प्रश्नसार:
1—क्या त्वरित
विधियां स्वभाव
के, ताओ के
विपरीत नहीं
है?
2—हम अब तक
बुद्धत्व को
प्राप्त क्यों
नहीं हुए?
3—यदि समग्र
बोध और समग्र
स्वतंत्रता
को उपलब्ध
होकर
प्राकृतिक
विकास
के करोड़ो जन्मों
का टाला जा
सकता है,
तो क्या यह
तर्क
नहीं किया जा
सकता है क ऐसा
हस्तक्षेप
नहीं करना
चाहिए?
4—क्या
अकर्म और विस्तृत
बोध
पर्यायवाची
है?
पहला
प्रश्न:
ये
विधियां
त्वरित है,
क्रांतिकारी
है; लेकिन
क्या ये ताओ
के, स्वभाव
के विपरीत
नहीं हैं?
ताओ
के विपरीत हैं; वे
स्वभाव के
विपरीत हैं।
कोई भी
प्रयत्न
स्वभाव के
विपरीत है; प्रयत्न
मात्र ताओ के
विपरीत है।
अगर तुम सब
कुछ स्वभाव पर,
ताओ पर छोड़
सको तो किसी
विधि की जरूरत
नहीं है।
क्योंकि
स्वभाव पर
छोड़ना परम
विधि है। अगर
तुम सब कुछ
ताओ पर छोड़
सको तो वही
गहनतम समर्पण
है, परम
समर्पण है, जो मनुष्य
कर सकता है।
तुम अपने को, अपने भविष्य
को, अपनी
संभावनाओं को
समर्पित कर
रहे हो। तुम
सब समय को, सब
प्रयत्न को
समर्पित कर
रहे हो।
इसका
अर्थ है अनंत
धैर्य, अनंत
प्रतीक्षा।
अगर तुम सब
कुछ स्वभाव को
समर्पित कर
सको तो फिर
कोई प्रयत्न
नहीं करना है,
फिर कुछ
नहीं करना है।
तब तुम बस नदी
की धारा के
साथ बहते हो।
तब तुम बस उसे
होने देते हो
जो है, जो
होता है। तुम
अपने को पूरी
तरह छोड़ देते
हो। चीजें
तुम्हें घटित
होती हैं; लेकिन
तुम उनके लिए
प्रयत्न नहीं
करते हो। तुम
उनकी चाह तक
नहीं करते हो।
अगर वे होती
हैं तो ठीक; अगर वे नहीं
होती हैं तो
भी ठीक। तुम
कोई चुनाव
नहीं करते हो।
जो भी होता है
वह होता है, तुम्हारी
कोई अपेक्षा
नहीं है। और
निराशा की तो
बात ही नहीं
है, जीवन
की नदी बहती
है और तुम
उसके साथ—साथ
बहते हो।
तुम्हें
किसी मंजिल पर
नहीं पहुंचना
है,
क्योंकि
मंजिल के साथ
प्रयत्न आ
जाता है।
तुम्हें कहीं
जाना नहीं है,
क्योंकि
अगर कहीं जाना
है तो प्रयत्न
आ गया; प्रयत्न
उसमें निहित
है। तुम्हें
कहीं नहीं
जाना है, कहीं
नहीं पहुंचना
है। तुम्हारी
कोई मंजिल
नहीं है; तुम्हारा
कोई आदर्श
नहीं है, तुम्हें
कुछ पाना भी
नहीं है। तुम
सब कुछ
समर्पित कर
देते हो। और
समर्पण के इस
क्षण में, तत्क्षण,
तुम्हें सब
कुछ मिल जाता
है।
प्रयत्न
समय लेगा; समर्पण
कोई समय नहीं
लेगा। विधि को
समय की जरूरत
होगी; समर्पण
को किसी समय
की जरूरत नहीं
होगी। यही
कारण है कि
मैं समर्पण को
परम विधि कहता
हूं।
समर्पण
अ—विधि है, गैर—विधि
है; तुम
उसका अभ्यास
नहीं कर सकते।
तुम समर्पण को
साध नहीं सकते
हो। और अगर
तुम साध सकते
हो तो वह
समर्पण नहीं
है। तब
तुम्हें अपने करने
पर भरोसा है, तब तुम कुछ करने
की चेष्टा कर
रहे हो; चाहे
वह समर्पण ही
क्यों न हो, तुम कुछ
करने की
चेष्टा कर रहे
हो। तब विधि आ
जाएगी। और
विधि के साथ
समय आ जाता है,
भविष्य आ
जाता है।
समर्पण
समय के बाहर
है,
वह समयातीत
है। अगर तुम
समर्पण करते
हो तो इसी
क्षण तुम समय
के बाहर हो गए;
और जो भी हो
सकता है वह
होगा। लेकिन
तब तुम उसकी
खोज नहीं कर
रहे हो, उसकी
चाह नहीं कर
रहे हो। तब
तुम्हें उसका
लोभ नहीं है; तुम्हें
उसकी जरा भी
कामना नहीं है।
वह हो या न हो, तुम्हारे
लिए एक जैसा
है।
ताओ
का अर्थ
समर्पण है—स्वभाव
के प्रति
समर्पण। तब
तुम नहीं हो।
तंत्र
और योग
विधियां हैं।
उनसे तुम
स्वभाव पर
पहुंचोगे, लेकिन
यह लंबी प्रक्रिया
होगी। अंततः
तो सभी
विधियों के
बाद तुम्हें
समर्पण ही
करना होगा।
लेकिन
विधियों से
समर्पण अंत
में आता है; ताओ में वह
आरंभ में ही आ
जाता है। अगर
तुम अभी
समर्पण कर सको
तो किसी विधि
की जरूरत नहीं
है। लेकिन अगर
तुम समर्पण
नहीं कर सकते
और अगर तुम
मुझसे पूछते
हो कि समर्पण
कैसे किया जाए,
तो विधि
जरूरी है।
कभी—कभार
लाखों—करोड़ों
में एक
व्यक्ति ऐसा
होता है जो
बिना यह पूछे
कि कैसे किया
जाए समर्पण कर
देता है। अगर
तुम पूछते हो
कि कैसे किया
जाए तो तुम वह
व्यक्ति नहीं
हो जो समर्पण
कर सके। कैसे
किया जाए
पूछने का अर्थ
ही यह है कि
तुम विधि मांग
रहे हो। ये
विधियां उन
सबके लिए हैं
जो इस 'कैसे' से मुक्त
नहीं हो सकते,
ये विधियां
तुम्हें 'कैसे
करें' की
बुनियादी
चिंता से
छुटकारा
दिलाने के लिए
हैं। अगर तुम
पूछे बिना ही
समर्पण कर सको
तो किसी भी
विधि की जरूरत
नहीं है।
लेकिन
तब तुम यहां
मेरे पास नहीं
आते,
तब तुम किसी
भी समय समर्पण
कर सकते हो।
क्योंकि
समर्पण के लिए
गुरु जरूरी
नहीं है। गुरु
तो विधियां ही
सिखा सकता है।
जब तुम खोजते
हो तो तुम
विधियां ही
खोज रहे हो।
प्रत्येक खोज
विधियों की
खोज है। जब
तुम किसी के
पास जाते हो
और पूछते हो
तो तुम विधि
पूछ रहे हो, उपाय पूछ
रहे हो।
अन्यथा कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है। खोज
ही बताती है
कि तुम्हें
विधि की गहरी
जरूरत है। तो
ये विधियां
तुम्हारे लिए
हैं।
और
ऐसा नहीं है
कि विधियों के
बिना यह नहीं
घट सकता, यह घट
सकता है, लेकिन
बहुत थोड़े
लोगों को घटा
है। और उन
थोड़े से लोगों
को भी वस्तुत:
अनायास नहीं घटा
है; अपने
पिछले जन्मों
में उन्होंने
विधियों के साथ
इतना संघर्ष
किया है, उन्होंने
विधियों के
साथ इतना
संघर्ष किया है
कि अब वे उनसे
थक गए हैं, ऊब
गए हैं। जब
तुम बार—बार
पूछते हो कि
कैसे करें, कैसे करें, तो एक क्षण
आता है जब तुम
उससे ज्यादा
नहीं कर सकते
और अंततः यह
कैसे अपने आप
ही गिर जाता
है। तब तुम
समर्पण कर
सकते हो।
तो
विधि की जरूरत
है ही।
कृष्णमूर्ति
हैं,
वे कह सकते
हैं कि किसी
विधि की जरूरत
नहीं है।
लेकिन यह उनका
पहला जन्म
नहीं है, और
वे अपने पिछले
जन्म में यह
नहीं कह सकते
थे। इस जन्म
में भी उन्हें
अनेक विधियां
दी गई थीं और
उन्होंने
उनका प्रयोग
किया। तो तुम
विधियों के
द्वारा उस
बिंदु पर
पहुंच सकते हो
जहां तुम
समर्पण कर सको
और सभी विधियों
को छोड़ कर सहज
जीओ—लेकिन वह
बिंदु भी
विधियों के
द्वारा ही आता
है।
तो
विधि ताओ के
विरुद्ध है, क्योंकि
तुम ताओ के
विरुद्ध हो।
तुम्हें
संस्कारों से
मुक्त करना है।
अगर तुम ताओ में
हो तो कोई विधि
जरूरी नहीं है।
अगर तुम स्वास्थ
हो तो औषधि की
कोई जरूरत
नहीं है।
प्रत्येक
औषधि
स्वास्थ्य के
विरुद्ध है।
लेकिन तुम
बीमार हो, इसलिए
औषधि जरूरी है।
यह औषधि
तुम्हारी
बीमारी को
मिटाएगी। यह
तुम्हें
स्वास्थ्य
नहीं दे सकती,
लेकिन अगर
बीमारी हट गई
तो तुम्हें
स्वास्थ्य
घटित होगा।
कोई औषधि
तुम्हें
स्वास्थ्य
नहीं दे सकती
है; बुनियादी
तौर से
प्रत्येक
औषधि विष है, जहर है।
लेकिन तुमने
अपने शरीर में
बहुत कुछ विष
इकट्ठा कर
लिया है, तुम्हें
उसका एंटीडोट
चाहिए। औषधि
संतुलन पैदा
करेगी और
स्वास्थ्य
संभव हो पाएगा।
कोई
विधि तुम्हें
तुम्हारी
भगवत्ता नहीं
दे सकती, उससे
तुम्हें
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
उपलब्ध होगा।
तुमने अपने
स्वभाव के
चारों ओर जो
बहुत कुछ इकट्ठा
कर लिया है, विधि केवल
उसे मिटा देगी।
वह सिर्फ तुम्हें
संस्कार—शून्य
करेगी। तुम
संस्कारों
में दबे हो और
अभी तुम
समर्पण में छलांग
नहीं लगा सकते।
अगर तुम छलांग
लगा सको तो
अच्छा है, लेकिन
तुम यह नहीं
कर सकते।
तुम्हारे
संस्कार
पूछेंगे कि
कैसे, तब
विधि सहयोगी
होगी।
अगर
तुम ताओ में
जीते हो तो
किसी योग की, तंत्र
की, धर्म
की जरूरत नहीं
है। जब कोई
बिलकुल
स्वस्थ है तो
किसी औषधि की
क्या जरूरत है?
प्रत्येक
धर्म औषधि है।
जब संसार पूरी
तरह ताओ में
जीएगा तो धर्म
विदा हो जाएगा।
तब किसी गुरु
की, किसी
बुद्ध की, किसी
जीसस की जरूरत
नहीं होगी।
क्योंकि तब
प्रत्येक
व्यक्ति बुद्ध
होगा या जीसस
होगा। लेकिन
अभी जैसे तुम
हो, तुम्हें
विधियों की
जरूरत है।
विधियां
एंटीडोट हैं।
तुमने
अपने चारों ओर
एक ऐसा जटिल
मन निर्मित कर
लिया है कि
तुम्हें जो भी
कहा जाए, जो भी
दिया जाए, तुम
उसे जटिल बना
लोगे। तुम उसे
और ज्यादा
जटिल बना लोगे,
और ज्यादा
कठिन बना लोगे।
अगर
मैं तुमसे
कहूं कि
समर्पण करो तो
तुम तुरंत
पूछोगे कि
कैसे करूं।
अगर मैं तुमसे
कहूं कि
विधियों का
उपयोग करो तो
तुम पूछोगे कि
क्या विधियां
ताओ के विपरीत
नहीं हैं। अगर
मैं कहूं कि
किसी विधि की
जरूरत नहीं है, सिर्फ
समर्पण करो और
परमात्मा तुम्हें
उपलब्ध हो
जाएगा तो तुम
तुरंत पूछोगे
कि समर्पण
कैसे करूं।
तुम्हारा
मन ही ऐसा है।
अगर मैं कहूं
कि ताओ यहीं
और अभी है, तुम्हें
कुछ साधना
नहीं है, तुम
सिर्फ छलांग
लो और समर्पण
कर दो, तो
तुम कहोगे कि
मैं समर्पण
कैसे करूं? और अगर मैं
तुम्हारे
कैसे के उत्तर
में तुम्हें
कोई विधि दूं, तो
तुम्हारा मन
कहेगा कि क्या
विधि या उपाय
स्वभाव के, ताओ के
प्रतिकूल
नहीं है? अगर
भगवत्ता मेरा
स्वभाव है तो
वह विधि से
कैसे उपलब्ध
हो सकती है? अगर वह है ही
तो विधि
व्यर्थ है, निरर्थक है।
फिर विधियों
में समय क्यों
गंवाया जाए? अपने इस मन
को देखो।
मुझे
याद आता है, एक
बार ऐसा हुआ
कि एक आदमी ने,
एक लड़की के
पिता ने
संगीतकार
ल्योपोल्ड
गोडोवस्की से
कहा कि आप
मेरे घर आकर
मेरी बेटी को
सुनें। उसकी
बेटी पियानो
बजाना सीख रही
थी। तो
गोडोवस्की
उनके घर आया
और उसने बड़े
धैर्य से लड़की
को पियानो
बजाते सुना।
जब लड़की ने
पियानो बजाना
बंद किया तो
पिता खुशी से चिल्ला
उठा और उसने
गोडोवस्की से
कहा : 'कितनी
अदभुत है!'
