प्रश्नसार:
1—कृपया
बताएं कि कोई
शून्यता के
साथ जीना कैसे
सीखे?
2—क्या
सारा आध्यात्मिक
प्रयोग झूठे अहंकार
के सच्चे
रूपांतरण
के लिए है?
3—अगर
अहंकार झूठ है
तो क्या
अचेतन मन, स्मृतियों
का
संग्रह और
रूपांतरण की
प्रक्रिया, यह सब भी
झूठ है?
4—कोई
कैसे जाने कि
उसकी आध्यात्मिक
खोज अहंकार की
यात्रा
न होकर एक
प्रामाणिक धार्मिक
खोज है?
पहला
प्रश्न :
अहंकार
की जब ध्यान
में 'मैं'
श्रेणी देर
के लिए खो
जाता है और
भीतर एक शून्यता
निर्मित होती
है और उस
अज्ञात को आकार
नहीं भरता है
तो एक निराशा
अनुभव होती है।
कृपया बताएं कि
कोई व्यक्ति
उस शून्यता के
साथ जीना कैसे
सीखें?
शून्यता ही
अज्ञात है। यह
प्रतीक्षा मत
करो, यह
आशा मत करो कि
कुछ आकर उस
शून्यता को भर
देगा। अगर तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो, अगर
तुम आशा कर
रहे हो, कामना
कर रहे हो, तो
तुम शून्य
नहीं हो। अगर
तुम इंतजार कर
रहे हो कि कोई
चीज, कोई
अज्ञात शक्ति
तुम पर उतरेगी,
तो तुम
शून्य नहीं हो।
क्योंकि यह
आशा मौजूद है,
यह कामना
मौजूद है, यह
चाह मौजूद है।
इसलिए मत चाहो
कि कोई चीज
आकर तुम्हें
भर दे। सिर्फ
शून्य होओ।
प्रतीक्षा भी
मत करो।
शून्यता
ही अशांत है।
जब तुम सचमुच
शून्य हो, खाली हो,
तो अज्ञात
तुम पर उतर
आया। ऐसा नहीं
है कि पहले
तुम शून्य होओ
और तब अज्ञात
उतरता है। तुम
शून्य हुए कि
अज्ञात उतरा;
इसमें एक
क्षण का भी
अंतराल नहीं
है। शून्यता
और अज्ञात एक
ही हैं।
आरंभ
में वह
तुम्हें
रिक्तता जैसा, खालीपन
जैसा मालूम
पड़ता है, वैसा
मालूम पड़ता है
क्योंकि तुम
हमेशा अहंकार
से भरे रहे हो।
सच तो यह है कि
तुम्हें
अहंकार की
अनुपस्थिति
मालूम हो रही
है और इसीलिए
तुम खालीपन
अनुभव करते हो।
पहले अहंकार
विलीन होता है;
लेकिन
अहंकार का
अभाव खालीपन
का एक भाव
पैदा करता है।
सिर्फ एक
अनुपस्थिति :
कुछ जो पहले
था और अब नहीं
है। अहंकार तो
चला गया है, लेकिन उसकी
अनुपस्थिति
महसूस होती है।
तो
पहले अहंकार
विलीन होगा और
फिर अहंकार का
अभाव विलीन
होगा। उसके
बाद ही तुम
वस्तुत: शून्य
होंगे। और
वस्तुत: शून्य
होना वस्तुत:
भरा होना है, पूर्ण
होना है।
वह आंतरिक
आकाश दिव्य है, भागवत है,
जो अहंकार
की
अनुपस्थिति
से निर्मित
होता है भागवत
को कहीं बाहर
से नहीं आना
है; तुम
पहले से ही
भागवत हो।
क्योंकि तुम
अहंकार से भरे
हो, इसलिए
तुम उसे समझ
नहीं सकते, देख नहीं
सकते, छू
नहीं सकते। अहंकार
का परदा
तुम्हें
रोकता है।
जब
अहंकार विदा
हो गया, सीमा समाप्त
हो गई। वहा अब
कोई परदा नहीं
है। आने को
कुछ भी नहीं
है, जो आने
को है वह आया
ही हुआ है। यह
स्मरण रहे कि
कुछ भी नया आने
को नहीं है, जो भी है
संभव है वह पहले
से है मौजूद ही
है। इसलिए
सवाल पाने का
नहीं है, सवाल
सिर्फ अनावृत
करने का है, उघाड़ने का है।
खजाना मौजूद
है, पर
ढंका हुआ है—तुम
सिर्फ उसे उघाडते
हो।
जब
बुद्ध ज्ञान
को उपलब्ध हुए
तो उनसे बार—बार
पूछा गया : 'आपने
क्या पाया? आपने क्या
उपलब्ध किया?'
कहते हैं कि
बुद्ध ने कहा. 'मैंने कुछ
पाया नहीं, बल्कि मैंने
खोया, मैंने
अपने को खोया।
और जो मैंने
पाया है वह तो
सदा से था; इसलिए
मैं नहीं कह
सकता कि मैंने
इसे उपलब्ध किया।
पहले मुझे
इसका बोध नहीं
था; अब
मुझे बोध हो
गया है। लेकिन
मैं यह नहीं
कह सकता कि
मैंने इसे
पाया है।
बल्कि अब मुझे
आश्चर्य होता
है कि यह कैसे
संभव हुआ कि इसे
मैंने अब तक
नहीं जाना। और
वह सदा साथ ही
था, बस जरा
सजग होने की
बात थी।’
भगवत्ता
भविष्य में
नहीं है।
तुम्हारी
भगवत्ता
वर्तमान में
है, यहां
और अभी है।
ठीक इसी क्षण
तुम भगवान हो।
हां, तुम्हें
इसका बोध नहीं
है। तुम सही
दिशा में नहीं
देख रहे हो, या तुम उससे
लयबद्ध नहीं
हो। इतनी ही
बात है। जैसे
कि एक रेडियो
कमरे में रखा
है। ध्वनि—तरंगें
अभी भी यहां
से गुजर रही
हैं; लेकिन
रेडियो किसी
तरंग—विशेष से
नहीं जुड़ा है।
तो ध्वनि
अव्यक्त है, अप्रकट है।
तुम रेडियो को
तरंग—विशेष से
जोड़ दो और
ध्वनि—तरंग
प्रकट हो
जाएगी। बस लयबद्ध
होने की बात
है, तालमेल
भर बैठाना है।
यह लयबद्ध
होना ही ध्यान
है। और जब तुम
लयबद्ध होते
हो, अव्यक्त
व्यक्त हो
जाता है, अप्रकट
प्रकट हो जाता
है।
लेकिन
स्मरण रहे, कामना मत
करो। क्योंकि
कामना
तुम्हें
शून्य नहीं
होने देगी। और
अगर तुम शून्य
नहीं हो तो
कुछ नहीं होगा,
क्योंकि
वहां अवकाश ही
नहीं है। तो
तुम्हारा
अव्यक्त
स्वभाव
व्यक्त नहीं
होगा। उसे
व्यक्त होने
के लिए, अवकाश
चाहिए, स्थान
चाहिए, शून्यता
चाहिए।
और यह
मत पूछो कि
शून्यता के
साथ कैसे रहा
जाए। वह असली
सवाल नहीं है।
बस शून्य होओ।
तुम अभी शून्य
नहीं हो। अगर
तुमने एक बार
जान लिया कि
शून्यता क्या
है तो तुम
उससे प्रेम
करने लगोगे।
वह परम आनंद
है। यह वह
सुंदरतम
अनुभव है जो
मन, मनुष्य
और चेतना के
लिए संभव है।
तब तुम नहीं
पूछोगे कि
शून्यता के
साथ कैसे रहा
जाए। तुम यह
प्रश्न इस तरह
पूछ रहे हो
मानो शून्यता
कुछ घबड़ाने
वाली चीज है।
अहंकार को घबड़ाहट
मालूम पड़ती है।
अहंकार सदा
शून्यता से
भयभीत है।
इसीलिए तुम
पूछते हो कि
इसके साथ कैसे
रहा जाए—मानो
यह कोई दुश्मन
हो।
शून्य
तुम्हारा
अंतरस्थ
केंद्र है, तुम्हारा
अंतरतम है।
सारी गतिविधि
परिधि पर है; अंतरस्थ
केंद्र मात्र
शून्य है। जो
भी व्यक्त है,
प्रकट है, सब सतह पर है,
तुम्हारे
प्राणों का गहनतम
केंद्र
अव्यक्त
शून्य है।
बुद्ध ने उसे
नाम दिया है.
