ओशो के
सत्संग और
ध्यान साधनाओं
से गुजरते मैं
स्पष्ट ही देख
पा रहा था कि
मैं भीतर से
बदल रहा हूं।
हर समय भीतर
ही भीतर एक
मस्ती सी बनी
रहने लगी जो
मैंने पहले
कभी महसूस
नहीं की थी। 1973
में ओशो ने
माउंट आबू में
आखरी ध्यान
शिविर लिया।
जिसमें ओशो कठोपनिषद
पर बोले। उसके
बाद एक दिन मा
योग लक्ष्मी
का मुझे फोन आता
है कि ' ओशो
बांबे
छोड़ना चाहते
हैं। तो आप
पुणे में कोई
अच्छी जगह
मिले तो देखें।
मैं महाबलेश्वर
जा रही हूं और
मुक्ता लोनावला
जा रही हैं।’ मैंने पुणे
में उचित जगह
की तलाश की और 17,
कोरेगांव
पार्क का एक
बंगला मुझे
पसंद आया। शाम
को लक्ष्मी और
मुक्ता मेरे
से मिलीं और बताया
कि महाबलेश्वर
और लोनावाला
तो ओशो के लिए
ठीक नहीं
रहेगा
क्योंकि
दोनों जगह
पानी बहुत
बरसता है।
मैंने
उन्हें कोरेगांव
पार्क का 17
नंबर बंगला
उन्हें
दिखाया।
लक्ष्मी और
मुक्ता को भी
पसंद आया। तब
लक्ष्मी ने
मेरी बात ओशो
से फोन पर
करवाई। पहली
बार मैं ओशो
से फोन पर बात
कर रहा था।
उन्होंने
मुझसे पूछा, 'स्वभाव
वहां हरियाली
है?' मैंने
कहा, 'है।’ ओशो ने कहा
ले लो। 21 मार्च 1974
को ओशो पुणे आ
गए। ओशो का
वहां पर
बुद्धत्व
दिवस का उत्सव
मनाया गया।
ओशो अभी 17 नंबर
बंगले में गये
नहीं थे। पास
ही के बंगले
पर खाली पड़ी
जगह पर उत्सव
रखा गया था।
उत्सव के बाद
ओशो मुझे कहते
हैं, 'इस
बंगले को भी
ले लो।’ दूसरे
दिन मैंने उस
बंगले के
मालिक से बात
कर वह बंगला
भी ले लिया।
22
मार्च को ओशो
ने मुझे
बुलाकर कहा कि
'अब यहां
मेरे काफी
संन्यासी आने
लगेंगे बांबे
से, विदेशों
से तो उन्हें
ध्यान करवाना
हैं। मैं जब
पहले यहां आता
था तो रानी
बाग में एक नहर
के पास खुली
जगह है, वह
जगह मुझे पसंद
है। तुम वहां
जाकर मित्रों
को सक्रिय
ध्यान करवाओ।’
अब यह
मजेदार बात है
कि ओशो कुछ
करने को कहते
हैं और हां
निकल जाती है।
कैसे करना, क्या—क्या
करना, वह
काम संभव भी
हो पाएगा या
नहीं, ये
सब प्रश्न उस
समय मन में
नहीं आते।
मैंने हां कर
दी। ओशो
द्वारा बताई
जगह को मैंने
जाकर देखा।
मैंने सोचा कि
मित्रों को यह
सूचित करने के
लिए कि यहां
पर ध्यान होना
है तो कुछ
करना होगा।
यही सोच कर
मैंने एक भगवा
कपड़े पर ओशो
का चित्र और
सक्रिय ध्यान
लिख कर वहां
पर टांग दिया।
यह
तैयारी तो हो
गई लेकिन फिर
ध्यान में आया
कि ध्यान के
लिए संगीत की
व्यवस्था
कैसे होगी? तो मैंने
ओशो से जाकर
पूछा, 'ध्यान
के लिए संगीत
की व्यवस्था
कैसे होगी?' इस पर
उन्होंने कहा
कि संगीत
बजाने के लिए
संगीतकार मिल
जाएंगे।
मैं
आश्वस्त हो
गया।
संगीतकार से
जब मिला तो
देखा कि एक
अकेला आदमी था
जो दो पतली लकड़ियों
से पतले से
ढोल को बजाने
वाला था।
मैंने मन ही
मन कहा हे
भगवान ये
संगीत है क्या? पर सोचा
जो प्रभु की
इच्छा, मैं
उस व्यक्ति के
साथ सक्रिय
ध्यान करवाने
लगा। वह अकेला
व्यक्ति तीड,
तीड, तीड
बजाता और उस
तान पर मित्र
ध्यान करते।
तीन दिन तक तो
ऐसा ही चला
फिर तीन दिन
के बाद तो पूरा
आकेस्ट्रा
आ गया। अब
सक्रिय ध्यान
में मित्रों
की सहभागिता
भी बढ़ने लगी।
बहुत से मित्र
इकट्ठे होने
लगे। कुछ दिन
ऐसा ही चलता
रहा एक दिन
ओशो ने बुलाकर
कहा कि शाम को
कुंडलिनी भी
शुरू कर दो।
इस तरह से
सुबह सक्रिय
ध्यान व
संध्या
कुंडलिनी
ध्यान दोनों
ध्यान वहां
होने लगे।
इधर ओशो
च्चांग्त्सु
कक्ष के खुले
स्थल पर
प्रवचन देने
लगे। वहां पर
पहली प्रवचन
श्रृंखला थी 'माय वे दि
वे ऑफ दि
व्हाइट क्लाउड्स'
इस तरह पुणे
में ओशो के
कार्य की एक
नई शुरुआत हुई।
इस
शुरुआती दौर
का अपना एक
अनुभव था। हर
चीज बनने की प्रक्रिया
में थी। हर
दिन कुछ न कुछ
नया होता। हम
सभी मित्र
अपनी—अपनी तरफ
से ओशो के
कार्य में
अपनी पूरी—पूरी
ऊर्जा उड़ेल
रहे थे। उस
समय कोरेगांव
पार्क बहुत ही
सुनसान इलाका
था। चारों तरफ
घना जंगल और
दूर—दूर फैले
बंगले। कभी—कभार
किसी व्यक्ति
का आना जाना।
चारों तरफ
खुली जमीन पड़ी
थी जिस पर
खेती होती थी।
जिसे आज नॉर्थ
मैन रोड कहते
हैं वहां
पक्की सड़क
नहीं थी। हां, चारों
तरफ बड़े—बड़े
वट वृक्ष थे।
उनकी झुलती
डालियां और
सघन छाया बहुत
सुंदर लगती।
सारा माहौल
शांत और
प्राकृतिक था।
तब सभी
वृक्षों पर
पक्षियों की
भरमार थी। ओशो
जब प्रवचन
देते तो चारों
तरफ इतने पक्षी
कलरव करते कि
कभी—कभी तो
ओशो की आवाज
उसके पीछे चली
जाती। किसी ने
इन पक्षियों
की चहचहाहट के
बारे में ओशो
से पूछा तो
उन्होंने कहा
कि जो मैं
बोलता हूं उसे
ये पक्षी
संगीत देते
हैं।
सुबह
के सन्नाटे
में पक्षियों
की चहचहाहट के
बीच ओशो की
वाणी हम सभी
को गहरे मौन
में ले जाती।
कोरेगांव
पार्क की
सुनसान राहों
पर भगवा कपड़ों
में संन्यासी
दिखाई देने
लगे। उस समय
सामान्यतया
सभी मित्र दाढी
और लंबे बाल
रखते थे। उस
समय हममें से
किसी को इस
बात का जरा भी
अंदाजा नहीं
था कि 17, कोरेगांव
पार्क, पूरी
दुनिया में
प्रसिद्ध हो
जाएगा। सारी
दुनिया से लोग
यहां आएंगे।
कोरेगांव
पार्क, पुणे
इतना फैल
जाएगा। दूर—दूर
तक फैले जंगल
बड़े—बड़े
मकानों से पट
जाएंगे। सूनी
राहें सघन
यातायात से भर
जाएंगी.. .किसे
पता था कि
थोड़े से
मित्रों का यह
समूह आने वाले
समय में विश्व
समुदाय बन
जाने वाला है।
समय के साथ
बाहर की व्यस्तताएं
बढ़ती गईं, मित्रों
की संख्या
बढ़ती गई, संसाधन
और सुविधाएं
बढ़ती गईं और
भीतर मौन सघन होता
गया। दोनों
आयामों में
अधिकांश
मित्रों की
यात्रा जारी
थी। ओशो हमें
नित—नये मार्ग
दिखा रहे थे..
.हम चलने का
आनंद ले रहे थे,
जाना कहां
है, यह कौन
पूछे, कौन
जानना चाहे? यात्रा अपने
आपमें इतनी
सुमधुर और
शानदार जो थी।
आज इति।
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