ओशो
हम सभी पर जमी
संस्कारों की
धूल को हटाने
का काम करते
हैं। वे हमें
हर तरह के
बंधन से मुक्त
करते हैं ताकि
हम पूरी तरह
से मुक्त होकर
अपने जीवन को
परम दशा में
जी सकें। जहां
पश्चिम के
लोगों की
समस्याएं अलग
तरह की होती
हैं वहीं पूरब
के लोगों की
अपनी तरह की।
हमारे
देश में सालों
से काम को, सेक्स
को, स्त्री—पुरुष
के रिश्ते को
हजारों— हजार
संस्कारों के
तले इस तरह से
कुचला गया है
कि स्वस्थ
रिश्ता बनना
ही कठिन सा
लगता है। ओशो
ने हमारी काम
प्रवृत्तियों
पर करारी चोट की।
हमारे दमित
चित्त को हर
तरफ से तोड़ा।
जब
ओशो सेक्स पर
बोले, स्त्री—पुरुष
के रिश्तों पर
बोले तो
स्वाभाविक ही
अनेक मित्रों
ने अपने ही
अर्थ लगा लिये।
ओशो पर सेक्स
गुरु का ठप्पा
भी लग गया।
जब कि ओशो जो बोल रहे हैं, वह यह है कि सेक्स में बहती ऊर्जा को ऊर्ध्वगमन कर समाधि तक, ध्यान तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन जहां हमारा मन अटका होता है, हम वे ही अर्थ निकाल लेते हैं।
जब कि ओशो जो बोल रहे हैं, वह यह है कि सेक्स में बहती ऊर्जा को ऊर्ध्वगमन कर समाधि तक, ध्यान तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन जहां हमारा मन अटका होता है, हम वे ही अर्थ निकाल लेते हैं।
उन
दिनों में
मैंने अनुभव
किया कि आश्रम
में विशेषकर भारतीय
मित्र स्त्री—पुरुष
के रिश्ते को
उतना स्वस्थ
ढंग से नहीं ले
पा रहे थे
जितना कि
पश्चिम के
मित्र ले रहे
थे। मुझे यह
देखकर
आश्चर्य होता
कि ओशो के पास
आ जाने के बाद
भी इतनी छोटी—
छोटी बातों
में चित्त
अटका है।
एक
दिन मैंने इसी
बात को प्रश्न
बनाकर ओशो के
सामने रखा...
.पढ़िये ओशो का
जवाब
प्रश्न
:
ओशो, आपकी
मधुशाला में
डाली
जानेवाली
शराब पी पीकर
मखमूर हो गया
हूं। ओशो, प्यार
करनेवालों पर
दुनिया तो
जलती है मगर
अपनी मधुशाला
के दूसरे
पियक्कड़ भी
प्रेम के इतने
विरोध में हैं—खासकर
पचास प्रतिशत
भारतीय, जो
कि आज दस—बारह
वर्षों से
आपके साथ हैं।
प्रभु, हमारे
विदेशी मित्र
तो प्यार करने
वालों को देख
कर खुश होते
हैं, मगर
भारतीय सिर्फ
जलते ही नहीं
बल्कि बड़ी अपराधजनक
दृष्टि से
देखते हैं और
घंटों
व्यंग्यपूर्ण
बातचीत करते
रहते हैं। यह
जमात प्रेम का
बस एक ही मतलब
जानती है—काम।
ऐसा क्यों, प्रभु? क्या
प्रेम का कोई
और आयाम नहीं
है, खासकर
नर—नारी के
संबंध में?
स्वभाव, भारतीय
चित्त सादियों
से कलुषित है।
प्रेम के
प्रति निंदा
की एक गहन
अवधारणा हजारों
वर्षों से कूट
कूटकर भारतीय
मन में भरी
गयी है। वह
भारतीय खून का
हिस्सा हो गयी
है। उसे ही हम
संस्कृति
कहते हैं, धर्म
कहते हैं और
बड़े बड़े सुंदर
शब्दों में छिपाते
हैं। लेकिन
सारे आवरणों
के भीतर प्रेम
का निषेध है।
और प्रेम का
निषेध मूलत.
जीवन के ही
निषेध का एक
अंग है।
प्रेम
का निषेध ऐसा
है जैसे कोई
वृक्ष के
विरोध में हो
और जड़ों को
काटे। जड़ें कट
जाएंगी, वृक्ष
अपने से मर
जाएगा। प्रेम
विषाक्त हो
जाए तो तुम
जीवन के प्रति
अपने आप
उदासीन हो
जाओगे।
क्योंकि जीवन
में सिवाय
प्रेम के और
कोई रसधार
नहीं है। जीवन
जीवन है
क्योंकि
प्रेम
प्रवाहित है।
प्रेम सूखा, जीवन का
वसंत गया; पतझड़
आयी। ठूंठ रह
जाता है फिर
जीवन। लेकिन
हमने ठूंठों
की पूजा की
सदियों से।
हमने उन्हें
संत कहा, महात्मा
कहा।
जो
भारतीय मित्र
यहां मेरे पास
हैं,
वे मेरे पास
जरूर हैं, लेकिन
मेरी बातें
कितनी समझ
पाते हैं, यह
जरा कहना कठिन
है। उनमें से
पचास प्रतिशत
भी समझ लेते
हैं तो
चमत्कार है।
तुम
कहते हो कि 'पचास
प्रतिशत
भारतीय मित्र
जो आपके पास
दस—बारह
वर्षों से हैं,
वे भी नहीं
समझ पा रहे
हैं, वे भी
प्रेम का एक
ही अर्थ लेते
हैं—यौन।’
जब
प्रेम का
विरोध किया
जाएगा तो
प्रेम संकुचित
होकर यौन का
पर्यायवाची
हो जाता है।
जब प्रेम का
अंगीकार किया
जाएगा तो
प्रेम फैलता
है और
प्रार्थना का
आकाश बन जाता
है।
निषेध
में चीजें
सिकुड़ती हैं, विधेय
में फैलती हैं।
आलिंगन करो
प्रेम का तो
प्रेम में नये
नये पत्ते, नये नये फूल
खिलते हैं, नये फल लगते
हैं, जड़ें
काटो उसकी तो
ठूंठ ही रह
जाता है।
कंकाल मात्र।
वही हुआ।
भारतीय मानस
में प्रेम का
अर्थ यौन रह
गया। स्त्री
का अर्थ देह
रह गया। जैसे
स्त्री में
कोई आत्मा ही
नहीं है। यूं
तो बातें करते
हैं कि कण कण
में परमात्मा विराजमान
है, यूं तो
बडी अद्वैत की
चर्चा चलती है,
मगर सारी
चर्चा झूठी
मालूम पड़ती है।
क्योंकि
स्त्री तक में
परमात्मा
नहीं दिखायी
पड़ता। उसी
स्त्री में
जिसकी कोख में
जन्म लिया, जिस गर्भ
में नौ महीने
बड़े हुए, जिसका
खून तुम्हारी
रगों में, जिसकी
हड्डी—मांस—मज्जा
से तुम बने हो।
पचास प्रतिशत
तुम्हारे
जीवन का दान
स्त्री ने
दिया है। उसको
ही नर्क कहते
हुए शर्म भी न
आयी तुम्हारे
तथाकथित ऋषियों
को, मुनियों
को! और यह
उन्होंने
पांच हजार साल
पहले कहा था
तो ठीक भी था, क्षमा हम कर
सकते थे, आदमी
तब अविकसित था,
असभ्य था, मगर वही दशा
आज भी है।
स्त्री
सिकुड़कर शरीर
रह गयी। और
शरीर रह जाए
स्त्री
सिकुड़कर तो नरक
का द्वार अपने
आप बन जाएगी।
तुम्हारे
शास्त्र
दोहराए चले
जाते हैं स्त्री
नरक का द्वार
है। तुम्हारे
शास्त्र
स्त्री की
गणना पशुओं
में,
गंवारों
में, शूद्रों
में करते हुए
संकोच नहीं
खाते। जरा भी
ऐसा नहीं लगता
उन्हें कि कुछ
अशोभन हो रहा
है। एक तरफ
कहेंगे कि सियाराममय
सब जग जानी, की सारे जगत
में राम और
सीता दिखायी
पड रहे हैं, सारा जगत
राम और सीता
में ही डूबा
हुआ है। और
दूसरी तरफ उसी
जबान से—लडखडाती
भी नहीं जबान,
झिझकती भी
नही, थोड़ी
ठहरती भी नहीं—इन्हीं
सीताओं को.
ढोल गंवार
शूद्र पशू
नारी, ये
सब ताडून के
अधिकारी।’ इन्हीं
सीताओं को.
जैसे ढोल को
पीटो तो बजता
है, बिना
पीटे नहीं
बजता, ऐसे
इनको पीटो, यही इनकी
योग्यता है, यही इनकी
पात्रता है।
कुछ और इनकी
योग्यता नहीं
कुछ, और
इनकी पात्रता
नहीं।
तुम्हारे
ऋषि—मुनि दो
मुंहे मालूम
पड़ते हैं।
सापों की ही
दो जबानें
नहीं होतीं, तुम्हारे
ऋषि—मुनियों
की भी दो
जबानें होती
हैं। और
सांपों के ही
पास जहर नहीं
होता, तुम्हारे
ऋषि—मुनियों
के पास उससे
भी ज्यादा जहर
है। वही ऊर्जा
जो प्रेम बनती,
प्रेम नहीं
बन पायी तो
जहर बन गयी।
अमृत बन सकती
थी—खिलती, फैलती,
विकसित
होती। नही
फैली, नहीं
खिली, सिकुड़
गयी, सड
गयी तो जहर बन
गयी।
अमृत
ही रुक जाए, अवरुद्ध
हो जाए तो जहर
हो जाता है।
पानी की धार
ठहर जाए तो सड
जाती है। और
फिर तुम गाली
देते हो।
ठहराते तुम हो,
पत्थर के
अवरोध तुम खड़े
करते हो, बांध
तुम बनाते हो,
और फिर जब
धार सड़ जाती
है तो गालियां
देते हो, कि
इससे दुर्गंध
उठती है।
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
और यह बात
इतने अचेतन
में डूब गयी
है कि आज तुम्हें
इसका होश भी
नहीं है। ऊपर
से मेरी बातें
सुन लेते हो, तर्कयुक्त
लगती है बात
तो शायद राजी
भी हो जाते हो,
मगर
तुम्हारा
अचेतन मन तो
पुरानी
धारणाओं में
ही लिप्त है। वह
तो अब भी कहीं
गहरे में
शास्त्र ही
गुनगुना रहा
है। मेरे पास
दस—बारह भी
साल आकर कुछ
नहीं होता।
मैं
जानता हूं उन
पचास प्रतिशत
मित्रों को जो
यहां हैं।
उन्हें यहां
नहीं होना
चाहिए। यहां
होने का उनका
कोई कारण नहीं
है। लेकिन मैं
जिस तरह के
काम में लगा
हूं यह काम
ऐसा ही है
जैसे कोई कुआ
खोदता है। जब
तुम कुआं
खोदते हो तो
पहले तो कूडा—करकट
हाथ लगता है।
स्वभावत : ऊपर
तो जमाने भर
का कूड़ा—करकट
जमीन पर
इकट्ठा होता
है। जब खुदाई
करोगे तो कूड़ा—करकट
पहले हाथ
लगेगा। फिर और
खोदोगे तो
पत्थर—कंकड़, सुखी
मिट्टी हाथ
लगेगी। फिर और
खोदोगे तो
गीली मिट्टी
हाथ लगेगी।
फिर और खोदते
ही चले जाओगे
तो जलधार हाथ
लगेगी। फिर और
खोदोगे तो
स्वच्छ धार के
झरने मिलेंगे।
तो
शुरू शुरू में
जब मैंने कुआ
खोदना शुरू
किया तो बहुत
सा कूड़ा—करकट
भी आ गया। उसे
हटाने की
चेष्टा में
लगा हूं। बड़ी
मात्रा में तो
हट गया हैं; मगर
फिर भी कुछ
लोग अटके रह
गये हैं। वे
त्रिशंकु की
भांति हो गये
हैं। वे मेरे
साथ नहीं हैं।
वे भी जानते
हैं, मैं
भी जानता हूं।
वे मेरे साथ
हो सकते नहीं
है, क्योंकि
वे अपनी
धारणाएं
छोड़ने को राजी
नहीं हैं।
मेरी बातों को
सीधा इनकार
नहीं कर सकते
हैं; क्योंकि
इन्कार करें
तो छोड़ना
पड़ेगा। मुझसे
आसक्ति भी बन
गयी है, मुझसे
लगाव भी बन
गया है, मगर
लगाव ऊपरी है,
आत्मिक
नहीं है। कहीं
और जाने को भी
कोई जगह न बची।
सो अटक रहे
हैं। जा भी
नहीं सकते।
जाएं भी तो
किसी और की
बात रुचती भी
नहीं है, रुचेगी
भी नहीं, क्योंकि
बुद्धि से
मेरी बातें
ठीक मालूम
होने लगी हैं।
और यहां पूरी
तरह हो भी
नहीं सकते। तो
छिपे छिपे, गुपचुप, अंधेरे
में से उनके
चित्त की
धारणाएं झांक
झांक जाती हैं।
न मालूम किस
किस रूप में
प्रगट होती
रहती हैं।
मैं
एक—एक व्यक्ति
को जानता हूं
कि उन्हें
यहां नहीं होना
चाहिए। लेकिन
दस— बारह वर्ष
से मेरे साथ
हैं,
तो मैं भी
उनको कहता
नहीं कि अपनी
राह पकड़ो।
सोचता हूं या
तो बदल ही
जाएंगे या फिर
धीरे धीरे हट
ही जाएंगे।
कोई न कोई
रास्ता बन ही
जाएगा। मैं भी
कठोर नहीं हो
सकता। आशा
रखता हूं कि
क्रांति उनके
जीवन में शायद
हो जाए। मगर
शायद बड़ा है, छोटा नहीं।
आशावादी हूं
इसलिए आशा
रखता हूं।
वैसे संभावना
बहुत कम है।
उनका
कसूर भी नहीं
है। सिर्फ वे
स्पष्ट नहीं
हैं कि अपने
जीवन को क्या
दिशा देनी है।
अगर पुरानी
धारणाओं को ही
मानकर चलना है
तो मेरे साथ
चलना व्यर्थ
समय गंवाना है।
और अगर मेरे
साथ चलना है
तो पुरानी
धारणाओं को
ढोना नाहक बोझ
ढोना है।
लेकिन यह भी
हो सकता है
उन्हें भी साफ
न हो।
आदमी
इतना अचेतन है
जिसका हिसाब
नहीं।
कल
ही अखबारों
में मैंने पढ़ा, स्वामीनारायण
संप्रदाय के
प्रधान श्री
प्रमुख
स्वामीजी
लंदन में हैं।
वे इंग्लैंड
के केंटरबरी
के आर्चबिशप
से मिलने
जानेवाले हैं।
इंग्लैंड का
सबसे बड़ा जो
धर्मगुरु। सब
तय हो गया, शायद
आज कल में कभी
मिलने की तिथि
हैं, लेकिन
अभी आखिर आखिर
में उन्होंने
अपनी शर्तें
भेजीं। श्री
प्रमुख
स्वामी
स्त्री का
चेहरा नहीं देखते।
तो उन्होंने
अभी अभी
उन्हें खबर
भेजी है कि जब
मैं मिलने आऊं
तो कोई स्त्री
उपस्थित नहीं
होनी चाहिए।
सारे
इंग्लैंड में
उपद्रव मच गया।
यह कोई
हिंदुस्तान
तो नहीं है कि
स्त्रियां चुपचाप
सह लेंगी। कि
उन्हीं
महत्माओं का
व्याख्यान
सुनती रहेंगी
जो उनको ढोल
गंवार शूद्र
पश नारी कह
रहे हैं।
उन्हीं महात्माओं
का प्रवचन
सुनती रहेंगी
जो उनको नरक
का द्वार बता
रहे हैं।
उन्हीं
महात्माओं के
पैर दबाती
रहेंगी, यह
कोई
हिंदुस्तान
तो नहीं। सारे
इंग्लैंड में
स्त्रियों ने
बड़े जोर से विरोध
किया है।
क्योंकि वहां
स्त्रियां
पत्रकार
आनेवाली थीं,
स्त्रियां
फोटोग्राफर
आनेवाली थीं—
और तो और
केंटरबरी के
आर्चबिशप की
जो सेक्रेटरी
है, वह भी
स्त्री। वह तो
मौजूद रहेगी
ही।
केंटरबरी
का आर्चबिशप
भला आदमी है, बड़ी
दुविधा में पड़
गया कि हां भी
भर चुका हूं मिलने
के लिए, अब
इनकार करना भी
ठीक नहीं
मालूम पड़ता।
और यह शर्त
बेहूदी है।
इसका विरोध किया
जा रहा है। कि
यह बीसवीं सदी
है, यह किस
सदी की बात कर
रहे हो! कि
स्त्री को
नहीं देखेंगे!
