दिनांक; बुधवार,
11 जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सार
सूत्र:
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
संत
लिया औतार, जगत
को राह चलावै।
भक्ति
करैं उपदेस
ज्ञान दे नाम सुनावै।।
प्रीति
बढ़ावैं जक्त में, धरनी
पर डोलैं।
कितनी
कहै कठोर, वचन
वे अमृत बोलैं।।
उनको
क्या है चाह, सहत हैं
दुख घनेरा।
जिव
तारन के हेतु मुलुक फिरते
बहुतेरा।।
पलटू
सतगुरु पायके, दास
भया निरवार।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
हरि
हरिजन को दुइ
कहै, सो नर नरकै
जाय।।
सो
नर नरकै
जाय, हरिजन
हरि अंतर
नाहीं।
फूलन
में ज्यों बास, रहैं
हरि हरिजन
माहीं।।
संतरूप
अवतार, आप
हरि धरिकै
आवैं।
भक्ति
करैं उपदेस, जगत
को राह चलावैं।।
और धरै अवतार रहै तिर्गुन—संयुक्ता।
पलटू
हरि नारद सेती
बहुत कहा समुझाय।
हरि
हरिजन को दुइ
कहै, सो नर नरकै
जाय।।
चोला
भया पुराना, आज
फटै की
काल।।
आज फटै की काल, तेहुपै
है तललचाना।
तीनों
पनगे बीत, भजन
का मरम न
जाना।।
नखसिख
भये सपेद, तेहुपै
नाहीं चेतै।
जोरि जोरि धन धरै, गला
औरन का रेतै।।
अब
का करिहौ
यार, काल
ने किया तकादा।
चलै न एकौ जोर, आय
जो पहुंचा
वादा।।
पलटू
तेहु पै
लेत है माया
मोह जंजाल।
चोला
भया पुराना, आज
फटै की
काल।।
तुम्हारी
करुणा कृपा की
कोर
सुहानी
उतनी कि जितनी
धुली
धरती, खुले नभ
की शारदीया
भोर
तुम्हारी
करुणा कि जैसे
विगत—वर्षा
शरद्
के निर्मल
सरोवर में
विहंसते
हुए सरसिज
पुंज का मकरंद,
तुम्हारी
करुणा कि
जिसका
तनिक—सा
संस्पर्श
पाकर
हो उठे
हैं आज ये
जीवंत मेरे
छंद,
तुम्हारी
करुणा
शिथिल
वात्सल्य
शीतल छांह
में
छिन भर दुबक
कर
शांति
पाता है
जगत की
ज्वाल में
झुलसा हुआ यह
मन थका हारा;
तुम्हारी
करुणा
कि छिन
यदि आंख मूंदूं
ले
तुम्हारे रूप
की झांकी
विभासित
विलसती है
प्राण की अंतः
सलिल धारा,
अब
मुझे क्या भय
कि
अंतःसलिल में
मेरी तरी
हे सदय
पाएगी
किसी दिन तो
तुम्हारा छोर
तुम्हारी
करुणा कृपा की
कोर
सुहानी
उतनी कि जितनी
धुली
धरती, खुले नभ
की शारदीया
भोर
परमात्मा
की ओर जाने
वाले दो
मार्ग। एक
ज्ञान, एक
भक्ति। ज्ञान
से जो चले, उन्हें
ध्यान साधना
पड़ा। ध्यान की
फलश्रुति
ज्ञान है।
ध्यान का फूल
खिलता है तो
ज्ञान की गंध
उठती है।
ध्यान का दीया
जलता है तो ज्ञान
की आभा फैलती
है।
लेकिन
ध्यान सभी से
सधेगा नहीं।
पचास प्रतिशत
लोग ध्यान को
साध सकते।
पचास प्रतिशत
प्रेम से
पाएंगे, भक्ति
से पाएंगे।
भक्ति
का अर्थ है:
डूबना, पूरी
तरह डूबना; मदमस्त होना,
अलमस्त
होना। ध्यान
है: जागरण, स्मरण;
भक्ति है:
विस्मरण, तन्मयता,
तल्लीनता।
ध्यान है होश,
भक्ति है
उसमें बेहोश
हो जाना।
ध्यान पाता है
स्वयं को पहले
और स्वयं से
अनुभव करता
परमात्मा का।
भक्ति पहले
पाती है
परमात्मा को,
फिर
परमात्मा में
झांकी पाती
अपनी। यह जगत
संतुलन है
विरोधाभासों
का——आधा दिन, आधी रात; आधे
स्त्री, आधे
पुरुष। एक
संतुलन है
विरोधों में।
वही संतुलन इस
जगत का शाश्वत
नियम है। उसी
को बुद्ध कह
रहे हैं: एस
धम्मो
सनंतनो। यह ही
शाश्वत नियम
कि यह जगत
विरोध से
निर्मित है।
वृक्ष
आकाश की तरफ
उठता है तो
साथ—ही—साथ
उसे पाताल की
तरफ अपनी जड़ें
भेजनी होती
हैं। जितना
ऊपर जाए, उतना
नीचे भी जाना
होता है। तब
संतुलन है। तब
वृक्ष जीवित
रह सकता है।
ऊपर ही ऊपर
जाए और नीचे
जाना भूल जाए
तो गिरेगा, बुरी तरह
गिरेगा। नीचे
ही नीचे जो, ऊपर जाना
भूल जाए, तो
जाने का कोई
प्रयोजन नहीं,
कोई अर्थ
नहीं।
विरोधों
में विरोध
नहीं हैं वरन
एक संगीत है।
परम
विरोध है
ज्ञान और
भक्ति का। और
इस सत्य को
ठीक से समझ
लेना चाहिए कि
तुम्हारी
रुचि क्या है? तुम
ज्ञान से जा
सकोगे कि
प्रेम से?
ज्ञान
का रास्ता
कठोर है, थोड़ा
रूखा—सूखा है;
पुरुष का
है। प्रेम का
रास्ता रस
डूबा है, रसनिमग्न है; हरा—भरा
है; झरनों
की कलकल है, पक्षियों के
गीत हैं। वह
रास्ता
स्त्रैण—चित्त
का है, स्त्रैण
आत्मा का है।
ध्यान
के रास्ते पर
तुम अपने संबल
हो। कोई और सहारा
नहीं। ध्यान
के रास्ते पर
संकल्प ही तुम्हारा
बल है।
तुम्हें
अकेले जाना
होगा। नितांत
अकेले। संगी—साथी
का मोह छोड़
देना होगा।
इसलिए बुद्ध
ने कहा है: अप्प
दीपो भव।
अपने दीए खुद
बनो। कोई और
दीया नहीं है; न
कोई और रोशनी
है, न कोई
और मार्ग है।
ध्यान के
रास्ते पर
एकाकी है खोज।
लेकिन
भक्ति के
रास्ते पर
समर्पण है, संकल्प
नहीं। भक्ति
के रास्ते पर
परमात्मा के
चरण उपलब्ध
हैं; उसकी
करुणा उपलब्ध
है। तुम्हें
सिर्फ झुकना है,
झोली फैलानी
है और उसकी
करुणा से भर
जाओगे। भक्ति
के रास्ते पर
परमात्मा का
हाथ उपलब्ध है,
तुम जरा हाथ
बढ़ाओ।
तुम अकेले
नहीं हो।
भक्ति के
रास्ते पर संग
है, साथ
है।
भक्ति
के रास्ते पर
तुम्हें बेल बनाना
है;
परमात्मा
के वृक्ष पर
लिपट जाना है।
ध्यान के रास्ते
पर तुम्हें
वृक्ष बनाना
है, बेल
नहीं। और इन
दोनों में
बहुत
निर्णायक रूप से
चुनाव करना
होता है, स्पष्ट
चुनाव करना
होता है।
क्योंकि भूल
से अगर भक्त
ध्यान के
रास्ते पर लग
जाए तो चूकता
ही चला जाएगा।
ध्यान सधेगा
नहीं। मन
विषाद से
भरेगा। ध्यान
पकड़ में आएगा
नहीं। और अगर
ध्यानी भक्ति
के रास्ते पर
लग जाए, तो
दीया भी
उठाएगा, आरती
भी सजाएगा,
मगर हृदय का
संग नहीं
होगा। गीत भी गाएगा, मगर
प्राण न गुनगुनाएंगे,
ओंठ ही दुहराएंगे।
धूप—दीप सजा
लेगा, अर्चना—पूजा
का थाल सजा
लेगा, लेकिन
बस औपचारिकता
होगी; प्राणों
का नृत्य, आत्मा
की लीनता संभव
नहीं होगी। सब
थोथा—थोथा
होगा।
भक्त
अगर ध्यानी बन
जाए तो सब बोझ, पहाड़
जैसा बोझ और फलश्रुति
कुछ भी नहीं।
और ध्यानी अगर
भक्त बन जाए, तो सिर्फ
औपचारिकता, पाखंड; सब
ऊपर—ऊपर, प्राण
अछूते। आत्मा भीगेगी
नहीं; आंसू
बहेंगे
नहीं; पैर
नाचेंगे
नहीं। हां, कोशिश करोगे
तो एक तरह का
व्यायाम हो
जाएगा, नृत्य
नहीं। और
कोशिश करोगे
तो आंखों से
पानी भी
गिरेगा।
लेकिन पानी और
आंसुओं में
भेद है। कोशिश
करोगे तो ढोंग
आ जाएगा——लेकिन
ढोंग से कोई
क्रांति नहीं
होती।
और इस
जगत में सबसे
बड़ा
दुर्भाग्य
यही है कि संयोग
के कारण लोगों
ने धर्म चुन
लिए हैं। कोई हिंदू
घर में पैदा
हुआ है, कोई
जैन घर में
पैदा हुआ है, तो जो जैन घर
में पैदा हुआ
है, वह बस
ध्यान की
बातें करता
रहता है। चाहे
मौलिक रूप से
उसकी क्षमता
भक्ति की हो।
और कोई अगर
कृष्ण के
संप्रदाय में
पैदा हुआ है
तो भक्ति की
बातें करता
रहता है, चाहे
क्षमता उसकी
ध्यान की हो।
पलटू
का संसार भक्त
का संसार है——यह
पहली बात खयाल
में रख लेना।
इसलिए पलटू
भक्त की भाषा
बोल रहे हैं।
भक्त की भाषा
में पहला सूत्र
है: परमात्मा
की करुणा।
अपने किए कुछ
नहीं होता।
होता है उसके
किए। हम तो बाधा
न डालें तो
बस। हम पर
हमारी इतनी
कृपा काफी कि
हम बाधा न
डालें, कि हम आड़े न आएं।
अपने और
परमात्मा के
बीच में अवरोध
न बनें। छोड़
दें सब उसकी
मर्जी पर।
तुम्हारी
करुणा कृपा की
कोर
सुहानी