शून्यता। वही
तुम्हारा
स्वभाव है; वही
तुम्हारा
होना है, वही
तुम्हारी
आत्मा है। उसी
शून्य से सब
कुछ आता है और
फिर उसमें ही
वापस समा जाता
है। वह शून्य
उदगम है, स्रोत
है।
तो मत
पूछो कि उसे
कैसे भरा जाए।
क्योंकि जब भी
तुम उसे भरने
का प्रयास
करोगे, तुम और—और
अहंकार ही
निर्मित
करोगे। शून्य
को भरने का
प्रयास ही तो
अहंकार है। और
यह
कामना भी कि
अब कुछ उतरे—कोई
परमात्मा, कोई परम
शक्ति, कोई
अज्ञात शक्ति उतरे—यह
कामना भी एक
विचार ही है।
तुम परमात्मा
के संबंध में
जो कुछ भी सोच—विचार
करोगे वह
परमात्मा
नहीं होगा; वह तुम्हारा
विचार ही होगी।
जब तुम कहते
हो कि वह अज्ञात
है तो इतना कहते
ही तुमने उसे ज्ञात
बना दिया। तुम
अज्ञात के
बारे में क्या
जानते हो? यह कहना
भी कि वह
अज्ञात है
बताता है कि
तुम्हें कोई
गुण मालूम है—यह
मालूम है कि
वह अज्ञात है।
मन अज्ञात की
धारणा नहीं
बना सकता; विचार
में आते ही
अज्ञात ज्ञात
हो जाता है।
मन जो कुछ भी
कहेगा वह महज
शब्द—जाल होगा,
विचार—प्रक्रिया
होगा।
'परमात्मा'
शब्द
परमात्मा
नहीं है।
परमात्मा का
विचार
परमात्मा
नहीं है। और
जब विचार नहीं
है तो तुम
जानोगे कि
परमात्मा
क्या है, तुम
अनुभव करोगे
कि परमात्मा
क्या है। उसके
संबंध में कुछ
और नहीं कहा
जा सकता है।
उसका सिर्फ
संकेत हो सकता
है, इशारा
किया जा सकता
है। और सभी
संकेत अधूरे
हैं; क्योंकि
वे परोक्ष हैं।
इतना
ही कहा जा
सकता है कि जब
तुम नहीं हो, वह है। और
तुम तब नहीं
हो जब कामना
नहीं है, क्योंकि
तुम कामना से
जीते हो।
कामना वह भोजन
है, जिसके
सहारे तुम
जीते हो।
कामना ईंधन है।
जब कोई कामना
नहीं है, चाह
नहीं है, भविष्य
नहीं है और जब
तुम नहीं हो, तब वह
शून्यता
अस्तित्व की
पूर्णता हो
जाती है। उस
शून्यता में
सारा
अस्तित्व तुम
पर प्रकट हो
जाता है। तुम
अस्तित्व के
साथ एक हो
जाते हो।
तो मत
पूछो कि
शून्यता के
साथ कैसे रहा
जाए। पहले
शून्य होओ। यह
पूछने की
जरूरत नहीं है
कि उसके साथ
कैसे रहा जाए।
वह इतना आनंदपूर्ण
है; वह गहनतम
आनंद है। जब
तुम पूछते हो
कि शून्यता के
साथ कैसे रहा
जाए तो तुम
वस्तुत: यह
पूछ रहे हो कि
स्वयं के साथ
कैसे रहा जाए।
लेकिन तुमने
अभी स्वयं को
नहीं जाना है।
उसमें और—और
गहरे प्रवेश
करो।
ध्यान
में तुम्हें
कभी—कभी एक
तरह की
शून्यता का
अनुभव होता है; वह
वास्तविक
शून्यता नहीं
है। मैं उसे
एक तरह की
रिक्तता कहता
हूं। ध्यान
में कुछ
क्षणों के लिए
तुम्हें ऐसा
अनुभव होगा
जैसे कि विचार
की प्रक्रिया
ठहर गई है।
शुरू—शुरू में
ऐसे अंतराल
आएंगे। लेकिन
क्योंकि
तुम्हें ऐसा
अनुभव होता है
जैसे कि विचार
की प्रक्रिया
ठहर गई है, इसलिए
यह भी एक विचार
ही है—बहुत
सूक्ष्म
विचार। तुम
क्या कर रहे
हो? तुम
भीतर— भीतर कह
रहे हो. 'विचार
की प्रक्रिया
ठहर गई है।’ लेकिन यह
क्या है? यह
एक सूक्ष्म
विचार—प्रक्रिया
है, जो अब
आरंभ हुई है।
और तुम कहते
हो, यह
शून्यता है।
तुम कहते हो, अब कुछ घटित
होने वाला है।
यह क्या है? फिर एक नई
विचार—प्रक्रिया
आरंभ हो गई।
जब ऐसा
फिर हो तो
उसके शिकार मत
बनना। जब
तुम्हें लगे
कि कोई मौन
उतर रहा है, तो उसे
शब्द देना मत
शुरू कर देना।
शब्द देकर तुम
उसे नष्ट कर
देते हो।
प्रतीक्षा
करो; किसी
चीज की
प्रतीक्षा
नहीं, सिर्फ
प्रतीक्षा
करो। कुछ करो
मत। यह भी मत
कहो कि यह
शून्यता है।
जैसे ही तुम
यह कहते हो, तुम उसे
नष्ट कर देते
हो। उसे देखो,
उसमें
प्रवेश करो, उसका
साक्षात करो।
लेकिन
प्रतीक्षा
करो, उसे
शब्द मत दो।
जल्दी क्या?
शब्द
देकर मन फिर
दूसरे रास्ते
से प्रवेश कर
गया; उसने
तुम्हें धोखा
दे दिया। मन
की इस चालबाजी
के प्रति सजग
रहो। शुरू—शुरू
में ऐसा होना
अनिवार्य है।
तो जब फिर ऐसा
हो तो रूको, प्रतीक्षा करो।
उसके जाल में मत
फंसो। कुछ
कहो मत; चुप
रहो। तब तुम गहरे
प्रवेश करोगे,
और तब वह खोंएगी
नहीं।
क्योंकि तुम
एक बार सच्ची
शून्यता को
जान लो तो फिर
वह खोती नहीं
है। सच्ची
शून्यता कभी
नहीं खोती है,
यही उसकी
गुणवत्ता है।
और एक
बार तुमने
अपने आंतरिक खजाने को
जान लिया, एक बार
तुम अपने
अंतरतम
केंद्र के
संपर्क में आ
गए, तो फिर
तुम अपने काम—
धाम में लगे
रह सकते हो, तुम जो चाहो
कर सकते हो, तुम सामान्य
सांसारिक जिंदगी
जी सकते हो—और
यह शून्य
तुम्हारे साथ
रहेगा। तुम
इसे भूल नहीं
सकते; भीतर
वह शून्य बना
रहेगा। इसका
संगीत सतत
सुनाई देगा।
तुम जो भी
करोगे, करना
सतह पर रहेगा,
भीतर तुम
शून्य के
शून्य रहोगे।
और अगर
तुम भीतर
शून्य रह सके, करना
सिर्फ सतह पर
चलता रहा, तो
तुम जो भी
करोगे वह
दिव्य हो
जाएगा, तुम
जो भी करोगे
उसमें
भगवत्ता का
स्पर्श होगा।
क्योंकि अब
कृत्य तुमसे
नहीं आ रहा है,
अब कृत्य
मूलभूत
शून्यता से आ
रहा है। तब
अगर तुम
बोलोगे तो वे
शब्द
तुम्हारे
नहीं होंगे।
यही
मतलब है
मोहम्मद का जब
वे कहते हैं
कि 'कुरान
मैंने नहीं कहां,यह मुझ पर
ऐसे उतरा है
जैसे किसी और
ने मेरे द्वारा
कहा हो।’ यह
आंतरिक शून्य
से आया है।
यही अर्थ है
हिंदुओं का जब
वे कहते हैं
कि 'वेद
मनुष्य के
द्वारा नहीं
लिखे गए हैं; वे अपौरुषेय
हैं, स्वयं
भगवान ने
उन्हें कहा है।’
वह जो
अति
रहस्यपूर्ण
है, उसको
प्रतीकों में
कहने के ये
उपाय हैं। और
यही रहस्य है
जब तुम
आत्यंतिक रूप
से शून्य हो
तो तुम जो भी
कहते हो या
करते हो वह
तुमसे नहीं
आता है—क्योंकि
तुम तो बचे ही
नहीं। वह
शून्यता से
आता है; वह
अस्तित्व के गहनतम
स्रोत से आता
है। वह उसी
स्रोत से आता
है जिससे यह
सारा
अस्तित्व आया
है। तब तुम
गर्भ में
प्रवेश कर गए—सीधे
अस्तित्व के
गर्भ में। तब
तुम्हारे
शब्द
तुम्हारे
नहीं हैं, तब
तुम्हारे
कृत्य
तुम्हारे
नहीं हैं। अब
मानो तुम एक
उपकरण भर हो—समस्त
के हाथों में।
अगर
क्षण भर के
लिए शून्यता
अनुभव में आए
और बिजली की
कौंध की तरह
चली जाए तो वह
शून्यता
सच्ची नहीं है।
और अगर तुम उस
पर विचार करने
लगोगे तो वह
क्षणिक
शून्यता भी खो
जाएगी। उस
क्षण में
विचार न करना
बड़े साहस का
काम है। मेरे
देखे, यह
सबसे बड़ा संयम
है। जब मन
शांत हो जाता
है और तुम
शून्य में गिर
रहे होते हो
तो उस क्षण
में नहीं
सोचने के लिए
सर्वाधिक
साहस की जरूरत
है। क्योंकि
उस क्षण मन का
सारा अतीत बल
मारेगा, उसका
समस्त यंत्र
कहेगा कि अब
सोच—विचार करो।
सूक्ष्म
ढंगों से, परोक्ष
ढंगों से
तुम्हारी
अतीत की
स्मृतियां
तुम्हें
सोचने को
बाध्य करेंगी।
और अगर तुमने
सोच—विचार
शुरू कर दिया
तो तुम वापस आ
गए।
अगर उस
क्षण में तुम
शांत रह सको, अगर तुम
अपने मन और
स्मृतियों के
जाल में न पड़ो—यही
असली शैतान है
जो तुम्हें
फुसलाता है।
तुम्हारा
अपना ही मन
तुम्हें
फुसलाता है।
जैसे ही तुम
शून्य होने
लगते हो, मन
कुछ तरकीब
करता है कि
तुम सोच—विचार
में पड़ जाओ।
अगर तुम सोच—विचार
में पड़ गए तो
तुम वापस आ गए।
कहा
जाता है कि जब
महान गुरु
बोधिधर्म चीन
गए तो बहुत से
शिष्य उनके
पास इकट्ठे हो
गए। वे प्रथम
झेन गुरु थे।
एक शिष्य, जो
प्रधान शिष्य
होने वाला था,
उनके पास आया
और उसने कहा : 'मैं बिलकुल शून्य
हो गया हूं।’ बोधिधर्म ने
तुरंत ही उसे
एक तमाचा मारा
और कहा. 'अब
जाओ और इस
शून्यता को भी
बाहर फेंक आओ।
अभी तुम शून्यता
से भरे हो, इसे
भी फेंक आओ तो ही
तुम सचमुच शून्य
होगें।‘
तुम
समझे? तुम
शून्यता के
विचार से भी
भरे हो सकते
हो। तब वह तुम
पर मंडराता
रहेगा, वह
बादल बन जाएगा।
अगर तुम कहते
हो कि मैं
शून्य हूं तो
तुम शून्य
नहीं हो। अब
यह 'शून्य'
शब्द
तुम्हारे मन
में है और तुम
उससे भरे हो।
मैं भी तुमसे
यही कहता हूं : 'इस शून्यता
को भी जाने दो।’
दूसरा
प्रश्न :
आपने
मनुष्य के मन
के रूपांतरण
की, आमूल
परिवर्तन चर्चा
की, मनुष्य
के अचेतन को चेतन
में बदलने की
चर्चा की और
कहा कि
अध्यात्म एक
अस्तित्वगत
प्रयोग है। लेकिन
कल रात आपने
कहा कि अहंकार
एक झूठी इकाई
है और उसमें कोई
सार—सत्य
नहीं है। तो
क्या इसका
मतलब है कि
सारा आध्यात्मिक
प्रयोग उस
अहंकार का अस्तित्वगत
रूपांतरण है
जो कि है ही नहीं?
नहीं।
आध्यात्मिक
रूपांतरण
अहंकार का
रूपांतरण नहीं
है, वह
उसका विसर्जन
है। तुम्हें
अहंकार को
रूपांतरित
नहीं करना है;
क्योंकि वह
कितना भी
रूपांतरित हो,
अहंकार अहंकार
ही रहेगा। वह
सूक्ष्म हो
सकता है, ज्यादा
परिष्कृत, ज्यादा
सुसंस्कृत हो
सकता है, लेकिन
अहंकार अहंकार
ही रहेगा। और
वह जितना
ज्यादा
सुसंस्कृत
होगा, उतना
ज्यादा
जहरीला हो
जाएगा। वह
जितना ज्यादा
सूक्ष्म होगा,
तुम उतने ही
उसके चंगुल
में फंस जाओगे,
क्योंकि
तुम्हें उसका
पता ही नहीं
चलेगा।
तुम्हें तो
अपने इतने
स्थूल अहंकार
का भी पता
नहीं है, जब
वह सूक्ष्म हो
जाएगा तो तुम
उसे कैसे जान
सकोगे? तब
तो जानने की
कोई संभावना
नहीं रहेगी।
अहंकार
को परिष्कृत
करने के उपाय
हैं, लेकिन
वे उपाय
अध्यात्म के
उपाय नहीं हैं।
नैतिकता
उन्हीं
उपायों पर
आधारित है, और नैतिकता
और धर्म में
यही भेद है।
नैतिकता
अहंकार को
परिष्कृत करने
के उपायों के
सहारे जीती है;
नैतिकता
प्रतिष्ठा पर
खड़ी है। हम
आदमी को कहते
हैं. 'यह मत
करो। अगर तुम
ऐसा करोगे तो
तुम्हारी
प्रतिष्ठा खतरे
में पड़ जाएगी।
यह मत करो; लोग
क्या कहेंगे?
ऐसा मत करो,
तुम्हें
सम्मान नहीं
मिलेगा। यह
करो, और सब
लोग तुम्हें
सम्मान देंगे।’
सारी
नैतिकता
अहंकार पर खड़ी
है, सूक्ष्म
अहंकार पर।
धर्म
अहंकार का
रूपांतरण
नहीं है, धर्म
अतिक्रमण है।
तुम बस अहंकार
को छोड़ देते
हो। और तुम इस
कारण से नहीं
छोड़ते हो
क्योंकि वह गलत
है। इस भेद को
स्मरण रखो।
नैतिकता कहती
है : 'जो गलत
है उसे छोड़ो
और जो सही है
उसे ग्रहण करो।’
धर्म कहता
है. 'जो
असत्य है—गलत
नहीं—उसे छोड़ो।
गलत को नहीं, झूठ को त्यागो।
जो असत्य है
उसे छोड़ो
और सत्य में
प्रवेश करो।’
अध्यात्म
में सत्य का
मूल्य है, सही का
नहीं।
क्योंकि सही
भी असत्य हो
सकता है। और
एक झूठे संसार
में झूठी गलत
चीजों के
विपरीत झूठी
सही चीजों की
जरूरत पड़ती है।
तो अध्यात्म
अंहकार का रूपांतरण
नहीं है, वह अतिक्रमण
है। तुम अंहकार
के पार चले
जाते हो। और
यह पार चले
जाना ही जागरण
है। यह देख लेना
एक गहन सजगता है
कि अहंकार है
या नहीं। अगर
अहंकार है, अगर वह
तुम्हारा एक
अंग है, एक
वास्तविक अंग है,
तो तुम उसके
पार नहीं जा
सकते हो। अगर
वह असत्य है
तो ही
अतिक्रमण
संभव है। तुम
स्वप्न से जाग
सकते हो; तुम
सत्य से नहीं
जाग सकते। या
जाग सकते हो? तुम सत्य
का अतिक्रमण
कर सकते हो; तुम सत्य का
अतिक्रमण
नहीं कर सकते।
अहंकार
झूठी इकाई है।
और हमारा क्या
मतलब है जब हम
कहते हैं कि
अहंकार झूठी
इकाई है।
हमारा मतलब यह
है कि अहंकार
इसलिए है, क्योंकि
तुमने उसका
साक्षात नहीं
किया है। अगर
तुम उसका
साक्षात कर लो
तो वह नहीं
होगा। अहंकार
तुम्हारे अज्ञान
में होता है, क्योंकि तुम
मूर्च्छित हो
इसलिए वह है।
अगर तुम
बोधपूर्ण हो
जाओ तो वह
नहीं रहेगी।
अगर तुम
बोधपूर्ण
होते हो, जागरूक
होते हो और
तुम्हारे सजग
होने से कोई चीज
विलीन हो जाती
है तो समझना
चाहिए कि वह
चीज झूठी है।
बोध में सत्य
प्रकट होगा और
असत्य विलीन
हो जाएगा।
तो यह
कहना भी ठीक
नहीं है कि
अपने अहंकार
को छोड़ो।
क्योंकि जब भी
यह कहा जाता
है कि अहंकार
को छोड़ो
तो उससे ऐसा
लगता है कि
अहंकार कुछ है
और उसे तुम
छोड़ सकते हो।
और तुम अहंकार
को छोड़ने के
लिए घोर
प्रयत्न भी कर
सकते हो।
लेकिन यह सारा
प्रयत्न
व्यर्थ होगा।
तुम उसे दूर
नहीं कर सकते
हो, क्योंकि
जो हो उसे ही
दूर किया जा
सकता है। तुम
उससे लड़ भी
नहीं सकते हो—छाया
से कैसे लड़
सकते हो? और
अगर लड़ोगे,
तो स्मरण
रहे, तुम
ही हारोगे।
तुम इस कारण
नहीं हारोगे
कि छाया बहुत
शक्तिशाली
है, तुम
इसलिए हारोगे
क्योंकि छाया
नहीं है। तुम
उसे नहीं हरा
सकते हो, तुम
ही हारोगे और
अपनी मूर्खता
के कारण
हारोगे।
छाया
से लड़ कर तुम
कभी नहीं जीत
सकते, यह
निश्चित है।
तुम हारोगे, यह भी
निश्चित है।
क्योंकि लड़ कर
तुम अपनी ही
ऊर्जा नष्ट
करोगे। ऐसा
नहीं है कि
छाया बहुत
शक्तिशाली है;
सच्चाई यह
है कि छाया है
ही नहीं। तुम
स्वयं से लड़कर
अपनी ऊर्जा गंवा
रहे हो। फिर
तुम थक जाओगे
और गिर जाओगे।
और तब तुम
सोचोगे कि छाया
जीत गई और मैं
हार गया। और
छाया थी ही
नहीं। अगर तुम
अहंकार से लड़ोगे
तो तुम हारोगे।
अच्छा है कि
उसमें प्रवेश
करो और खोजो
कि वह कहा है।
कथा है
कि चीन के
सम्राट ने
बोधिधर्म से
पूछा. 'मेरा
चित्त अशांत
है, बेचैन
है। मेरे भीतर
निरंतर अशांति
मची रहती है।
मुझे थोड़ी शांति
दें या मुझे
कोई गुप्त
मंत्र बताएं
कि कैसे मैं आंतरिक
मौन को उपलब्ध
होऊं।’
बोधिधर्म
ने सम्राट से
कहा : 'आप
सुबह
ब्रह्ममुहूर्त
में यहां आ
जाएं, चार
बजे सुबह आ
जाएं। जब यहां
कोई भी न हो, जब मैं यहां
अपने झोपड़े
में अकेला
होऊं, तब आ जाए।
और याद रहे, अपने अशांत
चित्त को अपने
साथ ले आएं; उसे घर पर ही
न छोड़ आएं।’
सम्राट
घबरा गया, उसने
सोचा कि यह
आदमी पागल है।
यह कहता है. 'अपने अशांत
चित्त को साथ
लिए आना; उसे
घर पर मत छोड़
आना। अन्यथा
मैं शांत किसे
करूंगा? मैं
उसे जरूर शांत
कर दूंगा, लेकिन
उसे ले आना।
यह बात
भलीभांति
स्मरण रहे।’ सम्राट घर
गया, लेकिन
पहले से भी
ज्यादा अशांत
होकर गया।
उसने सोचा था
कि यह आदमी
संत है, ऋषि
है, कोई
मंत्र—तंत्र
बता देगा।
लेकिन यह जो
कह रहा है वह
तो बिलकुल
सम्राट
रात भर सो न
सका।
बोधिधर्म की आंखें
और जिस ढंग से
उसने देखा था, वह
सम्मोहित हो
गया था। मानो
कोई चुंबकीय
शक्ति उसे
अपनी ओर खींच
रही हो। सारी
रात उसे नींद
नहीं आई। और
चार बजे सुबह
वह तैयार था।
वह वस्तुत:
नहीं जाना
चाहता था, क्योंकि
यह आदमी पागल
मालूम पड़ता था।
और इतने सबेरे
जाना, अंधेरे
में जाना, जब
वहा कोई न
होगा, खतरनाक
था। यह आदमी
कुछ भी कर
सकता है।
लेकिन फिर भी
वह गया, क्योंकि
वह बहुत
प्रभावित भी
था।
और
बोधिधर्म ने
पहली चीज क्या
पूछी? वह
अपने झोपड़े
में डंडा लिए
बैठा था। उसने
कहा : 'अच्छा
तो आ गए, तुम्हारा
अशांत मन कहां
है? उसे
साथ लाए हो न? मैं उसे
शांत करने को
तैयार बैठा
हूं।’ सम्राट
ने कहा : 'आप
कह क्या रहे
हैं! कोई अपने
मन को कैसे
भूल सकता है? वह तो सदा
साथ है।’
बोधिधर्म
ने कहा 'कहां? वह
कहा है? मुझे
दिखाओ ताकि
मैं उसे शांत
कर दूं और तुम
घर वापस जाओ।’
सम्राट ने
कहा : 'लेकिन
यह कोई वस्तु
नहीं है, मैं
आपको दिखा
नहीं सकता हूं।
मैं इसे अपने
हाथ में नहीं
ले सकता; यह
मेरे भीतर है।’
बोधिधर्म
ने कहा : 'बहुत अच्छा,
अपनी आंखें
बंद करो, और
खोजने की चेष्टा
करो कि चित्त
कहां है। और
जैसे ही तुम
उसे पकड़ लो, आंखें खोलना
और मुझे बताना
मैं उसे शांत
कर दूंगा।’
उस
एकांत में और
इस पागल
व्यक्ति के
साथ—सम्राट ने
आंखें बंद कर
लीं। उसने
चेष्टा की, बहुत
चेष्टा की। और
वह भयभीत भी
था, क्योंकि
बोधिधर्म
अपना डंडा लिए
बैठा था, किसी
भी क्षण चोट
कर सकता था।
सम्राट भीतर
खोजने की
कोशिश करता
रहा। उसने सब
जगह खोजा, प्राणों
के कोने—कातर
में झांका,
खूब खोजा कि
कहां है वह मन
जो कि इतना अशांत
है। और जितना
ही उसने देखा
उतना ही उसे
बोध हुआ कि अशांति
तो विलीन हो
गई। उसने
जितना ही खोजा
उतना ही मन
नहीं था, छाया
की तरह मन खो
गया था।
दो
घंटे गुजर गए
और उसे इसका
पता भी नहीं
था कि क्या हो
रहा है। उसका
चेहरा शांत हो
गया; वह
बुद्ध की
प्रतिमा जैसा
हो गया। और जब
सूर्योदय
होने लगा तो
बोधिधर्म ने
कहा : 'अब आंखें
खोलों। इतना
पर्याप्त है।
दो घंटे पर्याप्त
से ज्यादा हैं।
अब क्या तुम
बता सकते हो
कि चित्त कहां
है?'
सम्राट
ने आंखें खोलीं।
वह इतना शांत
था जितना कि
कोई मनुष्य हो
सकता है। उसने
बोधिधर्म के
चरणों पर अपना
सिर रख दिया और
कहा : 'आपने
उसे शांत कर
दिया।’
सम्राट
बू ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है. 'यह व्यक्ति
अदभुत है, चमत्कार
है। इसने कुछ
किए बिना ही
मेरे मन को
शांत कर दिया।
और मुझे भी
कुछ न करना
पड़ा। सिर्फ मैं
अपने भीतर गया
और मैंने यह
खोजने की
कोशिश की कि
मन कहा।
निश्चित ही बोधिधर्म
ने सही कहा कि
पहले उसे खोजो
कि वह कहां है।
और उसे खोजने
का प्रयत्न ही
काफी था—वह
कहीं नहीं
पाया गया।’
तुम अंहकार
कहीं नहीं मिलेगा।
अगर तुम भीतर
जाओगे, अगर तुम खोजोगे,
तो तुम्हें
वह कहीं नहीं
मिलेगा। वह
कभी था ही
नहीं। मन एक
झूठा परिपूरक
है, भ्रांति
है। उसकी थोड़ी
उपयोगिता है;
इसीलिए
तुमने उसकी
ईजाद कर ली है।
क्योंकि तुम
अपने असली
होने को, अपने
सच्चे केंद्र
को नहीं जानते
हो और केंद्र
के बिना काम
नहीं चल सकता
है, इसलिए
तुम ने एक
काल्पनिक
केंद्र
निर्मित कर लिया
है। और तुम
उससे अपना काम
चला लेते हो।
असली
केंद्र का
तुम्हें पता
नहीं है, इसलिए तुमने
एक झूठा
केंद्र
निर्मित कर
लिया है।
अहंकार एक
झूठा केंद्र
है, कामचलाऊ
केंद्र है।
केंद्र के
बिना जीना
कठिन है, काम
चलाना कठिन है।
तुम्हें काम
चलाने के लिए
एक केंद्र की
जरूरत है। और
तुम अपने असली
केंद्र को
नहीं जानते हो,
इसलिए मन ने
एक झूठा
केंद्र
निर्मित कर
लिया है। मन
परिपूरक निर्मित
करने में, सब्स्टिटूयट बनाने में
बहुत कुशल है।
वह सदा
परिपूरक
चीजें
तुम्हें पकड़ा
देता है—अगर
तुम असली को न
पा सकी।
अन्यथा तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे।
केंद्र के
बिना तुम पागल
हो जाओगे, खंड—खंड
हो जाओगे, कोई
एकता नहीं रह
जाएगी। इसलिए
मन झूठा
केंद्र
निर्मित कर लेता
है।
स्वप्न
में ऐसा ही
होता है।
तुम्हें
प्यास लगी है।
अब अगर यह
प्यास तीव्र
हो जाए तो
नींद में बाधा
पड़ेगी, तुम्हें
पानी पीने के
लिए उठना पडेगा।
अब तुम्हारा
मन सल्लीटयूट
निर्मित
करेगा; वह
एक स्वप्न
निर्मित
करेगा। अब
तुम्हें उठना
नहीं पड़ेगा; अब नींद में कोई
बाधा नहीं
होगी। तुम स्वप्न
देखते हो कि
तुम पानी पी
रहे हो; तुम
फ्रिज से पानी
निकाल कर पी
रहे हो। मन ने
तुम्हें
परिपूरक दे
दिया, अब
तुम निश्चित
हो। असली
प्यास बुझी
नहीं है, बस
धोखा दिया गया
है। लेकिन अब
तुम्हें लगता
है कि मैंने
पानी पी लिया।
अब तुम सो रह
सकते हो, तुम्हारी
नींद अबाधित
जारी रह सकती
है।
सपनों
में तुम्हारा
मन निरंतर
तुम्हें परिपूरक
चीजें देता
रहता है, ताकि
तुम्हारी
नींद न टूटे।
और वही बात
तुम्हारे
जागते में भी
होती है। मन
तुम्हें
विक्षिप्तता
से बचाने के
लिए परिपूरक
देता रहता है;
अन्यथा तुम
खंड—खंड हो
जाओगे, बिखर
जाओगे।
जब तक
असली केंद्र
का पता नहीं
चलता, अहंकार
की जरूरत
रहेगी। और जब
असली केंद्र
जान लिया गया
तो पानी के बारे
में सपना
देखने की
जरूरत नहीं
रहती है।
ध्यान
तुम्हें असली
केंद्र देता
है। और उसके
साथ ही झूठे
केंद्र की
उपयोगिता
समाप्त हो
जाती है।
लेकिन
यह बात ध्यान
में आनी जरूरी
है कि अहंकार
तुम्हारा
असली केंद्र
नहीं है, तो ही तुम
सत्य की खोज
आरंभ कर सकते
हो। और
अध्यात्म
अहंकार का
रूपांतरण
नहीं है; वह
रूपांतरित
नहीं हो सकता।
वह असत्य है, वह है ही
नहीं, तुम
उसके साथ कुछ
नहीं कर सकते
हो। अगर तुम
बोधपूर्ण हो,
सजग हो, अगर
तुम अपने भीतर
उसका
निरीक्षण
करते हो, तो
अहंकार विलीन
हो जाता है।
तुम्हारे बोध
के प्रकाश में
वह नहीं पाया
जाता है।
अध्यात्म
अतिक्रमण है।
तीसरा
प्रश्न :
अगर
अहंकार झूठ है
तो क्या उसका
मतलब यह नहीं
है कि अचेतन
मनु मस्तिष्क
की कोशिकाओं में
स्मृतियों को
संग्रह और रूपांतरण
की प्रक्रिया, यह सब भी झूठ
है, स्वप्न
की प्रक्रिया का
ही हिस्सा है?
नहीं। अहंकार
झूठ हैं। मस्तिष्क
की कोशिकाएं झूठ
नहीं है। अहंकार
झूठ है; स्मृतियां झूठ
नहीं है। अहंकार
झूठ है: विचार
की प्रक्रिया
झूठ नहीं है।
विचार की
प्रक्रिया सच
है। स्मृतियां
सच हैं; मस्तिष्क
की कोशिकाएं
सच हैं, तुम्हारा
शरीर सच है।
तुम्हारा
शरीर सच है और
तुम्हारी
आत्मा सच है।
ये दो सच हैं।
लेकिन जब
आत्मा का शरीर
से तादात्म्य
हो जाता है तो
अहंकार
निर्मित होता
है, वह
अहंकार झूठ है।
यह ऐसा
है। मैं दर्पण
के सामने खड़ा
हूं। मैं सच
हूं; लेकिन
दर्पण में जो
प्रतिबिंब है,
वह सच नहीं
है। मैं सच
हूं दर्पण भी
सच है, लेकिन
दर्पण में जो
प्रतिबिंब है
वह प्रतिबिंब
है, वह सच
नहीं है।
मस्तिष्क की
कोशिकाएं सच
हैं, चैतन्य
सच है; लेकिन
जब चैतन्य का
मस्तिष्क की
कोशिकाओं से तादात्म्य
हो जाता है तो
अहंकार निर्मित
होता है, वह
अहंकार झूठ है।
तो जब
तुम जाग जाते
हो, जब
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध
होते हो, तो
तुम्हारी
स्मृति नहीं
विलीन होती है।
स्मृति तो
रहेगी, वस्तुत:
वह पहले से
बहुत ज्यादा
पारदर्शी होगी,
बहुत
ज्यादा
स्वच्छ होगी।
तब वह ज्यादा
सही ढंग से
काम करेगी, क्योंकि तब
उसे झूठे
अहंकार से
बाधा नहीं पहुंचेगी।
उसी तरह
तुम्हारी
विचार—प्रक्रिया
नहीं विलीन
होगी, बल्कि
तुम पहली बार
विचार करने
में समर्थ होंगे।
अब तक तो तुम
केवल दूसरों
के विचार उधार
लेते थे; अब
तुम पहली बार
विचार करने
में समर्थ
होंगे।
लेकिन
अब तुम मालिक
होगे—तुम्हारी
विचार—प्रक्रिया
नहीं। पहले
विचार—प्रक्रिया
मालिक थी; उस पर
तुम्हारा कोई
वश नहीं था।
विचार—प्रक्रिया
अपने आप चलती
रहती थी, तुम
उसके गुलाम थे।
तुम सोना
चाहते थे और
मन सोच—विचार
करता रहता था।
तुम उसे रोकना
चाहते थे और
वह रुकने का
नाम नहीं लेता
था। सच तो यह
है कि तुम उसे
जितनी ही
रोकने की चेष्टा
करते थे वह
उतनी ही
ज्यादा जिद्द
पकड़ लेता था।
मन तुम्हारा
मालिक था।
लेकिन
जब तुम बुद्ध
हो जाते हो तो
मन तो होगा, लेकिन तब
वह यंत्र की
भांति होगा।
जब तुम्हें
जरूरत होगी, तुम उसका
उपयोग कर
सकोगे। और जब
तुम्हें उसकी
जरूरत नहीं
होगी, वह
तुम्हारी
चेतना में भीड़—भाड़
नहीं करेगा।
तब तुम उसका
उपयोग कर सकते
हो और तुम उसे
बंद भी कर
सकते हो। मन
की कोशिकाएं
होंगी, शरीर
होगा, स्मृति
होगी, विचार—प्रक्रिया
होगी; सिर्फ
एक चीज नहीं
होगी—मैं का
भाव नहीं होगा।
यह
समझना थोड़ा
कठिन है।
बुद्ध चलते
हैं, बुद्ध
भोजन लेते हैं,
बुद्ध सोते
हैं, बुद्ध
स्मृति का
उपयोग करते
हैं। उनकी
स्मृतियां
हैं; उनके
मस्तिष्क की
कोशिकाएं
बहुत सुंदर
ढंग से काम
करती हैं।
लेकिन बुद्ध
ने कहा है : 'मैं
चलता हूं
लेकिन मेरे
भीतर कोई नहीं
चलता है, मैं
बोलता हूं
लेकिन मेरे
भीतर कोई नहीं
बोलता है; मैं
भोजन लेता हूं
लेकिन मेरे
भीतर कोई नहीं
भोजन लेता है।’
आंतरिक
चेतना अब
अहंकार नहीं
है। इसलिए जब
बुद्ध को भूख लगती
है तो उसे वे
वैसे ही नहीं
अनुभव करते हैं
जैसे तुम करते
हो। जब
तुम्हें भूख
लगती है तो
तुम्हें लगता
है, 'मैं
भूखा हूं।' जब बुद्ध को
भूख लगती है
तो उन्हें
लगता है, 'शरीर
भूखा है, मैं
केवल जानने
वाला हूं।' और उस जानने
वाले को 'मैं'
का कोई भाव
नहीं है।
अंहकार
झूठी इकाई है—एक
मात्र झूठी इकाई—बाकी
सब कुछ यथार्थ
है, सच है।
दो सच मिल
सकते हैं और
उनके मिलन में
तीसरा उपतत्व,
आभास, निर्मित
हो सकता है।
जब दो सच
मिलते हैं तो
कोई आभास घटित
हो सकता है।
लेकिन यह
भांति तभी
घटित हो सकती
है, यदि
चेतना हो। अगर
चेतना न हो तो
भांति घटित
नहीं हो सकती
है। आक्सीजन
और हाइड्रोजन
के मिलने से
झूठा जल नहीं
बनेगा।
झूठ तो
तभी पैदा हो
सकता है जब
तुम चेतन हो, क्योंकि
चेतना ही भूल
कर सकती है, पदार्थ भूल
नहीं कर सकता
है। पदार्थ
झूठा नहीं हो
सकता, पदार्थ
सदा सच है।
पदार्थ न धोखा
दे सकता है और
न पदार्थ धोखा
खा सकता है।
सिर्फ चैतन्य
यह कर सकता है।
चेतना के साथ
ही भूल करने
की संभावना है।
लेकिन
एक दूसरी बात
भी स्मरण रहे।
पदार्थ सदा सच
है, वह
कभी झूठ नहीं
है। लेकिन साथ
ही पदार्थ कभी
सत्य नहीं है,
पदार्थ
नहीं जान सकता
कि सत्य क्या
है। अगर तुम
भूल नहीं कर
सकते तो तुम
कभी यह भी नहीं
जान सकते कि
सत्य क्या है।
दोनों
संभावनाएं
साथ—साथ खुलती
हैं। मनुष्य
की चेतना भूल
कर सकती है और
यह जान भी
सकती है कि
उससे भूल हुई
है। और यह
जानकर वह भूल
से हट भी सकती
है, भूल
को सुधार भी
सकती है। वही
उसका सौंदर्य
है। खतरा तो
है, लेकिन
खतरा
अनिवार्य है।
प्रत्येक
विकास के साथ
नए खतरे आते
हैं। पदार्थ
के लिए कोई
खतरा नहीं है।
इसे इस
तरह देखो। जब
भी अस्तित्व
में कोई नई
चीज पैदा होती
है, कोई
नई चीज विकसित
होती है, तो
उसके साथ—साथ
नए खतरे भी
पैदा हो जाते
हैं। पत्थर के
लिए कोई खतरा
नहीं है। फिर
छोटे—छोटे
जीवाणु हैं, जैसे अमीबा।
अमीबा में
कामवासना
वैसी नहीं है
जैसी मनुष्य
या पशु में है।
वे सिर्फ अपने
शरीर को
विभाजित कर
लेते हैं।
अमीबा बड़ा
होता जाता है,
जब वह एक हद
तक बड़ा हो
जाता है तो
अपने शरीर को
दो में बांट
लेता है। मूल—शरीर
दो में बंट
जाता है। अब
दो अमीबा हो
गए। ये अमीबा
अनंत काल तक
जीवित रह सकते
हैं, क्योंकि
उनका न जन्म
है और न
मृत्यु।
कामवासना
के साथ जन्म
आता है और
जन्म के साथ
मृत्यु आती है।
और जन्म के
साथ
वैयक्तिकता
आती है, और
वैयक्तिकता
के साथ अहंकार
आता है।
तो
प्रत्येक
विकास के अपने
अंतर्निहित
खतरे हैं।
लेकिन वे
सुंदर हैं।
अगर तुम्हें
समझ हो, अगर तुम समझ
सको, तो
उनमें गिरने
की जरूरत नहीं
है, तुम
उनका
अतिक्रमण कर
सकते हो। और
जब तुम उनका
अतिक्रमण
करते हो तो
तुम परिपक्व
होते हो, एक
समन्वय को
उपलब्ध होते
हो। और अगर
तुम खतरे के
शिकार हो गए
तो समन्वय नहीं
उपलब्ध होगा।
अध्यात्म
शिखर है। वह
सब विकास का
अंतिम, परम
शिखर है। झूठ
का अतिक्रमण
हो जाता है और
सच आविष्कृत
हो जाता है।
और सच ही बचता
है; झूठ
गिर जाता है।
लेकिन
यह मत सोचो कि
शरीर झूठ है, वह सच है।
वैसे ही
मस्तिष्क की
कोशिकाएं सच
हैं, विचार—प्रक्रिया
सच है। सिर्फ
चेतना और
विचार—प्रक्रिया
का तादात्म्य
झूठ है। वह एक
गांठ है; तुम
उसे खोल सकते
हो। और जिस
क्षण तुम उसे
खोलते हो, तुमने
द्वार खोल
दिया।
अंतिम
प्रश्न :
अहंकार
कैसे जान सकता
है कि जिस
आध्यात्मिक
खोज में वह
लगा है वह अहंकार
की यात्रा और
यात्रा न होकर
एक प्रामाणिक
धार्मिक खोज
है?
अगर तुम्हें
पता नहीं चल
रहा है, अगर तुम
उलझन में हो, तो पक्का
समझो कि यह
अहंकार की
यात्रा है।
अगर तुम
भ्रमित नहीं
हो, उलझन
में नहीं हो, अगर तुम
भलीभांति
जानते हो कि
यह प्रामाणिक
है, अगर
कोई संदेह
बिलकुल नहीं
है, तो ही
यह प्रामाणिक
है। और यह
किसी दूसरे को
धोखा देने का
सवाल नहीं है,
यह स्वयं को
ही धोखा देने
या न देने का
सवाल है। अगर
तुम भ्रमित हो,
संदेहग्रस्त
हो, तो यह
अहंकार की
यात्रा है।
क्योंकि जैसे
ही खोज
प्रामाणिक
होती है, संदेह
नहीं रहता है,
श्रद्धा
घटित होती है।
मुझे
दूसरे ढंग से
कहने दो। जब
भी तुम ऐसी
समस्याएं
लाते हो तो
तुम्हारा
प्रश्न ही बता
देता है कि
तुम गलत
रास्ते पर हो।
कोई मेरे पास
आता है और
कहता है 'बताइए, मेरा
ध्यान गहरे जा
रहा है अथवा
नहीं।’ मैं
उससे कहता
हूं. 'अगर
वह गहरे जा
रहा होता तो
मेरे पास आने
और मुझसे
पूछने की
जरूरत न थी।
गहराई ऐसा
अनुभव है कि
तुम उसे जान
ही लोगे। और
अगर तुम अपनी
गहराई नहीं
जान सकते तो
दूसरा कौन
जानेगा? तुम
मुझसे सिर्फ
इसलिए पूछने
आए हो, क्योंकि
तुम्हें
गहराई का
अनुभव नहीं हो
रहा है। अब
तुम चाहते हो
कि कोई दूसरा
इसे प्रमाणित
कर दे। अगर
मैं कहूं कि हां,
तुम्हारा
ध्यान गहरा हो
रहा है तो
तुम्हें बहुत
खुशी होगी। यह
अहंकार की
यात्रा है।’
जब तुम
बीमार होते हो
तो तुम जानते
हो कि मैं बीमार
हूं। कभी ऐसा
भी हो सकता है
कि बीमारी
बहुत भीतरी हो, तुम्हें
उसका पता न हो;
लेकिन इसके
विपरीत कभी
नहीं घटता है।
जब तुम बिलकुल
स्वस्थ होते
हो तो तुम्हें
इसका पता होता
है।
स्वास्थ्य
कभी छुपा नहीं
रहता है। जब
तुम स्वस्थ
होते हो तो
तुम यह जानते
हो। हो सकता
है कि अपनी
बीमारी का
तुम्हें वैसा
बोध न हो, लेकिन
स्वास्थ्य का—यदि
स्वास्थ्य है—बोध
तुम्हें रहता
है। क्योंकि
स्वास्थ्य का
बोध तुम्हें
नहीं होगा तो
किसे होगा? तुम्हारी
बीमारी के लिए
विशेषज्ञ हो
सकते हैं जो
तुम्हें बताएं
कि तुम्हें
किस तरह का
रोग है; लेकिन
तुम्हारे
स्वास्थ्य के
बारे में बताने
वाले कोई
विशेषज्ञ
नहीं हैं।
उसकी जरूरत
नहीं है।
लेकिन अगर तुम
पूछते हो कि
मैं स्वस्थ
हूं कि नहीं, तो इतना
निश्चित है कि
तुम अस्वस्थ
हो। यह पूछना
ही यह बता
देता है।
तो जब
तुम
आध्यात्मिक
खोज पर निकले
हो तो तुम जान
सकते हो कि यह
अहंकार की
यात्रा है या
प्रामाणिक
खोज है। और
तुम्हारी
भ्रांति
बताती है कि
यह प्रामाणिक
खोज नहीं है।
यह एक तरह की
अहंकार की
यात्रा है। और
अहंकार की
यात्रा क्या
है? तुम्हें
वास्तविक
तत्व की, सत्य
की चिंता नहीं
है, तुम उस
पर भी मालकियत
करने की फिक्र
में हो।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं : 'आप
तो जानते ही
हैं; और आप
हमारे बारे
में जान सकते
हैं। तो बताइए
कि हमारी
कुंडलिनी
जागी है या
नहीं।’ उन्हें
कुंडलिनी से
कुछ लेना—देना
नहीं है, कोई
मतलब नहीं है,
वे सिर्फ
प्रमाणपत्र
चाहते हैं। और
कभी—कभी मैं
खेल करता हूं
और कहता हूं : 'हां, तुम्हारी
कुंडलिनी जाग
गई है।' यह
सुनते ही वह
आदमी खुशी से
नाच उठता है।
वह बहुत उदास
आया था और जब
मैं कहता हूं
कि तुम्हारी
कुंडलिनी जाग गई
है तो वह
बच्चे की तरह
खुश हो जाता
है। वह खुशी
से भरकर लौटता
है। लेकिन
जैसे ही वह कमरे
से बाहर जाता कि
मैं उसे वापस
बुलाता और कहता:
'मैं तो मजाक
कर रहा था। यह
असली चीज नहीं
है, तुम्हें
कुछ नहीं घटा
है।’ और वह
फिर उदास हो
जाता है, उसका
मुंह लटक जाता
है। उसे किसी
जागरण की
चिंता नहीं है,
उसे यह
जानकर अच्छा
लगता है कि
मेरी
कुंडलिनी जाग
गई है और मैं
दूसरों से
श्रेष्ठ हूं।
और इसी
तरह अनेक
तथाकथित गुरु
तुम्हारा
शोषण करते हैं, क्योंकि
तुम अपने
अहंकार की
तृप्ति चाहते
हो। वे
तुम्हें
प्रमाणपत्र
दे सकते हैं, वे तुम्हें कह
सकते हैं. 'हां,तुम
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गए,
तुम बुद्ध
हो गए।’ और
तुम इस बात को
इनकार नहीं
करोगे। अगर
मैं यही बात
दस लोगों को
कहूं तो नौ
इनकार नहीं
करेंगे। वे
उससे प्रसन्न
ही होंगे। वे
ऐसे ही गुरु
की तलाश में
थे जो उन्हें
कहे कि तुम
बुद्ध हो।
झूठे
गुरु दुनिया
में हैं; क्योंकि
तुम्हें उनकी
जरूरत है। कोई
प्रामाणिक
गुरु तुम्हें
ये बातें नहीं
कहेगा और न
प्रमाणपत्र
देगा।
प्रमाणपत्र
अहंकार की
मांग है।
प्रमाणपत्र
की कोई जरूरत
नहीं है। अगर
तुम यह अनुभव
करते हो तो
तुम यह अनुभव
करते हो। यदि
सारा संसार भी
इनकार करे तो
उसे इनकार
करने दो, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। अगर
अनुभव सच्चा
है तो इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
कोई कहता है
कि तुम पहुंच
गए हो या कोई
कहता है कि
नहीं पहुंचे?
यह
अप्रासंगिक
है। लेकिन यह
अप्रासंगिक
नहीं है; क्योंकि
तुम्हारी
बुनियादी खोज
अहंकार है।
तुम मान लेना
चाहते हो कि
मैंने सब पा
लिया।
और
बहुत बार ऐसा
होता है कि जब
तुम संसार में
असफल होते हो, जब संसार
में तुम्हें
दुख मिलता है,
जब तुम वहा
सफल नहीं होते
और तुम्हें
लगता है कि
मेरी
महत्वाकांक्षा
अतृप्त रह गई
और जिंदगी
निकली जा रही
है, तो तुम
अध्यात्म की
तरफ मुड़ते
हो। वही
महत्वाकांक्षा
यहां तृप्ति
की मांग कर
रही है।
और
यहां उसको
तृप्त करना
आसान है, क्योंकि
अध्यात्म में
तुम अपने को
आसानी से धोखा
दे सकते हो, असली संसार
में, पदार्थ
के संसार में
तुम इतनी
आसानी से धोखा
नहीं दे सकते।
अगर तुम गरीब
हो तो तुम
अमीर होने का
दावा कैसे कर
सकते हो? और
तुम्हारे
दावे से कोई
धोखे में आने
वाला नहीं है।
और अगर तुमने
अमीर होने की
जिद ही ठान ली
तो तुम्हारे
इर्द —गिर्द
का सारा समाज,
सारी भीड़
कहेगी कि तुम
पागल हो गए हो।
मैं एक
आदमी को जानता
था जो सोचने
लगा कि मैं पंडित
जवाहर लाल
नेहरू हूं।
उसका परिवार, उसके
मित्र, उसके
परिवार वाले
उसे समझाते कि
ऐसी मूढ़ता
की बातें न
करो, अन्यथा
लोग तुम्हें
पागल कहेंगे।
लेकिन उसने
कहा. 'मैं मूढ़ता की
बात नहीं कर
रहा हूं; मैं
पंडित जवाहर
लाल नेहरू हूं।’
वह अपने
दस्तखत भी
जवाहर लाल
नेहरू के नाम
से करने लगा। वह
सर्किट हाउसों
को, सरकारी
अफसरों को, कलेक्टरों और
कमिश्नरों को
तार भेजता. 'मैं आ रहा
हूं: पंडित
जवाहरलाल
नेहरू।’ आखिरकार
उसे बांधकर घर
में बंद कर
दिया गया।
मैं
उससे मिलने
गया। वह मेरे
गांव में ही
रहता था। उसने
कहा. 'आप
समझदार आदमी
हैं; आप
समझ सकते हैं।
ये मूर्ख, इनमें
कोई भी मुझे
नहीं समझता है।
मैं जवाहर लाल
नेहरू हूं।’ मैंने उससे
कहा. 'यही
कारण है कि
मैं तुमसे
मिलने आया हूं।
और इन मूर्खों
से मत डरो, क्योंकि
तुम्हारे
जैसे महान
लोगों ने सदा
ही दुख झेला
है।’
उस
आदमी ने कहा : 'बिलकुल ठीक।’
वह बहुत खुश
हुआ। उससे कहा
: 'आप अकेले
आदमी हैं जो
मुझे समझ सकते
हैं। महान
पुरुषों को
दुख झेलना ही
पड़ता है।’
बाहर
की दुनिया में
अगर तुम अपने
को धोखा देने
की कोशिश
करोगे तो पागल
समझे जाओगे।
लेकिन
अध्यात्म में
यह बहुत आसान
है। तुम कह
सकते हो कि
मेरी
कुंडलिनी जाग
गई है। चूंकि
तुम्हारी पीठ
में थोड़ा दर्द
है, तुम्हारी
कुंडलिनी जाग
गई है। चूंकि
तुम्हारा
मस्तिष्क
थोड़ा
असंतुलित
मालूम पड़ता है,
तुम सोचते
हो कि चक्र
खुल रहे हैं।
तुम्हें
निरंतर
सिरदर्द रहता
है और तुम
सोचते हो कि
तीसरी आंख खुल
रही है। तुम
धोखा दे सकते
हो, और कोई
कुछ न कहेगा, कोई उत्सुक
नहीं है।
लेकिन नकली
गुरु भी हैं
जो कहेंगे : 'हां,ऐसा
ही हो रहा है।’
और तुम बहुत
खुश हो जाओगे।
अहंकार
की यात्रा का
मतलब है कि
तुम अपने को रूपांतरित
करने में
उत्सुक नहीं
हो, तुम
सिर्फ
उपलब्धि का
दावा करने में
उत्सुक हो। और
दावा आसान है;
तुम उसे
सस्ते में
खरीद सकते हो।
और यह
पारस्परिक
समझौता है। जब
गुरु, तथाकथित
गुरु कहता है
कि तुम बुद्ध
पुरुष हो तो
उसने तुम्हें
बुद्ध बना
दिया और फिर
तुम इस गुरु
को आदर देते
हो। यह
पारस्परिक
समझौता है।
तुम उसे आदर
देते हो। और
अब तुम उस
गुरु को छोड़
भी नहीं सकते,
क्योंकि
अगर तुम उस
गुरु को छोड़
दोगे तो तुम्हारे
बुद्धत्व का,
तुम्हारी
कुंडलिनी का
क्या होगा? अब तुम उसे
छोड़ नहीं सकते।
गुरु तुम पर
निर्भर है, क्योंकि तुम
उसे आदर—सम्मान
देते हो। और
तुम उस पर
निर्भर रहोगे,
क्योंकि
कोई दूसरा
विश्वास नहीं
करेगा कि तुम
जाग्रत पुरुष हो।
तुम कहीं नहीं
जा सकते। यह
एक पारस्परिक
धोखा है।
अगर
तुम
प्रामाणिक
खोज में हो तो
यह बात इतनी सस्ती
नहीं है। और
इसके लिए
तुम्हें किसी
गवाह की जरूरत
नहीं है। यह
खोज कठिन और
दुष्कर है।
इसमें जन्म—जन्म
लग सकते हैं।
और यह साधना
दुर्धर्ष है, यह लंबी
तपस्या है।
क्योंकि बहुत
कुछ तोड़ना है,
बहुत कुछ का
अतिक्रमण
करना है, एक
लंबे अर्से से
जमी जंजीरों
को तोड़ना है।
यह आसान नहीं
है। यह बच्चों
का खेल नहीं
है। क्योंकि
जब भी तुम
अपने पुराने
ढंग—ढांचे
बदलने लगते हो
तो जो भी
पुराना है उसे
हटाना पड़ता है।
और तुम्हारे
उसमें न्यस्त
स्वार्थ हैं।
तुम्हें बहुत
पीड़ा से
गुजरना होगा।
जब तुम
अपने अहंकार
की खोज में
भीतर झांकना
शुरू करोगे और
उसे नहीं
पाओगे तो
तुम्हारी
अपनी उस
प्रतिमा का
क्या होगा
जिसके साथ तुम
सदा से रहते
आए हो? तुमने
सदा सोचा है
कि मैं एक
बहुत भला आदमी
हूं—नैतिक हूं
यह हूं वह हूं—उसका
क्या होगा? जब तुम
पाओगे कि मैं
कहीं भी नहीं
हूं तो वह भला
आदमी कहां
होगा? तुम्हारे
अहंकार में वह
सब सम्मिलित
है जो तुमने
अपने संबंध
में सोचा—विचारा
है। उसमें सब
कुछ सम्मिलित
है। ऐसा नहीं
है कि तुम आसानी
से छोड़ सकी।
यह तुम हो—तुम्हारा
समूचा अतीत।
जब तुम उसे
छोड़ते हो तो
तुम ना—कुछ हो
जाते हों—मानो
तुम पहले कभी
थे ही नहीं!
पहली बार
तुम्हारा
जन्म होता है—एक
निर्दोष
बच्चे की
भांति, जिसको
कोई अनुभव नहीं
है, कोई
जानकारी नहीं
है, जिसका
कोई अतीत नहीं
है।
इसके
लिए बहुत
हिम्मत चाहिए, बहुत
साहस चाहिए।
प्रामाणिक
खोज दुस्साहस
है। अहंकार की
यात्रा तो
बहुत आसान है।
और अहंकार की
यात्रा आसानी
से सफल भी
होती है, क्योंकि
उसमें वस्तुत:
कुछ भी सफल नहीं
होता है। तुम विश्वास
करने लगते हो, तुम मानने लगते
हो कि मुझे
हुआ है। लेकिन
तुम सिर्फ समय
और शक्ति और
जीवन गंवा रहे
हो।
अगर
तुम किसी
सच्चे गुरु के
साथ हो तो वह
तुम्हें
तुम्हारी
अहंकार की यात्रा
से बाहर
निकालने की
चेष्टा करेगा।
उसे नजर रखनी
होगी कि कहीं
तुम पागल तो
नहीं हो रहे
हो, कि
कहीं तुम
सपनों की भाषा
में तो नहीं
सोचने लगे हो।
वह तुम्हें
पीछे खींच
लेगा।
और यह
बहुत कठिन काम
है। क्योंकि
जब भी तुम्हें
पीछे खींचा
जाता है, तुम गुरु से
बदला लेते हो।
तुम कहते हो, 'मैं इतना
ऊंचा उठ रहा
था, उपलब्धि
के कगार पर था
और वह कहता है
कि यह कुछ भी
नहीं है, तुम
मात्र कल्पना
कर रहे हो।’ तुम्हें वह
खींच कर धरती
पर उतार देता
है।
सच्चे
गुरु के साथ
शिष्य होना
कठिन है।
शिष्य प्राय:
अपने गुरुओं
के विरोध में
चले जाते हैं।
क्योंकि
शिष्य अहंकार
की यात्रा पर
होते हैं और
गुरु उन्हें
उससे निकालने
की चेष्टा कर
रहा होता है।
और ऐसे शिष्य
ही झूठे
गुरुओं को
पैदा करते हैं।
शिष्यों की
कोई कामना है, बड़ी
कामना है, और
जो भी उनकी
कामना की
पूर्ति करेगा,
वह उनका
गुरु हो जाएगा।
और तुम्हारे
अहंकार को
सहयोग देना
आसान है, क्योंकि
तुम उसी की
खोज में हो, तुम वही
चाहते हो।
तुम्हारे
अहंकार को
मिटाने में
सहयोग देना बड़ा
कठिन काम है।
तो यह भलीभांति
स्मरण रहे :
प्रतिदिन, प्रतिपल जांचते
रहो कि
तुम्हारी खोज
अहंकार की
यात्रा तो नहीं
है। सतत जांचते
रहो। यह बहुत
सूक्ष्म है।
और अहंकार के
ढंग बहुत ही
सूक्ष्म हैं।
वे ऊपर से
दिखते भी नहीं
हैं। अहंकार
तुम्हें भीतर
से चलाता रहता
है; वह
तुम्हें कहीं
गहरे अचेतन से
नचाता रहता है।
लेकिन
अगर तुम
सावधान हो तो
अहंकार
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता।
अगर तुम
सावचेत हो तो
तुम उसकी भाषा
समझ लोगे, तुम उसका
रंग—ढंग जान
लोगे।
क्योंकि
अहंकार सदा
अनुभव की खोज
करता है।
अनुभव अहंकार
का मूलमंत्र
है। अहंकार
सदा अनुभव की
खोज में है; वह अनुभव
कामवासना का
है या
आध्यात्मिक, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता है।
अहंकार अनुभव
चाहता है, हर
चीज का अनुभव
चाहता है, कुंडलिनी
का अनुभव
चाहता है, सातवें
शरीर का अनुभव
चाहता है।
अहंकार
निरंतर
अनुभवों के
पीछे पागल है।
सच्ची
खोज किसी
अनुभव का लोभ
नहीं है। क्योंकि
प्रत्येक
अनुभव
तुम्हें
निराश करेगा; करेगा ही।
क्योंकि
प्रत्येक
अनुभव
पुनरुक्त
होगा, और
तुम उससे ऊब
जाओगे। फिर
तुम किसी नए
अनुभव की मांग
करोगे।
अहंकार
हमेशा नए
अनुभवों की
खोज में लगा
रहता है। समझो
कि तुम ध्यान
करते हो। और
अगर तुम
इसीलिए ध्यान
करते हो कि
उससे तुम्हें
नई पुलक मिले, नया
रोमांचक
अनुभव मिले, क्योंकि
तुम्हारा
जीवन ऊब से भर
गया है, तुम
अपने सामान्य
दिनचर्या के
जीवन से थक गए
हो और तुम्हें
कोई नया अनुभव
चाहिए तो वह
तुम्हें मिल
सकता है।
मनुष्य जिस
चीज की खोज
करता है वह
उसे मिल जाती
है। यही तो संताप
है कि तुम जो
चाहते हो वह
तुम्हें मिल
जाएगा। और तब
तुम पछताओगे।
तुम्हें
उत्तेजना तो
मिल जाएगी, लेकिन फिर क्या?
फिर तुम
उससे भी थक
जाओगे। फिर
तुम एल एस डी
या कुछ और चीज
लेना चाहोगे।
फिर तुम
उत्तेजना की
इस खोज में इस
गुरु से उस गुरु
के पास जाओगे,
इस आश्रम से
उस आश्रम का चक्कर
लगाआगे।
नए
अनुभवों के
लोभ का नाम अंहकार
है। और
प्रत्येक नया
अनुभव पुराना
हो जाएगा। क्योंकि
जो भी नया हे वह
पुराना हो जाता
है। फिर क्या?
अध्यात्म
वस्तुत: अनुभव
की खोज नहीं
है। अध्यात्म
स्वयं की खोज
है, आत्मा
की खोज है।
अध्यात्म
किसी भी अनुभव
की खोज नहीं
है—आंनद
की भी नहीं, समाधि की भी
नहीं।
क्योंकि
अनुभव मात्र
बाह्य घटना है,
वह चाहे
भीतरी भी हो
तो भी बाहरी
है। अध्यात्म
उस सत्य की
खोज है जो
तुम्हारे
भीतर है. मैं
जानूं कि मेरा
सत्य क्या है।
और इस जानने
के साथ अनुभव
का सारा लोभ
समाप्त हो
जाता है। और
इस जानने के
साथ कोई कामना
नहीं रहती—नए
अनुभव के तलाश
की कोई कामना
नहीं रहती। आंतरिक
सत्य को, प्रामाणिक
आत्मा को
जानने के साथ
सारी खोज खत्म
हो जाती है।
तो
किसी अनुभव की
खोज में मत
निकलो। सभी
अनुभव मन की
चालाकियां
हैं, मन
के पलायन हैं।
ध्यान अनुभव
नहीं है; ध्यान
बोध है। ध्यान
अनुभव नहीं है,
ध्यान
समस्त अनुभव
का ठहर जाना
है। यही कारण
है कि
जिन्होंने भी
इस आंतरिक
घटना को
व्यक्त करना
चाहा है—उदाहरण
के लिए बुद्ध—वें
कहते हैं. 'मत
पूछो कि क्या
होता है।’ और
अगर तुम जिद्द
करोगे तो वे
कहेंगे 'कुछ
नहीं घटता है,
शून्य घटित
होता है।’
अगर
मैं तुमसे
कहूं कि ध्यान
में कुछ नहीं
घटित होता है, तो तुम
क्या करोगे? तुम ध्यान
करना बंद कर
दोगे। तुम
कहोगे कि अगर
कुछ नहीं घटित
होने वाला है,
तो क्या
प्रयोजन है? यह बताता है
कि तुम अहंकार
की यात्रा पर
हो। यदि मैं
कहता हूं कि
कुछ नहीं होता
है और तुम तब
भी कहते हो कि
ठीक, मैंने
बहुत घटनाएं
देखी हैं, मैंने
अनेक अनुभव
जाने हैं और
प्रत्येक
अनुभव
निराशाजनक
सिद्ध हुआ है...।
तुम एक
अनुभव से
गुजरते हो और
तब तुम्हें
पता चलता है
कि यह कुछ भी
नहीं था। और
तब उसे
दोहराने की
इच्छा होती है, और फिर यह
पुनरुक्ति
उबाने वाली हो
जाती है। फिर
तुम किसी और
चीज की खोज
करते हो। ऐसे
ही तुम जन्मों—जन्मों
से चलते रहे
हो। ऐसे ही
तुम हजारों
जन्मों से
अनुभव के लिए
दौड़ते रहे हो।
तो अगर
तुम कहते हो. 'मैंने
अनुभव जाना है;
अब मैं कोई
अनुभव नहीं
चाहता हूं। अब
मैं अनुभव
करने वाले को
ही जानना
चाहता हूं।’ तब सारा जोर
ही बदल जाता
है।
अनुभव
तुम्हारे
बाहर है, अनुभव करने
वाली
तुम्हारी
आत्मा है। और
सच्चे और झूठे
अध्यात्म में
यही अंतर है।
अगर तुम
अनुभवों के
लिए हो तो
अध्यात्म
झूठा है, अगर
तुम
अनुभोक्ता के
लिए हो तो
अध्यात्म सच्चा
है। तब तुम कुंडलिनी
की चिंता नहीं
करते हो, तब
तुम चक्रों की
फिक्र नहीं
करते हो, तब
तुम्हें इन सब
चीजों से कुछ
लेना—देना
नहीं है। वे
चीजें घटित
होंगी, लेकिन
तुम उनकी
चिंता नहीं
लेते हो, तुम
उनमें उत्सुक
नहीं हो। तुम
उन राहों में
नहीं भटकोगे।
तुम उस आंतरिक
केंद्र की तरफ
बढ़ते जाओगे जहां
कुछ भी नहीं
बचता है, सिर्फ
तुम अपने
समग्र
अकेलेपन में,
परम एकांत
में बचते हो; केवल चैतन्य,
विषय—शून्य चैतन्य
बचता है।
विषय
अनुभव है। तुम
जो कुछ भी
अनुभव करते हो
वह तुम्हारी
चेतना का विषय
है। मैं दुख
अनुभव करता हूं
तो दुख मेरी
चेतना का विषय
है। मैं सुख
अनुभव करता
हूं तो सुख विषय
है। मैं ऊब
अनुभव करता हूं; तो ऊब विषय
है। और फिर
तुम मौन भी
अनुभव कर सकते
हो; तो मौन
विषय है। और
फिर तुम आनंद
भी अनुभव कर
सकते हो; तो
आनंद विषय है।
तुम विषय
बदलते रह सकते
हो। तुम अनंत
काल तक विषय
बदलते रह सकते
हो। लेकिन वह
असली चीज नहीं
है।
सत्य
तो वह है जिसे
ये सारे अनुभव
घटित होते हैं—जिसे
ऊब घटित होती
है, जिसे
आनंद घटित
होता है।
आध्यात्मिक
खोज यह नहीं
है कि क्या
घटित होता है;
आध्यात्मिक
खोज यह है कि
किसे घटित
होता है। और
तब अहंकार के
पैदा होने की
कोई संभावना
नहीं रहती।
THANK YOU GURUJI
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