ओशो जब
प्रवचन देने
आते तो शुरुआत
के दिनों में
व बाद में भी
संगीत बजता या
भजन गाये जाते।
बाद के सालों
में तो जब ओशो
प्रवचन के लिए
आते तो संगीत
के साथ खुद भी
नृत्य करते और
हमें भी अपने
साथ नचाते थे।
अनेक
प्रवचनों में
संन्यासियों
ने इतने
सुरीले व मीठे
भजन गाये हैं
कि उस समय
सुनते —सुनते
यूं लगता कि
हम इस पृथ्वी
पर नहीं हैं।
ओशो के प्रेम
से भरा मधुर
कंठ, भाव
भरा भजन, प्रेम
से भरे
संगीतकारों
का दिलकश
संगीत और ओशो
की प्रणाम
मुद्रा या
उनका नृत्य..
.
यह सब इतना
हृदय को छू
लेने जैसा
होता, इतना
भाव में डुबो
देता कि सभी
मित्र किसी और
ही लोक की
यात्रा पर चले
जाते।
विश्व
यात्रा के बाद
जब ओशो कुछ
समय के लिए मुंबई
ठहरे तब भी
प्रवचन के
दौरान भजन
गाये जाते। एक
दिन किसी
मित्र ने
प्रसिद्ध
आरती, ' ओम
जय जगदीश हरे,
'को' ओम
जय रजनीश हरे'
की तरह
गाया... अब यह
किसी को भी
अजीब लग सकता
है, लेकिन
उस दिन इस
आरती पर ओशो
नृत्य करने
लगे। सच है, ओशो को मन से
समझना या
उन्हें तर्क
की कसौटी पर पकड़ना
मुश्किल है।
जब ओशो
माउंट आबू में
सुबह प्रवचन
देने आते तो
उस समय भी भजन
गाये जाते थे।
जब ओशो मंच पर
आकर प्रणाम करने
के बाद बैठ
जाते तो भजन
बंद हो जाता
और फिर ओशो का
प्रवचन शुरू
हो जाता। एक
दिन सुबह
प्रवचन से
पहले मुझे भजन
गाने का अवसर
मिला, 'दर्शन
दो घनश्याम
नाथ मेरी अखियां
प्यासी रे।’ मैं इतना
भाव— विभोर हो
कर गा रहा था, मुझे पता ही
नहीं चला कि
कब ओशो आ कर
बैठ गए और मैं
भाव में डूबा
भजन गाता ही
रहा। भजन बहुत
लंबा था, जब
भजन पूरा हुआ
और मैंने आंखें
खोली तो ओशो
सामने बैठे थे।
बाद में
मित्रों ने
मुझे बताया कि
ओशो चुपचाप
आकर बैठे गए
और भजन को
जारी रहने
दिया।
ये
छोटे—छोटे
संस्मरण हमें
यह याद दिलाते
हैं कि जब तक
ओशो स्वयं
निर्णय ले रहे
थे, किसी
बात का नियम व
अनुशासन
बनाना असंभव
था। कब, किस
पल में ओशो
क्या निर्णय
लेंगे, यह
कोई सोच भी
नहीं सकता था।
इस पथ पर जैसी
ही नियम बनने
लगते हैं, अनुशासन
आने लगते हैं,
चीजें थोडी
ठहरने लग जाती
हैं, जड़
होने लग जाती
हैं। इतने
मिनट संगीत, इतने मिनट
मौन, इतने
मिनट का
प्रवचन, इतने
मिनट की
जिबरिश.. .हर
दिन बंधा—बंधाया,
सालों से
कोई फर्क नहीं,
कोई
परिवर्तन
नहीं, कोई
नवीनता नहीं।
ऐसा ओशो ने
अपने आसपास
कभी नहीं होने
दिया। शायद
इसी कारण वे
कहते रहे हैं
कि उनके शरीर
से जाने के
बाद हमारी
जिम्मेदारी अधिक
हो जाएगी, क्योंकि
अब वह हमारे
साथ सशरीर
नहीं हैं, हमें
ही निर्णय
लेने हैं, और
हमारे निर्णय
ही आने वाली
पीढ़ियों के
लिए मार्ग बन
सकते हैं।
ओशो
कहते हैं 'मैं
अत्यधिक
प्रसन्न हूं।
जब मैं
तुम्हें
देखता हूं तो
मेरा हृदय
बहुत आनंद के
साथ नाचने
लगता है। और
यह सिर्फ
शुरुआत है।
अनेक, अनेक
मित्र आने
वाले हैं, वे
राह पर हैं।
लाखों और आने
वालों के लिए
तुम अग्रदूत
भर हो। लिहाजा
तुम्हारी
जिम्मेदारी
बहुत अधिक है,
क्योंकि
तुम राह
बनाओगे; दूसरे
जो आएंगे वे
तुमसे
सीखेंगे।
दूसरे, सजगता,
अनुशासन, सहजता, निजता,
स्वतंत्रता,
ये सभी आयाम
तुमसे
सीखेंगे।’ जब
ओशो के शब्द
सुनता हूं तो
लगता है कि हम
सभी की
जिम्मेदारी
बहुत अधिक है।
आने वाली
पीढ़ियों के
लिए जागरण की
एक नई यात्रा
का प्रारंभ
हुआ है, जो
मित्र इस पर
चल पड़े हैं
उनके लिए बहुत
जरूरी है कि
इस राह को
अधिक से अधिक
साफ—सुथरी और
स्पष्ट रखें।
इसकी ताजगी
आने वाली
पीढ़ियों को
प्रेरणा देती
रहेगी। यदि
अन्य धर्मों
की तरह इस राह
पर परंपरा, संस्कार, नियम, जडता की धूल जम
जाती है तो यह
शुभ नहीं होगा।
इतना हमें
जरूर स्मरण
रखना है।
आज इति
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