बहुत शुरू से
ही ओशो पुणे
आते रहे हैं।
पुणे समय के
साथ बहुत बदला
है। शुरू में
पुणे इतना
विकसित शहर
नहीं था। यहां
की हरियाली और
मूला, मूठा
दो सुंदर
नदियों के
आसपास बना यह
शहर बहुत ही
रमणीक था।
यहां बारह मास
बहुत ही
सुहावना मौसम
रहता। यहां का
जिम खाना, घुड़, रेस, गोल्फ
कोर्स बहुत ही
प्रसिद्ध हुआ
करते थे।
कोरेगाव
पार्क एक तरह
से जंगल था।
दूर—दूर फैले
बड़े—बड़े बंगले
और चारों तरफ
सघन हरियाली।
यहां पर
सैकड़ों वर्ष
पुराने विशाल
वट वृक्ष थे।
पुणे
में शुरुआत के
दिनों में ओशो
हिंद विजय
सिनेमा में प्रवचनमाला
करते थे बाद
में संघवी
फैक्ट्री में
प्रवचन भी
होते थे।
ध्यान साधना
भी होती थी।
हम तीनों भाई
पुणे आकर बस
चुके थे।
हमारी
फैक्ट्री
बहुत प्रगति
कर रही थी।
उन्हीं दिनों
एक दिन हमारे
बड़े भाई साहब
ओशो को हमारी फैक्ट्री
लाये। उन्हें
सारी
फैक्ट्री
दिखाई और
बताया कि कैसे
खाद्य पदार्थ
बनते हैं।
फैक्ट्री के प्रांगण में ही ओशो के हाथों से गुलाब का पौधा लगवाया। वहां से लौटते हुए ओशो ने विजिटिंग बुक पर लिखा, 'मैं यहां आकर आनंदित हुआ, जहां प्रेम वहां परमात्मा।’
फैक्ट्री के प्रांगण में ही ओशो के हाथों से गुलाब का पौधा लगवाया। वहां से लौटते हुए ओशो ने विजिटिंग बुक पर लिखा, 'मैं यहां आकर आनंदित हुआ, जहां प्रेम वहां परमात्मा।’
ओशो
आज भी
हमारी उस
विजिटिंग बुक
में यह अंकित
है।
'अगर सदगुरु
से प्रीति हो
तो प्रीति
सारे अवधान, सारे
व्यवधान गिरा
देती है। अगर
प्रीति हो तो
समय मिट जाता
है, क्षेत्र
मिट जाता है, बीच की सारी
दूरियां, काल
की या क्षेत्र
की, समाप्त
हो जाती हैं।
प्रेम
कालातीत है, क्षेत्रातीत
है।
अगर
प्रेम हो, तो रंग
जाओगे। कभी भी
रंग जाओगे।
सदगुरु चला भी
जाता है देह
को छोड़ कर, तो
भी उसकी आत्मा
उपलब्ध रहती
है, सदा
उपलब्ध रहती
है। जो प्रेम—पगे
हैं, जो
उसे प्रीति से
पुकारेंगे, उन पर वह फिर
भी बरसेगा।
लेकिन सदगुरु
मौजूद भी हो
और तुम अपनी
अकड़ में बैठे
हो, कि तुम
अपनी
होशियारी और
कुशलता में
बैठे हो, तो
चूक जाओगे।
जो सुन
सकते हैं वे
आज भी यमुना
के तट पर
कृष्ण की
बांसुरी सुन
सकते हैं। जो
सुन सकते हैं
वे आज भी
बंसीवट में
राधा का गीत
सुन सकते हैं।
आख चाहिए! कान
चाहिए! कान और
आख के पीछे
जुड़ा हुआ हृदय
चाहिए! आख
प्रेम से देखे, कान
प्रेम से सुने
तो बुद्ध
मौजूद हैं, कृष्ण मौजूद
हैं, जीसस
मौजूद हैं, मोहम्मद
मौजूद हैं। ये
सदा ही मौजूद
हैं।
सदगुरु
मिटता ही नहीं।
जो मिट जाए वह
क्या सदगुरु
है!'
ओशो, उत्सव
आमार जाति, आनंद आमार
गोत्र
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