लेकिन
भारत में तो
कभी कोई विरोध
नहीं हुआ—यहां
भी वे स्त्री
को नहीं देखते।
यहां कुछ
स्त्रियां कम
नहीं हैं, जितने
पुरुष हैं
उतनी
स्त्रियां
हैं, स्त्रियां
ही ज्यादा भक्त
हैं—ऐसे
नासमझों की
स्त्रियां ही
ज्यादा भक्त
होती हैं।
स्त्रियां
बड़ी प्रभावित
होती हैं इस
बात से कि
जरूर यह
व्यक्ति
महापुरुष हैं।
जब हममें कोई
रस नहीं लेता,
इतना भी रस
नहीं लेता कि
हमको देखता
नहीं, तो
जरूर पहुंचा
हुआ सिद्ध है।
कोई
स्त्री अपने
पति को थोड़े
ही सम्मान
देती है—
भारतीय
स्त्री कभी
अपने पति को
सम्मान नहीं दे
सकती है। लाख
कहे कि तुम
स्वामी हो, पतिदेव
हो, तुम
मेरे
परमात्मा हो,
यह सब बकवास
है। भारतीय
स्त्री अपने
पति को सम्मान
दे ही नहीं
सकती।
क्योंकि भीतर
से तो वह
जानती है कि
महापापी है।
यही तो मुझे
पाप में घसीट
रहा है। यही
दुष्ट तो मुझे
न मालूम कहां
के नर्क में घसीट
रहा है। इसके
कारण ही तो
मैं सब तरह के
पापों में पडी
हूं और तो
मुझे कोई पाप
में
घसीटनेवाला
है नहीं। तो
गहन अचेतन में
तो पति के
प्रति अपमान
होगा ही।
और
वह अपमान तरह
तरह से निकलता
है। हर तरह से
निकलता है।
कितनी कलह
पत्नियां खड़ी
रखती हैं पति
के लिए! उसके
मूल में
तुम्हारे
महात्मा हैं।
और उन
महात्माओं को
सम्मान देती
हैं,
जो उनके
अपमान के आधार
हैं, जिन्होंने
उनके जीवन को
कीड़े—मकोडों
से बदतर बना
दिया है। और
उनको यह समझ
में भी नहीं
आता, यह
सीधा सा तर्क
भी समझ में
नहीं आता कि
जो आदमी
स्त्रियों को
देखने से डरता
है, इस
आदमी के चित्त
में कामवासना
अत्यंत कुरूप,
अत्यंत
विकराल रूप
में खड़ी होगी।
क्योंकि
स्त्री को
देखने में
क्या डर हो
सकता है!
स्त्री के
देखने में डर
नहीं हो सकता,
डर होगा तो
कहीं भीतर
होगा, अपने
भीतर होगा।
लोभी
धन को देखने
से डरेगा।
स्वभावत :
क्योंकि धन को
देखकर वह अपने
पर वश नहीं रख
सकता। कामी
स्त्री को
देखकर डरेगा।
क्योंकि
देखकर स्त्री
को अपने पर वश
नहीं रख सकता।
किसी तरह
स्त्री को
देखे ही नहीं, तो
चल जाती है
बात। अब धन
दिखायी ही न
पड़े तो लोभी
करे भी क्या!
कोई कंकड़—पत्थरों
से तिजोरी
भरे! धन
दिखायी
ही न पडे कहीं, तो
लोभ अप्रगट रह
जाएगा। और
अप्रगट लोभ से
यह भ्रांति
पैदा हो सकती
है कि लोभ मिट
गया। स्त्री
दिखायी ही न
पडे, तो
अप्रगट काम से
यह भ्रांति
पैदा हो सकती
है कि काम मिट
गया। मगर काम
यूं मिटता
नहीं। पड़ा
रहता है सूखी
धार की तरह।
यूं
समझो, वर्षा
के बाद तुम
देखते हो, मेंढक
कहीं दिखायी
नहीं पड़ते।
कहां चले जाते
हैं? इतने
मेंढक मरे हुए
भी नहीं
दिखायी पड़ते।
वर्षा में तो
कितनी
मेंढकों की
जमात दिखायी पड़ती
है, फिर
वर्षा के बाद
क्या होता है?
मेंढक जमीन
में दब कर पड़
जाते हैं।
सांस नहीं
लेते। करीब
करीब मुर्दा
हो जाते हैं।
लेकिन करीब—करीब
मुर्दा! सांस
बंद, भोजन
बंद, सब
बंद हो जाता
है। मेंढक को
एक कला आती है
कि वह आठ
महीने मुर्दे की
तरह भुमि के
गर्भ में दबा
हुआ पड़ा रहता
है। और जब
वर्षा की फिर
बूंदा—बांदी होती
है, आकाश
में बादल
गरजते हैं, बिजलियां
कड़कती हैं, उसके भीतर
भी कोई चीज
कड़क उठती है, जग उठती है, मेंढक फिर
जीवित हो उठता
है। मरा था
नहीं, जैसे
गहरी
प्रसुप्ति
में सो गया था।
इतनी गहरी
प्रसुप्ति
में जहां कि
श्वास का चलना
भी बंद हो
जाता है।
कोई
मेंढक इतनी आसानी
से नहीं मर
जाता। इसीलिए
वर्षा के बाद
तुम्हें एकदम
मेंढक ही मेंढक
मरते हुए नहीं
दिखायी पड़ते।
सब तरफ नहीं
तो मेंढक ही
मेंढक मरे हुए
पड़े मिलें। सब
मेंढक जमीन
में दबकर पड़
जाते हैं। और
अगर तुम जमीन
को खोदो तो
जगह जगह
तुम्हें मेंढक
दबे हुए मिल
जाएंगे।
खासकर तालाब
और पोखरों के
पास की जमीन
अगर तुम खोदो, तुम
दंग रह जाओगे।
सूखे मेंढक
पड़े रहते हैं।
लेकिन पानी
छिडको और
जीवित हुए।
ऐसी
ही मनुष्य की
वासनाएं हैं।
सूख के पड़
जाती हैं। जरा
पानी छिडको, फिर
जग जाती हैं।
मैं
तो कहूंगा कि
इंग्लैंड की
स्त्रियों को
स्वामी महराज
को अच्छा पाठ
पढ़ा देना
चाहिए।
क्योंकि भारत
की स्त्रियां
तो अभी पाठ
पढ़ा सकेगी, यह
जरा मुश्किल
है। हां, मेरी
संन्यासिनिया
पाठ पढ़ा सकती
हैं, अच्छे
पाठ पढ़ा सकती
हैं। लेकिन
इंग्लैंड की
स्त्रियों को
यह मौका छोडना
नहीं चाहिए।
अब उनको यूं
इंग्लैंड से
भागने नहीं देना
चाहिए। अब फंस
ही गये हैं, अपने आप
इंग्लैंड आ
गये हैं, तो
अब जगह जगह
उनके घिराव
करने चाहिए।
इंग्लैंड की
प्रधानमंत्री
स्त्री है, इंग्लैंड की
साम्राज्ञी
स्त्री है!
स्त्रियों को
पूरी ताकत लगा
देनी चहिए, यह अपमान
बरदाश्त करने
योग्य नहीं है।
जहां भी वे
जाएं, हर
जगह उन पर
घिराव होना
चाहिए।
यह
केवल
स्वामीजी की
ही मूढ़ता का
प्रदर्शन नहीं
है,
यह पूरी
भारतीय मूढ़ता
का प्रदर्शन
है। यह भारत
का अपमान है।
इस तरह का
अभद्र
व्यवहार करना
स्त्रियों के
साथ!
