सुत्र—
82—अनुभव
करो: मेरा
विचार, मैं—पन,
आंतरिक
इंद्रियां—मुझ।
83—कामना
के पहले और
जानने के पहले
मैं कैसे कह
सकता हूं,
कि मैं हूं? विमर्श
करो। सौंदर्य
में विलीन हो
जाओ।
एक बार किसी
छोटे शहर में
एक आगंतुक ने
अनेक लोगों से
वहां के नगर—प्रमुख
के संबंध में
पूछताछ की : 'आपका
महापौर कैसा
आदमी है?'
पुरोहित
ने कहा : 'वह किसी काम
का नहीं है।’
पेट्रोल—डिपो
के मिस्त्री
ने कहा. 'वह बिलकुल
निकम्मा आदमी
है।’
नाई ने
कहा. 'मैंने
अपने जीवन में
उस दुष्ट को
कभी वोट नहीं
दिया।’
तब वह
आगंतुक खुद
महापौर से
मिला, जो
कि बहुत बदनाम
व्यक्ति था, और उसने
उससे पूछा : 'आपको अपने
काम के लिए
क्या तनख्वाह
मिलती है?'
महापौर
ने कहा: 'भगवान का
नाम लो! मैं
इसके लिए कोई
तनख्वाह नहीं
लेता; मैंने
तो बस पद की
खातिर यह काम
स्वीकार किया है।’
यही
अहंकार की
स्थिति है!
तुम्हारे
सिवाय कोई और
तुम्हारे
अहंकार की
चिंता नहीं
लेता है।
अकेले तुम
सोचते हो कि
तुम्हारा
अहंकार सिंहासन
पर बैठा है; दूसरों
के लिए ऐसी
बात नहीं है।
तुम्हारे
सिवाय कोई और
तुम्हारे
अहंकार से सहमत
नहीं है; दूसरे
सब उसके विरोध
में हैं।
लेकिन तुम एक
सपने में खोए
रहते हो, एक
भांति में जीए
जाते हो। तुम
अपनी एक
प्रतिमा बना
लेते हो। तुम
उस प्रतिमा को
पोषण देते हो;
तुम उस
प्रतिमा की
सुरक्षा करते
हो। और तुम
सोचते हो कि
सारा संसार
तुम्हारे
अहंकार के लिए
ही है।
यह
विक्षिप्तता
है; यह
पागलपन है। यह
सत्य नहीं है।
संसार
तुम्हारे लिए
नहीं है। किसी
को तुम्हारे
अहंकार से कुछ
लेना—देना
नहीं है—किसी
को भी नहीं।
तुम हो या
नहीं हो, इससे
भी कुछ फर्क
नहीं पड़ता है।
तुम एक लहर भर
हो। लहर आती
है, चली
जाती है; सागर
कोई फिक्र
नहीं करता है।
लेकिन
तुम अपने को
बहुत
महत्वपूर्ण
मानते हो। जो
लोग अपने
अहंकार को
विसर्जित
करना चाहते हैं
उन्हें सबसे
पहले इस तथ्य
को स्वीकार
करना है। और
जब तक तुम
अपने अहंकार
के ढांचे को
अलग नहीं कर
देते हो, तुम सत्य को
नहीं देख
पाओगे।
क्योंकि तुम
जो कुछ भी
देखते हो, तुम
जो कुछ भी
समझते हो, अहंकार
उसे विकृत कर
देता है।
अहंकार सबका
उपयोग अपने
लिए करने की
चेष्टा करता
है। और उसके
लिए में कुछ
भी नहीं है, क्योंकि
सत्य उस किसी
चीज का समर्थन
नहीं कर सकता
जो असत्य है, जो झूठ है।
स्मरण
रहे, सत्य
किसी ऐसी चीज
का समर्थन
नहीं कर सकता
जो नहीं है।
और तुम्हारा
अहंकार सबसे
असंभव चीज है;
वह सबसे बड़ा
झूठ है। वह
वस्तुत: है
नहीं; वह
तुम्हारी
निर्मिति है—तुम्हारी
कल्पना की
निर्मिति है।
सत्य उसे कोई
सहारा नहीं दे
सकता; सत्य
तो उसे निरंतर
तोड़ता है, चकनाचूर
करता है, मिटाता
है। जब भी
तुम्हारा
अहंकार सत्य
के संपर्क में
आता है, सत्य
उसे बहुत
भयभीत करता है,
उसे भारी
आघात
पहुंचाता है।
इन
आघातों से
अपनी सुरक्षा
करने के लिए, जो कि सतत
आ रहे हैं, निरंतर
आ रहे हैं, तुम
धीरे— धीरे
सत्य को देखने
से बचते हो।
अपने अहंकार
को खोने की
बजाय तुम सत्य
को देखने से
बचते हो। और
फिर तुम अपने
अहंकार के
चारों ओर एक
झूठा संसार
निर्मित करते
हो और सोचते
हो कि यही
सत्य है। तब
तुम अपनी ही
बनाई दुनिया
में जीने लगते
हो। तुम्हारा
यथार्थ जगत के
साथ संपर्क
टूट जाता है, तुम उसके
संपर्क में
नहीं आते, क्योंकि
तुम भयभीत हो।
तुम अपने
अहंकार के
कांच के घर
में रहते हो।
और भय है कि
अगर तुम सत्य
के संपर्क में
आओगे, तुम्हारा
अहंकार मिट
सकता है, इससे
अच्छा है कि
सत्य के
संपर्क से ही
दूर रहा जाए। इस
असंभव अहंकार
को बचाने के
लिए, उसकी
रक्षा के लिए
हम सत्य से
बचते रहते हैं,
भागते रहते
हैं।
लेकिन
मैं क्यों
कहता हूं कि
अहंकार असंभव
चीज है? मैं क्यों
कहता हूं कि
अहंकार असत्य
है? इस बात
को ठीक से
समझने की
कोशिश करो।
सत्य एक ही है।
सत्य अखंड है,
समग्र है।
तुम अकेले
नहीं रह सकते;
या रह सकते
हो? अगर
वृक्ष न हों
तो तुम नहीं
हो सकोगे।
वृक्ष ही
तुम्हारे लिए
आक्सीजन पैदा
कर रहे हैं।
अगर हवा न हो
तो तुम मर
जाओगे।
क्योंकि हवा
ही तुम्हें
प्राण देती है,
जीवन देती
है। अगर सूर्य
ठंडा हो जाए
तो तुम यहां
नहीं होगे।
क्योंकि उसका
ताप, उसकी
किरणें ही
तुम्हारा
जीवन हैं।
जीवन
एक जागतिक
समग्रता की
भांति है। तुम
अकेले नहीं हो; तुम
अकेले नहीं
जीवित रह सकते
हो। तुम एक
अखंड जगत में
जीते हो। तुम
कोई अलग— थलग, आणविक जीवन
नहीं जीते हो,
तुम जागतिक
संपूर्णता
में उसकी एक
लहर की भांति
हो। तुम उससे
जुड़े हुए हो, संयुक्त हो।
यहां सब कुछ
एक—दूसरे से
जुडा है, संबंधित
है।
लेकिन
अहंकार
तुम्हें यह
भाव देता है
कि तुम व्यक्ति
हो, अकेले
हो, पृथक
हो, अलग हो।
अहंकार
तुम्हें यह
भाव देता है
कि तुम एक द्वीप
हो। लेकिन तुम
अलग नहीं हो, तुम द्वीप
नहीं हो। इसीलिए
अहंकार झूठ है,
असत्य है।
और यही कारण
है कि सत्य
उसका समर्थन
नहीं कर सकता
है।
तो दो
ही रास्ते हैं।
अगर तुम सत्य
के संपर्क में
आते हो, अगर तुम
उसके प्रति
खुलते हो, तो
तुम्हारा
अहंकार
विसर्जित हो
जाएगा—या फिर
तुम्हें अपना
ही स्वप्न—संसार
निर्मित करना
है और उसी में
जीना है। और
तुमने वह
संसार
निर्मित कर
लिया है।
प्रत्येक
आदमी अपने ही
सपनों की
दुनिया में जीता
है।
लोग
मेरे पास आते
हैं और मैं
उन्हें देखता
हूं और मैं
देखता हूं कि
वे नींद में
हैं, वे
सपने देख रहे
हैं। और उनकी
समस्याएं
उनके सपनों से
निकली हैं और
वे उन्हें हल
करना चाहते
हैं। वे
समस्याएं हल
नहीं हो सकती
हैं, क्योंकि
वे यथार्थ
नहीं हैं, असली
नहीं हैं। तुम
झूठी
समस्याओं का
समाधान कैसे
कर सकते हो? अगर असली
समस्या हो तो
उसका समाधान हो
सकता है।
लेकिन वह है
ही नहीं; इसलिए
उसका समाधान
नहीं हो सकता
है, जो समस्या
ही झूठी है वह
हल कैसे हो
सकती है? वह
झूठे समाधान
से ही हल हो
सकती है।
लेकिन वह झूठा
समाधान दूसरी
समस्याएं
पैदा कर देगा,
जो कि फिर
झूठी होंगी।
और तब तुम एक
भूलभुलैया
में पड़ जाओगे,
जिसका कोई
अंत नहीं है।
अगर
तुम सत्य को
जानना चाहते
हो—और सत्य को
जानना
परमात्मा को
जानना है।
परमात्मा
कहीं आसमान
में नहीं छिपा
है, वह
जो तुम्हारे
चारों ओर
यथार्थ है, सत्य है, वही
परमात्मा है।
परमात्मा
नहीं छिपा है;
तुम असत्य
में छिपे हो।
परमात्मा तो
निकटतम
प्रत्यक्ष
उपस्थिति है।
लेकिन तुम
अपने झूठे
संसार के कैप्सूल
में बंद हो और