कहते
है कि गोडोवस्की
ने कहा: 'बहुत अदभुत।
उसकी तरकीब
गजब की है।
मैंने कभी
किसी को ऐसा
आसान संगीत
इतनी कठिनाई
से बजाते हुए
नहीं सुना। उसकी
विधि
आश्चर्यजनक
है। ऐसी सरल
चीज को इतनी
कठिनता से
बजाते हुए मैंने
पहले कभी किसी
को नहीं देखा।’
यही
तुम्हारे मन
में होता रहता
है। सरल चीज
को भी तुम
जटिल बना लोगे, अपने लिए
कठिन बना लोगे।
और यह सुरक्षा
का उपाय है, सुरक्षा की
व्यवस्था है।
क्योंकि जब
तुम किसी चीज
को कठिन बना
लेते हो तो
तुम्हें फिर
उसे करने की
जरूरत नहीं
रहती। पहले
समस्या तो हल
हो और तब तुम
उसे कर सकते
हो।
अगर
मैं समर्पण
करने को कहता
हूं तो तुम
पूछते हो कि
कैसे? अब
जब तक मैं
तुम्हारे
कैसे का जवाब
न दूर तुम समर्पण
कैसे कर सकते
हो? और अगर
मैं तुम्हें
कोई विधि देता
हूं तो
तुम्हारा मन
तुरंत एक नई
समस्या
निर्मित कर
लेता है कि
विधि क्यों? स्वभाव है, ताओ है, परमात्मा
हमारे भीतर है,
फिर यह
प्रयत्न
क्यों, चेष्टा
क्यों? और
जब तक इसका
समाधान नहीं
होता, कुछ
करने की जरूरत
नहीं है।
स्मरण
रहे, तुम
इस दुष्चक्र
में सतत और
सदा के लिए
घूमते रह सकते
हो। तुम्हें
कहीं न कहीं
इसे तोड़ना है
और इसके बाहर
आ जाना है। तो
निर्णायक बनो,
निर्णय करो।
क्योंकि
निर्णय से ही
तुम्हारी
मनुष्यता का जन्म
होगा, निर्णय
से ही तुम
मनुष्य बनते
हो। निर्णायक
बनो। अगर तुम
समर्पण कर
सकते हो तो
समर्पण करो।
और अगर समर्पण
नहीं कर सकते
तो बौद्धिक
समस्या मत
पैदा करो, तब
किसी विधि का
प्रयोग करो।
दोनों
रास्तों से
समर्पण ही
घटित होगा।
अगर तुम ठीक
इसी क्षण
समर्पण कर सको
तो बहुत अच्छा।
लेकिन अगर अभी
समर्पण करना
संभव न हो तो
विधियों के
प्रयोग से
गुजरो। यह
गुजरना
आवश्यक है।
यह
तुम्हारे
कारण आवश्यक
है, यह
स्वभाव या ताओ
के कारण
आवश्यक नहीं
है। ताओ के
लिए किसी
अभ्यास की
जरूरत नहीं है।
अभ्यास
तुम्हारे
कारण जरूरी है।
ये विधियां
तुम्हें मिटा
डालेंगी, इन
विधियों के
द्वारा तुम
मिट जाओगे और
तुम्हारी
अंतरस्थ
आत्मा उदघटित
होगी।
तुम्हें अपने
को पूर्णत:
मिटा डालना है।
अगर तुम एक
छलांग में
अपने को मिटा
सको तो समर्पण
करो। यदि नहीं
तो विधियों के
द्वारा थोड़ा—
थोड़ा करके
मिटाओ।
लेकिन
एक बात स्मरण
रहे तुम्हारा
मन समस्याएं
पैदा कर सकता
है, जो
कि उसकी तरकीब
है। वह निर्णय
को स्थगित
करने की तरकीब
है। अगर मन
सुनिश्चित
नहीं है तो
तुम्हें
अपराध— भाव
नहीं होता है।
तुम सोचते हो
कि मैं क्या
कर सकता हूं? जब तक कोई
चीज सुस्पष्ट
नहीं है, साफ—सुथरी
नहीं है, ठीक—ठीक
पता नहीं है, तब तक मैं
क्या कर सकता
हूं? तुम्हारा
मन तुम्हारे
चारों ओर धुंध
निर्मित कर
देगा। और जब
तक तुम निर्णय
नहीं लेते, तुम्हारा मन
तुम्हें कभी
स्पष्ट नहीं
होने देगा।
निर्णय के साथ
ही बादल विलीन
हो जाएंगे।।
मन
बहुत
कूटनीतिक है, मन बहुत
राजनीतिक है,
वह
तुम्हारे साथ
राजनीतिक खेल खेलता
रहता है। वह
बहुत चालाक है,
चालबाज है।
मैंने
सुना है, एक बार
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे और
बहू से मिलने
आया। वह तीन
दिन
के लिए आया था, लेकिन
एक सप्ताह टिक
गया। फिर एक
सप्ताह भी
गुजर गया और वह
महीना भर रह
गया। तब पति—पत्नी
चिंता में पड़े
कि इस के से
कैसे छुटकारा
पाया जाए! उन्होंने
इस प्रश्न पर
विचार—विमर्श किया
और फिर एक तरकीब
निकाली।
पति
ने पत्नी से
कहा कि आज रात
तुम शोरबा
बनाना और मैं
कहूंगा कि
इसमें नमक
बहुत है, इसे
पीया नहीं जा
सकता, इसे
पीना असंभव है।
और तुमको कहना
है कि इसमें
ज्यादा नमक
नहीं है। हम
लोग विवाद
करेंगे और
झगड़ना शुरू कर
देंगे। तब मैं
अपने पिता से
पूछूंगा कि
आपकी क्या राय
है, आप
क्या कहते हैं?