हवाई
जहाज पर जाते
हैं,
तो उनके
चारों तरफ, एक पर्दा
लगा देते हैं,
वे पर्दे के
भीतर बैठे
रहते हैं।
क्योंकि
परिचारिकाएं
हैं, तो
स्त्रियां।
वे पर्दे में
छिपे बैठे
रहते हैं। वे
पर्दे में ही
छिपे हुए...।
आदमियों को
बुर्के ओढ़े
देखे हैं? ऐसे
इनको बुर्का
बना लेना
चाहिए। बेहतर
तो यह. हो सबसे
कि आखों पर एक
पट्टी क्यों
नहीं बांध
लेते? और
एक आदमी का
हाथ पकड़कर
चलते रहो! न
स्त्री दिखायी
पड़ेगी, न
पुरुष दिखायी
पडेगा।
क्योंकि
पुरुष भी
दिखाई पडे तो
स्त्री की याद
तो दिलाएगा ही।
कि आखिर पुरुष
आया कहां से? आखिर इस
पुरुष की
स्त्री होगी;
मां होगी, बहन होगी, पत्नी होगी,
लड़की होगी।
पुरुष को
देखकर भी स्त्री
की याद तो आ ही
सकती है। आखिर
पुरुष और
स्त्रियां
कोई इतने दूर
दूर के जानवर
भी तो नहीं
हैं। पास ही
पास के जानवर
हैं। एक ही
गर्भ से आए
हुए हैं, इतना
कुछ बहुत भेद
भी नहीं है।
अब
तो वैज्ञानिक
कहते हैं कोई
भी पुरुष
स्त्री होना
चाहे तो हो
सकता है। कोई
भी स्त्री
पुरुष होना
चाहे तो हो
सकती है। और
कई दफे
नैसर्गिक रूप
से ऐसी घटना
घट जाती है कि
कुछ पुरुष
स्त्री हो
जाते हैं, कुछ
स्त्रियां
पुरुष हो जाती
हैं। फासला
बहुत नहीं है,
मात्रा का
है, थोड़ी
सी मात्रा का
है— थोडे
हारमोन का
फर्क है।
जल्दी ही यह
व्यवस्था हो
जाएगी कि
जिंदगी में दो—चार
दफे अपने को
बदल लो। एक ही
जिंदगी में
क्यूं न दो—चार
जिंदगियों का
मजा लिया जाए!
कभी स्त्री हो
गये, फिर
कभी पुरुष हो
गये; कभी
पुरुष हो गये,
कभी स्त्री
हो गये! सब
पहलुओं से
जिंदगी क्यों
न देखी जाए!
इसमें मैं कुछ
एतराज नहीं
देखता।
अगर
एक इनजक्शन
लगाने से ही
हारमोन के
पुरुष स्त्री
होती हो, स्त्री
पुरुष होता हो,
तो यह
बदलाहट करने
जैसी है। साल
दो साल पति
रहे, साल
दो साल पत्नी
रहे। पत्नी को
भी मौका दो
पति होने का।
यूं जिंदगी का
अनुभव
कोई
फर्क ज्यादा
तो नहीं है।
पुरुष का
चेहरा भी
देखकर स्त्री
के चेहरे की
याद आ सकती है।
और जवान चेहरे, जिन
पर अभी दाढी—मूंछ
भी न ऊ—गी हो, उनको देखकर
तो स्त्री के
चेहरे की याद
आ ही सकती है।
आख पर पट्टी
ही बांध लेनी
चाहिए— आख फोड़
ही लेनी चाहिए,
झंझट ही
मिटा दो, पट्टी—वट्टी
भी क्यों
बांधनी!
सूरदास ही हो
रहो! फिर जहां
जाना हो जाओ।
इंग्लैंड जाओ,
अमरीका जाओ,
जहां जाना
हो जाओ। नग्न
स्त्रियां
नहाती रहें तो
भी तुम्हारा कुछ
बिगाड नहीं
सकतीं। इंद्र
अप्सराएं
भेजे तो भी
तुम्हारा कुछ
बिगड़ नहीं
सकता।
तुम्हें कुछ
दिखायी ही
नहीं पड़ेगा तो
क्या पता
चलेगा कि
अप्सराएं नाच
रही हैं आसपास,
कि हुडदंग
मचानेवाले
लोग हुडदंग
मचा रहे हैं, कौन है, कौन
नहीं है?
बीसवीं
सदी और अब भी
इस तरह की
धारणाएं!
स्वभाव, तो
यहां मेरे पास
तुम्हें जो
पचास प्रतिशत
भारतीयों में
अड़चन दिखायी
पड़ती है, कुछ
आश्चर्य नहीं
है। यही
स्वामी जी
महाराज जैसे
लोगों ने इनकी
बुद्धि को
निर्मित किया
है—हजारों साल
से निर्मित
किया है। गहरे
अचेतन में
सांप—बिच्छुओं
की तरह दबे
हुए रोग पड़े
हैं। मेरी
बातें ऊपर से
समझ लेते हैं
मगर भीतर गहरे
में वही बातें
सरकती रहती
हैं। इसलिए
इनके
व्यक्तित्व
में एक
दोहरापन पैदा हो
जाएगा। मेरी
बात सुनेंगे
तो यूं सिर
हिलाके कि
जैसे इनकी समझ
में आ रहा है।
और भीतर ठीक
इसके विपरीत
इनकी समझ है।
इसलिए वह समझ
भी कभी कभी
रास्ते
खोजेगी और प्रगट
होगी। तो
व्यंग्य
बनेगी, जलन
बनेगी, दूसरों
को
अपराधपूर्ण
दृष्टि से
देखने का भाव
पैदा होगा।
यहां
जो भारतीय
संन्यासी हैं, मेरे
पास आश्रम में
जो रह रहे हैं,
उनमें पचास
प्रतिशत
निश्चित ही
कचरा हैं! न किसी
काम के हैं, न किसी
उपयोग के हैं,
सिर्फ एक
उपद्रव हैं।
लेकिन फिर भी
वे अपने को
श्रेष्ठ
मानते हैं।
यहां
विदेशी
संन्यासी हैं, वे
सारा श्रम उठा
रहे हैं। इस
आश्रम की सारी
रौनक, सारी
कुशलता उनके
कारण है।
भारतीय न तो
काम करेंगे, न श्रम
करेंगे, लेकिन
फिर भी एक अकड़
भीतर है उनकी
कि वे भारतीय
हैं, कुछ
विशिष्टता है
उनकी, कुछ
पवित्रता है
उनकी, कुछ
धार्मिकता है
उनकी, वे
श्रेष्ठ हैं।
बस, सिर्फ
भारतीय होने
के कारण
श्रेष्ठ हैं।
श्रेष्ठता
किसी हिस्से
में भी सिद्ध
नहीं करते हैं।
सिर्फ एक
भीतरी अहंकार
है। अब उस
अहंकार को
कैसे पोषण
मिले? उसको
पोषण मिलने के
लिए ये सरल
रास्ते हो
जाते हैं। कि
निंदा करो
औरों की। कारण
खोज लो ऐसे।
कि अरे, ये
सब भ्रष्ट
लोग! कि ये सब
कामवासना में
पडे हुए लोग!
सचाई बिलकुल
उलटी है।
सचाई
यह है कि यहां
अब तक एक
भारतीय
स्त्री ने मेरे
पास शिकायत
नहीं की है कि
किसी विदेशी
ने उसे धक्का
दे दिया हो; कि
किसी विदेशी
ने मौका देखकर
उसके साथ
छेडछाड की हो,
किसी
विदेशी ने
उसके कपड़े
खींच दिये हों,
कि चिउंटी
ले दी हो।
लेकिन कितनी
विदेशी
स्त्रियां
मुझे रोज पत्र
लिखती हैं कि
हम क्या करें?
भारतीय आते
हैं तो जैसे
ध्यान करने
नहीं आते, न
आपको सुनने
आते हैं; कोई
चिउंटी काट
रहा है, कोई
कपडे खींच
देता है, कोई
धक्का ही मार
देता है। यहां
इतने
भारतीयों ने
विदेशी
संन्यासिनियो
पर बलात्कार
किये—नगर में,
लेकिन एक भी
ऐसी घटना नहीं
घटी कि किसी
विदेशी
संन्यासी ने
किसी भारतीय
महिला के साथ
बलात्कार
करने की
चेष्टा की हो;
छेड़—खान भी
की हो।
फिर
भी भारतीय
समझेंगे कि वे
महात्मा हैं।
भारत की
पुण्यलुक् मे
पैदा हुए हैं
और क्या चाहिए
महात्मा होने
के लिए! काफी
है इतना। यहां
देवता पैदा
होने को तरसते
हैं! पता नहीं
किस तरह के देवता
हैं जो यहां
पैदा होने को
तरसते हैं! और
किसलिए तरसते
हैं?
सड़ना है, क्या करना
है? लेकिन
भारतीयों को
यह भ्रांति है।
यहां
हर महीने का
यह अनुभव है।
जब हिंदी का
शिविर होता है
तब तो भारतीय
नहीं आते।
लेकिन जब अंग्रेजी
का शिविर होता
है तब भारतीय
आने शुरू हो जाते
हैं। बहुत
हैरानी की बात
है। हिंदी का
शिविर उनके
लिए है, तब वे
आते नहीं।
उन्हें क्या
लेना देना है
हिंदी से या
शिविर से!