उतनी कि जितनी
धुलीह
धरती, खुले नभ
की शारदीया
भोर
तुम्हारी
करुणा कि जैसे
विगत—वर्षा
शरद के
निर्मल सरोवर
में
विहंसते
हुए सरसिज
पुंज का मकरंद,
तुम्हारी
करुणा कि
जिसका
तनिक—सा
संस्पर्श
पाकर
हो उठे
हैं आज ये
जीवंत मेरे
छंद,
तुम्हारी
करुणा
शिथिल
वात्सल्य
शीतल छांह
में
छिन भर दुबक कर
शांति
पाता है
जगत की
ज्वाल में
झुलसा हुआ यह
मन थका हारा;
तुम्हारी
करुणा
कि छिन
यदि आंख मूंदं
ले
तुम्हारे रूप
की झांकी
विभासित
विलसती है
प्राण की अंतः
सलिल धारा,
अब
मुझे क्या भय
कि
अंतः सलिल में
मेरी तरी
हे सदय
पाएगी
किसी दिन तो
तुम्हारा छोर
तुम्हारी
करुणा कृपा की
कोर
सुहानी
उतनी कि जितनी
धुली
धरती, खुले नभ
की शारदीया
भोर
भक्त
को चिंता नहीं
है। एक बार
छोड़ दी अपनी
नाव उसके सागर
में——उसके
भरोसे, मांझी
है वह——एक बार
छोड़ दी उसकी
मर्जी पर नाव तूफानों
में, फिर
कोई चिंता
नहीं है।
किनारा मिले
कि न मिले, जिसने
उसके सहारे सब
छोड़ दिया उसे
किनारा मिल ही
गया। उसका
सहारा किनारा
है। फिर नाव
बचे कि डूबे, भेद नहीं
पड़ता। उसकी
मर्जी पर
जिसने छोड़
दिया, वह
डूब कर भी
किनारे को पा
लेता है।
मझधार में भी
किनारा बन
जाता है।
करुणा
का अर्थ है: यह
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति उदास
नहीं है। यह
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति
उपेक्षापूर्ण
नहीं है। यह
अस्तित्व
तुम्हारा
ध्यान करता है।
यह अस्तित्व
तुम्हें
सहारा देने को
आतुर है, उत्सुक
है। तुम्हीं
नहीं खोज रहे
हो परमात्मा
को, करुणा
का अर्थ है कि
परमात्मा भी
तुम्हें खोज रहा
है। यह आग
इकतरफा नहीं
लगी है। यह
प्रेम दोनों
तरफ जला है।
परमात्मा परम
प्रेमी है।
तुम प्रेयसी
हो। या कि तुम
परम प्रेमी हो,
परमात्मा
प्रेयसी है।
जैसी मर्जी
हो! भक्तों ने
दोनों ही रूप
स्वीकार किए
हैं।
सूफी
कहते हैं:
परमात्मा
प्रेयसी है, हम
प्रेमी हैं।
इस देश के
भक्तों ने
कहा: परमात्मा
प्रेमी है, हम प्रेयसी
हैं। वह कृष्ण,
हम उसकी गोपियां।
लेकिन एक बात
तय है कि आग
दोनों तरफ लगी
है। यह खोज
अकेले—अकेले
नहीं है।
तुम्हीं नहीं
खोज रहे हो, वह भी खोज
रहा है। करुणा
का यही अर्थ
है। उसका हाथ
भी तुम्हें
अंधेरे में
टटोल रहा है।
काश, हम
अकेले ही खोजे
हों तो मिले
या न मिले; मगर
वह भी खोजता
है। इसलिए
आश्वासन है कि
मिलन होगा, होकर रहेगा।
पलटू
यही कह रहे
हैं कि संतों
के रूप में जो
आता है, वह
उसी का हाथ है
अंधेरे में
तुम्हें
टटोलता हुआ।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
भक्त
की भाषा में
अवतार का बड़ा
अर्थ है। ज्ञानी—ध्यानी
की भाषा में
अवतार का कोई
अर्थ ही नहीं
होता।
तुम्हें
स्मरण दिलाऊं, जैन
शास्त्रों
में अवतार
शब्द का
प्रयोग नहीं
होता, न
बौद्ध
शास्त्रों
में होता है।
हो नहीं सकता।
अवतार उनकी
भाषा नहीं है।
किसका अवतार?
किसलिए?
जैन कहते
हैं, महावीर
तीर्थंकर
हैं। अवतार
नहीं। जिन हैं,
सिद्ध हैं,
बुद्ध हैं,
अवतार
नहीं। अवतार
का अर्थ होता
है: अवतरण। ऊपर
से नीचे की
तरफ उतरना।
तीर्थंकर का
अर्थ होता है:
नीचे से ऊपर
की तरफ चढ़ना।
सिद्ध का अर्थ
होता है, बुद्ध
का अर्थ होता
है: नीचे से
ऊपर की तरफ चढ़ना।
बुद्ध का अर्थ
होता है: जैसे
कीचड़ से कमल
उठे। और अवतार
का अर्थ होता
है जैसे चांद
से चांदनी झरे।
हां, कहीं
मिलन हो जाता
है कमल का और
चांदनी का——वह
बात और। कहीं
चांदनी कमल पर
झरती है, कहीं
कमल चांदनी के
साथ नाचता है,
वह बात और।
ऐसी ही
कुछ घटना यहां
घट रही है।
यहां मेरी चेष्टा
यही है कि कमल
भी खिलें
और चांद भी
ऊगे। अवतरण भी
हो और
तीर्थंकर भी जगे।
क्योंकि
चांदनी बरसे
और कमल न हों, तो
कुछ बात अधूरी
रह जाएगी। कमल
खिले और चांद न
हो, तो भी
बात कुछ अधूरी
रह जाएगी। और
जब करना ही है
तो पूरा करना,
अधूरा क्या
करना।
अब तक
पृथ्वी के
सारे धर्म अधूरे
धर्म हैं।
क्योंकि या तो
धर्म ने ज्ञान
का मार्ग पकड़ा
या भक्ति का
मार्ग पकड़ा।
मेरी बातें
इसीलिए थोड़ी
बेबूझ हो जाती
हैं। एक दिन
ज्ञान की बात
करता हूं, दूसरे
दिन भक्ति की
बात करता हूं।
कल तक ज्ञान
की बात चली, ध्यान की
बात चली, आज
से भक्ति की
बात शुरू होती
है। आज से हम
दूसरे लोक में
प्रवेश करते
हैं। आज से
बुद्ध और
महावीर
सार्थक नहीं।
आज से मीरा और
चैतन्य, पलटू,
कबीर, नानक
सार्थक
होंगे। मगर
चेष्टा मेरी
यह है कि ऐसे
तुम्हें
दोनों से राजी
कर लूं। जिसको
जो रुच
जाए। कुछ कमल
की तरह खिल
जाएं, कुछ
चांद की तरह
बरस जाएं——यह
बात पूरी हो
जाए।
पृथ्वी
एक समग्र धर्म
की प्रतीक्षा
कर रही है। एक
ऐसे धर्म की, जिसके
मंदिर में सभी
द्वार हों। एक
ऐसे धर्म की
जो मस्जिद भी
हो, मंदिर
भी हो, गिरजा
भी हो, गुरुद्वारा
भी हो। ऐसा
मंदिर बनना ही
चाहिए। बिना
ऐसे मंदिर बने
आदमी का अब
कोई भविष्य
नहीं है।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
पलटू
कहते हैं, संत
को तुम आदमी
ही मत समझना, नहीं तो भूल
हो जाएगी।
ज्ञानी भी
कहते हैं कि संत
को तुम आदमी
ही मत समझना, नहीं तो भूल
हो जाएगी। मगर,
ज्ञानी
कहते हैं: संत
है सिद्धपुरुष।
है तो मनुष्य
ही, लेकिन
अपने पूर्ण
विकास को
उपलब्ध हुआ; जागरूक हुआ।
सारी कलुष, सारी कल्मष
त्याग दी।
सारा अंधकार
काट डाला। ध्यान
के दीए को जला
लिया।
आत्मवान हुआ।
लेकिन भक्त
कहता है: संत
सिर्फ मनुष्य
नहीं है, परमात्मा
का हाथ है, जो
उन्हें टटोल
रहा है जो
अंधेरे में
भटके हुए हैं।
सिद्ध
भी मार्ग बनता
है,
लेकिन बहुत
अलग अर्थों
में। सिद्ध भी
अनेकों को
द्वार बनता है,
लेकिन बहुत
अलग अर्थों
में। अपने ही
आनंद को बांटने
के लिए। लेकिन
हमसे कितना ही
ऊंचा हो, ज्ञानी
की भाषा में
सिद्ध हमारी
शृंखला की अंतिम
कड़ी नहीं है, बल्कि
परमात्मा की
हमें खोजने के
लिए अंतिम
चेष्टा है।
ऐसा ही
समझो, जैसे
गिलास आधा
पानी से भरा
हो और कोई कहे:
आधा खाली है——वह
भी ठीक; और
कोई कहे: आधा
भरा है——वह भी
ठीक; दोनों
ठीक हैं।
लेकिन पूरी
बात नहीं है
दोनों में से
किसी के पास।
पूरी बात तो
यह है कि गिलास
आधा भरा, आधा
खाली है। यह
गिलास के संबंध
में पूरा
वक्तव्य
होगा।
संत के
संबंध में मैं
वक्तव्य देना
चाहता हूं कि
आधा भरा, आधा
खाली। आधा
मनुष्य की परम
उपलब्धि, आधा
परमात्मा की
परम करुणा।
परमात्मा ने
तुम्हें छोड़
नहीं दिया है
कि भटकते ही
रहो। पुकार
रहा है। उसने
आशा नहीं
त्याग दी है।
तुम्हें देखकर
अब तक आशा
त्याग देनी
चाहिए थी। मगर
उसकी आशा अनंत
है।
रवींद्रनाथ
ने अपने एक
गीत में कहा
है: जब भी कोई
नया बच्चा
पैदा होता है
तो मेरा हृदय
परमात्मा के
प्रति
धन्यवाद से भर
जाता है।
क्योंकि इस नए
पैदा होते
बच्चे में मैं
देखता हूं कि
अभी भी उसने
आदमी से आशा छोड़
नहीं दी है।
अभी भी आदमी
बनाए जा रहा
है। अभी भी
उसे भरोसा है
कि आदमी में
फूल खिलेंगे।
अभी निराश—हताश
होकर सृजन की
क्रिया बंद
नहीं कर दी, अभी
नए बच्चे गढ़
रहा है। अभी
माली उदास
होकर नहीं बैठ
गया है, अभी
बीज बो रहा
है।
रवींद्रनाथ
का गीत
महत्वपूर्ण
है। हर नया
बच्चा
परमात्मा की
करुणा की खबर
लाता है। हर
नया बच्चा
परमात्मा की
इस चेष्टा के
लिए प्रमाण
बनता है कि
तुम कितने ही भटको, उसकी
करुणा का अंत
नहीं है। वह
रहीम है, रहमान
है, महा करुणावान
है। तुम्हारे
भटकने से, तुम्हारी
भूल—चूकों
से उसकी करुणा
कम न पड़
जाएगी। तुम्हारे
पाप बड़े छोटे
हैं, उसकी
करुणा बहुत
बड़ी है।
ज्ञानी
अपने पापों का
हिसाब करता
है। एक—एक पाप
को काटना है
पुण्य से।
ज्ञानी का
रास्ता हिसाब—किताब
का है, बुद्धिमत्ता
का है। जो—जो
बुरा किया है,
उस—उस बुरे
को अच्छे से
काटना है।
अशुभ को शुभ
से काटना है।
जहां—जहां
अंधेरा है, वहां—वहां
रोशनी जगानी
है। जहां—जहां
बेहोशी है, वहां—वहां
होश लाना है।
ज्ञानी रत्ती—रत्ती
का हिसाब रख
कर चलता है।
बड़ा सावधान, बड़ा सावचेत।
कदम—कदम पर
कांटे हैं और
कांटों से
बचना है।
भक्त
को इस हिसाब—किताब
की चिंता नहीं
है। क्योंकि
भक्त की मौलिक
धारणा यह है
कि मेरे पाप, मेरे
सीमित पाप——मेरे
सीमित हाथ पाप
भी करेंगे तो
क्या पाप करेंगे?——तेरी महा
करुणा की बाढ़
में सब बह
जाएगा। इसलिए
भक्त अपने
पापों का
हिसाब नहीं
करता, उसकी
करुणा का
विचार करता
है। अपनी क्षुद्रताओं
की चिंता नहीं
करता। अपने
घावों को गिनता
नहीं, उसकी
मलहम को
पुकारता है।
अपने कांटों
की चिंता नहीं
करता, उसके
फूलों की
वर्षा को
आमंत्रित
करता है। अपनी
प्यास की उसे
बहुत सावधानी
नहीं है, उसके
सागर का भरोसा
है, उसके
अनंत सागर का
भरोसा है।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
संत
लिया औतार, जगत
को राह चलावै।
भक्ति
करैं उपदेस
ज्ञान दे नाम सुनावै।।
संत के
जीवन की पूरी
प्रक्रिया
क्या है? लोग
भटके हैं, लोग
बुरी तरह भटके
हैं। लोग उलटे
चल रहे हैं। जैसा
होना चाहिए था
वैसे नहीं हैं,
कुछ—के—कुछ
हो गए हैं।
कृत्रिम हो गए
हैं, झूठे
हो गए हैं। एक
पाखंड है जो
प्रत्येक की
आत्मा पर छा
गया है। संत झकझोरता
है, खींचता
है राह पर, लुभाता
है, बांसुरी
बजाता है, कि
अपना इकतारा,
कि गीत गाता
है, कि
हजार उपाय
करता है, हजार
विधियां
खोजता है कि
किसी तरह
तुम्हें उस
जगह ले आए
जहां से
परमात्मा
निकट है। उस
जगह ले आए
जहां तुम पुनः
लयबद्ध हो सको
और तुम्हारे
जीवन में फिर
संगीत हो, फिर
सुबह हो।
क्या
उपाय हैं उसके? भक्ति
करै उपदेस।
मौलिक
रूप से तो
प्रेम की
पराकाष्ठा
भक्ति सिखाता
है। प्रेम का
निम्नतम रूप
है काम और
प्रेम का
श्रेष्ठतम
रूप है भक्ति।
प्रेम है मध्य, काम
है निम्नतम
छोर और भक्ति
है उच्चतम।
लोग तो
काम में ही
भटक जाते हैं।
बस कामवासना में
ही जीवन
व्यतीत हो
जाता है। उनके
हाथ राख—ही—राख
लगती है। बहुत
थोड़े—से
सौभाग्यशाली
हैं जो प्रेम
को जान पाते
हैं। बहुत
थोड़े—से लोग, जो
काम की कीचड़
से प्रेम के
कमल को मुक्त
कर पाते हैं; जिनका प्रेम
कामना—शून्य
होता है; जिनके
प्रेम में कोई
मांग नहीं
होती; जिनके
प्रेम में कोई
शर्त नहीं
होती; जिनका
प्रेम बेशर्त
होता है।
फिर और
भी थोड़े लोग
हैं,
जो भक्ति को
उपलब्ध हो
पाते हैं।
भक्ति का अर्थ
है: जो कमल से
इत्र को निचोड़
लेते हैं। जो
कमल का इत्र
बना लेते हैं।
कीचड़ के कमल
बन जाए तो
कामवासना
प्रेम बनी और
कमल से इत्र निचुड़ आए, बस सुवास ही
सुवास रह जाए,
तो भक्ति।
भक्ति इत्र है,
शुद्ध
सुगंध है।
दिखाई नहीं
पड़ती, मुट्ठी
में नहीं
बांधी जा सकती
है, लेकिन
अनुभव में आती
है। प्रेम का
थोड़ा संस्पर्श
होता है।
प्रेम थोड़ा—थोड़ा
देखा जा सकता
है, धुंधला—धुंधला।
प्रेम
संध्याकाल है;
न रात, न
दिन।
कामवासना तो
अंधेरी रात
है। भक्ति भरी
दुपहर, और
प्रेम है
संध्या—काल, मध्यकाल।
थोड़ा अंधेरा
भी है, थोड़ा
उजेला भी है।
प्रेम मिश्रण
है।
जो लोग
जीवन के लिए
विज्ञान को
ठीक से नहीं
समझते, वे
सीधी छलांग
लगाना चाहते
हैं भक्ति में——चूक
जाते हैं। वे
इत्र निचोड़ने
लगते हैं और
कमल उनके पास
नहीं। इत्र निचोड़ने
लगते हैं और
गुलाब की खेती
नहीं की। उनका
इत्र
काल्पनिक ही
रह जाएगा।
पहले मिट्टी
को गुलाब तो
बनाओ। पहले
कीचड़ को कमल
तो बनाओ। पहले
जीवन में
गुलाब तो खिलने
दो।
इसलिए
मैं कहता हूं, प्रेम
से डरना मत।
क्योंकि
प्रेम में ही
भक्ति का
सूत्र छिपा
है। काम से भी
बचना मत, भागना
मत, पलायन
मत करना। जो
डर कर भाग
जाते हैं, वे
काम में ही
अटके रह जाते
हैं। डर से
कोई क्रांति
नहीं होती। और
कौन नहीं
भागना चाहेगा?
बड़ी
आश्चर्य की बात
है,
दुनिया बड़ी
अदभुत दुनिया
है; इसे
गौर से
निरीक्षण करो
तो किसी और
मनोरंजन की
जरूरत नहीं
है। यह सारा
जगत मनोरंजन—ही—मनोरंजन
है। जो लोग
यहां घरों में
रुके हैं, वे
डर के मारे
रुके हैं। और
जो घर छोड़कर
भाग गए हैं
जंगलों में, वे भी डर कर
भाग गए हैं।
यह दुनिया बड़ी
मनोरंजक है।
एक है जो डर के
मारे भागता नहीं
कि लोग क्या
कहेंगे? कि
कहीं पत्नी ने
पता लगा लिया
जंगल में तो
फिर! और बच्चे
कोई ऐसे ही
थोड़े छोड़
देंगे, पुलिस
में रिपोर्ट
करेंगे। अब
किसी तरह थोड़े
दिन और बचे
हैं, खींच
ही लो, ढो
ही लो! अब इतने—से
दिन के लिए भागना
भी क्या! और
कुछ हैं जो डर
के कारण भाग
जाते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
जब भी किसी
ट्रक को आते
देखता, या
ट्रक का हार्न
बजते देखता, तो एकदम
कंपने लगता
है। मैंने
उनसे पूछा कि नसरुद्दीन,
मानसिक
बीमारियां
मैंने बहुत
देखीं, बहुत
सुनीं; जितने
मनोचिकित्सक
दुनिया में
हुए हैं उनमें
से किसी ने भी
इस बीमारी का
उल्लेख नहीं
किया, यह
कौन—सी बीमारी
है? ट्रक
का हार्न बजता
है कि तुम
एकदम कंपने
लगते हो!
फ्रायड ने
करीब—करीब सब
मनोवैज्ञानिक
बीमारियों का
उल्लेख किया
है, मगर
इसमें इसका
कोई उल्लेख
नहीं है। नसरुद्दीन
ने कहा, अब
आप यह न पूछें
तो अच्छा।
मैंने कहा, फिर भी कुछ
तो कहो, कितने
दिन से यह
बीमारी
तुम्हें सता
रही है? उसने
कहा, आज
पच्चीस साल हो
गए। तुमने कुछ
किया नहीं? उसने कहा, कुछ किया जा
सकता ही नहीं।
अपने हाथ के
बाहर है। बस
ट्रक का हार्न
बजता है कि
एकदम छाती बैठती
है। मैंने कहा,
मामला क्या
है? कब
शुरू हुई, कैसे
शुरू हुई? उसने
कहा, मत
पूछें! लेकिन
मैं पूछता ही
गया तो उसने
कहा, अब आप
नहीं मानते तो
बता देता हूं।
पच्चीस साल
पहले मेरी
पत्नी एक ट्रक
ड्राइवर के
साथ भाग गई।
तब से हार्न
बजता है कि
मुझे डर लगता
है कि कहीं
वापस आ रही हो।
बस एकदम मेरी
छाती बैठने
लगती है, कि
अब आई!
लोग डर
से भाग भी
जाते हैं, डर
से रुके भी
हैं। लेकिन डर
कोई जीवन का
आधार है! डर तो
मारता है, मिटाता
है, बनाता
नहीं। भय तो
विध्वंसक है,
आत्मघाती
है। और
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा तुम्हें
यही समझाए चले
जाते हैं——भोगो;
भगोड़ापन। नहीं, भागना
कहीं भी नहीं
है। जागना
जरूर है, भागना
नहीं है।
समझना जरूर है,
क्रांति
जरूर लानी है!
मगर कब कोई
क्रांति ला सका
है भय से? क्रांति
आती है बोध
से।
कामवासना
को समझो, तो
तुम उसी में
छिपे हुए बीज
पाओगे प्रेम
के। और फिर
प्रेम को समझो,
तुम उसी में
बीज छिपे
पाओगे भक्ति
के। और जो
व्यक्ति
कामवासना की
सीढ़ी से उठकर
भक्ति तक
पहुंच गया, परमात्मा के
द्वार पर खड़ा
हो गया। जहां
भक्ति है, वहां
भगवान है।
लोग
पूछते हैं:
भगवान कहां?
हसीद
फकीर हुआ, बालसेन।
उससे मिलने
कुछ और हसीद
फकीर आए हुए
थे। चर्चा चल
पड़ी——एक बड़ी
दार्शनिक
चर्चा——परमात्मा
कहां है? किसी
ने कहा, पूरब
में, क्योंकि
पूरब से सूरज
ऊगता है। और
किसी ने कहा
कि जेरूसलम
में, क्योंकि
यहूदी ही
परमात्मा के
चुने हुए लोग
हैं, और
परमात्मा ने
ही मूसा के
द्वारा
यहूदियों को जेरूसलम
तक पहुंचाया।
जरूर
परमात्मा जेरूसलम
में होगा, जेरूसलम के मंदिर
में होगा! और
किसी ने कुछ, किसी ने
कुछ...। जो जरा
और ऊंची
दार्शनिक उड़ान
भर सकते थे, उन्होंने
कहा, परमात्मा
सर्वव्यापी
है; सब जगह
है; ये
क्या बातें कर
रहे हो——जेरूसलम,
कि पूरब!
परमात्मा
सर्वव्यापी
है, सब जगह
है। बालसेन
चुपचाप सुनता
रहा।
बालसेन
अदभुत फकीर
था। ऐसे ही
जैसे पलटू, जैसे
कबीर।
सब ने
फिर बालसेन
से कहा, आप
चुप हैं, आप
कुछ नहीं
बोलते; परमात्मा
कहां है? बालसेन
ने कहा, अगर
सच पूछते हो
तो परमात्मा
वहां होता है
जहां आदमी उसे
घुसने देता
है। बड़ा अदभुत
उत्तर दिया!
तुम घुसने ही
न दो तो
परमात्मा भी
क्या करेगा? तुम अपने
हृदय में आने
दो, तो।
मगर कौन उसके
लिए क्षार
खोलेगा? भक्ति
जहां है, वहां
भगवान है।
लोग
पूछते हैं:
भगवान कहां है? लोग
भगवान को
देखने भी आ
जाते हैं, मेरे
पास आ जाते
हैं कि भगवान
दिखा दें!
जैसे अंधा
प्रकाश देखना
चाहे। जैसे
बहरा संगीत
सुनना चाहे।
जैसे गूंगा
गीत गाना
चाहे। बिना
इसकी फिक्र
किए कि मैं
अंधा हूं, कि
बहरा हूं, कि
गूंगा हूं। लंगड़ा
ओलंपिक में
भाग लेने जाना
चाहता है; बिना
इसकी फिक्र
किए कि मैं लंगड़ा
हूं। उठ सकता
नहीं, चल
सकता नहीं, ओलंपिक में
भाग लेना है!
पूछते हैं
लोग: ईश्वर
कहां है? मैं
उनसे कहता
हूं: यह सवाल
ही मत उठाओ।
पहले यह बताओ:
भक्ति है? वे
कहते हैं, भक्ति
कैसे हो? पहले
भगवान का पता
होना चाहिए, तो हम भक्ति
करेंगे।
इस भेद
को खयाल में
रखना।
परमात्मा
का पता जो
पहले मांगता
है,
फिर कहता है
भक्ति करेगा,
वह कभी भक्ति
नहीं करेगा।
क्योंकि
परमात्मा का
पता भक्ति के
बिना चलता ही
नहीं। भक्ति
की आंख ही उसे
देख पाती है।
भक्ति के हाथ
ही उसे छू
पाते हैं।
भक्ति के
लबालब हृदय
में ही उसकी
तरंग उठती है।
जहां भक्ति है,
वहां भगवान
है।
सिर्फ
भक्त जानता है
कि भगवान है, और
कोई नहीं जानता।
और लोग तो
बातें करते
हैं। पंडित—पुरोहित
शब्दों का जाल
फैलाते हैं।
भक्त जानता
है। भक्त ने
देखा है। भक्त
की आंखें उससे
चार हुईं।
भक्त ने उसके
हाथ में हाथ
लिया है। भक्त
ने उसके साथ
भांवर डाली।
कबीर कहते
हैं: मैं राम
की
दुल्हनिया।
भक्त ने उसके
साथ सात फेरे
लिए हैं। भक्त
जानता है।
भक्त ने उसके
साथ सुहागरात
बिताई है।
भक्त जानता
है।
लेकिन
भक्ति तक लाने
के लिए
तुम्हें
कामवासना में
छिपे प्रेम को
मुक्त करना
पड़े,
और प्रेम
में छिपी
भक्ति को
मुक्त करना
पड़े। सारा
उपदेश भक्ति
का है। भक्ति
करें उपदेश, ज्ञान दे
नाम चुनावै।
संत के
बस तीन काम
हैं,
कि भक्ति का
उपदेश
करे...उपदेश
शब्द को समझ
लेना।
उपदेश
शब्द का बड़ा
प्यारा अर्थ
है। उपदेश का
अर्थ होता है:
पास बिठाना।
इसका मतलब
भाषण, व्याख्यान,
चर्चा? नहीं।
चर्चा, भाषण,
व्याख्यान
अपनी जगह——शायद
बहाने हैं सब
पास बिठाने के——उपदेश
का अर्थ होता
है: पास
बिठाना। देश
का अर्थ है:
स्थान, उप
का अर्थ होता
है: पास। पास, और पास, और
पास ले आना।
जिन्हें पास
लाया जा सके, उतने पास ले
आना। सदगुरु
के हृदय की
धड़कन तुम्हें
सुनाई पड़ने
लगे, इतने
पास ले आना।
उसकी श्वास—श्वास
से तुम्हारी
श्वास का
तालमेल बैठने
लगे, इतने
पास ले आना। सदगुरु के
आलिंगन में
आबद्ध हो जाना,
इतने पास ले
आना।
जो
उपदेश शब्द का
अर्थ है, वही
उपवास शब्द का
अर्थ है, वही
उपनिषद शब्द
का अर्थ है।
ये तीनों
शब्दों का एक
ही अर्थ होता
है।
उपवास
का अर्थ होता
है: उसके पास
रहना। यह भक्त
की तरफ चेष्टा
करनी पड़ेगी।
यह भक्त की
तरफ का शब्द
है,
उपवास, उसके
पास होना। यह
शिष्य का उपाय
है कि शिष्य सरकता
है, कोशिश
करता है, और
करीब आ जाऊं, और करीब आ
जाऊं——यह
उपवास। उपदेश
का अर्थ होता
है: पास लेना:
यह गुरु की
चेष्टा है कि
शिष्य को
खींचता चला जाए,
भटकने न दे,
समय न
गंवाने दे। और
उपनिषद का
अर्थ फोता है:
जब शिष्य गुरु
के पास सरक
आया, उपवासी
हुआ, और
गुरु ने जब
शिष्य को पास
ले लिया, उपदेश
दिया, तब
दोनों के बीच
जो घटना घटती
है, जो
अलौकिक संभव
है, जो
असंभव संभव
होता है, उसका
नाम है:
उपनिषद। गुरु
बोलता नहीं और
शिष्य सुनता
है। उसका नाम
है उपनिषद।
उपनिषद
इस जगत में
श्रेष्ठतम
अभिव्यक्ति
हैं शिष्य और
गुरु के
सान्निध्य की, सामीप्य
की, सत्संग
की। उदघोषणाएं
हैं। गुरु ने
दी हैं, समग्रता
से, और
शिष्य ने ली
हैं, समग्रता
से। न तो गुरु
ने देने में
कंजूसी की है
और न शिष्य ने
लेने में झिझक
की है। शिष्य
ने झोली पूरी
फैला दी जैसे
आकाश हो, और
गुरु ने पूरा
अपने को
लुटाया है।
जैसे नदी समुद्र
में उतर जाए, ऐसे गुरु
शिष्य में
उतरा है। उस
अपूर्व घटना का
नाम उपनिषद
है। उस घटना
के ही संस्मरण
उपनिषदों में
हैं।
भक्ति करैं
उपदेश। और
जैसे ही पास
ले लेता है
गुरु, प्रेम
सिखाता है, भक्ति जगाता
है और पास
लेने लगता है,
उन्हीं
क्षणों में
ज्ञान दिया
जाता है। यह
ज्ञान बहुत और
है उस ज्ञान
से जो ध्यान
से मिलता है।
ध्यान
से ज्ञान
मिलता है, तुम्हारे
भीतर ही उसका
आविर्भाव
होता है। तुम
अपने ही भीतर
डूबते जाते, डूबते जाते,
डूबते जाते,
एक क्षण
तुम्हारी ही
आत्मा में
ज्ञान का उदय
होता है। वह आत्मोदय।
भक्ति में जो
ज्ञान घटित
होता है, वह
गुरु उंडेलता
है। जैसे मेघ
घिर गए अषाढ़
के और मोर
नाचने लगे और
घटाएं घनघोर
होने लगीं और
बिजली तड़पने
लगी और प्यासी
धरती प्रतीक्षा
करने लगी, ऐसे
जब शिष्य
प्यासी धरती
की तरह गुरु
के करीब आकर
प्रतीक्षा
करता है, या
गुरु के भरे
हुए मेघ के
पास मोर की
भांति नाचता
है, तब
गुरु से एक
धारा बह उठती
है। वह गुरु
की नहीं है, परमात्मा की
है।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
इसलिए
पलटू कहते हैं, गुरु
का उसमें कुछ
भी नहीं है।
गुरु तो केवल
एक माध्यम है,
बांस की
पोंगरी, जिसमें
से परमात्मा
गीत गा देता
है, गीत
गुनगुना जाता
है। मगर शिष्य
के कान करीब हों
तो ही गीत
सुनाई पड़ता
है। यह गीत
बड़ा सूक्ष्म
है; निःशब्द
है, ध्वनिमुक्त है, ध्वनिशून्य है। यह गीत
शून्य का गीत
है। यह संगीत
शून्य का
संगीत है।
गुरु तो उतर
आने देता है, मगर शिष्य
इतने करीब
होना चाहिए——करीब—से—करीब,
जितना करीब
हो सके उतने
करीब होना
चाहिए, तो
ही उसके हृदय
तक झंकार
पहुंच सकेगी।
तो ही उसके
प्राण मदमस्त
होकर नाच
सकेंगे।
और यही
घड़ी है, जब यह
ज्ञान की
वर्षा होती है,
तो गुरु के
माध्यम से
परमात्मा
अपना दर्शन दे
देता है। नाम सुनावै...उसकी
पहचान करा
देता है। उसकी
पहचान हो जाती
है। भक्ति की
भूमि में
ज्ञान बरसता
है। ज्ञान की
वर्षा में
परमात्मा का
साक्षात्कार
है, उसका
स्मरण है। भूल
गए हैं उसे
हम। फिर याद
हो आती है। पुनर्स्मरण
है।
किससे
पीर कहूं
बांह, छुड़ाकर
जाने वाले
किसकी छांह गहूं
अंदर—बाहर
सूनापन है
चारों
ओर उदासी
चपल
नयन की मीन
विकल है
भरे
नीर में
प्यासी
पल—छिन
निशा दिवस बन, निशि—दिन,
मास
बरस बन बीते
मत आने
वाले पथ तकते
मैं
हारी तुम जीते
कब तक रखूं
संभाल भार—सी
यह
जीवन की थाती
नेह न
जाने कब चुक
जाए
कब बुझ
जाए बाती
यह
वियोग की आग
तुम्हारी
कब तक सहूं दहूं
चाहे
आज मुझे निदराए
जग
कह हाय
अभागी
किंतु
किसी दिन कभी
कहेगा वह
मुझको बड़भागी
मैं
किसका मुंह ताकूं, केवल
अपना
धर्म निबाहूं
प्रिय
है विरह मुझे,
प्रियतर है
जलती मेरी आगी
दुख
शिशु तुम दे
गए उसी के
सुख
में मगन रहूं
किससे
पीर कहूं
बांह, छुड़ाकर
जाने वाले
किसकी छांह गहूं
किसी
अज्ञात क्षण
में,
न—मालूम
कितने जन्म
बीते तब उसका
हाथ से हाथ
छूट गया। न—मालूम
किस भूल—चूक
में उसके गांठ
छूट गई। इसलिए
जब परमात्मा
का पहली बार
स्मरण आता है,
तो ऐसा नहीं
लगता कि नया
कुछ जाना, ऐसा
ही लगता है:
अति प्राचीन,
पुनः जाना।
उपनिषद
कहे हैं:
स्मरण कर!
स्मरण कर, पुनः
स्मरण कर!
जैसे जानते थे
हम कभी और भूल
गए। जैसे बात
जबान पर रखी
है, इतने
ही करीब
परमात्मा है।
कभी—कभी हो
जाता है न, राह
पर किसी को
तुम देखते हो,
पहचानी
शक्ल मालूम
पड़ती है, जबान
पर नाम रखा
मालूम पड़ता, पक्का भरोसा
है कि आदमी
जाना—माना है,
नाम भी
पहचाना है, जरा भी
संदेह नहीं है,
मगर फिर भी
है कि नाम
नहीं आ रहा!
कहीं अटक गया
है। कहीं दूर
अज्ञात में
भटक गया है।
कहीं उलझाव हो
गया है चित्त
का। नहीं उठ
पाता चेतन तक,
अचेतन में
कहीं दब गया
किस पत्थर, किसी चट्टान
में।
सदगुरु के
सान्निध्य
में——चूंकि
उसे याद आ गया
है——उसकी याद
की भनक
तुम्हारे
भीतर सोई हुई
स्मृति को जगा
देती है।
चूंकि उसने
जान लिया है, उसकी
आंखों में
झांक कर
तुम्हें फिर
भूली—बिसरी
यादें आनी
शुरू हो जाती
हैं।
और
उसकी करुणा
महान है। तुम
एक इंच चलो, तो
वह हजार मील
तुम्हारी तरफ
चलता है।
करुणा
है स्वस्ति
विपुल
धरती
का दहन पर्व
नभ का संतोष
नव रस
की आगमनी
घन का जयघोष
व्यर्थ
नहीं आंसू के
मिस यह गलना
घुल घुल
व्यर्थ
नहीं इधर उधर
गिरे पड़े बीज
सृजन
बन रहा पत्थर
इन्हीं में
पसीज
कुछ
नवीन इनमें है
उगने को ज्यों
आकुल
धरती
सी सहूं दहूं मैं
प्रिय अविराम
चरणों
में अर्पित
मैं रहूं बन
प्रणाम
नभता
में किसी दिवस
बंधन जाएंगे
खुल
भरोसा
रखो! आश्वस्त
रहो!
व्यर्थ
नहीं इधर उधर
गिर पड़े बीज
सृजन
बन रहा पत्थर
इन्हीं में
पसीज
कुछ
नवीन इनमें है
उगने को ज्यों
आकुल
धरती
सी सहूं दहूं मैं
प्रिय अविराम
चरणों
में अर्पित
मैं रहूं बन
प्रणाम
नभता
में किसी दिवस
बंधन जाएंगे
खुल
करुणा
है स्वस्ति
विपुल
उसकी
करुणा महान
है। बंधन
खुलेंगे।
स्मृति लौटेगी।
आश्वस्त रहो, भयभीत
न होना।
ज्ञानी
बुत भयभीत हो
जाता है।
क्योंकि उसे
अपने पर ही सब
करना है। खुद
ही नाव बनानी
है,
खुद ही नाव ढोनी है, तट तक ले
जानी है, खुद
ही पतवार
उठानी है, खुद
ही वह मांझी
है, खुद ही
वह यात्री है।
दूर है
किनारा।
अज्ञात है
यात्रा।
तूफान हैं
बड़े। आंधियां
बहुत। डूबने
की संभावना
ज्यादा, पहुंचने
की कम।
लेकिन
भक्त को यह भय
नहीं। नाव
तैयार है।
पतवार लिए
मांझी बैठा
है। पुकार दे
रहा है कि आओ!
करुणा
मंगलमय है
अरुण
किरण की
जिसमें आशा
उसमें कौन अनय
है
घिरे
मेघ तो बरसेंगे
ही तप्त धरा हरसेगी
जिसके
घेरे घिरे उसी
से सांस सांस
सरसेगी
आज अगर
तुम छाया भी
है तो उससे
क्या भय है
अंधकार
से लड़ पड़कर
ही जीव विकास
भरेगा
इसी
अमा पर भोर
जगेगी पुलक
विलास भरेगा
आशा पर
जीने वाले मन
की तो यही
विजय है
आज
हृदय फिर चंचल
हो क्यों और
व्यथा क्यों
जागे
जी का
ज्वार संभालूं
प्रिय से बिछुड़
आंख के आगे
जो कुछ
है सो प्रभु
की कृति है, प्रभु
तो सदा सदय है
अगर
भटक भी गया है
भक्त, तो वह
कहता है:
इसमें भी उसका
ही हाथ होगा।
जरूर इस
अभिशाप में भी
छिपा कोई
वरदान होगा।
यह भक्त का
भाव है, यह
भक्त की भाषा
है, यह
भक्त की साधना
है, कि वह
कांटों में भी
छिपे फूल
देखता है, दुर्दिन
में भी सुदिन
को नहीं
भूलता।
अंधेरी अमावस
में भी उसे
पूर्णिमा का
चांद याद बना
रहता है। उसकी
आत्मा में तो
पूर्णिमा ही
रहती है, बाहर
कितना ही
अंधेरा हो।
प्रीति
बढ़ावैं जक्त में, धरनी
पर डोलैं।
संत
प्रीति बढ़ाते
हैं जगत में।
ऐसी प्रीति बढ़ाते
हैं कि धरती
नाचे, धरती पर
लोग नाचें।
संत नाचते हैं
प्रीति में——और
नचाते हैं।
उनके पास जो आ
जाता है, वह
भी नृत्य से
भर जाता है।
कितनी
कहै कठोर वचन
वे अमृत बोलैं।।
और
चाहे कभी उनकी
बात कितनी ही
कठोर क्यों न
हो,
कभी सिर पर
पत्थर की तरह
आघात क्यों न
करे, लेकिन
जो जानते हैं
वे जानते हैं
कि वे चाहे
कितने ही कठोर
हों, उनकी
वाणी में अमृत
है। और अगर वे
कठोर भी होते
हैं तो इसीलिए
ताकि तुम में
जो कठोर हो
गया है, वह
तोड़ा जा सके।
ताकि तुम में
जो जड़ हो गया
है, उसे
तोड़ा जा सके।
अगर वे कभी
छेनी—हथौड़ी
उठाकर भी तुम
पर टूट पड़ते
हैं, तो
सिर्फ इसीलिए
कि अनगढ़
पत्थर कैसे
मूर्ति बने!