अगर वे मेरे
साथ राजी
होंगे तो तुम
गुस्से से पागल
हो जाना और
उन्हें घर से
निकल जाने को
कहना। और अगर
वे तुमसे राजी
हुए तो मैं
आपे से बाहर हो
जाऊंगा और
उन्हें
कहूंगा कि घर
से तुरंत निकल
जाइए।
तो
शोरबा बना और
जैसी कि योजना
थी,
वे आपस में
विवाद करने
लगे और झगड़ने
लगे। और फिर
बात हद्द पर
पहुंच गई; वे
एक—दूसरे को
मारने—पीटने
पर उतारू हो
गए।
नसरुद्दीन यह
सब चुपचाप
बैठा देख रहा
था। तभी बेटा
उसकी तरफ मुडा
और उसने पूछा. 'अब्बा—जान, आप क्या
कहते हैं? इसमें
नमक बहुत
ज्यादा है या
नहीं?' नसरुद्दीन
ने शोरबे में
अपना चम्मच
डुबोया, उसे
चखा, क्षण
भर के लिए
स्वाद पर
ध्यान किया और
फिर बोला 'यह
मेरे बिलकुल
अनुकूल है।’
नसरुद्दीन
ने किसी का
पक्ष नहीं
लिया। सारा
आयोजन व्यर्थ
चला गया।
तुम्हारा
मन इसी ढंग से
काम करता है, वह
कभी कोई पक्ष
नहीं लेगा। क्योंकि
जैसे ही तुम
कोई पक्ष लेते
हो, तुम्हें
कृत्य में
उतरना होगा।
मन कोई पक्ष
नहीं लेगा और
तर्क करता
रहेगा। वह कभी
कोई निर्णय
नहीं लेगा, वह सदा
अनिर्णय में
रहेगा। जो भी
कहा जाएगा उस
पर विवाद तो
होगा, लेकिन
वह कभी निर्णय
नहीं बनेगा।
और तुम अनंत
काल तक विवाद
कर सकते हो।
उसका कहीं कोई
अंत नहीं है।
केवल निर्णय
तुम्हें
कृत्य में
उतारेगा और कृत्य
ही रूपांतरण
बनेगा।
तो
अगर तुम
वस्तुत: अपने
भीतर गहन क्रांति
चाहते हो तो
निर्णय लो, स्थगित
मत करते रहो।
बहुत
दार्शनिक मत
होओ, वह
खतरनाक है।
साधक के लिए
दार्शनिक
होना खतरनाक
है। जो दरअसल
कोई साधना
नहीं कर रहा
है, केवल
समय काट रहा
है, दार्शनिक
होना उसके लिए
ठीक है। उसके
लिए यह एक
अच्छा खेल है।
अगर तुम कीमत
चुकाने के लिए
राजी हो तो
दर्शन—शास्त्र
अच्छा खेल है।
लेकिन मुझे
नहीं लगता कि
कोई इतनी कीमत
चुका सकता है;
क्योंकि यह
समय का अपव्यय
है।
तो
कोई भी निर्णय
लो। अगर
समर्पण कर
सकते हो तो
समर्पण करो।
तब उसमें कैसे
का सवाल नहीं
है। और यदि
समर्पण नहीं
कर सकते तो
किसी विधि का
अभ्यास करो।
क्योंकि तब
तुम विधि के
जरिए ही उस
जगह पहुंच सकते
हो जहां
समर्पण घटित
होगा।
दूसरा
प्रश्न :
स्वाभाविक
गीत से कोई
व्यक्ति करोड़ों
वर्षों और जन्मों
के बाद बुद्धत्व
को उपलब्ध होगा।
लेकिन संभव है
कि हम सब अब तक
करोड़ों
वर्षों और
जन्मों से
गुजर चुके हों? फिर
भी बुद्धत्व
को नहीं उपलब्ध
हुए। ऐसा
क्यों?
तुम 'क्यों'
नहीं पूछ
सकते। तुम 'क्यों' तभी
पूछ सकते हो
यदि तुम कुछ
कर रहे हो। अगर
प्रकृति कर रहीं
है तो तुम क्यों
का प्रश्न
नहीं उठा सकते;
यह प्रकृति
की बात। और प्रकृति
उत्तरदायी
नहीं है; वह
तुम्हें कोई
उत्तर नहीं
देगी। वह
बिलकुल चुप है।
और प्रकृति के
लिए करोड़ों
जन्म भी कुछ
नहीं हैं, शायद
उसके लिए कुछ
सेकेंड ही हुए
हों।
तुम्हारे लिए
करोड़ों वर्ष
और जन्म एक
लंबा इतिहास
हो सकते हैं; प्रकृति के
लिए वह कुछ भी
नहीं है।
प्रकृति को
कोई जल्दबाजी
नहीं है और
प्रकृति तुममें
विशेष रूप से
उत्सुक नहीं
है। वह अपना
काम किए जाती
है; किसी
दिन घटना
घटेगी। लेकिन
तुम उससे 'क्यों'
नहीं पूछ
सकते, क्योंकि
प्रकृति मौन
है।
अगर
तुम चिंतित हो
कि क्यों अब
तक घटना नहीं
घटी तो
तुम्हें कुछ
करना होगा।
अगर चिंता ने
तुम्हें घेरा
है तो तुम कुछ
करो।
तुम्हारा
अपना कृत्य ही
तुम्हें उस
जगह पहुंचाएगा
जहां
बुद्धत्व घट
सकता है।
प्रकृति
के तौर—तरीके
धीमे और शांत
हैं। वहां
जल्दी नहीं है, क्योंकि
प्रकृति के
लिए समय की
कमी नहीं है।
अनंत समय है, उसका न आदि
है न अंत।
लेकिन मनुष्य
उस जगह आ गया
है जहं। वह
सचेतन हो गया
है, जहां
वह प्रश्न
पूछने लगा है।
कोई वृक्ष कभी
नहीं पूछता; वह
बोधिवृक्ष भी
नहीं पूछता
जिसके नीचे
बुद्ध बुद्ध
हुए थे। वृक्ष
कभी नहीं
पूछेगा. 'गौतम,
मैं क्यों
बुद्ध नहीं
हुआ? मैं
भी तो उतने ही करोड़
वर्षों से हूं
जितने करोड़ वर्षों
से आप हैं।
क्यों?' वृक्ष
कभी नहीं
पूछेगा।
वृक्ष बिलकुल
प्राकृतिक है।
प्रश्न उठाने
से आदमी
अप्राकृतिक
हो गया है।
अप्राकृतिक
तुममें प्रविष्ट
हो गया है; तुम
पूछने लगे हो—तुम
पूछने लगे हो
कि क्यों अब
तक नहीं घटित
हुआ।
यह
पूछना शुभ है, क्योंकि
यह तुम्हें उस
निर्णायक
बिंदु पर पहुंचा
देगा जहां तुम
अपने ऊपर श्रम
करने लग सकते
हो। और मनुष्य
इसे प्रकृति
पर नहीं छोड़
सकता, मनुष्य
सचेतन हो गया
है। तुम अब
इसे प्रकृति
के ऊपर नहीं
छोड़ सकते हो।
यही कारण है
कि मनुष्य ने
धर्मों का
निर्माण किया।
किसी पशु का
कोई धर्म नहीं
है। उसकी
जरूरत नहीं है।
पशु प्रश्न
नहीं उठाते
हैं; वे
जल्दी में
नहीं हैं।
निसर्ग में सब
कुछ मंद गति
से हो रहा है—इतनी
मंद गति कि
गति जैसी नहीं
लगती।
प्रकृति एक ही
पैटर्न को
निरंतर
दोहराती रहती
है, वह एक
ही वर्तुल में
अनंत काल तक
घूमती रहती है।
मनुष्य
सचेतन हो गया
है। मनुष्य
समय के प्रति
बोधपूर्ण हो
गया है। और
जैसे ही
तुम्हें समय
का बोध होता
है,
तुम शाश्वत
के बाहर फेंक
दिए जाते हो।
तुम तब जल्दी
में होते हो।
और मनुष्य की
चेतना जैसे—जैसे
विकसित होती
है, वह और
ज्यादा जल्दी
में होता है, वह और
ज्यादा समय के
प्रति
बोधपूर्ण
होता है।
किसी
आदिम समाज में
जाकर देखो, उन्हें
समय का बोध
नहीं है। जो
समाज जितना
सभ्य होता है
वह उतना ही
समय के प्रति
बोधपूर्ण होता
है। आदिम समाज
प्रकृति के
ज्यादा निकट
होता है, वह
जल्दी में
नहीं होता है,
मंद गति है।
जैसे प्रकृति
चलती है वह भी
वैसे ही चलता
है। तुम जितने
ज्यादा सभ्य
होते हो, उतना
ही तुम्हें
समय का बोध
होता है। सच
तो यह है कि
समय का बोध
कसौटी है; कोई
समाज कितना
सभ्य है यह
इससे जाना जा
सकता है कि उसे
समय का बोध
कितना है। तब
तुम जल्दी में
होते हो; तब
तुम
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते
हो। तब तुम
इसे प्रकृति
पर नहीं छोड़
सकते हो। इसे
तुम्हें अपने
हाथ में लेना
है।
और
मनुष्य इसे
अपने हाथ में
ले सकता है।
वह कुछ कर
सकता है और
प्रक्रिया शीध्र
पूरी की जा सकती
है। वह एक क्षण
में भी पूरी हो
सकती है। जो काम
करोड़ों वर्षों
ने नहीं किया, करने
में असमर्थ
रहे, उसे
तुम एक क्षण
में कर सकते
हो। एक क्षण
में तुम इतनी
त्वरा से भर
सकते हो कि करोड़ों
वर्षों और
जन्मों की
यात्रा तत्क्षण
हो सकती है।
यह
संभव है। और
क्योंकि यह
संभव है, इसीलिए
तुम चिंता में
हो। तुम्हारी
चिंता इस बात
का लक्षण है
कि जो संभव है
उसे तुम
वास्तविक
नहीं बना रहे
हो। यही चिंता
है और यही
मनुष्य की
दुविधा है।
तुम यह कर
सकते हो; और
तुम नहीं कर
रहे हो। उससे
एक आंतरिक
चिंता पैदा
होती है, संताप
पैदा होता है।
अगर वह तुमसे
नहीं हो सकता
तो प्रश्न ही
नहीं उठता, फिर चिंता
की कोई बात न
रही। चिंता
बताती है कि
अब यह संभव है
कि तुम छलांग लगा
सकते हो और
अनेक
अनावश्यक
जन्मों का
अतिक्रमण कर
सकते हो, लेकिन
तुम यह नहीं
कर रहे हो।
तुम
सचेतन हो गए
हो। तुम
प्रकृति से
ऊपर उठ गए हो।
चैतन्य एक नई
घटना है। तुम
प्रकृति से
ऊपर उठ गए हो
और अब तुम
सचेतन रूप से
विकास कर सकते
हो। सचेतन
विकास क्रांति
है। तुम इसके
लिए कुछ कर
सकते हो। अब
तुम गुलाम
नहीं हो, तुम
किसी के हाथ
की कठपुतली
नहीं हो। तुम
अपनी नियति
अपने हाथ में
ले सकते हो।
वह संभव है।
और क्योंकि वह
संभव है और
तुम उसके लिए
कुछ नहीं कर
रहे हो, इसीलिए
एक आंतरिक
चिंता पैदा
होती है। और
तुम इस
संभावना के
प्रति जितने
बोध से भरोगे
उतनी ही अधिक
चिंता महसूस
होगी।
बुद्ध
बहुत चिंतित
थे,
तुम उतने
चिंतित नहीं
हो। बुद्ध
बहुत चिंता—ग्रस्त
थे, सघन
संताप में थे,
बहुत पीड़ित
थे। जब तक वे
उपलब्ध नहीं
हो गए, वे
भयंकर विषाद
में थे।
क्योंकि
उन्हें पूरा
बोध था कि कुछ
है जो बिलकुल
संभव है, बिलकुल
हाथ के पास है।
और उन्हें यह
भी लगता था कि
मैं अभी भी
चूक रहा हूं; मैं हाथ
बढाऊं और पा
लूंगा—लेकिन
मेरे हाथों को
लकवा लग गया
है। उन्हें
लगता था कि एक
ही कदम की बात
है और मैं
बाहर हो जाऊंगा—और
मैं वह कदम
नहीं उठा रहा
हूं; मैं
छलांग लगाने
से डर रहा हूं।
जब
तुम मंजिल के
निकट होते हो—और
तुम उसे महसूस
कर सकते हो, तुम
उसे देख सकते
हो—और फिर भी
चूकते जाते हो,
तब तुम्हें
संताप होता है।
जब तुम मंजिल
से बहुत दूर
हो, जब तुम
उसे महसूस
नहीं कर सकते,
देख नहीं
सकते, जब
तुम्हें यह भी
पक्का नहीं है
कि कोई मंजिल है,
जब तुम
नियति के
संबंध में
बिलकुल अनजान
हो, तब कोई
चिंता नहीं
होती है।
पशु
संताप में
नहीं हैं। वे
सुखी मालूम
पड़ते हैं—मनुष्य
से ज्यादा
सुखी मालूम
पड़ते हैं।
कारण क्या है? वृक्ष
पशु से भी
ज्यादा सुखी
हैं। वे इससे
बिलकुल अनजान
हैं कि क्या
हो सकता है, क्या संभव
है, क्या
बिलकुल निकट
है। वे इतने
अज्ञान में
हैं कि उन्हें
अपने अज्ञान
का बोध भी
नहीं है; वे
अपने अज्ञान
में आनंदित
हैं। उन्हें
कोई चिंता
नहीं है। वे
प्रकृति के
साथ बहते रहते
हैं।
मनुष्य
चिंता—ग्रस्त
होता है। और
कोई मनुष्य
जितना ही
ज्यादा
मनुष्य होगा उतनी
ही बड़ी उसकी
चिंता होगी।
अगर तुम बस जी
रहे हो तो तुम
पशु का जीवन
जी रहे हो।
धार्मिक
संताप तब पैदा
होता है जब
तुम्हें बोध
होता कि अब कुछ
हो सकता है, कि
बीज मौजूद है
और मुझे कुछ
करना है कि वह
अंकुरित हो, कि फूल दूर
नहीं हैं और
मैं यह फसल
काट सकता हूं—लेकिन
फिर भी कुछ
नहीं हो रहा
है। तब एक
बहुत नपुंसक
स्थिति अनुभव
होती है।
बुद्ध
होने के ठीक
पहले बुद्ध की
यही दशा थी।
वे आत्मघात के
कगार पर खड़े
थे। तुम्हें
उस अवस्था से
गुजरना होगा।
और तुम उसे
प्रकृति पर
नहीं छोड़ सकते; तुम्हें
उसके लिए कुछ
करना होगा—और
तुम कर सकते
हो। और मंजिल
दूर नहीं है।
अगर
तुम्हें