उसकी रक्षा
करते रहते हो।
और उस झूठे
संसार का
केंद्र
अहंकार है।
अहंकार
असत्य है, झूठ है, क्योंकि तुम
पृथक नहीं हो,
तुम सत्य के
साथ एक हो।
तुम सत्य के
अंग हो; तुम
उससे अलग नहीं
हो सकते। तुम
उससे अलग होकर
एक क्षण के
लिए भी जीवित
नहीं रह सकते
हो। तुम अपनी
प्रत्येक
श्वास के
द्वारा पूरे
जगत से जुड़े हो।
तुम एक जीवंत
स्पंदन हो, धड़कन हो, तुम
कोई मृत इकाई
नहीं हो। और
वह जीवंत
स्पंदन सत्य
के साथ गहन
लयबद्धता में
है।
लेकिन
तुम उस स्पंदन
को भूल गए हो।
और तुमने एक
मृत अहंकार, एक मृत
धारणा कि मैं
हूं निर्मित
कर ली है। और
यह मैं हूं की
धारणा सदा
समष्टि के
विरोध में है;
वह सदा अपना
बचाव करती
रहती है, संघर्ष
और सुरक्षा
करती रहती है।
इसीलिए सभी
धर्म अहंकार
के विसर्जन पर
इतना जोर देते
हैं।
पहली
बात कि अहंकार
झूठ है और
इसीलिए वह
विसर्जित हो
सकता है।
लेकिन जो भी
सत्य है वह नहीं
विसर्जित हो
सकता है। जो
सत्य हो तुम
उसे कैसे मिटा
सकते हो? अगर कोई चीज
है, सच है, तो वह नहीं
मिटाई जा सकती;
वह रहेगी।
चाहे तुम कुछ
भी करो, वह
रहेगी। केवल
झूठी चीजें
मिटाई जा सकती
हैं। वे विलीन
हो सकती हैं, वे शून्य
में खो सकती
हैं।
तुम्हारा
अहंकार विलीन
हो सकता है; क्योंकि वह
झूठ है। वह
मात्र एक
विचार है, एक
खयाल है।
उसमें कोई सार
नहीं है।
दूसरी
बात कि तुम इस
अहंकार को
चौबीस घंटे
सतत नहीं कायम
रख सकते हो।
वह इतना झूठ
है कि तुम्हें
उसे निरंतर
ईंधन देना
पड़ता है, भोजन देना
पड़ता है। जब
तुम नींद में
होते हो तो
अहंकार नहीं
होता है; यही
वजह है कि तुम
सुबह नींद से
उठकर इतना ताजा
अनुभव करते हो।
क्योंकि नींद
में तुम सत्य
के गहन संपर्क
में होते हो।
सत्य ने
तुम्हें
पुनजीवित कर
दिया है, नवजीवित
कर दिया है।
गहरी
नींद में
तुम्हारा
अहंकार नहीं
है। तुम्हारा
नाम, तुम्हारा
रूप, सब
विलीन हो गया
है। तुम नहीं
जानते कि मैं
कौन हूं—शिक्षित
या अशिक्षित,
गरीब या
अमीर, पापी
या
पुण्यात्मा।
तुम कुछ नहीं
जानते हो।
गहरी नींद में
तुम जागतिक
समष्टि में
लौट जाते हो; वहां अहंकार
नहीं है। सुबह
तुम ओजस्वी, ताजा युवा
अनुभव करते हो।
किसी गहरे स्त्रोत
से ऊर्जा
तुम्हारे पास
आ गई है; तुम
पुनरुज्जीवित
हो गए।
लेकिन
रात में यदि
तुमने सपने
देखे हों तो
सुबह तुम थके
हुए होगे।
क्योंकि
सपनों में अंहकार
बना रहता है; सपनों
में अंहकार
रहता। तो वह
तुम्हें
बुनियादी स्त्रोत
से मिलने नहीं
देता है। सुबह
तुम थके— थके
महसूस करोगे।
गहरी
नींद में
अहंकार नहीं
रहता है। जब
तुम गहरे
प्रेम में
होते हो, अहंकार नहीं
रहता है। जब
तुम शिथिल
होते हो, विश्रामपूर्ण
और मौन होते
हो, अहंकार
नहीं रहता है।
जब तुम किसी
चीज में इतनी
समग्रता से
डूब जाते हो
कि भूल ही
जाते हो कि
मैं हूं तब
अहंकार नहीं
होता है।
संगीत सुनते
हुए जब तुम
अपने को भूल
जाते हो, अहंकार
नहीं होता है।
और सचाई यह है
कि उस समय
तुम्हें जो शांति
अनुभव होती है
वह संगीत से
नहीं आती है, वह अहंकार
के मूलने से
आती है। संगीत
तो बहाना है।
सुंदर
सूर्योदय या
सूर्यास्त
देखते हुए तुम
अपने को भूल
जाते हो, तुम्हें
अचानक अहसास
होता है कि
कुछ घटित हुआ है।
तुम वहा नहीं
हो; कोई
विराट वहां
उपस्थित है।
इस विराट की
उपस्थिति को
जीसस
परमात्मा
कहते हैं। यह
शब्द केवल
प्रतीक है।
मोहम्मद भी
उसे परमात्मा
कहते हैं।
शब्द तो
प्रतीक मात्र
है। परमात्मा
का मतलब है : वह
जो विराट है—वह
क्षण जब
तुम्हें भाव
होता है कि
कुछ विराट घटित
हो रहा है। और
यह अनुभव तभी
हो सकता है जब
तुम नहीं हो।
जब तुम हो, विराट
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
तुम ही बाधा
हो।
किसी
भी क्षण में, जब तुम
अनुपस्थित हो,
परमात्मा
उपस्थित होता
है। तुम्हारी
अनुपस्थिति
भगवत्ता की
उपस्थिति है।
इसे सदा स्मरण
रखो कि
तुम्हारी
अनुपस्थिति भगवत्ता
की उपस्थिति
है, और
तुम्हारी
उपस्थिति
भगवत्ता की
अनुपस्थिति
है।
इसलिए
प्रश्न यह
नहीं है कि
परमात्मा को
कैसे उपलब्ध
हुआ जाए, परमात्मा को
कैसे पाया जाए;
प्रश्न यह
है कि कैसे
अनुपस्थित
हुआ जाए। तुम
परमात्मा की
फिक्र मत करो;
तुम उसे
बिलकुल भूल जा
सकते हो।
परमात्मा
शब्द को भी
स्मरण रखने की
जरूरत नहीं है—यह
अप्रासंगिक
है। क्योंकि
बुनियादी बात
परमात्मा
नहीं है, बुनियादी
बात तुम्हारा
अहंकार है।
अगर अहंकार
नहीं है तो
परमात्मा
घटित होता है।
और अगर तुम
चेष्टा करते
हो, अगर
तुम परमात्मा
को पाने का
प्रयत्न करते
हो, अगर
तुम मोक्ष को
उपलब्ध होने
का प्रयत्न
करते हो, तो
तुम चूक सकते
हो। क्योंकि
संभव है कि यह
सारा प्रयत्न
अहंकार—केंद्रित
हो।
आध्यात्मिक
जगत के साधक
की समस्या यही
है। संभव है, यह
तुम्हारा
अहंकार ही हो
जो परमात्मा
को पाने की
सोचता हो। तुम
अपनी
सांसारिक
सफलताओं से
संतुष्ट नहीं हो।
बाहरी संसार
में भी
तुम्हारी
उपलब्धिया
हैं—पद है, प्रतिष्ठा
है, सम्मान
है। तुम
शक्तिशाली हो,
धनवान हो, ज्ञानवान हो,
सम्मानित
हो। लेकिन
तुम्हारा अहंकार
तृप्त नहीं है।
अहंकार कभी भी
तृप्त नहीं
होता है। और
कारण क्या है?
कारण यही है
कि अहंकार एक
झूठ है। सच्ची
भूख तृप्त हो
सकती है, झूठी
भूख नहीं।
अहंकार की भूख
झूठी है, वह
तृप्त नहीं हो
सकती। तुम जो
भी करोगे, वह
व्यर्थ होगा।
क्योंकि
अहंकार झूठ है,
इसलिए कोई
भी भोजन उसे
तृप्त नहीं कर
सकता। भूख अगर
सच्ची हो तो
ही वह तृप्त
हो सकती है।
स्वाभाविक
भूख तृप्त हो
सकती है, वह कतई कोई
समस्या नहीं
है। लेकिन अस्वाभाविक
भूख कभी तृप्त
नहीं हो सकती
है। पहली तो
बात कि वह भूख
ही नहीं है; तो तुम उसे
कैसे तृप्त कर
सकते हो? वह
झूठी भूख है; वहां बस एक
रिक्तता का
भाव है। तुम उसमें
भोजन डालते
रहते हो, वह
भोजन तुम एक
खड्ड में, अतल
खड्ड में डाल
रहे हो। तुम
कहीं नहीं
पहुंच सकते, अहंकार को
तृप्त करना
असंभव है।
मैंने
सुना है कि जब
सिकंदर भारत आ
रहा था तब किसी
ने उससे कहा : 'क्या
तुमने कभी इस
बात पर ध्यान
दिया है कि एक
ही दुनिया है,
और अगर तुम
उसे जीत लोगे
तो फिर क्या
करोगे?' और
कहा जाता है
कि यह बात
सुनते ही
सिकंदर बहुत
उदास और दुखी
हो गया। उसने
कहा 'मैंने
इस बात पर कभी
गौर नहीं किया,
लेकिन यह
बात मुझे बहुत
दुखी किए दे
रही है। यह सच
है कि एक ही
दुनिया है और
मैं उसे जीत
लूंगा। लेकिन
फिर मैं क्या
करूंगा?'
