शुरुआत में
शिविरों में
ओशो स्वयं सभी
ध्यानों का
संचालन करते
थे। उनका
हमेशा इस बात
पर जोर होता
कि ध्यान में
अपनी सारी
ऊर्जा उंडेल
दें, पूरी
त्वरा से
ध्यान करें।
मेरे अपने
अनुभव से यह
बात
स्वीकारता
हूं कि ध्यान
में कुछ भी
बाकी नहीं
छूटना चाहिए।
जितनी भी
त्वरा से कर सकें,
करना चाहिए।
यदि थोड़ा भी
पीछे बचा लिया
या आधे—अधूरे
मन से ध्यान
किया, तो
उसका कोई
फायदा नहीं
होने वाला है।
ओशो हमें पूरी
ऊर्जा से, पूरी
त्वरा से
ध्यान में
उतरने को
प्रोत्साहित
करते हैं।
एक बार
माउंट आबू में
सुबह सक्रिय
ध्यान हो रहा
था। ओशो ध्यान
के पहले बोलते
हैं कि 'यदि वस्त्र
बाधा डालते
हों तो
वस्त्रों को
गिरा दें।’ हमने सुना
ध्यान शुरू
हुआ, जैसे
ही हूं हूं
का चरण आया और
मैंने सारे
कपड़े उतार
दिये और लगा हूं
हूं करने।
पूरी त्वरा और
प्राणपन
से ध्यान में
डूब गया।
ध्यान पूरा
हुआ, ओशो
अपने कक्ष में
चले गए। हम
काफी देर तक
वहीं पड़े रहे,
फिर धीरे—
धीरे उठे। उस
दिन इलस्ट्रेडेड
वीकली के श्री
प्रीतीश
नंदी वहां आए
हुए थे।
उन्होंने
सारा नजारा
देखा और बहुत
सारे फोटो बगैर
वस्त्रों
वाले निकाल
लिये।
और अगले सप्ताह की पत्रिका में प्रकाशित कर दिए। हमारे भाई साहब ने वे फोटो देखे, उन्हें बहुत बुरा लगा। वो मेरे ऊपर बहुत गुस्सा हुए। बोले कि 'क्या यह सब करने माउंट आबू जाते हो? सारा खानदान का नाम मिट्टी में मिला रहे हो।’ इस तरह की बहुत सारी डांट—डपट सुननी पडी। समय के साथ बात आई गई हो गई।
और अगले सप्ताह की पत्रिका में प्रकाशित कर दिए। हमारे भाई साहब ने वे फोटो देखे, उन्हें बहुत बुरा लगा। वो मेरे ऊपर बहुत गुस्सा हुए। बोले कि 'क्या यह सब करने माउंट आबू जाते हो? सारा खानदान का नाम मिट्टी में मिला रहे हो।’ इस तरह की बहुत सारी डांट—डपट सुननी पडी। समय के साथ बात आई गई हो गई।
लेकिन
यह तो अनुभव
से कहता हूं
कि ध्यान जितनी
त्वरा से हो, जितना
सघनता से हो, जितनी
पूर्णता से हो
उतना ही
प्रभावी होता
है। यदि आप
कुनकुना, ढीला—डाला,
नाम के लिए
ध्यान कर रहे
हैं, तो
उसके परिणाम
नहीं आ सकते।
ऐसे लोग मिल
जाते हैं जो
बड़ा दावा करते
हैं कि वे एक
साल से, पांच
साल से, दस
साल से सक्रिय
ध्यान कर रहे
हैं या कोई और
ध्यान कर रहे
हैं लेकिन
उन्हें देख कर
जरा भी नहीं
लगता कि उन्हें
ध्यान का कोई
अनुभव हुआ है।
ध्यान
कोई बताने की
बात नहीं है, कोई
अहंकार को
सजाने की बात
नहीं है। यदि
ऐसा होता है
तो यह तो पूजा—पाठ
जैसा हो गया, ढोंग—ढकोसला
हो गया। अन्य
धार्मिक
क्रिया कांडों
जैसा कर्म
कांड हो गया।
नहीं, ऐसा
जरा भी नहीं
चलेगा। ध्यान
नियमित किया
जाए, पूरी
त्वरा से, सघनता
से, पूर्णता
से......निश्चित
ही परिणाम
आएंगे, आपको
स्वयं को पता
चलेगा और आपके
संपर्क में आने
वाले सभी
मित्रों को भी
अहसास होगा।
शिविर
में नग्न होने
वाली बात ने
बड़ा जोर पकड़
लिया। समाचार
पत्रों में
खबरें आने से
चारों तरफ इस
विषय पर
जबर्दस्त
विरोध शुरू हो
गया। जब इस
बारे में ओशो
से पूछा गया
तो वे इस विषय
पर विस्तार से
बोले.
ओशो : सब
लोग कपडों
के भीतर नग्न
हैं और कोई
बेचैन नहीं
होता! कपड़ों
के भीतर सभी
लोग नग्न हैं, कोई
बेचैन नहीं है।
दो आदमियों ने
कपड़े छोड़ दिए,
सब बेचैन हो
गए! बड़ा मजा है,
आपके कपड़े
भी किसी ने छुडाए
होते तो बेचैन
होते तो भी
समझ में आता।
अपने ही कपड़े
कोई छोड़ रहा
है और बेचैन
आप हो रहे हैं!
अगर कोई आपके
कपड़े छीनता, तो बेचैनी
कुछ समझ में
भी आ सकती थी।
हालांकि वह भी
बेमानी थी।
ऐसा लगता है
कि आप
प्रतीक्षा ही
कर रहे थे कि कोई
कोट उतारे और
हम कूलडाउन
हो जाएं, और
हम कहें, हमारा
सारा ध्यान
खराब कर दिया।
अब बड़े
आश्चर्य की
बात है कि कोई
आदमी नग्न हो गया
है, इससे
आपके ध्यान के
खराब होने का
क्या संबंध है?
और आप किसी
के नग्न होने
को बैठकर देख
रहे थे? तो
आप ध्यान कर
रहे थे या
क्या कर रहे
थे? आपको
तो पता ही
नहीं होना
चाहिए था कि
कौन ने कपड़े
छोड़ दिए, कौन
ने क्या किया।
आप अपने में
होने चाहिए थे।
कौन क्या कर
रहा है... आप कोई
धोबी हैं, कोई
टेलर हैं, कौन
हैं? आप
कपड़ों के लिए
चिंतित क्यों
हैं? आपकी
परेशानी बेवजूद
है, अर्थहीन
है।
और
जिसने कपड़े
छोड़े हैं...
थोड़ा सोचते
नहीं हैं, आपसे कोई
कहे कि आप
कपडे छोड
दें, तब
आपको पता
चलेगा कि
जिसने कपड़े छोडे हैं
उसके भीतर कोई
बड़ा कारण ही
उपस्थित हो गया
होगा इसलिए
उसने कपड़े छोडे
हैं। आपसे कोई
कहे कि लाख
रुपया देते
हैं। आप
कहेंगे, छोड़ते
हैं लाख रुपया,
लेकिन कपड़े
न छोड़ेंगे।
उस बेचारे को
किसी ने कुछ
भी नहीं दिया
है और उसने
कपड़े छोड़े! आप
क्यों परेशान
हैं? उसके
भीतर कोई कारण
उपस्थित हो
गया होगा।
लेकिन
जिंदगी को
समझने की, सहानुभूति
से देखने की
हमारी आदत ही
नहीं है।
एक
स्थिति आती है
ध्यान की—कुछ
लोगों को
अनिवार्य रूप
से आती है—कि
वस्त्र छोड़
देने की हालत
हो जाती है।
वे मुझसे
पूछकर नग्न
हुए हैं।
इसलिए उन पर एक्सप्लोसिव
मत होना, होना हो तो
मुझ पर होना।
जो लोग भी
यहां नग्न हुए
हैं वे मुझसे
भाशा लेकर
नग्न हुए हैं।
मैंने उनसे कह
दिया कि ठीक
है। वे मुझसे
पूछ गए हैं
आकर किं हमारी
हालत ऐसी है
कि हमें ऐसा
लगता है एक
क्षण में कि
अगर हमने वस्त्र
न छोड़े तो कोई
चीज अटक जाएगी।
तो मैंने उनको
कहा है कि छोड़
दें।
यह
उनकी बात है, आप क्यों
परेशान हो रहे
हैं? इसलिए
उनसे किसी ने
भी कुछ कहा हो
तो बहुत गलत
किया है। आपको
हक नहीं है वह,
किसी को कुछ
कहने का। थोड़ा
समझना चाहिए
कि एक निर्दोष
चित्त.. .एक घड़ी
है जब कई
चीजें बाधाएं
बन सकती हैं।
कपड़े आदमी का
गहरा से गहरा इनहिबिशन
है। कपडा जो
है वह आदमी का
सबसे गहरा
टैबू है, वह
सबसे गहरी
रूढ़ि है जो
आदमी को पकड़े
हुए है। और एक
क्षण आता है
कि कपड़े करीब—करीब
प्रतीक हो
जाते हैं
हमारी सारी
सभ्यता के। और
एक क्षण आता
है मन का कभी..
.किसी को आता
है, सबको
जरूरी नहीं...।
नहीं
मैं कहता हूं
कि आप नग्न हो
जाएं, लेकिन
कोई होता हो तो
उसे रोकने की
तो कोई बात
नहीं है। और
एक साधना—शिविर
में भी हम
इतनी
स्वतंत्रता न
दे पाएं कि
कोई अगर इतना
मुक्त होना
चाहे तो हो
सके, तो
फिर यह
स्वतंत्रता
कहां मिल
पाएगी? साधना—शिविर
साधकों के लिए
है, दर्शकों
के लिए नहीं।
वहां जब तक
कोई दूसरे को
कोई छेड़खानी
नहीं कर रहा
है तब तक उसकी
परम
स्वतंत्रता
है। दूसरे पर
जब कोई ट्रेसपास
करता है तब
बाधा शुरू
होती है। अगर
कोई नंगा होकर
आपको धक्का
देने लगे, तो
बात ठीक है; कोई अगर
आपको आकर चोट
पहुंचाने लगे,
तो बात ठीक
है कि रोका
जाए। लेकिन जब
तक एक आदमी
अपने साथ कुछ
कर रहा है, आप
कुछ भी नहीं
हैं बीच में, आपको कोई
कारण नहीं है।
(जिन
खोजा तिन
पाइयां)
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