दिनांक; शुक्रवार, 27 जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र—
टोप—टोप
रस आनि
मक्खी मधु लाइया।
इक लै गया निकारि
सबै दुख पाइया।।
मोको
भा बैराग ओहि
को निरखिकै।
अरे
हां, पलटू
माया बुरी
बलाय तजा
मैं परिखिकै।।
फूलन सेज बिछाय महल के रंग में।
अतर
फुलेल लगाय
सुनदरी
संग में।।
सूते
छाती लाय
परम आनंद है।
अरे
हां, पलटू
खबरि पूत
को नाहिं काल
को फंद है।।
खाला
के घर नाहिं, भक्ति है
राम की।
दाल
भात है नाहिं, खाए के काम
की।।
साहब
का घर दूर, सहज ना
जानिए।
पहिले
कबर खुदाय, आसिक तब हुजिए।
सिर
पर कप्फन बांधि, पांव तब
दीजिए।।
आसिक
को दिनराति
नाहिं है
सोवन।
अरे
हां, पलटू
बेदर्दी मासूक
दर्द कब खोवना।।
जो
तुझको है चाह
सजन को देखना।
करम
भरम दे छोड़ि
जगत का पेखना।।
बांध
सूरत की डोरि
सब्द में पिलैगा।
अरे
हां, पलटू
ज्ञानध्यान
के पार ठिकाना
मिलैगा।।
कडुबा
प्याला नाम
पिया जो, ना जरै।
देखा—देखी
पिवै ज्वान
सो भी मरै।।
घर
पर सीस न होय, उतारै भुईं धरै।
अरे
हां, पलटू
छोड़े तन की आस सरग पर घर करै।।
राम
के घर की बात
कसौटी खरी है।
झूठा
टिके न कोय
आजु की घरी लै।।
जियतै
जो मरि
जाय सीस लै
हाथ में।
अरे
हां, पलटू
ऐसा मर्द जो
होय परै
यहि बता में।।
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
कुछ
चाव लिए, कुछ चाह लिए
कुछ
कसकन और
कराह लिए
कुछ
दर्द लिए, कुछ दाह लिए
हम नौसिखिए, नूतन पथ पर
चल दिए, प्रणय
का कर विनिमय
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
विस्मृति
की एक कहानी
ले
कुछ
यौवन की
नादानी ले
कुछ—कुछ
आंखों में
पानी ले
हो
चले पराजित
अपनों से, कर चले जगत
को आज विजय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
हम
शूल बढ़ाते हुए
चले
हम
फूल चढ़ाते
हुए चले
हम
धूल उड़ाते हुए
चले
हम
लुटा चले अपनी
मस्ती, अरमान
कर चले कुछ
संचय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
हम
चिर—नूतन
विश्वास लिए
प्राणों
में पीड़ा—पाश
लिए
मर
मिटने की
अभिलाषा लिए
हम
मिटते रहते
हैं प्रतिपल, कर अमर
प्रणय में
प्राण—निलय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
हम
पीते और
पिलाते हैं
हम
लुटते और
लुटाते हैं
हम
मिटते और
मिटाते हैं
हम
इस नन्हीं—सी
जगती में बन—बन
मिट—मिट करते
अभिनय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
शाश्वत
यह आना—जाना
है
क्या
अपना और
बिराना है
प्रिय
में सबको मिल
जाना है
इतने
छोटा—से जीवन
में, इतना
ही कर पाए
निश्चय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
...इस
छोटे—से
निश्चय में
सारे जीवन का
सार समाया हुआ
है।...
शाश्वत
यह आना—जाना
है
क्या
अपना और
बिराना है
प्रिय
में सबको मिल
जाना है
इतने
छोटे—से जीवन
में, इतना
ही कर पाए
निश्चय,
हम
दीवानों का
क्या परिचय?
जीवन
भला छोटा हो, निश्चय छोटा
नहीं। इस
निश्चय के साथ
ही जीवन शाश्वत
हो जाता है।
इस निश्चय के
साथ ही जीवन
छोटा नहीं रह
जाता, विराट
हो जाता है।
इस निश्चय के
साथ ही तुम बूंद
नहीं, सागर
हो जाते हो।
इस निश्चय का
नाम ही
संन्यास है।
तुम्हारे
भीतर यह
निश्चय सघन हो
जाए कि क्षणभंगुर
में उलझे रहना
अपने को
गंवाना है; शाश्वत में
अपने को
गंवाना अपने
को पाना है; इतना संकल्प,
इतना
निश्चय, इतना
निष्कर्ष और
जीवन में
क्रांति हो
गई। फिर तुम
बाजार में भी
हो तो भी
बाजार में
नहीं। भीड़ में
होओ, फिर
भी भीड़ में
नहीं। भीड़ में
भी अकेले हो
और बाजार में
भी शून्य—गुहा
में
विराजमान।
फिर विचारों
की भीड़ में भी
तुम्हारा
हृदय अछूता
है। फिर सब
करते हुए भी
तुम अकर्ता
हो। और अकर्ता
की यह दशा, कर्म
के बवंडर में
घिरे अकर्ता
का यह शून्य—भाव
सिद्धि है; साधना का
परम लक्ष्य
है। इस लक्ष्य
की ओर ही पलटू
के आज के
सूत्र है—
टोप—टोप
रस आनि
मक्खी मधु लाइया।
इक लै गया निकारि
सबै दुख पाइया।।
मोको
भा बैराग ओहि
को निरखिकै।
अरे
हां, पलटू
माया बुरी
बलाय तजा
मैं परखिकैं।।
मधुमक्खी
बूंद—बूंद मधु
संचय करती है।
और फिर आता है
मधु को इकट्ठा
करने वाला, लगा देता है
आग
मधुमक्खियों
के छत्ते में!
बूंद—बूंद
हजारों
मधुमक्खियों
ने जो इकट्ठा
किया था, वह
एक मशालची आकर
आग लगाकर सब
लूट कर ले
जाता है! पलटू
कहते, ऐसी
ही जिंदगी है।
बूंद—बूंद तुम
इकट्ठा करते
हो, फिर
आती मौत, सब
झटक कर ले
जाती। मधुमक्खियां
न समझें, क्षमा
की जा सकती
हैं। लेकिन
तुम तो क्षमा
नहीं किए जा
सकते।
फिर यह
भी हो सकता है
कि
मधुमक्खियों
का छत्ता मधु
संग्रहीत
करने वालों से
बच भी जाए, लेकिन तुम
तो मौत से न बच
सकोगे। सभी
छत्ते लुटते
भी नहीं! दूर
वृक्षों की
शाखाओं में
पहाड़ों में
छिपे बहुत—से
छत्ते आदमी के
हाथ के बाहर
भी रह जाते
हैं। लेकिन
मौत की पहुंच
के बाहर कौन
है! सात समुंदरों
के पार छिपो,
कि पहाड़ों
की गुफाओं में
चले जाओ, कि
पाताल में उतर
जाओ, मौत
तो हर जगह उतर
जाएगी।
मौत तो
उसी दिन आ गई
जिस दिन तुम
जन्मे थे। मौत
तो उसी दिन से
तुम्हारे
पीछे छाया की
तरह चल रही
है। तुम जहां
जाओगे, वहीं
पहुंच जाएगी।
मौत बाहर नहीं
घटती, मौत
तो भीतर बढ़
रही है। वह तो
तुम्हारी श्वास—श्वास
में रमी है।
वह तो
तुम्हारे
हृदय की धड़कन—धड़कन
में आ रही है।
हर धड़कन उसके
ही पदों की चाप
है। और हर
श्वास उसे
करीब ला रही
है। तुम कुछ भी
करो, सोओ
कि जागो, बाजार में
रहो कि मंदिर
में, भेद
नहीं पड़ता, मौत प्रतिपल
पास से पास
चली आ रही है।
तुम जो भी इकट्ठा
करोगे, सब
छीन लिया
जाएगा।
टोट—टोट रस आनि
मक्खी मधु लाइया।
कितना
मेहनत करती
हैं मधुमक्खियां!
हजारों—हजारों
फूलों पर
भटकती हैं, कण—कण फूलों
का पराग
इकट्ठा करती
हैं, मीलों
की यात्रा
करती हैं, तब
मधु—छत्ता
बनता, तब
मधु—छत्ता
भरता। और एक
क्षण में लुट
जाता है सब।
दो क्षण भी
नहीं लगते लुटने
में।
इक लै
गया निकारि
सबै दुख पाइया।।
वह कौन
है एक? मृत्यु
की तरफ इशारा
है। तुमने जो
घर बनाया है, वह मधु का
छत्ता है। ला
रहे हो, बड़ा
श्रम करके ला
रहे हो—धन, पद,
प्रतिष्ठा—बड़ा
संघर्ष, बड़ी
स्पर्धा, बड़ी
जलन,र् ईष्या...गलाघोंट
प्रतियोगिता
है, आसान
नहीं है। मधुमक्खियां
तो शायद आसानी
से फूलों से
सौरभ इकट्ठा
कर लेती होंगी,
लेकिन आदमी
की दुनिया में
तो बड़ी
मुश्किल है, क्योंकि सभी
महत्वाकांक्षी
हैं।
प्रज्वलित
महत्वाकांक्षा,
भयंकर
संघर्ष है। तब
कहीं छीन—झपट
कर के थोड़ा—सा
तुम ला पाओगे।
और मजा यह है
कि सब मौत छीन
लेगी। तुम
इकट्ठा करोगे
और मौत रिक्त
कर देगी। यह
इकट्ठा करना बड़ी
नासमझी का
हुआ! यह बात
बड़ी मूढ़ता
की हुई! जो
मटकी फूट ही
जाने वाली है,
उसको भरने
में क्यों समय
नष्ट कर रहे
हो?
मोको
भा बैराग ओहि
को निरखिकै।
पलटू
कहते हैं:
मधुमक्खियों
को देख कर, उनके छत्तों
को लुटते
देखकर मुझे तो
वैराग्य हो
गया! जिसने
मृत्यु को
पहचाना, उसे
वैराग्य हो ही
जाएगा।
मृत्यु से
आंखें चार कर
लेना वैराग्य
का जन्म है।
जो जीवन को
थोड़ा गौर से
देखेगा, मृत्यु
को छिपा हुआ
पाएगा। जीवन
तो घूंघट जैसा
है, पीछे
तो मौत छिपी
है। जीवन तो
चिलमन जैसा है,
पीछे तो मौत
छिपी है। जहां
भी पदार्थ
उठाओगे, मौत
को छिपा
पाओगे। और मौत
ने बहुत तरह
के वेष पहन
रखे हैं।
इसलिए धोखा हो
जाता है।
लेकिन जो जरा
सजग होकर
देखेगा, धोखा
नहीं खाएगा।
जिसका धोखा
टूट गया, जिसे
एक बात समझ
में आ गई कि इस
जीवन में कुछ
भी इकट्ठा करो,
तुम्हारे
साथ नहीं
जाएगा, हाथ
खाली—के—खाली
रहेंगे, प्राण
रिक्त—के—रिक्त
रहेंगे, उसके
जीवन में
वैराग्य पैदा
न होगा तो
क्या होगा?
राग का
अर्थ होता है:
लूट लो जितना
लूटते बन सके; भर लो अपने
को जितना भर
सको; भोग
लो जितना भोग
सको, यह
महा अवसर मिला
है भोगने का।
वैराग्य का
अर्थ होता है:
कितना ही भरो,
मौत खाली कर
देगी। इसलिए
भरने के लिए
किया गया सारा
श्रम व्यर्थ
चला जाएगा। तो
कुछ ऐसे की तलाश
करो जो मौत न
छीन सके।
वैराग्य का
अर्थ होता है:
मृत्यु के पार
भी जो
तुम्हारे साथ
जा सके; चिता
में जले न, अस्त्र—शस्त्र
जिसे भेद न
सकें, ऐसी
कोई संपदा खोज
लो। और ऐसी
संपदा भी है!
लेकिन
जो क्षणभंगुर
में उलझे रह
जाते हैं, वे शाश्वत
से चूक जाते
हैं।
रामकृष्ण
को एक बार
किसी ने आकर
कहा कि आप
महात्यागी
हैं।
रामकृष्ण ने कहा
कि नहीं—नहीं!
बाबा, ऐसी
बात न कहो!
महात्यागी
तुम हो! वह
आदमी तो बहुत
चौंका। वह कलकत्ते
का सबसे धनी—मानी
आदमी था। राग—रंग
ही उसकी
जिंदगी थी।
भोग ही उसका
योग था। उसने
कहा, आप
क्या कहते हैं,
मजाक करते
हैं, व्यंग्य
करते हैं? मुझ
भोगी को
त्यागी कहते
हैं? आप
महात्यागी
हैं।
रामकृष्ण ने
कहा: नहीं—नहीं,
मैंने
शाश्वत को
पकड़ा, तुमने
क्षणभंगुर को,
अब तुम्हीं
कहो त्यागी
कौन है? मैंने
वह खोजा जिसे
मौत न छीन
सकेगी, तुम
उसे पकड़े
बैठे हो जिसका
छिन जाना
सुनिश्चित
है। तुम त्यागी
हो; शाश्वत
को छोड़ कर
क्षणभंगुर को
पकड़ा है।
मैंने
एक आदमी के
संबंध में
सुना है। एक समुद्रत्तट
पर वह भीख
मांगता था।
उसके भीख
मांगने का ढंग
बड़ा अनूठा था।
जो भी कोई
उसके सामने
रुपए का नोट
करे, दस रुपए
का नोट करे, सौ रुपए का
नोट करे और एक
हाथ में दस
पैसे का सिक्का
और कहे कि चुन
लो, वह
हमेशा दस पैसे
का सिक्का चुन
लेता। लोग हंसते,
खिल—खिलाते,
मजाक उड़ाते
कि दुनिया में
मूढ़ बहुत
देखे मगर ऐसा मूढ़ नहीं
देखा। सौ रुपए
का नोट छोड़
देता है, दस
पैसे का
सिक्का चुन
लेता है!
वर्षों से वह
यही कर रहा
था। लोग बड़े
हैरान थे कि
इसको कभी अकल
आएगी कि नहीं
आएगी? एक
दिन एक आदमी
ने एकांत देख
उससे पूछा कि
मेरे भाई, बीस
साल से मैं
तुझे जानता
हूं, तू
यही धंधा कर
रहा है। शुरू—शुरू
किया तो हम
समझे कि तुझे
पता नहीं है।
लेकिन अब तो
तू जानता है
भलीभांति कि
रुपए, दस
रुपए, सौ
रुपए के नोट, उनको तू छोड़
देता है और दस
पैसे के
सिक्के उठा लेता
है! लोग हंसी—मजाक
करते हैं।
वह
भिखमंगा
हंसने लगा और
उसने कहा, अब तुमने
पूछा तो मैं
कहे देता हूं;
लेकिन किसी
और को मत
बताना! मैं भी
जानता हूं कि
रुपए का नोट
है, दस
रुपए का नोट
है, सौ
रुपए का नोट
है, मगर एक
बार ले लूंगा
कि खेल खतम!
फिर कौन आएगा
खेल खेलने? ये मूढ़
इसीलिए तो
खेलने ओ हैं, ये सोचते
हैं—मैं मूढ़
हूं। यह बीस
साल से धंधा
चल रहा है।
दिन—भर में दस—पंद्रह
रुपए इकट्ठे
कर लेता हूं, और क्या
चाहिए? एक
दिन भी मैंने
अगर नोट चुन
लिया और दस
पैसे का
सिक्का छोड़
दिया, तो
बस उसी दिन
धंधा समाप्त
हो जाएगा। वह
नोट कितने दिन
काम आएगा। यह
बीस साल से चल
रहा है, और
जब तक जिंदा
हूं चलता
रहेगा। तुम
मुझे मूढ़
मत समझना! जो
यहां आते हैं
और दस रुपए का
नोट और दस
पैसे का
सिक्का मुझे
दिखाते हैं, वे मूढ़
हैं।
दुनिया
बहुत अजीब
हैं। यहां कौन
मूढ़ है, यह तय करना
इतना आसान
नहीं। सबकी
अपनी परिभाषाएं
हैं।
सांसारिक
से पूछोगे तो
आध्यात्मिक मूढ़ है।
छोड़ रहा जीवन
का रस—रंग, राग।
चार्वाक से
पूछोगे तो
कहेगा, पागल
हो। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।
अगर ऋण लेकर
भी घी पीना
पड़े तो भी ऋण
लो, घबड़ाओ मत! क्योंकि
मरने के बाद
कौन लौट कर
आया है? किसको
ऋण चुकाना है?
कोई नहीं
बचता, मिट्टी
मिट्टी
में मिल जाती
है। अच्छा करो
कि बुरा, कुछ
साथ नहीं। तुम
ही नहीं बचते
तो कुछ हाथ में
नहीं बचता।
हाथ ही नहीं
बचता, तो
चोरी करना पड़े,
उधार लेना
पड़े, धोखा
देना पड़े—फिक्र
न करो, दिल
खोल कर दो!
धोखा दो, चोरी
करो, बेईमानी
करो—सब चलेगा—मगर
भोग लो! यह चार
दिन की चांदनी
है, फिर
अंधेरी रात।
चार्वाक
की दृष्टि में
आध्यात्मिक
तो मूढ़
है। हालांकि
तुम में से
बहुत कम लोग
सोचते हैं कि
वे
चार्वाकवादी
हैं, लेकिन
मेरा
निरीक्षण यह
है कि इस
दुनिया में सौ
में
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
चार्वाकवादी
हैं। चाहे वे
मंदिर जाते
हों, चाहे
गिरजा, चाहे
गुरुद्वारा, इससे भेद
नहीं पड़ता।
उनकी अंतर्दशा
क्षणभंगुर को पकड़ने की
है। जो शाश्वत
को पकड़ने
चलता है, उसे
तो वे भीतर—भीतर
हंसते हैं—पागल
है! दीवाना है!
कैसा शाश्वत?
मृत्यु के
पार कुछ है? यहीं सब कुछ
है। उस पार का
किसी को भरोसा
नहीं है। हां,
भय के कारण,
डर के कारण
कभी मंदिर में
पूजा के दो
फूल भी चढ़ा
आते हो कि कौन
जाने, अगर
हुआ उस पार
कुछ तो कहने
को रहेगा कि
दो फूल चढ़ाए
थे, मंदिर
में पूजा की
थी, प्रार्थना
की थी। जीसस
को पुकारा था,
कृष्ण को
पुकारा था। उस
वक्त याद
दिलाने को रहेगा।
कुछ कर लो
थोड़ा—सा। कभी भिखमंगे
को दान दे दो, कभी भूखे को
भोजन करा दो—थोड़ा—सा
पुण्य भी
अर्जित कर लो।
अगर बचना पड़ा,
अगर मौत के
बाद भी जीवन
रहा करा रूप
में, तो
कुछ संपदा
वहां के लिए
भी इकट्ठी कर
लो—थोड़ा बैंक
बैलेंस परलोक
के लिए भी।
लेकिन भरोसा
किसी को नहीं
है कि परलोक
है।
तुम्हारी
जिंदगी सबूत
नहीं देती कि
तुम्हें
भरोसा है।
तुम्हारी
जिंदगी तो कुछ
और सबूत देती
है। तुम्हारी
जिंदगी तो सबूत
देती है कि
यहीं सब कुछ
है। तुम्हारा
व्यवहार यही
कहता है कि
यहीं सब कुछ
है।
इस
पार, प्रिये,
मधु है, तुम
हो,
उस
पार न जाने
क्या होगा!
यह
चांद उदित
होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता
जीवन का,
लहरा
लहरा यह
शाखाएं कुछ
शोक भुला
देतीं मन का
कल मुर्झाने
वाली कलियां, हंसकर कहती
हैं मग्न रहो,
बुलबुल
तरु की फुनगी
पर से संदेश
सुनाते यौवन का,
तुम
देकर मदिरा के
प्याले, मेरा
मन बहला देती
हो,
उस
पार मुझे
बहलाने का
उपचार
न जाने क्या
होगा!
जग में
रस की नदियां
बहतीं, रसना दो
बूंदें पाती
है,
जीवन
की झिलमिल—सी
झांकी नयनों
के आगे आती है,
स्वरत्तालमई—सी
वीणा बजती, मिलती है बस
झंकार मुझे,
मेरे
सुमनों
की गंध कहीं, यह वायु उड़ा
ले जाती है,
ऐसा
सुनता, उस
पार, प्रिये,
ये साधन भी
छिन जाएंगे;
तब
मानव की चेतनता
का
आधार
न जाने क्या
होगा!
प्याला
है, पर पी
जाएंगे, है
ज्ञात नहीं
इतना हमको,
इस
पार नियति ने
भेजा है
असमर्थ बना
कितना हमको!
कहने
वाले, पर,
कहते हैं, हम कर्मों
में स्वाधनी
सदा,
करने
वालों की
परवशता है, ज्ञात किसे,
जितनी हमको
कह
तो सकते हैं, कहकर ही कुछ
दिल हलका कर
लेते हैं;
उस
पार अभागे
मानव का
अधिकार
न जाने क्या
होगा!
कुछ
भी न किया था
जब उसका, उसने पथ में
कांटे बोए,
वे
भार दिए धर
कंधों पर, जो रो—रो कर
हमने ढोए,
महलों
के स्वप्नों
के भीतर जर्जर
खंडहर का सत्य
भरा!
उर
में ऐसी हलचल
भर दी, दो
रात न हम सुख से
सोए!
अब
तो हम अपने
जीवन भर उस
क्रूर कठिन को
कोस चुके,
उस
पार नियति का
मानव से
व्यवहार
न जाने क्या
होगा!
संसृति
के जीवन में, सुभगे! ऐसी
भी घड़ियां
आएंगी,
जब
दिनकर की तमहर
किरणें, तम
के अंदर छिप
जाएंगी,
जब
निज प्रियतम
का शव रजनी तम
की चादर से ढक
देगी,
तब
रवि शशि पोषित
यह पृथ्वी
कितने दिन खैर
मनाएगी!
जब
इस लंबे—चौड़े
जग का
अस्तित्व न
रहने पाएगा,
तब
तेरा—मेरा
नन्हा—सा
संसार
न जाने क्या
होगा!
ऐसा
चिर पतझड़
आएगा कोयल न
कुहुक फिर
पाएगी,
बुलबुल
न अंधेरे में
गा—गा जीवन की
ज्योति जगाएगी,
अगणित
मृदु नव पल्लव
के स्वर मरमर
न सुने फिर
जाएंगे,
अलि—अवली
कलि—दल पर
गुंजन करने के
हेतु न आएगी;
जब
इतनी रसमय
ध्वनियों का
अवसान, प्रिये,
हो जाएगा,
तब
शुष्क हमारे
कंठों का
उदगार
न जाने क्या
होगा!
सुन
काल प्रबल का
गुरु गर्जन
निर्झरिणी
भूलेगी नर्तन,
निर्झर
भूलेगा निज तलमल, सरिता अपना
कलकल गायन
वह
गायक—नायक असधु
कहीं, चुप
ही छिप जाना
चाहेगा!
मुंह
खोल खड़े रह
जाएंगे, गंधर्व,
अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत
सजीव हुआ
जिनमें जब मौन
वही हो जाएंगे
तब
प्राण तुम्हरी
तंत्री का
जड़
तार न जाने
क्या होगा!