यह
सारा संसार भी
तुम्हारी
प्यास नहीं
बुझा सकता है, क्योंकि
प्यास झूठी है,
नकली है।
भूख
स्वाभाविक
नहीं है।
अहंकार
ईश्वर की खोज
पर भी निकल
सकता है। मेरा
खयाल है कि सौ
में से
निन्यानबे
मामलों में
अहंकार ही खोज
पर निकलता है।
और तब यह खोज
आरंभ से ही
निष्फल होने
को बाध्य है।
क्योंकि
अहंकार ईश्वर
को नहीं पा
सकता है। और
अहंकार ही उसे
पाने के सब
उपाय कर रहा
है। तो स्मरण
रहे, तुम्हारा
ध्यान, तुम्हारी
प्रार्थना, तुम्हारी
पूजा अहंकार
की यात्रा न
हो। अगर वह
अहंकार की
यात्रा है तो
तुम नाहक अपनी
शक्ति गंवा
रहे हो। तो
इसके प्रति
भलीभांति
बोधपूर्ण होओ।
और यह
सिर्फ बोध का
सवाल है। अगर
तुम बोधपूर्ण
हो तो तुम देख
सकते हो कि तुम्हारा
अहंकार कैसे
गति करता है, कैसे काम
करता है। यह
कठिन नहीं है;
इसके लिए
किसी खास प्रशिक्षण
की जरूरत नहीं
है। तुम आंख
बंद करके देख
सकते हो कि
तुम्हारी आकांक्षा
क्या है। तुम
अपने से पूछ
सकते हो कि
क्या मैं सच
ही भगवत्ता को
खोज रहा हूं
या यह भी
अहंकार की ही
एक यात्रा है—क्योंकि
यह सम्मानजनक
है; क्योंकि
लोग सोचते हैं
कि तुम
धार्मिक आदमी
हो, क्योंकि
गहरे में तुम
सोचते हो कि
जब तक मैं ईश्वर
पर भी न कब्जा
कर लूं? मैं
संतुष्ट कैसे
हो सकता हूं!
क्या
परमात्मा पर
भी तुम्हारा
अधिकार हो सकता
है, कब्जा
हो सकता है? उपनिषद कहते
हैं कि जो
कहता है कि
मैंने ईश्वर
को पा लिया, उसने नहीं
पाया है; क्योंकि
यह दावा कि
मैंने ईश्वर
को पा लिया
अहंकार का ही
दावा है।
उपनिषद कहते
हैं कि जो
दावा करता है
कि मैंने ईश्वर
को जान लिया, उसने नहीं
जाना। यह दावा
ही बताता है
कि उसने नहीं
जाना है, क्योंकि
यह दावा कि
मैंने जान
लिया, अहंकार
का दावा है।
अहंकार ही तो
एकमात्र बाधा
है। अब हम
विधियों में
प्रवेश
करेंगे।
पहली
विधि:
अनुभव
करो: मेरा
विचार मैं— पन आंतरिक
इंद्रियां—
मुझ।
यह
बहुत ही सरल
और बहुत ही
सुंदर विधि है।
'अनुभव
करो. मेरा
विचार, मैं—पन,
आंतरिक
इंद्रियां—मुझ।’
पहली
बात यह है कि
विचार नहीं
करना है, अनुभव करना
है। विचार करना
और अनुभव करना
दो भिन्न—भिन्न
आयाम हैं। और
हम बुद्धि से
इतने ग्रस्त
हो. गए हैं कि
जब हम यह भी
कहते हैं कि
हम अनुभव करते
हैं तो भी हम अनुभव
नहीं करते, सोच—विचार
ही करते है।
तुम्हारा भाव—पक्ष,
तुम्हारा
हृदय—पक्ष
बिलकुल बंद
गया, मुर्दा
हो गया है। जब
तुम कहते हो
कि 'मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं, तो भी
वह भाव नहीं
होता, विचार
ही होता है।
और भाव
और विचार में
फर्क क्या है? अगर तुम
भाव करोगे तो
तुम अपने को
हृदय के पास केंद्रित
अनुभव करोगे।
अगर मैं कहता
हूं कि
तुम्हें मैं
प्रेम करता हूं
तो मेरा यह
प्रेम का भाव
मेरे हृदय से
प्रवाहित
होगा, उसका
स्रोत कहीं
हृदय के आसपास
होगा। और अगर
वह विचार
मात्र होगा तो
वह सिर से आता
होगा। जब तुम
किसी व्यक्ति
को प्रेम करते
हो तो यह महसूस
करने की कोशिश
करो कि यह
प्रेम सिर से
आ रहा है या
हृदय से आ रहा
है।
जब भी
तुम किसी
प्रगाढ़ भाव
में होते हो
तो तुम सिर के
बिना होते हो।
उस क्षण कोई
सिर नहीं होता
है; हो
भी नहीं सकता।
तब हृदय ही
तुम्हारा
समस्त
अस्तित्व
होता है—मानो
सिर है ही
नहीं। भाव की
अवस्था में
हृदय
तुम्हारे
होने का केंद्र
होता है।
जब तुम
सोच—विचार कर
रहे होते हो
तब सिर
तुम्हारे
होने का
केंद्र होता
है। और
क्योंकि
विचार करना
जीने के लिए
बहुत उपयोगी
सिद्ध हुआ, इसलिए
हमने और सब
कुछ बंद कर
दिया। हमारे
जीवन के अन्य
सभी आयाम बंद
हो गए हैं। हम
सिर ही सिर रह
गए हैं; और
हमारे शरीर
सिर के आधार
भर हैं। हम
सोच—विचार ही
करते रहते हैं,
हम अपने
भावों के बारे
में भी विचार
ही करते रहते
हैं।
तो भाव
में उतरने की
कोशिश करो।
तुम्हें थोड़ी
मेहनत करनी
पड़ेगी; क्योंकि भाव
की क्षमता, भाव का गुण
कुंठित पड़ा है।
उस संभावना का
द्वार पुन:
खोलने के लिए
तुम्हें कुछ
करना होगा।
तुम एक
फूल को देखते
हो, और
देखते ही कहते
हो कि यह
सुंदर है।
थोड़ा रुको, जरा
प्रतीक्षा
करो। जल्दी
निर्णय मत करो;
प्रतीक्षा
करो। और फिर
देखो कि कहीं
तुमने सिर से
ही तो यह नहीं
कह दिया कि यह
सुंदर है।
क्या है तुमने
यह अनुभव किया
है? क्या
यह सिर्फ
आदतवश है? क्योंकि
तुम जानते हो
कि गुलाब
सुंदर होता है,
गुलाब को
सुंदर समझा
जाता है। लोग
कहते हैं कि
यह सुंदर है
और तुमने भी
अनेक बार कहा
है कि सुंदर
है।
जैसे
ही तुम गुलाब
को देखते हो, मन आगे आ
जाता है, मन
कहता है कि यह
सुंदर है। बात
खत्म हुई। अब
गुलाब से कोई
संपर्क नहीं
रहा। उसकी
जरूरत न रही; तुमने कह
दिया। अब तुम
अन्यत्र जा
सकते हो।
गुलाब से कोई
मिलन न हुआ; मन ने
तुम्हें
गुलाब की एक
झलक भी नहीं
मिलने दी। मन
बीच में आ गया
और हृदय गुलाब
के संपर्क में
न आ सका।
केवल
हृदय कह सकता
है कि यह
सुंदर है या
नहीं।
क्योंकि
सौंदर्य एक
भाव है, कोई विचार
नहीं। तुम
बुद्धि से
नहीं कह सकते
कि यह सुंदर
है। कैसे कह
सकते हो? सौंदर्य
कोई गणित नहीं
है; वह
गणनातीत है।
और सौंदर्य
वस्तुत: केवल
गुलाब में
नहीं है।
क्योंकि संभव
है कि किसी
अन्य के लिए
वह जरा भी
सुंदर न हो, और कोई अन्य
उसे देखे बिना
ही उसके पास
से गुजर जाए।
और यह भी संभव
है कि किसी
अन्य के लिए
गुलाब कुरूप
हो। तो सौंदर्य
केवल गुलाब
में नहीं है; सौंदर्य तो
हृदय और गुलाब
के मिलन में
है। जब हृदय
गुलाब म् से
मिलता है तो
सौंदर्य का फूल
खिलता है। जब
हृदय किसी चीज
के प्रगाढ़
संपर्क में
आता है तो बड़ी
अदभुत घटना
घटती है।
जब तुम
किसी व्यक्ति
के प्रगाढ़
संपर्क में
आते हो तो वह
व्यक्ति
सुंदर हो जाता
है। और यह
मिलन जितना ज्यादा
होता है उतना
ही ज्यादा
सौंदर्य
प्रकट होता
है। तो
सौंदर्य वह
भाव है जो
हृदय को घटित
होता है, मस्तिष्क को
नहीं।
सौंदर्य कोई
हिसाब—किताब
नहीं है और न
सौंदर्य को
परखने की कोई
कसौटी है। वह
एक भाव है।
यदि मैं कहूं
कि गुलाब
सुंदर नहीं है
तो तुम विवाद
नहीं कर सकते;
विवाद करने
की जरूरत नहीं
है। तुम कहोगे
'यह
तुम्हारा भाव
है। और गुलाब
सुंदर है—यह
मेरा भाव है।’
वहा विवाद
का कोई प्रश्न
ही नहीं है।
मस्तिष्क
विवाद कर सकता
है, हृदय
विवाद नहीं कर
सकता। बात
वहीं खत्म हो
गई; पूर्ण
विराम आ गया।
अगर मैं कहता
हूं कि यह
मेरा भाव है, तो विवाद की
जरूरत न रही।
सिर के
तल पर विवाद
जारी रह सकता
है और फिर हम किसी
निष्कर्ष पर
पहुंच सकते
हैं। हृदय के
तल पर
निष्कर्ष
पहले ही आ
चुका है। हृदय
से निष्कर्ष पर
पहुंचने की
कोई
प्रक्रिया
नहीं है, कोई विधि
नहीं है। उसका
निष्कर्ष
तत्काल होता
है, तत्क्षण
होता है, तुरंत
होता है। सिर
से निष्कर्ष
पर पहुंचने की
एक प्रक्रिया है,
एक
व्यवस्था है,
तुम तर्क
करते हो, तुम
विवाद करते हो,
तुम
विश्लेषण
करते हो, और
तब निष्कर्ष
पर पहुंचते हो
कि ऐसा है या
नहीं है। हृदय
के लिए यह
तात्कालिक
घटना है; निष्कर्ष
पहले ही आ
जाता है।
इस पर
गौर करो। सिर
के तल पर
निष्कर्ष अंत
में आता है; हृदय के
तल पर
निष्कर्ष
पहले आता है।
हृदय से तुम
निष्कर्ष
पहले ले लेते
हो और तब तुम
प्रक्रिया
खोजते हो। यह
प्रक्रिया
खोजना सिर का
काम है।
तो ऐसी
विधियों के
प्रयोग में
पहली कठिनाई
यह है कि
तुम्हें यही
पता नहीं है
कि भाव क्या
है। पहले भाव
को विकसित
करने की कोशिश
करो। जब तुम
किसी चीज को
छुओ तो आंख
बंद कर लो—विचार
मत करो, अनुभव करो।
उदाहरण के लिए,
मैं
तुम्हारा हाथ
अपने हाथ में
लेता हूं और
कहता हूं कि आंखें
बंद करो और
महसूस करो कि
क्या हो रहा
है, तो तुम
तुरंत कहोगे
कि आपका हाथ
मेरे हाथ में है।
लेकिन
यह भाव नहीं
है, यह
विचार है। मैं
फिर कहता हूं 'विचार नहीं,
अनुभव करो।’
तब तुम कहते
हो : 'आप
प्रेम प्रकट
कर रहे हैं।’ वह भी फिर
विचार ही है।
अगर मैं फिर
जोर देकर कहूं
कि 'सिर्फ
अनुभव करो, सिर को बीच
में मत लाओ, बताओ कि ठीक—ठीक
क्या अनुभव कर
रहे हो?' तो
ही तुम अनुभव
कर पाओगे और
कहोगे : 'उष्मा
अनुभव कर रहा
हूं।’
क्योंकि
प्रेम भी एक
निष्पत्ति है।’ आपका हाथ
मेरे हाथ में
है,' यह सिर
से निकला हुआ
विचार है।
सच्ची बात यह
है कि मेरे
हाथ से
तुम्हारे हाथ में
या तुम्हारे
हाथ से मेरे
हाथ में एक
ऊष्मा
प्रवाहित हो
रही है; हमारी
जीवन—ऊर्जाओं
का मिलन हो
रहा है और
मिलन का बिंदु
ऊष्मा से भरा
है। यह भाव है,
अनुभव है, संवेदना है।
यह यथार्थ है।
लेकिन
हम निरंतर सिर
में रहते हैं।
वह हमारी आदत
हो गई है।
हमें उसका ही
प्रशिक्षण
मिला है। तो
तुम्हें अपने
बंद हृदय को
फिर से खोलना
होगा।
भावों
के साथ रहने
की चेष्टा करो।
दिन में कभी—कभी—जब
तुम कोई धंधा
नहीं कर रहे
हो। क्योंकि
धंधे में
व्यस्त रहकर
शुरू—शुरू में
भावों के साथ
जीना कठिन
होगा। वहा सिर
बहुत कुशल
सिद्ध हुआ है
और वहां भावों
का भरोसा नहीं
किया जा सकता।
लेकिन जब तुम
अपने घर पर
बच्चों के साथ
खेल रहे हो तो
वहा सिर की
जरूरत नहीं है—यह
धंधा नहीं है।
लेकिन तुम तो
वहां भी अपने
सिर को अलग
नहीं करते हो।
तो
अपने बच्चों
के साथ खेलते
हुए, या
अपनी पत्नी के
साथ बैठे हुए,
या कुछ भी न
करते हुए
कुर्सी में
विश्राम करते
हुए— भाव में
जीओ, अनुभव
करो। कुर्सी
की बुनावट को
अनुभव करो, तुम्हारा
हाथ कुर्सी को
स्पर्श कर रहा
है, तुम्हें
कैसा अनुभव हो
रहा है? हवा
चल रही है, हवा
अंदर आ रही है;
वह तुम्हें
स्पर्श करती
है। तुम्हें
कैसा अनुभव हो
रहा है? रसोईघर
से गंध आ रही
है; वह
कैसी लग रही
है? उसे
महसूस करो; उस पर विचार
मत करो। सोच—विचार
मत करने लगो
कि रसोईघर में
कुछ पक रहा है।
तब तुम उसके
बारे में सपना
देखने लगोगे।
नहीं, जो
भी तथ्य है उसे
महसूस करो। और
तथ्य के साथ
रहो; विचार
में मत भटको।
तुम
चारों ओर से
घटनाओं से
घिरे हो; तुम्हारी
तरफ चारों ओर
से बहुत कुछ आ
रहा है, तुमसे
आकर मिल रहा
है। सभी ओर से
अस्तित्व
तुमसे मिलने
के लिए आ रहा है,
तुम्हारी
सभी
इंद्रियों से
होकर तुममें
प्रवेश कर रहा
है। लेकिन तुम
हो कि अपने
सिर में बंद
करो।
तुम्हारी
इंद्रियां
मुर्दा हो गई
हैं; वे
कुछ भी महसूस
नहीं करती हैं।
तो
इसके पहले कि
तुम यह विधि
प्रयोग करो, थोड़ा
संवेदना का
विकास जरूरी
है। क्योंकि
यह आंतरिक
प्रयोग है, जब तुम
बाह्य को ही
नहीं अनुभव कर
सकते तो तुम्हारे
लिए आंतरिक को
अनुभव करना
बहुत कठिन
होगा।
क्योंकि आंतरिक
सूक्ष्म है; अगर तुम
स्थूल को नहीं
अनुभव कर सकते
तो सूक्ष्म को
कैसे कर सकते
हो? अगर
तुम ध्वनियों
को नहीं सुन
सकते तो आंतरिक
मौन को, निशब्द
को, अनाहत
नाद को सुनना
कठिन होगा, बहुत कठिन
होगा। वह बहुत
ही सूक्ष्म है।
तुम
बगीचे में
बैठे हो और
सड़क पर
ट्रैफिक है, शोरगुल
है और तरह—तरह
की आवाजें आ
रही हैं। तुम
अपनी आंखें
बंद कर लो और
वहां होने
वाली सबसे
सूक्ष्म आवाज
को पकड़ने की
कोशिश करो।
कोई कौआ कांव—कांव
कर रहा है, कौए
की इस कांव—कांव
पर अपने को
एकाग्र करो।
सड़क पर
यातायात का
भारी शोर है, इसमें कौए
की आवाज इतनी
धीमी है, इतनी
सूक्ष्म है कि
जब तक तुम
अपने बोध को
उस पर एकाग्र
नहीं करोगे
तुम्हें उसका
पता भी नहीं
चलेगा। लेकिन
अगर तुम
एकाग्रता से
सुनोगे तो सड़क
का सारा
शोरगुल दूर हट
जाएगा और कौए
की आवाज केंद्र
बन जाएगी। और
तुम उसे
सुनोगे, उसके
सूक्ष्म
भेदों को भी
सुनोगे। वह
बहुत सूक्ष्म
है, लेकिन
तुम उसे सुन
पाओगे।
तो
अपनी
संवेदनशीलता
को बढ़ाओ। जब
कुछ स्पर्श
करो, जब
कुछ सुनो, जब
भोजन करो, जब
स्नान करो तो
अपनी
इंद्रियों को
खुली रहने दो।
और विचार मत
करो, अनुभव
करो। तुम स्नान
कर रहे हो, अपने
ऊपर गिरते हुए
पानी की ठंडक
को महसूस करो।
उस पर विचार
मत करो। यह मत
कहो कि पानी
बहुत ठंडा है,
बहुत अच्छा
है। कुछ मत
कहो, कोई
शब्द मत दो।
क्योंकि जैसे
ही तुम शब्द
देते हो, तुम
अनुभव से चूक
जाते हो। जैसे
ही शब्द आते
हैं, मन
सक्रिय हो जाता
है। कोई शब्द
मत दो। शीतलता
को अनुभव करो,
मगर यह मत
कहो कि पानी
ठंडा है। कुछ
कहने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन
हमारा मन
विक्षिप्त है; हम
कुछ न कुछ कहे
ही चले जाते
हैं।
मुझे
स्मरण है, मैं
एक
विश्वविद्यालय
में था। मेरे
साथ वहा एक
महिला प्रोफेसर
भी थी जो लगातार
कुछ बोलती ही
रहती थी। उसके
लिए असंभव था
कभी भी वह चुप
रहे। एक दिन
मैं कालेज के
बरामदे में
खड़ा था और सूर्यास्त
हो रहा था।
अत्यंत सुंदर
सूर्यास्त था।
और वह स्त्री
ठीक मेरे बगल
में खड़ी थी।
मैंने उससे
कहा. 'देखो!'
वह कुछ बोल
रही थी, तो
मैंने कहा. 'देखो, कैसा
सुंदर
सूर्यास्त है!'
वह बहुत
अनिच्छा से
देखने को राजी
हुई। फिर उसने
कहा 'क्या
आप नहीं सोचते
कि बायीं ओर
यदि कुछ और
जामुनी रंग
रहता तो ठीक
था?' यह कोई
चित्र नहीं था,
असली
सूर्यास्त था!
हम
लगातार बोलते
रहते हैं और
हमें यह भी
बोध नहीं रहता
कि हम क्या
बोल रहे हैं।
मन की इस सतत
बातचीत को बंद
करो तो ही तुम
अपने भावों को
प्रगाढ़ कर
सकते हो। और
भाव प्रगाढ हो
तो यह विधि
तुम्हारे लिए
चमत्कार कर
सकती है।
'अनुभव करो :
मेरा विचार.......।'
आंखों
को बंद कर लो
और विचार को
अनुभव करो।
विचारों की
सतत धारा चल
रही है, विचारों
का एक प्रवाह,
एक धारा बही
जा रही है। इन
विचारों को
अनुभव करो। और
उनकी
उपस्थिति को
अनुभव करो।
तुम जितना ही
उन्हें अनुभव
करोगे, वे
उतने ही अधिक
प्रकट
होंगे-पर्त दर
पर्त। न सिर्फ
वे विचार
प्रकट होंगे
जो सतह पर हैं,
उनके पीछे
और भी विचारों
की पर्तें हैं,
और उनके
पीछे भी और-और
पर्तें
हैं-पर्तों पर
पर्तें हैं।
और
विधि कहती है, 'अनुभव
करो : मेरा
विचार।'
और
हम कहे चले
जाते हैं. 'ये
मेरे विचार
हैं।' लेकिन
अनुभव करो.
क्या वे सचमुच
तुम्हारे हैं?
क्या तुम कह
सकते हो कि वे
मेरे हैं? तुम
जितना ही
अनुभव करोगे
उतना ही
तुम्हारे लिए
यह कहना कठिन
होगा कि वे
मेरे हैं। वे
सब उधार हैं, वे सब बाहर
से आए हैं। वे
तुम्हारे पास
आए हैं, लेकिन
वे तुम्हारे
नहीं हैं। कोई
विचार
तुम्हारा
नहीं है, वह
धूल है जो तुम
पर आ जमी है।
चाहे तुम्हें
यह पता भी न हो
कि किस स्रोत
से यह विचार
आया है तो भी
विचार
तुम्हारा
नहीं है। और
अगर तुम पूरी
चेष्टा करोगे
तो तुम जान
लोगे कि यह
विचार कहां से
आया है।
सिर्फ
आंतरिक मौन
तुम्हारा है।
किसी ने
तुम्हें यह
नहीं दिया है, तुम
इसके साथ ही
पैदा हुए थे
और इसके साथ
ही तुम मरोगे।
विचार
तुम्हें दिए
गए हैं, तुम
उनसे
संस्कारित हो।
अगर तुम हिंदू
हो तो
तुम्हारे
विचार एक तरह
के हैं। अगर
तुम मुसलमान
हो तो
तुम्हारे
विचार और तरह
के हैं। और
अगर तुम
कम्मुनिस्ट
हो तो
तुम्हारे
विचार कुछ और
ही हैं। वे
तुम्हें दिए
गए हैं, या
संभवत: तुमने
उन्हें
स्वेच्छा से
ग्रहण किया है,
लेकिन कोई
विचार
तुम्हारा
नहीं है। अगर
तुम विचारों
की उपस्थिति,
उनकी भीड़ की
उपस्थिति
महसूस कर सको
तो तुम यह भी
महसूस करोगे
कि वे विचार
मेरे नहीं हैं।
यह भीड़ बाहर
से तुम्हारे
पास आई है, यह
तुम्हारे
चारों तरफ
इकट्ठी हो गई
है; लेकिन
यह तुम्हारी
नहीं है। और
अगर तुम्हें
यह अनुभव हो
कि कोई विचार
मेरा नहीं है
तो ही तुम मन
को अपने से
अलग कर सकते हो।
अगर वे
विचार
तुम्हारे हैं
तो तुम उनका
बचाव करोगे।
यह भाव कि यह
विचार मेरा है, यही
तो आसक्ति है,
लगाव है। तब
मैं उसे अपने
भीतर जड़ें
देता हूं; तब
मैं जमीन बन
जाता हूं और विचार
मुझमें जड़ें
जमा सकता है।
और जब मैं
देखता हूं कि
कोई विचार
मेरा नहीं है
तो वह निमूर्ल
हो जाता है, उखड़ जाता
है, तब
मेरा उससे कोई
लगाव नहीं
रहता। ’मेरे'
का भाव ही
लगाव पैदा
करता है।
तुम
अपने विचारों
के लिए लड़
सकते हो। तुम
अपने विचारों
के लिए शहीद
हो सकते हो।
तुम अपने
विचारों के
लिए हत्या कर
सकते हो, खून कर सकते
हो। और विचार
तुम्हारे
नहीं हैं!
चैतन्य
तुम्हारा है;
लेकिन
विचार
तुम्हारे
नहीं हैं। और
क्यों इस बोध
से मदद मिलती
है?
अगर
तुम देख सको
कि विचार मेरे
नहीं हैं तो
कुछ भी
तुम्हारा
नहीं रह जाता
है। क्योंकि
विचार ही हर
चीज की जड़ में
हैं। मेरा घर, मेरी
संपत्ति, मेरा
परिवार—ये
चीजें तो
बाहरी हैं; लेकिन गहरे
में विचार
मेरे हैं। अगर
विचार मेरे
हैं तो ही ये
चीजें, इनका
विस्तार, इनका
फैलाव मेरा हो
सकता है। अगर
विचार मेरे
नहीं हैं तो
कुछ भी महत्व
का न रहा।
क्योंकि यह भी
एक विचार ही
है कि तुम
मेरी पत्नी हो,
कि तुम मेरे
पति हो। यह भी
एक विचार ही
है। और अगर
बुनियादी तोर
से विचार ही
मेरा नहीं है
तो पत्नी मेरी
कैसे हो सकती
है? या पति
मेरा कैसे हो
सकता है? विचार
के मिटते ही
सारा संसार
मिट जाता है, तब तुम
संसार में रह
कर भी संसार
में नहीं रहते
हो।
तुम
हिमालय चले जा
सकते हो, तुम संसार
छोड़ सकते हो, लेकिन अगर
तुम सोचते हो
कि विचार मेरे
हैं तो तुम
कहीं नहीं गए,
तुम वहीं के
वहीं हो।
हिमालय में
बैठे हुए तुम
संसार में
उतने ही होगे
जितने यहां रह
कर हो, क्योंकि
विचार संसार
है। तुम
हिमालय में भी
अपने विचार
साथ लिए जाते
हो। तुम घर
छोड़ देते हो, लेकिन असली
घर अंदर है, असली घर
विचार की
ईंटों से बना
है। बाहर का
घर असली घर
नहीं है।
यह अजीब
बात है, लेकिन यह
रोज ही घटती
है। मैं एक
व्यक्ति को
देखता हूं कि
उसने संसार छोड़
दिया और फिर
भी वह हिंदू
बना हुआ है! वह
संन्यासी हो
जाता है और
फिर भी हिंदू
या जैन ही बना रहता
है! इसका क्या
मतलब है? वह
संसार का
त्याग कर देता
है, लेकिन
विचारों का
त्याग नहीं करता
है। वह अभी भी
जैन है। वह
अभी भी हिंदू
है। उसका
विचारों का
संसार अभी भी
कायम है। और
विचारों का
संसार ही असली
संसार है।
अगर
तुम देख सको
कि कोई विचार
मेरा नहीं है..
और तुम देख
सकोगे, क्योंकि तुम
द्रष्टा होगे
और विचार विषय
बन जाएंगे। जब
तुम शांत होकर
विचारों का
निरीक्षण
करोगे तो
विचार विषय
होंगे और तुम
देखने वाले
होगे। तुम
द्रष्टा
होंगे, तुम
साक्षी होगे
और विचार
तुम्हारे
सामने तैरते
रहेंगे।
और अगर
तुम गहरे देख
सके, गहरे
अनुभव कर सके,
तो तुम
देखोगे कि
विचारों की
कोई जड़ें नहीं
हैं। तुम
देखोगे कि
विचार आकाश में
बादलों की
भांति तैर रहे
हैं और
तुम्हारे भीतर
उनकी कोई जड़ें
नहीं हैं। वे
आते हैं और
चले जाते हैं।
तुम उनके नाहक
शिकार हो गए
हो और नाहक
तुम्हारा
उनके साथ
तादात्म्य हो
गया है। विचार
का जो भी बादल
तुम्हारे घर
से गुजरता है,
तुम कहते हो
कि यह मेरा
बादल है।
विचार
बादलों जैसे
हैं।
तुम्हारी
चेतना के आकाश
से वे गुजरते
रहते हैं और
तुम उनसे लगाव
निर्मित करते
रहते हो। तुम
कहते हो कि यह
बादल मेरा है।
और यह सिर्फ
एक आवारा बादल
है, जो
गुजर रहा है।
और यह गुजर जाएगा।
अपने
बचपन में लौटी।
उस समय भी
तुम्हारे कुछ
विचार थे। और
उनसे
तुम्हारा
लगाव था। और
तुम कहते हो
कि ये मेरे
विचार है। और
फिर बचपन विदा
हो गया। और
बचपन के साथ
वे विचार, वे बादल
भी विदा हो गए।
अब वे तुम्हें
याद भी नहीं
हैं। फिर तुम
जवान हुए। और
तब दूसरे बादल
आए, जो
जवानी से
आकर्षित होकर
आते हैं। और
तुमने उनसे भी
अपना लगाव
बनाया। और अब
तुम के हो।
जवानी के
विचार अब नहीं
हैं; वे अब
तुम्हें याद
तक नहीं हैं।
और कभी वे
इतने
महत्वपूर्ण
थे कि तुम
उनके लिए जान
तक दे सकते थे।
वे अब याद तक
नहीं हैं। अब
तुम अपनी उस
मूढ़ता पर हंस
सकते हो कि
तुम उनके लिए
मर सकते थे, कि तुम उनके
लिए शहीद हो
सकते थे। अब
तुम उनके लिए
दो कौडी भी
खर्च करने को
राजी नहीं हो।
वे अब
तुम्हारे न
रहे। वे बादल
चले गए। लेकिन
उनकी जगह
दूसरे बादल आ
गए हैं और तुम
उन्हें पकड़ कर
बैठ गए हो।
बादल
बदलते रहते
हैं, लेकिन
तुम्हारा
लगाव, तुम्हारी
पकड़ नहीं
बदलती है। यही
समस्या है। और
ऐसा नहीं है
कि तुम्हारे
बचपन के जाने
पर ही बादल
बदलते हैं, वे प्रतिपल
बदल रहे हैं।
एक मिनट पहले
तुम एक तरह के
बादलों से
घिरे थे, अब
तुम और तरह के
बादलों से घिर
गए हो। जब तुम यहां
आए थे, एक
तरह के बादल
तुम पर मंडरा
रहे थे; जब
तुम यहां से
जाओगे, दूसरी
तरह के बादल
मंडराके। और
तुम प्रत्येक
बादल के साथ
चिपक जाते हो,
उससे लगाव
बना लेते हो।
अगर अंत में
तुम्हारे हाथ
कुछ भी नहीं
आता है तो यह
स्वाभाविक है,
क्योंकि
बादलों से
क्या मिल सकता
है? और
विचार बादल ही
हैं।
यह
सूत्र कहता
है. 'अनुभव
करो।’ पहले
भाव में
स्थापित होओ।
तब देखो : 'मेरे
विचार।’ तब
उस विचार को
देखो जिसे
तुमने सदा 'मेरा विचार'
कहा है। भाव
में स्थित
होकर विचार को
देखने से 'मेरा'
विलीन हो
जाता है। और
यह 'मेरा' ही चालबाजी
है। क्योंकि
अनेक 'मेरो'
से, अनेक
'मुझो' से
'मैं' विकसित
होता है, 'मैं'
बनता है। यह
मेरा है, यह
मेरा है—जितने
'मेरे' हैं
उनसे ही 'मैं'
बनता है।
यह
विधि जड़ से ही
शुरू करती है।
और विचार ही
सबकी जड़ है।
अगर 'मेरे'
के भाव को
उसकी जड़ में
ही काट सको तो
वह फिर प्रकट
नहीं होगा—वह
फिर कहीं नहीं
दिखाई पड़ेगा।
और अगर तुम
उसे जड़ से
नहीं काटते हो
तो फिर और
कहीं काटने से
कुछ नहीं होगा—चाहे
तुम जितना
काटो वह
व्यर्थ होगा,
वह फिर—फिर
प्रकट होता
रहेगा।
मैं
उसे काट सकता
हूं मैं कह
सकता हूं कि
कोई मेरी
पत्नी नहीं है, हम लोग
अजनबी हैं और
विवाह तो केवल
एक सामाजिक
औपचारिकता है।
मैं अपने को
अलग कर लेता
हूं मैं कहता
हूं कि कोई
मेरी पत्नी
नहीं है।
लेकिन यह बात
बहुत सतही है।
फिर मैं कहता
हूं : मेरा
धर्म। फिर मैं
कहता हूं.
मेरा
संप्रदाय।
मैं कहता हूं :
यह मेरा
धर्मग्रंथ है,
यह बाइबिल
है, यह
कुरान है, यह
मेरा शास्त्र
है। इस तरह 'मेरे' का
भाव किसी
दूसरे
क्षेत्र में
जारी रहता है
और तुम वही के
वही रहते हो।
'मेरा
विचार' और
तब 'मैं—पन'। पहले
विचारों की
श्रृंखला को
देखो, विचारों
की प्रक्रिया
को देखो, विचारों
के प्रवाह को
देखो, और
खोजो कि कौन
से विचार
तुम्हारे हैं,
या कि वे
भटकते बादल भर
हैं। और जब
तुम्हें
प्रतीत हो कि
कोई विचार
तुम्हारे
नहीं हैं, विचारों
से 'मेरे' को जोड़ना ही
भ्रम है, तो
तुम आगे बढ़
सकते हो, तब
तुम और गहरे
उतर सकते हो। तब
मैं—पन के
प्रति होश
साधो। यह 'मैं’ कहां है?
रमण
अपने शिष्यों
को एक विधि
देते थे। उनके
शिष्य पूछते
थे. 'मैं
कौन हूं?' तिब्बत
में भी वे एक
ऐसी ही विधि
का उपयोग करते
हैं जो रमण की
विधि से भी
बेहतर है। वे
यह नहीं पूछते
कि मैं कौन
हूं। वे पूछते
हैं कि 'मैं
कहां हूं?' क्योंकि
यह 'कौन' समस्या पैदा
कर सकता है।
जब तुम पूछते
हो कि 'मैं
कौन हूं?' तो
तुम यह तो मान
ही लेते हो कि
मैं हूं,
इतना ही जानना
है कि मैं कौन
हूं। यह तो
तुमने पहले ही
मान लिया कि
मैं हूं; यह
बात
निर्विवाद है।
यह तो स्वीकृत
है कि मैं हूं;
अब प्रश्न
इतना ही है कि
मैं कौन हूं।
केवल
प्रत्यभिज्ञा
होनी है, सिर्फ
चेहरा
पहचानना है, लेकिन वह है—अपरिचित
ही सही, पर
वह है।
तिब्बती
विधि रमण की
विधि से बेहतर
है। तिब्बती
विधि कहती है
कि मौन हो जाओ
और खोजो कि
मैं कहां हूं।
अपने भीतर
प्रवेश करो, एक—एक
कोने—कातर में
जाओ और पूछो : 'मैं कहा हूं?'
तुम्हें 'मैं' कहीं
नहीं मिलेगा।
तुम उसे कहीं
नहीं पाओगे।
तुम उसे जितना
ही खोजोगे
उतना ही वह
वहां नहीं होगा।
और यह
पूछते—पूछते
कि 'मैं
कौन हूं?' या
कि 'मैं
कहां हूं?' एक
क्षण आता है
जब तुम उस
बिंदु पर होते
हो जहां तुम
तो होते हो, लेकिन कोई 'मैं' नहीं
होता, जहां
तुम बिना किसी
केंद्र के
होते हो।
लेकिन यह तभी
घटित होगा जब
तुम्हारी
अनुभूति हो कि
विचार
तुम्हारे नहीं
हैं। यह
ज्यादा गहन
क्षेत्र है—यह
'मैं—पन'।
हम इसे
कभी अनुभव
नहीं करते हैं।
हम सतत 'मैं —मैं' करते
रहते हैं।’मैं'
शब्द का
निरंतर उपयोग
होता रहता है,
जो शब्द
सर्वाधिक उपयोग
किया जाता है
वह 'मैं' है। लेकिन
तुम्हें उसका
अनुभव नहीं
होता है।’मैं'
से
तुम्हारा क्या
मतलब होता है?
जब तुम कहते
हो 'मैं' तो उससे
क्या मतलब
होता है
तुम्हारा? इस
शब्द का अर्थ
क्या होता है?
उससे क्या
व्यक्त होता
है, क्या
जाहिर होता है?
मैं
इशारा कर सकता
हूं और कह
सकता हूं कि
मेरा मतलब यह
है। मैं अपने
शरीर की तरफ
इशारा कर सकता
हूं और कह सकता
हूं कि मेरा
मतलब यह है।
लेकिन तब यह
पूछा जा सकता
है कि
तुम्हारा मतलब
हाथ से है, कि
तुम्हारा
मतलब पैर से
है, कि
तुम्हारा
मतलब पेट से
है? तब
मुझे इनकार
करना पड़ेगा; मुझे 'नहीं'
कहना पड़ेगा।
और इस तरह
मुझे पूरे
शरीर को ही
इनकार करना होगा।
तो फिर
तुम्हारा क्या
मतलब है जब
तुम 'मैं' कहते हो? क्या
तुम्हारा
मतलब सिर से
है? कहीं
गहरे में जब
भी तुम 'मैं'
कहते हो, एक बहुत
धुंधला—सा, अस्पष्ट—सा
भाव होता है।
और यह अस्पष्ट
भाव तुम्हारे
विचारों का है।
भाव
में स्थित
होकर, विचारों
से पृथक होकर
इस 'मैं—पन'
का साक्षात
करो, इसे
सीधे—सीधे
देखो। और जैसे—जैसे
तुम उसका
साक्षात करते
हो तुम पाते
हो कि वह नहीं
है। वह सिर्फ
एक उपयोगी
शब्द था, भाषागत
प्रतीक था, आवश्यक था, लेकिन वह
सत्य नहीं था।
बुद्ध भी उसका
उपयोग करते
हैं, बुद्धत्व
को उपलब्ध
होने के बाद
भी वे उसका उपयोग
करते हैं। यह
सिर्फ एक
कामचलाऊ उपाय
है। लेकिन जब
बुद्ध 'मैं'
कहते हैं तो
उसका मतलब अहंकार
नहीं होता, क्योंकि वहा
कोई भी नहीं
है।
जब तुम
इस 'मैं—पन'
का साक्षात
करोगे तो यह
विलीन हो
जाएगा। इस
क्षण में
तुम्हें भय
पकड़ सकता है, तुम आतंकित
हो सकते हो।
और यह अनेक
लोगों के साथ
होता है कि जब
वे इस विधि
में गहरे
उतरते हैं तो वे
इतने भयभीत हो
जाते हैं कि
भाग खड़े होते
हैं।
तो तुम ठीक
उसी स्थिति
में होगे जिस
स्थिति में
मृत्यु के समय
होगे। ठीक उसी
स्थिति में, क्योंकि 'मैं' विलीन
हो रहा है। और
तुम्हें
लगेगा कि मेरी
मृत्यु घटित
हो रही है।
तुम्हें
डूबने जैसा
भाव होगा कि
मैं डूबता जा
रहा हूं। और
यदि तुम भयभीत
हो गए तो तुम
बाहर आ जाओगे
और फिर
विचारों को
पकड़ लोगे, क्योंकि
वे विचार
सहयोगी होंगे।
वे बादल वहा
होंगे, तुम
उनसे फिर चिपक
जा सकते हो, और तुम्हारा
भय जाता रहेगा।
पर
स्मरण रहे, यह भय बहुत
शुभ है। यह एक
आशापूर्ण
लक्षण है। यह
भय बताता है
कि तुम गहरे
जा रहे हो। और
मृत्यु गहनतम
बिंदु है। यदि
तुम मृत्यु
में उतर सके
तो तुम अमृत
हो जाओगे।
क्योंकि जो
मृत्यु में
प्रवेश कर
जाता है, उसकी
मृत्यु असंभव
है। क्योंकि
जो मृत्यु में
उतर जाता है, उसकी मृत्यु
नहीं हो सकती।
तब मृत्यु भी
बाहर—बाहर है,
परिधि पर है।
मृत्यु कभी
केंद्र पर
नहीं है, वह
सदा परिधि पर
है। जब मैं—पन
विदा होता है
तो तुम ठीक
मृत्यु जैसे
ही हो जाते हो।
पुराना गया और
नए का आगमन
हुआ।
यह
चैतन्य, जो मैं —पन के
जाने पर आता
है, सर्वथा
नया है, अछूता
है, युवा
है, कुंआरा
है। पुराना
बिलकुल नहीं
बचा और पुराने
ने इसे स्पर्श
भी नहीं किया
है। वह मैं—पन
विलीन हो जाता
है और तुम
अपने अछूते
कुंआरेपन में,
अपनी
संपूर्ण
ताजगी में
प्रकट होते हो।
तुमने
अस्तित्व का
गहरे से गहरा
तल छू लिया है।
तो इस
तरह सोचो. विचार, उसके
नीचे मैं—पन
और तीसरी चीज.
'अनुभव
करो: मेरा
विचार, मै —पन,
आंतरिक
इंद्रियां—मुझ।’
जब
विचार विलीन
हो चुके हैं
या उन पर
तुम्हारी पकड़
छूट गई है—वे
चल भी रहे हों
तो उनसे
तुम्हें लेना—देना
नहीं है, तुम पृथक, अनासक्त और
विमुक्त हो—और
मैं—पन भी
विदा हो गया
है, तब तुम आंतरिक
इंद्रियों को
देखते हो।
ये आंतरिक
इंद्रियां—यह
सबसे गहरी बात
है। हम अपनी
बाह्य
इंद्रियों को
जानते हैं।
हाथ से मैं
तुम्हें छूता
हूं आंख से
देखता हूं; ये बाह्य
इंद्रियां
हैं। आंतरिक
इंद्रियां वे
हैं जिनसे मैं
अपने होने को,
अपने
अस्तित्व को
अनुभव करता
हूं। बाह्य
इंद्रियां
दूसरों के लिए
हैं, मैं
बाह्य
इंद्रियों के
द्वारा
तुम्हारे संबंध
में जानता हूं।
लेकिन
मैं अपने बारे
में कैसे
जानता हूं? मैं हूं, यह भी मैं
कैसे जानता
हूं? मुझे
मेरे होने की
अनुभूति, होने
की प्रतीति, होने का
अहसास कौन
देता है?
उसके
लिए आंतरिक
इंद्रियां
हैं। जब विचार
ठहर जाते हैं
और जब मैं—पन
नहीं बचता है
तो उस शुद्धता
में, उस
स्वच्छता में,
उस
स्पष्टता में
तुम आंतरिक
इंद्रियों को
देख सकते हो।
चैतन्य, प्रतिभा,
मेधा—ये आंतरिक
इंद्रियां
हैं। उनके
द्वारा हमें
अपने होने का,
अपने अस्तित्व
का बोध होता
है। यही कारण
है कि अगर तुम
अपनी आंखें
बंद कर लो तो
तुम अपने शरीर
को बिलकुल भूल
सकते हो, लेकिन
तुम्हारा यह
भाव कि मैं
हूं बना ही
रहेगा।
और
उससे ही यह
बात भी समझ
में आती है—और
यह बात बिलकुल
सच है—कि जब
कोई व्यक्ति
मर जाता है तो
हमारे लिए तो
वह मर जाता है, लेकिन
उसे थोडा समय
लग जाता है इस
तथ्य को
पहचानने में
कि मैं मर गया हूं।
क्योंकि होने
का आंतरिक भाव
वही का वही
बना रहता है।
तिब्बत
में तो मरने
के विशेष
प्रयोग हैं और
वे कहते हैं
कि मरने की
तैयारी बहुत
जरूरी है।
उनका एक
प्रयोग इस
प्रकार है जब
भी कोई
व्यक्ति मरने
लगता है तो
गुरु या पुरोहित, या कोई भी
जो बारदो
प्रयोग जानता
है, उससे
कहता रहता है
कि 'स्मरण
रखो, होश
रखो, बोध
बनाए रखो कि
मैं शरीर छोड़
रहा हूं।’ क्योंकि
जब तुम शरीर
छोड़ देते हो
तो भी यह समझने
में थोड़ा समय
लगता है कि
मैं भर गया
हूं। क्योंकि आंतरिक
भाव वही का
वही बना रहता
है, उसमें
कोई बदलाहट
नहीं होती।
शरीर
तो केवल
दूसरों को
छूने और अनुभव
करने के लिए
है। इसके
द्वारा तुमने
कभी अपने को
नहीं स्पर्श किया
है, न
अपने को जाना
है। तुम अपने
को किन्हीं
अन्य
इंद्रियों के
द्वारा जानते
हो जो आंतरिक हैं।
लेकिन हमारी
मुश्किल यह है
कि हमें अपनी
उन इंद्रियों
का पता नहीं
है और हम अपने
को दूसरों के
द्वारा जानते
हैं। हमारी ही
नजर में हमारी
जो तस्वीर है
वह दूसरों
द्वारा
निर्मित है।
मेरे बारे में
दूसरे जो कहते
हैं वही मेरी
मेरे संबंध
में जानकारी
है। अगर वे कहते
हैं कि तुम
सुंदर हो, या
अगर वे कहते
हैं कि तुम
कुरूप हो, तो
मैं उस पर
भरोसा कर लेता
हूं। मेरे
बारे में मेरी
इंद्रियां
दूसरों के माध्यम
से, दूसरों
से प्रतिफलित
होकर जो कुछ
मुझे बताती हैं,
वही मेरी
मेरे संबंध
में धारणा बन
जाती है।
अगर
तुम अपनी आंतरिक
इंद्रियों को
पहचान लो तो
तुम समाज से
बिलकुल मुक्त
हो गए। यही
मतलब है जब
पुराने
शास्त्रों
में कहा जाता
है कि
संन्यासी
समाज का
हिस्सा नहीं
है। क्योंकि
वह अब स्वयं
को आंतरिक
इंद्रियों के
द्वारा जानता
है। अब उसका
अपने संबंध
में ज्ञान
दूसरों के मत
पर आधारित
नहीं है, अब यह ज्ञान
किसी के
माध्यम से
देखा गया
प्रतिफलन
नहीं है। अब
उसे स्वयं को
जानने के लिए
किसी दर्पण की
जरूरत नहीं है।
उसने आंतरिक
दर्पण को पा
लिया है और वह
स्वयं को आंतरिक
दर्पण के
द्वारा जानता
है।
और आंतरिक
सत्य को तभी
जाना जा सकता
है जब तुमने आंतरिक
इंद्रियों को
पा लिया हो।
और तब तुम उन आंतरिक
इंद्रियों के
द्वारा देख
सकते हो। और
तब—'मुझ'। इसे
शब्दों में
कहना कठिन है;
इसीलिए 'मुझ'
का प्रयोग
किया गया है।
कोई भी शब्द
गलत होगा; 'मुझ'
भी गलत है।
लेकिन मैं
विलीन हो गया
है। स्मरण रहे,
इस 'मुझ'
का 'मैं'
से कुछ लेना—देना
नहीं है। जब
विचार
निर्मूल हो गए
हैं, जब 'मैं—पन' विदा
हो चुका है, जब आंतरिक
इंद्रियां
जान ली गई हैं,
तब 'मुझ'
प्रकट होता
है। तब पहली
दफा मेरा असली
होना प्रकट
होता है। वह
असली होना 'मुझ' है।
बाहरी
संसार न रहा,विचार न
रहे, अहंकार
का भाव न रहा
और मैंने अपनी
आंतरिक
इंद्रियों को,
चैतन्य को,
मेधा को, बोध को, या
उसे जो कुछ भी
कहो, जान
लिया है। तब
इस आंतरिक
इंद्रियों के
प्रकाश में 'मुझ' का
अवतरण होता है।
यह 'मुझ' तुम्हारा
नहीं है; यह
तुम्हारा
अंतरतम है, जिसे तुम
नहीं जानते हो।
यह 'मुझ' अहंकार नहीं
है। यह 'मुझ'
तुम्हारे
विरोध में
नहीं है। यह 'मुझ' जागतिक
है, विराट
है। इस 'मुझ'
की कोई सीमा
नहीं है, इसमें
सब कुछ निहित,
समाया है।
यह लहर नहीं
है; यह
सागर ही है।
अनुभव
करो मेरा
विचार, मैं—पन, आंतरिक
इंद्रियां।' और तब एक
अंतराल है और अचानक
'मुझ' प्रकट
होता है। जब
यह 'मुझ' प्रकट होता
है तो व्यक्ति
जानता है कि
मैं ब्रह्म
हूं अहं
ब्रह्मास्मि!
यह जानना
अहंकार का दावा
नहीं है; अहंकार
तो जा चुका।
इस विधि के
द्वारा तुम
अपना
रूपांतरण कर
सकते हो।
लेकिन पहले
भाव में स्थिर
होओ।
दूसरी
विधि:
कामना
के पहले और
जानने के पहले
मैं कैसे कह
सकता हूं कि
मैं हूं? विमर्श
करो। सौंदर्य
में विलीन हो
जाओ।
'कामना
के पहले और
जानने के पहले
मैं कैसे कह सकता
हूं कि मैं
हूं?'
एक
कामना पैदा
होती है और
कामना के साथ
यह भाव पैदा
होता है कि
मैं हूं। एक
विचार उठता है
और विचार के
साथ यह भाव
उठता है कि
मैं हूं। इसे
अपने अनुभव
में ही देखो; कामना के
पहले और जानने
के पहले
अहंकार नहीं है।
मौन
बैठो और भीतर
देखो। एक
विचार उठता है
और तुम उस
विचार के साथ
तादात्म्य कर
लेते हो। एक
कामना पैदा
होती है और
तुम उस कामना
के साथ तादात्म्य
कर लेते हो।
तादात्म्य
में तुम
अहंकार बन
जाते हो। फिर
जरा सोचो. कोई
कामना नहीं है, कोई
ज्ञान नहीं है,
कोई विचार
नहीं है—तुम्हारा
किसी के साथ
तादात्म्य
नहीं हो सकता।
अहंकार खड़ा
नहीं हो सकता।
बुद्ध
ने इस विधि का
उपयोग किया और
उन्होंने अपने
शिष्यों से
कहा कि और कुछ
मत करो, सिर्फ इतना
ही करो कि जब
कोई विचार उठे
तो उसे देखो।
बुद्ध कहा
करते थे कि जब
कोई विचार उठे
तो देखो कि यह
विचार उठ रहा
है। अपने भीतर
ही देखो कि अब
विचार उठ रहा
है, अब
विचार है, अब
विचार विदा हो
रहा है। बस
देखते भर रहो
कि अब विचार
उठ रहा है, अब
विचार पैदा हो
गया है, अब
विचार विलीन हो
रहा है। ऐसा
देखने से
तादात्म्य
नहीं होगा।
यह
विधि सुंदर है
और बहुत सरल
है। एक विचार
उठता है। तुम
सड़क पर चल रहे
हो, एक
सुंदर कार
गुजरती है और
तुम उसे देखते
हो। और तुमने
अभी देखा भी
नहीं कि उसे
पाने की कामना
पैदा हो जाती
है। इस पर
प्रयोग करो।
आरंभ में धीमे
शब्दों में
कहो, धीरे
से कहो कि मैं
कार देखता हूं
कार सुंदर है
और उसे पाने
की कामना पैदा
हो रही है।
पूरी घटना को
शाब्दिक रूप
दो।
शुरू—शुरू
में शाब्दिक
रूप देना
अच्छा है। अगर
तुम इसे जोर
से कह सको तो
और भी अच्छा
है। जोर से
कहो कि 'मैं देख रहा
हूं कि एक कार
गुजरी है और
मन कहता है कि
कार सुंदर है
और अब कामना
उठी है कि मैं
यह कार
प्राप्त करके
रहूंगा।’ सब
कुछ शब्दों
में कहो, स्वयं
से ही कहो और
जोर से कहो, और तुरंत
तुम्हें
अहसास होगा कि
मैं इस पूरी प्रक्रिया
से अलग हूं।
पहले
देखो, मन
ही मन में
कामना के उठने
को देखो। और
जब तुम देखने
में निष्णात
हो जाओ तब जोर
से कहने की
जरूरत नहीं है।
तब मन ही मन
देखो कि एक
कामना पैदा
हुई है। एक
सुंदर स्त्री
गुजरती है और
कामवासना
उठती है, उसे
मन ही मन ऐसे
देखो जैसे कि
तुम्हें उससे
कुछ लेना—देना
नहीं है, तुम
सिर्फ घटित
होने वाले तथ्य
को देख भर रहे
हो। और तुम
अचानक अनुभव
करोगे कि मैं
इससे बाहर हूं।
बुद्ध
कहते है कि जो
भी हो रहा है, उसे देखो;
और जब वह
विदा हो जाए
तो उसे भी
देखो कि अब
कामना विदा हो
गई है। और तुम
उस विचार से, उस कामना से
एक दूरी, एक
पृथकता अनुभव
करोगे।
यह
विधि कहती है 'कामना के
पहले और जानने
के पहले मैं
कैसे कह सकता
हूं कि मैं
हूं?'
अगर
कोई कामना
नहीं है, कोई विचार
नहीं है, तो
तुम कैसे कह
सकते हो कि
मैं हूं? मैं
कैसे कह सकता
हूं कि मैं
हूं? तब सब
कुछ मौन है, शांत है; एक
लहर भी तो
नहीं है। और
लहर के बिना
मैं 'मैं' का भ्रम कैसे
निर्मित कर
सकता हूं? अगर
कोई लहर हो तो
मैं उससे
आसक्त हो सकता
हूं और उसके
माध्यम से मैं
अनुभव कर सकता
हूं कि मैं
हूं। जब चेतना
में कोई लहर
नहीं है तो
कोई 'मैं' नहीं है।'
तो
कामना के उठने
से पहले स्मरण
रखो, जब
कामना आ जाए
तो स्मरण रखो,
और जब कामना
विदा हो जाए
तो भी स्मरण
रखो। जब कोई
विचार उठे तो
स्मरण रखो, उसे देखो।
सिर्फ देखो कि
विचार उठा है।
देर— अबेर वह
विदा हो जाएगा,
क्योंकि सब
कुछ क्षणिक है।
और बीच में एक
अंतराल होगा।
दो विचारों के
बीच में खाली
जगह है। दो
कामनाओं के
बीच में
अंतराल है। और
उस अंतराल में,
उस खाली जगह
में 'मैं' नहीं है।
मन में
चलते विचार को
देखो और तुम
पाओगे कि वहां
एक अंतराल भी
है। चाहे वह
कितना ही छोटा
हो, अंतराल
है। फिर दूसरा
विचार आता है
और फिर एक
अंतराल। उन
अंतरालों में 'मैं' नहीं
है। और वे
अंतराल ही
तुम्हारा
असली होना हैं,
तुम्हारा
अस्तित्व हैं।
आकाश में
विचार के बादल
चल रहे हैं।
दो बादलों के
बीच के अंतराल
में देखो और
आकाश प्रकट हो
जाएगा।
'विमर्श
करो। सौंदर्य
में विलीन हो
जाओ।’
विमर्श
करो कि कामना
पैदा हुई और
कामना विदा हो
गई—और मैं
उसके अंतराल
में हूं और
कामना ने मुझे
अशांत नहीं किया
है। विमर्श
करो कि कामना
आई, कामना
गई, वह थी
और अब नहीं है;
और मैं
अनुद्विग्न
रहा हूं वैसा
ही रहा हूं जैसा
पहले था; मुझमें
कोई बदलाहट
नहीं हुई है।
विमर्श करो कि
कामना छाया की
भाति आई और
चली गई; उसने
मुझे स्पर्श
भी नहीं किया;
मैं अछूता
रह गया हूं।
इस कामना की
गतिविधि के
प्रति, इस
विचार की हलचल
के प्रति
विमर्श से भरो।
और अपने भीतर
की अगति के
प्रति भी, ठहराव
के प्रति भी
विमर्शपूर्ण
होओ।
'विमर्श
करो। सौंदर्य
में विलीन हो
जाओ।’
और वह
अंतराल सुंदर
है, उस
अंतराल में
डूब जाओ। उस
अंतराल में
डूब जाओ, शून्य
हो जाओ। यह
सौंदर्य का
प्रगाढ़तम
अनुभव है। और
केवल सौंदर्य
का ही नहीं, शुभ और सत्य
का भी
प्रगाढ़तम
अनुभव है। उस
अंतराल में
तुम हो।
सारा
ध्यान भरे हुए
स्थानों से
हटाकर खाली स्थानों
पर लगाना है।
तुम कोई किताब
पढ़ रहे हो।
उसमें शब्द है, उसमें वाक्य
हैं। लेकिन
शब्दों के बीच,
वाक्यों के
बीच खाली स्थान
भी हैं। और उन
खाली स्थानों
में तुम हो।
कागज की जो
शुभ्रता है, वह तुम हो; और जो काले
अक्षर हैं वे
तुम्हारे
भीतर चलने
वाले विचार और
कामना के बादल
हैं। अपने
परिप्रेक्ष्य
को बदलों, अपने
गेस्टाल्ट को
बदलों। काले
अक्षरों को मत
देखो, शुभ्रता
को देखो।
अंतराल
के प्रति, खाली
आकाश के प्रति
सावचेत बनो।
और उस अंतराल
के द्वारा, उस आकाश के
द्वारा तुम
परम सौंदर्य
में विलीन हो
जाओगे।
आज इतना
ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं