सूत्र:
76—वर्षा
की अंधेरी रात
में प्रवेश
करो, जो रूपों का
रूप है।
77—जब
चंद्रमाहीन
वर्षा की रात
उपलब्ध न हो
तो आंखें
बंद
करो और अपने
सामने अंधकार
को देखो,
फिर
आँख खोल कर
अंधकार को
देखा।
78—जहां
कहीं भी तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी
बिंदु पर,
अनुभव।
एक बार एक गांव
में एक सज्जन
आकर टिके, उन्हें
लोग डाक्टर
कहते थे। वे
प्रसिद्ध इतिहासविद
थे, विद्वान
थे। उस गाव का
पोस्ट मास्टर,
का पोस्ट
मास्टर इस के
व्यक्ति के
प्रति बहुत
कुतूहल से भर
गया, वह
जानना चाहता
था कि यह किस
तरह का डाक्टर
है। तो एक दिन
उसने पूछ ही
लिया. 'महाशय,
आप किस चीज
के डाक्टर हैं?'
उस
व्यक्ति ने
कहा. 'मैं
दर्शनशास्त्र
का डाक्टर हूं।’
के
पोस्ट मास्टर
ने यह नाम कभी
सुना ही नहीं
था। वह बहुत
हैरान हुआ और
उसने कहा. 'मैंने यहां
इस रोग का
रोगी कभी नहीं
देखा, न ही
उसके बारे में
सुना है।’
इस पर हंसो मत।
वह का पोस्ट
मास्टर एक ढंग
से सही था; दर्शनशास्त्र
एक तरह का रोग
ही है।
निश्चित ही
दर्शनशास्त्र
के डाक्टर डाक्टर
नहीं होते, बल्कि वे तो
खुद ही मरीज
होते हैं।
लेकिन
दर्शनशास्त्र
दूसरी
बीमारियों
जैसी बीमारी
नहीं है, ऐसा नहीं है
कि कुछ लोग
इसके बीमार
हैं और कुछ नहीं
हैं।
दर्शनशास्त्र
का जन्म
मनुष्य के
जन्म के साथ ही
हुआ है। यह
उतना ही
पुराना है
जितना पुराना
मनुष्य है, या मनुष्य
का मन है। और
करीब—करीब
प्रत्येक
मनुष्य इसका
शिकार है।
क्योंकि सोच—विचार
कहीं नहीं
पहुंचाता है,
सोच—विचार
तुम्हें गोल—गोल
घुमाता है, दुष्चक्रों में घुमाता
है। तुम घूमते
तो बहुत हो—और
अगर तुम कुशल
हो तो तेजी से
घूम सकते हो—लेकिन
तुम कहीं
पहुंचते नहीं।
इस बात
को अच्छे से
समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि इसे
समझे बिना, इसकी
प्रतीति के
बिना तुम
ध्यान में छलांग
नहीं लगा सकते
हो। ध्यान
सर्वथा
विपरीत बात है,
वह
दर्शनशास्त्र
के बिलकुल
विपरीत है।
दर्शनशास्त्र
का अर्थ विचार
करना है और
ध्यान का अर्थ
निर्विचार
दशा है। वे
बिलकुल
विपरीत ध्रुव
हैं।
प्रश्नों
के संबंध में
सोच—विचार
करना और उनके
उत्तर ढूंढना
बिलकुल मानवीय
है। लेकिन
दर्शनशास्त्र
किसी उत्तर पर
नहीं पहुंचता
है। विज्ञान
किसी उत्तर पर
पहुंचता है, धर्म किसी
उत्तर पर
पहुंचता है; लेकिन
दर्शनशास्त्र
किसी उत्तर पर
नहीं पहुंचता
है। और यदि वह
किन्हीं
उत्तरों पर
पहुंचता
मालूम भी पड़ता
है तो वे
उत्तर नहीं
हैं, उत्तरों
के धोखे भर
हैं। अगर तुम
उनमें गहरे
उतरोगे तो
तुम्हें और
ज्यादा
प्रश्न ही
मिलेंगे और
कुछ नहीं।
प्रत्येक
उत्तर और नए
प्रश्न पैदा
करता है, और
यह सिलसिला
चलता रहता है।
विज्ञान
किन्हीं
उत्तरों पर
इसलिए
पहुंचता है
क्योंकि वह विचार
पर नहीं, प्रयोग पर
निर्भर है। वह
विचार का
उपयोग सिर्फ
सहायक के रूप
में करता है; लेकिन उसका
आधार प्रयोग
है। यही वजह
है कि विज्ञान
ने कुछ उत्तर
दिए हैं।
लेकिन
दार्शनिक—ज्ञात
और अशांत
दार्शनिक—सदियों
से काम कर रहे
हैं; लेकिन
अब तक एक भी
उत्तर, एक
भी निष्पत्ति
उनके हाथ नहीं
आई है। यह
संभव ही नहीं
है। सोच—विचार
का स्वभाव ही
ऐसा है कि यदि
तुम उसका उपयोग
प्रयोग के
सहायक के रूप
में करोगे तो
ही कुछ हाथ आ
सकता है।
इसीलिए कुछ
उत्तर
विज्ञान के
हाथ लग सके।
लेकिन
धर्म भी किन्हीं
उत्तरों पर
पहुंचता है, क्योंकि
धर्म भी
प्रयोग है।
विज्ञान
पदार्थ के साथ
प्रयोग करता
है, धर्म
चेतना के साथ
प्रयोग करता
है। लेकिन
दोनों प्रयोग
हैं; दोनों
प्रयोग पर
निर्भर करते
हैं। और
दर्शनशास्त्र
इन दोनों के
बीच में है, जिसमें
विचार ही
विचार है—शुद्ध
विचार, अमूर्त
विचार। उसमें
प्रयोग
बिलकुल नहीं
है। तुम चल तो
बहुत सकते हो,
लेकिन कहीं
पहुंचते नहीं
हो।
दर्शनशास्त्र
कोरी विचारणा
है, मीमांसा
है, अंतहीन
सोच—विचार है।
तुम उसका मजा
ले सकते हो; यात्रा का
मजा ले सकते
हो; लेकिन
कोई मंजिल कभी
आती नहीं।
धर्म
और विज्ञान एक
अर्थ में समान
हैं, दोनों
प्रयोग में
विश्वास करते
हैं।
निःसंदेह
धर्म का
प्रयोग
विज्ञान के
प्रयोग से
बहुत गहरा है,
क्योंकि
विज्ञान के
प्रयोग में
प्रयोगकर्ता
स्वयं संलग्न
नहीं होता है।
वह उपकरणों के
द्वारा काम
करता है, चीजों
के साथ काम
करता है, पदार्थ
के साथ काम
करता है। वह
स्वयं उनसे
अलग— थलग रहता
है, वह
स्वयं प्रयोग
से बाहर रहता
है। धर्म
ज्यादा गहन
वितान है, क्योंकि
उसमें
प्रयोगकर्ता
स्वयं प्रयोग
बन जाता है।
धर्म में कोई
उपकरण नहीं
हैं जो उससे
अलग हों, धर्म
में कोई विषय
नहीं हैं जो
उससे बाहर हों।
वह दोनों है।
अपने उपकरण और
विषय और विधि
वह स्वयं है।
वही सब है। और
उसे अपने ऊपर
ही काम करना
है।
और यह
कठिन है। कठिन
है, क्योंकि
इसमें तुम खुद
संलग्न हो। और
क्योंकि तुम
संलग्न हो, इसलिए
प्रयोग अनुभव
बन जाएगा।
विज्ञान में
प्रयोग प्रयोग
ही रहेगा; वैज्ञानिक
उससे अछूता रह
जाएगा, वह
रूपांतरित
नहीं होगा।
वैज्ञानिक
वही का वही
रहेगा। लेकिन
धर्म में
प्रयोग से
गुजरकर तुम
सर्वथा भिन्न
व्यक्ति हो
जाओगे। तुम
वही के वही
नहीं रह सकते,
तुम्हारा
रूपांतरण
अनिवार्य है।
यही कारण है
कि धार्मिक
प्रयोग अनुभव
बन जाता है।
स्मरण
रहे, तुम
ईश्वर के
संबंध में, आत्मा और
परलोक के
संबंध में
विचार करते रह
सकते हो, और
तुम मान ले
सकते हो कि
मैं ईश्वर के
संबंध में कुछ
जानता हूं
क्योंकि मैं
इस संबंध में
सोच—विचार कर
सकता हूं।
लेकिन वह झूठा
होगा। तुम
ईश्वर के
संबंध में कुछ
भी नहीं जान
सकते, 'संबंध
में' शब्द
ही बेतुका है।
तुम ईश्वर को
जान सकते हो, लेकिन तुम
ईश्वर के
संबंध में
नहीं जान सकते।
यह 'संबंध
में' ही
दर्शनशास्त्र
निर्मित करता
है।
तुम
ईश्वर के
संबंध में
कैसे जान सकते
हो? या, उदाहरण के
लिए, तुम
प्रेम के
संबंध में
कैसे जान सकते
हो? तुम
प्रेम को तो
जान सकते हो, लेकिन तुम
प्रेम के
संबंध में
नहीं जान सकते।
प्रेम के
संबंध में
जानने का अर्थ
है कि कोई और
जानता है और
तुम उसके
ज्ञान में विश्वास
करते हो। तुम
दूसरों के
विचार इकट्ठे
करते रहते हो
और फिर तुम
कहते हो. 'मैं
ईश्वर के
संबंध में कुछ
जानता हूं।’ लेकिन
इकट्ठा किया
हुआ सब ज्ञान
झूठा है, खतरनाक
है, क्योंकि
उससे तुम धोखे
में पड़ सकते
हो।
तुम
ईश्वर को जान
सकते हो, तुम प्रेम
को जान सकते
हो; तुम
अपने को जान
सकते हो।
लेकिन 'संबंध
में' जैसे
शब्दों को भूल
जाओ। यह किसी
के संबंध में
जानना ही
दर्शनशास्त्र
है। उपनिषद
कुछ कहते हैं,
वेद कुछ
कहते हैं, बाइबिल
कुछ कहती है, कुरान कुछ
कहती है; लेकिन
तुम्हारे लिए
वह जानना किसी
के संबंध में
जानना होगा।
जब तक
तुम्हारा
अनुभव नहीं
बनता है, वह
व्यर्थ है, फिजूल है।
इस बात
को अपने भीतर
खूब गहराई में
उतर जाने दो।
क्योंकि तुम
सोच—विचार
करते रह सकते
हो और मन ऐसा
है कि तुम ध्यान
के संबंध में
भी विचार करने
लग सकते हो।
तुम किसी भी
चीज को विचार
का विषय बना
सकते हो।
ध्यान के
संबंध में भी
तुम विचार कर
सकते हो, और तुम
विचार करते रह
सकते हो, लेकिन
उससे कुछ नहीं
होगा।
मैं
अनेक विधियों
पर बोल रहा
हूं। इसमें एक
खतरा है कि
तुम इन
विधियों के
संबंध में
विचार करने लग
सकते हो; तुम जानकार
हो जा सकते हो।
लेकिन उससे
कुछ नहीं होगा,
वह किसी काम
का नहीं है।
वह व्यर्थ ही
नहीं है, खतरनाक
भी है।
क्योंकि
ध्यान एक
अनुभव है; उसके
संबंध में
जानकारी दो कौड़ी की है।
इस 'अनुभव' शब्द को याद
रखो। जीवन की
समस्याएं, जीवन
की सभी
समस्याएं
अस्तित्वगत
हैं, यथार्थ
हैं, वे
सिद्धात की, सोच—विचार
की बातें नहीं
हैं। तुम सोच—विचार
के जरिए
उन्हें हल
नहीं कर सकते,
तुम उन्हें
जीकर ही उनका
समाधान कर
सकते हो। जीकर
ही, जीने
से ही भविष्य
खुलता है; सोच—विचार
से वह नहीं
खुलता। सोच—विचार
से उलटे
भविष्य बंद हो
जाता है।
तुमने
शायद ध्यान
नहीं दिया
होगा, जब
तुम विचार
करते हो तो
क्या होता है?