उतरे
इन आंखों के
आगे जो हार
चमेली ने पहने,
वह
छीन रहा, देखो, माली
सुकुमार लताओं
के गहने,
दो
दिन में खींची
जाएगी ऊषा की साड़ी
सिंदूरी,
पट
इंद्रधनुष का
सतरंगा पाएगा
कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती
सत्ताओं
की शोभा—सुषमा
लुट जाएगी,
तब
कवि के कल्पित
स्वप्नों का
शृंगार
न जाने क्या
होगा!
दृग
देख जहां तक
पाते हैं, तम का सागर
लहराता है,
फिर
भी उस पार खड़ा
कोई हम सबको
खींच बुलाता
है!
मैं
आज चला, तुम
आओगी कल, परसों, सब
संगी—साथी;
दुनिया
रोती धोती
रहती, जिसको
जाना है जाता
है।
मेरा
तो होता मन
डगमग तट पर के
ही हलकोरों
से!
जब
मैं एकाकी पहुंचूंगा।
मझधार, न जाने क्या
होगा!
इस
पार प्रिये, मधु है, तुम
हो,
उस
पार न जाने
क्या होगा!
उस पार
का भरोसा आता
नहीं। आए तो
आए भी कैसे, उस पार की
हमारी आंखों
में कोई झलक
भी तो नहीं! हम
इस पार में
ऐसे उलझे हैं,
हमने इस
किनारे पर
इतने खूंटे
गाड़ दिए
हैं—वासनाओं
के, इच्छाओं
के—हमारी
आंखें इतनी भर
गई हैं इस पार
से कि दूर
आंखें उठा कर
कौन देखे? फुर्सत
किसे? समय
किसे? अवसर
किसे? जैसे
छोटे—मोटे
कीड़े मिट्टी
में अपने घर
बनाते रहते
हैं, ऐसे
ही हम भी
मिट्टी में घर
बनाते रहते
हैं। जब तक
मृत्यु का
दर्शन नहीं
हुआ है तब तक
हमारे सब घर
मिट्टी में
बनाए घर हैं।
मृत्यु का
दर्शन होते ही
अमृत की तलाश
शुरू होती है।
ठीक
कहते हैं पलटू—
मोको
भा बैराग ओहि
को निरखिकै।
आंखें
हों देखने
वाली, तो
वैराग्य पैदा
होगा ही।
सिर्फ अंधे
वैराग्य से बच
सकते हैं।
सिर्फ बहरे
वैराग्य से बच
सकते हैं।
जिनके पास
देखने वाली
आंखें हैं, सोचने वाला
चित्त है, वह
तो किसी भी
बहाने उन्हें
वैराग्य हो
जाएगा। पलटू
कहते हैं:
मधुमक्खियों
को मधु इकट्ठा
करते देख और
फिर एक दिन
आता देख मधु
को लूटने वाला—और
मुझे वैराग्य
हो गया।
तुम
कहोगे, इतनी
छोटी—सी बात
से?
लाओत्सु
को वैराग्य
हुआ वृक्ष से
गिरते हुए एक
सूखे पत्ते को
देखकर। सूखा
पत्ता वृक्ष
से गिर रहा है...लाओत्सू
ने उसे गिरते
देखा और उसे
याद आया: अपनी
भी गिरने की
बारी आने की!
कब तक हरे
रहेंगे? यह
वृक्ष का
पत्ता अब तक
हरा था, कल
तक हरा था, रस
से भरा था, पक्षी
इसके आसपास
गीत गाते थे, मधुमक्खियां भिनभिनाती
थीं, भंवरे डोलते थे, आज सूख गया।
आज न पक्षी
कोई गीत गाएगा,
आज न मधुमक्खियां
आएंगी, न
तितलियां उड़ेंगी।
आज रसहीन हो
गया; आज रस
के स्रोत से
उखड़ गया। आज
चल पड़ा, गिर
पड़ा। मिट्टी
में गिरेगा, मिट्टी में
मिल जाएगा।
मिट्टी से ही
उठा था, मिट्टी
में ही वापस
लौट आया।
लाओत्सू
को दिखाई पड़ा:
हम भी क्या
हैं? आज हरे, कल सूखे। आज मदमाते
यौवन में, कल
सब खो जाएगा।
कुछ बचेगा
नहीं।
पर्याप्त था इतना,
वैराग्य हो
गया।
मैंने
सुना है, बंगाल
में एक परम
साधु हुए।
मजिस्ट्रेट
थे हाईकोर्ट
के, रिटायर्ड
हो गए थे।
सुबह—सुबह
घूमने निकले
थे। लाला बाबू
उनका नाम था।
सूरज निकलने
को था। और तब
कोई महिला
अपने घर के
भीतर अपने
देवर को उठाती
होगी, कहती
थी कि लाला
बाबू, उठो!
ऐसे भी बहुत
देर हो गई!
सुबह हो गई, सूरज निकलने
को है, यह
समय सोने का
नहीं, लाला
बाबू, अब
उठो! उसे तो
बाहर गुजरते
इस वृद्ध का
कुछ पता भी न
था। लाला बाबू
अपनी लकड़ी
लेकर घूमने निकले
थे। वह तो
किसी और को
उठाती थी, अपने
देवर को उठाती
थी, लेकिन
लाला बाबू ने
बाहर सुना।
सुबह का सन्नाटा
होगा, ताजी
हवा होगी, रात
भर के विश्राम
के बाद उठे
होंगे, मन
थोड़ा थिर होगा;
सुसमय में,
किसी शुभ
घड़ी में वह वचन
उनके कानों
में पड़ा—लाला
बाबू उठो। कब
तक सोए रहोगे?
ऐसे भी बहुत
देर हो चुकी
है, सूरज
ऊगने—ऊगने को
है! और जैसे एक
क्रांति हो
गई। वे घर नहीं
लौटे। याद आया
कि हां, उठने
का समय आ गया।
सुबह होने के
करीब है, सूरज
निकलने को है।
जिंदगी तो रात
थी, गुजर
गई, अब मौत
आती है। अब
कुछ कर लूं।
आगे की तैयारी
कर लूं। अब
लौट कर क्या
जाना? जंगल
का रास्ता पकड़
लिया।
घर के
लोगों को खबर
लगी, भागे!
बहुत समझाया
कि बात क्या
हुई? उन्होंने
कहा, कुछ
बात नहीं हुई,
बस समझ में
आ गया कि लाला
बाबू, उठो!
बहुत देर वैसे
ही हो चुकी, अब सुबह होने
के करीब है!
लोगों के तो
कुछ समझ में
नहीं आया।
उन्होंने कहा,
यह बात
अचानक कैसे
दोहराने लगे—लाला
बाबू, उठो!
उन्होंने कहा
अचानक नहीं
दोहरा रहा हूं;
प्रभु का
संदेश आ गया।
कोई महिला
जगाती थी अपने
देवर को—उसे
तो शायद पता
भी न हो, लेकिन
किस बहाने
परमात्मा पुकार
लेता है, कुछ
कहा नहीं जा
सकता।
पलटू
कहते हैं:
मुझे वैराग्य
उत्पन्न हुआ
मधुमक्खियों
को देखकर।
बूंद—बूंद, कण—कण
इकट्ठा करती
हैं। कितना
श्रम? हजारों—हजारों
मधुमक्खियों
का श्रम, तब
कहीं छत्ता
भरता है। फिर
आता है एक
आदमी, मशाल
जलाकर, लूट
ले जाता है!
ऐसे ही जिंदगी
को हम बसाते
हैं, फिर
आती है मौत
मशाल लेकर
चिता की तरह—लूट
कर ले जाती
है।
अरे
हां, पलटू
माया बुरी
बलाय तजा
मैं परखिकै।।
लेकिन
एक बड़ी कीमत
की बात कहते
हैं कि यह
मैंने ऐसे ही
किसी और की
बात सुनकर
नहीं छोड़ दी
माया, परखिकै...अपने ही
अनुभव से जान
कर, जाग कर,
होशपूर्वक।
यह वैराग्य
उधार नहीं है।
यह किन्हीं वैरागियों
की चर्चा से
नहीं है। किसी
ने समझाया और
मैंने मान
लिया, ऐसा
नहीं है।
मैंने देखा, मैंने जाना,
मैंने
टटोला, मैंने
जिंदगी की
व्यर्थता, असारता
को पहचाना, तब यह
वैराग्य फलित
हुआ है।
हम
लेकर हृदय
अधीर, प्राण
में पीर, नयन
में नीर चले
हम
दीवाने युग—युग
की बंदी प्राचीरों
को चीर चले,
हम
लिए अचल
अनुराग हृदय
में दाग आह
में आग चले
हम
लिए अनोखा एक
निराला एक
बेसुरा राग
चले,
हम
लिए एक अभिमान
एक अरमान एक
तूफान चले
हम
परवाने ले
दुनिया से जल
मरने का सामान
चले,
हम
लेकर एक उसास, एक निःश्वास,
एक उच्छवास
चले
जो
जनम—जनम तक
बुझ न सके हम
लेकर ऐसी
प्यास चले,
हम
एक अपरिचित
प्राणों से
क्षण—भर कर
प्यार—दुलार
चले
हम
मस्ताने इस
जगती में कर
मस्ती का
व्यापार चले
हम
कुचल हसरतें
अपनी सब ले
हार—जीत का
दांव चले
हम
कभी रुलाते, कभी हंसाते,
लेकर एक
अभाव चले,
हम
चले झूमते
झुकते—से झंझा
का कुछ आभास
लिए
हम
चले किसी पर
कभी कहीं मर
मिटने का
विश्वास लिए
हम
जला होलिका
जीवन की खुल
खेल मृत्यु से
फाग चले
हम
पाप—पुण्य से
परे लिए अपना
अनुराग—विराग
चले।
हम
किधर चले? क्या बतला
दें, चल
दिए जिधर को
राह मिली
हम
जहां—जहां
होकर निकले
कुछ वाह मिली
कुछ आह मिली
हम
चले, चल
पड़े क्योंकि
हमें चलने
वालों का संग
मिला
हम
ऐसे ही अलमस्तों
का कुछ रंग
मिला, कुछ
ढंग मिला,
हम
जग से नाता
तोड़ एक से
अपना नाता जोड़
चले
हम
भला—बुरा इस
जीवन का सब आज
यहीं पर छोड़
चले,
देखोगे
तो अनेक से
नाता टूटने
लगेगा, एक
से नाता जुड़ने
लगेगा। देखोगे,
पहचानोगे,
तो सत्संग
खोजने ही
लगोगे।
हम
चले, चल
पड़े क्योंकि
हमें चलने
वालों का संग
मिला
हम
ऐसे ही अलमस्तों
का कुछ रंग
मिला, कुछ
ढंग मिला,
हम
जग से नाता
तोड़ एक से
अपना नाता जोड़
चले
हम
भला—बुरा इस
जीवन का सब आज
यहीं पर छोड़
चले,
एक अंतर्दशा
है वैराग्य।
अपरिग्रह का
भाव है
वैराग्य—मेरा
यहां कुछ भी
नहीं। खेलो, अभिनय करो, पासे फेंको, शतरंज
बिछाओ, मगर
जानते रहना:
सब घोड़े झूठे,
सब हाथी
झूठे! खेल है।
ज्यादा गंभीर
मत होकर पकड़
लेना। जो
गंभीर हुआ, वह रागी। जो
गैर—गंभीर रहा,
वह विरागी।
जो उठ कर चल
पड़े और पीछे
लौट न देखे, वह विरागी।
फूलन
सेज बिछाय
महल के रंग
में।
अतर
फुलेल लगाय
सुंदरी संग
में।।
सूते
छाती लाय
परम आनंद है।
अरे
हां, पलटू
खबरि पूत
को नाहिं काल कौ फंद
है।।
लोग
बिछा रहे हैं
फूल, सेज बना
रहे हैं; इत्र—फुलेल
लगा रहे हैं; सुंदर
पुरुषों, सुंदर
स्त्रियों के
साथ सपने सजा
रहे हैं। सौंदर्य
को आलिंगन लगा
कर सोचते हैं:
सब पा लिया।
हड्डी—मांस—मज्जा
की देह है। सब
मिट्टी का खेल
है।
अरे
हां, पलटू खबरि
पूत को नाहिं
काल कौ
फंद है।।
जिसको
तुम प्रेम समझ
रहे हो, वह
मौत का जाल है।
जिसको तुम
आलिंगन समझ
रहे हो, मौत
ने ही
तुम्हारे गले
में हाथ डाला।
पलटू
कहते हैं:
बचकानापन न
करो! अरे हां, पलटू खबरि
पूत को नाहिं...बच्चू, इतनी—सी
बात खबर नहीं!
जरा होश
सम्हालो! थोड़े
बालपन से जगो!
थोड़ा
बुद्धूपन छोड़ो!
ऐसे ही कितने
लोग धोखा खा
गए! ऐसे ही कितने
लोग धोखा खा
रहे हैं! धन्यभागी
है वह, जो
धोखा खाने
वालों की इस
भीड़ में धोखे
से बच जाता है
और जग जाता
है। जो
क्षणभंगुर के
रस से मुक्त
हो जाता है।
मगर पलटू यह
नहीं कह रहे
हैं कि तुम
मेरी मानकर
ऐसा करना। परिखकै!
खुद जांच—परख
कर लो। यह कोई
सिद्धांत की
बात नहीं है, यह जीवन का
खरा अनुभव है।
खाला
के घर नाहिं, भक्ति है
राम की।
दाल
भात है नाहिं, खाए के काम
की।।
साहब
का घर दूर, सहज ना
जानिए।
अरे
हां, पलटू
गिरे तो
चकनाचूर, बचन
को मानिए।।
खाला
के घर नाहिं, भक्ति है
राम की।...एक
बात, कहते
हैं याद रखना—सत्य
की तलाश में
चलो तो कोई
मौसी के घर
नहीं जा रहे
हो! सत्य की
तलाश में चलो
तो, तैयारी
रखना, दुस्साहस
है। सत्य की
तलाश इस जगत
में सबसे बड़ा
अभियान है।
कायरों के लिए
नहीं, वीरों
के लिए है। धन
तो कोई भी खोज
लेता है, पद
कोई भी खोज
लेता है।
बुद्धू भी धनी
हो जाते हैं, बुद्धू भी
पदों पर पहुंच
जाते हैं। धन
और पद का
बुद्धि से कोई
संबंध नहीं
है। सच तो यह
है कि जिनके पास
बुद्धि है, वे क्यों धन
और पद खोजेंगे?
बुद्धि है
बुद्ध के पास।
बुद्धि है
महावीर के पास।
बुद्धि है
कबीर के पास।
धन और पद की
तलाश नहीं है।
असल में
बुद्धू हों और
जिद्दी हों तो
धन और पद की
तलाश में
सफलता मिलना
बिलकुल आसान
है। दो गुण
चाहिए:
बुद्धूपन और जिद्दीपन।
फिर जूझ जाते
हैं लोग!
धन और
पद की यात्रा
में समझदार
जाएगा क्यों? किस कारण? कल की तो खबर
नहीं है। कल
सुबह होगी या
नहीं, कुछ
कहा नहीं जा
सकता। धन और
पद के लिए आज
को कोई क्यों गंवाएगा? अगर खोजना
ही है तो उसको
खोजें जो आज
भी है, कल
भी है और सदा
है। मगर उसकी
खोज आसान नहीं
है।
कठिनाई
क्या है?
कठिनाई
उसकी तरफ से
नहीं है, यह
खयाल रखना, नहीं तो भूल
हो जाएगी।
कठिनाई
तुम्हारी तरफ
से है।
तुम्हारे
चित्त की
आदतें इतनी
जटिल, इतनी
उलझी, इतनी
पुरानी हो गई
हैं कि उन
आदतों के बाहर
आना कठिन है।
अन्यथा वह तो
सहज है। इसलिए
तुम विरोधाभास
मत देखना।
संत एक
ओर तो कहते
हैं कि
परमात्मा सहज
है। अभी मिल
सकता है, इसी
क्षण। और
दूसरी तरफ ऐसा
वचन भी बोलते
हैं: साहब का
घर दूर, सहज
ना जानिए। ये
दोनों बातें
ठीक हैं, इनमें
विरोधाभास
नहीं है। जब
साहब की तरफ
देखते हैं तो
लगता है:
बिलकुल सहज; मालिक तो
मिला ही हुआ
है। दूर कहां?
पास से भी
पास। जब
तुम्हारी तरफ
देखते हैं, तो लगता है:
साहब बहुत दूर;
मिलना बहुत
मुश्किल।
तुम्हारी
आदतें ऐसी गलत
हैं।
तुम्हारे
सोचने—समझने
के ढंग ऐसे
भ्रांत हैं।
तुम्हारा
चित्त सपनों
में कुशल हो
गया है, इसलिए
सत्य से दूर
हो गया है।
एक
आदमी सोया है, सपने देख
रहा है। सवाल
है: जागरण से
यह आदमी कितनी
दूर है? ऐसे
तो कुछ भी
दूरी नहीं।
हिला दो, नींद
टूट जाए—अभी, इसी क्षण
टूट जाए! मगर
यह भी हो सकता
है, यह
जागने को राजी
ही न हो। तुम
हिला भी दो और
यह करवट लेकर
फिर सो जाए।
क्योंकि यह एक
ऐसा प्यारा
सपना देख रहा
था और उस सपने
को नहीं छोड़ना
चाहता।
मैं
इलाहाबाद में
था...बोल रहा
था...एक मित्र
सामने ही बैठे
थे...विश्व—विद्यालय
में प्रोफेसर
हैं। चूंकि सामने
ही थे, इसलिए
मैं देखने से
चूक भी नहीं
सका कि उनकी आंखों
से झर—झर आंसू
बह रहे थे—और
फिर वे बीच
में ही उठ गए।
बीच में ही
उठे तो और भी
मेरे खयाल में
आ गए। उनकी
पत्नी भी थी।
जब मैं बाहर
निकल रहा था
बोल कर, तो
उनकी पत्नी से
मैंने पूछा कि
क्या हुआ, तुम्हारे
पति को क्या
हुआ? इतने
भाव—विह्वल
होकर रो रहे
थे, बीच से
उठ क्यों गए? कोई बहुत
जरूरी काम था?
पत्नी
हंसने लगी, उसने कहा कि
कल मैं उनको
लेकर आपके पास
आऊंगी, आप
ही उनसे पूछ
लेना।
दूसरे
दिन वह उनको
लेकर आई।
मैंने उनसे
पूछा, क्यों
बीच से उठ गए? उन्होंने
कहा कि इसलिए
उठ गया कि आधी
बात सुनी और
मन ऐसा आतुर होने
लगा कि चल
पडूं इस राह
पर! फिर डर
लगा। पत्नी है,
बच्चा है, परिवार है, अच्छी नौकरी
है! और तब मुझे
ऐसा लगा कि
पूरी बात
सुननी अभी ठीक
नहीं। मैं डर
के कारण उठ
गया। मैं ऐसा
भाव—विह्वल हो
रहा था कि
मुझे यह भय
सताया कि अगर
यह बात मेरी
समझ में पूरी
आ गई तो मैं घर वापस
न लौट सकूंगा।
आप मुझे क्षमा
करें। बीच से
उठना उचित
नहीं था, अशिष्ट
था। सामने ही
बैठा था, इसलिए
बहुत देर
मैंने संकोच
भी किया।
लेकिन अपनी
जिंदगी बचाऊं
कि शिष्टाचार?
मुझे
उनकी बात समझ
में आई। मैंने
उनसे कहा:
परमात्मा तो
पास है। इतने
पास था कि तुम
शायद आधा घड़ी
और बैठे रह गए
होते तो एक नए
जीवन की शुरुआत
हो गई होती।
बस मंजिल करीब
आते—आते छूट
गई, किनारा
पास आते—आते
दूर हो गया!
तुमने नाव
दूसरी तरफ मोड़
दी!
संत एक
तरफ कहते हैं:
वह सहज है।
उससे सहज और
क्या होगा? क्योंकि वह
हमारा स्वभाव
है। वह हमारे
भीतर विराजमान
है। उससे ही
तो हम जन्मे
हैं। वही तो
हमारा मूल
उदगम स्रोत
है। हम गंगा
हैं तो वह
गंगोत्री है।
हम गंगा हैं
तो वह
गंगासागर है।
वही स्रोत है,
वही अंतिम
मंजिल है। दूर
कैसे? पास
से भी पास है।
मुहम्मद
ने कहा: यह जो तुम्हारी
सांस धड़कती
है, उससे भी
वह ज्यादा पास
है। उपनिषद
कहते हैं: वह
पास से भी पास
और दूर से भी
दूर। दूर है
तुम्हारे
कारण, पास
है उसके कारण।
मगर सवाल तो
तुम्हारा है।
वह तो
तुम्हारे पास
भी आकर खड़ा हो
और तुम आंख न खोलो! वह
तुम्हारे हाथ
में हाथ दे और
तुम हाथ झटक
लो! वह
तुम्हारे
पीछे छाया की
तरह चलता रहे
लेकिन तुम
लौटकर न देखो!
सूरज भी निकला
हो और तुम
आंखें बंद किए
खड़े रहो तो
सूरज क्या करे?
इसलिए
विरोधाभास मत
समझना।
खाला
के घर नाहिं, भक्ति है
राम की।
दाल
भात है नाहिं, खाए के काम
की।।
आसान
नहीं है, कि
दाल—भात की
तरह खा लिया। पीओगे तो
पहले तो जहर
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि
तुम्हारी आदत
जहर को पीने
की पड़ गई है।
तुम्हें जहर अमृत।
जैसा मालूम
पड़ता है। तो
अमृत जहर जैसा
मालूम पड़ेगा।
एक घूंट गले
से न उतरेगी।
तुम्हारा
सारा प्राण
जन्मों—जन्मों
से गलत का
अभ्यासी हो
गया है। झूठ में
तुम ऐसे रच—पच
गए हो कि सत्य
को अपने भीतर
न ले जा
सकोगे। ले भी
जाओगे तो
असत्य करके ले
जाओगे। विकृत
करके, तोड़—फोड़ कर।
मैंने
सुना है, जर्मनी
के एक विचारक केसरलिंग...संयोगवशात
केसरलिंग
के बेटे का
बेटा यहां
संन्यासी है,
मौजूद
है।...काउंट केसरलिंग
के पास एक जापानी
केटली, कप, चाय
का पूरा—का—पूरा
सेट था। नौकर
की भूल से केटली
गिर पड़ी, टुकड़े—टुकड़े
हो गई। बहुत
बहुमूल्य केटली
थी, बहुत
प्राचीन थी।
किसी झेन फकीर
ने भेंट दी थी।...काऊंट केसरलिंग
पूरब की
यात्राओं पर
आए थे, बहुत
बार, ईश्वर
की तलाश
में...भारत में
भी वर्षों
घूमे थे।
जापान भी गए
थे।...बड़े दुखी
हुए। केटली
को किसी तरह
जोड़—जाड़
कर वापस जापान
भेजा, किसी
बड़े कारीगर के
पास कि ठीक
ऐसी केटली
वापस बनाकर
भेज दी जाए; जो भी दाम
होंगे, दूंगा।
कोई छह
महीने के बाद
उस जापानी
कुशल कारीगर
ने केटली
बनाकर भेजी। केसरलिंग
ने बड़ी उत्सुकता
से पार्सल
खोली, फिर
सिर ठोंक
लिया! उस
जापानी ने
क्या किया?...दोनों भेज
दी थीं। जो
इन्होंने
भेजी थी, वह
भी, ताकि
तुम मिला लो।
और नई भी भेजी
थी।...बिलकुल वैसी
ही बनाई थी, सिर्फ एक
भूल हो गई। वह
भी भूल काउंट केसरलिंग
की खुद की थी।
जैसी पहली केटली
टुकड़े—टुकड़े
होकर जुड़ी थी,
वैसे ही
उसने टुकड़े—टुकड़े
करके जोड़ कर
दूसरी केटली
भी भेज दी।
बिलकुल ठीक
वैसी। जरा
रत्ती—भर भेद
नहीं था। भूल
तो काउंट केसरलिंग
की थी, साफ
लिखना था, उन्हें
क्या पता!