उनको
क्या है चाह, सहत हैं
दुख घनेरा।
तुम्हें
चोट पहुंचाने
का उन्हें कोई
और तो कारण
नहीं हो सकता।
उनको क्या है
चाह...अब कुछ
पाने को
उन्हें बचा
नहीं है।
परमात्मा को
पा लिया, उसे
पाने को क्या
बचता है? ऐसा
भी नहीं है कि
तुम्हारे
प्रति कठोर
होते हैं तो
इसलिए कि किसी
तरह के दुख
में पड़े हैं।
और दुखी आदमी
दूसरों को दुख
देता है। नहीं,
इसलिए भी
नहीं। उन्हें
कोई दुख दे
नहीं सकता। कितना
ही दुख उन पर
बरसे, उनके
पास आते—आते
सुख हो जाता
है। तुम फेंको
कांटा, उनके
पास पहुंचते—पहुंचते
फूल हो जाता
है। तुम दो
गाली, उनके
पास पहुंचते—पहुंचते
गीत बन जाता
है।
जिव
तारन के हेतु मुलुक
फिरते
बहुतेरा।।
एक ही
उनके भीतर धुन
है,
वह भी उनकी
अपनी नहीं, परमात्मा की
है। कि जगाएं;
कि सोए हुए
लोगों को
उठाएं; कि
स्वप्न में
खोए हुए लोगों
को उनके
स्वप्न से, दुखस्वप्न से मुक्त
करें।
पलटू
सतगुरु पायके, दास
भया निरवार।
पलटू
कहते हैं, मैंने
जिस दिन सदगुरु
पाया, उसी
दिन मेरा
निर्वाण हो
गया। फिर कोई
और निर्वाण न
रहा।
पलटू
सतगुरु पायके, दास
भया निरवार।
निरवार
के दो अर्थ
हैं। एक, निश्चय
हो गया; और
एक, निर्वाण
हो गया। मगर
दोनों एक ही
दिशा में इंगित
करते हैं। सदगुरु
को पा कर
निश्चय हो गया
कि परमात्मा
है। विश्वास न
रहा, श्रद्धा
हो गई कि
ईश्वर है। सदगुरु
है, तो
ईश्वर है। सदगुरु
को पाकर ऐसे
निश्चय का
जन्म हुआ, ऐसी
आस्था जगी कि
वही आस्था
निर्वाण बन
गई। निर्वाण
का अर्थ होता
है: अब कुछ
पाने को न
रहा। सब पा लिया
जो पाने योग्य
था।
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
प्रतिदिन
की सी भोर आज
कुछ और और
छवि छाई
अपरा—उषा
नई किरनों से
भरा भरा
रवि लाई
धरा
गगन क्यों
विह्वल से हैं
किसके आकर्षण
में
नयनों
के पथ मन में
उतरी मन कुछ
ऐसा फेरा
बाहर—भीतर
लगा पिघलने
अंधकार का
घेरा
सकल
अपरिचय मती बन
गया घुलकर अपनेपन
में
परिवर्तित
परिवेश
प्रकृति का यह
मैंने क्या देखा
सोई रत्ना
के अधरों की
अमल धवल स्मित
रेखा——
नया
रूप धर समा गई
है जैसे किरन किरन में
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
जिस
दिन सदगुरु
मिलता है, उस
दिन हृदय
पुलकित होता
है। वह दर्शन सदगुरु का
ही दर्शन नहीं
है। सदगुरु
तो झरोखा है। सदगुरु के
झरोखे से तो
परमात्मा ही झांकता
है।
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
और उस
दर्शन के बाद
यह सारा जगत
रूपांतरित हो जाता
है। क्योंकि
जिसने
परमात्मा को
एक खिड़की से देख
लिया, उसे फिर
हर खिड़की में
दिखाई पड़ने
लगता है——उन खिड़कियों
में भी जो कि
बंद हैं। वह
जानता है कि
भीतर परमात्मा
है। सदगुरु
की खुली खिड़की
से देख लिया, अब तो राह
चलते लोगों
में भी वही
दिखाई पड़ता है।
माना कि उनके
द्वार—दरवाजे
बंद हैं, लेकिन
भीतर तो वही
मालिक छिपा
है।
प्रतिदिन
की सी भोर आज
कुछ और छवि
छाई
अपरा—उषा
नई किरनों से
भरा भरा
रवि लाई
धरा
गगन क्यों
विह्वल से हैं
किसके आकर्षण
में
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
वही है
सब एक अर्थों
में और कुछ भी
वही नहीं। आकाश
नया,
सूरज नया, धरती नई।
आंख नई तो
सारा जगत नया।
दृष्टि नई तो
सृष्टि नई।
नयनों
के पथ मन में
उतरी मन कुछ
ऐसा फेरा
बाहर—भीतर
लगा पिघलने
अंधकार का
घेरा
सकल
अपरिचय मीत बन
गया घुलकर अपनेपन
में
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
सदगुरु को
पाते ही द्वार
मिल गया। सदगुरु
को पाते ही
पहली बार
तुम्हारी
नौका किनारे
लगी। सदगुरु
को पाते ही
आश्वासन, सुरक्षा।
सदगुरु
के साथ ही
भविष्य। सदगुरु
के साथ ही
जीवन में अर्थ,
लयबद्धता।
परिवर्तित
परिवेश
प्रकृति का यह
मैंने क्या देखा
सोई रत्ना
के अधरों की
अमल धवल स्मित
रेखा——
नया
रूप धर समा गई
है जैसे किरन किरन में
पुलकित
है मन किस
दर्शन में
फिर तो
एक—एक किरन
सूरज की उसकी
ही खबर लाती
है। हवा के झोंके
उसी का संदेश
लाते हैं।
वृक्ष नाचते
और वही नाचता।
जिसने सदगुरु
में उसको देख
लिया, उसे फिर
और जगह भी वही
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है। पहला
अनुभव ही कठिन
है। फिर तो
अनुभव पर
अनुभव। फिर तो
द्वार पर द्वार
जैसे अपने—से
खुलते चले
जाते हैं।
पलटू
सतगुरु पायके, दास
भया निरवार।
परस्वारथ के कारने संत
लिया औतार।।
हरि
हरिजन को दुइ
कहै, सो नर नरकै
जाए।।
पलटू
कहते हैं कि
जो भगवान को
और भगवान के
भक्त को दो
कहता है, वह
आदमी नर्क
जाता है।
सावधान रहना!
भक्त भगवान ही
हो जाता है।
दो मत कहना।
वहां दुई नहीं
बचती।
हरि
हरिजन को दुई
कहै, सो नर नरैक
जाए।।
सो
नर नरकै
जाए, हरिजन
हरि अंतर
नाहीं।
जिसने
परमात्मा को
जान लिया, वह
जानते ही
परमात्मा हो
जाता है।
फूलन
में ज्यों बास, रहैं
हरि हरिजन
माहीं।।
जैसे
फूलों में बास
है;
दिखाई नहीं
पड़ती, अनुभव
होती, ऐसे
ही हरिजन में
भी, परमात्मा
को जिसने पा
लिया उसमें, सदगुरु में भी, दिखाई
न पड़े, स्पर्श
न आए, लेकिन
अगर पास गए, अगर उपवासी
बने, अगर
उपदेश लिया, अगर उपनिषद
को घटने दिया,
तो सुवास से
भर जाओगे; अदृश्य
तुम्हें घेर
लेगा।
संतरूप
अवतार, आप
हरि धरिकै
आवैं।
स्वयं
परमात्मा
उतारता है। जो
शांत हो गए
हैं,
मौन हो गए
हैं, शून्य
हो गए हैं, वे
परमात्मा के
उतरने के लिए
आधार बन जाते
हैं।
भक्ति
करैं उपदेस, जगत
को राह चलावैं।।
तुम्हारे
पावन चरण की
धूल
हृदय
में धारण किए
हूं बाहुओं
में भेंट
पूजती
हूं मुंदी
आंखों में
संवार समेट
समर्पित
कर अश्रु भीगे
कामना के फूल
खुली
आंखों में
थिरकती
पुतलियों के
संग
कभी
स्मृतियों
में सजाती है
निराले रंग
है कसकती
कभी आंखों के
हिंडोले झूल
क्या
किसी दिन फिर
न मेरे इस
अजिर के द्वार
फिरेगा
मेरा प्रवासी, सजेगा
अभिसार
क्या न
यह मेरी किसी
दिन क्षम्य
होगी भूल
तुम्हारे
पावन चरण की
धूल
जरूर
सब क्षमा हो
जाता है।
भक्ति का यही
भरोसा है।
अक्षम्य कुछ
भी नहीं है।
सिर्फ उसके
चरणों की धूल
लेने की
क्षमता
चाहिए। सभी
क्षम्य हो
जाता है।
तुम्हारे
पावन चरण की
धूल
क्या
किसी दिन फिर
न मेरे इस
अजिर के द्वार
फिरेगा
मेरा प्रवासी, सजेगा
अभिसार
क्या न
यह मेरी किसी
दिन क्षम्य
होगी भूल
तुम्हारे
पावन चरण की
धूल
जरूर
होगी, निश्चित
होगी। होती है,
होती रही
है। यही नियम
है। यही
शाश्वत नियम
है। जो उसके
चरणों में झुक
गया। मगर कहां
उसके चरण खोजो?
आज तो आंखें
अंधी हैं, हाथ
जड़ हैं, संवेदना
शून्य हैं, कहां उसके
चरण खोजो? सदगुरु
को खोजो।
परमात्मा
को जो खोजता
है,
व्यर्थ
खोजता है। जो सदगुरु को
खोजता है, वह
चकित हो जाता
है। सदगुरु
को खोजकर सदगुरु
तो नहीं मिलता,
परमात्मा
मिलता है। और
परमात्मा को
जो खोजता है, उसे
परमात्मा तो
मिलता ही नहीं,
सदगुरु भी नहीं
मिलता है।
सदगुरु का
इतना ही अर्थ
है: जो अभी देह
में प्रगट हो
रहा है——वह
परमात्मा। जो
अभी रूप में
खड़ा,
आकार में
खड़ा——वह
परमात्मा।
अभी निराकार
को तुम न
पहचान सकोगे।
अभी आकार से
थोड़ी मैत्री बांधो।
तुम्हारे
पावन चरण की
धूल। अभी किसी
सदगुरु
के चरणों की
धूल बन जाओ।
सब क्षम्य हो
जाएगा।
भक्त
करैं उपदेस, जगत
को राह चलावैं।।
और धरै अवतार रहै तिर्गुन—संयुक्ता।
बड़ा
प्यारा वचन
है। पलटू कह
रहे हैं, ऐसे
तो सभी
परमात्मा के
अवतार हैं।
क्योंकि आए हम
वहीं से, उतरे
हम वहीं से।
हम सब उसके
अवतरण हैं। और
धरै
अवतार रहै
तिर्गुन—संयुक्ता।
सभी उसके
अवतार हैं, तो फिर सदगुरु
में और सब में
अंतर क्या है?
जरा—सा अंतर
है। बाकी जो
अवतार हैं, वे त्रिगुण
से संयुक्त
हैं। वे बंधे
हैं। वे त्रिगुण
की रस्सी में
बंधे हैं। तमस,
रजस, सत्व——इन
तीन गुणों में
पकड़े गए
हैं। इन तीन
की रस्सी में
बंधे हैं। गुण
का एक अर्थ रस्सी
भी होता है।
त्रिगुण का
अर्थ होता है:
जैसे रस्सी
तीन धागों से
बुन कर बनाई
जाती, वैसे
ही तीन धागों
से बुना हुआ
हमारा जीवन
है।
संत
रूप जब धरै
रहै तिर्गुन
से मुक्ता।।
इतना
ही फर्क है——तुम
रस्सी से बंधे
हो,
संत रस्सी
से मुक्त है।
तुम बंधे हो, संत मुक्त
है। ईश्वर तो
तुम भी हो, ईश्वर
संत भी है, तुम
सोए हो, वह
जागा।
तुम्हारे
हाथों में
जंजीर, उसके
हाथ मुक्त।
तुमने अपने
चारों तरफ एक
कारागृह बना
लिया है——माया
का, मोह का,
ममता का, लोभ का, काम
का, क्रोध
का——उसने सारी
दीवालें गिरा
दी हैं। खुले
आकाश के नीचे
आ गया है।
पलटू
हरि नारद सेती
बहुत कहा समुझाय।
पलटू
कहते हैं कि
भगवान ने नारद
तक को समझा—समझा
कर यह बात कही, क्योंकि
नारद तक को
समझ में नहीं
आती। नारद भी
भगवान का
गुणगान गाते
हैं, लोगों
का नहीं; नर
का नहीं, नारायण
का। चले, अपनी
बजाने लगे
वीणा, चले
आकाश की तरफ!
पलटू कहते हैं
कि मैं तुमसे
कहता हूं कि
नारद को भी
भगवान ने बहुत
समझा—समझा कर
कहा कि तुम
नाहक इतना
परेशान होता
है, यहां
आने की कोई
जरूरत नहीं——इतनी
दूर की
यात्रा!——वहीं
मौजूद हूं मैं,
सब मैं
मौजूद हूं
मैं। नारद तक
को समझ में
नहीं आती यह
बात, तो
अगर साधारणजनों
को न आती हो तो
कुछ आश्चर्य
नहीं।
पलटू
हरि नारद सेती
बहुत कहा समुझाया।
हरि
हरिजन को दुइ
कहै सो नर नरकै
जाए।।
भूल कर
भी हरि को और
हरिजन को दो
मत कहना। भूलकर
भी सदगुरु
को और
परमात्मा को
दो मत समझना।
उतनी दुई समझी, जरा—सी
दुई समझी, तो
तुम भटकते
रहोगे——उस
भटकने का नाम
ही नर्क है।
तुम दुख पाते
रहोगे——उस दुख
पाने का नाम
ही नर्क है।
चोला
भया पुराना, आज
फटै की
काल।।
और जरा संभलो! देर
हुई जाती है।
बहुत देर वैसे
हो गई है। सांझ
होने लगी।
सुबह कब की
बीत गई। दुपहर
भी जा चुकी।
सूरज ढलने—ढलने
को होने लगा।
चोला भया
पुराना, आज फटै की
काल। वस्त्र
जीर्ण—शीर्ण
हो गए हैं, कब
फट जाएंगे, कुछ भरोसा
नहीं है——आज कि
कल। मौत कब आ
जाएगी द्वार,
कब द्वार पर
दस्तक दे देगी——कौन
जाने!
आज फटै की काल, तेहुपै
है ललचाना।
आज
मरोगे कि कल, लेकिन
याद ही नहीं
करते मृत्यु
की। अभी भी ललचाए
हो, अभी भी
भागे फिर रहे
हो संसार में।
अभी भी दौड़ रहे
हो वस्तुओं के
पीछे। सब पड़ा
रह जाएगा, सब
ठाठ पड़ा रह
जाएगा जब बांध
चलेगा
बंजारा। और
देर कितनी है?
कब बंजारे
को चलना पड़े, कौन जाने? कब आदेश आ
जाए?
तीनों
पनगे बीत, भजन
का मरम न जाना।
बचपन
बीत गया...काश, मनुष्यता
राजनीतिज्ञों,
पंडितों, पुरोहितों
से जरा मुक्त
हो जाए, तो
बचपन में ही
भजन का मर्म आ
जाए। जितनी
जल्दी और
जितनी आसानी
से बच्चे को
भजन का मर्म आ
सकता है, उतना
फिर कभी आसान
नहीं होगा।
रोज बात कठिन
होती जाएगी।
ज्ञान बढ़ता
जाएगा, समझ
बढ़ती जाएगी, अकड़ बढ़ती
जाएगी, अहंकार
बढ़ता जाएगा।
अनुभव की पर्त
पर पर्त, धूल
पर धूल इकट्ठी
होती जाएगी।
दर्पण रोज मैला
होता है।
बच्चे के पास
निर्मल दर्पण
है। अभी अगर
भजन का मर्म आ
जाए, तो सब
से सुंदर।
लेकिन बच्चे
को हम भजन का
मर्म नहीं आने
देते। हम तो
डरते हैं, कि
कहीं साधु—संगति
में न पड़ जाए; नहीं तो काम
का न रहेगा।
अभी धन कमाना
है, अभी
दुकान चलवानी
है, अभी पद
पर पहुंचाना
है, अभी
अपने अधूरे रह
गए अहंकार को
इसके कंधे पर रख
कर पूरा करना
है——इसके कंधे
पर रखकर अभी
बंदूक चलानी
है।
तुम्हारे
बाप तुम्हारे
कंधे पर रख कर
बंदूक चलाते
रहे,
उनके बाप
उनके कंधे पर
रख कर बंदूक
चलाते रहे, तुम अपने
बेटों के
कंधों पर
बंदूक रख कर
चलाए रखना। और
बंदूक कुछ ऐसी
है कि चलती ही
नहीं! शायद
कारतूस ही
नहीं हैं
उसमें। या हैं
भी तो बहुत
गीले हैं; हिंदुस्तान
में ही बने
हैं!
एक
सिपाही बार—बार
बंदूक चला रहा
था युद्ध में——जब
चीन और भारत
का युद्ध हुआ——मगर
बंदूक कि चले
ही न। निकालकर
कारतूस देखा। बड़ा
हैरान हुआ!
अगर लिखा
होता: मेड इन
इंडिया, तो भी
ठीक था, लिखा
था: मेड इन यू.एस.ए.।
सिर ठोंक लिया
कि हद हो गई; अपने पड़ोसी
साथी को कहा
कि हद हो गई! हम तो
सोचते थे, अपने
मुल्क में बना
हो तो ठीक है, चले तो
चमत्कार! न
चले तो भारतीय,
शुद्ध देसी!
मगर इस पर
लिखा है: यू.एस.ए.!
और उस दूसरे
ने कहा, नासमझ,
यू.एस.ए. का मतलब
समझता है? उल्हासनगर सिंधी
एसोसिएशन। उल्हासनगर
में कौन—सी
चीज नहीं
बनती! और
सिंधी जो न बनाएं
सो थोड़ा! और
नाम भी, क्या
जगह चुनी
उन्होंने——उल्हासनगर!
तो यू.एस.ए.।
उल्हासनगर
सिंधी
एसोसिएशन।
कोई कानूनी
मुकदमा भी
नहीं चला
सकता।
बंदूक
कभी चलती ही
नहीं। अहंकार
कभी भरता ही नहीं।
भर सकता नहीं।
न तुम भर पाए।
अब कृपा करो, अपने
बच्चों को यह मूढ़ता न दे
जाओ। लेकिन
तीनों पन बीत
जाते——बचपन भी
बीत जाता, खिलवाड़
में; कि
भूगोल, कि
इतिहास पढ़ने
में——जो सब
व्यर्थ है।
सबसे सार्थक
बात तो यह है
कि बच्चे को
भजन का मर्म आ
जाए। फिर और
सब ठीक है। मैं
नहीं कहता कि
गणित न पढ़े,
और इतिहास न
पढ़े, और
भूगोल न पढ़े,
लेकिन वह सब
गौण है। उससे
रोटी—रोजी
मिलेगी, जीवन
नहीं।
आजीविका
मिलेगी, जीवन
नहीं। पहले
जीवन का
शास्त्र पढ़े।
और बच्चा
जितनी जल्दी
भजन में डूब
सकता है उतना
कोई नहीं डूब
सकता। अभी
चित्त तरल है,
अभी चित्त
निर्मल है, अभी
परमात्मा के
घर से आया—आया
है, अभी
याद भी बिलकुल
मिट नहीं गई है——कहीं—न—कहीं
अभी याद गूंजती
है, अभी
स्वर्ग की
थोड़ी आभा है।
इसीलिए तो
प्रत्येक
बच्चा इतना
प्यारा, इतना
स्वर्गीय
मालूम होता
है। उसकी
आंखों में अभी
ऐसी गहराई, ऐसी
निर्मलता, ऐसी
निर्दोषता है!
ये क्षण भजन
सिखाने के
हैं।
मनुष्यता में
थोड़ी समझ आएगी,
तो हर बच्चे
को पहली बात
होगी कि हम
भजन का मर्म
सिखा दें।
बचपन
बीत जाता है
खेलने में, खिलौनों
में। जवानी
बीत जाती है
और तरह के खिलौनों
में——कि भागो
स्त्री—पुरुषों
के पीछे, दौड़ते
रहो, धन कमाओ,
पद कमाओ,
बड़ा मकान
बनाओ; और
सब जानते हो
कि सब पड़ा रह
जाएगा, और
जानते हो
भलीभांति कि
जो भी पाना
चाहते हो, मिल
भी जाता तो भी
कुछ नहीं
मिलता, हाथ
खाली के खाली
रहते हैं, दौड़
जारी रहती है,
मगर जवानी
ही नहीं
बुढ़ापे तक में
लोग भजन का मर्म
नहीं मान
पाते। सत्तर
साल के हो गए, अस्सी साल
के हो गए, मगर
जमे हैं
दिल्ली में!
हटते ही नहीं।
आश्चर्य तो यह
है कि मर कर भी
कैसे हट जाते
हैं!
मैंने
सुना है, एक
आदमी को
कब्जियत की
महा बीमारी
थी। कहते हैं
कि दो महीने
बीत गए और मल—विसर्जन
नहीं हुआ सो
नहीं हुआ।
डाक्टर भी हैरान...पिला—पिला
कर दवाइयां और
इंजेक्शन और
जो कुछ भी कर सकते
थे, सब।
फिर कोई
जर्मनी से खबर
आई कि एक नई
दवा बनी है कि
कैसी भी
कब्जियत हो!...तो
इस आदमी को
कोई साधारण डोज तो
देना नहीं——जो
दो महीने से
साधे बैठा
है...ऐसा संयमी,
महायोगी! तो
डाक्टर ने
पूरी—की—पूरी
बोतल पिला दी।
दूसरे दिन कोई
खबर नहीं आई, तीसरे दिन
कुछ खबर नहीं
आई, तो वह
गया पता लगाने
कि क्या हुआ, भाई? जर्मन
दवा थी, क्या
उसका भी असर
नहीं हुआ? पूछा
लोगों से कि
क्या हालत है?
उन्होंने
कहा, वह
आदमी तो मर
गया। मगर अभी
संडास से नहीं
निकला है। अभी
मल—विसर्जन
जारी है। दवा
जर्मन...आदमी
तो मर चुका, मगर पहले मल—विसर्जन
हो जाए तो हम
उसकी अर्थी सजाएं। हम
अर्थी लिए
बैठे हैं, वह
संडास में
बैठा है।
करीब—करीब
तुम्हारे
नेताओं की यही
हालत है।
आश्चर्य होता
है कि मर कर भी
ये कुर्सी
कैसे छोड़ देते
हैं?
ऐसी कस कर पकड़ते हैं
कि लाख छुड़ाओ,
नहीं
छोड़ते। कोई
टांग खींच रहा
है, कोई
हाथ खींच रहा
है, कोई
पैर खींच रहा
है, धक्कम—धुक्की हो
रही है, एक—एक
कुर्सी पर तीनत्तीन
बैठे हैं!
कुर्सी बनी है
एक के लिए, उस
पर तीनत्तीन
चढ़े हैं!
उम्र
बीत जाती, मगर
समझ नहीं आती।
पलटू
कहते हैं, समझ
एक ही है इस
जगत में, वह
है भजन का
गरम। भक्ति का
आनंद। भक्ति
में तल्लीन
होकर, रसलीन हो कर नाच लेने
की कला।
कट गया
जीवन
प्रतीक्षा के
सहारे
अब
कहां जाऊं चरण
तजकर
तुम्हारे
भोर थी
जब गए अब ढलने
लगा है दिन
तप रहा
है कठिन वय का
रवि तुम्हारे
बिन
कभी
पाई भी
तुम्हारी खबर
हर्षित मन
घिरा
तो,
लेकिन गगन
पर घरा छूंछा
घन
सतत
पंथ निहार
मेरे नयम
हारे
शरद
बीता शिशिर
बीता हुआ मधु
आगम
सुना
है फूला फला
है तुम्हारा
शम दम
कभी की
विश्वास—पत्रों
से हुई खाली
विकंपित
निःश्वास से
है अब अपत
डाली
सूख रस
जड़ कभी के हो
गए सारे
मिल गए
प्रभु
तुम्हें जैसे
पुण्य सब
संचित
रह गई
हूं किंतु मैं
ही अकिंचन
वंचित
पूछती
हूं विनत
तुमसे आंख में
भर जल
क्या
रहेगा अंक
मेरा शून्य ही
केवल
रहूंगी
कब तक इसी
विधि धीर धारे
कट गया
जीवन
प्रतीक्षा के
सहारे
अब
कहां जाऊं चरण
तजकर
तुम्हारे
भरम
छूटता नहीं
माया का, ममता
का, मोह
का। और भरम न
छूटे माया का,
ममता का, मोह का, तो
भजन का मरम
हाथ नहीं
लगता। हम
व्यर्थ में ही
उलझे रहें, तो शून्य ही
रह जाएंगे, रिक्त ही रह
जाएंगे।
थोड़ी
सार्थक की तरफ
आंखें उठाओ! पुकारो
उसे! आकाश के
तारों को जरा
देखो। जरा
सूरज से नाता जोड़ो।
क्षुद्रता से
जरा ऊपर उठो।
खेल—खिलौनों
से मुक्त होओ।
और कहीं कोई
अगर आकाश को
उपलब्ध हो गया
हो,
तो छोड़ो
मत अवसर, संग—साथ
कर लो; उपदेश
गह लो, उपवास
कर लो, उपनिषद
घट जाने दो।
तीनों
पनगे बीत, भजन
का मरम न
जाना।।
नखसिख
भए सपेद, तेहुपै
नाहीं चेतै।
जोरि जोरि धन धरै, गला
औरन का रेतै।।
अब तक
भी आरों का
गला रेतते जा
रहे हो। और
अभी भी कर
क्या र हे हो? धन
जोड़ रहे हो। मर
कर इसी पर
सांप बन कर फन
मार कर बैठ
जाना है!
अब
का करिहौ
यार, काल
ने किया तकादा।
और
पलटू कहते हैं, फिर
मत कहना, अभी
चेताए
देता हूं, फिर
मत कहना...अब का करिहौ
यार...।
क्योंकि फिर
कहोगे तो मैं
तुमसे क्या कहूंगा,
मालूम?——अब
का करिहौ
यार, काल
ने किया तकादा।
अब मौत द्वार
पर आ गई, अब
कुछ किए नहीं
हो सकता।
चलै न एकौ जोर, आए
जो पहुंचा
वादा।।
जिस
क्षण वह घड़ी आ
जाती है
मृत्यु की, फिर
कोई जोर नहीं
चलता।
पलटू
तेहु पै
लेत है माया
मोह जंजाल।
जानते
हो सब; जानकर
अनजान बने हो!
जागे हो, और
आंखें बंद किए
पड़े हो! और
सोने का बहाना
कर रहे हो! अब
जागे को जगाना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
सोए को कोई
जगा भी दे, मगर
जो बन कर पड़ा
हो!
क्या
तुम्हें पता
नहीं कि मौत
आती है! रोज तो
आती है, रोज
तो कोई अर्थी
उठती है, रोज
तो तुम किसी
को मरघट
पहुंचा आते हो,
क्या
तुम्हें पता
नहीं है कि
तुम्हारी भी
आती होगी? कि
क्यू छोटा
होता जाता है,
आगे के लोग
सरकते जाते
हैं, तुम्हारा
नंबर भी
ज्यादा देर
नहीं, आ
जाएगा। और दस
वर्ष बाद आए
कि बीस वर्ष
बाद, क्या
फर्क पड़ता है!
जैसे और
जिंदगी गंवा
दी मूढ़ता
में, बाकी
बीस वर्ष भी
गंवा दोगे।
पलटू तेहु
पै लेत है
माया मोह जंजाल।
जल हो
या मृगजल हो
मुझे
कौन छल व्यापे
मेरा मन से
अगर न छल हो
मन की
वल्गा हाथ रहे
तो क्या कुछ
साथ नहीं है
वह
सनाथ क्या हो
कि स्वयं जो
अपना नाथ नहीं
है
कहीं
रहें मेरे
प्रभु उनका
मंदिर यह हियतल
हो
अगर
प्यास पर वश
है तो फिर मन
कैसे भटकेगा
पथ
चलने के अभिलाषी
को कांटा क्या
खटकेगा
कुसुम कंटकों का
जीवन यात्रा
पर सम संबल हो
यह कह
कैसे त्यागूं
यह भव मेरे
योग्य नहीं है
भव
मेरा है, भव
में क्या जो
मेरा भोग्य
नहीं है——
तन यदि
तरल मृदुल यदि
मन हो चरण न
यदि चंचल हो
जरा—सी
बात साधनी है।
जरा पैर सध
जाएं, शराबी
की तरह न डगमगाएं;
तन
संवेदनशील हो,
तरल हो; मन
थोड़ा मृदुल हो;
देह चंचल न
हो——जरा—सी बात बांधनी है,
जरा संगीत
अपने जीवन में
पैदा करना है
और अपूर्व
घटना शुरू हो
जाता है।
लेकिन तुम
व्यर्थ के
पीछे दौड़ रहे
हो। तुम्हें
सार्थक का होश
ही नहीं।
तुम्हें सार
की जैसे खबर
ही न हो। तुम
असार में ही
लगे रहोगे? चेतो!
चोला
भया पुराना, आज
फटै की
काल।।
पलटू
तेहु पै
लेत है माया
मोह जंजाल।
मौत को
ठीक से पहचान
लो,
मौत किसी को
छोड़ती नहीं।
मौत का कोई
अपवाद नहीं
है। और देर से
आए कि जल्दी
आए, क्या
फर्क पड़ता है।
चोला भया
पुराना आज फटै
की काल...किसी—न—किसी
घड़ी यह देह
गिर जाएगी।
साथ में ले
जाने योग्य
कुछ पाथेय है,
कुछ कमाई है,
कि जीवन में
सिर्फ गंवाया
ही गंवाया? अंधेरे—अंधेरे
में ही रहे या
सुबह को भी
चखा है? सूरज
की किरणें भी पीं, या
सब अंधेरे का
ही भोजन किया
है?
भोर आ
गई
मेरे
प्रिय के मन
में जगी किरन, जैसे
जग का कन कन
छा गई
अंधकार
धुल गया
ज्योति
द्वार खुल गया
पौन लौ
हुई चंचल
मधु
झोंकों के
अंचल——
जल—थल
का रूप भार झुल
गया
सोई
धरती को झकझोर
कर जगा गई
भोर आ
गई
रात
ढली प्रतो
की
रस
रंगी गीतों की
मेरी
निशि शबनम की
तूफानों की
तम की——
बीत गई अनघट अनरीतों
की
सपनों
की पलकों में
चेतना समा गई
भोर आ
गई
कलिका चटखी, महकी
विहगिन
जागी चहकी
खिल आए
दल दिन के
मुख दुखिता
विरहिन के——
मन में
स्वर मीड़
बना,
आगी दहकी
लेकिन
सब कुछ खोकर
मैं सब कुछ पा
गई
भोर आ
गई
कह
सकोगे ऐसा
मृत्यु के
क्षण में?——
लेकिन
सब कुछ खोकर
मैं सब कुछ पा
गई
भोर आ
गई
मेरे
प्रिय के मन
में जगी किरन, जैसे
जग का कन कन
छा गई
भोर आ
गई
कह सको
तो धन्यभागी
हो! न कह सको तो
अभागी हो।
धन्यभागी
होकर जाना! धन्यभागी
हो कर जा सकते
हो! भजन का मरम
सीख लो। बस
भजन एकमात्र
धन है, भक्ति
एकमात्र
संपदा, क्योंकि
उसी से मिलता
है भगवान।
अन्यथा शेष सब
सपना है। सपना
यह संसार!
थोड़े
सचेत हो जाओ
तो तुम भी कह
सकोगे——
भोर आ
गई
मेरे
प्रिय के मन
में जगी किरन, जैसे
जग का कन कन
छा गई
अंधकार
धुल गया
ज्योति
द्वार खुल गया
पौन लौ
हुई चंचल
मधु
झोंकों के
अंचल——
जल—थल
का रूप भार झुल
गया
सोई धरती
को झकझोर कर
जगा गई
भोर आ
गई
रात
ढली प्रीतों
की
रस रंग
की गीतों की
मेरी
निशि शबनम की
तूफानों की
तम की——
बीत गई अनघट अनरीतों
की
सपनों
की पलकों में
चेतना समा गई
भोर आ
गई
कलिका चटखी महकी
विहगिन
जागी चहकी
खिल आए
दल दिन के
मुख दुखिता
विरहन के——
मन में
स्वर मीड़
बना,
आगी दहकी
लेकिन
सब कुछ खोकर
मैं सब कुछ पा
गई
भोर आ
गई
आज
इतना ही।
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