जब तुम
विचार करते हो
तो तुम बंद हो
जाते हो। तब
जो भी वर्तमान
है वह खो जाता
है और तुम
अपने मन में, अपने सपनों
की दुनिया में
विचरण करते हो।
एक शब्द दूसरे
शब्द को पैदा
करता है, एक
विचार दूसरे
विचार को जन्म
देता है, और
ऐसे तुम चलते
रहते हो। तुम
विचार में
जितनी गति
करते हो, उतने
ही तुम
अस्तित्व से
दूर होते जाते
हो। विचार
करना
वास्तविकता
से दूर चले
जाने का उपाय
है। विचार
करना स्वप्न
देखना है—शब्दों
में स्वप्न
देखना है।
जमीन
पर लौट आओ।
धर्म इस अर्थ
में बहुत
पार्थिव है—सांसारिक
नहीं है, पार्थिव है।
बहुत पार्थिव
है, सब्सटेंशियल है, वास्तविक
है। अस्तित्व
में लौट आओ।
जीवन की
समस्याएं तभी
हल हो सकती
हैं जब तुम्हारी
जड़ें
अस्तित्व में गड़ी हों।
विचारों में
विचरण करते
हुए तुम जड़ों
से दूर चले
जाते हो; और
तुम जितनी दूर
निकल जाते हो,
किसी
समस्या के हल
होने की
संभावना उतनी
ही कम हो जाती
है। संभव है
कि तुम चीजों
को भी उलझा दो,
संभव है कि
चीजें और ज्यादागडुमड्ड
हो जाएं।
और फिर
उलझनें जितनी बढ़ेगी तुम
उतना ही अधिक
सोच—विचार
करोगे और उतने
ही दूर निकल
जाओगे। तो सोच—विचार
से सावधान!
अब हम
विधियों में
प्रवेश
करेंगे।
अंधकार—संबंधी
पहली विधि:
वर्षा
की अंधेरी रात
में उस अंधकार
में प्रवेश
करो जो रूपों
का रूप है।
अतीत में एक
बहुत पुराना
गुह्य विद्या
का संप्रदाय
था, जिसके
बारे में शायद
तुमने न सुना
हो। यह
संप्रदाय 'इसेनी'
नाम से जाना
जाता था। जीसस
की शिक्षा—दीक्षा
उसी संप्रदाय
में हुई थी; जीसस उस
संप्रदाय के
सदस्य थे।
इसेनी
संप्रदाय
सारे संसार
में अकेला
संप्रदाय है
जिसने
परमात्मा की
धारणा परम
अंधकार के रूप
में की है।
कुरान कहती है
कि परमात्मा
प्रकाश है।
वेद कहते हैं
कि परमात्मा
प्रकाश है।
बाइबिल भी
कहती है कि
परमात्मा
प्रकाश है।
पूरी दुनिया
में सिर्फ
इसेनी की
परंपरा कहती है
कि परमात्मा
घनघोर अंधेरा
है, परमात्मा
सर्वथा
अंधकार है; एक अनंत
अंधेरी रात
जैसा है।
यह
धारणा बहुत
सुंदर है—आश्चर्यजनक
है, पर
बहुत सुंदर है।
और बहुत
अर्थपूर्ण भी
है। तुम्हें
इसका अर्थ
जरूर समझना
चाहिए। और तब
यह विधि बहुत
सहयोगी हो
जाएगी।
क्योंकि इस
विधि का
प्रयोग इसेनी
साधक अंधकार
में प्रवेश
करने के लिए, उसके साथ एक
होने के लिए
करते थे।
थोड़ा
इस पर विचार
करो कि क्यों
परमात्मा को
सब जगह प्रकाश
की भांति
चित्रित किया
गया है। इसलिए
नहीं क्योंकि
परमात्मा
प्रकाश है, बल्कि
इसलिए
क्योंकि
मनुष्य
अंधकार से
भयभीत है। यह
मानवीय भय है।
हम प्रकाश को
पसंद करते हैं
और अंधकार से
डरते हैं; इसलिए
हम अंधकार या
कालिमा के रूप
में ईश्वर की
धारणा नहीं
बना सकते। यह
मानवीय धारणा
है। हम ईश्वर
को प्रकाश की
भांति सोचते
हैं, क्योंकि
हम अंधकार से
भयभीत हैं।
हमारे
ईश्वर हमारे
भय की ही
निर्मिति हैं।
हम ही उन्हें
आकार और रूप
देते हैं। और
क्योंकि आकार
और रूप हम देते
हैं, ये
आकार और रूप
हमारे संबंध
में खबर देते
हैं, परमात्मा
के संबंध में
नहीं। वे
हमारी
निर्मिति हैं।
हम अंधकार से
भयभीत हैं; इसलिए
परमात्मा
प्रकाश है।
लेकिन
ये विधियां एक
भिन्न
संप्रदाय की
विधियां हैं।
इसेनी कहते
हैं कि ईश्वर
अंधकार है। और
इस बात में कुछ
सार है। पहली
तो बात कि
अंधकार
शाश्वत है।
प्रकाश आता—जाता
है, अंधेरा
सदा है। सुबह
सूर्य उगता है
और प्रकाश
होता है और
संध्या सूर्य
डूबता है और
अंधेरा छा
जाता है।
अंधकार के लिए
कुछ उदय नहीं
होता है; अंधकार
सदा है। वह न
कभी उगता है
और न डूबता ही
है। प्रकाश
आता—जाता है; अंधकार बना
रहता है। और
प्रकाश का सदा
कोई स्रोत है,
अंधकार स्रोतहीन
है। और जिसका
कोई स्रोत है
वह शाश्वत
नहीं हो सकता।
असीम और
शाश्वत तो वही
हो सकता है
जिसका कोई स्रोत
न हो, जो स्रोतहीन
हो। और प्रकाश
में थोड़ा तनाव
है, यही
कारण है कि
तुम प्रकाश में
नहीं सो सकते।
वह तनाव पैदा
करता है।
अंधकार
विश्राम है—समग्र
विश्राम।
लेकिन
हम अंधकार से
भयभीत क्यों
हैं? कारण
यह है कि
प्रकाश हमें
जीवन जैसा
मालूम
पड़ता है, वह जीवन है।
और अंधकार
मृत्यु जैसा
प्रतीत होता
है, वह
मृत्यु है।
जीवन प्रकाश
से आता है; और
जब तुम मरते
हो तो ऐसा
लगता है कि
तुम शाश्वत
अंधकार में
गिर गए। यही कारण
है कि हम मृत्यु
को काले रंग
में चित्रित
करते है और
काला रंग शोक
का रंग बन गया
है। ईश्वर
प्रकाश है और
मृत्यु
अंधकार है।
लेकिन
ये हमारे भय
हैं—प्रक्षेपित
और आरोपित भय।
वस्तुत:
अंधकार असीम
है; प्रकाश
सीमित है।
अंधकार गर्भ
जैसा है, जिससे
सब चीजें जन्म
लेती हैं और
जिसमें फिर विलीन
हो जाती हैं।
यह
इसेनियों का
दृष्टिकोण था।
और यह
दृष्टिकोण
बहुत सुंदर है, और बहुत
सहयोगी भी।
क्योंकि अगर
तुम अंधकार को
प्रेम कर सको
तो तुम मृत्यु
से निर्भय हो
जाओगे। अगर
तुम अंधकार
में प्रवेश कर
सको—और यह
प्रवेश तभी हो
सकता है जब भय
न हो—तो तुम
समग्र
विश्राम को
उपलब्ध हो
जाओगे। अगर
तुम अंधकार के
साथ एक हो सको
तो तुम खो जाओगे,
विलीन हो
जाओगे। सही
समर्पण है। अब
कोई भय न रहा।
क्योंकि जब
तुम अंधकार के
साथ एक हो गए
तो तुम मृत्यु
के साथ एक हो
गए। अब
तुम्हारी
मृत्यु नहीं
हो सकती, तुम
अब अमृत हो गए।
अंधकार अमृत
है। प्रकाश
जन्मता है और
मरता है; अंधकार
बस है। वह
अमृत है।
इन
विधियों के
संबंध में
पहली बात यह
स्मरण रखनी
चाहिए कि
तुम्हारे मन
में अंधकार के
प्रति, कालिमा के
प्रति कोई भय
न रहे। अन्यथा
तुम यह प्रयोग
नहीं कर सकोगे।
पहले भय को
छोड़ना होगा।
तो आरंभिक चरण
के रूप में एक
काम यह करो.