लेकिन भूल
होना
स्वाभाविक थी।
लेकिन जापानी
कलाकार भी
क्या करे? जब
उससे कहा गया
कि ठीक ऐसी, तो पुरानी
आदत, जीवनभर
का
संस्कार...चीज
जैसी है वैसी
ही बनाने में
उसकी
प्रसिद्धि
थी...तो उसने
बना दी केटली,
लेकिन वैसे
ही टुकड़े! ठीक
वैसे ही
टुकड़े!
एक
तुम्हारा
चित्त है, जन्मों—जन्मों
की एक उसकी
कुशलता है। वह
सत्य को भी जब
अपने भीतर ले
जाता है तो
उसको टुकड़े—टुकड़े
कर लेता है, झूठ की तरह
जमा लेता है।
वह सत्य को भी
सत्य की तरह
नहीं पी सकता।
पहले उसे
असत्य करेगा,
तब पीएगा।
वह सत्य को भी
जब तक खंड खंड
न कर ले...। झूठ
को आत्मसात
करने की आदत
इतनी पुरानी
है कि अब तुम
सिर्फ झूठ को
ही आत्मसात कर
सकते हो। सत्य
भी तुम्हारे
द्वार पर झूठ
की तरह आए तो
ही तुम स्वागत
कर सकते हो।
अन्यथा तुम
स्वागत न कर
सकोगे।
इसलिए
बुद्धों का तो
तुम स्वागत
नहीं करते, पंडितों का,
पुरोहितों
का स्वागत
करते हो।
पंडित—पुरोहित
कौन हैं?
जो
सत्य को इतना
झूठ कर देते
हैं कि वह
तुम्हारे
पचाने के
योग्य हो जाता
है। जो सत्य
को इतना विकृत
कर देते हैं, इतना लीप—पोत
देते हैं कि
तुम्हारी
झूठी दुनिया
में समाविष्ट
हो सके। पंडित—पुरोहित
बुद्धों और
तुम्हारे बीच
एक महान कार्य
में संलग्न
होते हैं। वह
महान कार्य यह
है कि वे सत्य
में से सत्य
छीनते हैं और
सत्य को झूठ
को वस्त्र
पहनाते हैं।
कठिनाई
परमात्मा की
तरफ से नहीं
है।
साहब
का घर दूर, सहज न
जानिए।
वह
दूरी
तुम्हारे ही
भीतर है।
तुम्हारे
भीतर जितना
चित्त का
फैलाव है, जितने
विचारों की
भीड़ है, उतनी
दूरी है।
विचार कम होते
जाएं, दूरी
कम हो जाएगी।
एक कदम नहीं
उठाना है
परमात्मा तक
पहुंचने के
लिए; सिर्फ
विचार से खाली
हो जाओ!
निर्भार हो
जाओ! निर्विचार
हो जाओ!
निर्विकल्प
हो जाओ! और
परमात्मा
अपने भीतर आंख
बंद किए—किए, अपने घर में
बैठे—बैठे
उपलब्ध हो
जाता है।
जिस
दिन परमात्मा
पाया जाता है, उस दिन यह भी
कहना ठीक नहीं
मालूम होता कि
मैंने
परमात्मा
पाया।
बुद्ध
को जब पहली
दफा ज्ञान हुआ
और आकाश से देवता
उतरे और
ब्रह्मा ने
उनकी पूजा की
और पूछा कि
आपको क्या
मिला? तो
बुद्ध हंसे और
उन्होंने कहा:
मिला कुछ भी नहीं,
हां, खोया
जरूर कुछ।
अपने को खोया।
और मिला? मिला
कुछ भी नहीं।
ब्रह्मा ने
कहा: उलझाइए
मत। सीधी—साफ
बात करिए। आप
सत्य को
उपलब्ध हो गए
हैं, यही
सोच कर तो हम
आपकी पूजा—प्रार्थना
को आए और आप
कहते हैं: कुछ
मिला नहीं!
बुद्ध ने कहा:
फिर दोहराता
हूं कि कुछ
नहीं मिला। जो
मिला ही हुआ
था, उसको
जाना। उसको
मिलना कैसे
कहें? वह
मेरे भीतर
मौजूद ही था, सिर्फ मुझे
पता नहीं था; होश नहीं था,
सुरति नहीं
थी, स्मृति
नहीं थी।
जैसे
खजाना गड़ा
हो घर में और
तुम भूल गए कि
कहां गड़ाया
है। और फिर एक
दिन तुम्हें
याद आ गई या
नक्शा हाथ लग
गया और तुमने
खजाना खोद
लिया। तो कुछ
पाया? पाए
हुए को ही
पाया तो इसको
पाना क्या
कहना!
बुद्ध
ठीक कहते हैं
कि मैंने खोया
कुछ। खोया अपना
अहंकार, खोया
अपना अज्ञान,
खोई अपनी जड़,
अंधी आदतें,
खोया अपना
चित्त, मन,
मन का
व्यापार।
पाया? पाई
समाधि, जो
कि सदा से ही
मेरे भीतर
मौजूद थी। जिस
दिन भी
विचारों की
भीड़ को विदा
कर देता, उसी
दिन मिली थी।
अरे
हां, पलटू
गिरे तो
चकनाचूर, बचन
को मानिए।।
पलटू
कहते हैं, लेकिन एक
बात तुम्हें
याद दिला दूं,
इस सत्य की
खोज में बहुत
होश से चलना; क्योंकि
गिरे तो
चकनाचूर...!
स्वभावतः। जो
लोग समतल भूमि
पर चलते हैं, राजपथ पर
चलते हैं, वे
गिर भी पड़ें
तो चकनाचूर नहीं
हो जाएंगे।
लेकिन हिलेरी
और तेनजिंग
अगर एवरेस्ट
से गिरेंगे,
तो चकनाचूर
नहीं होंगे तो
क्या होंगे? जितनी ऊंचाई
पर चढ़ोगे
उतना ही
चकनाचूर होने
का डर है।
इसलिए
हमारी भाषा
में एक शब्द
है: योगभ्रष्ट।
लेकिन भोग—भ्रष्ट
शब्द नहीं है।
भोगी भ्रष्ट
हो ही नहीं सकता।
और कहां
गिरेगा? गिरने
को अब कोई जगह
नहीं बची। वे
पहले से ही बैठे
हैं वहां जहां
कोई गिर सकता
था! स्वर्ग से तो
भ्रष्ट होते
हैं लोग, नर्क
से भ्रष्ट
नहीं होते।
तुमने सुना
कभी कि कोई
नर्क से
भ्रष्ट हो गया
और नर्क से
निकाल दिया
गया? हां, अदम को
स्वर्ग से तो
निकाला गया, नर्क से तो
किसी को नहीं
निकाला जा
सकता। निकालोगे
तो भेजोगे
कहां? और
तो कोई जगह ही
नहीं उससे
नीचे। इसलिए
योगी भ्रष्ट
हो सकता है।
इसका इतना ही
अर्थ है कि योगी
ऊंचाइयों पर उड़ता है।
जितनी
ऊंचाइयों पर
उड़ते हो, उतने
ही पंख टूटने
का डर है।
पर्वत—शिखरों
पर चढ़ोगे,
जैसे—जैसे
ऊंचाई करीब
आएगी, श्वास
लेना मुश्किल
होने लगता है।
जैसे—जैसे
ऊंचाई करीब
आएगी, थोड़ा—सा
भार भी बहुत
भारी हो जाता
है। जैसे—जैसे
ऊंचाई करीब
आएगी, वैसे
ही रास्ते
संकरे और
खतरनाक होने
लगते हैं। और
एक पैर चूका
कि फिर बचने
का उपाय नहीं!
झेन
फकीर रिंझाई
अपने शिष्यों
से एक प्रयोग
करवाता था।
उसने अपने
आश्रम में एक
फीट चौड़ी और
सौ फीट लंबी
एक लकड़ी की
पट्टी बनवा
रखी थी। वह
लोगों से कहता
कि इस पर चलो।
लोग बड़े हैरान
होते कि इसमें
कौन—सी खूबी
की बात है? बच्चे भी चल
जाते, बूढ़े
भी चल जाते।
एक फीट चौड़ी, सौ फीट लंबी
लकड़ी की पट्टी
आश्रम में रखी
थी, उस पर
चलने को कहता
वह। जो भी कोई
उससे पूछता कि
ध्यान क्या है,
वह कहता:
जरा ठहरो। फिर
लकड़ी को उठवा
कर आश्रम के
दो मकानों की
छतों पर रखवा
देता। अब
कहता: अब चलो!
वही लकड़ी—एक
फीट चौड़ी, सौ
फीट लंबी—मगर
अब दो छतों के
बीच में रखी
है! अब गिरे तो
गए काम से! जो
लोग मजे से चल
गए थे उस लकड़ी
पर, उनके
भी हाथ—पैर
कंपने लगते।
वे कहते कि अब
नहीं चल सकते।
लेकिन रिंझाई
कहता कि फर्क
क्या है? तुम्हें
क्या भेद पड़ता
है लकड़ी कहां
रखी है? जमीन
में रखी है कि
आसमान में रखी
है, क्या
फर्क पड़ता है?
उतनी ही
चौड़ी है, उतनी
ही लंबी है, वही तुम हो—तुम
में और लकड़ी
में कोई फर्क
नहीं, लकड़ी
कहां रखी है, इससे फर्क
क्या पड़ता है?
वे लोग कहते,
हम समझ गए
आपका मतलब। अब
कृपा करो, मगर
चलवाओ
मत।
रिंझाई
उस लकड़ी पर
चलता। कुछ
अपने शिष्य, जो ध्यान
में गहरे उतर
गए थे, उनको
चलवाता। कहता
कि ये चल रहे
हैं। तुम भी चल
सकते हो। मगर
नए लोग तो
बहुत घबड़ाते,
कि यह जान
का खतरा है
इसमें।
क्या
खतरा है? क्योंकि
अब होश से
चलना होगा।
जमीन पर रखी
थी, सोए—सोए
भी चल गए तो चल
गया। गिर भी
जाते तो क्या
हर्जा था? गिरते
तो गिरते
कहां! पैर भी नहीं
मोचता। अब
गिरे तो सिर
भी टूट सकता
है। अब होश से
चलना होगा।
जितनी ऊंचाई,
उतना होश।
और जितना होश,
उतनी
ऊंचाई। अन्योन्याश्रित
हैं। ऊंचाई
बढ़ती है, होश
बढ़ाना पड़ता
है। होश बढ़ता
है, ऊंचाई
बढ़ती है। जिस
दिन परम ऊंचाई
पर तुम पहुंचते
हो, उस दिन
परम होश। और
जब परम होश
होता है, तो
परम ऊंचाई।
अरे
हां, पलटू
गिरे तो
चकनाचूर, बचन
को मानिए।।
इसलिए
बहुत सम्हल कर
चलना, बहुत
होशपूर्वक
चलना।
पहिले
कबर खुदाय, आकिस तब हूजिए।
इसलिए
तैयारी से
चलना। पहले
कब्र खुदा
लेना और फिर
आशिक होना।
पहिले
कबर खुदाय, आसिक तब हूजिए।
सिर
पर कप्फन बांधि, पांव तब
दीजिए।।
जब
इतनी तैयारी
हो, प्राणों
को गंवाने की,
तो फिर कोई
हर्जा नहीं
है। जीवन को
चढ़ा देने की
सामर्थ्य हो,
तो महाजीवन
मिलता है।
निश्चित
मिलता है!
लेकिन यह कोई
सस्ता सौदा
नहीं है। इससे
महंगा और सौदा
क्या होगा!
आसिक
को दिनराति
नाहिं है सोवना।
प्रेमी
को सोना कहां
है? जागना
ही जागना है।
अरे
हां, पलटू
बेदर्दी मासूक
दर्द कब खोवना।।
एक
क्षण को भी
प्रेमी का
दर्द नहीं
खोता। पीड़ा
उसके हृदय में
गूंजती
ही रहती है।
पीर उसके रोएं—रोएं में
समाई होती है।
स्मरण प्रीतम
का बना ही रहता
है—नींद में
भी।
सौ सौ जन्म
प्रतीक्षा कर
लूं,
प्रिय
मिलने का वचन
भरो तो!
पलकों
पलकों
शूल बुहारूं
अंसुअन सींचूं
सौरभ—गलियां।
भंवरों
पर पहरा बिठला
दूं
कहीं
न जूठी कर
दें कलियां।
फूट
पड़े पतझर से
लाली,
तुम
अरुणारे
चरण धरो
तो!
लट बिखराए
जोग रमाए
प्रीत
कुमारी
तुम्हें
बुलाए।
बैरन
पीड़ा तुम बिन
मन में
बिना
धुएं का हवन
कराए।
सांस
सांस फिर
रास रचा ले,
बन
घनश्याम उमड़ बिखरो तो!
रात
न मेरी दूध नहाई
प्रात
न मेरा फूलों
वाला।
तार
तार हो
गया निमोही
काया
का रंगीन
दुशाला।
जीवन
सिंदूरी हो
जाए,
तुम
चिवन की
किरन करो तो!
सूरज
को अधरों पर
धर लूं
काजल
कर डालूं
अंधियारी।
युग—युग
के पल—छिन गिन
गिनकर
बाट
निहारूं
प्राण
तुम्हारी!
सांसों
की जंजीरें तोडूं,
तुम
प्राणों की
अगन हरो तो!
सौ सौ जन्म
प्रतीक्षा कर
लूं,
प्रिय
मिलने का वचन
भरो तो!
सांसों
की जंजीरें तोडूं,
तुम
प्राणों की
अगन हरो तो!...
...श्वास—श्वास
में पुकार, धड़कन—धड़कन
में स्मृति; न सोते चैन, न आगे चैन; दिन और रात
का भेद मिट
जाता है
प्रेमी को। जब
ऐसी स्मृति
पकड़ लेती है
कि तुम भुलाना
भी चाहो तो
भुला न सको, तभी जानना
कि मिलन संभव
है।
तब
तो हर तरफ से
उसके इशारे
मिलने लगते
हैं—
महुए
के पीछे से झांका
है चांद
पियाऽ
आ!
आंगन
में बिखराए
जूही के फूल
लहरों
पर तिर आए
सपनों के कूल
नयन
मूंद लो, बड़ा बांका
है चांद
पियाऽ
आ!
बांट
गईं सांझिन
हवाएं
पराग
बांकी
स्वर लौट गए
शेष वही राग
टेसू
के फूल—सा टहाका
है चांद
पियाऽ
आ!
प्रीति
से नहाया है
तन का हिरन
चुपके
से चुनता है क्वांरी
किरन
जीतो
तो इससे, लड़ाका है चांद
पियाऽ
आ!
परमात्मा
को भक्त
प्रेमी की तरह
खोजता है। परमात्मा
उसके लिए
प्रियतम है—या
प्रियतमाहै।
तब सुबह ऊगते
सूरज में भी
वही है, चांद
में भी वही है;
अंधेरे में
भी वही है; प्रकाश
में भी वही है;
पूर्णिमा
भी उसकी, अमावस
भी उसकी; लोगों
में भी वही; चारों तरफ
उसका मंदिर
निर्मित होने
लगता है। सारा
अस्तित्व
उसका मंदिर हो
जाता है। चांदत्तारे
उसके मंदिर की
सजावट हो जाते
हैं।
जो
तुझको है चाह
सजन को देखना।
करम
भरम दे छोड़ि
जगत का पेखना।।
बांध
सूरज की डोरि
शब्द में पिलैगा।
अरे
हां, पलटू
ज्ञान ध्यान
के पार ठिकाना
मिलैगा।।
जो
तुझको है चाह
सजन को
देखना।...उस
प्यारे को अगर
देखना हो, साजन को अगर
देखना हो, तो
एक बात छोड़ दो—करम
भरम दे छोड़ि
जगत का पेखना।
यह खयाल छोड़
दो कि
तुम्हारे
करने से कुछ
होगा।
परमात्मा
तुम्हारे
कृत्य से नहीं
पाया जाता, तुम्हारी
प्रीति से
पाया जाता है।
आरती उतारो,
व्रत—उपवास
करो, नग्न
होकर जंगलों
में भटको,
करो लाख
उपाय, तुम
उसे न पा
सकोगे। और कुछ
भी न करो
सिर्फ उसकी
सुरति
तुम्हारे
भीतर उतर जाए,
सिर्फ उसकी
गूंज
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में समा जाए
और वह मिला; निश्चित ही मिला।
देर नहीं होगी
मिलने में।
करम
भरम दे छोड़ि
जगत का पेखना।
यह जो
कर्म का भ्रम
है कि मैं कुछ
कर लूंगा, धन में चल
जाता है, पद
में चल जाता
है, प्रार्थना
में नहीं
चलता। लेकिन
हमने प्रार्थना
को भी कर्म
बना लिया है!
लोग कहते हैं—प्रार्थना
की या नहीं? आज प्रार्थना
की या नहीं? प्रार्थना
कहीं की जाती
है! पूछना
चाहिए: आज प्रार्थना
में हुए या
नहीं? कर्म
की भाषा ठीक
नहीं है
प्रार्थना के
संबंध में। वह
तो डुबकी
मारना है।
भावना है, कृत्य
नहीं।
इस
भेद को ठीक से
समझ लो।
संसार
में जो भी
पाया जाता है, कृत्य से
पाया जाता है।
और परमात्मा
में जो भी
पाया जाता है,
झोली
फैलाकर पाया
जाता है, कृत्य
से नहीं। जो
भी पाया जाता
है, हृदय
को खोलकर पाया
जाता है। श्रम
से नहीं, विश्राम
में पाया जाता
है।
तुमने
यह क्या कर
दिया कि मैं
गाता हूं।
भर भर आता है
हिया कि मैं
गाता हूं।
भक्त
कुछ नहीं करता, परमात्मा
कुछ करता है।
भक्त तो सिर्फ
करने देता है।
भक्त का अर्थ
है: जो
परमात्मा को
बाधा नहीं
डालता। जो
कहता है: जो
तेरी मर्जी!
तू कर! बाएं
चला तो बाएं, दाएं चला तो
दाएं; उठा
तो उठा, गिरा
तो गिरा! सुख
दे तो सुख, दुख
दे तो दुख! तू
जो दे, चूंकि
तू देने वाला
है, इसलिए
सबका स्वागत
है! छेड़
मेरी वीणा को,
संगीत उठा,
कि गीत का, कि बांसुरी
बजा, कि
मुझे मौन में
छोड़ दे, तू
जो कर, मैं
तेरे हाथ में
हूं!
तुमने
यह क्या कर
दिया कि मैं
गाता हूं।
भर भर आता है
हिया कि मैं
गाता हूं।
यह
कौन आग है
मीठी मीठी
मन में,
भीतर
भीतर तुमने
कैसे सुलगाई?
कुछ
ऐसे झनका
दिए तार वीणा
के,
हर
सांस गीत बनकर
अधरों तक आई,
यों
तो मिट्टी थी
इसमें, ऐसा
क्या था?
तुमने
सोना कर लिया
कि मैं गाता
हूं।
भर भर आता है
हिया कि मैं
गाता हूं।
जैसे
सावन की सन—सन—सनन
समीरन—
लतिकाओं
के तन—मन पुलका
जाती है,
जैसे
कि ओस की बूंद
शिथिल फूलों
का—
सौरभ
पराग छूकर
छलका जाती है,
जैसे
अमराई महके
तो कोयल के—
—पागल
प्राणों की
हूक बहक उठती
है,
वैसे
ही बहका बहका
प्राण पपीहा,
रह रह
पुकारता पिया
कि मैं गाता
हूं।
भर भर आता है
हिया कि मैं
गाता हूं।
कोई
जादू है, इंद्रजाल है
कोई,
ऐसा
वरदान कहां से
तुमने पाया?
जिस
पत्थर को छू
लिया, जगत
ने पूजा
जिसके
भीतर बस गए, प्राण
कहलाया,
लगता
है, जड़त्तन में कुछ
चेतन भी है
जो
गा देता हूं
दुनिया
दुहराती है
तुमने
ही तृण को
वंशी बना दिया
है,
मैंने
ऐसा क्या किया
कि मैं गाता
हूं।
भर भर आता है
हिया कि मैं
गाता हूं।
भक्त
तो चौंकता है
जब उसके भीतर
गीत उठने लगते
हैं, जो उसके
गाए हुए नहीं।
भक्त तो
चौंकता है जब
उसके हृदय में
प्रार्थनाएं
जगने लगती हैं,
जो कि उसकी
निर्मित
नहीं। जब उसके
भीतर गायत्री
जगती है, ओंकार
का नाद होता
है, तब
भक्त वैसा ही
अवाक रह जाता
है—चमत्कृत—जैसे
तुम्हारे
सामने कोई
अनूठी घटना घट
जाए। कोई ऐसी
घटना घट जाए
जो प्रकृति के
नियम के अनुकूल
नहीं है। कि
पत्थर चलने
लगे, कि
पत्थर में पंख
लग जाएं और
पत्थर उड़ने
लगे। कुछ ऐसी
घटना जब भक्त
के भीतर घटती
है तो वह भी
चौंक जाता है।
क्यों?
क्योंकि
मैंने तो किया
नहीं, यह
प्रार्थना
कैसे हो रही
है? मैंने
तो किया नहीं,
यह अर्चना
कैसे जगी है? मैंने तो
फूल सजाए नहीं,
मैंने तो
आरती उतारी
नहीं, आरती
उतर रही है!
प्रेम
इस जगत में
सबसे बड़ा जादू
है। उससे बड़ा कोई
जादू नहीं है।
भक्त प्रेम के
जादू में डूब
जाता है।
जो
तुझको है चाह
सजन को देखना।
करम
भरम दे छोड़ि
जगत का पेखना।।
बांध
सूरज की डोरि
सब्द में पिलैगा।
स्मृति
की डोर बांधो।
याद की डोर बांधो।
बस कच्चा धागा
याद का काफी
है। और उस
स्मृति के
धागे को पकड़कर
चल पड़ो।
गहरी डुबकी
मारो।
जिसको
बुद्ध ध्यान
कहते हैं, उसकी को
भक्त सुरति
कहते हैं। असल
में बुद्ध से
ही आया शब्द।
बुद्ध ने कहा
है: सम्मासति।
सम्यक
स्मृति। वही
स्मृति शब्द
लोक व्यवहार
में घिसते—घिसते
सुरति हो गया।
लोक—व्यवहार
शब्दों को
गोलाई दे देता
है। स्मृति में
थोड़े कोने
हैं। सुरति, घिस—पिस गई।
जैसे नदी में
तुम एक पत्थर डाल
दो। घिसटता—पिसटता, चलता, धक्के
खाता, गुजरता
जब पहुंचेगा
समुद्र तक, तो तुम
पाओगे गोल हो
गया; शंकरजी की पिंडी हो
गई। शंकरजी
की पिंडी ऐसे
ही बनती है।
एक गोलाई आ
जाती है। गोलाई
में एक
सौंदर्य है, एक
स्त्रैणता
है। स्मृति
शब्द में थोड़ा
पुरुष—भाव है।
सुरति प्यारी
हो गई, ज्यादा
रसपूर्ण हो
गई।
इसीलिए
कोई भाषा ऊपर
से नहीं थोपी
जा सकती। और
जब भी कोई
भाषा ऊपर से
थोपी जाती है, जो सदियों—सदियों
में घिसती—पिसती
नहीं, वह
बड़ी बेहूदी
लगती है।
ऐसी
कोशिश इस देश
में की गई। डा.
रघुवीर ने एक
पूरी की पूरी
हिंदी भाषा गढ़ डाली। क्योंकि
अंग्रेजी के
बहुत—से शब्द
हैं जो पुरानी
हिंदी में
नहीं हैं—होंगे
भी कैसे—और
उनका उपयोग
करना जरूरी है, तो रघुवीर
ने भाषा गढ़
ली। डा.
रघुवीर से
मेरा एक बार
मिलना हुआ।
मैंने उनसे
कहा कि आप
शब्द गढ़ने
में तो कुशल
हैं, लेकिन
शब्दों में
नोकें हैं, उनमें गोलाई
नहीं है। और
मैंने यही
उदाहरण दिया,
जैसे—स्मृति
और सुरति।
स्मृति
संस्कृत है, सुरति लोकभाषा।
स्मृति पंडित
का शब्द है, सुरति अपढ़
अज्ञानी का।
लेकिन जो
सुरति में मजा
है, वह
स्मृति में
नहीं है।
डा.
रघुवीर ने बड़े—बड़े
शब्द गढ़े।
मगर गढ़े
हुए शब्द
कृत्रिम। लोक—व्यवहार
में आ न सके।
रघुवीर की
भाषा मर गई।
और न केवल
रघुवीर की
भाषा मर गई, रघुवीर के
कारण हिंदी का
राष्ट्रभाषा
होना असंभव हो
गया। क्योंकि
उन्होंने जो
शब्द दिए...जैसे,
रेलगाड़ी के
लिए: लौह—पथ—गामिनी।
बिलकुल ठीक
अनुवाद कर
दिया। रेल यानी
लौह—पथ; लौह—पथ
पर जो दौड़ती
है—गामिनी।
शब्द तो खूब गढ़ा।
लेकिन गढ़ा
हुआ है, थोथा
है। लोकभाषा
ने घिसा नहीं।
लोकभाषा
घिस देती है
और चीजों को
बड़ा प्यारा कर
देती है। जैसे,
अंग्रेजी
शब्द है:
रिपोर्ट।
गांव के किसान
से पूछो, वह
कहता है: रपट
लिखवा दी? रपट।
यह ठीक अनुवाद
है। अगर हिंदी
को वह
राष्ट्रभाषा
बनना हो, तो
रपट...। यह जो
गांव का आदमी
है, इसको
अंग्रेजी का
कुछ पता नहीं,
मगर रपट—कैसी
रपट आती है
जबान से!
रिपोर्ट, जरा
अटकती है।
रिपोर्ट जरा
उधार मालूम
होती है। सुगम
नहीं, सरल
नहीं।
बांध
सूरत की डोरि
सब्द में पिलैगा।
बांध
लो स्मृति का
धागा, डोर!
जैसे कोई कुएं
में डोर
लटकाता है, ऐसे स्मृति
की डोर लटका
दो अपने हृदय
के कुएं में
और उसी डोर के
सहारे उतर
जाओ।
अरे
हां, पलटू
ज्ञान ध्यान
के पार ठिकाना
मिलैगा।।
खूब
कीमती बात
कही! ज्ञान के
ही पार नहीं, ध्यान के भी
पार। क्यों? ज्ञान तो
उधार है, बासा
है—समझ में
आता है। कि
ज्ञान से कभी
किसी को नहीं मिला;
ज्ञान से
कभी कोई
ज्ञानी नहीं
हुआ। ज्ञान तो
अज्ञान को
छिपा लेता है,
बस। ज्ञान
तो धोखा देता
है। अज्ञानी
को ज्ञानी बना
देन का भ्रम
पैदा कर देता
है। ज्ञान तो
आडंबर है। मूढ़
रट लेता वेद
के वचन और
ज्ञानी मालूम
होने लगता है।
जैसे अंधा
प्रकाश के
संबंध में बात
करने लगे और
बहरा संगीत की
चर्चा छेड़
दे। ऐसा मूढ़
गीता, कुरान,
बाइबिल को
दोहराने लगता
है। बस दोहरा
सकता है। ऊपरी
सिखावन है, उसके भीतर
कोई अनुभव
नहीं।
इसलिए
ज्ञान के तो
पार है ही, मगर पलटू ने
तो और भी गजब
किया, कहा:
ध्यान के भी
पार। क्यों? क्योंकि
ध्यान शब्द
में भी ऐसा
लगता है जैसे,
कुछ करना।
ध्यान भी
क्रिया है।
ध्यान में भी
करने की अकड़
बनी रहती है।
प्रेम तो होता
है, ध्यान
किया जाता है।
प्रेम किया
नहीं जाता। इसलिए
तो हम कहते
हैं कि क्या
करें, मेरा
उससे प्रेम हो
गया। तुमसे
कोई अगर कहे, करो इसको
प्रेम, सरकारी
आज्ञा है! तो
तुम क्या
करोगे? तुम
कहोगे, भाई,
आज्ञा है तो
ठीक है; कोशिश
करते हैं। ऐसे
ही तो लोग
कोशिश कर रहे
हैं, सरकारी
आज्ञा के
अनुसार। पति
पत्नियों को
प्रेम कर रहे
हैं, पत्नियां पतियों
को प्रेम कर
रही हैं, मां—बाप
बेटों को
प्रेम कर रहे
हैं, बेटे
मां—बाप को
प्रेम कर रहे
हैं—सरकारी
आज्ञा है। अब
पत्नी है तो
उसको तो प्रेम
करना ही
पड़ेगा। लेकिन
जो प्रेम करना
पड़े, वह
झूठा होगा।
प्रेम
करना नहीं
पड़ता, प्रेम
होता है।
तुम्हारे बस
के बाहर है।
तुम परवश होते
हो। तुम न
करना चाहो तो
भी कुछ नहीं
हो सकता। ऊपर
से उतरता है।
किसी अलौकिक
लोक से आता
है।
और पति—पत्नी
का प्रेम ही
नहीं, शिष्य
और गुरु के
बीच जो प्रेम
की अपूर्व
घटना घटती है,
वह भी किए—किए
नहीं होती।
लाख करो, चूक
जाओगे। और
किसी तरह कर
ली तो झूठी
होगी, मिथ्या
होगी, व्यवहार
मात्र होगी।
हृदय सूखा का
सूखा रह जाएगा,
रसधार न
बहेगी। यह
प्रेम भी हो
जाता है।
इसीलिए
तो कोई शिष्य
नहीं समझा
सकता कि क्या
हो गया है
उसे।
मेरे
पास जो लोग
संन्यस्त हुए
हैं, उनकी
अड़चन...! मेरे
पास रोज पत्र
आते हैं। लोग
कहते हैं कि
अच्छी झंझट
में हम पड़ गए।
जो देखो वही
पूछता है कि
तुम्हें क्या
हो गया? तुमने
क्यों
संन्यास लिया?
चूंकि हम
आंखें फाड़े
रह जाते हैं
और कुछ उत्तर
दे नहीं पाते—क्योंकि
जो उत्तर सही
है, वह वे
नहीं समझ
सकते। अगर हम
कहते हैं:
क्या करें, प्रेम हो
गया! तो वे
कहते हैं, प्रेम—वेम कुछ
नहीं, तुम
सम्मोहित हो
गए हो। तुम पर
कोई जादू—टोना
कर दिया गया
है। ऐसे कहीं
होता है! हम भी
गए थे! हमें
कुछ नहीं हुआ।
तुम्हें कैसे
हुआ?
प्रेम
अव्याख्य है, अनिर्वचनीय
है। और
अव्याख्य है,
अनिर्वचनीय
है, इसीलिए
परमात्मा का
द्वार है।
क्योंकि परमात्मा
भी अव्याख्य
है और अनिर्वचनीय
है।
पलटू
कह रहे हैं, ध्यान तो
शायद तुम कर
भी लो...पालथी
मार कर बैठ जाओ,
योगासन साध
लो, आंख
बंद कर लो, प्राणायाम
करो, ध्यान
लगाओ, भीतर
एक प्रकाश के
बिंदु पर
चित्त एकाग्र
करो—ये सब तो
शायद तुम कर
भी लो, लेकिन
प्रेम तुम
कैसे करोगे? और तुम्हारा
किया जो है, वह तुमसे
बड़ा नहीं हो
सकता।
तुम्हारा
किया परमात्मा
तक नहीं
पहुंचा सकता।
तुम्हारा
किया बाधा बन
जाएगा।
तुम्हारा हर
कृत्य
तुम्हारे अहंकार
को और मजबूत
करेगा। कृत्य
अहंकार का भोजन
है। और जहां
अहंकार है, वहां ब्रह्म
का कोई
साक्षात्कार
नहीं।
अरे
हां, पलटू
ज्ञान ध्यान
के पार ठिकाना
मिलैगा।।
ज्ञान
भी जाने दो, ध्यान भी
जाने दो, प्रेम
में डुबकी
मारो। उतर जाओ
सुरति का धागा
पकड़ कर।
कडुवा
प्याला नाम
पिया जो, ना जरै।
और
प्रेम का यह
प्याला पहले
बहुत कडुवा
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि कभी
पिया नहीं है।
स्वाद भी सीखने
होते हैं। स्वाद
की भी कला
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी एक
दिन पहुंच गई
शराबघर। थक गई
समझा—बुझाकर, लड़कर, झगड़कर, रो—धो कर, सिर
पीट कर, दीवाल
से सिर मारकर,
लेकिन
मुल्ला किसी
बात में आए ही
न! वह रोज शराबघर!
आखिर
उसने आखिरी
उपाय किया।
शराबघर
पहुंच गई।
मुल्ला
घबड़ाया।
मुसलमान
स्त्रियों को
तो मस्जिद तक
में जाने की
मनाही है, शराबघर की
तो बात ही और।
जाकर उसने
बुर्का उतार
कर रख दिया।
मुल्ला ने कहा,
अरे, यह
क्या करती है?
उसने कहा, अब मैं भी पीऊंगी।
जब तुम पी रहे
हो, तो मैं
क्यों रुकूं।
इसके पहले कि
मुल्ला कुछ
कहे...वह तो ऐसा
अवाक, ठगा—सा
रह गया; भीड़
इकट्ठी हो
गई...उसकी
पत्नी ने बोतल
से उंडेली
शराब—कभी पी
तो थी नहीं
पहले कि सोडा
इत्यादि
मिलाए, कि
थोड़ा कुछ—गटागट
पी गई! एक दो ही
घूंट लिए थे
कि गिलास भी नीचे
पटक दिया, थू—थू
करने लगी और
कहा कि हद्द
हो गई, इस
बेस्वाद, तिक्त,
कड़वी चीज को पीते
हो! वह मुल्ला
हंसा और उसने
कहा, तू
समझती थी कि
हम यहां रोज
मजा—मौज करने
आते हैं! अरे, यह बड़ी
तपश्चर्या है!
यह बड़ा कठिन
काम है! अब तेरी
समझ में आया? अब भूलकर मत
कहना कि चले
मजा—मौज करने!
पहली
दफा शराब पीओगे, तो रिक्त
लगेगी।
अभ्यास करना
होगा। प्रेम
भी शराब है।
शराबों की
शराब है। उसके
पार और शराब
कहां? उससे
गहरी और शराब
कहां?
कडुवा
प्याला नाम
पिया जो, ना जरै।
लेकिन
जिसने पी लिया, उसकी फिर
मृत्यु नहीं
होती।
क्योंकि वह है
तो अमृत। फिर
वह न तो बूढ़ा
होता और न
मरता। शरीर तो
बूढ़ा होगा और
मरेगा, मगर
तुम्हारी
चैतन्य की
भीतर की
अवस्था
शाश्वत युवा
है। उसका
अनुभव शुरू हो
जाता है।
जिसने प्रेम
पिया, उसने
अपने भीतर
शाश्वत को
जाना।
देखा—देखी
पिवै ज्वान
सो भी मरै।।
लेकिन
ध्यान रखना, दूसरे की
देखा—देखी मत
करना। कुछ लोग
देखा—देखी कर
रहे हैं! धर्म
के जगत में
देखा—देखी खूब
चल रही है! कोई
मंदिर में
पूजा कर रहा है
तो तुम भी
पूजा करने
लगे। सोचते हो,
यह पूजा में
कितना मस्त हो
रहा है, मैं
क्यों नहीं हो
रहा? उसकी
पूजा भीतर से उमगी है, तुम्हारी
पूजा कागजी
है।
मैंने
सुना है—एक
पुरानी सूफी
कहानी है—एक
आदमी को
सम्राट ने
बुलाया और
उसका बड़ा
सम्मान किया।
कारण, उस
आदमी ने पूछा,
कारण? तो
उसने कहा कि
मैंने पता
लगवाना चाहा
कि हमारी
राजधानी में
सबसे सुंदर
दंपति, जिनके
दांपत्य में
प्रसाद हो, वे कौन हैं? बहुत खोजबीन
करके
तुम्हारी
हमें खबर दी
गई। कि तुम
जैसा पति पाना
मुश्किल और
तुम्हारी
जैसी पत्नी
पाना
मुश्किल।
तुम्हारी
पत्नी सदा
सेवा में रत
रहती है। तुम
सुबह पांच बजे
उठते हो तो वह
चार बजे से उठ
कर चाय तैयार
किए तुम्हारे
पास बैठी रहती
है, कि
तुम्हें क्षण—भर
की देरी न हो
जाए। तुम रात
दो बजे लौटते
हो तो वह दो
बजे तक बैठी
द्वार पर
प्रतीक्षा
करती है। तुम
जब तक भोजन न
कर लो, वह
भोजन नहीं
करती। और
तुम्हारा भी
प्रेम उसके
प्रति ऐसा ही
गहन है। हमारा
खोजियों का दल
निरीक्षण
करता रहा है, एक वर्ष में
तुम दोनों के
बीच एक बार भी
कलह नहीं हुई।
तो ये एक लाख
स्वर्ण अशर्फियां
हम तुम्हें
भेंट देते
हैं।
आग लग
गई सारे गांव
में! जब यह
लेकर स्वर्ण अशर्फियां
घर पहुंचा, तो पड़ोसियों
को तो...हालत
तुम सोच सकते
हो! पड़ोसी
स्त्री ने अपने
पति से कहा कि
लो, अब मार
लो अपना सिर
दीवाल से!
बैठे—ठाले एक
लाख अशर्फियां
मिल गईं। अब
आज से हम भी
अच्छा
व्यवहार
करें। लड़ाई—झगड़ा बंद।
मैं भी तुम पर
तकिया नहीं फेंकूंगी
और तुम भी
गाली—गलौज बंद
करो। आज से हम
मधुर—मधुर वचन
बोला करेंगे।
प्यारे—प्यारे
वचन! मैं
तुम्हें खूब
प्यारी—प्यारी
चिट्ठियां
लिखा करूंगी;
तुम भी
दफ्तर से खबर
किया करो, फोन
भी किया करो।
दिन में दो—चार
बार कहीं से
भी फोन कर लिया,
कि हे प्राण
प्रिये...! पति
को भी बात तो
जंची, एक
लाख स्वर्ण अशर्फियां!
और पत्नी ने
कहा कि चाहे
कुछ भी हो जाए,
तुम नहीं
आओगे तो मैं
भूखी बैठी
रहूंगी। रात तुम
बीमार रहोगे
तो मैं बैठकर
पास तुम्हारा
सिर दाबूंगी।
संयोग
की बात, उसी
रात पति के
सिर में दर्द
था। अब मजबूरी
थी, तय कर
लिया था, तो
भीतर तो कुढ़
रही थी पत्नी
कि कब तक
जागना है!
थोड़ी—बहुत देर
सिर दाबा ऐसे
जोर—जोर से
दाबा कि पति
ने कहा, मार
डालेगी या
क्या करेगी? सिर दुख रहा
है कि तू मेरी
जान लेना
चाहती है? फिर
याद आया, कहा
कि हे प्राण
प्रिये! मैं
तो मजाक में
कह रहा था।
थोड़ी देर
पत्नी और जागी,
उसने कहा कि
मुए! अब सो
भी जा! ऐसे कब
तक मैं जागती
रहूंगी? और
फिर कहा, हे
पतिदेव, जो मैंने
कहा—सुना, सो
माफ करना! ऐसे
रात—भार चला।
फिर—फिर चूक
जाएं!
दूसरे
दिन पति को
कहा कि अब तू
जा सम्राट के
वहां और
प्रार्थना
करना उसने कि
हमारा भी
दांपत्य—जीवन
अदभुत है। पति
ने कहा, मेरी
तो हिम्मत
नहीं होती, तू ही जा।
इसी पर झगड़ा
हो गया कि कौन
जाए!
झगड़ते
ही पहुंचे
दोनों।
सम्राट ने
अपने सिर से
हाथ मार लिया, उन्होंने
कहा कि तुम
थोड़ा सोचो, तुम यहीं झगड़
रहे हो, मेरे
ही सामने झगड़
रहे हो! सम्राट
के सामने ही
एक—दूसरे से
बकवास होने
लगी कि तूने मुए क्यों
कहा था? और
तू सिर दबा
रही थी कि
मेरे प्राण ले
रही थी? और
मैंने सुबह
चार बजे आंख
खोल कर देखी
तो तू वहां
चाय लिए मौजूद
ही नहीं थी।
तो पत्नी ने
कहा, मैंने
कहा नहीं था
कि नींद खुलने
के पहले, तुम
जगो उसके
पहले मुझे हुद्दा
मार देना।...अब
जगने के पहले
कोई कैसे हुद्दा
मारेगा!...और
मैं कोई
ज्योतिषी तो
हूं नहीं कि मैं
पहले से पता
लगा लूं कि
तुम कब उठोगे?
सम्राट ने
कहा कि मैं
तुम्हारी
तकलीफ समझता हूं,
तुम्हारे
पड़ोसी को
पुरस्कार
मिला! लेकिन
देखा—देखी कुछ
भी करोगे, इससे
हल होने वाला
नहीं है।
प्रेम ही नहीं
है तो देखा—देखी
क्या होगा?
लोग
देखा—देखी
प्रार्थना कर
रहे हैं!
प्रेम भी नहीं
हो पाता देखा—देखी
तो प्रार्थना
तो कैसे होगी?
देखा—देखी
पिवै ज्वान
सो भी मरै।।
जो
देखा—देखी
करेगा, वह
भी धोखा खाएगा।
वह अभिमानी
मरेगा। वह तो
मृत्यु के
चक्कर में
पड़ेगा।
धर
पर सीस न होय, उतारै भुई धरै।
अरे
हां, पलटू
छोड़ै तन
की आस सरग
पर घर करै।।
उसका
ही है स्वर्ग
जो अपने सिर
को उतार कर रख
देने को तैयार
हो; अपने
अभिमान को, अपने अहंकार
को गला देने
को तैयार हो।
राम
के घर की बात
कसौटी खरी है
वहां
धोखा न चलेगा।
झूठा
टिकै न कोय आजु
की घरी लै।।
आज तक
कोई झूठा उस
कसौटी पर टिक
नहीं सका है।
इसलिए धोखाधड़ी
में मत पड़ना, पाखंड में
मत पड़ना; देखा—देखी
में मत पड़ना।
दूसरों का
आचरण देखकर
उधार आचरण मत
करना। मिथ्या
आचरण की वहां
कोई गति नहीं
है। प्रमाणिकता
की गति है।
तुम्हारा
अपना हो।
तुम्हारा
अपना हो तो पत्थर
भी हीरा है।
और हीरा दूसरे
का हो तो हीरा
भी पत्थर है।
झूठा
टिकै न कोय आजु
की घरी लै।।
जियतै
जो मरि
सीस लै
हाथ में।
जीते—जी
जो मरने की
कला जानता है।
क्या है जीते—जी
मरने की कला? ऐसे जीना
जैसे कि मैं
हूं ही नहीं, वही है। वही
मुझसे जिए, मैं न जीऊं।
मैं उसकी
बांसुरी बन
जाऊं। उसके ओठों से जो
गीत आए, मुझसे
बहे, मैं
बाधा न दूं।
अरे
हां, पलटू
ऐसा मर्द जो
होय परै
यहि बात में।।
इस
प्रेम—पंथ में, इस कठिन राह
में...प्रेम—पंथ
ऐसो
कठिन...इसमें
वही आए जो ऐसा
मर्द हो, जो
ऐसा साहसी हो।
और जिनमें ऐसा
साहस है, वे
निश्चित
पहुंच जाते
हैं।
मेरे
इस दीवानेपन
पर तुमको
क्यों होती
हैरानी,
परिणाम
यही होता
जिसके उर में
संचित आगी—पानी
तप
वाष्प बन गया
तन फिर भी यौव—घन—मन
आशा न भरी
विद्युत
में कितनी कसक—कड़क, बादल
में कितनी तड़प
भरी।
दो
दिन में मिट
जाने वाला यह
प्रणयी का
व्यवहार नहीं,
अदान—प्रदानों
से सीमित मेरा
जीवन—व्यपार
नहीं
घुल—मिल
जाने की
अभिलाषा है
अंत यहां
अभिसार नहीं
उर—अंतरिक्ष
की सीमा का सच
कहता पारावार
नहीं।
जब
इस पथ पर चलते—चलते
अपने प्रिय को
पा जाऊंगा
चिर
श्रांत—क्लांत
सत्वर उसकी
गोदी में मैं
सो जाऊंगा
हिम—कण
सा किरणों में
मिलकर उज्जवल
प्रकाश बन जाऊंगा
जग
याद करेगा
व्यथा—कथा, मैं तो
प्रिय में मिल
जाऊंगा।
जो इस
प्यारे में
बिलकुल गलने, मिलने को
राजी हैं, केवल
उन दुस्साहसियों
के लिए प्रेम
का पंथ है।
और
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
क्या कहते हैं? कि कलियुग
में बस भक्ति—मार्ग
से ही पहुंचा
जा सकता है।
कलियुग में, क्योंकि
कलियुग में
सच्चे आदमी
कहां? इसलिए
भक्ति—मार्ग
से पहुंचा जा
सकता है।
इन
सज्जनों को
कहो, भक्ति—मार्ग
से कठिन और
कोई मार्ग
नहीं।
क्योंकि प्रेम
से ज्यादा
बलिदान और कौन
मांगता है!
अपने गर्दन को
काटकर रखने की
हिम्मत है तो
ही प्रेम के
रास्ते पर
तुम्हारी गति
हो सकती है।
और नकल
न चलेगी। देखा—देखी
न चलेगी।
उधारी न
चलेगी। प्रेम
तो प्रामाणिक
हो तो ही
प्रेम होता
है। और
प्रामाणिक प्रेम
अपने—आप
प्रार्थना बन
जाता है। और
प्रार्थना बन
जाती है तुम्हारे
पंख, ले चलती
है तुम्हें
परमात्मा तक।
ऐसी
धन्य घड़ी
तुम्हारे
जीवन में आए!
प्रत्येक का
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
लेकिन साहस
होना चाहिए
अपना अधिकार
मांगने का।
मिल सकता है
तुम्हें, लेकिन
द्वार खटखटाओ।
द्वार
निश्चित
खुलेंगे।
जीसस ने कहा
है: मांगेगा
जो, मिलेगा।
द्वार जो खटखटाएगा,
उसके लिए
द्वार
निश्चित
खुलते हैं।
आज
इतना ही।
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