प्रश्नसार:
1—क्या
स्वतंत्रता और
समर्पण परस्पर
विरोधी नहीं
है?
2—सूत्र
का सिर्फ ‘यह
यह है’
पर इतना जोर
क्यों है?
3—क्या
भगवता या
परमात्मा
संसार का ही
हिस्सा है?
और वह
क्या है जो
दोनों के पार
जाता है?
4—तंत्र
के अनुसार भय
से कैसे मुक्त
हुआ जाए?
5—ऐसी ध्वनियां
सुनने लगा हूं
जो बहती नदी
या झरने
की घ्वनियों
जैसी है। यह
ध्वनि क्या
है?
पहला
प्रश्न:
आप कहते
हैं कि धर्म
समय
स्वतंत्रता है,
मोक्ष है। और
आप धर्म के
जगत में समर्पण
की महिमा पर
भी जोर देते
हैं। लेकिन
क्या स्वतंत्रता
और समर्पण परस्पर
विरोधी नहीं
हैं?
वे विरोधी
मालूम पड़ते
हैं,
लेकिन हैं
नहीं। वे भाषा
के कारण
विरोधी मालूम
पड़ते हैं, वस्तुत:
वे विरोधी
नहीं हैं।
यहां दो बातें
समझने की
कोशिश करो।
पहली
बात कि तुम
जैसे हो, स्वतंत्र
नहीं हो सकते;
क्योंकि
तुम जैसे हो, वही तो
तुम्हारा
बंधन है।
तुम्हारा
अहंकार ही
तुम्हारा बंधन
है। और तुम
स्वतंत्र तभी
हो सकते हो जब
यह अहंकार का
केंद्र विदा
हो। यह अहंकार
ही तो बंधन है,
कारागृह है।
जब
अहंकार विदा
हो जाता है तब
तुम अस्तित्व
के साथ एक हो
जाते हो। और
वह अखंडता ही
स्वतंत्रता
हो सकती है।
अभी तुम पृथक
हो,
अलग हो; और
यह अलगाव झूठा
है। वस्तुत:
तुम अलग नहीं
हो, तुम
अलग हो नहीं
सकते। तुम
अस्तित्व के
अभिन्न अंग हो।
अस्तित्व से
अलग होकर तुम
एक क्षण के
लिए भी नहीं
जी सकते।
प्रतिपल तुम
अस्तित्व में
श्वास लेते हो;
प्रतिपल
अस्तित्व
तुममें श्वास
लेता है। तुम
एक जागतिक
अखंडता में
जीते हो।
यह
तुम्हारा
अहंकार है जो
तुम्हें पृथक
अस्तित्व का झूठा
खयाल देता है।
और इस झूठे
खयाल के कारण
तुम अस्तित्व
से लड़ने लगते
हो। और जब तुम
लड़ते हो, तुम
बंधन में हो।
जब तुम लड़ते
हो तो
तुम्हारी हार
निश्चित है, क्योंकि अंश
पूर्ण से नहीं
जीत सकता है।
और अस्तित्व
से इस संघर्ष
के कारण तुम
बंधन में
महसूस करते हो,
सर्वत्र
अपने को सीमित
पाते हो। तुम जहां
भी जाते हो
वहीं एक दीवार
खड़ी पाते हो।
वह दीवार कहीं
भी नहीं है; वह तुम्हारे
अहंकार के साथ
चलती है, वह
तुम्हारे
पृथक होने के
खयाल का
हिस्सा है। तब
तुम अस्तित्व
से संघर्ष
करते हो। उस
संघर्ष में
तुम निरंतर
हारते हो। और
उस हार में
तुम्हें बंधन
महसूस होता है,
तुम सीमित
मालूम पड़ते हो।
समर्पण
का अर्थ है कि
तुम अहंकार का
समर्पण कर
देते हो, तुम
अलग करने वाली
दीवार को हटा
देते हो और तुम
अस्तित्व से
एक हो जाते हो।
वह एकता ही
सत्य है।
इसलिए तुम
जिसका समर्पण
कर रहे हो, वह
एक स्वप्न है,
खयाल है, झूठी धारणा
है। तुम किसी वास्तविक
चीज का समर्पण
नहीं कर रहे
हो; तुम
केवल एक झूठे
खयाल का
समर्पण कर रहे
हो। और जिस
क्षण तुम इस
झूठे खयाल को
छोड़ देते हो, तुम
अस्तित्व के
साथ एक हो जाते
हो। और तब कोई संघर्ष
नहीं है।
और
अगर संघर्ष
नहीं है तो
तुम्हारी कोई
सीमा न रही।
तब कहां बंधन? कहां
सीमा? तब
तुम पृथक नहीं
रहे। तब
तुम्हें
हराया नहीं जा
सकता; क्योंकि
हारने वाला ही
न रहा। तब
तुम्हारी
मृत्यु नहीं
हो सकती; क्योंकि
मरने वाला ही
न रहा। तब
तुम्हें कोई
दुख नहीं छू
सकता; क्योंकि
दुखी होने
वाला ही नहीं
है। जिस क्षण
तुम अहंकार का
समर्पण कर
देते हो, सारा
उपद्रव
समर्पित हो
जाता है—दुख, बंधन, नरक—स्ब
समाप्त हो
जाता है। तुम
अस्तित्व के
साथ एक हो
जाते हो।
यह
एकता ही
स्वतंत्रता
है। पृथकता, अलगाव
परतंत्रता है।
एकता स्वतंत्रता
है।
और
स्मरण रहे.
ऐसा नहीं है
कि तुम
स्वतंत्र हो जाते
हो;
तुम तो होते
ही नहीं। तुम
स्वतंत्र
नहीं होते, तुम बस मिट
जाते हो।
वस्तुत: तुम
जब नहीं हो तो
स्वतंत्रता
है। इस बात को
कहना थोड़ा
कठिन है—जब
तुम नहीं हो
तब
स्वतंत्रता
है। बुद्ध ने
कहा है तुम
आनंद में नहीं
होंगे, जब
तुम नहीं हो
तब आनंद है।
तुम मुक्त
नहीं होगे, तुम स्वयं
से मुक्त होगे।
तो
स्वतंत्रता
का मतलब
अहंकार की
स्वतंत्रता
नहीं है, स्वतंत्रता
का मतलब
अहंकार से
स्वतंत्रता है।
और अगर तुम
समझ सके कि
स्वतंत्रता
का मतलब अहंकार
से
स्वतंत्रता
है तो समर्पण
और
स्वतंत्रता
दोनों एक हो
गए। तब समर्पण
और
स्वतंत्रता
दोनों एक ही
अर्थ रखते हैं।
लेकिन
अगर तुम
अहंकार को
अपना केंद्र—बिंदु
बनाए हो तो
अहंकार कहेगा
समर्पण क्यों करना? तुम
अगर समर्पण
करते हो तो
तुम स्वतंत्र
नहीं हो सकते,
तुम गुलाम
हो जाते हो।
यदि तुम समर्पण
करोगे तो तुम
गुलाम हो
जाओगे।
लेकिन
सचाई यह है कि
तुम किसी के
प्रति समर्पण
नहीं कर रहे
हो। यह दूसरी
बात है जो
समझने जैसी है।
तुम किसी के
प्रति समर्पण
नहीं करते हो, तुम
बस समर्पण
करते हो। कोई
नहीं है जो
तुम्हारा
समर्पण लेगा।
और अगर कोई है
जिसके प्रति तुम
समर्पित होते
हो तो वह एक
तरह की गुलामी
है। सच तो यह
है कि तुम
ईश्वर के
प्रति भी
समर्पण नहीं
करते हो। और
जब हम ईश्वर
की बात करते
हैं तो वह
तुम्हें समर्पित
होने के लिए
एक निमित्त भर
है।
पतंजलि
के योगसूत्र
में ईश्वर की
चर्चा
तुम्हारे
समर्पण में
सहयोगी के रूप
में की गई है।
कहीं कोई
ईश्वर नहीं है, पतंजलि
कहते हैं कि
कोई ईश्वर
नहीं है, लेकिन
तुम्हारे लिए
समर्पण करना
कठिन होगा अगर
वह किसी के
प्रति न होकर
मात्र समर्पण
हो। सिर्फ
समर्पण करना
कठिन है।
समर्पण को
संभव करने के
लिए ईश्वर की
बात की जाती
है। ईश्वर
केवल एक बहाना
है। यह बहुत
अदभुत और बहुत
वैज्ञानिक
बात है कि परमात्मा
का उपयोग
तुम्हारे
समर्पण के लिए
एक उपाय की
तरह किया गया
है। वहा कोई
भी नहीं है जो
तुम्हारा
समर्पण ग्रहण
करेगा। और अगर
कोई समर्पण
लेने वाला है
और तुम उसके प्रति
समर्पण करते
हो तो वह
गुलामी है, वह बंधन है।
यह
एक बहुत ही
सूक्ष्म और
गहन बात है।
व्यक्ति की
तरह कहीं कोई
ईश्वर नहीं है; ईश्वर
सिर्फ एक
मार्ग है, एक
उपाय है, एक
विधि है।
पतंजलि अनेक
विधियों की
चर्चा करते हैं,
उनमें से एक
विधि है ईश्वर—प्रणिधान।
समर्पण के
अनेक उपाय हैं;
ईश्वर—प्रणिधान
उनमें से एक
है। ईश्वर की
धारणा
तुम्हारे मन
के लिए समर्पण
करने में
सहयोगी होगी।
क्योंकि अगर मैं
कहूं कि समर्पण
करो, तुम
पूछोगे कि
किसको समर्पण
करूं? अगर मैं
कहूं कि सिर्फ
समर्पण करो, तो तुम्हें
इस बात की
धारणा करनी
बहुत कठिन होगी।
इस
बात को एक और
ढंग से समझने
की चेष्टा करो।
अगर मैं कहूं
कि मात्र
प्रेम करो, तो
तुम पूछोगे कि
किसको प्रेम
करूं? तुम
पूछोगे कि
मात्र प्रेम
करने का क्या
अर्थ है? अगर
प्रेम करने के
लिए कोई विषय
नहीं है तो प्रेम
कैसे होगा? वैसे ही अगर
मैं कहूं कि
प्रार्थना
करो, तो
तुम पूछोगे कि
किसकी
प्रार्थना
करूं? किसकी
पूजा करूं? तुम्हारा मन
अद्वैत की
धारणा नहीं
बना सकता है।
वह पूछेगा, वह प्रश्न
उठाएगा, कि
किसकी?
