सूत्र:
86—भाव करो कि
मैं किसी ऐसी
चीज की चिंतना
करता हूं,
जो
दृष्टि के
परे है,
जो पकड़ के
परे है, जो
अनास्तिव के,
न
होने के परे
है—मैं।
87—मैं
हूं, यह
मेरा है। यह
यह है। हे
प्रिय,ऐसे
भाव में ही
असीमत: उतरो।
मनुष्य
द्विमुखी है—पशु
और देवता
दोनों है। पशु
उसका अतीत है
और देवता उसका
भविष्य। और
इससे ही
कठिनाई पैदा
होती है। अतीत
बीत चुका है, वह
है नहीं, उसकी
स्मृति भर शेष
है। और भविष्य
अभी भी भविष्य
है, वह आया
नहीं है, वह
एक स्वप्न
भर है, एक
संभावना
मात्र है।
मनुष्य
दोनों नहीं है
और दोनों है।
वह दोनों है, क्योंकि
अतीत उसका है,
वह पशु था।
वह दोनों है, क्योंकि
भविष्य उसका
है, वह
देवता हो सकता
है। और वह
दोनों नहीं है,
क्योंकि
अतीत अब नहीं
है और भविष्य
अभी होने को
है।
मनुष्य
इन दोनों के
बीच एक तनाव
की भाति है—जो
था और जो हो
सकता है उनके
बीच एक तनाव।
इससे एक
द्वंद्व पैदा
होता है—कुछ
पाने का, कुछ
होने का सतत
संघर्ष पैदा
होता है। एक
अर्थ में
मनुष्य नहीं
है, वह
सिर्फ पशुता
से देवत्व की
तरफ उठा हुआ
कदम है। और
उठा हुआ कदम
कहीं नहीं
होता है। वह
कहीं था और
फिर कहीं होगा,
लेकिन ठीक
अभी वह कहीं
नहीं है, बस
अधर में अटका
हुआ है।
तो
मनुष्य जो कुछ
भी करता है—मैं
कहता हूं,
जो कुछ भी—वह
कभी तृप्त
नहीं होता, वह सदा
अतृप्त रहता
है, क्योंकि
उसमें दो
सर्वथा
विपरीत
अस्तित्वों
का मिलन हो
रहा है। अगर
उसका पशु
तृप्त होता है
तो देवता
अतृप्त रह
जाता है। और
अगर उसका
देवता तृप्त
होता है तो
पशु अतृप्त रह
जाता है। एक
हिस्सा सदा ही
असंतुष्ट
रहता है।
अगर
तुम पशु की
तरफ झुकते हो, पशु
की तरह जीते
हो, तो तुम
एक ढंग से
अपने
अस्तित्व के
एक हिस्से को
तृप्त करते हो।
लेकिन तब
तुरंत ही उस
तृप्ति में से
अतृप्ति पैदा
होती है।
क्योंकि जो
विपरीत
हिस्सा है, भविष्य है, वह ठीक उलटा
है। पशु की
तृप्ति
तुम्हारे
भविष्य की, तुम्हारी
संभावना की
अतृप्ति बन
जाती है। और
अगर तुम अपनी
दैवीय
संभावना को
तृप्त करते हो
तो पशु आहत
अनुभव करता है,
वह बगांवत
करता है, तुम्हारे
भीतर एक
असंतोष पैदा
होता है। तुम
दोनों को
संतुष्ट नहीं
कर सकते; एक
को संतुष्ट
करते हो तो
दूसरा असंतुष्ट
हो जाता है।
मुझे एक
कहानी याद आती
है। एक
स्पोर्ट्स
कार का
उत्साही चालक
ईसाइयों के
स्वर्ग—द्वार
पर, पर्ली
गेट पर पहुंचा।
संत पीटर ने
उसका स्वागत
किया। वह अपनी
जगुआर कार के
साथ पहुंचा था
और संत पीटर
से उसने पहला
ही प्रश्न
पूछा : 'आपके
स्वर्ग में
सुंदर राजपथ
तो हैं न?'
संत
पीटर ने कहा. 'ही,
यहां राजपथ
तो हैं और
सर्वश्रेष्ठ
राजपथ हैं, लेकिन एक
कठिनाई है।
कठिनाई यह है
कि स्वर्ग में
कार चलाना मना
है।’
उस
तीव्र गति के
शौकीन चालक ने
कहा : 'तब यह जगह
मेरे लिए नहीं
है। कृपा करके
मुझे दूसरी
जगह भिजवाने
की व्यवस्था
कर दें, मैं
नरक जाना पसंद
करूंगा। मैं
अपनी जगुआर से
अलग नहीं हो
सकता।’
ऐसा
ही हुआ। वह
नरक पहुंचा।
और शैतान ने
वहां उसका
स्वागत करते
हुए कहा कि
मुझे तुमसे
मिल कर
प्रसन्नता
हुई। उसने
कहा. 'तुम तो मेरे
जैसे ही हो, मैं भी
जगुआर का आशिक
हूं।’
उस
गति के प्रेमी
ने कहा : 'बहुत
खूब! कृपया
मुझे अपने
राजपथों का नक्शा
दीजिए।’ यह
सुनकर शैतान
उदास हो गया।
उसने कहा : 'महाशय,
यहां कोई
राजपथ नहीं
हैं, यही
तो नरक पीड़ा
है।’
मनुष्य
की स्थिति यही
है। मनुष्य
दोहरा है, दो
में बंटा है।
अगर एक हिस्से
के लिए तुम
कुछ करोगे तो
वही तुम्हारे
दूसरे हिस्से
के लिए
अतृप्ति का
कारण हो जाएगा।
और अगर तुम
अन्यथा करोगे
तो दूसरा
हिस्सा अतृप्त
अनुभव करेगा।
कुछ न कुछ
अभाव सदा ही
बना रहता है।
और तुम दोनों
को संतुष्ट
नहीं कर सकते,
क्योंकि वे
एक—दूसरे के
विपरीत हैं।
लेकिन
हरेक आदमी इसी
असंभव प्रयास
में लगा है।
वह कहीं
समझौता करना
चाहता है जहां
स्वर्ग और नरक
दोनों मिलें, शरीर
और आत्मा
दोनों
संतुष्ट हों,
जहां शिखर
और घाटी, अतीत
और भविष्य
कहीं मिलें और
एक समझौते पर
पहुंचें। और
यह प्रयास हम
अनेक जन्मों
से कर रहे हैं।
लेकिन यह संभव
नहीं हुआ और न
संभव होने
वाला है। पूरा
प्रयास
व्यर्थ है, असंभव है।
ये
विधियां
तुम्हारे
भीतर कोई
समझौता निर्मित
करने के लिए
नहीं हैं। ये
विधियां
तुम्हारे
अतिक्रमण के
लिए हैं। ये
विधियां पशु
के विरुद्ध
परमात्मा को
संतुष्ट करने
के लिए नहीं
हैं। वह असंभव
है। उससे
तुम्हारे
भीतर और भी
ज्यादा
उपद्रव पैदा होगा, और
भी ज्यादा
संघर्ष और
हिंसा पैदा
होगी। ये
विधियां
परमात्मा के
विरुद्ध
तुम्हारे पशु
को संतुष्ट
करने के लिए
भी नहीं हैं।
ये विधियां
द्वैत के
अतिक्रमण के
लिए हैं। वे न
पशु के पक्ष
में हैं और न
परमात्मा के
पक्ष में।
स्मरण
रहे,
तंत्र और
अन्य धर्मों
में यही
बुनियादी भेद
है। तंत्र कोई
धर्म नहीं है।
क्योंकि धर्म
का बुनियादी
अर्थ है कि वह
पशु के
विरुद्ध
परमात्मा के
पक्ष में है।
इसलिए हरेक
धर्म द्वंद्व
का, संघर्ष
का हिस्सा है।
तंत्र संघर्ष
की विधि नहीं
है, यह
अतिक्रमण की
विधि है। तंत्र
पशु से लड़ता
नहीं है; यह
परमात्मा के
पक्ष में नहीं
है। तंत्र
समस्त द्वैत
के पार है। वह
वस्तुत: न
किसी के पक्ष
में है और न
विरोध में है।
वह सिर्फ
तुम्हारे
भीतर तीसरी
शक्ति का निर्माण
कर रहा है, अस्तित्व
के तीसरे
केंद्र का
निर्माण कर
रहा है, जहां
तुम न पशु हो
और न परमात्मा।
तंत्र के लिए
यह तीसरा
बिंदु अद्वैत
है।
तंत्र
कहता है कि
तुम द्वैत से
लड़कर अद्वैत
को नहीं
उपलब्ध हो
सकते हो। तुम
किसी एक पक्ष
को चुनकर
अद्वैत को
नहीं प्राप्त
हो सकते हो।
तुम विकल्प से, चुनाव
से एक पर नहीं
पहुंच सकते, उसके लिए
निर्विकल्प
साक्षी भाव
आवश्यक है, चुनाव—रहित
बोध मूलभूत है।
तंत्र
के लिए यह बात
बहुत
बुनियादी है।
और यही कारण
है कि तंत्र
को कभी ठीक—ठीक
नहीं समझा गया।
सदियों—सदियों
तक इसे लंबी
नासमझी का
शिकार होना
पड़ा है।
क्योंकि जब
तंत्र यह कहता
है कि वह पशु
के विरोध में
नहीं है, तो
तुम तुरंत
समझने लगते हो
कि तंत्र पशु
के पक्ष में
है। और जब
तंत्र कहता है
कि वह
परमात्मा के
पक्ष में नहीं
है, तो तुम
फिर सोचने
लगते हो कि वह
परमात्मा के विरोध
में है।
सचाई
यह है कि
तंत्र चुनाव—रहित
दर्शन है। न
पशु के पक्ष
में होओ और न
परमात्मा के
पक्ष में होओ—कोई
द्वंद्व मत
पैदा करो।
थोड़ा पीछे हटो, जरा
दूर सरको, अपने
और इस द्वैत
के बीच अंतराल
पैदा करो, थोड़ी
दूरी बनाओ।
तुम इन दोनों
के पार एक
तीसरी शक्ति
बन जाओ, साक्षी
बन जाओ, जहां
से तुम पशु और
परमात्मा
दोनों को देख
सकते हो।
मैंने
तुम्हें कहा
कि पशु अतीत
है और परमात्मा
भविष्य, और
अतीत और
भविष्य एक—दूसरे
के विरोधी हैं।
तंत्र
वर्तमान में
है। वह न अतीत
है और न
भविष्य; वह
अभी और यहीं
है। इसलिए न
अतीत से बंधे
रहो और न
भविष्य के
पीछे दौड़ो।
भविष्य की
कामना मत करो
और अतीत से
बंधे हुए मत
रहो। अतीत को
ढोओ मत और
भविष्य के लिए
कोई प्रक्षेपण
मत करो। इसी
वर्तमान क्षण
के प्रति
निष्ठावान
रहो, ईमानदार
रहो, और
तुम अतिक्रमण
कर जाओगे। तब
तुम न पशु हो
और न परमात्मा।
तंत्र
के लिए ऐसा
होना, अतिक्रमण
में होना, परमात्मा
होना है। ऐसा
होना, वर्तमान
क्षण की तथाता
में होना, जहां
अतीत छूट चुका
है और भविष्य
का प्रक्षेपण
नहीं है, तुम
स्वतंत्र हो,
तुम
स्वतंत्रता
हो।
इस
अर्थ में ये
विधियां
धार्मिक नहीं
हैं,
क्योंकि
धर्म सदा पशु
के विरोध में
है। धर्म
द्वंद्व
निर्मित करता
है। अगर तुम
सचमुच
धार्मिक हो तो
तुम खंडित हो
जाओगे, स्कीजोफ्रेनिक
हो जाओगे। सब
धार्मिक
सभ्यताएं
खंडित
सभ्यताएं हैं।
वे मानसिक
रुग्णता पैदा
करती हैं, क्योंकि
वे आंतरिक
विभाजन पैदा
करती हैं। वे
तुम्हें दो
में तोड़ देती
हैं और
तुम्हारा ही
एक हिस्सा
तुम्हारा
शत्रु बन जाता
है। और तब
तुम्हारी
सारी ऊर्जा
अपने से ही
लड़ने में नष्ट
होती है। इस
अर्थ में
तंत्र
धार्मिक नहीं
है, क्योंकि
तंत्र किसी
द्वंद्व में,
किसी
संघर्ष में, किसी हिंसा
में विश्वास
नहीं करता है।
और
तंत्र कहता है
कि स्वयं से
लड़ो मत, सिर्फ
बोधपूर्ण होओ,
अपने प्रति
कठोर और हिंसक
मत होओ। बस
साक्षी होओ, द्रष्टा होओ।
जब तुम साक्षी
हो तो तुम दो
में से कोई भी
नहीं हो; तब
दोनों चेहरे
विलीन हो जाते
हैं। साक्षी
होने के क्षण
में तुम
मनुष्य नहीं
हो; तुम बस
हो। तुम किसी
विशेषण के
बिना हो। तुम
नाम—रूप के
बिना हो। तुम
किसी कोटि के
बिना हो। तुम
कोई व्यक्ति
विशेष हुए
बिना हो। बस
शुद्ध होना है।
ये विधियां
उसी निर्दोष
अस्तित्व की
उपलब्धि की
विधियां हैं।
अब
मैं विधियों
की चर्चा
करूंगा।
पहली
विधि:
भाव करो कि
मैं किसी ऐसी
चीज की चितना
करता हूं जो
दृष्टि के परे
है जो पकड़ के
परे है जो
अनस्तित्व के
न होने के परे
है— मैं।
'भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चितना करता
हूं जो दृष्टि
के परे है'—जिसे
देखा नहीं जा
सकता। लेकिन
क्या तुम किसी
ऐसी चीज की
कल्पना कर सकते
हो जो देखी न
जा सके? कल्पना
तो सदा उसकी
होती है जो
देखी जा सके।
तुम उसकी
कल्पना कैसे
कर सकते हो, उसका अनुमान
कैसे कर सकते
हो, जो
देखी ही न जा
सके? तुम
उसकी ही
कल्पना कर
सकते हो जिसे
तुम देख सकते
हो। तुम उस
चीज का स्वप्न
भी नहीं देख
सकते जो दृश्य
न हो, जो
देखी न जा सके।
यही कारण है
कि तुम्हारे
सपने भी
वास्तविकता की
छायाएं हैं।
तुम्हारी
कल्पना भी
शुद्ध कल्पना
नहीं है, क्योंकि
तुम जो भी
कल्पना करते
हो उसे तुमने
किसी न किसी
भांति जाना है।
तुम नई
व्यवस्था, नए
संयोजन जमा
सकते हो, लेकिन
उस संयोजन के
सभी तत्व
परिचित होंगे,
जाने—माने
होंगे।
तुम
कल्पना कर
सकते हो कि एक
सोने का पहाड़
आकाश में
बादलों की
भांति उड़ा जा
रहा है। तुमने
कभी ऐसी चीज
नहीं देखी है।
लेकिन तुमने
बादल देखा है; तुमने
पहाड़ देखा है,
तुमने सोना
देखा है। ये
तीन तत्व
इकट्ठे किए जा
सकते हैं। तो
कल्पना कभी
मौलिक नहीं
होती, वह
सदा ही उनका
जोड़ होती है
जिन्हें
तुमने देखा है।
यह विधि
कहती है: 'भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चिंतन।
करता हूं जो
दृष्टि के परे
है।’
यह
असंभव है।
लेकिन इसीलिए
यह प्रयोग
करने लायक है, क्योंकि
इसे करने में
ही तुम्हें
कुछ घटित हो जाएगा।
ऐसा नहीं कि
तुम देखने में
सक्षम हो
जाओगे; लेकिन
अगर तुम उसे
देखने की
चेष्टा करोगे
जो देखी न जा
सके तो सारा
दर्शन खो
जाएगा। ऐसी
चीज के देखने
के प्रयत्न
में तुमने जो
भी देखा है वह सब
विलीन हो
जाएगा।
अगर
तुम इस
प्रयत्न में
धैर्यपूर्वक
लगे रहे तो
अनेक चित्र, अनेक
बिंब
तुम्हारे
सामने प्रकट
होंगे।
तुम्हें उन
प्रतिबिंबों
को इनकार कर
देना है, क्योंकि
तुम जानते हो
कि तुमने
उन्हें देखा है,
वे देखे जा
सकते हैं। हो
सकता है कि
तुमने उन्हें
बिलकुल वैसे
ही न देखा हो
जैसे वे हैं, लेकिन यदि
तुम उनकी
कल्पना कर
सकते हो तो वे
देखे भी जा
सकते हैं।
उन्हें अलग
हटा दो। और
इसी तरह अलग
करते चलो। यह
विधि कहती है
कि जो नहीं
देखा जा सकता
उसे देखने के
प्रयत्न में
लगे रहो।
यदि
तुम मन में
उभरने वाले
प्रतिबिंबों
को हटाते गए
तो क्या होगा? यह
कठिन होगा, क्योंकि
अनेक चित्र
उभर कर सामने
आएंगे।
तुम्हारा मन
अनेक चित्र, अनेक बिंब, अनेक सपने
सामने ले आएगा,
अनेक
धारणाएं
आएंगी, अनेक
प्रतीक पैदा
होंगे।
तुम्हारा मन
नए—नए दृश्य
निर्मित
करेगा। लेकिन
उन्हें हटाते
चलो, जब तक
कि तुम्हें वह
न घटित हो जो
अदृश्य है। वह
क्या है?
यदि
तुम हटाते ही
गए तो बाहर से
तुम्हें कुछ घटित
नहीं होगा, सिर्फ
मन का पर्दा खाली
हो जाएगा; उस
पर कोई चित्र,
कोई प्रतीक,
कोई बिंब, कोई सपने
नहीं होंगे।
उस क्षण में
रूपांतरण
घटित होता है।
जब खाली पर्दा
रहता है, उस
पर कोई चित्र
नहीं रहता, उस क्षण में
तुम्हें अपना
बोध होता है।
तब तुम्हें
द्रष्टा का
बोध होता है।
जब देखने को
कुछ न बचा तो सारा
अवधान बदल
जाता है, सारी
चेतना पीछे
लौट कर देखने
लगती है, स्वमुखी
हो जाती है।
जब तुम्हें
देखने को कुछ
नहीं होता है
तब तुम्हें पहली
बार स्वयं का
बोध होता है, तब तुम
स्वयं को
देखते हो।
यह सूत्र
कहता है: 'भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चितना करता
हूं जो दृष्टि
के परे है, जो
पकड़ के परे है,
जो
अनस्तित्व के,
न होने के
परे है—मैं।’
तब
तुम स्वयं को
उपलब्ध होते
हो,
स्वयं होते
हो। तब तुम
पहली दफा उसे
जानते हो जो
देखता है, जो
समझता है, जो
जानता है।
लेकिन यह
जानने वाला
सदा विषयों
में छिपा रहता
है। तुम चीजों
को तो जानते
हो, लेकिन
तुम कभी जानने
वाले को नहीं
जानते।
ज्ञाता ज्ञान
में खोया रहता
है। मैं
तुम्हें
देखता हूं और
फिर किसी
दूसरे को देखता
हूं; और यह
जुलूस चलता
रहता है। जन्म
से मृत्यु तक
मैं हजार—हजार
चीजें देखता
रहूंगा, देखता
रहूंगा। और जो
द्रष्टा है, जो इस जुलूस
को देखता है, वह भूल गया
है। वह भीड़
में खो गया है।
भीड़ विषयों की
है और द्रष्टा
उसमें खो गया
है।
यह
सूत्र कहता है
कि अगर तुम
किसी ऐसी चीज
की चितना करने
की चेष्टा
करते हो जो
दृष्टि के परे
है,
पकड़ के परे
है, जिसे
तुम मन से
नहीं पकड़ सकते—और
जो अनस्तित्व
के, न होने
के भी परे है, तो तुरंत मन
कहेगा कि अगर
कोई चीज देखी
नहीं जा सकती
और पकड़ी नहीं
जा सकती तो वह
चीज है ही नहीं।
मन तुरंत
प्रतिक्रिया
करेगा कि अगर
कोई चीज
अदृश्य और
अग्राह्य है तो
वह नहीं है।
मन कहेगा कि
वह नहीं है, असंभव है।
इस
मन की बातों
में मत उलझो।
यह सूत्र कहता
है 'दृष्टि के
परे, पकड़
के परे, अनस्तित्व
के परे।’ मन
कहेगा कि ऐसा
कुछ नहीं है, ऐसा हो नहीं
सकता, यह
असंभव है।
सूत्र कहता है
कि इस मन का
विश्वास मत
करो। कुछ है
जो अनस्तित्व
के परे
अस्तित्ववान
है, जो है
और फिर भी
देखा नहीं जा
सकता, पकड़ा
नहीं जा सकता,
वह तुम हो।
तुम
अपने को नहीं
देख सकते हो।
या देख सकते
हो?
क्या तुम
किसी ऐसी
स्थिति की
कल्पना कर
सकते हो
जिसमें तुम
अपना
साक्षात्कार
कर सको, जिसमें
तुम अपने को
जान सको? तुम
आत्मज्ञान
शब्द को
दोहराते रह
सकते हो, लेकिन
वह एक बिलकुल
अर्थहीन शब्द
है, क्योंकि
तुम स्वयं को,
अपने को
नहीं जान सकते
हो। आत्मा सदा
ज्ञाता है, उसे ज्ञात
नहीं बनाया जा
सकता, उसे
ज्ञान का विषय
नहीं बनाया जा
सकता।
उदाहरण
के लिए, अगर
तुम सोचते हो
कि मैं आत्मा
को जान सकता
हूं तो जिस
आत्मा को तुम
जानोगे वह
तुम्हारी आत्मा
नहीं होगी; आत्मा तो वह
होगी जो इस
आत्मा को जानू
रही है। तुम
सदा ज्ञाता
रहोगे, तुम
कभी ज्ञात
नहीं हो सकते।
तुम अपने को
अपने ही सामने
खड़ा नहीं कर
सकते; तुम सदा
ही पीछे रहोगे।
तुम जो भी
जानोगे वह तुम
नहीं हो सकते।
इसका यह अर्थ
है कि तुम
स्वयं को नहीं
जान सकते, तुम
स्वयं को उस
भांति नहीं जान
सकते जिस
भांति अन्य
चीजों को
जानते हो।
मैं
अपने को उस
भांति नहीं
देख सकता जिस
भांति मैं
तुम्हें
देखता हूं।
देखेगा कौन? क्योंकि
ज्ञान, दृष्टि,
दर्शन का
अर्थ है कि
वहा कम से कम
दो हैं. जानने वाला
और जाना जाने वाला।
इस अर्थ में आत्मज्ञान
संभव नहीं है,
क्योंकि
वहां एक। वहां
ज्ञाता और एक
हैं; वहां
द्रष्टा और
दृश्य एक हैं।
तुम अपने को
विषय नहीं बना
सकते हो।
इसलिए
आत्मज्ञान
शब्द गलत है।
लेकिन यह कुछ
कहता है, कुछ
इशारा करता है,
जो कि सच है।
तुम अपने को
जान सकते हो, लेकिन यह
जानना उस
जानने से
भिन्न होगा, बिलकुल
भिन्न होगा, जिस तरह तुम
दूसरी चीजों
को जानते हो।
जब जानने को
कुछ भी नहीं
रहता है, जब
सभी विषय खो
जाते हैं, जब
जो भी देखा और ग्रहण
किया जा सकता
है वह विदा हो
जाता है, जब
तुम सबको अलग
कर देते हो, तब तुम्हें
अचानक स्वयं
का बोध होता
है। और यह बोध
द्वंद्वात्मक
नहीं है, इसमें
दो नहीं हैं, इसमें
आब्जेक्ट और
सब्जेक्ट
नहीं हैं। यह
अद्वैत है, अखंड है।
यह
बोध एक भिन्न
ही भांति का
जानना है। यह
बोध तुम्हें
अस्तित्व का
एक भिन्न ही
आयाम देता है।
तुम दो में
नहीं बंटे हो; तुम
स्वयं के
प्रति
बोधपूर्ण हो।
तुम उसे देख
नहीं रहे, तुम
उसे पकड़ नहीं
सकते, और
इसके बावजूद
वह है—पूरी
तरह है।
इसे
इस तरह समझो :
हमारे पास
ऊर्जा है; वह
ऊर्जा विषयों
की तरफ बही जा
रही है। ऊर्जा
गतिहीन नहीं
हो सकती, कहीं
ठहरी हुई नहीं
रह सकती।
स्मरण रहे, अस्तित्व के
परम नियमों
में एक नियम
यह है कि ऊर्जा
गतिहीन नहीं
हो सकती, वह
गत्यात्मक है।
दूसरा कोई
उपाय नहीं है;
उसे सतत
गतिमान रहना
है।
गत्यात्मकता
उसका स्वभाव
है। ऊर्जा सतत
गतिमान है।
तो
जब मैं
तुम्हें
देखता हूं तब
मेरी ऊर्जा तुम्हारी
तरफ बहती है।
जब मैं
तुम्हें
देखता हूं तो
एक वर्तुल बन
जाता है। मेरी
ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
बहती है और
फिर मेरी तरफ
लौट आती है।
इस तरह एक
वर्तुल
निर्मित होता
है। यदि मेरी
ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
जाए,
लेकिन मेरी
तरफ वापस न आए
तो मैं
तुम्हें नहीं
जान पाऊंगा।
एक वर्तुल
जरूरी है।
ऊर्जा को जाना
चाहिए और फिर
लौटकर आना
चाहिए। उस
लौटने में वह
तुम्हें मेरे
पास लाती है।
और मैं
तुम्हें
जानता हूं।
ज्ञान
का अर्थ है कि
ऊर्जा ने एक
वर्तुल बनाया
है;
उसने भीतर
से बाहर की
तरफ गति की; और फिर वह
वापस मूल
स्रोत पर लौट
आई। अगर मैं
इसी भांति
जीता रहूं
दूसरों के साथ
वर्तुल बनाता
रहूं तो मैं
कभी स्वयं को
नहीं जान
पाऊंगा।
क्योंकि मेरी
ऊर्जा दूसरों
की ऊर्जा से
भरी है; वह
दूसरों के
प्रभाव, दूसरों
के प्रतिबिंब
मुझे देती
जाती है। इसी
भांति तो तुम
ज्ञान इकट्ठा
करते हो।
यह
विधि कहती है
कि विषय को
विलीन हो जाने
दो और अपनी
ऊर्जा को
रिक्तता में, शून्य
में गति करने
दो। वह
तुम्हारी ओर
से चलती तो है,
लेकिन कोई
विषय वहां
नहीं है जिसे
वह पकड़े या जिसे
देखे। तो वह
शून्यता से
गुजर कर
तुम्हारे पास
लौट आती है।
वहां कोई विषय
नहीं है; वह
तुम्हारे लिए
कोई जानकारी
नहीं लाती है।
वह खाली, रिक्त
और शुद्ध लौट
आती है। वह
अपने साथ कुछ
नहीं लाती है,
वह सिर्फ
स्वयं को लाती
है। वह
कुंवारी की
कुंवारी है; कुछ भी
उसमें
प्रविष्ट
नहीं हुआ है।
वह विशुद्ध है।
यही
ध्यान की पूरी
प्रक्रिया है।
तुम शांत बैठे
हो और
तुम्हारी
ऊर्जा गति कर
रही है। वहां
कोई विषय नहीं
है जिससे वह
दूषित हो सके, जिससे
वह आबद्ध हो
सके, जिससे
वह प्रभावित
हो सके, जिसके
साथ वह एक हो
सके। तब तुम
उसे अपने पर
लौटा लेते हो।
वहां कोई विषय
नहीं है, कोई
विचार नहीं है,
कोई
प्रतिबिंब
नहीं है।
ऊर्जा गति
करती है, उसकी
गति शुद्ध है,
और वह शुद्ध
और कुंवारी ही
तुम्हारे पास
लौट आती है।
जिस अवस्था
में वह तुमसे
गई थी उसी
अवस्था में वह
लौट आती है, अपने साथ
कुछ भी नहीं
लाती है। वह एक
खाली वाहन की
भांति तुम तक
लौट आती है।
वह अपने साथ
कोई ज्ञान
नहीं लाती है,
वह सिर्फ
अपने को अपने
साथ लाती है।
और शुद्ध
ऊर्जा के उस
प्रवेश में
तुम स्वयं के
प्रति बोध से
भर जाते हो।
यदि
ऊर्जा अपने
साथ कोई
जानकारी लाए
तो तुम उस चीज
के प्रति ही
बोधपूर्ण
होगे। तुम एक
फूल को देखते
हो। तुम्हारी
ऊर्जा फूल पर
जाती है और उस
फूल को, फूल
के प्रतिबिंब
को, फूल के
रंग को, फूल
की गंध को
अपने साथ ले
आती है। ऊर्जा
फूल को
तुम्हारे पास
ला रही है, वह
तुम्हें फूल
की जानकारी
देती है और तब
तुम फूल से
परिचित होते
हो। ऊर्जा फूल
से आच्छादित
है। तुम कभी
ऊर्जा से, उस
शुद्ध ऊर्जा
से जो तुम हो, परिचित नहीं
होते। तुम
दूसरों की तरफ
जाते हो और
स्रोत पर लौट
आते हो।
अगर
इस ऊर्जा को
कुछ भी
प्रभावित न
करे,
अगर वह
अप्रभावित, असंस्कारित,
अस्पर्शित
लौट आए, अगर
वह वैसी की
वैसी लौट आए
जैसी गई थी, अगर वह
शुद्ध लौट आए
और कुछ न लाए, तो तुम
स्वयं को
जानते हो। यह
ऊर्जा का
शुद्ध वर्तुल
है, अब
ऊर्जा कहीं
बाहर न जाकर
तुम्हारे
भीतर ही गति
करती है, तुम्हारे
भीतर ही
वर्तुल बनाती
है। अब कोई
दूसरा नहीं है,
तुम स्वयं
अपने में गति
करते हो। यह
गति ही आत्म—प्रकाश
बन जाती है, आत्मज्ञान,
आत्मबोध बन
जाती है।
बुनियादी तौर
से सब ध्यान—विधियां
इसी के अलग—
अलग प्रकार
हैं।
'भाव करो कि
मैं किसी ऐसी
चीज की चितना
करता हूं जो
दृष्टि के परे
है, जो पकड़
के परे है, जो
अनस्तित्व के,
न होने के
परे है—मैं।’
अगर
यह हो सके तो
तुम पहली दफा
स्वयं को
जानोगे, स्वयं
के अस्तित्व
को जानोगे, जानने वाले
को, आत्मा
को जानोगे।
ज्ञान
दो प्रकार का
है : विषयगत
ज्ञान और आत्मगत
ज्ञान। एक तो
विषय का ज्ञान
है और दूसरा
स्वयं का ज्ञान
है। और कोई
आदमी चाहे
लाखों चीजें
जान ले, चाहे
वह पूरे जगत
को जान ले, लेकिन
अगर वह स्वयं
को नहीं जानता
है तो वह
अज्ञानी ही है।
वह जानकार हो
सकता है, पंडित
हो सकता है, लेकिन वह
प्रज्ञावान
नहीं है। संभव
है कि वह बहुत
जानकारी
इकट्ठी कर ले,
बहुत ज्ञान
इकट्ठा कर ले,
लेकिन उसके
पास उस
बुनियादी चीज
का अभाव है जो
किसी को प्रज्ञावान
बनाता है—वह
स्वयं को नहीं
जानता है।
उपनिषदों
में एक कथा है।
एक युवक, श्वेतकेतु,
अपने गुरु
के घर से वापस
आया। उसने सभी
परीक्षाएं
उत्तीर्ण कर
ली थीं और उसने
उनमें
विशिष्टता
हासिल की थी।
गुरु जो भी
उसे दे सके, उसने सब
संजो कर रख
लिया था। और
वह बहुत
अहंकार से भरा
था।
जब
वह अपने पिता
के घर पहुंचा
तो पहली बात
जो पिता ने
पूछी वह यह थी: 'तुम
ज्ञान से बहुत
भरे हुए मालूम
पड़ते हो और
तुम्हारे ज्ञान
ने तुम्हें
बहुत अहंकारी
बना दिया है।
यह तुम्हारे
चलने के ढंग
से—जिस ढंग से
तुमने घर में
प्रवेश किया—प्रकट
होता है। मुझे
तुमसे एक ही
प्रश्न पूछना है,
क्या तुमने
उसे जाना जो
सब को जानता
है? क्या
तुमने उसे
जाना जिसे जानने
पर सब जान लिया
जाता है? क्या
तुमने स्वयं को
जाना?'
श्वेतकेतु
ने कहा. 'लेकिन
हमारे
विद्यापीठ के
पाठचक्रम में
यह नहीं था, हमारे गुरु
ने इसकी कोई
चर्चा नहीं की।
मैंने सब जान
लिया है जो
जाना जा सकता
है। आप मुझे
कुछ भी पूछें
और मैं उत्तर
दूंगा। लेकिन
आप यह क्या
पूछ रहे हैं? यह तो कभी
नहीं बताया
गया।’
पिता
ने कहा : 'फिर
तुम वापस जाओ।
और जब तक उसे न
जान लो जिसे
जानकर सब जान
लिया जाता है
और जिसे जाने
बिना कुछ नहीं
जाना जाता, तब तक घर मत
लौटना। पहले
स्वयं को जानो।’
श्वेतकेतु
वापस गया।
उसने गुरु से
कहा. 'मेरे पिता
ने कहा कि
तुम्हें घर
में नहीं आने दिया
जाएगा, इस
घर में
तुम्हारा
स्वागत नहीं
होगा, क्योंकि
हमारे कुल में
हम जन्म से ही
ब्राह्मण
नहीं हैं, हम
ब्रह्म को
जानकर
ब्राह्मण हैं।
हम ब्राह्मण
जन्म से ही
नहीं हैं, प्रामाणिक
ज्ञान को
प्राप्त करके
हम ब्राह्मण
हैं। तो जब तक
तुम सच्चे
ब्राह्मण न हो
जाओ—जो जन्म
से नहीं, ब्रह्म
को जानकर हुआ
जाता है—तब तक
इस घर में
प्रवेश मत
करना। तुम
हमारे योग्य
नहीं हो।
इसलिए अब आप
मुझे वह ज्ञान
सिखाएं।’
गुरु
ने कहा : 'जो भी
सिखाया जा सकता
है, वह सब
मैंने
तुम्हें सिखा
दिया है; और
तुम जिसकी बात
कर रहे हो वह
सिखाया नहीं
जा सकता। तो
तुम एक काम
करो, तुम
बस इसके प्रति
उपलब्ध रहो, इसके प्रति
खुले रहो। यह ज्ञान
सीधे—सीधे
नहीं सिखाया
जा सकता है।
तुम सिर्फ
खुले रहो, और
किसी दिन घटना
घट जाएगी। तुम
आश्रम की
गायों को ले
जाओ'—आश्रम
में बहुत
गायें थीं, कहते हैं
चार सौ गायें
थीं—गुरु ने
श्वेतकेतु से
कहा : 'तुम
गायों को जंगल
ले जाओ और
गायों के साथ
रहो। विचार
करना बंद कर
दो, शब्दों
को छोड़ो; पहले
गाय बनो।
गायों के साथ
रहो, उन्हें
प्रेम करो, और वैसे ही
मौन हो जाओ
जैसे गायें
मौन हैं। और
जब गायें एक
हजार हो जाएं
तब वापस आ
जाना।’
श्वेतकेतु
चार सौ गायों
को लेकर जंगल
चला गया। वहां
सोच—विचार का
कोई उपयोग
नहीं था। वहां
कोई नहीं था
जिसके साथ
बातचीत की जा
सके। उसका
चित्त धीरे—
धीरे गाय जैसा
हो गया। वह
वृक्षों के
नीचे मौन बैठा
रहता था। और
ऐसे वर्षों
बीत गए, क्योंकि
वह तभी वापस
जा सकता था जब
गाएं एक हजार
हो जाएं। धीरे—
धीरे उसके मन
से भाषा विलीन
हो गई। धीरे—
धीरे समाज
उसके मन से
विदा हो गया।
धीरे— धीरे वह
मनुष्य भी
नहीं रहा, उसकी
आंखें गायों
की आंखों जैसी
हो गईं, वह
गायों जैसा ही
हो गया।
और
कहानी बहुत
सुंदर है।
कहानी कहती है
कि श्वेतकेतु
गिनना भूल गया।
क्योंकि अगर
भाषा विलीन हो
जाए,
शब्द—जाल खो
जाए तो गिनना
कैसा? वह
भूल गया कि
कैसे गिनती की
जाती है। वह
यह भी भूल गया
कि वापस जाना
है। और आगे की
कहानी तो और
भी सुंदर है।
तब गायों ने
कहा 'श्वेतकेतु,
अब हम हजार
हो गई हैं। अब
हम गुरु के घर
लौट चलें।
गुरु हमारी
प्रतीक्षा
करते होंगे।’
श्वेतकेतु
वापस आया। और
गुरु ने दूसरे
शिष्यों से
कहा. 'गायों की
गिनती करो।’
गायों
की गिनती की
गई। और
शिष्यों ने
गुरु से कहा 'एक
हजार गाएं हैं।’
गुरु ने
कहा. 'एक हजार
नहीं, एक
हजार एक गाएं
है—वह एक
श्वेतकेतु है।’
श्वेतकेतु
गायों के बीच
खड़ा था—मौन, शांत,
न कोई विचार
था, न मन था;
वह बिलकुल
गाय की भांति
शुद्ध और सरल
और निर्दोष हो
गया था। और
गुरु ने उससे
कहा. 'तुम्हें
यहां आने की
जरूरत नहीं है,
तुम अपने
पिता के घर
वापस चले जाओ।
तुमने जान
लिया; घटना
घट गई। तुम अब
मेरे पास
क्यों आए हो? तुम्हें तो
घटना घट गई है।’
घटना
घटती है—जब
चित्त में
जानने के लिए
कोई विषय नहीं
रहता तो तुम
जानने वाले को
जानते हो। जब
मन विचारों से
खाली है, जब एक
भी लहर नहीं
है, एक भी
कंपन नहीं है,
तब तुम
अकेले हो, स्वयं
हो। तब
तुम्हारे
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
स्वभावत:, तब
तुम्हें
स्वयं का बोध
होता है, तुम
पहली बार
स्वयं से भर
जाते हो; एक
आत्म—प्रकाश
घटित होता है,
आत्मबोध
घटित होता है।
यह
सूत्र
आधारभूत
सूत्रों में
एक है। इसे
प्रयोग करो। प्रयोग
कठिन है।
क्योंकि
विचार करने की
आदत,
विषयों से
चिपकने की आदत,
देखे जा
सकने वाले और
पकडे जा सकने
वाले विषयों
की आदत इतनी
गहरी है कि
उससे मुक्त
होने के लिए, विषयों में
और विचारों
में फिर
ग्रस्त न होकर
मात्र साक्षी
हो जाने के
लिए, नेति—नेति
कह कर सब को हटा
देने के लिए
बहुत समय और
सतत श्रम की
जरूरत होगी।
उपनिषदों
की समस्त विधि
का सार—निचोड़
इन दो शब्दों
में निहित है.
नेति—नेति। यह
भी नहीं, यह भी
नहीं। जो भी
मन के सामने
आए उसे कहो यह
भी नहीं। यह
कहते जाओ और
मन के सारे
फर्नीचर को
बाहर फेंकते
जाओ, हटाते
जाओ। कमरे को
खाली कर देना
है, बिलकुल
खाली कर देना
है। उसी
खालीपन में
घटना घटती है।
अगर
कुछ भी रह
जाएगा तो तुम
उससे
प्रभावित होते
रहोगे। और तब
तुम अपने को
नहीं जान
सकोगे।
तुम्हारी
निर्दोषता
विषयों में खो
जाती है।
विचारों से
भरा मन बाहर
भटकता रहता है, तब
तुम स्वयं से
नहीं जुड़ सकते।
दूसरी
विधि:
मैं
हूं। यह मेरा
है। यह यह है।
हे प्रिये ऐसे
भाव में भी
असीमत उतरो।
'मैं हूं।’ तुम इस भाव
में कभी गहरे
नहीं उतरते हो
कि मैं हूं।
तुम हो, लेकिन
तुम कभी इस
घटना में गहरे
नहीं उतरते हो।
शिव
कहते हैं 'मैं
हूं। यह मेरा
है। यह यह है।
हे प्रिये, ऐसे भाव में
भी असीमत उतरो।
मैं
तुम्हें एक
झेन कथा कहता
हूं। तीन
मित्र एक
रास्ते से
गुजर रहे थे।
संध्या उतर
रही थी और
सूरज डूब रहा
था,
तभी
उन्होंने एक
साधु को नजदीक
की पहाड़ी पर
खड़ा देखा। वे
लोग आपस में
विचार करने
लगे कि साधु
क्या कर रहा
है। एक ने कहा 'वह जरूर
अपने मित्रों
की प्रतीक्षा
कर रहा है। वह
अपने झोपड़े से
घूमने के लिए
निकला होगा और
उसके संगी—साथी
पीछे छूट गए
होंगे; वह
उनकी राह देख
रहा है।’
दूसरे
मित्र ने इस
बात को काटते
हुए कहा 'यह
सही नहीं है।
अगर कोई
व्यक्ति किसी
की राह देखता
है तो वह कभी—कभी
पीछे मुड़ कर
भी देखता है।
लेकिन यह आदमी
तो पीछे की
तरफ कभी नहीं
देखता है।
इसलिए मेरा
अनुमान है कि
वह किसी की
राह नहीं देख रहा
है, बल्कि
उसकी गाय खो
गई है। सांझ
निकट आ रही है,
सूरज डूब
रहा है और
जल्दी ही अँधेरा
घिर जाएगा, इसलिए वह अपनी
गाय की तलाश में
है। वह पहाड़ी
की चोटी पर
खड़ा देख रहा
है कि जंगल में
गाय कहां है।’
तीसरे
मित्र ने कहा : 'ऐसा
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
वह इतना शांत
खड़ा है, जरा
भी इधर—उधर
नहीं हिलता है।
ऐसा नहीं लगता
है कि वह कहीं
कुछ देख रहा
है—उसकी आंखें
भी बंद हैं।
जरूर वह
प्रार्थना कर
रहा होगा। वह
किसी खोई हुई
गाय का या
किन्हीं पीछे
छूट गए
मित्रों का
इंतजार नहीं
कर रहा है।’
इस
तरह वे तर्क—वितर्क
करते रहे, लेकिन
किसी नतीजे पर
नहीं पहुंच
पाए। फिर
उन्होंने तय
किया कि हमें
पहाड़ी पर चलकर
खुद साधु से
ही पूछना
चाहिए कि आप
क्या कर रहे
हैं। और वे
साधु के पास
ऊपर गए। पहले
मित्र ने कहा. 'क्या आप
अपने मित्रों
की प्रतीक्षा
कर रहे हैं जो
पीछे छूट गए
हैं?'
साधु
ने आंखें
खोलीं और कहा? 'मैं
किसी की भी
प्रतीक्षा
में नहीं हूं।
और मेरे न
मित्र हैं और
न शत्रु, जिनकी
मैं
प्रतीक्षा
करूं।’ यह
कहकर उसने आंखें
बंद कर लीं।
दूसरे
मित्र ने कहा 'तब
मैं जरूर सही
हूं। क्या आप
अपनी गाय को
खोज रहे हैं
जो जंगल में खो
गई है?'
साधु
ने कहा : 'नहीं,
मैं किसी को
नहीं खोज रहा
हूं—न गाय को
और न किसी
अन्य को। मैं
स्वयं के
अतिरिक्त
किसी में भी
उत्सुक नहीं
हूं।’
तीसरे
मित्र ने कहा 'तब
तो निश्चित ही
आप कोई
प्रार्थना या
कोई ध्यान कर
रहे हैं।’ साधु
ने फिर आंखें
खोली और कहा. 'मैं कुछ भी
नहीं कर रहा
हूं। मैं बस यहां
हूं। मैं केवल
हूं। मैं कुछ
कर नहीं रहा
हूं; मैं
यहां बस हूं मैं
मात्र हूं।’
बौद्ध
इसे ही ध्यान
कहते हैं। अगर
तुम कुछ करते
हो तो वह
ध्यान नहीं है; तुम
बहुत दूर चले
गए। अगर तुम
प्रार्थना
करते हो तो वह
ध्यान नहीं है;
तुम बातचीत
करने लगे। अगर
तुम कोई शब्द
उपयोग में
लाते हो तो वह
ध्यान नहीं है,
मन उसमें
प्रविष्ट हो
गया। उस साधु
ने ठीक कहा।
उसने कहा 'मैं
यहां बस हूं
कुछ कर नहीं
रहा हूं।’
यह
सूत्र कहता है
'मैं हूं।’
इस
भाव में गहरे
उतरो। बस बैठे
हुए इस भाव
में गहरे उतरो
कि मैं मौजूद
हूं मैं हूं।
इसे अनुभव करो, इस
पर विचार मत
करो। तुम अपने
मन में कह
सकते हो कि
मैं हूं; लेकिन
कहते ही वह
व्यर्थ हो गया।
तुम्हारा सिर
सब गुड़गोबर कर
देता है। सिर
में मत दोहराओ
कि मैं जीता
हूं मैं हूं।
कहना व्यर्थ
है, कहना
दो कौड़ी का है।
तुम बात ही
चूक गए। इसे
अपने प्राणों
में अनुभव करो।
इसे अपने पूरे
शरीर में
अनुभव करो।
केवल सिर में
नहीं, इसे
समग्र इकाई की
भांति अनुभव
करो। बस अनुभव
करो. 'मैं
हूं।’
मैं
हूं इन शब्दों
का उपयोग मत
करो। क्योंकि
मैं तुम्हें
समझा रहा हूं
इसलिए मुझे इन
शब्दों का
उपयोग करना पड़
रहा है। शिव
पार्वती को
समझा रहे थे, इसलिए
उन्हें भी मैं
हूं को शब्दों
में कहना पडा।
तुम
शब्दों को मत
दोहराओ। यह
कोई मंत्र
नहीं है।
तुम्हें यह
दोहराना नहीं
है कि मैं हूं,
मैं हूं। अगर
तुम दोहराओगे
तो तुम सो
जाओगे, तुम
आत्म—सम्मोहित
हो जाओगे।
जब
तुम किसी चीज
को दोहराते हो
तो तुम आत्म—सम्मोहित
हो जाते हो।
पहले दोहराने
से ऊब पैदा
होती है और
फिर तुम्हें
नींद आने लगती
है और फिर होश
खो जाता है। तुम
इस आत्म—सम्मोहन
से जब वापस
आओगे तो बहुत
ताजा अनुभव करोगे—वैसे
ही ताजा अनुभव
करोगे, जैसे
गहरी नींद से
जागने पर करते
हो।
यह
स्वास्थ्य के
लिए अच्छा है, लेकिन
यह ध्यान नहीं
है। अगर
तुम्हें नींद
न आती हो तो
तुम मंत्र का
उपयोग कर सकते
हो। मंत्र
बिलकुल
ट्रैंक्येलाइजर
जैसा है—उससे
भी बेहतर। तुम
किसी शब्द को
निरंतर
दोहराते रहो,
उसका
एकसुरा जाए
करते रही और
तुम्हें नींद
लग जाएगी। जो
भी चीज ऊब
लाती है, वह
नींद पैदा
करती है।
मनोवैज्ञानिक
और
मनोचिकित्सक
अनिद्रा से
पीड़ित लोगों
को सलाह देते
हैं कि घड़ी की
टिक—टिक सुनते
रहो और
तुम्हें नींद
आ जाएगी। यह
टिक—टिक लोरी
का काम करता
है। मा के
गर्भ में
बच्चा निरंतर
नौ महीने तक
सोया रहता है।
मां का हृदय
निरंतर धड़कता
रहता है और वह
धड़कन नींद का
कारण बन जाती
है।
यही
कारण है कि जब
तुम्हें कोई
अपने हृदय से
लगा लेता है
तो तुम्हें
अच्छा लगता है।
उस धड़कन के
पास तुम्हें
अच्छा लगता है, तुम
विश्राम
अनुभव करते हो।
जो भी चीज
एकरसता पैदा
करती है उससे
विश्राम मिलता
है, तुम सो
जाते हो।
तुम
गांव में शहर
के मुकाबले
ज्यादा नींद
ले सकते हो, क्योंकि
गांव का जीवन
एकरस है, सपाट
है, उबाऊ
है। शहर का
जीवन भिन्न है,
वहा
प्रतिपल कुछ न
कुछ नया हो
रहा है।
सड्कों का
शोरगुल भी
बदलता रहता है।
गांव में सब
कुछ वही का
वही रहता है।
सच तो यह है कि गांव
में कोई खबर
ही निर्मित
नहीं होती है;
वहां कुछ
होता ही नहीं
है। गांव में
सब कुछ वर्तुल
में घूमता
रहता है।
इसलिए गांव के
लोग गहरी नींद
सोते हैं, क्योंकि
उनके चारों ओर
का जीवन उबाने
वाला है। शहर
में नींद कठिन
है, क्योंकि
तुम्हारे
चारों ओर का
जीवन उत्तेजना
से भरा है, वहा
सब कुछ बदल
रहा है।
तुम
कोई भी मंत्र
काम में ला
सकते हो। राम—राम
या ओम—ओम, कुछ
भी चलेगा। तुम
जीसस
क्राइस्ट का
नाम जप सकते
हो, अवे
मारिया जप
सकते हो। कोई
भी शब्द ले लो
और उसे एक ही
सुर में जपते
रहो, तुम्हें
गहरी नींद आ
जाएगी। और तुम
यह भी कर सकते
हों—रमण
महर्षि साधना
की एक विधि
बताते थे कि
स्वयं से पूछो
कि मैं कौन
हूं। लोगों ने
उसको भी मंत्र
बना लिया। वे आंखें
बंद करके
बैठते थे और
दोहराते रहते
थे. 'मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?' यह
मंत्र बन गया।
लेकिन वह रमण
का उद्देश्य
नहीं था।
तो
इसे मंत्र मत
बनाओ। बैठ कर
यह मत दोहराओ
कि मैं हूं,
उसकी कोई
जरूरत नहीं है।
सब जानते हैं
और तुम भी
जानते हो कि
तुम हो। उसकी
जरूरत नहीं है,
वह फिजूल है।
मैं हूं—यह
अनुभव करो।
अनुभव भिन्न
बात है, सर्वथा
भिन्न बात है।
विचार करना
अनुभव से बचने
की तरकीब है।
विचार करना न
केवल भिन्न है,
बल्कि धोखा
है।
जब
मैं कहता हूं
कि अनुभव करो
कि मैं हूं तो
उसका क्या
मतलब है? मैं
इस कुर्सी पर
बैठा हूं। अगर
मैं अनुभव
करने लगूं कि
मैं हूं तो
मैं अनेक
चीजों के
प्रति बोधपूर्ण
हो जाऊंगा—कुर्सी
पर पड़ने वाले
दबाव का बोध
होगा, मखमल
के स्पर्श का
बोध होगा, कमरे
से हवा के
गुजरने का बोध
होगा, मेरे
शरीर से ध्वनि
के स्पर्श
होने का बोध
होगा, हृदय
की धड़कन का
बोध होगा, शरीर
में खून के
मौन प्रवाह का
बोध होगा, शरीर
की एक सूक्ष्म
तरंग का बोध होगा।
हमारा शरीर जीवंत
और गत्यात्मक
है; वह कोई स्थिर, ठहरी हुई चीज
नहीं है। तुम
तरंगायित हो
रहे हो।
निरंतर एक
सूक्ष्म कंपन
जारी है, और
जब तक तुम
जीवित हो, यह
जारी रहेगा।
तो एक कंपन का
बोध होगा। तुम
इन सारी
बहुआयामी
चीजों के
प्रति बोध से भर
जाओगे।
और
अगर तुम इसी
क्षण अपने
भीतर—बाहर
होने वाली
चीजों के
प्रति इतने ही
बोधपूर्ण हो
जाओ,
तो मैं हूं
का वह अनुभव
होगा जो उसका
मतलब है। अगर
तुम पूरी तरह
बोधपूर्ण हो
जाओ तो विचार
रुक जाएगा।
क्योंकि जब
तुम अनुभव
करते हो कि
मैं हूं,
तो यह अनुभव
ऐसी समग्र
घटना है कि
उसमें विचार
नहीं चल सकता।
शुरू—शुरू
में तुम पाओगे
कि विचार तैर
रहे हैं।
लेकिन धीरे—
धीरे जब
अस्तित्व में
तुम्हारी
जडें गहरी होंगी, जितने
ही तुम अपने
होने के अनुभव
में थिर होगे,
उतने ही
विचार दूर
होते जाएंगे।
और तुम इस
दूरी को महसूस
करोगे।
तुम्हें
लगेगा कि ये
विचार मुझे
नहीं, किसी
और को घट रहे
हैं—बहुत—बहुत
दूर। दूरी
स्पष्ट अनुभव
होगी। और तुम
जब वस्तुत:
अपने केंद्र
में, अपने
होने में
स्थित हो
जाओगे, तब
मन विलीन हो
जाएगा। तुम
होगे, लेकिन
न कोई शब्द
होगा, न
कोई
प्रतिबिंब
होगा।
ऐसा
क्यों होता है? क्योंकि
मन दूसरों से
संबंधित होने
का एक उपाय है।
यदि मुझे
तुमसे
संबंधित होना
है तो मुझे मन
का उपयोग करना
होगा, मुझे
शब्दों का और
भाषा का उपयोग
करना पड़ेगा।
यह सामाजिक
घटना है, सामूहिक
किया है। अगर
तुम अकेले में
भी बोलते हो
तो तुम अकेले
नहीं हो, तुम
किसी अन्य
व्यक्ति से
बोल रहे हो।
भले ही तुम
अकेले हो, लेकिन
अगर तुम
बातचीत कर रहे
हो तो तुम
अकेले नहीं हो,
तुम किसी से
बातें कर रहे
हो। तुम अकेले
कैसे बातें कर
सकते हो? कोई
और मन के भीतर
मौजूद है और
तुम उससे बोल
रहे हो।
मैं
दर्शन—शास्त्र
के एक अध्यापक
की आत्मकथा पढ़
रहा था। उसने
अपने संस्मरण
में कहा है कि
एक दिन वह अपनी
पांच साल की
बेटी को स्कूल
छोडने जा रहा
था। बेटी को
स्कूल में
छोड्कर उसे
विश्वविद्यालय
पहुंचना था और
वहां लक्चर
देना था। तो
वह रास्ते में
अपने लेक्चर
की तैयारी
करने लगा। वह
भूल ही गया कि
उसकी बेटी कार
में उसके बगल
मे बैठी है और
वह बोल—बोल कर लक्चर
देने लगा।
लड़की कुछ
क्षणों तक सब
सुनती रही और
फिर उसने पूछा.
'डैडी, आप
मुझसे बोल रहे
हैं या मेरे
बिना ही बोल
रहे हैं?'
जब
भी तुम बोलते
हो तो किसी से.
बोलते हो—किसी
न किसी से
बोलते हो।
चाहे वह वहां
उपस्थित न हो, लेकिन
तुम्हारे लिए
वह उपस्थित है,
तुम्हारे
मन के लिए वह
उपस्थित है।
सब विचार
वार्तालाप है।
विचार मात्र
वार्तालाप .है।
वह एक सामाजिक
कृत्य है।
इसलिए अगर
किसी बच्चे को
समाज के बाहर
बड़ा किया जाए
तो वह भाषा से
वंचित रह
जाएगा। वह
बातचीत करना
नहीं सीख
पाएगा। समाज
तुम्हें भाषा
देता है, समाज
के बिना भाषा—
नहीं हो सकती।
भाषा सामाजिक
घटना है।
जब
तुम अपने में
प्रतिष्ठित
हो जाते हो तो
कोई समाज नहीं
रहता है, कोई
भी नहीं रहता
है। मात्र तुम
होते हो। मन
विलीन हो जाता
है। तब तुम
किसी से
संबंधित नहीं
हो रहे हो—कल्पना
में भी नही—और
इसीलिए मन
विलीन हो जाता
है। तुम मन के
बिना होते हो—और
यही ध्यान है।
मन के बिना
होना ही ध्यान
है। तुम
मूर्च्छित
नहीं हो, पूर्णत:
सजग और सावचेत
हो, अस्तित्व
को उसकी
समग्रता में,
उसके बहु—आयाम
में अनुभव कर
रहे हो, लेकिन
मन खो गया है।
और
मन के खोने के
साथ ही अनेक
चीजें विदा हो
जाती हैं। मन
के साथ
तुम्हारा नाम
विदा हो जाता
है। मन के साथ
तुम्हारा रूप
विदा हो जाता
है। मन के साथ
तुम्हारा
हिंदू
मुसलमान या
पारसी होना
विदा हो जाता
है। मन के साथ
ही तुम्हारा
भला या बुरा
होना, पुण्यात्मा
या पापी होना,
सुंदर या
कुरूप होना
विदा हो जाता
है। मन के साथ
ही तुम्हारा
सब कुछ, जो
तुम पर थोपा
गया था, विलीन
हो जाता है।
तब तुम अपनी
मौलिक
शुद्धता में
प्रकट होते हो।
तब तुम अपनी
समग्र
निर्दोषता
में, अपने
कुंवारेपन
में प्रकट
होते हो। तब
तुम तिनके की
तरह झोंकों
में उड़ते नहीं
रहते, तुम
अस्तित्व में
प्रतिष्ठित
होते हो।
मन
के साथ तुम
अतीत में गति
कर सकते हो।
मन के साथ तुम
भविष्य की
यात्रा कर
सकते हो। मन
के बिना न तुम
अतीत में जा
सकते हो और न
भविष्य में।
मन के बिना
तुम यहां और
अभी हो। मन के
विलीन होते ही
वर्तमान क्षण
शाश्वत हो जाता
है। वर्तमान
क्षण के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं रहता
है। और आनंद
घटित होता है।
तुम्हें किसी खोज
में नहीं जाना
है,
वर्तमान
क्षण में
स्थित, आत्मा
में
प्रतिष्ठित—तुम
आनंदित हो। और
यह आनंद कुछ
ऐसा नहीं है
जो तुम्हें
घटित होता है।
तुम स्वयं
आनंद हो।
'मैं हूं।’ इसे प्रयोग
करो। और तुम
यह प्रयोग
कहीं भी कर
सकते हो। बस
में या
रेलगाड़ी में
यात्रा करते
हुए, बैठे
हुए या लेटे
हुए, अस्तित्व
को वैसा ही
अनुभव करो
जैसा वह है।
उसके संबंध
में विचार मत
करो। अचानक
तुम्हें बोध
होगा कि तुम
कितनी चीजों के
प्रति अनजान
रहे हो जो
निरंतर
तुम्हें घट रही
हैं।
तुमने
कभी अपने शरीर
को अनुभव नहीं
किया।
तुम्हारे हाथ
हैं,
लेकिन
तुमने उन्हें
भी कभी अनुभव
नहीं किया।
तुमने कभी
नहीं जाना कि
हाथ क्या कहते
हैं, वे
सतत तुम्हें
क्या—क्या
सूचनाएं देते
रहते हैं। हाथ
कभी भारी और
उदास होता है
और कभी हलका
और प्रफुल्लित।
कभी उसमें
रसधार बहती है
और कभी सब कुछ
मुर्दा—मुर्दा
हो जाता है।
कभी तुम उसे
जीवंत और
नृत्य करते
हुए पाते हो और
कभी ऐसा लगता
है कि उसमें
जीवन नहीं है,
वह जड़ और
मृत है, तुमसे
लटका है, लेकिन
जीवित नहीं है।
जब
तुम अपने होने
को अनुभव
करोगे तो तुम
अपने हाथों की, नाक
की, शरीर
की भाव—दशा से
परिचित होगे।
यह बहुत बड़ी
बात है। उसमें
बहुत सूक्ष्म
भेद हैं। शरीर
सतत तुमसे कुछ
कह रहा है, लेकिन
तुम उसे सुनने
को मौजूद ही
नहीं होते हो।
और तुम्हारे
चारों ओर का
अस्तित्व
निरंतर सूक्ष्म
ढंगों से, अनेक—अनेक
ढंगों, भिन्न—भिन्न
ढंगों से
तुममें
प्रवेश कर रहा
है, लेकिन
तुम बेहोश हो,
तुम उसके
स्वागत के लिए
वहां मौजूद
नहीं हो।
जब
तुम अपने
अस्तित्व को
अनुभव करने लगते
हो तो सारा
जगत तुम्हारे
लिए सर्वथा नए
रूप में जीवंत
हो उठता है।
अब तुम उसी
सड़क से गुजरते
हो जिससे रोज
गुजरते थे, लेकिन
अब वह सडक वही
सड़क नहीं है, क्योंकि अब
तुम अस्तित्व
में केंद्रित
हो। तुम
उन्हीं
मित्रों से
मिलते हो
जिनसे सदा मिलते
थे, लेकिन
अब वे वही
नहीं हैं, क्योंकि
तुम बदल गए हो।
तुम अपने घर
वापस आते हो
तो जिस पत्नी
के साथ वर्षों
से रहते आए हो
उसे भी सर्वथा
भिन्न पाते हो।
वह भी वही
नहीं रही।
अब
तुम अपने होने
के प्रति
बोधपूर्ण हो
और तुम दूसरों
के होने के
प्रति भी
बोधपूर्ण हो।
जब पत्नी
क्रोध करती है
तो अब तुम
उसके क्रोध का
भी आनंद ले
सकते हो, क्योंकि
अब तुम समझ
सकते हो कि
क्या हो रहा
है। और अगर
तुम क्रोध को
देख सके तो
शायद क्रोध क्रोध
न मालूम हो, वह प्रेम लग
सकता है। अगर
तुम उसे गहराई
में अनुभव कर
सके तो क्रोध बताएगा
कि पत्नी अभी
भी तुम्हें
प्रेम करती है।
अन्यथा वह
क्रोध नहीं
करती, वह
चिंता ही नहीं
लेती। वह अभी
भी पूरे दिन
तुम्हारी राह
देखती है। वह
क्रोधित है, क्योंकि वह
तुम्हें
प्रेम करती है।
वह तुमसे
उदासीन और
विरक्त नहीं
है।
स्मरण
रहे,
प्रेम का
विपरीत क्रोध
या घृणा नहीं
है, उसका
असली विपरीत
उदासीनता है।
यदि कोई तुमसे
उदासीन है तो
उसका अर्थ है
कि प्रेम खो
गया। अगर कोई
व्यक्ति
तुम्हारे
प्रति क्रोध
करने को भी
राजी नहीं है
तो समझो कि सब
कुछ समाप्त हो
गया।
लेकिन
सामान्यत: जब
तुम्हारी
पत्नी क्रोध
करती है तो
तुम उससे भी
ज्यादा उग्र प्रतिक्रिया
करते हो, तुम
आक्रामक हो
जाते हो। तुम
उसके क्रोध का
मतलब नहीं
समझे, क्योंकि
अभी तुम अपने
में केंद्रित
नहीं हो, तुम
स्वस्थ नहीं
हो। तुमने
अपने ही क्रोध
को उसके
यथार्थ में
नहीं जाना है,
यही कारण है
कि तुम दूसरों
के क्रोध को
नहीं समझ सकते।
अगर तुम अपने
क्रोध को जान
सके, अगर
तुम उसे उसकी
समग्र भावदशा
में अनुभव कर
सके, तो
तुम दूसरों के
क्रोध को भी
जान लोगे। तुम
किसी पर तभी
क्रोध करते हो
जब तुम उसको
प्रेम करते हो।
अन्यथा क्रोध
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
क्रोध के
द्वारा पत्नी
तुमसे कह रही
है कि मैं अभी भी
तुम्हें
प्रेम करती हूं, मैं तुमसे
उदासीन नहीं
हूं। पत्नी
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करती रही, प्रतीक्षा
करती रही, और
अब वही
प्रतीक्षा
क्रोध बन गई
है।
शायद
वह यह बात
सीधे —सीधे न
कहे,
क्योंकि
भाव की भाषा
सीधी नहीं है।
और यही आज की
सबसे बड़ी
समस्या बन गई
है। कारण यह
है कि तुम भाव
की भाषा नहीं
समझ सकते, क्योंकि
तुम अपने
भावों से ही
परिचित नहीं
हो। तुम अपने
होने में
स्थित नहीं हो,
तुम
केंद्रित
नहीं हो। तुम
केवल शब्दों
को समझ सकते
हो; तुम
भावों को नहीं
समझ सकते।
भावों की
अभिव्यक्ति
के अपने ढंग
हैं और वे ज्यादा
बुनियादी हैं,
ज्यादा
यथार्थ हैं।
जब
तुम अपने
अस्तित्व से
परिचित होओगे
तो तुम दूसरों
के अस्तित्व
के प्रति भी
जागरूक होओगे।
और प्रत्येक
व्यक्ति इतना
रहस्यपूर्ण
है। प्रत्येक
व्यक्ति अथाह
सागर जैसा है
जिसे जानना है।
प्रत्येक
व्यक्ति की
अनंत संभावना
है जिसमें
प्रवेश करना
है और जिसे
जानना है। और
प्रत्येक
व्यक्ति
प्रतीक्षा
में है कि कोई
उसके हृदय में
प्रवेश करे, उसमें
गहरे उतरे और
उसे अनुभव करे,
उसे जाने।
लेकिन
क्योंकि
तुमने अपने
हृदय को ही
नहीं जाना है,
तुम किसी के
हृदय में
प्रवेश नहीं
कर सकते। जब
निकटतम हृदय
ही नहीं जाना
गया है तो तुम
दूसरों के
हृदयों को
कैसे जान सकते
हो?
तुम
सोए—सोए चलते
हो और ऐसे ही
सोए लोगों की
भीड़ के बीच जीते
हो। प्रत्येक
व्यक्ति गहरी
नींद में है।
तुम्हें बस
इतना होश है
कि तुम गहरी
नींद में सोए
लोगों के बीच
से। गुजरते हो
और बिना किसी
दुर्घटना के
अपने घर वापस
आ जाते हो। बस
इतना ही। इतना
होश तुम्हें
है। और मनुष्य
के लिए यह
अल्पतम
संभावना है।
यही कारण है
कि तुम इतने
ऊबे हुए हो, इतने
सुस्त और मंद
हो। जीवन एक
बोझ है। और
भीतर— भीतर
प्रत्येक
मनुष्य
मृत्यु की प्रतीक्षा
कर रहा है, ताकि
जीवन से छुटकारा
हो। मृत्यु ही
एकमात्र आशा
मालूम पड़ती है।
ऐसा
क्यों है? जीवन
परम आनंद हो
सकता है। वह
इतना ऊब— भरा
क्यों है? क्योंकि
तुम जीवन में
केंद्रित
नहीं हो। तुम
जीवन से उखड़
गए हो, विच्छिन्न
हो गए हो। तुम
अल्पतम पर
जीते हो। और
जीवन तो तभी
घटित होता है
जब तुम अधिकतम
पर जीते हो।
यह
सूत्र
तुम्हें
अधिकतम जीवन
प्रदान करेगा।
विचार
तुम्हें
अल्पतम ही दे
सकता है, भाव
तुम्हें
अधिकतम दे
सकता है। जीवन
की राह मन से
होकर नहीं
जाती है, हृदय
से होकर ही
उसकी राह है।
'मैं हूं।’ इसे हृदय से
अनुभव करो। और
अनुभव करो कि
यह अस्तित्व
मेरा है।
'यह मेरा है।
यह यह है।’
यह
बहुत सुंदर है।
मैं हूं—इसे
अनुभव करो, इसमें
स्थित होओ। और
फिर जानो कि
यह मेरा है, यह अस्तित्व,
यह
प्रवाहमान
जीवन मेरा है।
तुम
कहे चले जाते
हो कि यह घर
मेरा है, यह
सामान मेरा है।
तुम अपनी
चीजों की बातें
करते रहते हो
और तुम्हें
पता भी नहीं
होता कि
तुम्हारी
सच्ची संपदा
क्या है।
समग्र जीवन, समस्त आत्मा
तुम्हारी
संपदा है।
तुम्हारे
भीतर गहनतम
संभावना है।
अस्तित्व का
आत्यंतिक
रहस्य तुममें
छिपा है और
तुम उसके
मालिक हो।
शिव
कहते हैं : मैं
हूं—इसे अनुभव
करो। और अनुभव
करो कि यह
मेरा है।
यह
बात सतत स्मरण
रखनी है कि
इसे विचार
नहीं बना लेना
है। इसे अनुभव
करो,
हृदय से
अनुभव करो कि
यह मेरा है, यह अस्तित्व
मेरा है। और
तब तुम कृतशता
अनुभव करोगे,
तब तुम
अहोभाव से भर
जाओगे।
अभी
तो तुम
परमात्मा को
धन्यवाद कैसे
दे सकते हो? तुम्हारा
धन्यवाद भी
ऊपरी है, औपचारिक
है। और कैसी
हमारी दीनता
है कि हम
परमात्मा के
साथ भी
औपचारिकता
बरतते हैं!
तुम कृतश कैसे
हो सकते हो? कृतज्ञ होने
लायक तुमने
कुछ भी नहीं
जाना है।
अगर
तुम अपने को
अस्तित्व में
केंद्रित
अनुभव कर सको, उसके
साथ एक अनुभव
कर सको, उससे
परिपूरित
अनुभव कर सको,
उसके साथ
नृत्य में
सहभागी हो सको—तब
तुम अनुभव
करोगे कि यह
मेरा है, यह
अस्तित्व
मेरा है। तब
तुम्हें
प्रतीति होगी
कि यह समस्त
रहस्यमय
ब्रह्मांड
मेरा है, यह
सारा जगत मेरे
लिए अस्तित्व
में है। उसने
मुझे पैदा
किया है और
मैं उसका ही
फूल हूं।
यह
चेतना जो
तुम्हें मिली
है,
यही जगत का
सुंदरतम फूल
है। और करोड़ों—करोड़ों
वर्षों से यह
पृथ्वी
तुम्हारे
होने के लिए
तैयारी में
लगी थी।
'यह मेरा है।
यह यह है।’
यह
अनुभव करना है।
अनुभव करना है
कि यही जीवन
है,
ऐसा है—यह
तथाता। अनुभव
करना कि मैं
नाहक ही चिंता
कर रहा था, मैं
व्यर्थ ही
भिखारी बना
हुआ था, व्यर्थ
ही
अपने को
भिखारी समझ
रहा था। मैं
तो मालिक हूं।
जब तुम
केंद्रित
होते हो तो
तुम समष्टि के
साथ,
पूर्ण के
साथ एक हो
जाते हो, और
तब समस्त
अस्तित्व
तुम्हारे लिए
है; तब तुम भिखारी
नहीं हो, तुम
अचानक सम्राट
हो जाते हो।
यह
यह है। हे प्रिय, ऐसे
भाव में भी असीमत:
उतरो।’
और
यह अनुभव करते
हुए उसकी कोई
सीमा मत बनाओ, उसे
असीमत अनुभव
करो। उस पर
कोई सीमा—रेखा
मत खींचो; कोई
सीमा है भी
नहीं। वह कहीं
समाप्त नहीं
होता है। जगत
न कहीं आरंभ
होता है और न
कहीं समाप्त
होता है।
अस्तित्व का न
कोई आरंभ है
और न अंत। और
तुम्हारा भी
कोई आरंभ और
अंत नहीं है।
आरंभ
और अंत मन के
कारण हैं। मन
का आरंभ है और
मन का अंत है।
अपने जीवन में
वापस लौटो, पीछे
की ओर चलो, और
तुम पाओगे कि
एक क्षण आता
है जहां सबै
कुछ ठहर जाता
है। वहा आरंभ
है—मन का आरंभ।
तुम पीछे वहीं
तक स्मरण कर
सकते हो जब
तुम तीन वर्ष
के रहे होगे
या ज्यादा से
ज्यादा दो
वर्ष के रहे
होगे—दो वर्ष
तक लौटना बहुत
दुर्लभ है—वहा
जाकर स्मृति
ठहर जाती है।
तुम अपनी
स्मृति में
ज्यादा से
ज्यादा वहां तक
लौट सकते हो
जब तुम दो
वर्ष के थे। इसका
क्या अर्थ है?
उसके पहले
की, दो
वर्ष की उम्र
के पहले की
कोई भी स्मृति
तुम्हारे पास
नहीं है।
अचानक एक
शून्य, एक
गैप आ जाता है,
तुम्हें
उसके आगे कुछ
भी नहीं मालूम
है।
क्या
तुम्हें अपने
जन्म के संबंध
में कुछ याद है? क्या
तुम्हें उन नौ
महीनों का कुछ
स्मरण है जब
तुम मां के
पेट में थे? तुम तो थे, लेकिन मन
नहीं था। मन
का आरंभ दो
वर्ष की उम्र
के आसपास हुआ।
यही कारण है
कि दो वर्ष की
उम्र तक तुम
लौटकर स्मरण
कर सकते हो।
उसके आगे मन
नहीं है, वहा
स्मृति ठहर
जाती है।
तो
मन का आरंभ है, मन
का अंत है, लेकिन
तुम्हारा कोई
आरंभ नहीं है,
तुम अनादि
हो। अगर गहन
ध्यान में, अगर ऐसे
ध्यान में तुम
अस्तित्व को
अनुभव कर सको
तो मन नहीं है।
केवल एक
आरंभहीन, अंतहीन
ऊर्जा का
प्रवाह है, जागतिक
ऊर्जा का
प्रवाह है।
तुम्हारे
चारों ओर एक
अनंत— असीम
सागर है और
तुम उसमें
मात्र एक लहर
हो। लहर का
आरंभ है और
अंत है, लेकिन
सागर का कोई
आरंभ और अंत
नहीं है। और
जब तुम जान
लेते हो कि
तुम लहर नहीं,
सागर हो, तो सब दुख, सब संताप
विलीन हो जाता
है।
तुम्हारे
दुख की नींव
में,
उसकी गहराई
में क्या है? उसकी गहराई
में मृत्यु है।
तुम भयभीत हो
कि तुम्हारा
अंत होगा, तुम्हारी
मृत्यु होगी।
वह बिलकुल
निश्चित है।
जगत में कुछ
भी उतना
निश्चित नहीं
है जितनी मृत्यु
निश्चित है।
वही भय है, वही
कंपन है, वही
दुख है। कुछ
भी करो, तुम
मृत्यु के
सामने असहाय
हो, लाचार
हो। कुछ भी
नहीं किया जा
सकता है, मृत्यु
होने ही वाली
है। और यह बात
तुम्हारे
चेतन—अचेतन मन
में चलती ही
रहती है। जब
यह बात चेतन
मन में उभर
आती है, तुम
मृत्यु से
भयभीत हो जाते
हो। फिर तुम
उसे दबा देते
हो, और वह
भय अचेतन में
सरकता रहता है।
प्रत्येक
क्षण तुम
मृत्यु से, मिटने से
भयभीत हो। मन
मिटेगा, लेकिन
तुम नहीं
मिटोगे। मगर तुम
अपने को नहीं
जानते हो। तुम
जिसे जानते हो
वह मन है। वह
निर्मित हुआ
है, उसका
आरंभ है और
उसका अंत है।
जिसका आरंभ है,
उसका अंत
निश्चित है।
अगर तुम अपने
भीतर उसे खोज
सको जिसका कोई
आरंभ नहीं है,
जो बस है, जिसका कोई
अंत नहीं है, तो मृत्यु
का भय विलीन
हो जाता है।
और
जब का भाव खो
जाता है तब
तुमसे प्रेम
प्रवाहित
होता है—उसके
पहले मृत्यु नहीं।
जब तक मृत्यु
है तब तक तुम
प्रेम कैसे कर
सकते हो? तुम
किसी से चिपके
रह सकते हो, लेकिन तुम
प्रेम नहीं कर
सकते। तुम
किसी का उपयोग
कर सकते हो; तुम प्रेम
नहीं कर सकते।
तुम किसी का
शोषण कर सकते
हो, तुम
प्रेम नहीं कर
सकते। जब तक भय
है, प्रेम संभव
नहीं है। भय
ही जहर है।
भीतर भय हो तो
प्रेम का फूल
नहीं खिल सकता
है।
प्रत्येक
मनुष्य मरने
वाला है, प्रत्येक
मनुष्य क्यू
में, कतार
में खड़ा अपने
समय का इंतजार
कर रहा है।
तुम प्रेम
कैसे कर सकते
हो? पूरी
बात ही बेतुकी
मालूम पड़ती है।
मृत्यु है तो
प्रेम
अर्थहीन
मालूम पड़ता है।
क्योंकि
मृत्यु सबको
मिटा देगी, पोंछ देगी, प्रेम भी
शाश्वत नहीं
है। तुम अपने
प्रियजन के
लिए चाहते हुए
भी कुछ नहीं
कर सकते हो, क्योंकि तुम
मृत्यु को
नहीं टाल सकते
है। मृत्यु
सबके पीछे खड़ी
है।
तुम
मृत्यु को भूल
सकते हो, तुम
एक धोखा
निर्मित कर
सकते हो, तुम
मान सकते हो
कि मृत्यु
नहीं है, लेकिन
तुम्हारा सब
मानना ऊपर—ऊपर
है। गहरे में
तुम जानते हो
कि मृत्यु
होने वाली है।
और अगर मृत्यु
है तो जीवन
अर्थहीन है।
तुम झूठे अर्थ
रच ले सकते हो,
लेकिन उनसे
कुछ हल नहीं
होगा। थोड़ी
देर के लिए
उनसे सहारा
मिल सकता है, लेकिन फिर
सचाई उभरेगी
और अर्थ खो
जाएंगे। तुम
बस अपने को
धोखे में रख
सकते हो, तुम
सतत आत्मवचना
में रह सकते
हो—यदि तुम
उसे नहीं
जानते हो जो
अनादि और अनंत
है, जो
मृत्यु के पार
है।
अमृत
को जानने पर
ही प्रेम संभव
है,
क्योंकि तब
मृत्यु नहीं
है। प्रेम
संभव है।
बुद्ध
तुम्हें
प्रेम—करते
हैं, जीसस
तुम्हें
प्रेम करते
हैं, लेकिन
वह प्रेम
तुम्हारे लिए
बिलकुल
अपरिचित है, सर्वथा
अज्ञात है। वह
प्रेम भय के
विलीन होने से
आया है।
तुम्हारा
प्रेम तो भय
से बचने का
उपाय भर है।
इसलिए जब तुम
प्रेम में
होते हो, तुम
निर्भय मालूम
पड़ते हो, कोई
तुम्हें बल
देता है। और
यह पारस्परिक
बात है। तुम
दूसरे को बल
देते हो, दूसरा
तुम्हें बल
देता है।
दोनों दीन—हीन
हैं और दोनों
किसी दूसरे को
खोज रहे हैं।
और फिर दो दीन—हीन
व्यक्ति
मिलते हैं और
एक—दूसरे को
बल देने की
चेष्टा करते
हैं। यह
चमत्कार है।
यह हो कैसे
सकता है? यह
केवल वंचना है,
धोखा है।
तुम सोचते हो
कि कोई
तुम्हारे
पीछे है, तुम्हारे
साथ है। लेकिन
तुम भलीभाति
जानते हो कि
मृत्यु में कोई
भी तुम्हारे
साथ नहीं हो
सकता। और जब
कोई मृत्यु
में तुम्हारे
साथ नहीं हो सकता
तो वह जीवन
में तुम्हारे
साथ कैसे हो
सकता है? यह
मृत्यु को
टालने का, भुलाने
का उपाय भर है।
क्योंकि तुम
भयभीत हो, तुम्हें
निर्भय होने
के लिए किसी
की जरूरत पड़ती
है।
कहा
जाता है, इमर्सन
ने कहीं कहा
है, कि बड़े
से बड़ा योद्धा
भी अपनी पत्नी
के सामने कायर
होता है।
नेपोलियन भी
अपनी पत्नी के
सामने कायर
होता है।
क्योंकि
पत्नी जानती
है कि पति को
उसके सहारे की
जरूरत है, उसे
स्वयं होने के
लिए उसके बल
की जरूरत है।
पति पत्नी पर
निर्भर है। जब
वह युद्ध—
क्षेत्र से
वापस आता है, लड़ कर वापस
आता है, तो
कापता आता है,
भयभीत आता
है। पत्नी की
बाहों में
विश्राम पाता
है, आश्वासन
पाता है।
पत्नी उसे
सांत्वना
देती है, आश्वस्त
करती है।
पत्नी के
सामने वह
बच्चे जैसा हो
जाता है। हरेक
पति पत्नी के
सामने बच्चा
है। और पत्नी?
वह पति पर
निर्भर है। वह
पति के सहारे
जीती है। वह
पति के बिना
नहीं जी सकती,
पति उसका
जीवन है।
यह
पारस्परिक
धोखा है।
दोनों भयभीत
हैं,
क्योंकि
मृत्यु है।
दोनों एक—दूसरे
के प्रेम में
मृत्यु को
भुलाने की
चेष्टा करते
हैं। प्रेमी—प्रेमिका
निर्भीक हो
जाते हैं, या
निर्भीक होने
की चेष्टा
करते हैं। वे
कभी—कभी बहुत
निर्भीकता के
साथ मृत्यु का
मुकाबला भी कर
लेते हैं।
लेकिन वह भी
ऊपरी है, वैसा
दिखता भर है।
हमारा
प्रेम भय का
ही अंग है —उससे
बचने के लिए
है। सच्चा
प्रेम तब घटित
होता है जब भय
नहीं रहता है, जब
भय विलीन हो
जाता है, जब
तुम जानते हो
कि न तुम्हारा
कोई आरंभ है
और न तुम्हारा
कोई अंत है।
और
इस पर विचार
मत करो। भय के
कारण तुम ऐसा
सोचने लग सकते
हो। तुम सोच
सकते हो: 'हां,
मैं जानता
हूं मेरा कोई
अंत नहीं है, मेरी कोई
मृत्यु नहीं
है, आत्मा
अमर है।’ तुम
भय के कारण
ऐसा सोच सकते
हो, लेकिन
उससे कुछ भी
नहीं होगा।
प्रामाणिक
अनुभव तभी
होगा जब तुम
ध्यान में गहरे
उतरोगे। तब भय
विसर्जित हो
जाएगा, क्योंकि
तुम स्वयं को
अनंत—असीम
देखते हो। तुम
अनंत की तरह
फैल जाते हो—आदिहीन
अतीत में, अंतहीन
भविष्य में।
और इस क्षण
में, इस
वर्तमान क्षण
में उसकी
गहराई में तुम
हो। तुम बस हो,
सनातन से हो—तुम्हारा
कभी आरंभ नहीं
था, तुम्हारा
कभी अंत नहीं
होगा।
इसे
असीमत अनुभव
करो, अनंततः
अनुभव करो।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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