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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--09)

डाक द्वारा संन्‍यास और उपहार(अध्‍यायनौवां)

शो ने जब संन्यास की शुरुआत की तो दो प्रकार के संन्यास बनाए थे। एक जिसमें भगवा वस्त्र व उनकी फोटो लगी माला पहननी होती थी। उन्हें स्वामी नाम दिया जाता था। दूसरे संन्यास में सफेद वस्त्र पहनने होते, माला पहनना स्वेच्छिक होता था। उन्हें साधक कहा जाता था। कुछ समय बाद ओशो ने सिर्फ भगवा कपड़े वाला संन्यास ही रखा। कहा कि दूसरे तरह का संन्यास तो शुरुआत में डरपोक लोगों के लिए नाटक की तरह रखा था।
इसी के साथ उन दिनों में यदि कोई व्यक्ति चाहता तो उसे डाक द्वारा भी संन्यास दिया जाता था। मुझे भी इसी तरह से डाक द्वारा माला और नया नाम मिला था। लेकिन जब समय मिला मैं मुंबई गया और ओशो से मिला। उन दिनों ओशो मुंबई में वुडलैंड में रहते थे। जब मैं उनसे मिला तो उनकी पहनने की धोती उपहार स्वरूप मांग ली। मैंने उन्हें कहा कि ' मुझे आपकी धोती चाहिए।ओशो ने कहा, ' क्या करोगे धोती का?' मैं चुप रहा।
पता नहीं क्यों मुझे ऐसा खयाल क्यों आया। मुझे कह कर थोड़ा अजीब भी लग रहा था। खैर, जब वहां से वापस आने लगा तो लक्ष्मी ने मुझे ओशो की धोती लाकर दे दी। मैं धोती लेकर पुणे वापस आ गया।
उन्हीं दिनों की बात है जब ओशो को सुनता और उनका कोई वचन बहुत अधिक हृदय को छू जाता तो उस वचन को अपने हाथ से कागज पर लिखकर पूरे दिन अपने हाथ में रखता और जब भी मन होता कागज खोलकर उसे पढ़ लेता। धीरे— धीरे इस तरह से हजारों हस्त लिखित कागज हो इकट्ठे हो गए जो आज भी मेरे पास हैं।

 'संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है—त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में।
तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन में अहोभाव! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, उदासी नहीं, प्रफुल्लता! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई। सिकोड़ना नहीं।
(ओशो, कृष्ण स्मृति)
आज इति

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