तो
सिर्फ
तुम्हारे मन
को सहारा देने
के लिए, ताकि
तुम्हारे मन
में उठा
प्रश्न शात हो
जाए, पतंजलि
कहते हैं कि
ईश्वर—प्रणिधान
एक उपाय है, एक विधि है।
पूजा, प्रेम,
समर्पण—किसके
प्रति? पतंजलि
कहते हैं :
ईश्वर के
प्रति।
क्योंकि जब
तुम समर्पण
करोगे तो तुम
जान लोगे कि
कोई ईश्वर
नहीं है, या
यह जान लोगे
कि वह तुम ही
हो जिसके
प्रति तुम
समर्पण करते
हो। लेकिन यह
तो तभी होगा
जब तुम समर्पण
कर चुकोगे।
ईश्वर केवल एक
उपाय है।
कहते
हैं कि ईश्वर
के प्रति भी
समर्पण करना
कठिन है, क्योंकि
वह कहीं दिखाई
नहीं देता है,
वह अदृश्य
है। तो
शास्त्र कहते
हैं कि गुरु
के प्रति
समर्पण करो।
गुरु दिखाई
देता है, गुरु
सामने मौजूद
एक व्यक्ति है।
लेकिन
फिर प्रश्न
खड़ा होता है
कि तब तो यह
गुलामी हो गई।
गुरु एक
व्यक्ति है और
तुम उसके
प्रति समर्पण
करते हो तो
स्वभावत: यह
प्रश्न उठता
है।
लेकिन
यहां फिर एक
सूक्ष्म और
गहरी बात
समझने जैसी है।
यह बात ईश्वर
की धारणा से
भी सूक्ष्म और
गहन है। गुरु
तभी गुरु है
जब वह नहीं है।
अगर वह है तो
वह गुरु नहीं
है। गुरु तभी
गुरु होता है
जब वह मिट
जाता है, शून्य
हो जाता है।
गुरु अब
व्यक्ति नहीं रहां, शून्य
हो गया, अनत्ता हो गया।
वहां कोई नहीं
है। अगर यहां
इस कुर्सी में
कोई व्यक्ति
बैठा है तो वह
गुरु नहीं है।
और उसको
समर्पित होने
पर जरूर
गुलामी है।
लेकिन अगर इस
कुर्सी में
कोई बैठा नहीं
है, एक
शून्य है, जो
कहीं
केंद्रित
नहीं है, जो
बस समर्पित है—किसी
के प्रति
समर्पित नहीं,
सिर्फ
समर्पित—जो
शून्य को, अनस्तित्व
को उपलब्ध हो
गया है, जो
व्यक्ति की
तरह मिट गया
है, जो
अहंकार में
केंद्रित
नहीं है, कहीं
भी केंद्रित
नहीं है, जो
वाष्पीभूत हो
गया है, तो
वह गुरु है।
इसलिए जब तुम
किसी गुरु के
प्रति समर्पण
करते हो तो
वास्तव में यह
समर्पण किसी
के प्रति समर्पण
नहीं है। यह
मात्र समर्पण
है।
यह
तुम्हारे लिए
बहुत गहरा
प्रश्न है। जब
तुम समर्पित
होते हो तो
तुम्हें
समझना है कि
यह समर्पण
नहीं है, समर्पित
होना है—मात्र
समर्पित होना।
समर्पण नहीं,
समर्पित
होना। समर्पण
किसी के प्रति
होता है; समर्पित
होना
तुम्हारी ओर
से घटता है।
इसलिए
बुनियादी बात
समर्पित होना
है, कृत्य
बुनियादी है,
विषय नहीं।
किसके प्रति
समर्पित हो
रहे हो यह महत्वपूर्ण
नहीं है; महत्वपूर्ण
वह है जो
समर्पित हो
रहा है। विषय
तो मात्र
निमित्त है, बहाना है।
अगर तुम यह
बात समझ सके
तो किसी के
प्रति समर्पण
नहीं करना है,
सिर्फ
समर्पित होना
है; किसी विशेष
को प्रेम नहीं
करना है, केवल
प्रेमपूर्ण
होना है। तब
तुम
महत्वपूर्ण
हो, विषय
नहीं।
और
अगर विषय
महत्वपूर्ण
है तो तुम
बंधन निर्मित
कर लोगे। तब
ईश्वर भी, जो
नहीं है, बंधन
बन जाएगा। तब
गुरु भी, जो
नहीं है, परतंत्रता
बन जाएगा। लेकिन
यह बंधन तुम हो
निर्मित करते
हो, यह
तुम्हारी
नासमझी है।
अन्यथा
समर्पित होना
स्वतंत्रता
है।
वे
विरोधी नहीं
हैं
दूसरा
प्रश्न :
अगर
'यह यह है'
में 'यह
वह है' और ' वह ब्रह्म
है' भी
सम्मिलित है, तो क्यों
सूत्र सिर्फ '
यह यह
है' पर जोर
देता है?
एक
विशेष कारण से; क्योंकि
तंत्र सिर्फ यहां
और अभी की
फिक्र करता है।’यह यह है'
का अर्थ है
कि जो यहां और
अभी है। ’वह'
जरा दूर पड़
जाता है।
दूसरी
बात कि तंत्र
के लिए 'यह' और 'वह' में कोई
विभाजन नहीं
है। तंत्र अद्वैतवादी
है। यह संसार
है और वह
ब्रह्म, यह
लौकिक है और
वह
आध्यात्मिक—तंत्र
के लिए ऐसे
भेद नहीं हैं।’यह' ही सब
है; 'वह' भी
इसमें ही
सम्मिलित है।
तंत्र के लिए
यह संसार ही
दिव्य है, भागवत
है।
और
तंत्र उच्च और
निम्न का भेद
और वर्गीकरण
नहीं करता है।
तंत्र नहीं
कहता है कि 'यह'
का अर्थ
निम्न है और 'वह' का
अर्थ उच्च; तंत्र नहीं
कहता है कि 'यह' का
अर्थ है जिसे
तुम देख सकते
हो, छू
सकते हो, जान
सकते हो और 'वह' का
मतलब वह अदृश्य
है जिसे तुम
देख नहीं सकते,
छू नहीं
सकते, जिसका
अनुमान भर कर
सकते हो।
तंत्र उच्च और
निम्न में, दृश्य और
अदृश्य में, पदार्थ और
चेतना में, जीवन और
मृत्यु में, जगत और
ब्रह्म में
भेद नहीं करता
है। तंत्र
अभेद है।
तंत्र
कहता है कि यह यह है और वह
इसमें समाहित
है। लेकिन 'यह'
पर जो जोर
है वह सुंदर
है। तंत्र
कहता है कि यहां
और अभी, जो
भी है, यही
सब है। इसमें
सब कुछ है, कुछ
भी इसके बाहर
नहीं है। जो
निकट है, जो
सहज है, जो
सामान्य है, वही सब कुछ
है।
झेन
साधना का एक
प्रसिद्ध वचन
है कि अगर तुम
सिर्फ
सामान्य हो
जाओ तो तुम
असामान्य हो
गए। जो
व्यक्ति अपने
सामान्य होने
से संतुष्ट है
वही असामान्य
है। क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
असामान्य
होने को आतुर
है,
इसलिए
असामान्य
होने की इच्छा
बहुत सामान्य इच्छा
है। प्रत्येक
व्यक्ति
असामान्य
होने की दौड़
में लगा है।
ऐसा आदमी
खोजना अत्यंत
कठिन है जो
किसी न किसी
तरह से
असाधारण होने
की दौड़ में
नहीं लगा है।
इसलिए
असाधारण होने
की कामना बहुत
मामूली चित्त
का ढंग है।
झेन सदगुरु
कहते हैं कि
साधारण होना
संसार में
सबसे असाधारण
बात है। मात्र
साधारण होना,
सामान्य
होना, मामूली
होना—बड़ी
दुर्लभ बात है।
ऐसा कभी—कभी
ही घटता है कि
कोई व्यक्ति
साधारण, सिर्फ
साधारण होने
से पूरी तरह
संतुष्ट हो—पूरी
तरह तृप्त हो।
जापान
का एक सम्राट
किसी सदगुरु
की खोज में था।
वह अनेक
गुरुओं के पास
गया,
लेकिन कोई
गुरु उसे
संतुष्ट न कर
सका। क्योंकि
एक बूढ़े
व्यक्ति ने
उससे कहा था कि
सच्चा गुरु
बहुत सामान्य
होगा। वह ढूंढ़ता
रहां, लेकिन
उसे वह साधारण
व्यक्ति नहीं
मिला।
आखिर
वह फिर उसी
बूढ़े के पास
लौटा जो उस
क्षण अपनी
मृत्यु—शय्या
पर था। उसने
उस बूढ़े से
कहा : आपने
मुझे बहुत
परेशानी में
डाल दिया।
आपने सदगुरु
की जो परिभाषा
की कि वह सरल
होगा, साधारण
होगा, सामान्य
होगा, वह
परिभाषा मेरी
समस्या हो गई
है। मैं सारे
देश में खोज
चुका, लेकिन
कोई मुझे
संतुष्ट न कर
सका। कृपा
करके गुरु को
पाने का कुछ
उपाय मुझे बताएं।
उस
मरते हुए के
ने कहा : तुम
गलत जगहों में
उसे खोजते रहे।
तुमने बिलकुल
गलत जगहों में
उसकी खोज की।
तुम उन लोगों
के पास गए जो
किसी न किसी
रूप में असाधारण
हैं,
और वहां
तुमने साधारण
को खोजने की
कोशिश की। तुम
साधारण
दुनिया में
जाओ। और सचाई
यह है कि तुम
अभी भी
असाधारण को ही
खोज रहे हो।
तुम उसकी
परिभाषा तो
सामान्य की
करते हो, लेकिन
अभी भी
तुम्हारी खोज
असामान्य की
ही है।
परिभाषा भर
बदल गई है। अब
तुम उसे सबसे
अधिक सामान्य
कहते हो, लेकिन
चाहते हो कि
वह असामान्य
रूप से सामान्य
हो। तब तुम
फिर असामान्य
को ही खोज रहे
हो। वह न करो।
और जिस क्षण
तुम तैयार
होंगे, जिस
क्षण तुम खोज
का पुराना ढंग
छोड़ दोगे, सदगुरु
स्वयं
तुम्हारे पास
चला आएगा।
दूसरे
दिन सुबह
सम्राट अपने
महल में अकेला
बैठा था और के
व्यक्ति ने जो
कहा था उसे
समझने की चेष्टा
कर रहा था। और
उसे लगा कि का
सही था। और
खोज की कामना
खो गई। तभी एक
भिखारी प्रकट
हुआ,
और वह गुरु
था। और सम्राट
उस भिखारी को
हमेशा से
जानता था। वह
रोज आता था; वह भिखारी
रोज राजमहल
में आता था।
सम्राट ने
उससे पूछा, क्या कारण
है कि मैंने
आपको पहले
नहीं पहचाना?