अंग्रेजी के
शिविर में आते
हैं यहां।
अंग्रेजी समझ
में नहीं आए
चाहे। लेकिन
अंग्रेजी के
शिविर से उनको
प्रयोजन है।
क्योंकि उस
वक्त
पाश्चात्य
संन्यासिनियो
की भीड होगी
यहां, तो
धक्कम— धुक्की
का मौका मिल
जाएगा। चोरी
का मौका मिल
जाएगा। सिर्फ
जब भारतीय
यहां बाहर से
आते हैं तो
चोरी होती है।
नहीं तो चोरी
नहीं होती।
अभी
पुलिस ने एक
अड्डा पकड़ा है
भारतीयों का
जहां करीब तीन
लाख रुपए की
विदेशियों की
चीजें पकड़ी
गयीं। वे सब
संन्यासियों
की चीजें हैं।
क्योंकि और तो
पुणे में कौन
विदेशी हैं? लेकिन
अब वे तो
सालों पहले आए,
गये लोग—खबरें
छोड गये हैं, किसी का
कैमरा चोरी
गया है, किसी
का
टेपरिकार्डर
चोरी गया है, किसी की घड़ी
चोरी गयी है, वे सब पकड़ी
गयी हैं, मगर
अब जिनकी
चीजें हैं वे
यहां मौजूद
नहीं हैं।
किनकी हैं, यह आश्रम को
पता नहीं है, सिर्फ इतना
पता है कि इस
तरह की चीजें
चोरी गयी हैं।
पुलिस भी
मानती है कि
हैं तो वे सब
संन्यासियों
की ही चीजें, मगर पुलिस
की भी मजबूरी
है, वह करे
क्या? वह
हमको आश्रम को
तो दे नहीं
सकती। और
किनकी हैं, इनके लिए
आश्रम के पास
कोई प्रमाण
नहीं हैं।
और
भारतीय बस एक
अहंकार है, एक
दंभ है। और इस
दंभ को और तो
कोई मौका
मिलता नहीं, किसी और
दिशा में तो
यह अपनी
श्रेष्ठता
सिद्ध कर सकता
नहीं। जिस काम
में भी भारतीयों
को आश्रम में
लगाया जाता है,
उसी काम में
वे तृतीय
श्रेणी के
साबित होते हैं।
और इसका कारण
यह नहीं है कि
उनके पास
प्रतिभा की
कमी है। इसका
कारण यह है कि
कामचोर हैं।
इसका कारण यह
है कि करना
नहीं चाहते।
वे तो आते ही
आश्रम में
इसलिए हैं, उनके आने का
कारण ही यही
है कि काम
वगैरह नहीं
करना पड़ेगा।
आश्रम
का भारत में
यही अर्थ रहा
है। उनको यह
पता नहीं कि
यह आश्रम उस अर्थ
में आश्रम
नहीं है। वे
तो कहते हैं
हम तो भक्ति
भाव करेंगे।
तो तुम्हारे
भोजन की चिंता
कौन करे? तुम्हारे
कपड़ों की
चिंता कौन करे?
तुम तो भक्ति
भाव करोगे, बाकी भोजन
वगैरह भी
करोगे कि नहीं?
कपड़े भी
चाहिए कि नहीं
तुम्हें? वह
चिंता कौन करे?
वह चिंता
दूसरे लोग
करें। भारतीय
तो सेवा लेने
को हमेशा
तत्पर हैं। और
संन्यासी हो
गये फिर तो
सेवा ही चाहिए।
यहां
मेरे पास लोग
आते हैं, पत्र
लिखते हैं कि
हम संन्यास
लेने को राजी
हैं, मगर
संन्यास पीछे
लेंगे अगर
हमें यह
आश्वासन हो कि
हमें आश्रम
में प्रवेश
मिलेगा। और
मैं उनसे
पुछवाता हूं
कि आश्रम में
करोगे क्या? वे कहते हैं,
आश्रम में
कुछ करना ही
होता तो आश्रम
में क्यों आते?
यहां तो
भक्ति भाव
करेंगे, प्रभु
भजन करेंगे।
मुझे कोई
एतराज नहीं, प्रभु भजन
करो, मगर
भोजन वगैरह मत
मांगना।
जितना दिल हो
उत्ता भजन करो।
तब वे कहते
हैं, भूखे
भजन न होहि
गोपाला। तो
भोजन की चिंता
विदेशी करें,
कपड़ों कि
चिंता विदेशी
करें, वे
तुम्हारे लिए
श्रम करें और
तुम भजन भाव
करो! और तुम
महात्मागिरी
करो! और तुम
उनसे पैर
दबवाओ। और
उनको निंदा की
दृष्टि से
देखो। और देखो
कि ये म्लेच्छ।
और इनको निंदा
की दृष्टि से
देखने का एक
ही तुम्हारे
पास उपाय है, वह यह है कि
तुम इनकी
प्रेम की जो
जीवन दृष्टि है,
उसको तुम
सरलता से
निंदा कर सकते
हो अपने मन में।
स्वभाव, इसलिए
तुम्हें यह
अनुभव हुआ कि
वे पचास
प्रतिशत भारतीय
मित्र जो यहां
आश्रम में हैं,
न केवल जलते
हैं प्रेम
करनेवालों से
बल्कि अपराधजनक
दृष्टि से भी
देखते हैं—वें
तो उन्हें
पापी मानेंगे
ही। और घंटों
व्यंग्यपूर्ण
बातचीत करते
रहते हैं। वही
तो उनका भक्ति
भाव है, और
काम क्या है? फुर्सत ही
फुर्सत है
उनको। काम
उन्हें कुछ
करना नहीं है।
उनसे काम करने
को कुछ भी कहो
तो वे बहाने
खोजने को
तैयार हैं।
इतने बहाने
खोजते हैं कि
बहुत हैरानी
होती है।
यहां
पंद्रह सौ
संन्यासी
आश्रम में काम
करते हैं, जिसमें
मुश्किल से
पचास भारतीय
हैं। बाकी
साढ़े चौदह सौ
कोई
बहानेबाजी
नहीं करते, लेकिन ये
पचास सिवाय
बहानेबाजी के
कुछ और इनका
काम नहीं है।
आज इनकी तबीयत
ठीक नहीं है, कल कोई
मिलनेवाला आ
गया, परसों
इन्हें किसी के
दर्शन करने
जाना है, फिर
इनकी बहन की
शादी आ गयी, फिर बहन के
लिए वर खोजना
है, फिर
विवाह में
जाना है, फिर
बारात में
जाना है, फिर
कोई मर गया
कहीं, फिर
कोई बीमार है
उसको देखने
जाना है—इनको
कोई न कोई
बहाना। इसके
लिए खर्च भी
इनको आश्रम से
चाहिए! क्योंकि
इनके पास तो
कुछ है नहीं।
विदेशी
संन्यासी
अपना खर्च
उठाते हैं, अपने
रहने का खर्च
उठाते हैं, आश्रम के
लिए सब तरह से
आधार बने हैं—और
फिर भी वे
निंदा के
पात्र हैं। और
कारण? कारण
उनका
प्रेमपूर्ण
जीवन। और इनके
भीतर जलन पैदा
होती है।
क्योंकि इनके
भीतर भी उतने
ही प्रेम की
आकांक्षा तो
दबी पडी है।
मगर साहस नहीं
है, हिम्मत
नहीं है।
मैं
तो चाहूंगा कि
ये मित्र धीरे
धीरे विदा हों
यहां से। इनके
प्रश्न भी आते
हैं मेरे पास
तो उत्तर देने
योग्य नहीं
होते। न मालूम
कहां कहां के
कचरा प्रश्न
पूछते हैं, जिनका
कोई प्रयोजन
नहीं है, जिनका
कोई मूल्य
नहीं है।
स्त्री
और पुरुष के
संबंध में
भारतीय मन में
एक ही धारणा
रही है कि एक
ही संबंध हो
सकता है, वह है
कामवासना का।
स्त्री और
पुरुष के बीच
मैत्री भी हो
सकती है, मित्रता
भी हो सकती है,
यह भारतीय
परंपरा का अंग
नहीं रही।
भारतीय
परंपरा ने कभी
इतना साहस
नहीं किया कि
स्त्री और
पुरुष के बीच
मैत्री की
धारणा को जन्म
दे सके।
यौन
तो स्त्री—पुरुष
के बीच एक
संबंध है। यही
सब कुछ नहीं
है। मैत्री भी
हो सकती है।
और मैत्री
होनी चाहिए।
एक सुंदर, सुसंस्कृत
व्यक्तित्व
में इतनी
क्षमता तो होनी
चाहिए कि वह
किसी स्त्री
के साथ भी
मैत्री बना
सके, किसी
पुरुष के साथ
मैत्री बना
सके। मैत्री
का अर्थ है कि
कोई शारीरिक
लेन—देन का
सवाल नहीं है,
एक आत्मिक
नाता है।
लेकिन
पश्चिम में यह
घटना घटती है।
एक पुरुष और
एक स्त्री के
बीच इस तरह की
दोस्ती हो
सकती है जैसे
दो पुरुषों के
बीच होती है, या
दो स्त्रियों
के बीच होती
है। मैत्री का
आधार बौद्धिक
हो सकता है।
दोनों के बीच
एक बौद्धिक
तालमेल हो
सकता है।
दोनों के बीच
रुचियों का एक
सम्मिलन हो
सकता है।
दोनों में
संगीत के
प्रति लगाव हो
सकता है।
दोनों में
शास्त्रीय
संगीत में
अभिरुचि हो सकती
है। यह जरूरी
नहीं है कि
जिस स्त्री के
शरीर से तुम्हारा
संबंध है, उससे
तुम्हारा
बौद्धिक मेल
भी खाए। यह
जरूरी नहीं है
कि जिस स्त्री
के शरीर में तुम्हें
रुचि है, उसमें
और तुम्हारे
बीच संगीत के
संबंध में भी समानता
हो। हो सकता
है उसे संगीत
में बिलकुल रस
न हो। हो सकता
है तुम्हें
संगीत में
बिलकुल रस न
हो, उसे रस
हो। हो सकता
है उसे नृत्य
में अभिरुचि हो
और तुम्हें
दर्शनशास्त्र
में। तो ठीक
है कि वह अपनी
मैत्री
बनाएगी उन
लोगों के साथ
जिनको नृत्य
में रुचि है, और तुम उनके
साथ मैत्री
बनाओगे
जिन्हें दर्शन
में रुचि है।
पश्चिम
में शरीर का
संबंध ही
एकमात्र
संबंध नहीं है।
यह श्रेष्ठतर
बात है, ध्यान
रखना। शरीर का
संबंध ही
एकमात्र
संबंध अगर है,
तो इसका
अर्थ हुआ कि
फिर आदमी के
भीतर मन नहीं,
आत्मा नहीं,
परमात्मा
नहीं, कुछ
भी नहीं, सिर्फ
शरीर ही शरीर
हैं। अगर आदमी
के भीतर शरीर
के ऊपर मन है
और मन के ऊपर
आत्मा है और
आत्मा के ऊपर
परमात्मा है
तो इन चारों
तलों पर संबंध
हो सकते हैं।
मन
के तल पर किसी
से संबंध हो
सकते हैं और
शरीर के तल पर
किसी और से
संबंध हो सकते
हैं। क्योंकि
यह हो सकता है
एक स्त्री के
चेहरे में
तुम्हें रस न
हो,
उसका चेहरा
तुम्हें न भाए,
उसकी देह
तुम्हें न भाएं,
लेकिन उसकी
मन की गरिमा
तुम्हें
मोहित करे। और
यह भी हो सकता
है एक स्त्री
की देह
तुम्हें आकृष्ट
करे, चुंबक
की तरह खींचे,
मगर उसके मन
में तुम्हें
कोई रुचि न हो,
कोई रस न हो।
फिर क्या
करोगे? भारत
में तो एक ही
उपाय है कि एक
चीज से राजी
हो जाओ, दूसरे
की चिंता छोड़
दो। इससे तो
नुकसान
होनेवाला है।
इससे तुम्हारी
एक दिशा
अवरुद्ध रह
जाएगी।
अब
तुम्हारी
पत्नी को अगर
नृत्य में
रुचि है और
तुम्हें कोई
रुचि नहीं है, तो
तुम्हारी
पत्नी क्या
करे? किसी
नर्तक से
दोस्ती बनाए
या न बनाए? लेकिन
तुम किसी
नर्तक से उसकी
दोस्ती पसंद न
करोगे।
क्योंकि ये
नाचने—गानेवालों
का क्या भरोसा?
ये कोई
भरोसे के आदमी
हैं, कोई
ढंग के आदमी
हैं! ढंग के
आदमी होते तो
नाचते—गाने
में जिंदगी
व्यतीत करते!
अरे, कुछ
कमा की बात
करते, कुछ
धंधा करते, कोई दुकान
करते, कोई
व्यवसाय करते,
कुछ कमा कर
दिखाते! यह
क्या पैरों मे
घुंघरू बांध
कर नाच रहे
हैं! ये कोई
आदमी हैं? और
इनका क्या
भरोसा?
ये
नाचने—गानेवालों
के संबंध में
तुम्हारी
धारणा यह होती
है—ये तो नंगे
लुच्चे लफंगे
हैं,
इनका कोई
मूल्य थोड़े ही
है, इनके
साथ कोई
दोस्ती थोड़े
ही बनानी पड़ती
है! अगर
तुम्हारी
पत्नी को नाच
भी सीखना हो
तो तुम ढूढोगे
कोई बिलकुल
मुर्दा, मरा
हुआ, का, कि जिससे अब
कोई खतरा ही न
हो। फिर भी
तुम अपने बेटे
को या बेटी को
मौजूद रखोगे
कि तू मौजूद
रहना, देखते
रहना, कि
नाचनेवाला ही
है, इसका
क्या भरोसा? फिर भी नजर
रखोगे तुम।
तुम
तो चाहोगे कि
तुम्हारी
पत्नी की सारी
अभिरुचि तो बस
तुममें सीमित
हो जाए। और फिर
तुम्हारी
पत्नी भी
स्वभावत. यही
चाहेगी कि उसकी
अभिरुचि भी
तुममें सीमित
अगर तुम चाहते
हो कि हो, तो
तुम्हारी
अभिरुचि भी बस
उसमें ही
सीमित हो जाए।
तो वह भी नहीं
चाहेगी कि तुम
मित्रों के
पास ज्यादा
बैठो, उठो।
कोई पत्नियां
तुम्हारे
मित्रों को
पसंद नहीं
करतीं।
क्योंकि तुम
अपने मित्रों
के साथ ऐसे
रसलीन होकर
बातचीत करते
हो कि
पत्नियां जल—
भून जाती हैं;
कि बस मित्र
क्या आए कि
बहार आ जाती
है तुम्हारे
जीवन में
एकदम! और
मित्र क्या
गये, मैं
बैठी हूं जैसे
हूं ही नहीं।
तुम्हें जैसे
मतलब ही नहीं
है। जमाने हो
गये जबसे तुमने
चेहरा नहीं
देखा मेरा।
और
इस बात में
सचाई भी हो
सकती है।
तुमसे अगर कोई
एकदम पूछ ले
कि आज पत्नी
तुम्हारी किस
रंग की साडी
पहने हुए है, तुम
शायद ही बता
सको। कौन देखता
है पत्नी किस
रंग की साड़ी
पहने हुए है! भाड़
में जाए, जो
रंग की साडी
पहननी हो पहने,
सिर भर न
खाए! तुमने
कितने वर्षों
से पत्नी का
चेहरा गौर से
नहीं देखा!
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी खो गयी।
पुलिस में
रिपोर्ट करने
गया।
इन्स्पेक्टर
ने पूछा, कब
खोयी
तुम्हारी
पत्नी? उसने
कहा, सात
दिन हो गये।
तुम सात दिन
क्या करते रहे,
बड़े मियां?
सात दिन बाद
तुम्हें होश
आया? शराब
पी गये थे? नहीं,
नसरुद्दीन
ने कहा, मुझे
भरोसा ही न आए!
यह मेरा
सौभाग्य कहां!
फिर जब भरोसा
आ गया कि नहीं,
वह भाग ही
गयी है, जब
बिलकुल पक्का
ही हो गया कि
भाग ही गयी है,
अब बहुत दूर
निकल चुकी
होगी, अब
तुम खोजना भी
चाहो तो खोज न
सकोगे, सो
मैं रिपोर्ट
कराने आया हूं।
तो
उसने कहा, ठीक
है। रिपोर्ट
लिखनी शुरू की।
उसने कहा कि
लंबाई? मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, ऐसे
कठिन सवाल न
पूछो। अब अपनी
पत्नी को क्या
कोई नापता है?
अब लंबाई? अरे, यही
रही होगी मझोल
कद की! न बहुत
लंबी, न
बहुत ठिगनी।
कोई खास बात
जिससे उसको पहचाना
जा सके? नसरुद्दीन
सिर खुजलाने
लगा, उसने
कहा, खास
बात? आवाज
बुलंद है।
दहाड़ दे, एकदम
छाती कैप जाती
है।
इन्स्पेक्टर
ने कहा, कुछ
और बताओ, आवाज
का क्या, बोले
न बोले। दहाड़े
न दहाड़े! कुछ
ऐसा चिंह बताओ।
नसरुद्दीन ने
बहुत सोचा, कि नहीं कुछ
खयाल में नहीं
आता। मोटी है
कि दुबली? उसने
कहा, बस
यही समझो बीच
में। ऐसे
टालमटूल करता
रहा। और कहा
कि और भी एक
दुख की बात है
कि मेरे कुत्ते
को भी साथ ले
गयी। तो उसने
कहा ठीक, कुत्ते
की रिपोर्ट
लिखवा दो। तो
वह बस फौरन
लिखवाने लगा—
अलसेसियन
कुत्ता, इतने
फीट लंबा, इतने
फीट ऊंचा, काला
रंग, एक
कान सफेद एक—एक
ब्यौरा देने
लगा।
इन्स्पेक्टर
ने कहा, तुम
कुत्ते का
ब्यौरा तो यूं
दे रहे हो, और
पत्नी के
संबंध में
कहते थे बस
समझ लो, मान
लो।
कुत्ते
में लोगों को
ज्यादा
उत्सुकता है
अपने।
पतिदेव
को,
पूछो किसी
पत्नी से, कब
से नहीं देखा?
कौन देखता है!
फुर्सत किसको
है! लडाई—झगड़े
से समय मिले
तब!
इस
देश में तो बस
एक नाता है।
और तुम्हारे
लुच्चे—लफंगे
भी एक ही
दृष्टि से
स्त्री को
देखते हैं और
वह है. यौन
साधन। और
तुम्हारे ऋषि—मुनि
भी एक ही
दृष्टि से
देखते हैं और
वह है : यौन
साधन। दोनों
का इस संबंध
में जरा भी
मतभेद नहीं।
मेरे
लिए तो दोनों
में कुछ भेद
नहीं, इसीलिए
क्योंकि
दोनों की
दृष्टि समान
है। समदृष्टि
हैं इस संबंध
में दोनों।
लुच्चे—लफंगों
की भी दृष्टि
यही है कि
स्त्री का
उपयोग कर लेना
है, शोषण
कर लेना है, शरीर है और
कुछ भी नहीं।
और तुम्हारे
ऋषि—मुनियों की
भी दृष्टि यही
है कि भागों, स्त्री से
भागो, क्योंकि
स्त्री
कामवासना है,
शरीर है, आकर्षित कर
लेगी, तुम
कहीं अपना वश
न खो बैठो, इसलिए
अवसर से दूर
रहो, बचे
बचे रहो। जिस
स्थान पर
स्त्री बैठी
हो उस स्थान
पर दस मिनिट
तक मत बैठना।
क्यों?
मैं
एक
ब्रह्मचारी जी
के साथ यात्रा
कर रहा था।
ट्रेन में हम
सवार हुए, हम
प्रविष्ट हुए,
हमसे पहले
कुछ यात्री
नीचे उतरे, जिस जगह पर
हम बैठे वहां
दो महिलाएं
बैठी थीं, मैं
तो बैठ गया, वह खड़े रहे।
मैंने पूछा, आप बैठेंगे
नहीं? उन्होंने
कहा, दस
मिनिट बाद।
मैंने कहा, मतलब? उन्होंने
कहा, जिस
स्थान पर
स्त्री बैठी
रही हो, दस
मिनिट तक नहीं
बैठना चाहिए।
क्योंकि उस
स्थान पर
स्त्री की
ऊर्जा के अणु छूट
जाते हैं।
इन
मूढ़ों ने इस
देश की मनोदशा
को बनाया है।
उस स्थान पर
नहीं बैठेंगे
जहां स्त्री
बैठी रही है।
मगर
दोनों की नजर
एक कि स्त्री
केवल कामवासना
का एक साधन है।
इसलिए
इस देश में, स्वभाव,
मैत्री तो
असंभव है।
मैत्री थोड़ी
आध्यात्मिक
बात है। थोड़े
ऊंचे तल की
बात है। तुम
कल्पना ही
नहीं कर सकते
कि एक स्त्री
और पुरुष में
मैत्री है। कि
एक स्त्री और
पुरुष घंटों
बैठकर
दर्शनशास्त्र
पर या
काव्यशास्त्र
पर विचार
विमर्श करते
हैं। तुम
कहोगे, अरे,
सब बकवास है,
यह दिखावा
होगा, दरवाजे
बंद करके कुछ
और ही लीला
चलती होगी! दिखाने
के लिए
दर्शनशास्त्र,
काव्यशास्त्र!
यह धोखा किसी
और को देना।
दरवाजा बंद कि
सब
काव्यशास्त्र
गया एक तरफ, फिर एक ही
शास्त्र बचता
है—
शरीरशास्त्र।
फिर एक दूसरे
के
शरीरशास्त्र
का अध्ययन
करते होंगे।
यहां
कोई भरोसा ही
नहीं कर सकता
हि एक मैत्री हो
सकती है जिसका
तल शरीर न हो।
इस देश की
संस्कृति अभी
भी बहुत भौतिक
है। तुम लाख
कहो
आध्यात्मिक
है,
मैं नहीं
मानूंगा।
मुझे कहीं
अध्यात्म
दिखायी नहीं
पड़ता। बातचीत
अध्यात्म की
जरूर है।
अब
ये श्री
प्रमुखजी
स्वामी महराज, इनको
तुम
आध्यत्मिक
कहोगे? एक
तरफ तो कहते
हैं कि सबके
भीतर
परमात्मा का वास
है, सब में
ब्रह्म ही
समाया हुआ है—
सिर्फ
स्त्रियों को
छोड्कर।
ब्रह्म भी
स्त्रियों से
डरा हुआ है! हद
हो गयी! ब्रह्म
की क्या दशा होती
होगी जब
स्त्रियों का
सामना हो जाता
होगा? जब
कयामत की रात
आएगी, और
सभी का सामना
करना पड़ेगा
ईश्वर को—
उसमें
स्त्रियां भी
होंगी— उस
वक्त उसकी
क्या हालत
होगी? और
अगर ब्रह्म
सभी में समाया
हुआ है, वृक्षों
में भी ब्रह्म,
पत्थरों
में भी
ब्रह्म...।
एक
सूफी फकीर को
मेरे पास लाया
गया। उसके शिष्यों
ने कहा कि ये बहुत
अदभूत सिद्धपूरुष
हैं,
इनको हर चीज
में ब्रह्म
दिखायी पड़ता
है। उनको
वृक्ष के पास
ले जाओ, वे
वृक्ष के पास
खड़े हो जाते
हैं एकदम हाथ
फैलाकर और
कहते हैं— अहह!
क्या प्यारा
परमात्मा है!
चांद—तारे
देखकर खड़े हो
जाते हैं हाथ
फैलाकर। और
उनके भक्त तो
एकदम गदगद हो
जाते हैं। मगर
स्त्री से
डरते वे।
मैंने कहा कि
तुम्हें
पत्थर में भी
दिखायी पड
जाता है
परमात्मा
स्त्री भर में
तुम्हें नहीं
दिखायी पड़ता?
माजरा क्या
है? ऐसा
कैसा
परमात्मा है।
पत्थर में दिख
जाता है, तुम्हारी
आख इतनी गहरी,
स्त्री में
नहीं देख
पाते!
तुम्हारी ही
जैसी हड्डी
मांस मज्जा है,
उसमें नहीं
देख पाते? पुरुषों
में दिख जाता
है, स्त्री
में नहीं
दिखता? स्त्री
से यूं क्यूं
घबड़ाते हो? इतना क्या
भय है?
यह
जबर्दस्ती है।
यह अपने को
सिर्फ छिपा
रखना है। यह
दमन है।
एक
पागल रोगी बार
बार तालियां
बजाता रहता था।
एक मानसिक
चिकित्सक ने
उसे इस प्रकार
की हरकत करने
का कारण पूछा।
पागल बोला, तालियां
बजाने से शेर
पास नहीं आते।
इस पर
चिकित्सक
बोला, लेकिन
यहां तो कोई
शेर है भी
नहीं। पागल ने
कहा, देख
लिया आपने
मेरी तालियों
का असर! अरे, आ कैसे सकते
हैं शेर यहां,
जब तक मैं
हूं कभी शेर
नहीं आ सकते!
तालियों में
वह असर है।
ये
भगोड़े सोचते
हैं बह्मचर्य
को उपलब्ध हो
गये! ये सोचते
हैं भगोड़ेपन
का असर है! ये
सोचते हैं
पलायन का असर
है! स्त्रियों
को न देखने से
ये ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
गये! ये अपने
को धोखा दे
रहे हैं और
दुनिया को
धोखा दे रहे हैं।
लेकिन इस
धोखाधड़ी की
बात हमारे खून
में समाविष्ट
हो गयी है। इस
देश को इस
भौतिकता से
मुक्त करना है, इस
पाखंड से
मुक्त करना है।
और इस पाखंड
से मुक्त करने
के लिए जरूरी
है कि स्त्री—पुरुष
के बीच ज्यादा
नैसर्गिक संबंध
स्थापित हों,
ज्यादा
प्रीतिकार
संबंध
स्थापित हों,
ज्यादा
मैत्रीपूर्ण
संबंध
स्थापित हो।
सिर्फ एक ही
दिशा न रह जाए
संबंधों की, एक ही आयाम न
रह जाए
संबंधों का।
अनेक आयामों
में संबंध
स्थापित हों।
तुम्हें
अपनी पत्नी से
इसलिए एतराज
नहीं होना
चाहिए कि वह
संगीत में
किसी और के
साथ उसकी
मैत्री है। अब
तुम कोई
संगीतज्ञ
नहीं हो। और
उसकी संगीत
में रुचि है।
और तुम संगीत
की हत्या करने
के हकदार भी
नहीं हो। तुम
किसी की आत्मा
को मारने के
हकदार नहीं हो।
पुणे
में मुझे अति
प्रेम
करनेवाली एक
महिला है। आ
नहीं सकती
यहां सुनने।
क्योंकि
पतिदेव का
कहना यह है कि
जब मैं मौजूद
हूं तू मुझसे
पूछ क्या
पूछना है। अब
उनकी पत्नी
मुझे कहती थी
कि जब मैं
बम्बई था तब
वह किसी तरह
उपाय निकाल
लेती, बम्बई
में उसकी
लड़कियां हैं,
तो बम्बई
जाने का बहाना
खोज लेती थी।
अब यहां जब आ
गया पुणे तो
बडी मुश्किल
खड़ी हो गयी, क्योंकि
यहां आश्रम
आने का उपाय
निकालना बहुत
मुश्किल
मामला है।
बम्बई में तो
लडकियों से
मिलने के
बहाने जाती और
मुझे मिल आती
थी। उसने मुझे
कहा कि इस भड़
प्ले से और
मैं क्या प्रश्न
पूछूं! इसको
खाक कुछ आता
है!
मगर
यह पतिदेव हैं, कहते
हैं, मुझसे
पूछो। तुझे
ब्रह्मचर्चा
करनी है, मैं
तो मौजूद हूं।
अरे, मैं
मर गया क्या!
कहीं सत्संग
करने की कोई
जरूरत नहीं।
जब मैं तुझे
जवाब न दे
सकूं, जब
तू कहीं जाना।
तो मैंने कहा
कि कुछ सत्संग
किया कर। उसने
कहा, क्या
खाक सत्संग
करना उनसे!
सत्संग नहीं
होता, मारपीट
हो जाए। आपकी
किताबें
उठाकर फेंक
देते हैं
खिड़की के बाहर।
आपकी तस्वीर
निकाल कर फेंक
दिये, कि
मेरे रहते इस
घर में किसी
और की तस्वीर
नहीं रह सकती।
मैं हूं तेरा
पति कि वे। अब
सवाल यह है कि
तस्वीर दो
कैसे रह सकती
हैं एक घर में!
पति कौन है
तेरा? पति
तो आप ही हैं।
तो फिर ये
तस्वीर अलग
करो।
मैंने
उससे पूछा कि
फिर वे
किताबें तू
उठा लाती है? बोली
कि मुझे लानी
नहीं पडती, वे खुद ही डर
के मारे उठा
लाते हैं बाद
में। और मैंने
उनको एकांत
में तस्वीर से
और किताब से
क्षमा भी
मांगते देखा
है, क्योंकि
डरते भी वे
हैं, कि
पता नहीं कोई
पाप हो जाए, कोई अपराध
हो जाए। तो
मेरे सामने तो
बड़ी अकड़
बताते हैं। अब
इनसे मैं क्या
पूछूं, खाक!
ये किताब को
सिर से लगाते
हैं, आपकी
तस्वीर से
माफी मांगते
हैं, मेरे
सामने अकड़
बताते हैं। और
इनके साथ
सत्संग करने
की बात ही
उठती है तो आग
लग जाती है
मुझे कि इनसे
क्या सत्संग
करना! इन्हें
पता क्या है!
मैंने
कहा,
तू कभी उनसे
पूछ तो, अखिर
बेचारे कहते
है, शायद
पता हो। तो
उसने कहा, कुछ
भी पता नहीं
है, मैंने
उनसे कहा, अच्छा,
ध्यान करना
बताओ, तो
बस वे आख बंद
कर के बैठ गये
कहा इस तरह आख
बंद कर के बैठ
गये। मैंने
कहा, फिर क्या
करना? बोले,
फिर कुछ
करने की जरूरत
नहीं है। और
ध्यान
उन्होंने कभी
नहीं किया, इनके बाप
दादो ने नहीं
किया ध्यान, इनको मैंने
कभी ध्यान
करते देखा
नहीं, बस
रुपये गिनने
में इनकी
जिंदगी बीतती
है, वही
इनका ध्यान है।
धन इनका ध्यान
है। ठेकेदारी
का धंधा करते
हैं। और शराब
इनकी
प्रार्थना है।
वे
देश के बाहर
जाते हैं काम
से,
तो बेचारों
को पत्नी को
ले जाना पड़ता
है, क्योंकि
पत्नी कहीं
यहां सत्संग
करने न चली आए।
तो मैंने कहा,
चल तुझे यह
तो फायदा हुआ।
देख सत्संग का
कुछ न कुछ
फायदा तो हुआ,
कि अब तू
विदेश
यात्राएं
करने लगी।
उसने कहा, लेकिन
मुझे विदेश
यात्राएं
करनी नहीं।
इनके साथ जी
भर गया है। ये
जबर्दस्ती
मुझे साथ ले
जाते हैं
सिर्फ इस डर
से कि कहीं
मैं यहां
सत्संग करने न
चली जाऊं। इनको
इस बात की एक कठिनाई
बनी रहती है
कि मेरे से ऊपर
किसी व्यक्ति
को कभी स्वीकार
नहीं करना।
अब
यह हमारे जीवन
की बड़ी दयनीय
अवस्था है। हमें
जीवन के सब आयाम
स्वीकार करने
चाहिए। संगीत सीखने
जाना हो तो संगीतज्ञ
के पास जाना होगा।
सत्संग करना
हो तो किसी संत
के पास करना होगा।
गणित सीखना हो
तो किसी गणितज्ञ
से सीखना होगा।
परमात्मा की गंध
पानी हो तो उसके
पास बैठना होगा
जिसे परमात्मा
मिला हो। और इसका
यह अर्थ नहीं है
कि इससे पति को
कुछ विरोध है।
या पत्नी का कुछ
विरोध है। पति—पत्नी
का एक नाता है।
वह एक आयाम है।
सभी आयाम उसमें
तृप्त नहीं हो
सकते। यह असंभव
है कि तुम ही एक
व्यक्ति में
सब कुछ पा ले। शायद
कभी मिल जाए। किसी
को तो सौभाग्य
की बात है। नहीं
तो यह असंभव है।
कैसे यह संभव हो
सकता है।
इसलिए
मैत्री की जगह
तो बनानी ही चाहिए।
और हमें मित्रता
को स्वीकार करने
का साहस जुटाना
चाहिए। लेकिन हम
भयभीत लोग है, डरे
हुए लोग है, कामी लोग है।
स्वभाव
इस तरह के मित्रों
के कारण चिंता
मत लेना। वे धीरे—धीरे
अपने आप चले जायेगें।
जाना ही पड़ेगा
उन्हें। या तो
बदलना पड़ेगा या
जाना पड़ेगा। मेरे
साथ ज्यादा देर
कैसे रूक सकते
हो। मैं उनको देखता
हूं तो हैरान होता
हूं कि वे क्यों
रूके है? कोई कारण
नहीं दिखाई पड़ता
उनके रूकने का।
वे आनंदित भी नहीं
है। आनंदित हो
नहीं सकते। क्योंकि
मुझमें पूरे डूबे
नहीं है। और जा
भी नहीं सकते।
बस, कारण मुझे
यूं लगता है कि
जाये कहां?
और कहीं भी जाये
तो काम करना पड़ेगा।
श्रम करना पड़ेगा, मेहनत करनी पड़ेगी।
एक आलस्य है।
चलो, अब यहीं
टिके रहो। मगर
मैं धीरे—धीरे
इस तरह के लोगों
को दूर हटाए जा
रहा हूं। मेरे
साथ होना है तो
मेरे साथ होना
ही होगा पूरी तरह।
अधूरे—अधूरे मेरे
साथ होने का कोई
उपाय नहीं है।
(साहेब
मिले साहेग भये।)
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