अंधेरे में
बैठ जाओ, रोशनी
बुझा दो और
अंधकार को
अनुभव करो।
उसके प्रति
प्रेमपूर्ण
दृष्टि रखो; अंधकार को
तुम्हें छूने
दो। उसे देखो।
अंधेरे कमरे
में या अंधेरी
रात में अपनी आंखें
खोलो और
अंधकार को
अनुभव करो, उसके साथ
संवाद में
उतरो, उससे
मैत्री साधो।
यदि
तुम भयभीत हो
गए तो ये
विधियां
तुम्हारे लिए
किसी काम की न
होंगी। तब तुम
इनका प्रयोग
नहीं कर सकोगे।
पहले अंधकार
के साथ घनिष्ठ
मैत्री की
जरूरत है। कभी
रात में, जब सब लोग
सोने के लिए
चले जाएं, तुम
अंधकार के साथ
रहो। कुछ करो
मत, बस
उसके साथ रहो।
और उसके साथ
मात्र रहना ही
तुम्हें उसके
प्रति गहन भाव
से भर देगा।
कारण यह है कि
अंधकार बहुत विश्रामदायी
है। सिर्फ भय
के कारण
तुम्हें
अंधकार के इस
पहलू से परिचय
नहीं हुआ। अगर
रात में
तुम्हें नींद
न आए तो तुम
तुरंत बत्ती
जला लोगे और
कुछ करने या
पढ़ने लगोगे, लेकिन तुम
अंधकार के साथ
नहीं रहोगे।
अंधकार के साथ
रहो। और अगर
तुम उसके साथ
रह सके तो
तुम्हारा
उसके साथ एक
नया संपर्क
बनेगा, तुम्हें
उसमें एक नया
द्वार मिलेगा।
मनुष्य
ने अपने को
अंधकार के
प्रति बिलकुल
बंद कर रखा है।
उसके कारण थे, ऐतिहासिक
कारण थे।
पुराने जमाने
में मनुष्य
जंगलों और
गुफाओं में
रहता था। वहा
रातें बहुत
खतरनाक होती
थीं। दिन में
तो वह
सुरक्षित
अनुभव करता था,
चारों ओर
देख सकता था।
दिन में जंगली
जानवरों के
हमलों से वह अपना
बचाव भी कर
सकता था, कम
से कम उनसे भाग
सकता था।
लेकिन रात में
चारों तरफ
अंधेरा होता
था और वह बहुत
असहाय हो जाता
था। इससे ही
वह अंधकार से
भयभीत हो गया।
और यह
भय उसके अचेतन
में गहरा चला
गया है। हम अब
भी भयभीत हैं।
अब हम गुफाओं
में नहीं रहते
हैं। अब जंगली
जानवरों का
कोई भय नहीं
है, अब
कोई हम पर
हमला नहीं
करने जा रहा
है। लेकिन भय
कायम है। वह
बहुत गहरे
प्रविष्ट हो
गया है, क्योंकि
लाखों वर्षों
तक मनुष्य का
मन भयभीत रहा
है। तुम्हारा
अचेतन केवल
तुम्हारा
अपना अचेतन नहीं
है; वह
सामूहिक है, वंशानुगत है,
वह तुम्हें
विरासत में
मिला है। वह
भय वहां है और
उस भय के कारण
तुम अंधेरे के
साथ संवाद
नहीं कर सकते,
उसके साथ
लयबद्ध नहीं
हो सकते।
एक और
बात, इस
भय के कारण ही
मनुष्य ने
अग्नि को
पूजना शुरू
किया। जब आग
खोजी गई तो आग
देवता बन गई।
ऐसा नहीं कि
आग देवता है, पर अंधेरे
के डर के कारण
आग देवता बन
गई। दिन में
प्रकाश था और
भय नहीं था—मनुष्य
ज्यादा
सुरक्षित था।
रात में
अंधकार था। तो
जब आग का
आविष्कार हुआ
तो आग ने
देवता का पद ग्रहण
कर लिया; वह
सब से बड़ा
देवता हो गई।
पारसी लोग आज
भी अग्नि की
पूजा करते हैं।
अंधकार के भय
के कारण अग्नि—पूजा
का जन्म हुआ।
रात में आग
आदमी की मित्र
और सुरक्षा बन
गई—दैवी
सुरक्षा बन गई।
वह भय
आज भी बना हुआ
है। भले ही
तुम्हें उसका
बोध न हो, क्योंकि
उसके प्रति
बोधपूर्ण
होने की स्थितियां
नहीं हैं।
लेकिन किसी भी
रात रोशनी
बुझा दो और
अंधकार में
बैठो, और
वह आदिम भय
तुम्हें घेर
लेगा।
तुम्हारे
अपने घर में
ही तुम्हें
लगेगा कि चारों
तरफ जंगली
जानवर खड़े हैं।
कोई आवाज होगी
और तुम्हें
जंगली
जानवरों का भय
पकड़ लेगा।
तुम्हें
लगेगा कि कहीं
कुछ खतरा है।
कहीं खतरा
नहीं है; खतरा
तुम्हारे
अचेतन में है।
तो
पहले तुम्हें
अपने अचेतन भय
को जीतना होगा
और तब तुम इन
विधियों में प्रवेश
कर सकते हो, क्योंकि
ये विधियां
अंधकार से
संबंधित हैं।
और शिव सभी
संभव विधियां
दे रहे हैं।
और इन विधियों
के साथ मेरा
अपना अनुभव
बहुत सुंदर
रहा है। अगर
तुम इनका
प्रयोग कर सके
तो ये अदभुत
हैं। तब तुम
ऐसे प्रगाढ़
विश्राम में
प्रवेश करोगे
जिसका अनुभव
तुम्हें कभी न
हुआ होगा।
लेकिन
पहले अपने
अचेतन भयों
को उघाड़ो
तथा अंधकार को
जीना और प्रेम
करना सीखो। वह
बहुत
आनंददायी है।
एक बार तुम
इसे जान लेते
हो और इसके
संपर्क में
होते हो तो
तुम एक बहुत
गहन जागतिक
घटना के संपर्क
में आ जाते हो।
जब भी
तुम्हें
अंधेरे में
होने का मौका
मिले तो जागे
रहने का खयाल
रखो। क्योंकि
तुम दो काम कर
सकते हो. या तो
तुम रोशनी जला
लोगे या नींद
में चले जाओगे।
ये दोनों
अंधकार से
बचने की
तरकीबें हैं।
अगर तुम सो
जाते हो तो भय
चला जाता है, क्योंकि
तुम चेतन नहीं
रहे। या अगर
तुम चेतन रहे
तो तुम रोशनी
जला लोगे। न
रोशनी जलाओ और
न नींद में
उतरी। अंधकार
के साथ रहो।
बहुत
से भय पकड़ेंगे।
उन्हें अनुभव
करो। उनके
प्रति सजग होओ।
उन्हें अपने
चेतन में ले
आओ। वे अपने
आप ही आएंगे।
और वे जब आएं
तो उनके
साक्षी भर रहो।
वे भय विदा हो
जाएंगे और
शीघ्र ही वह
दिन आएगा जब
तुम अंधेरे
में पूरे
समर्पण के साथ
रहोगे और तुम्हें
कोई डर नहीं
घेरेगा। तब
तुम सहजता से
अंधकार के साथ
रह सकते हो।
और तब एक बहुत
सुंदर घटना
घटती है। और
तभी तुम
इसेनियों के
इस वक्तव्य को
समझ सकोगे कि परमात्मा
अंधकार है, परम
अंधकार है।
वर्षा
की अंधेरी रात
में उस अंधकार
में प्रवेश
करो, जो
रूपों का रूप
है।’
सभी
रूप अंधकार से
निकलते है और
अंधकार में विलीन
हो जाते है।
अंधकार से ही पृथ्वियां
आती हैं, निर्मित
होती हैं, और
फिर अंधकार
में वापस गिर
जाती हैं।
अंधकार गर्भ
है—जागतिक
गर्भ। वहां
अक्षुब्ध, निश्चल,
परम शांति
है।
शिव
कहते हैं कि
यह विधि वर्षा
की रात में
करने योग्य है, जब सब कुछ
अंधकार में
डूबा होता है,
जब काले
बादलों में
तारे भी नहीं
दिखाई देते और
आसमान बिलकुल
काला मालूम
होता है।
अंधेरी रात
में जब चांद न
हो, 'उस
अंधकार में
प्रवेश करो, जो रूपों का
रूप है।’ उस
अंधकार के
साक्षी बनो, और फिर
उसमें विलीन
हो जाओ। वह सब
रूपों का रूप
है, तुम
रूप हो; तुम
उसमें विलीन
हो सकते हो।
जब
प्रकाश होता
है तो तुम
परिभाषित हो
जाते हो, सीमित हो
जाते हो। मैं
तुम्हें देख
सकता हूं,
क्योंकि
प्रकाश है।
तुम्हारे
शरीर की
सीमाएं हैं।
तुम्हारी
सीमाएं बन
जाती हैं, तुम्हारी
हदें
निर्मित हो
जाती हैं।
तुम्हारी
सीमाएं
प्रकाश के
कारण हैं। जब
प्रकाश नहीं
होता तो
सीमाएं खो
जाती हैं।
अंधकार में
कहीं कोई सीमा
नहीं है, हर
चीज दूसरी चीज
में समा जाती
है। रूप
विसर्जित हो
जाते हैं।
वह भी
हमारे भय का
एक कारण हो
सकता है।
क्योंकि तब
तुम्हारी
परिभाषा नहीं
रहती है और
तुम नहीं
जानते हो कि
मैं कौन हूं।
तब तुम्हारा
चेहरा नहीं
देखा जा सकता, तुम्हारा
शरीर नहीं
देखा जा सकता।
सब कुछ रूपहीन
अस्तित्व में
घुल—मिल जाता
है। वह भय का
एक कारण हो
सकता है।
क्योंकि
तुम्हें
तुम्हारे
सीमित
अस्तित्व का
अहसास नहीं
रहता, अस्तित्व
धुंधला—धुंधला
हो जाता है।
और भय पकड़ता
है, क्योंकि
अब तुम नहीं
जानते कि तुम
कौन हो। तब
अहंकार नहीं
रह सकता है, सीमा के
बिना अहंकार
का होना कठिन
है। आदमी भय
अनुभव करता है,
वह प्रकाश
चाहता है।
धारणा
और ध्यान करते
हुए प्रकाश की
बजाय अंधकार
में विलीन
होना आसान है।
प्रकाश तोड़ता
है, पृथकता
पैदा करता है।
अंधकार सभी
पृथकता और
फर्क मिटा
देता है।
प्रकाश में
तुम सुंदर हो
या कुरूप हो, अमीर हो या
गरीब हो।
प्रकाश
तुम्हें
व्यक्तित्व
देता है, विशिष्टता
देता है—शिक्षित
हो, अशिक्षित
हो, पुण्यात्मा
हो, पापी
हो। प्रकाश
तुम्हें पृथक
व्यक्ति की
तरह प्रकट करता
है, अंधकार
तुम्हें अपने
में समेट लेता
है, तुम्हें
स्वीकार कर
लेता है। वह
तुम्हें पृथक
व्यक्ति की
तरह नहीं लेता,
वह तुम्हें
बिना किसी
परिभाषा के
स्वीकार कर
लेता है। तुम
उसमें डूब
जाते हो। तुम
उसमें एक हो
जाते हो।
अंधकार
में सदा ही
ऐसा होता है।
लेकिन भयभीत
होने के कारण
तुम नहीं समझ
पाते हो। अपने
भय को अलग करो
और उससे एक हो
जाओ।
'उस
अंधकार में
प्रवेश करो, जो रूपों का
रूप है। उस
अंधकार में
प्रवेश करो।’
तुम
अंधकार में
कैसे प्रवेश
कर सकते हो? तीन
बातें हैं। एक,
अंधकार को
देखो। यह कठिन
है। किसी
ज्योति को, किसी रोशनी
के स्रोत को
देखना आसान है;
क्योंकि वह
एक आब्जेक्ट
की भाति सामने
है और तुम उसे
देख सकते हो।
अंधकार कोई आब्जेक्ट
नहीं है, वह
सब जगह है, चारों
ओर है। तुम
उसे एक आब्जेक्ट
की तरह नहीं
देख सकते हो।
शून्य में देखो,
खालीपन में
झांको। वह सब
ओर है, तुम
बस देखो।
शिथिल होकर विश्रामपूर्वक
देखते रहो। वह
तुम्हारी आंखों
में प्रवेश
करने लगेगा।
और जब अंधकार
तुम्हारी आंखों
में प्रवेश
करता है तो
तुम भी उसमें
प्रवेश करते
हो।
अंधेरी
रात में इस
विधि का
प्रयोग करते
हुए अपनी आंखें
खुली रखो। आंखों
को बंद मत करो।
बंद आंखों से
तुम एक अलग
तरह के अंधकार
में होते हो।
वह तुम्हारा
निजी अंधकार
है—तुम्हारे
मन का अंधकार।
वह यथार्थ
नहीं है, असली नहीं
है। सच तो यह
है कि बंद आंखों
का अंधकार
नकारात्मक है,
वह विधायक
अंधकार नहीं
है।
यहां
प्रकाश है, और तुम
अपनी आंखें
बंद कर लेते
हो। तब
तुम्हें जो
अंधकार दिखाई
देता है वह
सिर्फ प्रकाश
का नकारात्मक
रूप है। वह
सच्चा अंधकार
नहीं है। जैसे
कि तुम खिड़की
को देखते हो
और फिर आंखें
बंद कर लेते हो
तो तुम्हारी आंखों
में खिड़की की
नकारात्मक
आकृति तैरती
रहती है।
हमारे सभी
अनुभव प्रकाश
के हैं, इसलिए
हम जब आंख बंद
करते हैं तो
हमें प्रकाश
का नकारात्मक
अनुभव होता है।
जिसे हम
अंधकार कहते
हैं वह असली
अंधकार नहीं
है। उससे काम
नहीं चलेगा।
अपनी आंखें
खुली रखो और
अंधकार में
खुली आंखों से
देखते रहो। तब
तुम्हें एक
अलग ही किस्म
का अंधकार
मिलेगा—विधायक
अंधकार। वह
सचमुच है।
उसमें टकटकी
लगाओ। अंधकार
को घूरते रहो।
तुम्हारे आंसू
बहने लगेंगे, तुम्हारी
आंखें दुखने
लगेंगी। इसकी
चिंता मत करो,
प्रयोग
जारी रखो। जिस
क्षण अंधकार,
असली
अंधकार
तुम्हारी आंखों
में प्रवेश
करेगा, वह
तुम्हें एक
सुखद भाव से
भर देगा—मानो
कड़ी धूप में
चलने वाले
राही को घनी
छाया मिल गई
हो। और विधायक
अंधकार का
प्रवेश
तुम्हारे
भीतर से सभी
नकारात्मक
अंधकार को हटा
देगा। यह बहुत
अदभुत अनुभव
है।
तुम्हारे
भीतर जो
अंधकार है वह
नकारात्मक है; वह
प्रकाश के
विपरीत है। वह
प्रकाश की
अनुपस्थिति
नहीं है, वह
उसके विपरीत
है। वह वही
अंधकार नहीं
है जिसे शिव
सभी रूपों का रूप
कहते हैं, सच्चा
अंधकार कहते
हैं। हम उस
असली अंधकार
से इतने भयभीत
हैं कि हमने उससे
बचने के लिए
प्रकाश के अनेक
साधन जुटा लिए
हैं और हम एक
प्रकाशित संसार
में रहते हैं।
और जब हम अपनी आंखें
बंद करते हैं
तो इस
प्रकाशित
संसार का एक
नकारात्मक
रूप हमारे
भीतर
प्रतिबिंबित
होने लगता है।
असली
अंधकार से, इसेनियों
के और शिव के
अंधकार से
हमारा संपर्क
खो गया है।
उसके साथ हमारा
कोई संपर्क
नहीं है। हम
उससे इतने
भयभीत हैं कि
हम उससे
बिलकुल ही विमुख
हो गए हैं।
हमने उसकी तरफ
अपनी पीठ कर
ली है।
तो यह
विधि प्रयोग
में कठिन होगी, लेकिन
अगर तुम इसे
कर सको तो यह
अदभुत है। तब
तुम्हारा
होना सर्वथा
भिन्न होगा; तब तुम और ही
व्यक्ति होगे।
जब
अंधकार
तुममें
प्रवेश करता
है तो तुम
उसमें प्रवेश
करते हो। यह
सदा
पारस्परिक है, दोनों
तरफ से है।
तुम किसी
जागतिक तत्व
में नहीं
प्रवेश कर सकते
अगर वह तत्व
तुममें
प्रवेश न करे।
तुम जबरदस्ती
नहीं कर सकते,
उसमें
जबरदस्ती
प्रवेश नहीं
हो सकता है।
अगर तुम
उपलब्ध हो, खुले हो, वलनरेबल
हो, अगर
तुम किसी
जागतिक तत्व
को अपने भीतर
प्रवेश देते
हो, तो ही
तुम उस तत्व
में प्रवेश कर
सकते हो। यह
सदा
पारस्परिक है,
साथ—साथ है।
तुम जबरदस्ती
नहीं कर सकते,
तुम उसे
सिर्फ घटित
होने दे सकते
हो।
अभी तो
शहरों में, हमारे
घरों में असली
अंधकार का
मिलना कठिन हो
गया है। और नकली
प्रकाश के साथ
हमारा सब कुछ
नकली हो गया
है। हमारा
अंधकार भी
प्रदूषित है,
वह भी शुद्ध
नहीं है। तो
अच्छा है कि
सिर्फ अंधकार
के अनुभव के
लिए हम कहीं
दूर निकल जाएं।
तो किसी गाव
में चले जाओ; जहां अभी
बिजली न
पहुंची हो। या
किसी पहाड
पर चले जाओ और
वहा हफ्ते भर
रहो, ताकि
शुद्ध अंधकार
का अनुभव हो
सके। तुम वहां
से और ही आदमी
होकर लौटोगे।
पूर्ण
अंधकार में
बिताए उन सात
दिनों में तुम्हारे
सारे भय, सारे आदिम
भय उभर कर ऊपर
आ जाएंगे।
भयानक जीव—जंतुओं
से तुम्हारा
सामना होगा, तुम्हें तुम्हारे
अचेतन का
साक्षात होगा।
ऐसा लगेगा कि
तुम उस पूरे
विकास—क्रम से
गुजर रहे हो
जिससे पूरी
मनुष्यता गुजरी
है। अचेतन की
गहराई में दबी
बहुत चीजें
ऊपर आएंगी। और
वे यथार्थ
मालूम पड़ेगी।
तुम भयभीत हो
सकते हो, आतंकित
हो सकते हो, क्योंकि वे
चीजें यथार्थ
मालूम पड़ेंगी—और
वे तुम्हारी
मानसिक निर्मितिया
भर हैं।
हमारे पागलखानों
में अनेक पागल
बंद हैं जो
किसी और चीज
से नहीं, इसी आदिम भय
से पीड़ित हैं,
जो भय उनके
अचेतन से
उभरकर बाहर आ
गया है। यह भय
वहां मौजूद है,
और
विक्षिप्त
लोग उससे ही
हमेशा भयभीत
हैं, आतंकित
हैं। और हमें अभी
तक नहीं मालूम
है कि इन आदिम भयों से
मुक्त कैसे
हुआ जाए। यदि
इन पागलों को
अंधकार पर
ध्यान करने के
लिए राजी किया
जा सके तो
उनका पागलपन
विदा हो जाएगा।
सिर्फ
जापान में इस
दिशा में कुछ
प्रयास किया जाता
है। वे अपने
पागल लोगों के
साथ बिलकुल
भिन्न व्यवहार
करते हैं। यदि
कोई व्यक्ति
पागल हो जाता
है, विक्षिप्त
हो जाता है, तो जापान
में वे उसे
उसकी जरूरत के
मुताबिक तीन
से छह हफ्तों
के लिए एकांत
में रख देते
हैं। वे उसे
सिर्फ एकांत
में रहने के
लिए छोड
देते हैं। कोई
डाक्टर या
मनोविश्लेषक
उसके पास नहीं
जाता है। वे
उसे समय पर
भोजन दे देते
हैं, उसकी
अन्य जरूरतें
पूरी कर देते
हैं, और
उसे अकेला छोड़
देते हैं। रात
में रोशनी
नहीं जलाई
जाती है, उसे
अंधेरे में
अकेले रहना पड़ता
है। निश्चित
ही उसे बहुत
पीडा से
गुजरना पड़ता
है, अनेक
अवस्थाओं से
गुजरना पड़ता
है। उसकी सब
देखभाल की
जाती है, लेकिन
उसे किसी तरह
का साथ—संग
नहीं दिया
जाता है। उसे
अपनी
विक्षिप्तता
का
साक्षात्कार
सीधे और
प्रत्यक्ष
रूप से करना पड़ता
है। और तीन से
छह सप्ताह के
अंदर उसका
पागलपन दूर होने
लगता है।
दरअसल
कुछ नहीं किया
गया, उसे
सिर्फ स्वात
में रख दिया
गया। बस इतना
ही किया गया।
पश्चिम के
मनोचिकित्सक
चकित हैं।
उन्हें यह बात
समझ में नहीं
आती कि यह
कैसे होता है।
वे खुद वर्षों
मेहनत करते
हैं। वे
मनोविश्लेषण
करते हैं, उपचार
करते हैं, वे
सब कुछ करते
हैं, लेकिन
वे रोगी को
कभी अकेला
नहीं छोड़ते।
वे उसे कभी
स्वयं ही अपने
आंतरिक अचेतन
का
साक्षात्कार
करने का मौका
नहीं देते।
क्योंकि तुम
उसे जितना ही
सहारा देते हो,
वह उतना ही
बेसहारा हो
जाता है, वह
उतना ही तुम
पर निर्भर हो
जाता है। और असली
सवाल आंतरिक
साक्षात्कार
का है, स्वयं
को देखने का
है। सच में
कोई भी कुछ
सहारा नहीं दे
सकता है। तो
जो जानते हैं
वे तुम्हें
अपना
साक्षात्कार करने
को छोड़ देंगे।
तुम्हें अपने
अचेतन को भर आंख
देखना होगा।
और
अंधकार पर
किया वाला यह
ध्यान
तुम्हारे
सारे पागलपन
को पी जाएगा।
इसे प्रयोग
करो। तुम अपने
घर में भी इसे
प्रयोग कर
सकते हो। रोज
रात एक घंटे
के लिए अंधकार
के साथ रहो।
कुछ मत करो, सिर्फ
अंधकार में
टकटकी लगाओ, उसे देखो।
तुम्हें
पिघलने जैसा
अनुभव होगा।
तुम्हें
एहसास होगा कि
कोई चीज
तुम्हारे भीतर
प्रवेश कर रही
है और तुम
किसी चीज में
प्रवेश कर रहे
हो। तीन महीने
तक रोज एक
घंटा अंधकार
के साथ रहने पर
तुम्हारे
वैयक्तिकता
के, पृथकता
के सब भाव
विदा हो
जाएंगे। तब
तुम द्वीप
नहीं रहोगे, तुम सागर हो
जाओगे, तुम
अंधकार के साथ
एक हो जाओगे।
और यह
अंधकार इतना
विराट है! कुछ
भी उतना विराट
और शाश्वत
नहीं है, और कुछ भी
तुम्हारे
उतना निकट
नहीं है। और
तुम इस अंधकार
से जितने
भयभीत और त्रस्त
हो उतने भयभीत
और त्रस्त
किसी अन्य चीज
से नहीं हो।
और यह
तुम्हारे पास
ही है, सदा
तुम्हारी
प्रतीक्षा
में है।
'वर्षा
की अंधेरी रात
में उस अंधकार
में प्रवेश
करो, जो
रूपों का रूप
है।’
उसे इस
तरह देखो कि
वह तुममें
प्रविष्ट हो
जाए।
दूसरी
बात लेट जाओ
और भाव करो कि
तुम अपनी मां
के पास हो।
अंधकार मां है—सब
की मा। थोड़ा
विचार करो कि
जब कुछ भी
नहीं था तो
क्या था? तुम अंधकार
के अतिरिक्त
और किसी चीज
की कल्पना
नहीं कर सकते।
और यदि सब कुछ
विलीन हो जाए
तो क्या रहेगा?
अंधकार
रहेगा।
अंधकार माता
है, गर्भ
है।
तो लेट
जाओ और भाव
करो कि मैं
अपनी मां के
गर्भ में पड़ा
हूं। और वह सच
में वैसा
अनुभव होगा, वह उष्ण
मालूम पडेगा।
और देर—अबेर
तुम महसूस
करोगे कि
अंधकार का
गर्भ मुझे सब
तरफ से घेरे
है और मैं
उसमें हूं।
और
तीसरी बात.
चलते हुए, काम पर
जाते हुए, भोजन
करते हुए, कुछ
भी करते हुए
अपने साथ
अंधकार का एक
हिस्सा साथ
लिए चलो। जो
अंधकार
तुममें
प्रवेश कर गया
है उसे साथ लिए
चलो। जैसे हम
ज्योति को साथ
लिए चलने की
बात करते थे
वैसे ही
अंधकार को साथ
लिए चलो। और
जैसे मैंने
तुम्हें
बताया कि अगर
तुम अपने साथ
ज्योति को लिए
चलो और भावना
करो कि मैं
प्रकाश हूं तो
तुम्हारा
शरीर एक अदभुत
प्रकाश
विकीरित
करेगा और
संवेदनशील
लोग उसे अनुभव
भी करेंगे, ठीक वही बात
अंधकार के इस
प्रयोग के साथ
भी घटित होगी।
अगर
तुम अपने साथ
अंधकार को लिए
चलो तो तुम्हारा
सारा शरीर
इतना
विश्रांत हो
जाएगा, इतना शात और
शीतल हो जाएगा
कि वह दूसरों
को भी अनुभव
होने लगेगा।
और जैसे साथ
में प्रकाश
लिए चलने पर
कुछ लोग तुम्हारे
प्रति
आकर्षित
होंगे वैसे ही
साथ में
अंधकार लिए
चलने पर कुछ
लोग तुमसे
विकर्षित होंगे,
दूर भागेंगे।
वे तुमसे
भयभीत और
त्रस्त होंगे।
वे ऐसी मौन
उपस्थिति को
झेल नहीं पाएंगे,
यह उनके लिए
असह्य होगा।
अगर
तुम अपने साथ
अंधकार लिए
चलोगे तो
अंधकार से
भयभीत लोग
तुमसे बचने की
करेंगे करेंगे, वे
तुम्हारे पास
नहीं आएंगे।
और प्रत्येक
आदमी अंधकार
से डरा हुआ है।
तब तुम्हें
लगेगा कि
मित्र मुझे
छोड़ रहे हैं।
जब तुम अपने
घर आओगे तो
तुम्हारा
परिवार
परेशान
होगा।
क्योंकि तुम
तो शीतलता के
पुंज की तरह
प्रवेश करोगे
और लोग अशांत
और क्षुब्ध
हैं। उनके लिए
तुम्हारी आंखों
में देखना
कठिन होगा, क्योंकि
तुम्हारी आंखें
घाटी की तरह, गहन खाई की
तरह गहरी
होंगी। अगर
कोई व्यक्ति
तुम्हारी
आंखों में
झांकेगा तो
वहां उसे ऐसी
अतल खाई
दिखेगी कि
उसका सिर
चकराने लगेगा।
लेकिन
तुम्हें
अदभुत अनुभव
होंगे।
तुम्हारे लिए
क्रोध करना
असंभव हो
जाएगा। अपने
भीतर अंधकार
लिए तुम
क्रोधित नहीं
हो सकते हो।
अपने साथ
ज्योति लिए
तुम बहुत
आसानी से
क्रोधित हो
सकते हो, पहले से
ज्यादा क्षुब्ध
हो सकते हो।
पहले से
ज्यादा
क्षुब्ध हो
सकते हो, क्योंकि
ज्योति
तुम्हें
उत्तेजित कर
सकती है।
ज्योति साथ
लिए तुम पहले
से ज्यादा
कामुक हो सकते
हो, क्योंकि
ज्योति
तुम्हें
उत्तेजित कर
सकती है, वह
तुम्हारी
वासना को भड्का
सकती है।
लेकिन अंधकार
को साथ लिए
तुम्हें अपने
भीतर गहन
निर्वासना का
अनुभव होगा।
तुम कामुक
नहीं होगे, तुम आसानी
से क्रोध में
नहीं बहोगे।
वासना विलीन
हो जाएगी। तुम
पुरुष हो या
स्त्री, तुम्हें
इसका भी बोध
नहीं होगा। वे
शब्द
तुम्हारे लिए
अप्रासंगिक
हो जाएंगे, अर्थहीन हो
जाएंगे। तुम
सिर्फ होओगे।
दिन भर
अपने साथ
अंधकार लिए
चलना
तुम्हारे लिए
बहुत उपयोगी
होगा।
क्योंकि जब
तुम रात में
अंधकार पर
ध्यान करोगे
तो जो आंतरिक
अंधकार तुम
अपने साथ दिन
भर लिए चले थे
वह तुम्हें
बाहरी अंधकार
से जुड्ने
में सहयोगी
होगा। आंतरिक
बाह्य से
मिलने के लिए
उभर आएगा।
और
सिर्फ इसके
स्मरण से—कि
मैं अंधकार
लिए चल रहा
हूं कि मैं
अंधकार से भरा
हूं, कि
मेरे शरीर की
एक—एक कोशिका
अंधकार से भरी
है—तुम बहुत
विश्राम
अनुभव करोगे।
इसे प्रयोग
करो, तुम
बहुत शात हो
जाओगे।
तुम्हारे
भीतर सब कुछ
शात और
विश्रामपूर्ण
हो जाएगा। तब
तुम दौड नहीं
सकोगे, तुम
बस चलोगे और
वह चलना भी
धीमे— धीमे
होगा। तुम
धीरे— धीरे
चलोगे—जैसे कि
कोई गर्भवती
स्त्री चलती
है। तुम धीरे—
धीरे चलोगे और
बहुत सजगता से
चलोगे। तुम
अपने साथ कुछ
लिए हुए चल
रहे हो।
और जब
तुम अपने साथ
ज्योति लेकर
चलोगे तो उलटी
बात घटित होगी।
तब तुम्हारा चलना
तेज हो जाएगा; बल्कि
तुम दौड़ना
चाहोगे।
तुम्हारी
गतिविधि बढ़
जाएगी; तुम
ज्यादा
सक्रिय होगे।
अंधकार को साथ
लिए हुए तुम
विश्राम
अनुभव करोगे
और दूसरे लोग
समझेंगे कि
तुम आलसी हो।
जिन
दिनों मैं
विश्वविद्यालय
में था, दो वर्षों
तक मैंने इस
विधि का
प्रयोग किया।
और मैं इतना
आलसी हो गया
था कि सुबह
बिस्तर से उठना
भी मुश्किल था।
मेरे
प्राध्यापक
इससे बहुत
चिंतित थे और
उन्हें लगता
कि मेरे साथ
कुछ गड़बड़ हो
गई है। वे
सोचते थे कि
या तो मैं
बीमार हूं या
बिलकुल उदासीन
हो गया हूं।
एक
प्राध्यापक
तो, जो
विभागीय
अध्यक्ष थे और
मुझे बहुत
प्रेम करते थे,
इतने
चिंतित थे कि
परीक्षा के
दिनों में वे
खुद मुझे सुबह
होस्टल से
लेकर परीक्षा—कक्ष
पहुंचा आते थे,
ताकि मैं
वहां समय पर
पहुंचूं। यह
उनका रोज का
काम था कि वे
मुझे परीक्षा—कक्ष
में दाखिल
करके चैन लेते
थे और घर जाते
थे।
तो इसे
प्रयोग में
लाओ। अपने
भीतर अंधकार
लिए चलना, अंधकार
ही हो जाना, जीवन के
सुंदरतम
अनुभवों में
एक है। चलते
हुए, बैठे
हुए, भोजन
करते हुए, कुछ
भी करते हुए
स्मरण रखो कि
मेरे भीतर एक
अंधकार है, कि मैं
अंधकार से भरा
हूं। और फिर
देखो कि चीजें
किस तरह बदलती
हैं। तब तुम
उत्तेजित
नहीं हो सकते,
बहुत
सक्रिय नहीं
हो सकते, तनावग्रस्त
नहीं हो सकते।
तब तुम्हारी
नींद इतनी
गहरी हो जाएगी
कि सपने विदा
हो जाएंगे और
पूरे दिन तुम
मदहोश जैसे रहोगे।
सूफियों
ने, उनके
एक संप्रदाय
ने इस विधि का
प्रयोग किया है
और वे मस्त
सूफियों के
नाम से जाने
जाते हैं। वे
इसी अंधकार के
नशे में चूर
रहते हैं। वे
जमीन में गड़े
खोदकर उसमें
पड़े—पड़े ध्यान
करते हैं, अंधकार
पर ध्यान करते
हैं—और अंधकार
के साथ एक हो
जाते हैं।
उनकी आंखें
तुम्हें
कहेंगी कि वे
पीए हुए हैं, नशे में हैं।
तुम्हें उनकी आंखों
में ऐसे प्रगाढ़
विश्राम का
एहसास होगा जो
तभी घटित होता
है जब तुम
गहरे नशे में
होते हो, या
जब तुम्हें
नींद आती है।
तभी तुम्हारी आंखों
में वैसी
अभिव्यक्ति
होती है। वे
मस्त सूफियों
के नाम से
प्रसिद्ध हैं।
और उनका नशा
अंधकार का नशा
है।
अंधकार—संबंधी
दूसरी विधि:
जब
चंद्रमाहीन
वर्षा की रात
उपलब्ध न हो
तो आंखें बंद
करो और अपने
सामने अंधकार
को देखो फिर आंखें
खोलकर अंधकार
को देखो! इस
प्रकार दोष
सदा के लिए
विलीन हो जाते
हैं।
मैंने कहा
कि अगर तुम आंखें
बंद कर लोगे
तो जो अंधकार
मिलेगा वह
झूठा अंधकार
होगा। तो क्या
किया जाए अगर
चंद्रमाहीन
रात, अंधेरी
रात न हो? यदि
चांद हो और
चांदनी का
प्रकाश हो तो
क्या किया जाए?
यह सूत्र
उसकी कुंजी
देता है।
'जब
चंद्रमाहीन
वर्षा की रात
उपलब्ध न हो
तो आंखें बंद
करो और अपने
सामने अंधकार
को देखो।’
आरंभ
में यह अंधेरा
झूठा होगा।
लेकिन तुम इसे
सच्चा बना
सकते हो, और यह इसे
सच्चा बनाने
का उपाय है
'फिर आंखें
खोलकर अंधकार
को देखो।’
पहले
अपनी आंखें
बंद करो और
अंधकार को
देखो। फिर आंखें
खोलों और जिस
अंधकार को
तुमने भीतर
देखा उसे बाहर
देखो। अगर
बाहर वह विलीन
हो जाए तो
उसका अर्थ है
कि जो अंधकार
तुमने भीतर
देखा था वह
झूठा था।
यह कुछ
ज्यादा कठिन
है। पहली विधि
में तुम असली
अंधकार को
भीतर लिए चलते
हो, दूसरी
विधि में तुम
झूठे अंधकार
को बाहर लाते हो।
उसे बाहर लाते
रहो। आंखें
बंद करो, अंधेरे
को महसूस करो,
आंखें खोलों
और खुली आंखों
से अंधेरे को
बाहर देखो। इस
भांति तुम
भीतर के झूठे
अंधकार को
बाहर फेंकते
हो। उसे बाहर
फेंकते रहो।
इसमें
कम से कम तीन
से छह सप्ताह
लगेंगे और तब एक
दिन तुम अचानक
भीतर के
अंधकार को
बाहर लाने में
सफल हो जाओगे।
और जिस दिन
तुम भीतर के
अंधकार को
बाहर ला सको, तुमने
सच्चे आंतरिक
अंधकार को पा
लिया। सच्चे
को ही बाहर
लाया जा सकता
है; झूठे
को नहीं लाया
जा सकता।
यह एक
बहुत अदभुत
अनुभव है। अगर
तुम भीतरी
अंधकार को
बाहर ला सकते
हो तो तुम इसे
प्रकाशित
कमरे में भी
बाहर ला सकते
हो, और
अंधकार का एक
टुकडा
तुम्हारे
सामने फैल जाएगा।
यह बहुत अदभुत
अनुभव है, क्योंकि
कमरा
प्रकाशित है।
सूर्य के
प्रकाश में भी
यह संभव है; अगर तुम
आंतरिक
अंधकार को पा
सके तो तुम
उसे बाहर भी
ला सकते हो।
तुम्हारी आंखों
के सामने
अंधकार का एक
टुकड़ा
उपस्थित हो
जाएगा। तुम
उसे फैलाते जा
सकते हो।
एक बार
तुम जान गए कि
ऐसा हो सकता
है तो तुम भरी दोपहरी
में अंधेरी से
अंधेरी रात
जैसा अंधकार
फैला सकते हो।
सूर्य मौजूद
है और तुम
अंधकार को
फैला सकते हो।
अंधकार सदा है; जब सूर्य
चमक रहा है तो
भी अंधकार है।
तुम उसे नहीं
देख सकते; वह
सूर्य के
प्रकाश से
ढंका रहता है।
लेकिन एक बार
तुम जान लो कि
उसे कैसे उघाड़ा
जाए तो तुम
उसे उघाड़ सकते
हो।
तिब्बत
में इसी तरह
की अनेक
विधियां हैं।
वे चीजों को
भीतरी जगत से
बाहरी जगत में
ला सकते हैं।
तुमने एक
प्रसिद्ध
विधि के संबंध
में सुना होगा।
वे इसे ताप—योग
कहते हैं।
सर्द रात है, बर्फ
जैसी सर्द रात
और बर्फ गिर
रही है। एक
तिब्बती लामा
उस सर्द रात
में, जब चारों
ओर बर्फ गिर
रही हो और
तापमान शून्य
से नीचे हो, खुले आकाश
के नीचे बैठता
है और उसके
शरीर से पसीना
बहने लगता है।
शरीर—शास्त्र
के हिसाब से
यह एक चमत्कार
है। पसीना
कैसे निकलने
लगता है? वह भीतरी
ताप को बाहर
ला रहा है।
वैसे ही आंतरिक
शीतलता को भी
बाहर लाया जा
सकता है।
महावीर
के जीवन में
एक उल्लेख है; अब तक
किसी ने भी
उसको समझा
नहीं है। जैन
सोचते हैं कि
महावीर कोई तप
कर रहे थे। यह
बात नहीं है।
कहा जाता है
कि जब गर्मी
होती थी, सूर्य
तपता था, तो
महावीर सदा
ऐसी जगह खड़े
होते थे जहां
कोई छाया, कोई
वृक्ष नहीं
होता, कुछ
भी नहीं होता।
गर्मी के
दिनों में वे
जलती धूप में
खड़े होते। और
सर्दी के
दिनों में वे
कोई शीतल
स्थान, शीतलतम स्थान, वृक्ष
की छाया या
नदी का किनारा
चुनते जहां तापमान
शून्य से नीचे
होता। सर्दी
के समय में वे
ध्यान करने के
लिए सर्द स्थान
चुनते थे और
गर्मी के
दिनों में
गर्म से गर्म
स्थान चुनते
थे। लोग सोचते
थे कि वे पागल
हो गए हैं। और
उनके अनुयायी
सोचते हैं कि
वे तप कर रहे
थे।
ऐसी
बात नहीं है।
असल में
महावीर इसी
तरह की किसी आंतरिक
विधि का
प्रयोग कर रहे
थे। जब गर्मी
पड़ती थी तब वे
भीतरी शीतलता
को बाहर लाने
का प्रयोग
करते थे। और
यह विपरीत
स्थिति में ही
अनुभव किया जा
सकता है। जब
सर्दी पड़ती थी
तो वे भीतरी
ताप को बाहर
लाने का
प्रयत्न करते
थे। और यह भी
प्रतिकूल
पृष्ठभूमि
में ही महसूस
हो सकता है।
वे शरीर के
शत्रु नहीं थे, वे शरीर
के विरोध में
नहीं थे, जैसा
जैन समझते हैं।
जैन
समझते हैं कि
महावीर शरीर
को मिटाने में
लगे थे, क्योंकि अगर
तुम अपने शरीर
को मिटा सको
तो तुम अपनी
कामनाओं को भी
मिटा सकते हो।
यह निरी बकवास
है। वे तप—वप
नहीं कर रहे
थे, वे बस आंतरिक
को बाहर ला
रहे थे और वे आंतरिक
द्वारा
सुरक्षित थे।
जैसे तिब्बती
लामा गिरती
बर्फ के नीचे
ताप पैदा करके
पसीना बहा
सकते थे वैसे
ही महावीर
जलती धूप में
खड़े रहते और
उन्हें पसीना
नहीं आता था।
वे अपनी आंतरिक
शीतलता को
बाहर ला रहे
थे, वह आंतरिक
शीतलता बाहर
आकर उनके शरीर
की रक्षा इसी
तरह तुम अपने आंतरिक
अंधकार को
बाहर ला सकते
हो, और यह
अनुभव बहुत
शीतल होता है।
अगर तुम उसे
ला सके तो तुम
उससे
सुरक्षित रहोगे,
कोई
उत्तेजना, कोई
मनोवेग
तुम्हें
विचलित नहीं
कर सकेगा।
तो
प्रयोग करो।
ये तीन बातें
हैं। एक, अंधकार में
खुली आंखों से
देखो और
अंधकार को
अपने भीतर
प्रवेश करने दो।
दूसरी, अंधकार
को अपने चारों
ओर मां के
गर्भ की तरह
अनुभव करो, उसके साथ
रहो और उसमें
अपने को
अधिकाधिक भूल
जाओ। और तीसरी
बात, जहां
भी जाओ अपने
हृदय में
अंधेरे का एक
टुकड़ा साथ लिए
चलो।
अगर
तुम यह कर सके
तो अंधकार
प्रकाश बन
जाएगा। तुम
अंधकार के
द्वारा
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाओगे।
'जब
चंद्रमाहीन
वर्षा की रात
उपलब्ध न हो
तो आंखें बंद
करो और अपने
सामने अंधकार
को देखो, फिर
आंखें खोलकर
अंधकार को
देखो।’
यह
विधि है। पहले
इसे भीतर
अनुभव करो, गहन
अनुभव करो, ताकि तुम
उसे बाहर देख
सको। फिर आंखों
को अचानक खोल
दो और बाहर
अनुभव करो। इसमें
थोड़ा समय जरूर
लगेगा।
'इस
प्रकार दोष
सदा के लिए
विलीन हो जाते
हैं।’
अगर
तुम आंतरिक
अंधकार को
बाहर ला सके
तो, दोष
सदा के लिए
विलीन हो जाते
हैं। क्योंकि आंतरिक
अंधकार अनुभव
में आ जाए तो
तुम इतने शीतल,
इतने शात, इतने
अनुद्विग्न
हो जाओगे कि
दोष तुम्हारे
साथ नहीं रह
सकते।
स्मरण
रहे, दोष
तभी तक रहते
हैं जब तक तुम
उत्तेजित
होने की हालत
में रहते हो।
दोष अपने आप
नहीं रहते; वे तुम्हारी
उत्तेजित
होने की
क्षमता में रहते
हैं। कोई
व्यक्ति
तुम्हारा
अपमान करता है
और तुम्हारे
भीतर उस अपमान
को पीने के
लिए अंधकार
नहीं है, तुम
जल— भुन जाते
हो, क्रोधित
हो जाते हो।
और तब कुछ भी
संभव है। तुम
हिंसक हो सकते
हो तुम हत्या
कर सकते हो, तुम वह सब कर
सकते हो जो
सिर्फ पागल
आदमी कर सकता
है। कुछ भी
संभव है, अब
तुम
विक्षिप्त हो।
फिर कोई
व्यक्ति
तुम्हारी
प्रशंसा करता
है और तुम
दूसरे छोर पर
विक्षिप्त हो
जाते हो।
तुम्हारे
चारों ओर स्थितियां
हैं और तुम
उन्हें
चुपचाप
आत्मसात करने
में समर्थ
नहीं हो।
किसी
बुद्ध का
अपमान करो। वे
उसे आत्मसात
कर लेंगे, वे उसे
पचा जाएंगे।
कौन अपमान को
पचा जाता है? अंधकार का, शांति का आंतरिक
पुंज उसे पचा
लेता है। तुम
कुछ भी
विषाक्त
फेंको, वह
आत्मसात हो
जाता है। उससे
कोई
प्रतिक्रिया
नहीं लौटती है।
इसे
प्रयोग करो।
जब कोई
तुम्हारा
अपमान करे तो
इतना ही स्मरण
रखो कि मैं
अंधकार से भरा
हूं और सहसा
तुम्हें
प्रतीत होगा
कि कोई
प्रतिक्रिया
नहीं उठती है।
तुम रास्ते से
गुजर रहे हो
और एक सुंदर
स्त्री या
पुरुष दिखाई
देता है और
तुम उत्तेजित
हो उठते हो।
खयाल करो कि
मैं अंधकार से
भरा हुआ हूं
और कामवासना
विदा हो जाएगी।
प्रयोग करके
देखो। यह
बिलकुल
प्रायोगिक
विधि है; इसमें
विश्वास करने
की जरूरत नहीं
है।
जब भी
तुम्हें
मालूम पड़े कि
मैं वासना से, या कामना
से, या
कामवासना से
भरा हुआ हूं
तो आंतरिक
अंधकार को
स्मरण करो। एक
क्षण के लिए आंखें
बंद करो और
अंधकार की भावना
करो, और तुम
देखोगे कि
वासना विलीन हो
गई है, कामना
विदा हो गई है।
आंतरिक अंधकार
ने उसे पचा
लिया। तुम एक
असीम शून्य हो
गए हो, जिसमें
कोई भी चीज
गिर कर फिर
वापस नहीं लौट
सकती। तुम अब
एक अतल खाई हो।
इसलिए
शिव कहते हैं. 'इस
प्रकार दोष
सदा के लिए
विलीन हो जाते
हैं।’
ये
विधियां आसान
मालूम पड़ती
हैं—वे आसान
हैं। लेकिन
क्योंकि वे
सरल दिखती हैं, इसलिए
उन्हें
प्रयोग किए
बगैर मत छोड़
दो। वे
तुम्हारे
अहंकार को
चुनौती न भी
दें तो भी प्रयोग
करो। यह हमेशा
होता है कि हम
सरल चीजों को
प्रयोग नहीं
करते हैं। हम
सोचते हैं कि
वे इतनी सरल
हैं कि सच
नहीं हो सकतीं।
और सत्य सदा
सरल है, वह
कभी जटिल नहीं
है। उसे जटिल
होने की जरूरत
नहीं है।
सिर्फ झूठ
जटिल होते हैं,
वे सरल नहीं
हो सकते। अगर
वे सरल हों तो
उनका झूठ
जाहिर हो
जाएगा। और क्योंकि
कोई चीज सरल
मालूम पड़ती
है, हम
सोचते हैं कि
इससे कुछ नहीं
होगा। ऐसा
नहीं है कि
उससे कुछ नहीं
होता है, लेकिन
हमारा अहंकार
तभी चुनौती
पाता है जब कोई
चीज बहुत कठिन
हो।
तुम्हारे
ही कारण अनेक
संप्रदायों
ने अपनी विधियों
को जटिल बना
दिया। उसकी
कोई जरूरत नहीं
है। लेकिन वे
उसमें
अनावश्यक जटिलताएं
और अवरोध
निर्मित करते
हैं ताकि वे
कठिन हो सकें, ताकि वे
तुम्हें भाएं।
उनसे
तुम्हारे
अहंकार को
चुनौती मिलती
है। अगर कोई
चीज बहुत कठिन
हो, जिसे
बहुत थोड़े लोग
करने में
समर्थ हों, तो तुम्हें
लगता है कि यह
करने जैसा है।
यह तुम्हें
सिर्फ इसलिए
करने जैसा
लगता है क्योंकि
बहुत थोडे लोग
ही इसे कर
सकते हैं।
ये
विधियां एकदम
सरल हैं। शिव
तुम्हारा
विचार नहीं
करते हैं, वे विधि
का वर्णन ठीक
वैसा कर रहे
हैं जैसी वह है।
वे उसे सरलतम
रूप में, कम
से कम शब्दों
में, सूत्र
रूप में प्रकट
कर रहे हैं।
तो अपने
अहंकार के लिए
चुनौती मत
खोजो। ये
विधियां
तुम्हें
अहंकार की
यात्रा पर ले
जाने के लिए
नहीं हैं। वे
तुम्हारे
अहंकार को कोई
चुनौती नहीं
देती हैं, लेकिन
यदि तुम इनका
प्रयोग करोगे
तो वे तुम्हें
रूपांतरित कर
देंगी। और
चुनौती कोई
अच्छी बात
नहीं है, क्योंकि
चुनौती से तुम
ज्वर—ग्रस्त
हो जाते हो, विक्षिप्त
हो जाते हो।
तीसरी
विधि :
जहां
कहीं भी
तुम्हारा
अवधान उतरे
उसी बिंदु पर
अनुभव।
क्या? क्या
अनुभव? इस
विधि में सबसे
पहले तुम्हें
अवधान साधना होगा,
अवधान का
विकास करना
होगा।
तुम्हें एक
भांति का अवधानपूर्ण
रुख, रुझान
विकसित करना
होगा, तो
ही यह विधि
संभव होगी। और
तब जहां कहीं
भी तुम्हारा
अवधान उतरे, तुम अनुभव
कर सकते हो—स्वयं
को अनुभव कर
सकते हो। एक
फूल को देखने
भर से तुम
स्वयं को
अनुभव कर सकते
हो। तब फूल को
देखना सिर्फ
फूल को ही
देखना नहीं है
वरन देखने
वाले को भी
देखना है।
लेकिन यह तभी
संभव है जब
तुम अवधान का
रहस्य जान लो।
तुम भी
फूल को देखते
हो और तुम सोच
सकते हो कि मैं
फूल को देख
रहा हूं।
लेकिन तुमने
तो फूल के
बारे में
विचार करना शुरू
कर दिया और
तुम फूल को
चूक गए। तुम
वहां नहीं हो
जहां फूल है; तुम कहीं
और चले गए, तुम
दूर हट गए।
अवधान का अर्थ
है कि जब तुम
फूल को देखते
हो तो तुम फूल
को ही देखते हो,
कोई दूसरा
काम नहीं करते
हो—मानो मन
ठहर गया, अब
कोई विचारणा
नहीं, फूल
का सीधा अनुभव
भर है। तुम यहां
हो और फूल
वहां है, और
दोनों के बीच
कोई विचार
नहीं है।
यदि यह
संभव हो तो
अचानक
तुम्हारा
अवधान फूल से
लौटकर स्वयं
पर आ जाएगा।
एक वर्तुल बन
जाएगा। तुम
फूल को देखोगे
और वह दृष्टि
वापस लौटेगी; फूल उसे
वापस कर देगा,
द्रष्टा पर
ही लौटा देगा।
अगर विचार न
हो तो यह घटित
होता है। तब
तुम फूल को ही
नहीं देखते, तुम देखने
वाले को भी
देखते हो। तब
देखने वाला और
फूल दो आब्जेक्ट
हो जाते हैं
और तुम दोनों
के साक्षी हो
जाते हो।
लेकिन
पहले अवधान को
प्रशिक्षित
करना होगा।
तुममें अवधान
बिलकुल नहीं
है। तुम्हारा
अवधान सतत
बदलता रहता है—यह।
से वहा, वहां से
कहीं और। तुम
एक क्षण के
लिए भी अवधानपूर्ण
नहीं रहते हो।
जब मैं यहां
बोल रहा हूं
तो तुम मेरी
पूरी बात भी
कभी नहीं सुनते
हो। तुम एक
शब्द सुनते हो
और फिर
तुम्हारा
अवधान और कहीं
चला जाता है।
फिर तुम्हारा
अवधान वापस
मेरी बात पर
आता है, फिर
तुम एक—दो
शब्द सुनते हो,
फिर
तुम्हारा
ध्यान कहीं और
चला जाता है।
तुम
थोड़े से शब्द
सुनते हो और
बाकी के खाली
स्थानों पर
अपने शब्द डाल
लेते हो और
सोचते हो कि
तुमने मुझे
सुना। और तुम
जो भी यहां से
ले जाते हो वह
तुम्हारी अपनी
रचना है, तुम्हारा
अपना धंधा है।
तुमने मेरे
थोड़े से शब्द
सुने और खाली
जगहों को अपने
शब्दों से भर
दिया, और
तुम जिनसे
खाली जगहों को
भरते हो वे
पूरी चीज को
बदल देते हैं।
मैं एक शब्द
बोलता हूं और
तुमने उसके
संबंध में झट
सोचना शुरू कर
दिया; तुम
मौन नहीं रह
सकते। यदि तुम
सुनते हुए मौन
रह सको तो तुम
अवधान पूर्ण
हो। अवधान का
अर्थ है वह
मौन सजगता, वह शात बोध, जिसमें
विचारों का
कोई व्यवधान न
हो, बाधा न
हो।
तो
अवधान का
विकास करो। और
उसे करके ही
तुम उसका
विकास कर सकते
हो, इसके
अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं है।
अवधान दो, उसे
बढ़ाते जाओ; प्रयोग से
वह विकसित
होगा। कुछ भी
करते हुए, कहीं
भी तुम अवधान
को विकसित कर
सकते हो। तुम
कार में या
रेलगाड़ी में
यात्रा कर रहे
हो, वहीं
अवधान को
बढ़ाने का
प्रयोग करो।
समय मत गवाओं।
तुम आधा घंटा
कार या
रेलगाड़ी में
रहने वाले हो;
वहीं अवधान
साधो। बस वहां
होओ, विचार
मत करो। किसी
व्यक्ति को
देखो, रेलगाड़ी
को देखो या
बाहर देखो, पर द्रष्टा
रही। विचार मत
करो; वहां
होओ और देखो।
तुम्हारी
दृष्टि सीधी,
प्रत्यक्ष
और गहरी हो
जाएगी। और तब
सब तरफ से
तुम्हारी
दृष्टि वापस
लौटने लगेगी
और तुम
द्रष्टा के
प्रति बोध से
भर जाओगे।
तुम्हें
अपना बोध नहीं
है। तुम अपने
प्रति सावचेत
नहीं हो।
क्योंकि
विचारों की एक
दीवार है। जब
तुम एक फूल को
देखते हो तो
पहले
तुम्हारे विचार
तुम्हारी
दृष्टि को बदल
देते हैं; वे उसे
अपना रंग दे
देते हैं। और
वह दृष्टि उस
फूल को देखती
है, वापस
आती है, और
फिर तुम्हारे
विचार उसे
दूसरा रंग
देते हैं। और
जब दृष्टि
वापस आती है, वह तुम्हें
कभी वहा नहीं
पाती, तुम
कहीं और चले
गए होते हो।
तुम वहां नहीं
होते हो।
प्रत्येक
दृष्टि वापस
लौटती है। प्रत्येक
चीज
प्रतिबिंबित
होती है, प्रतिसंवेदित
होती है। लेकिन
तुम उसे ग्रहण
करने के लिए
वहा मौजूद नहीं
होते। तो उसके
ग्रहण के लिए
मौजूद रहो।
पूरे दिन तुम
अनेक चीजों पर
यह प्रयोग कर
सकते हो। और
धीरे—धीरे
तुम्हारा
अवधान विकसित
होगा। तब इस
अवधान के साथ
यह प्रयोग करो:
'जहां
कहीं भी
तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर, अनुभव।’
तब
कहीं भी देखो, लेकिन
केवल देखो। अब
अवधान वहा है,
अब तुम
स्वयं को
अनुभव करोगे।
लेकिन पहली
शर्त है अवधानपूर्ण
होने की
क्षमता
प्राप्त करना।
और तुम इसका
अभ्यास कहीं
भी कर सकते हो।
उसके लिए
अतिरिक्त समय
की जरूरत नहीं
है। तुम जो भी
कर रहे हो, भोजन
कर रहे हो, या
स्नान कर रहे
हो, बस अवधानपूर्ण
होओ।
लेकिन
समस्या क्या
है? समस्या
यह है कि हम सब
काम मन के
द्वारा करते हैं
और हम निरंतर
भविष्य के लिए
योजनाएं
बनाते रहते
हैं। तुम
रेलगाड़ी में
सफर कर रहे हो
और तुम्हारा मन
किन्हीं
दूसरी
यात्राओं के
आयोजन में
व्यस्त है, उनके
कार्यक्रम
बनाने में
संलग्न है।
इसे बंद करो।
झेन
संत बोकोजू ने
कहा है : 'मैं यही एक
ध्यान जानता
हूं। जब मैं
भोजन करता हूं
तो भोजन करता
हूं। जब मैं
चलता हूं तो
चलता हूं। और
जब मुझे नींद
आती है तो मैं
सो जाता हूं।
जो भी होता है,
होता है; उसमें मैं
कभी
हस्तक्षेप
नहीं करता।’
इतना
ही करने को है
कि हस्तक्षेप
न करो। और जो
भी घटित होता
हो उसे घटित
होने दो। तुम
सिर्फ वहा
मौजूद रहो।
यही चीज
तुम्हें अवधानपूर्ण
बनाएगी। और जब
तुम्हें
अवधान
प्राप्त हो
जाए तो यह विधि
तुम्हारे हाथ
में है.
'जहां
कहीं भी
तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर, अनुभव।’
तुम
अनुभव करने
वाले को अनुभव
करोगे। तुम
स्वयं पर लौट
आओगे। सब जगह
से तुम
प्रतिबिंबित
होगे, सब
जगह से तुम
प्रतिध्वनित
होगे। सारा
अस्तित्व
दर्पण बन
जाएगा, तुम
सब जगह
प्रतिबिंबित
होंगे। पूरा
अस्तित्व
तुम्हें
प्रतिबिंबित
करेगा।
और
केवल तभी तुम
स्वयं को जान
सकते हो, उसके पहले
नहीं। जब तक
समस्त
अस्तित्व ही
तुम्हारे लिए
दर्पण न बन
जाए, जब तक
अस्तित्व का
कण—कण तुम्हें
प्रकट न करे, जब तक
प्रत्येक
संबंध
तुम्हें
विस्तृत न
करे.। तुम
इतने असीम हो
कि छोटे
दर्पणों से
नहीं चलेगा।
तुम अंतस में
इतने विराट हो
कि जब तक सारा
अस्तित्व
दर्पण न बने, तुम्हें झलक
नहीं मिल
पाएगी। जब
समस्त
अस्तित्व
दर्पण बन जाता
है, केवल
तभी तुम
प्रतिबिंबित
हो सकते हो।
तुम्हारे
भीतर भगवत्ता
विराजमान है।
और
अस्तित्व को
दर्पण बनाने
की विधि है.
अवधान पैदा
करो, ज्यादा
सावचेत बनो, और जहां
कहीं
तुम्हारा
अवधान उतरे—जहां
भी, जिस
किसी विषय पर
भी तुम्हारा
ध्यान जाए—अचानक
स्वयं को
अनुभव करो।
यह
संभव है।
लेकिन अभी तो
यह असंभव है, क्योंकि
तुमने
बुनियादी
शर्त नहीं
पूरी की है।
तुम एक फूल को
देख सकते हो; लेकिन वह
अवधान नहीं है।
अभी तो तुम
फूल के चारों
ओर बाहर—बाहर
घूम रहे हो।
तुमने भागते —
भागते फूल को
देखा है; तुम
उसके साथ क्षण
भर के लिए
नहीं रहे हो।
रुको, अवधान
पैदा करो, सावचेत
बनो, और
समस्त जीवन
ध्यानपूर्ण
हो जाता है।
'जहां
कहीं भी
तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर, अनुभव।’
बस, स्वयं को
स्मरण करो।
इस विधि
के सहयोगी होने
का एक गहरा
कारण है। तुम
एक गेंद को
दीवार पर मारो, गेंद
वापस लौट आएगी।
जब तुम किसी
फूल या किसी
चेहरे को
देखते हो तो तुम्हारी
कुछ ऊर्जा उस
दिशा में गति
कर रही है।
तुम्हारा
देखना ही
ऊर्जा है।
तुम्हें पता
नहीं है कि जब
तुम देखते हो
तो तुम ऊर्जा
दे रहे हो, थोडी
ऊर्जा फेंक
रहे हो।
तुम्हारी
ऊर्जा का, तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा का
एक अंश फेंका
जा रहा है।
यही कारण है
कि दिन भर
रास्ते पर
देखते—देखते
तुम थक जाते
हो। चलते हुए
लोग, विज्ञापन,
भीड़, दुकानें—इन्हें
देखते—देखते
तुम थकान
अनुभव करते हो
और आराम करने
के लिए आंखें
बंद कर लेना
चाहते हो।
क्या हुआ है? तुम इतने
थके—मांदे
क्यों हो रहे
हो? तुम
ऊर्जा फेंकते
रहे हो।
बुद्ध
और महावीर
दोनों इस पर
जोर देते थे
कि उनके शिष्य
चलते हुए
ज्यादा दूर तक
न देखें, जमीन पर
दृष्टि रखकर
चलें। बुद्ध
कहते हैं कि
तुम सिर्फ चार
फीट आगे तक देख
सकते हो। इधर—उधर
कहीं मत देखो,
सिर्फ अपनी
राह को देखो
जिस पर चल रहे
हो। चार फीट
आगे देखना
काफी है; क्योंकि
जब तुम चार
फीट चल चुकोगे,
तुम्हारी
दृष्टि चार
फीट आगे सरक
जाएगी। उससे
ज्यादा दूर मत
देखो, क्योंकि
तुम्हें
अकारण अपनी
ऊर्जा का
अपव्यय नहीं
करना है।
जब तुम
देखते हो तो
तुम थोड़ी
ऊर्जा बाहर
फेंकते हो।
रुको, मौन
प्रतीक्षा
करो, उस
ऊर्जा को वापस
आने दो। और
तुम चकित हो
जाओगे, अगर
तुम ऊर्जा को
वापस आने देते
हो तो तुम कभी थकोगे
नहीं। इसे
प्रयोग करो।
कल सुबह इस
विधि का
प्रयोग करो।
शात हो जाओ, किसी चीज को
देखो। शात रहो,
उसके बारे
में विचार मत
करो, और एक
क्षण धैर्य से
प्रतीक्षा
करो। ऊर्जा
वापस आएगी, असल में, तुम
और भी
प्राणवान हो
जाओगे।
लोग
निरंतर मुझसे
पूछते हैं; मैं सतत
पढ़ता रहता हूं
इसलिए वे
पूछते हैं. 'आपकी आंखें
अभी भी ठीक
कैसे हैं? आप
जितना पढ़ते
हैं, आपको
कब का चश्मा
लग जाना चाहिए
था।’ तुम
पढ़ सकते हो, लेकिन अगर
तुम
निर्विचार
मौन होकर पढ़ो
तो ऊर्जा वापस
आ जाती है, वह
व्यर्थ नहीं
होती है। और
तुम कभी थकान
नहीं अनुभव
करोगे। मैं
जिंदगी भर रोज
बारह घंटे पढता
रहा हूं कभी—कभी
अठारह घंटे भी,
लेकिन
मैंने थकावट
कभी महसूस नहीं
की। मैंने
अपनी आंखों
में कभी कोई अडूचन, कभी
कोई थकान नहीं
अनुभव की।
निर्विचार
अवस्था में
ऊर्जा लौट आती
है; कोई
बाधा नहीं पड़ती
है। और अगर
तुम वहां
मौजूद हो तो
तुम उसे पुन:
आत्मसात कर
लेते हो। और
वह पुन:
आत्मसात करना
तुम्हें
पुनरुज्जीवित
कर देता है।
सच तो यह है कि
तुम्हारी आंखें
थकने के
बजाय ज्यादा
शिथिल, ज्यादा
प्राणवान, ज्यादा
ऊर्जावान हो
जाती हैं।
आज
इतना ही।
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