भिखारी ने कहां,
क्योंकि
तुम असाधारण
की खोज कर रहे
थे। मैं तो
सदा से यहां
था, लेकिन
तुम कहीं और
ढूंढ रहे थे।
और तुम मुझे
निरंतर चूकते
रहे।
तंत्र
कहता है, विशेषकर
इस विधि में
कहता है 'वह
नहीं, यह।’
लेकिन ऐसी
भी विधियां
हैं जिनमें 'वह' की
चर्चा हुई है।
लेकिन 'यह'
सर्वाधिक
तंत्र सम्मत
है—यह; यहां
और अभी, जो
सबसे निकट है।
तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारा
पति, तुम्हारा
मित्र, मामूली
भिखारी—सदगुरु
हो सकता है।
लेकिन तुम 'यह' को
नहीं देख रहे
हो; तुम्हारी
नजर 'वह' पर लगी है—वही,
दूर कहीं
बादलों में।
तुम्हें यह
कल्पना भी
नहीं हो सकती
कि तुम्हारे
निकट ही ऐसी
गुणवत्ता
वाला व्यक्ति
मौजूद है। तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते,
क्योंकि
तुम सोचते हो कि
निकट को तो
मैं जानता ही
हूं। और
इसीलिए तुम
दूर की खोज
करते हो।
तुम्हें लगता
है कि 'यह' तो पता ही है;
इसलिए पाने
की चीज 'वह'
है।
यह
सच नहीं है।
तुम 'यह' को
नहीं जानते हो,
तुम्हें
निकट का पता
नहीं है। निकट
उतना ही
अज्ञात है
जितना दूर, बहुत दूर
अज्ञात है। अपने
चारों ओर
निगाह डालो;
तुम कुछ भी
नहीं जानते हो।
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है। क्या तुम
उस वृक्ष को
जानते हो
जिसके पास से
रोज गुजरते हो?
क्या तुम उस
मित्र को
जानते हो जो
तुमसे रोज मिलता
है? कुछ भी
तो पता नहीं
है।’यह' भी तो नहीं
मालूम है, फिर
'वह' के
पीछे क्यों
भागना?
यह
विधि कहती है
कि यदि 'यह' जान लिया
गया तो 'वह'
अपने आप ही
जान लिया जाएगा।
क्योंकि 'वह'
'यह' में
सम्मिलित है;
जो दूर है
वह निकट में
छिपा है।
लेकिन
मनुष्य का मन
दूर के पीछे दौड़ता है।
यह पलायन है।
दूर की सोचना
पलायन है; क्योंकि
तुम सदा—सदा सोचते
रह सकते हो। और
इस भांति तुम जीना
स्थगित रख सकते
हो, क्योंकि
जीवन 'यह' है। अगर तुम 'यह' पर
विमर्श करोगे,
मनन करोगे,
तो तुम्हें
अपने को बदलना
पड़ेगा।
मुझे
एक कहानी याद
आ रही है। एक
बार एक झेन
गुरु को किसी
मंदिर का
उपदेशक नियुक्त
किया गया। कोई
नहीं जानता था
कि वह झेन
गुरु है। सभा
बैठी और गुरु
ने पहला
प्रवचन दिया।
सभी लोग
प्रवचन सुनकर
झूम उठे, प्रवचन
बहुत सुंदर था।
किसी ने भी
ऐसा प्रवचन
पहले नहीं
सुना था।
दूसरे दिन बड़ी
भीड़ मंदिर में
जमा हुई।
लेकिन झेन
गुरु ने वही
प्रवचन दोहरा
दिया जो उसने
पहले दिन दिया
था। श्रोता ऊब
उठे।
उन्होंने कहा
यह कैसा
उपदेशक है!
तीसरे
दिन लोग आए, लेकिन
उनकी संख्या
ज्यादा नहीं
थी। झेन गुरु
ने फिर पुराने
प्रवचन को ही
दोहरा दिया।
बहुत से लोग
तो प्रवचन के
बीच में ही
उठकर चले गए।
और जो थोड़े से
लोग रह गए वे
यह पूछने के
लिए रुके रहे
कि क्या आपको
एक ही प्रवचन
देना आता है? क्या आप इसे
रोज—रोज
दोहराएंगे? आखिरकार एक
व्यक्ति ने
कहा. 'यह
किस ढंग का
उपदेश है? तीन
बार हम आपको
सुन चुके हैं;
आप वही की
वही बात, वही
के वही शब्द, अक्षरश: बिलकुल वही
प्रवचन दोहरा
देते हैं।
क्या आपके पास
कोई दूसरा
प्रवचन, कोई
दूसरा व्याख्यान
नहीं है?'
गुरु
ने कहा : 'मेरे
पास कई प्रवचन
हैं, लेकिन
तुम लोगों ने
पहले प्रवचन
के ही बाबत कुछ
नहीं किया है।
जब तक तुम
पहले प्रवचन
के संबंध में
कुछ नहीं करते
तब तक मैं
दूसरा प्रवचन
नहीं दूंगा।
उसकी कोई
जरूरत नहीं है।’
फिर
तो लोगों ने
उस मंदिर में आना
ही बंद कर
दिया। लोग उस
मंदिर के पास
जाने से बचने
लगे;
क्योंकि
जैसे ही कोई
आता था, झेन
पुरोहित अपना
पहला प्रवचन
प्रारंभ कर देता
था। कहते हैं
कि लोगों ने
उस मंदिर को
क्या, उस
मंदिर की राह
ही छोड़ दी। वे
कहने लगे कि
पुरोहित वहा
मौजूद है, अगर
तुम गए तो वह फिर
वही प्रवचन पिलाएगा।
वह
झेन गुरु मन
का बहुत बड़ा
पारखी रहा
होगा। मनुष्य
का मन विचार
तो करना चाहता
है,
लेकिन वह
करना कुछ भी
नहीं चाहता है।
करना खतरनाक
है, विचार
करना ठीक है, क्योंकि
विचार से तुम
वही के वही
बने रहते हो।
अगर तुम दूर
के संबंध में
विचार करते रहे
तो तुम्हें
अपने को बदलने
की जरूरत नहीं
पड़ेगी।
ब्रह्म और परमब्रह्म
तुम्हें नहीं
बदल सकते, लेकिन
पड़ोसी, मित्र,
पत्नी, पति—अगर
तुम उन्हें देखोगे तो
तुम्हें अपने
को बदलना
पड़ेगा।
उन्हें न
देखना एक
तरकीब है।
तुम
'वह' को
देखते हो ताकि
'यह' को
भूल जाओ। और 'यह' जीवन
है, 'वह' तो
केवल सपना है।
तुम परमात्मा
के संबंध में
विचार कर सकते
हो, क्योंकि
विचार करना
नपुंसक है, उससे कुछ
होने वाला
नहीं है। तुम
परमात्मा के
बारे में
विचार करते रह
सकते हो, और
तुम वही के
वही बने रहोगे
जो थे। लेकिन
अगर तुम अपनी
पत्नी का
विचार करोगे, अगर तुम
अपने बच्चे का
विचार करोगे,
अगर तुम
समीप में, निकट
में गहरे
उतरोगे तो तुम
वही के वही
नहीं रह सकते,
उससे कर्म
का उदय होगा
ही।
तंत्र
कहता है: बहुत
दूर मत जाओ।
वह यहीं है, वह
इसी क्षण में
है, तुम्हारे
निकट ही है। खुलो 'यह'
को देखो, 'वह' अपनी
फिक्र आप कर
लेगा।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि तंत्र
मनुष्य को
सिखाता है कि
वह अपने पाशविक
अतीत की कामना
और परमात्मा
की कामना,
दोनों का अतिक्रमण
करे। तो क्या इसका
यह अर्थ है कि
भगवत। या परमात्मा
भी संसार का ही
हिस्सा है और
हमें उसका भी
अतिक्रमण
करना है? फिर
वह क्या है जो
दोनों के यार
है?
इस
संबंध में
बहुत सी बातें
समझने जैसी
हैं। पहले तो
कामना की
प्रकृति को, उसके
स्वभाव को
समझना होगा।
भगवत्ता वह
नहीं है जिसे
तुम भगवत्ता
कहते हो। तुम
जिस परमात्मा
की बातें करते
हो वह सच में परमात्मा
नहीं है; वह
तो तुम्हारी
कामना का
परमात्मा है।
इसलिए प्रश्न
यह नहीं है कि
क्या
परमात्मा संसार
का हिस्सा है।
वह प्रश्न ही
नहीं है। असली
प्रश्न यह है
कि क्या तुम
परमात्मा को संसार
का हिस्सा
बनाए बिना
परमात्मा की
कामना कर सकते
हो?
इसे
इस तरह समझो।
बार—बार कहा
गया है कि जब
तक तुम कामना
नहीं छोड़ोगे, वासना
नहीं छोड़ोगे,
तब तक तुम
उसे, उस
परम को नहीं
पा सकते। तुम
भगवत्ता को
उपलब्ध नहीं
हो सकते, अगर
तुम कामना से
मुक्त नहीं
होते। कामना छोड़ो और
तुम परमात्मा
को उपलब्ध हो
जाओगे।
यह
बात तुमने
बहुत बार सुनी
है,
लेकिन मैं
नहीं समझता कि
तुमने इसे
समझा भी है।
अधिक संभावना
यही है कि तुम
इसे गलत ही
समझोगे। बार—बार
यह बात सुनकर
तुम परमात्मा
की कामना करने
लगते हो, और
वहीं तुम पूरी
बात चूक जाते
हो।
तुम्हें
बार—बार कहा
गया है कि अगर
तुम कामना छोड़
दोगे तो तुम्हें
परमात्मा
घटित होगा। यह
सुनकर तुम
परमात्मा की
कामना करने
लगते हो, और तब
तुम्हारा
परमात्मा
तुम्हारे
संसार का हिस्सा
हो जाता है।
कामना ही
संसार है।
मेरी परिभाषा
यही है : जिसकी
कामना की जा
सके, वह
संसार है।
इसलिए
परमात्मा की
कामना नहीं की
जा सकती, और
अगर तुम उसकी
कामना करते हो
तो वह भी संसार
का हिस्सा हो
गया।
जब
कामना विदा हो
जाती है, तब
परमात्मा
घटित होता है।
जब तुम कुछ भी
नहीं चाहते हो
तो परमात्मा तत्क्षण
उपलब्ध हो
जाता है—तब
सारा संसार ही
परमात्मा है।
तुम्हें
परमात्मा
कहीं संसार के
विरोध में नहीं
मिलेगा, वह
संसार के
विपरीत नहीं
है। जब तुम
कामना नहीं
करते तब सब
कुछ परमात्ममय
है। और जब तक
कामना है तब
तक सब कुछ
संसार है।
तुम्हारी
कामना ही
संसार का
निर्माण करती
है।
संसार
वह नहीं है जो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है।
ये वृक्ष, यह
आकाश, यह
पृथ्वी, यह
सागर, ये नदिया
और यह पृथ्वी
और ये चांद—तारे—यह
संसार नहीं है।
तुम जो कामना
करते हो वह
संसार है।
बगीचे
में एक फूल
खिला है। जब
तुम फूल के
पास से गुजरते
हो और फूल को
देखते हो, फूल
की सुगंध
तुम्हारे
नासापुटों को
छूती है, तब
अपने भीतर
देखो। अगर
तुम्हें फूल
की कामना नहीं
है, अगर तुम्हें
उस फूल पर मालकियत
करने कि जरा भी
कामना नहीं है,
तो वह फूल
परमात्मा हो
जाता है। तब
उस फूल में ही
तुम्हें
परमात्मा का
चेहरा दिख
जाएगा।
लेकिन
अगर उस फूल पर
मालकियत करने
की कामना है, या
तुम्हें
वृक्ष के
मालिक के
प्रति
ईर्ष्या का
भाव होता है, तो तुमने
संसार
निर्मित कर
लिया। तब
परमात्मा खो
गया। यह
तुम्हारी
कामना है, तुम्हारी
वासना है, जो
अस्तित्व का
गुणधर्म बदल
देती है।
तुम्हारी
कामना फूल को
संसार बना
देती है। और
जब तुम कामना—रहित
हो, निष्काम
हो, तब
सारा संसार
परमात्मा हो
जाता है।
अब
मैं इस प्रश्न
को फिर से
पढ़ता हूं : 'आपने
कहा कि तंत्र
मनुष्य को
सिखाता है कि
वह अपनी
पाशविक अतीत
की कामना और
परमात्मा की
कामना, दोनों
का अतिक्रमण
करे।’
तंत्र
कामना मात्र
का अतिक्रमण
सिखाता है।
तुम किस चीज
की कामना करते
हो,
वह गौण है; तुम कामना
करते हो, बुनियादी
बात यह है।
तुम कामना के
विषय बदलते रह
सकते हो। अभी
तुम धन चाहते
हो, सत्ता
चाहते हो, पद—प्रतिष्ठा
चाहते हो, ये
सांसारिक
कामनाएं हैं।
फिर तुम कामना
के विषय बदल
लेते हो। तुम
धन—पद से थक
जाते हो, ऊब
जाते हो। या
तुमने जो भी
चाहा था वह पा
लिया और तुम
तृप्त नहीं
हुए, तुम
निराशा अनुभव
करते हो। फिर
तुम एक नई कामना
शुरू करते हो—तुम
परमात्मा की
कामना करते हो,
तुम मोक्ष
और निर्वाण की
कामना करते हो,
तुम ईश्वर
को पाना चाहते
हो। क्या हुआ?
कामना
का विषय बदल
गया,
तुम नहीं
बदले।
तुम्हारी
कामना वही की
वही बनी है।
पहले वह पद—प्रतिष्ठा
और धन के पीछे
दौड़ती थी; अब
वह परमात्मा
के पीछे दौड
रही है। अब वह
परम तत्व के
पीछे, परम
मोक्ष के पीछे
भाग रही है।
लेकिन कामना
अपनी जगह है।
सामान्यत:
धार्मिक लोग
अपनी कामना के
विषय बदलते
रहते हैं।
लेकिन कामना
अपनी जगह कायम
रहती है, वह
नहीं बदलती।
और कामना के
विषय समस्या
नहीं निर्मित
करते हैं, कामना
ही समस्या
निर्मित करती
है।
तंत्र
कहता है कि
कामना के विषय
बदलने से कुछ नहीं
होगा; वह केवल
समय, शक्ति
और जीवन का
अपव्यय है।
विषय नहीं, कामना छोड़ो।
कोई कामना मत
करो, मोक्ष
की भी कामना
मत करो, क्योंकि
कामना ही बंधन
है। परमात्मा
की कामना भी
मत करो, क्योंकि
कामना ही
संसार है।
अंतस की कामना
भी मत करो, क्योंकि
सब कामना
बाह्य है।
प्रश्न यह
नहीं है कि इस
कामना का
अतिक्रमण किया
जाए या उस
कामना का
अतिक्रमण
किया जाए; कामना
मात्र को गिरा
दो। कोई कामना
मत करो। तुम
बस स्वयं होओ।
तुम वही हो
रहो जो तुम हो,
बस।
जब
तुम कोई कामना
नहीं करते हो
तो क्या होता
है?
जब तुम
वासना छोड़
देते हो तो
क्या होता है?
तब तुम
भागते नहीं, तब सब दौड़
बंद हो जाती
है। तब तुम
कहीं पहुंचने
की जल्दी में
नहीं होते, तब तुम
गंभीर नहीं
होते। तब न
कोई आशा होती
है और न कोई
निराशा। तब
तुम्हें कोई
अपेक्षा नहीं
होती; तब
तुम्हें कुछ
भी निराश नहीं
कर सकता। अब
कोई कामना न
रही, फिर
तुम असफल कैसे
होगे? हां,
तब कोई
सफलता भी नहीं
होगी। सफलता—असफलता
दोनों गईं।
और
फिर क्या होता
है जब तुम्हें
कोई कामना नहीं
रहती? तुम
एकाकी हो जाते
हो; क्योंकि
कहीं भी नहीं
जाना। कोई
लक्ष्य नहीं,
कोई मंजिल
नहीं, क्योंकि
कामना ही
मंजिल
निर्मित करती
है। अब कोई
भविष्य भी
नहीं है; क्योंकि
वासना भविष्य
का निर्माण
करती है। अब
समय भी नहीं
है; क्योंकि
वासना ही गति
करने के लिए
समय लेती है।
समय ठहर जाता
है। भविष्य
गिर जाता है।
और जब कोई
कामना न रही
तो मन गिर
जाता है, मन
विदा हो जाता
है। क्योंकि
मन कामनाओं का
जोड मात्र है।
और कामना के
लिए ही तुम
योजना बनाते
हो, सोच—विचार
करते हो, सपने
संजोते हो, सब आयोजन
करते हो।
जब
कामना नहीं
रही तो सब कुछ
गिर जाता है।
तुम अपनी
शुद्धता में होते
हो। तुम किसी
दौड़— धूप के
बिना जीते हो।
तुम्हारे
भीतर की लहरें
शात हो गईं।
सागर तो है, लेकिन
लहरें समाप्त
हो गईं। और
तंत्र के लिए
यही भगवत्ता
है।
इसे
इस भांति देखो
: कामना ही
बाधा है। विषय
की चिंता मत
करो,
अन्यथा तुम
आत्म—वंचना
में पड़ोगे, तुम अपने को
ही धोखा दोगे।
तुम विषय
बदलते रहोगे
और नाहक समय गवाओगे।
तुम बार—बार
असफल और निराश
होगे। तुम बार—बार
विषय बदलोगे।
इस तरह तुम
अनंतकाल तक
कामना के विषय
बदलते रहोगे,
जब तक
तुम्हें यह
बोध नहीं होगा
कि विषय नहीं,
कामना
समस्या पैदा
करती है।
लेकिन कामना
सूक्ष्म है और
विषय स्थूल
हैं। विषय को
देखा जा सकता
है; लेकिन
कामना तो तभी
दिखाई पड़ेगी
जब तुम गहरे उतरोगे
और उस पर
ध्यान दोगे।
अन्यथा कामना
नहीं देखी जा
सकती है।
तुम
किसी स्त्री
से या किसी
पुरुष से बहुत—बहुत
आशा लगाकर, बड़े
सपने संजोकर
विवाह कर सकते
हो। और जितनी
बड़ी आशा होगी,
जितना बड़ा
सपना होगा, उतनी ही बड़ी
निष्फलता हाथ
लगेगी, उतनी
ही बड़ी निराशा
होगी। आयोजित
विवाह उतना
असफल नहीं
होता जितना
असफल प्रेम—विवाह
होता है। ऐसा
होना
अनिवार्य है।
क्योंकि
आयोजित विवाह
में बहुत आशा
बांधने, बहुत
सपने संजोने
की गुंजाइश
नहीं है। वह
विवाह
दुकानदारी
जैसा है; उसमें
कोई रोमांस
नहीं है, प्रेम
नहीं है, कविता
नहीं है। उस
विवाह में
शिखर नहीं है;
वहां तुम
समतल भूमि पर
चलते हो।
यही
कारण है कि
पुराने ढंग का
विवाह कभी
नहीं टूटता; उसमें
टूटने की कोई
बात ही नहीं
है। पुराना
विवाह कैसे
टूट सकता है? उसमें कोई
शिखर नहीं है;
फिर उसमें
गिरने का सवाल
ही न रहा।
प्रेम—विवाह
असफल होता है,
प्रेम—विवाह
ही असफल हो
सकता है।
क्योंकि
प्रेम—विवाह
बड़ी कविता, बड़े सपने, बड़ी उमंगों
के साथ आता है।
वहां बडी ऊंचाइयां
हैं; तुम
आकाश में उड़ने
लगते हो। तब
जमीन पर गिरना
अनिवार्य हो
जाता है।
इसलिए
पुराने देश, जिन्हें
अनुभव है, जिन्हें
पता है, उन्होंने
आयोजित विवाह
का चुनाव किया।
वे प्रेम—विवाह
की बात नहीं
करते हैं।
भारत में
प्रेम—विवाह
की बात नहीं
होती है। भारत
ने भी अतीत
में प्रेम—विवाह
का प्रयोग
किया और पाया
कि प्रेम—विवाह
असफल होने ही
वाला है।
क्योंकि
तुम्हारी
अपेक्षाएं
बहुत हैं, इसलिए
असफलता हाथ
लगेगी ही।
अपेक्षा और
असफलता का
अनुपात समान
है। कामना
अपेक्षा लाती
है जो पूरी
नहीं हो सकती।
तुम
एक स्त्री से
विवाह करते हो।
अगर यह प्रेम—विवाह
है तो
तुम्हारी अपेक्षा
बहुत होगी। फिर
तुम उस विवाह
से निराश होते
हो। और तुम
जिस क्षण
निराश होते हो, उसी
क्षण
तुम
दूसरी स्त्री
का विचार करने
लगते हो। तो
अगर तुम अपनी
पत्नी से कहते
हो कि मैं
किसी दूसरी स्त्री
में उत्सुक नहीं
हूं और तुम्हारी
पत्नी को लगता
है कि तुम उसके
प्रति उदासीन हो, तो
वह तुम्हारी
बातों पर
विश्वास नहीं
करेगी। तुम
अपनी पत्नी को
भरोसा नहीं
दिला सकते; यह असंभव है,
यह
अस्वाभाविक
है। जैसे ही
तुम अपनी
पत्नी से
उदासीन होते
हो, तुम्हारी
पत्नी सहज जान
जाती है कि
तुम किसी दूसरी
स्त्री में रस
लेने लगे हो।
मन
के काम करने
का यही ढंग है।
जब तुम उस
स्त्री से भलीभांति
परिचित हो
जाते हो जिससे
तुमने विवाह किया, जब
तुम्हें उससे
सुख के बजाय
दुख मिलने
लगता है, तो
तुम सोचते हो
कि मेरा चुनाव
गलत था; यह
स्त्री मेरे
योग्य नहीं थी।
यही सामान्य
तर्क है—'यह
स्त्री मेरे
लिए नहीं थी, मैंने गलत
स्त्री चुन ली;
और संघर्ष
का कारण गलत
चुनाव है।’ अब तुम
दूसरी स्त्री
खोजने की
कोशिश करोगे।
इस
भाति तुम अनंत
काल तक कर
सकते हो। तुम
संसार की सभी
स्त्रियों से
भी विवाह कर लो
तो भी
तुम्हारे
सोचने का ढंग
यही रहेगा।
तुम सदा
सोचोगे कि यह
स्त्री मेरे
योग्य नहीं थी, मैंने
गलत चुनाव
किया।
तुम्हारी दृष्टि
उस सूक्ष्म
कामना पर नहीं
जाती, जो
सारे उपद्रव
की जड़ में है।
यह सूक्ष्म है।
स्त्री दिखाई
देती है; कामना
नहीं दिखाई
देती।
लेकिन
सचाई यह है कि
कोई स्त्री या
पुरुष दुख नहीं
दे रहा है, यह
तुम्हारी
कामना है जो
दुख दे रही है।
अगर तुम्हें
यह बोध हो जाए
तो तुम
बुद्धिमान हो।
और अगर तुम
विषय ही बदलते
रहे तो तुम मूढ़
हो। अगर तुम
अपने को और
अपनी कामना को
देख सके, देख
सके कि सारा
उपद्रव कामना
ही लाती है, तो तुम
विवेकशील हुए।
तब
तुम कामना के
विषयों को
बदलने में
नहीं लगते हो, तब
तुम कामना को
ही छोड़ देते
हो। और जिस
क्षण कामना गई
उसी क्षण सारा
संसार
परमात्मा हो जाता
है। यह सदा से
ऐसा ही है, लेकिन
तुम्हारे पास
उसे देखने की आंखें
नहीं थीं।
तुम्हारी आंखें
तो वासना से
भरी थीं। और
वासना से भरी आंखों
को परमात्मा
संसार जैसा
मालूम पड़ता है।
वासना से
रिक्त, स्वच्छ
आंखों के लिए
संसार ही
परमात्मा हो
जाता है।
संसार
और परमात्मा
दो चीजें नहीं
हैं। वे एक ही
चीज को देखने
के दो ढंग हैं, दो
दृष्टियां
हैं, दो
दृष्टिकोण
हैं। एक
दृष्टि वासना
से घिरी होती
है; दूसरी
दृष्टि वासना
से रिक्त और
स्वच्छ होती है।
अगर तुम
निर्मल आंखों
से देख सको, अगर तुम्हारी
आंखें निराशा
के आंसुओ
और आशा के
सपनों से न
भरी हों, तो
संसार जैसी
कोई चीज नहीं
है, तब
केवल
परमात्मा है।
तब सारा
अस्तित्व परमात्ममय
है, भागवत
है।
तंत्र
का यही अर्थ
है। तंत्र जब
कहता है कि
दोनों का
अतिक्रमण करो
तो तंत्र
दोनों से अपने
को अलग कर
लेता है।
तंत्र का किसी
से कोई लेना—देना
नहीं है, तंत्र
का संबंध
दोनों के
अतिक्रमण से
है, ताकि
कोई भी वासना
न रहे। न
संसार की
वासना, न
परमात्मा की।
'फिर वह क्या
है जो दोनों
के पार है?'
उसे
कहा नहीं जा
सकता; उसके
कहने का कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि जैसे
ही उसके बारे
में कुछ कहा
जाता है, वह
दोनों के घेरे
में आ जाता है।
परमात्मा के
संबंध में जो
भी कहा जाए वह
झूठा हो जाएगा—कहने
के कारण ही
झूठा हो जाएगा।
भाषा
द्वैतवादी है।
अद्वैत की कोई
भाषा नहीं है, हो
नहीं सकती।
द्वैत के लिए
ही भाषा
का
कोई अर्थ है।
मैं कहूं
प्रकाश, और
तुरंत
तुम्हारे मन
में अंधेरा या
काला शब्द आ
जाएगा। मैं
कहूं दिन, और
तत्क्षण
तुम्हारे मन
में रात आ
जाएगी। मैं
कहूं प्रेम, और उसके
पीछे ही घृणा खडी है।
अगर मैं
प्रकाश कहूं
और अंधेरा न
हो, तो तुम
प्रकाश की
परिभाषा कैसे
करोगे?
हम
शब्दों की परिभाषा
उनके विपरीत
से ही कर सकते
हैं। यदि तुम
पूछो कि
प्रकाश क्या
है,
तो मैं
कहूंगा जो
अंधेरा नहीं
है। यदि कोई
तुमसे पूछे कि
मन क्या है, तो तुम
कहोगे जो शरीर
नहीं है। सभी
शब्द
वर्तुलाकार
हैं, गोल—मोल
हैं; इसलिए
बुनियादी तौर
से उनका कोई
अर्थ नहीं है।
तुम न कुछ
शरीर के संबंध
में जानते हो
और न मन के संबंध
में। जब मैं
मन के बाबत
पूछता हूं तो
तुम उसकी परिभाषा
शरीर से करते
हो, और
शरीर
अपरिभाषित है।
जब मैं शरीर
के बाबत पूछता
हूं तुम उसकी
परिभाषा मन से
करते हो, जो
कि स्वयं ही
अपरिभाषित है।
एक
खेल की भांति
यह ठीक है।
भाषा एक खेल
की भांति ठीक
है। लेकिन हम
कभी नहीं
सोचते कि पूरी
बात बेतुकी है, गोल—मोल
है, कुछ भी
तो परिभाषित
नहीं है। तो
तुम किसी भी
चीज की
परिभाषा कैसे
करोगे? जब
मैं मन के
संबंध में
पूछता हूं तो
तुम शरीर को
ले आते हो, और
शरीर स्वयं
अपरिभाषित है।
तुम मन की
परिभाषा एक
अपरिभाषित
चीज से कर रहे
हो। और यदि
मैं पूछूं
कि शरीर से
तुम्हारा
क्या मतलब है,
तो तुम
तुरंत मन को
ले आओगे। यह
व्यर्थ है।
लेकिन कोई
दूसरा उपाय भी
तो नहीं है।
भाषा
विपरीत
शब्दों से बनी
है,
भाषा द्वैत
से बनी है, वह
अन्यथा नहीं
हो सकती।
इसलिए अद्वैत
के अनुभव को
भाषा में नहीं
कहा जा सकता
है। जो भी कहा
जाएगा वह गलत
होगा। उसकी
तरफ इशारे किए
जा सकते हैं; उसके लिए
प्रतीक उपयोग
में लाए जा
सकते हैं।
लेकिन मौन
सर्वश्रेष्ठ
है; उसे
मौन के द्वारा
कहना ही ठीक—ठीक
कहना है।
जगत
में सब कुछ की
परिभाषा हो
सकती है, सब
कुछ शब्दों
में कहा जा
सकता है; लेकिन
परम को कहने
का कोई उपाय
नहीं है। तुम
उसे जान सकते
हो, उसका
स्वाद ले सकते
हो, वह हो
सकते हो, लेकिन
उसके बारे में
कुछ कहना
असंभव है।
सिर्फ निषेध
की भाषा में, नेति—नेति
की भाषा में
कुछ कहा जा
सकता है। हम
यह नहीं कह
सकते कि वह
क्या है; हम
इतना ही कह
सकते हैं कि
वह क्या नहीं
है। यह भी
नहीं, यह
भी नहीं—नेति—नेति।
समस्त
रहस्यवादी
नेति—नेति की
भाषा ही बोलते
हैं। अगर तुम
पूछोगे कि
परमात्मा
क्या है, तो वे
कहेंगे :
परमात्मा न यह
है न वह। वह न
जीवन है और न
मृत्यु। वह न
प्रकाश है और
न अंधकार। वह
न निकट है और न
दूर। वह न मैं
है और न तू। वे
इसी ढंग में
बोलते हैं।
लेकिन उससे
बात और बेबूझ
हो जाती है।
वासना
छोड़ो, कामना
गिरा दो और
तुम उसे आमने —सामने
जान लोगे।
लेकिन यह
अनुभव इतना
वैयक्तिक है,
इतना गहरा
है, इतना
शब्दों और
भाषा के पार
है, कि जब
तुम उसे जान
भी लोगे तब भी
उसके संबंध
में कुछ कह
नहीं पाओगे।
तुम बिलकुल
चुप हो जाओगे,
मौन हो
जाओगे। या
ज्यादा से
ज्यादा वही
कहोगे जो मैं
अभी कह रहा
हूं; तुम
कहोगे कि उसके
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा जा
सकता।
लेकिन
फिर इतनी
चर्चा का मतलब
क्या है? यदि
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता
है तो मैं
क्यों रोज—रोज
तुमसे इतनी
बातें करता
हूं?
इसीलिए
कि मैं
तुम्हें उस
बिंदु पर
पहुंचा दूं जहां
कुछ कहना
असंभव हो जाता
है। इसीलिए कि
मैं तुम्हें उस
अतल शून्य में
उतार दूं जहां
तुम भाषा के
बाहर छलांग ले
लो। उस बिंदु
तक भाषा
सहयोगी हो
सकती है—उस
अतल शून्य के
किनारे तक
पहुंचने में, जहां, तुम्हारी
निशब्द में, भाषा के पार,
छलांग
लगेगी, भाषा
उपयोगी हो
सकती है।
लेकिन ज्यों
ही छलांग
लगेगी, मौन
का लोक शुरू
हो जाएगा, जो
भाषा के पार
है।
इसलिए
मैं भाषा के
द्वारा
तुम्हें वहा
पहुंचा सकता हूं
जहां, संसार
का अंत आ जाता
है—संसार का
आखिरी छोर।
लेकिन भाषा
उसके आगे एक
कदम भी नहीं
रख सकती है, परमात्मा के
जगत में भाषा
की कोई गति
नहीं है, भाषा
के सहारे वहां
एक इंच भी
नहीं बढ़ा जा
सकता है।
लेकिन भाषा के
सहारे आखिरी
छोर तक ले
जाया जा सकता
है; तब तुम
अपनी आंखों से
देखोगे
कि सामने आनंद
का असीम—अथाह
सागर लहरा रहा
है।
और
वह सागर
तुम्हें खुद
बुलाएगा; वह
परम तुम्हें
चुंबक की तरह
अपनी तरफ खींच
लेगा।
तुम्हारे लिए
वहा से पीछे
लौटना असंभव
हो जाएगा। वह
अथाह सागर, मौन का अथाह
सागर इतना
आकर्षक है, इतना मादक
है, इतना
चुंबकीय है कि
इसके पहले कि
तुम्हें पता
लगे तुम्हारी छलांग
लग जाएगी।
यही
कारण है कि
मैं बोले चला
जाता हूं
यद्यपि मैं
जानता हूं कि
मैं जो कह रहा
हूं उससे तुम
उसे नहीं जान
पाओगे जो
आत्यंतिक है, सबके
पार है, पार
के भी पार है।
लेकिन इससे
निश्चय ही
तुम्हें छलांग
लेने में
सुविधा होगी,
सहायता
मिलेगी। यह एक
उपाय है, एक
विधि है।
यह
विरोधाभासी
मालूम पड़ेगा
कि मैं जो
इतने शब्दों
का उपयोग कर
रहा हूं या
अतीत में
रहस्यवादियों
ने जो शब्दों
का उपयोग किया, वह
सिर्फ इसलिए
कि तुम्हें
मौन के मंदिर
तक पहुंचा
दिया जाए, कि
तुम्हें मौन
में उतार दिया
जाए। लेकिन
भाषा का उपयोग
क्यों? मौन
के लिए शब्द
का उपयोग
क्यों?
मैं
मौन का उपयोग
भी कर सकता
हूं लेकिन तब
तुम नहीं
समझोगे, तुम
अभी मौन नहीं
समझ सकते। जब
मुझे किसी
पागल आदमी से
बात करनी होती
है तो मैं
पागल आदमी की
भाषा का उपयोग
करता हूं। मैं
तुम्हारे
कारण और
तुम्हारे लिए
भाषा का उपयोग
करता हूं। ऐसा
नहीं कि भाषा
के माध्यम से
कुछ कहा जा
सकता है।
लेकिन भाषा के
माध्यम से जो
तुम्हारे
भीतर निरंतर
की बकबक चल
रही है उसे
जरूर मिटाया
जा सकता है।
यह
ऐसा ही है
जैसे कि
तुम्हारे
पांव में काटा
गड़ा है और
उसे निकालने
के लिए हम
दूसरे कांटे
का उपयोग कर
लेते हैं।
दूसरा भी काटा
ही है।
तुम्हारा मन
शब्दों से, शब्दों
के काटो से
भरा है; मैं
उन्हें
निकालने की, तुम्हारे मन
को खाली करने
की चेष्टा में
लगा हूं। और
उसके लिए मैं
शब्दों के ही
कीटों का
उपयोग कर रहा
हूं। तुम्हारा
चित्त विष से
भरा है; उस
विष को
निकालने के
लिए मुझे विष
का ही उपयोग
करना पड़ता है।
यह एंटीडोट
है; यह भी
विष ही है।
लेकिन एक
कांटे से
दूसरे कांटे
को निकाला जा सकता
है। और जब
काटा निकल
जाता है तो हम
दोनों ही
कीटों को एक
साथ फेंक देते
हैं।
जब
मैं शब्दों के
माध्यम से
तुम्हें उस
बिंदु पर ले
आऊं जहां तुम
मौन होने को
तैयार हो तो
तुम मेरे
शब्दों को भी
फेंक देना।
उन्हें जरा भी
आगे मत ढोना, वे
व्यर्थ हैं।
फिर उन्हें
ढोना खतरनाक
भी है। जब तुम
जान गए कि
भाषा व्यर्थ
है, खतरनाक
है, जब तुम
जान गए कि यह जो
आंतरिक बकबक
है वही बाधा
है और तुम मौन
होने को तैयार
हो, तब
मेरे शब्दों
को भी फेंक
देना। यह याद
रखना।
ध्यान
रहे,
सत्य कहा
नहीं जा सकता
और जो कहा जा
सके वह सत्य
नहीं है।
इसलिए अपने
शब्दों से ही
नहीं, मेरे
शब्दों से भी
खाली हो जाना,
मुक्त हो
जाना।
जरथुस्त्र
ने अपने
शिष्यों से जो
अंतिम बात कही
वह बहुत सुंदर
है। उसने जीवन
भर उन्हें
समझाया था।
उसने उन्हें
सत्य की झलकें
दी थीं। उसने
उनके प्राणों
को आलोकित
किया था। उसने
उन्हें परम
अभियान के लिए
चुनौती दी थी, तैयार
किया था।
लेकिन विदा के
क्षण में जो
शब्द उसने
उनसे कहे वे
अत्यंत कीमती
हैं। उसने कहा
: 'अब मैं
तुमसे विदा हो
रहा हूं। अब
जरथुस्त्र से
सावधान रहना।’
शिष्यों ने
कहा 'आप यह
क्या कह रहे
हैं? जरथुस्त्र
से सावधान! आप
हमारे गुरु
हैं, शिक्षक
हैं, हमारी
एकमात्र आशा
हैं।’ और
जरथुस्त्र ने
कहा 'अब तक
जो कुछ मैंने
तुमसे कहां, उससे सावधान
रहना। मुझे मत
पकड़ लेना, अन्यथा
मैं तुम्हारा
बंधन बन जाऊंगा।’
जब
एक काटा
तुम्हारे
भीतर के काटे
को निकाल दे
तो दोनों को
एक साथ फेंक
देना। ऐसा
नहीं कि
निकालने वाले
काटे को यह कह
कर वापस रख
लेना कि उसने
तुम पर कितना
उपकार किया है।
वह भी कांटा
ही है, यह मत
भूलना। तो जब
मैं तुम्हें
मौन के लिए
तैयार कर दूं
तो मुझसे भी
सावधान हो
जाना। तब उन
सब शब्दों को
भी कचरे में
फेंक देना जो
मैंने तुमसे
कहे हैं। फिर
उनकी कोई
उपयोगिता
नहीं है। उनकी
उपयोगिता उसी
घड़ी तक है जब
तक तुम मौन में
छलांग के लिए
तैयार नहीं
हुए हो। इधर
तुम तैयार हुए
उधर वे व्यर्थ
हुए।
और
उसके संबंध
में कुछ नहीं
कहा जा सकता
है जो दोनों
के पार है। जो
पार है, परम
है, उसके
संबंध में
इतना ही कहा
जा सकता है कि
कुछ नहीं कहा
जा सकता, और
इतना कहना भी
बहुत कहना है।
अगर तुम इतना
समझ सको तो यह
भी पर्याप्त
इंगित है।
मैं
यह कह रहा हूं
कि अगर
तुम्हारा मन
शब्दों से
पूरी तरह खाली
हो जाए तुम
उसे जान लोगे।
जब तुम
विचारों से
दबे नहीं हो, जब
तुम
निर्विचार हो,
तुम उसे जान
लोगे।
क्योंकि वह तो
मौजूद ही है।
वह कोई ऐसी
चीज नहीं है
जो कभी
तुम्हें उपलब्ध
होगी; वह
तुम्हारे
भीतर मौजूद ही
है। तुम उसकी
ही
अभिव्यक्ति
हो, उसका
ही प्रकट रूप
हो। लेकिन तुम
विचारों से, विचार के
बादलों से
इतने घिरे हो
कि तुम उसे चूक
रहे हो। तुम
बादलों पर अटक
गए हो और आकाश
को भूल गए हो।
बादलों
को छंट जाने
दो,
और आकाश
तुम्हारी सदा
से प्रतीक्षा
कर रहा है। वह
जो सबके पार
है, वह जो
आत्यंतिक है,
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है। द्वैत
को विदा हो
जाने दो और
परम उदघाटित
हो जाता है।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि जो व्यक्ति
भयभीत है वह
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता
और न यह
परमात्मा को
उपलब्ध हो सकता
है। कृपया बताएं
कि तंत्र के
अनुसार भय से
कैसे मुक्त
हुआ जाए।
तुम
क्यों भय से
मुक्त होना
चाहते हो? या
तुम भय से
भयभीत हो गए
हो? अगर
तुम भय से भयभीत
हो गए हो तो यह
एक नया भय है।
मन इसी भांति एक
ही वर्तुल से घूमता
रहता है।
जब
मैं कहता हूं
कि कामना छोड़ो
और तुम
परमात्मा को
पा लोगे, तो
तुम पूछते हो,
क्या सच ही
यदि हम कामना
छोड़ दें तो
परमात्मा को
पा लेंगे? अब
तुमने
परमात्मा की
कामना शुरू कर
दी। जब मैं
कहता हूं कि
तुम अगर भयभीत
हो तो प्रेम नहीं
कर सकते, तो
तुम भय से
भयभीत हो जाते
हो। तुम पूछते
हो, भय से
कैसे मुक्त
हुआ जाए? अब
यह भी भय ही है—एक
नया भय। और यह
पहले भय से
ज्यादा
खतरनाक भय है,
क्योंकि
पुराना भय तो
स्वाभाविक था,
यह नया भय
अस्वाभाविक
है। और यह नया
भय इतना
सूक्ष्म है कि
तुम्हें पता नहीं
है कि तुम
क्या पूछ रहे
हो।
किसी
चीज से मुक्त
होने की बात
नहीं है, बात
सिर्फ समझने की
है, बोध की
है। भय को
समझो कि वह
क्या है, उससे
मुक्त होने की
चेष्टा मत करो।
क्योंकि जैसे
ही तुम किसी
चीज से
छुटकारा पाने
की चेष्टा में
लगे कि तुमने
उसे समझना छोड़
दिया।
जो
मन छुटकारे की
भाषा में
सोचता है वह
समझने का
द्वार बंद कर
देता है। वह
मन बंद है। वह मन
समझने के लिए
राजी नहीं है, खुला
नहीं है। वह
मन
सहानुभूतिपूर्ण
नहीं है। वह
मन शांति के
साथ देखने में
समर्थ नहीं है।
उसने तो पहले
ही निर्णय ले
किया कि भय
बुरा है और
उससे छुटकारा
पाना है।
किसी
भी चीज से
छुटकारा पाने
की चेष्टा मत
करो। समझने की
चेष्टा करो कि
भय क्या है।
यदि तुम्हें
भय है तो पहले
भय को स्वीकार
करो। वह है, उसे
छिपाने की
चेष्टा मत करो।
वह है, उसके
विपरीत को
निर्मित करके
उसे दबाने की
कोशिश मत करो।
अगर तुम भयभीत
हो तो तुम
भयभीत हो, उसे
अपने
अस्तित्व के
एक अंग की
भांति स्वीकार
करो। और अगर
तुमने उसे स्वीकार
कर लिया तो वह
विदा हो जाएगा।
स्वीकार से भय
विदा हो जाता
है, इनकार
से बढ़ता है।
तुम
पाते हो कि
तुम भयभीत हो
और इस भय के
कारण तुम
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकते, तो
तुम क्या कर
सकते हो? तो
ठीक है, भय
है; अब एक
ही बात हो
सकती है कि
मैं प्रेम का
नाटक नहीं
करूंगा। या
मैं अपनी
प्रेमिका से
कह दूंगा कि
मैं भयभीत हूं
और भय के कारण
मैं तुमसे
चिपका हुआ हूं।
भीतर मैं
भयभीत हूं।
मैं अपनी
स्थिति के
संबंध में
स्पष्ट हो जाऊंमा,
सरल हो जाऊंगा।
मैं किसी और
को या स्वयं
को इस संबंध
में धोखे में
नहीं रखूंगा।
मैं यह नहीं
कहूंगा कि यह
प्रेम है, मैं
कहूंगा कि यह
केवल मेरा भय
है। प्रेम
नहीं, भय
के कारण मैं
किसी से चिपका
रहना चाहता
हूं। भय के
कारण ही मैं
मंदिर जाता
हूं और
प्रार्थना
करता हूं। भय
के कारण ही
मैं परमात्मा
को स्मरण करता
हूं। मैं अब
जानता हूं कि
यह प्रार्थना
नहीं है, यह
प्रेम नहीं है,
यह केवल
मेरा भय है।
मैं भय हूं।
इसलिए मैं जो
कुछ करता हूं
भय के कारण
करता हूं। मैं
इस सत्य को
स्वीकार
करूंगा। और जब
तुम सत्य को
स्वीकार करते
हो तो चमत्कार
घटता है। यह
स्वीकार ही
तुम्हें बदल
देता है।
जब
तुम जानते हो
कि तुम भयभीत
हो तो तुम
क्या कर सकते
हो?
तुम यही कर
सकते हो कि
तुम अभिनय करो
कि तुम भयभीत
नहीं हो। और
यह अभिनय
दूसरी अति को छू
सकता है। एक
बहुत भयभीत
आदमी बहुत
बहादुर आदमी
बन जा सकता है।
वह अपने चारों
ओर बहादुरी का
कवच निर्मित
कर लेगा और
खतरों से खेलेगा—सिर्फ
दिखाने के लिए
कि वह डरपोक
नहीं है। वह
अपने भय को
छिपाने के लिए
खतरों में
उतरेगा और
स्वयं को भी
धोखा देगा कि
वह किसी से भी
नहीं डरता है।
लेकिन
बहादुर से
बहादुर आदमी
भी डरा हुआ है।
उनकी बहादुरी
ऊपर—ऊपर है, भीतर
वे भय से कांप
रहे हैं। इस
कठोर तथ्य से
आख चुराने के
लिए वे खतरों
में भी उतर
जाते हैं। वे
जोखिम के काम
भी करते हैं, ताकि उन्हें
अपने भय का
बोध न हो।
लेकिन भय तो
है ही।
तुम
भय के विपरीत
बहादुरी
निर्मित कर ले
सकते हो, लेकिन
उससे कुछ
बदलने वाला
नहीं है। तुम
बहादुरी का
अभिनय कर सकते
हो, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा।
एकमात्र
रूपांतरण यही
हो सकता है कि
तुम सिर्फ
स्वीकार कर लो,
तुम इस बोध
से भर जाओ कि
मैं भयभीत हूं
कि मैं भय ही
हूं कि मेरे
पूरे प्राण
कांप रहे हैं
और मैं जो भी
करता हूं सब
भय के कारण
करता हूं। तब
तुम अपने
प्रति सच्चे
हो गए, ईमानदार
हो गए।
और
तब तुम भय से
भयभीत नहीं हो, तब
भय तुम्हारे
होने का
हिस्सा है
जिसके संबंध
में कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। तुमने
भय को स्वीकार
कर लिया है।
अब तुम निर्भय
होने का अभिनय
नहीं करते हो।
अब तुम न
दूसरों को और
न स्वयं को ही
धोखे में रखना
चाहते हो। अब
भय तुम्हारा
सत्य है और
तुम उससे
भयभीत नहीं हो।
अब तुम भयभीत
होने से नहीं
डरते हो।
इस
स्वीकार के
साथ ही भय
विलीन होने
लगता है, क्योंकि
जो व्यक्ति
अपने भय को
स्वीकार करने से
नहीं डरता है
वह अभय को
उपलब्ध होने
लगता है। बड़े
से बड़ा जो अभय
संभव है वह
यही है। अब वह
विपरीत का निर्माण
नहीं करता है
इसलिए उसमें
द्वैत नहीं रहां, द्वंद्व
नहीं रहा।
उसने तथ्य को
स्वीकार कर
लिया है, वह
सत्य के सामने
सरल हो गया है,
विनम्र हो
गया है। और
उसने यह भी
भलीभांति जान
लिया है कि
इसके बारे में
कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
कोई नहीं
जानता है कि
स्वीकार करने
के अलावा और
कुछ किया जा
सकता है। और
उसने निर्भय
होने का अभिनय
छोड़ दिया है; उसने
निर्भयता के
मुखौटे उतारकर
रख दिए हैं।
वह अपने भय के
साथ
प्रामाणिक हो
गया है।
यह
प्रामाणिकता
तुम्हें बदल
देगी। सत्य को
स्वीकार करने
का साहस
तुम्हें बदल
देगा। भय का
स्वीकार अभय
की बुनियाद है।
और जब तुम
प्रेम का नाटक
नहीं करते, जब
तुम झूठे
प्रेम का
दिखावा नहीं
करते, जब
तुम अपने
चारों ओर एक
धोखा नहीं खड़ा
करते, जब
तुम पाखंड
नहीं करते, तब तुम
प्रामाणिक हो
गए। इस
प्रामाणिकता
में प्रेम का
जन्म होता है;
इस
प्रामाणिकता
में भय विदा
हो जाता है और
प्रेम का उदय
होता है।
प्रेम के जन्म
की आंतरिक
कीमिया है यह।
अब
तुम
प्रेमपूर्ण
हो,
अब तुम
प्रेम कर सकते
हो। अब तुम
करुणा कर सकते
हो। अब तुम
किसी पर
निर्भर नहीं
हो; उसकी
जरूरत न रही।
तुमने सत्य को
स्वीकार कर
लिया; अब
किसी पर
निर्भर रहने
की जरूरत न
रही। अब
तुम्हें न
किसी पर
मालकियत करनी
है और न किसी
को अपने पर
मालकियत करने
देनी है। अब
दूसरे के पीछे
भागने की
जरूरत न रही। तुमने
स्वयं को
स्वीकार कर
लिया, इसी
स्वीकार से
प्रेम पैदा
होता है। और
इस प्रेम से
तुम्हारे प्राण
भर जाते है।
स्मरण
रहे,
अब तुम भय
से भयभीत नहीं
हो, अब तुम
भय से छुटकारा
पाने की
चेष्टा नहीं
करते हो। और
चमत्कार यह है
कि इस स्वीकार
से ही भय विलीन
हो जाता है।
तुम
अपने
प्रामाणिक
अस्तित्व को, प्रामाणिक
होने को
स्वीकार कर लो,
और तुम
रूपांतरित हो
जाओगे। स्मरण
रहे, स्वीकार,
समग्र
स्वीकार
तंत्र की
गुह्य चाबी है।
स्वीकार
रूपांतरण की
कीमिया है।
कुछ भी इनकार
मत करो; क्योंकि
इनकार
तुम्हें अपंग
कर देगा। जो
भी है, सबको
स्वीकार करो।
न उसकी निंदा
करो, न
उससे भागने की
चेष्टा करो।
समग्र
स्वीकार ही
मंत्र है।
और
जब मैं कहता
हूं कि भय से भागने
की चेष्टा मत
करो तो उसमें
कई बातें हैं।
जब तुम किसी
चीज से
छुटकारा पाने
की कोशिश करते
हो तो तुम
अपने को खंडों
में तोड़ते हो, तुम
अपंग हो जाते
हो। जब तुम
कुछ काटते हो
तो उसके साथ
ही कुछ और भी कट
जाता है जो उस
चीज का हिस्सा
था, तुम
अपंग हो जाते
हो। तुम अखंड
न रहे। और जब
तक तुम अखंड
और समग्र नहीं
हो तब तक तुम सुखी
नहीं हो सकते।
समग्र होना, पूर्ण होना
ही धार्मिक
होना है। और
खंडित होना
रुग्णता है, बीमारी है।
इसलिए
मैं कहता हूं.
भय को समझने
की चेष्टा करो।
यह भय तुम्हें
अस्तित्व से
मिला है; उसमें
जरूर कोई गहरा
राज छिपा होगा,
उसका कोई
रहस्य होगा, कोई अर्थ
होगा। उसे
फेंको मत।
अस्तित्व से
हमें जो भी
मिलता है
उसमें कुछ न कुछ
अर्थ है, व्यर्थ
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ
भी नहीं है
जिसे श्रेष्ठ
में नहीं बदला
जा सकता है।
तुम्हारे
भीतर जो भी है—तुम्हें
पता हो या न हो—उसकी
सीढ़ी बनाई जा
सकती है। उसे
बाधा मत मानो, उसे
सीढ़ी बना लो।
रास्ते में
पड़े पत्थर को
बाधा मानकर
उससे लड़ो
मत, उसे
सीढ़ी बना लो।
अगर तुम उस
पत्थर का
उपयोग कर सको,
उस पर चढ़
सको, तो
रास्ते का नया
दृश्य
तुम्हारे
सामने खुलेगा,
किसी नए ही
आयाम में, ऊंचे
आयाम में
खुलेगा।
तुम्हें अपनी
संभावना की, क्षमता की, भविष्य की
नई गहराइयां
दिखाई देंगी।
भय
के भी अपने
उपयोग हैं।
इसे समझने की
चेष्टा करो।
पहला, अगर भय न
हो तो तुम
अत्यंत
अहंकारी हो
जाओगे और उससे
मुक्त होने का
उपाय न रहेगा।
अगर भय न हो, तो तुम जैसे
हो, तुम फिर
अस्तित्व में,
परमात्मा
में डूब जाने
की चेष्टा न
करोगे। सच तो
यह है कि भय न
हो तो तुम
जीवित ही नहीं
रह सकते।
इसलिए
भय भी उपयोगी
है;
तुम जो भी
हो उसमें उसका
भी हाथ है।
अगर तुम उसे
छिपाने की, दबाने की, मिटाने की
चेष्टा करोगे,
अगर तुम
उसके विपरीत
कुछ निर्मित
करने का
प्रयत्न
करोगे, तो
तुम खंड—खंड
हो जाओगे, तुम
टूट जाओगे।
इसलिए
भय को स्वीकार
करो और उसका
भी उपयोग कर लो।
और जिस क्षण
तुम जानते हो
कि तुमने उसे
स्वीकार कर
लिया है, तुम
चकित होगे कि
भय विदा हो
जाता है। थोड़ा
सोचो : अगर तुम
अपने भय को
स्वीकार कर
लेते हो तो भय
कहा है?
एक
आदमी मेरे पास
आया और उसने
कहा : 'मैं मृत्यु
से अत्यंत
भयभीत हूं।’ वह आदमी
कैंसर से
पीड़ित था और
मृत्यु सचमुच
निकट थी। वह
किसी भी दिन
मर सकता था, कोई उसे बचा
नहीं सकता था।
और वह जानता
था कि मृत्यु
द्वार पर खड़ी
है, बस कुछ
महीनों की बात
थी, या कुछ
हफ्तों की। वह
भय से कांप
रहा था, वस्तुत:
उसका शरीर
कांप रहा था। और
उसने मुझसे
कातर स्वर में
कहा: 'मुझे
बस एक बात बता
दीजिए कि मैं
कैसे मृत्यु के
भय से छुटकारा
पाऊं।
मुझे कोई
मंत्र, या
कोई उपाय
बताइए कि मैं
मृत्यु का
सामना कर सकूं।
मैं कांपते
हुए नहीं मरना
चाहता हूं।’
जरा
रुक कर उस
व्यक्ति ने
फिर कहा. 'मैं
अनेक साधु—संतों
के पास गया; सबने कुछ न
कुछ बताया। वे
दयालु लोग थे।
किसी ने मंत्र
बताया, किसी
ने विभूति दी,
किसी ने
अपना चित्र
दिया, किसी
ने और कुछ
दिया। लेकिन
कोई भी चीज
काम नहीं आ
रही है। सब
व्यर्थ है। अब
मैं आपके पास
आया हूं। यह
मेरा आखिरी
प्रयत्न है।
अब और कहीं
नहीं जाना है।
कुछ बताइए।’
मैंने
उस व्यक्ति से
कहा : 'तुम्हें अब
भी बोध नहीं
हुआ। तुम क्या
मांग रहे हो? तुम भय से
छुटकारे का
उपाय चाहते हो?
कोई उपाय
काम नहीं आएगा।
मैं तुम्हें
कुछ भी नहीं
दूंगा, अन्यथा
दूसरों की
भांति मैं भी
व्यर्थ सिद्ध होऊंगा।
और जिन लोगों
ने भी तुम्हें
कुछ दिया वे
नहीं जानते
हैं कि वे
क्या कर रहे
हैं। मैं तो
तुम्हें एक ही
बात कहूंगा कि
भय को स्वीकार
कर लो। भय से
कांप रहे हो
तो कांपो, खूब
कांपो। करना
क्या है? मृत्यु
है और तुम्हें
भय से कंपन
होता है तो कांपो।
उसे झुठलाओ मत,
उसे दबाओ मत।
बहादुर बनने
की चेष्टा मत
करो। उसकी कोई
जरूरत नहीं है।
मृत्यु है तो
भय स्वाभाविक
है। तो पूरी
तरह भयभीत होओ।
भय ही हो जाओ।’
वह
बोला: 'आप क्या
कह रहे हैं? आपने मुझे
कुछ दिया तो
नहीं, उलटे
आप कहते हैं
उसे स्वीकार
करो!' मैंने
कहा. 'हां, तुम स्वीकार
कर लो। तुम भय
को समग्रता से
स्वीकार कर लो
तो तुम शांतिपूर्वक
मर सकोगे।’
तीन—चार
दिन के बाद वह
व्यक्ति
दोबारा मेरे
पास आया और
उसने कहा. 'आपने
जो बताया वह
काम कर गया।
कितने दिनों
तक मैं सोया
नहीं था; पिछले
चार दिन मैं
गहरी नींद
सोया। आप सही
हैं, आपने
जो बताया वह
कारगर उपाय है।
मृत्यु है, भय है, क्या
किया जा सकता
है? स्वीकार
ही एकमात्र
उपाय है। सभी
मंत्र कचरा
हैं।’
कोई
वैद्य—डाक्टर
कुछ नहीं कर
सकता है। न
कोई साधु—संत
ही कुछ कर
सकता है।
मृत्यु है। वह
तथ्य है। और
तुम उसके भय
से कांपते हो, यह
भी स्वाभाविक
है। आधी आती
है और वृक्ष कांपने
लगता है।
वृक्ष किसी
संत के पास यह
पूछने नहीं
जाता है कि
आधी आए तो
उसके भय से
बचने का उपाय
क्या है। वह
तूफान से बचने
के लिए मंत्र
नहीं मांगता
है। वह बस कांपता
है। कांपना
स्वाभाविक है।
और
उस आदमी ने
फिर कहा. 'लेकिन
एक चमत्कार हो
गया कि अब मैं
उतना भयभीत
नहीं हूं।’
अगर
तुम स्वीकार
कर लो तो भय
विलीन होने
लगता है। और
अगर तुम उसे
हटाते हो, उसका
प्रतिरोध
करते हो, दमन
करते हो, अगर
तुम उससे लड़ते
हो, तो तुम
भय को ऊर्जा देते
हो, बढ़ाते
हो।
वह
व्यक्ति शांतिपूर्वक
मरा—बिना किसी
भय के, बिना
किसी कंपन के—क्योंकि
वह भय को
स्वीकार कर
सका।
भय
को स्वीकार
कर लो और वह
विदा हो जाता
है।
अंतिम
प्रश्न :
कल
जिस दूसरी
विधि की आपने
चर्चा की उससे
मिलती—जुलती
विधि के
प्रयोग में
मैं ऐसी
ध्वनियां
सुनने लगा हूं
जो बहती नदी
या झरने की
ध्वनियों
जैसी हैं। वह
क्या है? जहां
तक मैं समझता हूं, इस प्रयोग
में ध्वनि और
विचार से
सर्वथा शून्य मौन
का अनुभव होना
चाहिए। फिर यह
ध्वनि क्या है?
शुरू—शुरू
में मौन के
घटित होने के
पूर्व ध्वनि
सुनाई देगी।
वह शुभ लक्षण
है। जब शब्द, विचार,
भाषा की
पर्त विदा
होती है, तब
दूसरी पर्त
आती है; वह
ध्वनि की, स्वर
की पर्त है।
उससे लड़ी मत, उसका सुख लो।
वह स्वर
संगीतमय होता
जाएगा, मधुर
होता जाएगा।
तुम उस संगीत
से भर जाओगे
और ज्यादा
जीवंत हो
उठोगे। जब मन
विलीन होता है
तब भीतर से एक
नैसर्गिक ध्वनि
प्रकट होती है।
उसे होने दो।
उस पर ध्यान
करो। उसका
प्रतिरोध मत
करो, उसके
साक्षी हो जाओ।
वह गहराएगी।
और
अगर तुमने
उससे संघर्ष
नहीं किया, उसका
प्रतिरोध
नहीं किया, तो वह अपने
आप ही विलीन
हो जाएगी। और
तुम मौन में
उतर जाओगे।
शब्द, ध्वनि
और मौन—ये तीन
तत्व हैं।
शब्द मानवीय
है, ध्वनि
प्राकृतिक है
और मौन भागवत
है।
यह
शुभ लक्षण है
कि ध्वनि
सुनाई देती है।
इसे नाद कहते
हैं : भीतर की
ध्वनि। उसे
सुनो, उसका
आनंद लो, उसके
साक्षी होओ।
यह ध्वनि भी
विदा हो जाएगी।
लेकिन उसकी
चिंता मत लो, यह मत कहो कि
ऐसा नहीं होना
चाहिए था। अगर
उसका
प्रतिरोध
करोगे, उससे
किसी भांति
छुटकारा पाने
की कोशिश करोगे,
तो तुम फिर
पहले तल पर, शब्दों के
तल पर वापिस आ
जाओगे।
यह
ध्यान रहे, अगर
तुमने ध्वनि
के इस दूसरे
तल से लड़ना शुरू
किया तो उसका
अर्थ है कि
तुमने उसके
संबंध में
विचार करना
शुरू कर दिया,
शब्द वापस आ
गए। अगर तुमने
ध्वनि के इस
दूसरे तल के
संबंध में कुछ
कहना शुरू
किया तो उसका
अर्थ है कि
तुम दूसरे तल
से हट गए और
फिर पहले तल
पर वापस आ गए।
तुम मन में
लौट आए।
कुछ
मत कहो, उसके
बारे में कोई
विचार मत करो।
यह भी मत कहो
कि यह ध्वनि
है। सिर्फ उसे
सुनो। उसके
चारों ओर शब्द
मत खड़े करो।
उसे कोई शब्द
या नाम—रूप मत
दो। वह जैसी
है वैसी ही
रहने दो उसे।
उसे बहने दो
और तुम साक्षी
रहो। नदी बह
रही है और तुम
किनारे बैठ कर
उसे देख रहे
हो—साक्षी की
भांति। तुम यह
भी नहीं जानते
हो कि नदी का
नाम क्या है, या वह कहां
जा रही है, कहां
से आ रही है।
ध्वनि के पास
बैठ कर उसे बस
सुनो; देर—अबेर
वह विदा हो
जाएगी। और जब
वह विदा होगी
तब मौन प्रकट
होगा।
यह
शुभ लक्षण है।
तुमने दूसरे
तल को स्पर्श
किया है।
लेकिन अगर
तुमने इस
संबंध में सोच—विचार
शुरू कर दिया
तो तुम उसे खो
दोगे। तब तुम
पहले तल पर, शब्दों
के तल पर वापस
आ गए।
अगर
तुमने कोई सोच—विचार
नहीं किया, बस
उसके साक्षी
होने का सुख
लिया, तो
डरने से मत
डरो तुम और
गहरे तीसरे तल
पर पहुंच
जाओगे।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं