दृष्टिकोण
समझा रहा था।
लगता है सूरजमल
को दुख हुआ।
पति होंगे। और
सोचा होगा, यह क्या बात
हुई है? पति
और गधे! पति को
तो शास्त्र
परमात्मा
कहते हैं। पतियों
ने ही लिखे
होंगे
शास्त्र! जरा
पत्नियों से पूछकर
लिखे होते।
सच तो
यह है कि पति
और पत्नी, ऐसा नाता
बनाना ही एक
तरह की मूढ़ता
है। प्रेम ठीक,
पर्याप्त, नैसर्गिक।
बाकी नाते—रिश्ते
जो हम बनाते
हैं, वह
व्यावहारिक, सामाजिक, कृत्रिम।
संस्थाएं हैं
वे, उनका
कोई बहुत
मूल्य नहीं
है।
और
उनकी हानि तो
स्पष्ट है।
जैसे
ही तुमने किसी
स्त्री को
अपनी पत्नी
समझा कि तुम
उसकी तरफ
देखना बंद कर
देते हो। तुम
मान ही लेते
हो कि वह
तुम्हारी चीज—वस्तु।
कहते हैं:
स्त्री—धन।
इससे ज्यादा
और अपमानजनक
शब्द क्या
होगा? स्त्री
को और धन! और
जैसे ही कोई
किसी को पति
मान लेता, बस
बात स्वीकृत
हो गई। जैसे
एक पक्का बंधा
हुआ सेवक मिल
गया। अब इस पर
निर्भर रहा जा
सकता है।
प्रेम
तो महिमा देता
है एक—दूसरे
को। और यह पति—पत्नी
का नाता सारी
महिमा छीन
लेता है। पति—पत्नी
निरंतर कलह
करते रहते
हैं। झगड़ते
ही रहते हैं।
एक—दूसरे के
गले के पीछे
पड़े रहते हैं।
यह किस तरह का
प्रेम है, जिसमें से
कलह ही उपजती
है! और जो जीवन
में केवल
विषाद—ही—विषाद
लाता है!
दिखावा
जरूर हम और
करते हैं।
पति—पत्नी
लड़ रहे हों और
कोई पड़ोसी आ
जाए, एकदम झगड़ा
शांत हो जाता
है, पत्नी
मुस्कुराने
लगती है, पति
प्रेम से
बातें करने
लगते हैं—अभी
एक क्षण पहले
मारपीट की
नौबत थी!
पड़ोसियों
को हम एक
चेहरा दिखाते
हैं। एक धोखा
बांधे रखते
हैं। इस धोखे
के कारण
दुनिया में
बड़ी भ्रांति है।
प्रत्येक
परिवार यही
सोचता है कि
दूसरे परिवार
बड़े शांति और
प्रेम से रह
रहे हैं। दुख में
तो हमीं
हैं। भूल में
तो हमीं
हैं। मगर जिस
तरह तुम
दूसरों को
धोखा दे रहे हो, वह भी
तुम्हें धोखा
दे रहे हैं।
इस जगत
में लोगों के
चेहरे दो हैं।
एक उनका असली
चेहरा है, जो वे कभी
नहीं दिखाते।
और एक उनका
नकली चेहरा है,
वह दिखाते
हैं। इस नकली
चेहरे के कारण
प्रत्येक
व्यक्ति
राजनैतिक हो
गया है।
मैंने
सुना है, होली
के दिन थे और
गांव के लोगों
ने नेताजी को पकड़
लिया—गांव के
नेताजी। दिल
में तो बहुत
दिन से लगी थी
कि नेताजी को
ठिकाने लगाना
है—नेताजी को
कौन ठिकाने
नहीं लगाना
चाहता! नेताजी
की अकड़
बर्दाश्त के
बाहर हो रही
थी गांव को।
तो दिल खोलकर
लोगों ने
नेताजी के
मुंह पर रंग
नहीं, डामल
पोता। दिल
खोलकर डामल
पोता! और
नेताजी भी एक
पहुंचे हुए
नेताजी! कि वे खीसें निपोर
कर हंसते ही
रहे! लागों
ने भी कहा: है
पहुंचा हुआ, है सिद्धपुरुष,
है योगी! कि
हम डामल पोत
रहे हैं, नालियों
का कीचड़ पोत
रहे हैं इसके
चेहरे पर, मगर
इसका मुंह है
कि हंस ही रहा
है!
सांझ
को जरा वह
देखने गए लोग
पास—पड़ोस के
कि क्या हालत
हुई? क्योंकि
डामल ऐसा पोता
था उन्होंने
कि महीना भर
तो छूट ही
नहीं सकता था।
लेकिन देखा तो
नेताजी बैठे
हैं, चेहरा
बिलकुल साफ—सुथरा,
न कहीं डामल
का कोई चिह्न
है, न कुछ।
तो वे चकित
हुए, उन्होंने
कहा कि नेताजी,
इतने जल्दी
आपने डामल
कैसे धो डाला?
नेताजी ने
कोने में पड़ा
हुआ मुखौटा
दिखलाया, कि
वह देखो, जिस
पर तुम डामल
पोत रहे थे, वह मेरा
असली चेहरा
नहीं है। वह
तो मैं बाहर पहनकर
जाता हूं।
प्रत्येक
व्यक्ति के
मुखौटे हैं।
पति—पत्नी
मुखौटे पहनकर
बाहर निकलते
हैं, मुखौटे
पहनकर बच्चों
के सामने
प्रगट होते हैं,
जब कोई नहीं
होता तब सब
मुखौटे उतार
देते हैं, तब
उनके असली चेहरे
दिखाई पड़ते
हैं। तब तुम
बड़े हैरान
होओगे कि
प्रेम तो कहीं
दूर कि ध्वनि
भी नहीं मालूम
होती। मनुष्य—जाति
बड़ी अप्रेम की
अवस्था में जी
रही है। और अप्रेम
की अवस्था
मनुष्य में मूढ़ता
पैदा करती है।
प्रेम
प्रतिभा लाता
है, प्रखार लाता है, चैतन्य
को जगाता है।
प्रेम तो
परमात्मा का
प्रसाद है।
लेकिन प्रेम
में जो लोग
जीते हैं, उनके
भीतर धूल जम
जाती है, जंग
खा जाती है, जीवन बोझ हो
जाता है।
इस तरह
की अब तक की
परंपरा रही
है।
और अब
तक आदमी ने
पृथ्वी को खूब
नर्क जैसा बना
डाला है।
भविष्य में
हमें किसी और
ढंग की व्यवस्था
खोजनी होगी। न
तो किसी को
पत्नी होने की
जरूरत है, न पति होने
की। प्रेमी
होना काफी है।
और अगर प्रेम
पर्याप्त
नहीं है तो
कोई और चीज
उसको पर्याप्त
कर सकती—कानून
का सहारा कमी
को पूरा नहीं
कर सकता।
लोग
साथ रह रहे
हैं कई कारणों
से। पत्नियां
इसलिए पतियों
के साथ हैं क्योंकि
उनको हमने
आर्थिक रूप से
बिलकुल ही पंगु
कर दिया है। न
शिक्षित होने
दिया सदियों
से, न इतनी
हिम्मत दी और
साहस दिया कि
वह समाज में खड़ी
हो सकें। पति
ने डर के कारण
कि कहीं पत्नी
किसी और के
प्रेम में न
पड़ जाए, उसे
घर में छिपा
कर रखा है।
उसे परदों की
ओट में छिपा
कर रखा है।
उसे समाज से
विदा ही कर
दिया है। उसको
घर के आंगन
में बंद कर
दिया है, कारागृह
दे दिया है—घर
क्या है, कारागृह
है! हां, कभी—कभी
उसको लेकर पति
निकलता है। वह
केवल सजावटी निकलना
है। कहीं किसी
के यहां शादी
हो रही है तो
चला जाता है, पत्नी भी
गहने इत्यादि
पहनकर
प्रदर्शनी
बनकर पहुंच
जाती है।
प्रदर्शनी भी
पति की ही है
वह। क्योंकि
वे जो गहने
इत्यादि हैं,
उससे पता
चलता है कि
पति कितना धन
कमा रहा है, कितना धनी
है। पत्नी तो
केवल एक
माध्यम है पति
के धन की
प्रदर्शनी
का। हां, कभी—कभी
सिनेमागृह
में और कभी—कभी
मंदिर में—मगर
ये सब
प्रदर्शनी—स्थल
हैं। जहां
पत्नी को अपनी
साड़ियां दिखलानी
हैं और अपने
गहने दिखलाने
हैं और पति को
अपनी पत्नी दिखलानी
है, और
पत्नी पर चढ़े
हुए गहने
दिखलाने हैं।
मगर अन्यथा
समाज से
स्त्रियों को
हमने बिलकुल
तोड़ दिया।
इतना तोड़ दिया
कि उनको मजबूरी
में पतियों
पर निर्भर
होकर रहना
पड़ता है। वह
कल्पना भी नहीं
कर सकतीं पति
से अलग होने
की।
यह
जबर्दस्ती
है। इस
जबर्दस्ती का
नाम प्रेम नहीं
है। प्रेम तो
तब जब कोई
स्वेच्छा के
साथ रहे। साथ
रहने के आनंद
के लिए साथ
रहे। हमने हजार
कानून बांध
दिए हैं।
विवाह करते समय
हम कोई कानून
नहीं
अटकाते...दो
आदमियों को विवाह
करना है, हम
एकदम तैयार, बैंडबाजा बजाने लगते
हैं। सब बड़े
उत्सुक; फूलमालाएं चढ़ाने
लगते हैं।
अजीब बात है!
और अगर किसी
को तलाक देना
है, तो
पुलिस और
अदालत और
कानून और वकील
और इतना लंबा
सिलसिला है कि
आदमी तीन—चार
साल उपद्रव, अदालतों के
धक्के खाने के
बजाय यह सोचता
है कि अब
पत्नी ही के
धक्के खाते
रहना बेहतर है,
कि पति के
ही धक्के खाते
रहना बेहतर
है। सार क्या
है इतने
उपद्रव में
पड़ने से? और
तलाक के बाद
पूरे समाज में
प्रतिष्ठा
गिरती है, सो
अलग। कि समझा
जाता है कि
तुम मनुष्यता
से नीचे गिर
गए। तलाक!
इतना अपमान कौन
सहे? झेल
लो, जिंदगी
कोई बहुत लंबी
थोड़े ही है, पचास साल तो
गुजर ही गए, बीस—पच्चीस
साल और जीना
है तो किसी
तरह गुजार
लेंगे—जब पचास
गुजार दिए तो
पच्चीस भी
गुजार देंगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी अपनी
पच्चीसवीं
सालगिरह मना
रहा था विवाह
की। पच्चीस
साल हो गए थे
विवाह हुए।
सारे मित्र
इकट्ठे, सभी
लोग हैरान हुए
कि वह आदमी
कहां गया? तो
उसका एक बहुत
निकट का मित्र
बाहर आया
खोजने, बगीचे में उसे
बैठे देखा—बड़ा
उदास बैठा था!
मित्र ने कहा,
उदास और तुम
और आज के दिन? शुभ घड़ी, पच्चीस
वर्ष विवाह के
पूरे हुए, हम
सब तो
तुम्हारे
स्वागत में
उत्सुक हुए
हैं भेंटें
लेकर और तुम
यहां बैठे हो?
उसने कहा कि
आज मैं जितना
दुखी हूं, उतना
संसार में कोई
आदमी दुखी
नहीं। मित्र
ने कहा, मैं
समझा नहीं। तो
उसने कहा कि
सुनो, तुम्हीं
कारण हो मेरे
दुख के। मित्र
और हैरान हुआ!
उसने कहा, हद
कर रहे हो, मैंने
क्या बुराई की
तुम्हारी? तो
उस पति ने कहा
कि आज से
पच्चीस साल
पहले जब मेरा
विवाह हुआ था,
विवाह के
पंद्रह दिन
बाद ही मैं
तुम्हारे पास गया
था, तुम
वकील हो, तुमसे
मैंने पूछा
था: अगर मैं
अपनी पत्नी को
मार डालूं
तो मेरा क्या
होगा? क्योंकि
पंद्रह दिन
में ही उसने
मुझे इस तरह सताया
था कि मैं उसे
मारने को
उतारू हो गया
था। तो तुमने
मुझे इतना डरवाया,
तुमने कहा
कि अगर मारोगे
तुम उसे, तो
पच्चीस साल कम—से—कम
सजा होगी। आज
मैं उदास हूं,
कि काश, मैंने
तुम्हारी बात
न मानी होती, तो आज में
जेल से मुक्त
हो गया होता!
आज स्वतंत्रता
की सांस लेता!
आज यह चांद, यह खुली रात,
यह तारे—आज
मुझसे ज्यादा
प्रसन्न आदमी
पृथ्वी पर दूसरा
नहीं होता।
मगर तुम, तुमने
मेरी जिंदगी
बरबाद की!
लोग
जेल से डर रहे
हैं, अदालत से
डर रहे हैं, कानून से डर
रहे हैं, पुलिस
वाले से डर
रहे हैं, समाज
से डर रहे
हैं। फिर
बच्चे पैदा हो
जाते हैं। फिर
बच्चों की
फिक्र। फिर
बच्चों का
मोह। फिर इनका
क्या होगा? इस तरह लोग
भय के कारण
बंधे हैं। सौ
मैं निन्यानबे
पति—पत्नी भय
के कारण बंधे
हैं। और जहां
भय है वहां
आनंद कहां? और जहां भय
है वहां
प्रतिभा का
जन्म कैसे
होगा?
भय
प्रेम से
विपरीत
अवस्था है। और
जिससे हम भयभीत
होते हैं, उससे हम
घृणा करते
हैं। और जिससे
हम भयभीत होते
हैं, उसको
हम दिखाते कुछ
और हैं, उसके
संबंध में
सोचते कुछ और
हैं।
अब तक
आदमी ने जो
जीवन
व्यवस्था
बनाई है, वह
मौलिक रूप से
गलत है। भय पर
खड़ी है। हमारा
धर्म भी भय पर
खड़ा है, हमारा
भगवान भी भय
पर खड़ा है, हमारे
मंदिर—मस्जिद
भी भय पर खड़े
हैं, हमारे
राष्ट्र, हमारे
राज्य भी भय
पर खड़े हैं, हमारे
परिवार, पति—पत्नी,
हमारे नाते—रिश्ते
भी भय पर खड़े
हैं—हमने भय
का एक संसार
बसाया है। और
अगर हम इस भय
में नर्क की
तरह सड़
रहे हैं, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
दुनिया
बदलनी है। एक
प्रेम का
संसार बनाना
है। जिस पर
कोई भय आरोपित
न किया जाए।
प्रेम से ही
सच्चा
परमात्मा
मिलता है।
प्रेम से ही
दो व्यक्तियों
के बीच वह
अपूर्व घटना
घटती है कि प्रेम
धीरे—धीरे प्रार्थना
बन जाता है और
परमात्मा का
द्वार बन जाता
है। प्रेम हो
तो दुनिया में
न हिंदू—मुसलमान—न
ईसाई के झगड़े, न उनकी
जरूरत। न
मंदिर—मस्जिद—गिरजे
के झगड़े, न
उनकी जरूरत।
प्रेम हो तो, न भारत, न
पाकिस्तान, न चीन, न
जापान देशों
की कोई जरूरत।
यह सारी
पृथ्वी एक हो।
और प्रेम हो, लोग लोग
जरूर साथ
रहेंगे। जरूर
लोग जोड़ों
में रहेंगे।
पुरुष
स्त्रियों को
प्रेम करेंगे,
स्त्रियां
पुरुषों को
प्रेम करेंगी,
लेकिन
प्रेम के कारण
साथ रहेंगे।
और तब गुणवत्ता
और होगी। तब
अहोभाव होगा
और परमात्मा
के प्रति एक
कृतज्ञता
होगी!
आखिरी
प्रश्न:
भगवान, मैं एक टूटा—फूटा
आदमी हूं, क्या
मेरे लिए भी
कोई आशा है? क्या मैं भी
कभी प्रकाश, प्रेम और
परमात्मा को
प्राप्त कर
सकूंगा?
विजयानंद, ऐसा स्मरण आ
जाए कि मैं एक
टूटा—फूटा
आदमी हूं, तो
यात्रा शुरू
हो गई। अज्ञान
का बोध हो, तो
ज्ञान का पहला
चरण उठ गया।
दुख की
प्रतीति होने
लगे, तो
दुख को छोड़ना
आसान—कठिन
नहीं।
इस
नदी की धार
में ठंडी हवा
आती तो है,
नाव
जर्जर ही सही, लहरों से
टकराती तो है।
एक
चिनगारी कहीं
से ढूंढ लाओ दोस्तो,
इस
दिए में तेल
से भीगी हुई
बाती तो है।
एक
खंडहर के हृदय—सी, एक जंगली
फूल—सी,
आदमी
की पीर गूंगी
ही सही, गाती
तो है।
एक
चादर सांझ ने
सारे नगर पर
डाल दी,
यह
अंधेरे की सड़क
उस भोर तक
जाती तो है।
निर्वसन
मैदान में
लेटी हुई है
जो नदी,
पत्थरों
से, ओट में, जाके बतियाती तो
है।
दुख
नहीं कोई कि
अब उपलब्धिो
के नाम पर,
और
कुछ हो या न हो, आकाश—सी छाती
तो है।
घबड़ाओ
मत। अगर यह
स्मरण आना
शुरू हो गया
कि मैं एक टूटा—फूटा
आदमी हूं, एक जीर्ण—जर्जर
नाव हूं, तो
घबड़ाओ मत,
जीर्ण—जर्जर
नाव भी उस पर
जा सकती है, सिर्फ इस
किनारे को
छोड़ने की
हिम्मत चाहिए,
छाती
चाहिए। पूछते
हो, क्या
मेरे लिए कोई
आशा है? विजयानंद,
पूरी आशा
है।
एक
चिनगारी कहीं
से ढूंढ लाओ दोस्ता,
इस
दिए में तेल
से भीगी हुई
बाती तो है।
सब कुछ
है। जरा—सी
चिनगारी
चाहिए। वह
चिनगारी मैं
देने को राजी
हूं। उस
चिनगारी के
कारण ही तो यह अग्निवेश
संन्यासी के
लिए चुना है।
उस चिनगारी की
प्रतीक की तरह
ही। यहां एक
आग जल रही है—प्रेम
की अग्नि—इस
अग्नि के पास
अपने दीए को
ले आओ, तुम
भी जल उठोगे।
एक
खंडहर के हृदय—सी, एक जंगली
फूल—सी,
आदमी
की पीर गूंगी
ही सही, गाती
तो है।
एक
चादर सांझ ने
सारे नगर पर
डाल दी
यह
अंधेरे की सड़क
उस भोर तक
जाती तो है।
घबड़ाओ
न, उदास
नहीं, हताश
नहीं होओ, कितनी
ही अंधेरी रात
हो, सुबह
तक रास्ता
जाता है।
अंधेरी रात का
रास्ता सुबह
तक जाता ही
है। और रात
जितनी अंधेरी
हो जाती है, सुबह उतना
करीब है। रात
सुबह की
दुश्मन नहीं है।
रात के गर्भ
में ही सुबह
का बालक पलता
है, पोषित
होता है।
आशा
रखो। आशा को
प्रज्वलित
रखो। आश्वासन
रखो। ऐसा कोई
भी मनुष्य
नहीं है
पृथ्वी पर जो
परमात्मा को न
पा सके। ऐसा
कोई पाप नहीं
है, जो
तुम्हें
परमात्मा से
सदा के लिए
रोक ले। ऐसी
कोई दुर्बलता,
निर्बलता
नहीं है, जो
परमात्मा के
और तुम्हारे
मार्ग में सदा
के लिए बाधा
बन जाए।
तुम्हारे
भीतर परमात्मा
छिपा है, अपनी
प्रगाढ़
ऊर्जा के लिए।
खोजोगे, मिलन
सुनिश्चित
है। बस खोज
चाहिए।
मानकर
मत बैठो। खोज
पर निकलो।
विश्वास मत
करो, अन्वेषण
करो। सत्य के
शोधक बनो।
जरूर सुबह तक पहुंच
जाओगे। सुबह
तक पहुंचना
सुनिश्चित है।
आज
इतना ही।
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