चिंता होती है
तो
हतोत्साहित
मत होओ। अगर
तुम्हें अपने
भीतर तीव्र
दुख का, पीड़ा
का, संताप
का अनुभव होता
है तो उससे
निराश मत होओ।
वह शुभ लक्षण
है। वह बताता
है कि तुम्हें
उसका और— और
बोध हो रहा है
जो संभव है, और अब
तुम्हें तब तक
चैन नहीं होगा
जब तक वह वास्तविक
न हो जाए।
मनुष्य
इसे प्रकृति
पर नहीं छोड़
सकता, क्योंकि
मनुष्य सचेतन
हो' गया है।
उसका एक बहुत
छोटा अंश ही
सचेतन हुआ है,
लेकिन उससे
ही सब कुछ बदल
जाता है। और
जब तक
तुम्हारा
समग्र
अस्तित्व
सचेतन नहीं
होता, तुम
फिर से पशु या
वृक्ष के सहज
सुख को नहीं
जान सकते। अब
उसे जानने का
एक ही उपाय है
कि तुम और— और
सजग हो जाओ, सचेतन हो
जाओ, बोधपूर्ण
हो जाओ। तुम
पीछे नहीं लौट
सकते, पीछे
लौटने का कोई
उपाय नहीं है।
कोई भी पीछे
नहीं लौट सकता
है। या तो तुम
वहीं रहो जहां
हो और दुख
भोगो, या
तुम्हें आगे
जाना होगा और
दुख के पार
जाना होगा।
तुम पीछे नहीं
जा सकते हो।
समग्र
मूर्च्छा आनंदपूर्ण
है,
समग्र
चैतन्य आनंदपूर्ण
है। और तुम
दोनों के बीच
में हो।
तुम्हारा एक
हिस्सा चेतन
हो गया है, लेकिन
तुम्हारा बड़ा
हिस्सा अभी भी
अचेतन है। तुम
विभाजित हो।
तुम बंट गए हो;
तुम अखंड
नहीं रहे।
अखंडता खो गई
है। पशु अखंड
है और फिर संत
अखंड हैं।
मनुष्य खंडित
है, उसका
एक हिस्सा पशु
ही बना हुआ है
और एक हिस्सा
संत हो गया है।
इसीलिए
संघर्ष है, द्वंद्व है,
तुम जो भी
करते हो वह
तुम कभी पूरे
हृदय से नहीं
कर पाते।
तो
दो रास्ते हैं।
एक तो यह है कि
तुम आत्म—वंचना
करो,
अपने को
धोखा दे लो—यानी
फिर से बिलकुल
अचेतन हो जाओ।
तुम नशे में
उतर सकते हो, तुम शराब पी
सकते हो, तुम
मादक
द्रव्यों का
प्रयोग कर
सकते हो। उनसे
तुम पशु—जगत
में फिर लौट
जाते हो। तुम
अपने उस
हिस्से को नशे
में डुबो देते
हो जो चेतन हो
गया है और फिर
पूरी तरह
अचेतन हो जाते
हो।
लेकिन
यह धोखा
क्षणिक है, तुम
फिर उठ खड़े
होगे। नशे का
असर खो जाएगा
और तुम्हारा अचेतन
फिर चेतन हो
जाएगा। जिस
हिस्से को
तुमने शराब से
या नशे से या
रासायनिक
द्रव्यों से
या किसी भी
चीज से
जबरदस्ती
सुला दिया है
वह फिर जाग
उठेगा, और
फिर तुम
ज्यादा दुख
में पडोगे, क्योंकि अब
तुम तुलना कर
सकते हो। अब
तुम पहले से ज्यादा
दुखी होगे।
तुम
अपने को नशे
में भुलाए रख
सकते हो। और
नशे के अनेक
उपाय हैं—सिर्फ
रासायनिक
उपाय ही नहीं
हैं,
धार्मिक
उपाय भी हैं।
तुम किसी
मंत्र का, किसी
जप का उपयोग कर
सकते हो, तुम
किसी मंत्र का
जप कर सकते हो
और उससे मादक
प्रभाव पैदा
कर सकते हो, नशे जैसा असर
पैदा कर सकते
हो। तुम अनेक चीजें
कर सकते हो, जो तुम्हें
फिर से बेहोश
बना सकती हैं।
लेकिन यह
बेहोशी थोड़े
समय के लिए
होगी; तुम्हें
उससे फिर बाहर
आना होगा। और
तुम पहले से
ज्यादा दुखी
बाहर आओगे, क्योंकि अब
तुम तुलना कर
सकते हो कि
अगर मूर्च्छा
में यह संभव
है तो समग्र
चैतन्य में
क्या नहीं संभव
होगा! तुम्हें
अब उसके लिए
ज्यादा प्यास होगी;
तुम ज्यादा
तड़पोगे।
एक
बात स्मरण रहे
समग्रता आनंद
है। अगर तुम
पूरी तरह
मूर्च्छित हो
तो वह भी आनंद है, लेकिन
तुम्हें उसका
बोध नहीं है।
पशु सुखी हैं,
लेकिन
उन्हें अपने
सुख का बोध
नहीं है।
इसलिए ऐसा सुख
व्यर्थ है। यह
ऐसा ही है कि
जब तुम सोए हो
तो सुखी हो और
जब तुम जागे
हो तो दुखी हो।
समग्रता आनंद
है।
तुम
चैतन्य में भी
समग्र हो सकते
हो। तब आनंद
भी होगा और
उसका तुम्हें
पूर्ण बोध भी
होगा। यह संभव
है साधना से, उपाय
से, विधियों
के प्रयोग से,
जो
तुम्हारी
चेतना को बढ़ाते
हैं। तुम संबुद्ध
नहीं हो, क्योंकि
तुमने उसके
लिए कुछ किया
नहीं है, लेकिन
तुम्हें बोध
हुआ है कि मैं संबुद्ध
नहीं हूं। यह
प्रकृति ने
किया है; करोड़ों
वर्षों में
प्रकृति ने
तुम्हें बोध दिया
है।
शायद
तुम्हें इस
तथ्य का पता न
हो कि जहां तक
शरीर का संबंध
है,
मनुष्य का
विकास ठहर गया
है। हमारे पास
ऐसे
अस्थिपंजर
हैं जो करोड़ों
वर्ष पुराने
हैं, लेकिन
उनमें कोई खास
फर्क नहीं है,
वे हमारे
अस्थिपंजर
जैसे ही हैं।
करोड़ों
वर्षों से
शरीर के तल पर
कोई विकास नहीं
हुआ है, वह
वही का वही
रहा है। यहां
तक कि
मस्तिष्क भी
वही का वही है,
उसमें भी
कोई खास विकास
नहीं हुआ है। जहां
तक शरीर का
संबंध है, प्रकृति
को जो करना था
वह कर चुकी।
किसी अर्थ में
मनुष्य अब
अपने विकास के
लिए स्वयं
जिम्मेवार है।
और यह विकास
शारीरिक नहीं
होगा, यह
विकास
आध्यात्मिक
होगा।
बुद्ध
के अस्थिपंजर
में कोई
बुनियादी
भिन्नता नहीं
है;
लेकिन तुम
और बुद्ध
पूर्णत: भिन्न
हो।
प्राकृतिक
विकास का क्रम
क्षैतिज है, सीधी रेखा
की तरह है; साधना,
विधि और
आध्यात्मिक
विकास का क्रम
ऊर्ध्वाधर है,
खड़ी रेखा की
तरह है।
तुम्हारा
शरीर ठहर गया
है, वह
अपने विकास के
चरम बिंदु पर
पहुंच चुका है।
अब आगे उसका
विकास नहीं है।
क्षैतिज
विकास ठहर गया
है, अब
ऊर्ध्वाधर
विकास शुरू
होता है। अब
तुम जहां हो
वहां से
ऊर्ध्व छलांग
लेनी होगी। यह
ऊर्ध्वाधर
विकास चेतना
का होगा—शरीर
का नहीं। और
उसके लिए तुम
खुद
उत्तरदायी हो।
तुम
प्रकृति से
नहीं पूछ सकते
कि क्यों मैं संबुद्ध
नहीं हूं; लेकिन
प्रकृति
तुमसे पूछ
सकती है कि
क्यों तुम अब
तक संबुद्ध
नहीं हुए, क्योंकि
अब तुम्हें सब
कुछ उपलब्ध है।
तुम्हारे
शरीर को वह सब
मिला हुआ है
जो जरूरी है।
तुम्हें
बुद्ध का शरीर
प्राप्त है।
तुम्हें
बुद्ध होने के
लिए जो भी
जरूरी है वह सब
प्राप्त है।
सिर्फ थोड़ी
व्यवस्था
बिठानी है, थोडा संयोजन
बिठाना है—और
तुम बुद्ध हो
जाओगे।
तो
प्रकृति
तुमसे पूछ
सकती है कि
तुम अब तक संबुद्ध
क्यों नहीं
हुए। प्रकृति
ने तुम्हें उसके
लिए सब कुछ
दिया है। और
प्रकृति का यह
पूछना असंगत
नहीं होगा।
लेकिन प्रकृति
से तुम्हारा
पूछना असंगत
है। तुम्हें
पूछने का कोई
अधिकार नहीं
है। अब
तुम्हें बोध
है और तुम कुछ कर
सकते हो। तुम्हें
सभी तत्व उपलब्ध
है; हाइड्रोजन है, आक्सीजन है, विद्युत भी है।
सिर्फ
तुम्हें कुछ
प्रयत्न करना
है, कुछ
प्रयोग करने,
हैं, और
पानी निर्मित
हो जाएगा।
संबुद्ध
होने के लिए, बुद्धत्व
घटने के लिए
जो भी जरूरी
है, वह
तुम्हारे पास
है, लेकिन
वह बिखरा हुआ
है। तुम्हें
उसे संयुक्त
करना है, थोड़ी
व्यवस्था
लानी है, थोड़ी
लयबद्धता
लानी है—और
अचानक वह
ज्योति प्रकट
होगी जो
बुद्धत्व बन
जाती है। ये
सब विधियां
उसी के लिए
हैं।
तुम्हारे पास सब
है; सिर्फ
थोड़ी युक्ति
की जरूरत है, यह जानने की
जरूरत है कि
क्या करें
ताकि तुम्हें
बुद्धत्व
घटित हो जाए।
तीसरा
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
समय बोध और
समग्र
स्वतंत्रता
को उपलब्ध होकर
प्राकृतिक विकास
के करोड़ों
वर्षो और
करोड़ों
जन्मों को
टाला जा सकता
है। तो क्या इसके
विपरीत यह
तर्क नहीं
दिया जा सकता
की कर्म के
साथ, उसकी
कार्य— कारण
की प्राकृतिक शक्तियों
के साथ हस्तेक्षप
नहीं करना
चाहिए? या कि
यह भी परम
नियम के
अंतर्गत ही है
कि वह विकासमान
जगत की, विकासमान
आत्मा की पहुंच
के भीतर ऐसी
संभावना भी दे?
सब
कुछ के विपरीत
तर्क दिया जा
सकता है, लेकिन
तर्क कहीं
पहुंचाता
नहीं है। तुम
तर्क दे सकते
हो, लेकिन
वह तर्क
तुम्हारी मदद
कैसे करेगा? तुम तर्क दे
सकते हो कि
कर्म की
स्वाभाविक
प्रक्रिया के
साथ
हस्तक्षेप
नहीं करना
चाहिए। तो
हस्तक्षेप मत
करो। लेकिन तब
अपने दुख में
सुखी रहो। मगर
तुम उसमें
सुखी नहीं हो,
तुम
हस्तक्षेप
करना चाहते हो।
अगर तुम
नैसर्गिक
प्रक्रिया पर
भरोसा कर सकी तब
तो बहुत अदभुत
है। लेकिन फिर
कोई शिकायत मत
करो, फिर
तब मत पूछो कि
ऐसा क्यों है।
कर्म की
नैसर्गिक
प्रक्रिया के
कारण ऐसा है।
तुम दुख में हो
तो कर्म की
नैसर्गिक
प्रक्रिया के
कारण दुख में
हो। इससे
अन्यथा संभव
नहीं है। तो
कोई
हस्तक्षेप मत
करो।
भाग्य
का सिद्धात
यही है। तब
तुम्हें कुछ
नहीं करना है, जो
हो रहा है, वह
हो रहा है और
उसे तुम्हें
स्वीकार करना
है। तब वह भी
समर्पण हो
जाता है, तुम्हें
कुछ करने की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन समग्र
स्वीकार
जरूरी है।
वस्तुत:
हस्तक्षेप
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन क्या
तुम उस अवस्था
में हो सकते
हो कि तुम कोई
हस्तक्षेप न
करो? तुम
तो निरंतर
प्रत्येक चीज
के साथ
हस्तक्षेप कर
रहे हो। तुम
इसे प्रकृति
पर नहीं छोड़
सकते हो। अगर
तुम प्रकृति
पर छोड़ सको तो
कुछ भी जरूरी
नहीं है और
तुम्हें सब
कुछ घटित होगा।
लेकिन अगर तुम
न छोड़ सको तो
फिर
हस्तक्षेप करो।
और तुम
हस्तक्षेप कर
सकते हो, लेकिन
उसकी
प्रक्रिया को
समझना होगा।
सच
तो यह है कि
ध्यान कर्म की
प्रक्रिया
में हस्तक्षेप
करना नहीं है, ध्यान
कर्म की
प्रक्रिया के
बाहर छलांग
लगाना है।
वस्तुत: यह
हस्तक्षेप
नहीं है, यह
दुष्चक्र से
छलांग लगाकर
बाहर निकल
जाना। चक्र
चलता रहेगा और
प्रक्रिया
अपने आप ही
समाप्त हो जाएगी।
तुम उसे
समाप्त नहीं
कर सकते, लेकिन
तुम उसके बाहर
हो सकते हो।
और जब तुम उसके
बाहर हो जाते
हो तो वह
तुम्हारे लिए
माया हो जाती
है।
उदाहरण
के लिए, रमण
कैंसर से मरे।
उनके शिष्यों
ने उन्हें इस
बात के लिए
राजी करने की कोशिश
की कि वे इलाज कराएं।
रमण ने कहां: ‘ठीक है, अगर
तुम यह चाहते हो
और तुम्हें
इससे सुख होगा
तो मेरा इलाज
करो। लेकिन
जहां तक मेरी
बात है, मैं
बिलकुल ठीक
हूं।’ और
डाक्टर चकित
हुए यह देखकर
कि उनका शरीर
पीड़ित था, गहन
पीड़ा में था, लेकिन उनकी आंखों
में पीड़ा की
कोई झलक नहीं
थी। उनका शरीर
तो गहन कष्ट
में था, लेकिन
वे कष्ट में
नहीं थे।
शरीर
कर्म जगत का
हिस्सा है; वह
कार्य—कारण के
यांत्रिक
वर्तुल का
हिस्सा है। लेकिन
चेतना उसके
पार हो सकती
है, उसका
अतिक्रमण कर
सकती है। रमण
साक्षी मात्र
थे। वे देख
रहे थे कि
शरीर पीड़ा में
है, कि
शरीर मरने जा
रहा है, लेकिन
मैं साक्षी
हूं। वे उसके
साथ
हस्तक्षेप
नहीं कर रहे
थे—बिलकुल भी
नहीं। जो कुछ
हो रहा था वे
उसका
निरीक्षण कर
रहे थे; लेकिन
वे खुद उस दुष्चक्र
में नहीं थे, उनका उससे
तादात्म्य
नहीं था, वे
उसके हिस्से
नहीं थे।
ध्यान
हस्तक्षेप
नहीं है। सच
तो यह है कि
ध्यान के बिना
तुम प्रतिपल
हस्तक्षेप कर
रहे हो। ध्यान
से तुम पार
चले जाते हो, तुम
शिखर पर खड़े
द्रष्टा हो
जाते हो। दूर,
नीचे घाटी
में चीजें
चलती रहती हैं,
लेकिन
तुम्हें उनसे
कुछ लेना—देना
नहीं है। तुम
केवल दर्शक हो।
मानो वे चीजें
किसी दूसरे
व्यक्ति को
घटित हो रही
हैं, किसी
स्वप्न में
घटित हो रही
हैं, किसी
फिल्म के परदे
पर घटित हो
रही हैं। तुम
कोई
हस्तक्षेप
नहीं कर रहे
हो। तुम नाटक
के हिस्से
नहीं हो; तुम
उसके बाहर आ
गए हो। अब तुम
अभिनेता नहीं
रहे, तुम
दर्शक हो गए
हो। इतनी ही
बदलाहट है।
और
जब तुम साक्षी
मात्र रह जाते
हो तो शरीर उस सबको
पूरा करेगा
जिसे पूरा
किया जाना है।
अगर तुम्हारे
दुख के बहुत
से कर्म बाकी
हैं और अब तुम
साक्षी हो गए
हो इसलिए
तुम्हारा फिर
जन्म होने
वाला नहीं है
तो शरीर को
इसी जन्म में
उन सारे दुखों
को भोगना
पड़ेगा
जिन्हें वह
वैसे अनेक
जन्मों में भोगता।
इसीलिए बहुत
बार ऐसा होता
है कि बुद्ध
पुरुष को
बहुतेरे
शारीरिक रोग
सताते हैं।
क्योंकि अब
भविष्य में
कोई जन्म नहीं
है,
भविष्य में
कोई जीवन नहीं
है, यह
उनका अंतिम
शरीर है, इसलिए
सभी कर्मों को
और सारी
प्रक्रिया को
पूरा करना है,
समाप्त
करना है।
तो
अगर हम जीसस
के जीवन को
पूरब की
दृष्टि से देखें
तो उनकी सूली
एक भिन्न घटना
हो जाती है।
पश्चिमी
चित्त जन्मों
की श्रृंखला
को,
पुनर्जन्म
के सिद्धात को
नहीं मानता है;
इसलिए उसके
पास सूली का
कोई गहन
विश्लेषण नहीं
है। उन्होंने
एक मिथक गढ़
लिया है कि
जीसस ने हमारे
लिए दुख सहा, वे हमारे
उद्धार के लिए
सूली पर चढ़े।
लेकिन यह बात
बेतुकी लगती
है; और यह
तथ्यपूर्ण भी
नहीं है।
अगर
जीसस
तुम्हारी
मुक्ति के लिए
मरे तो फिर
मनुष्यता अभी
भी दुख में क्यों
है?
और
मनुष्यता तो
अभी पहले से
भी ज्यादा दुख
में है। जीसस
की सूली के
बाद मनुष्य—जाति
प्रभु के
राज्य में
नहीं
प्रविष्ट हो
गई है। यदि
उन्होंने
हमारे लिए दुख
उठाया, यदि उनकी
सूली हमारे
अपराध और पाप
के लिए पश्चात्ताप
थी, तो
जीसस निष्फल
गए। क्योंकि
अपराध
जारी है, पाप
जारी है, दुख
बना हुआ है।
तब तो उनकी
यातना व्यर्थ
गई, तब तो उनकी
सूली निष्फल गई।
ईसाइयत
के पास केवल
एक मिथक है।
लेकिन मानव
जीवन के
पूर्वीय
विश्लेषण की
दृष्टि
बिलकुल भिन्न
है। जीसस की
सूली उनके
अपने ही
कर्मों की सघन
अभिव्यक्ति
थी। यह उनका
अंतिम जन्म था, वे
फिर शरीर में
प्रवेश करने
वाले नहीं थे।
इसलिए उनके
समस्त दुख एक
बिंदु पर
संचित और केंद्रित
हो गए, घनीभूत
हो गए। और वह
बिंदु उनकी
सूली बन गया।
जीसस
ने किसी दूसरे
के लिए दुख
नहीं सहा, कोई
किसी दूसरे के
लिए दुख नहीं
सह सकता।
उन्होंने
अपने लिए, अपने
अतीत के
कर्मों के लिए
दुख सहा। कोई
दूसरा
तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकता है, क्योंकि
तुम अपने
कर्मों के
कारण बंधन में
हो। तो जीसस
तुम्हें कैसे
मुक्त कर सकते
हैं? वे
अपने को गुलाम
बना सकते हैं;
वे अपने को
मुक्त कर सकते
हैं, वे
स्वयं मुक्त
व्यक्ति बन
सकते हैं।
सूली के
द्वारा उनके
अपने कर्मों
का हिसाब—किताब
बंद हो गया, पूरा हो गया,
उनकी
श्रृंखला
समाप्त हो गई।
कार्य —कारण
की श्रृंखला
का अंत आ गया।
उनका अब फिर
जन्म नहीं
होगा, वे
अब दूसरे गर्भ
में प्रवेश
नहीं करेंगे।
अगर वे बुद्ध
पुरुष नहीं
होते तो
उन्हें यह सारा
दुख अनेक
जन्मों में
झेलना पड़ता।
वही दुख एक
जन्म में, एक
बिंदु पर
घनीभूत हो गया।
तो
तुम
हस्तक्षेप
नहीं कर सकते, और
अगर तुम
हस्तक्षेप
करते हो तो
तुम अपने लिए
ज्यादा दुख
निर्मित कर
लोगे। कर्मों
में
हस्तक्षेप मत
करो; वरन
उनके पार जाओ,
उनके
साक्षी बनो।
उन्हें स्वप्नवत
समझो—यथार्थ
नहीं। उन्हें
केवल देखो और
उनके प्रति
तटस्थ रहो।
उनमें ग्रस्त
मत होओ।
तुम्हारा
शरीर पीड़ित है—उस
पीड़ा को देखो।
तुम्हारा
शरीर खुश है—उस
खुशी को देखो।
उसके साथ
तादात्म्य मत
करो। ध्यान का
इतना ही अर्थ
है।
और
तरकीबें मत
खोजो; बहाने
मत खोजो। यह
मत कहो कि
इसके लिए तर्क
दिया जा सकता
है। तुम किसी
भी चीज के लिए
तर्क खोज सकते
हो। तुम तर्क
करने के लिए
स्वतंत्र हो।
लेकिन स्मरण
रहे, तुम्हारा
तर्क
आत्मघाती हो
सकता हो। तुम
अपने विरोध
में ही तर्क
दे सकते हो। और
तुम ऐसे तर्क
खड़े कर सकते
हो, जिनसे
तुम्हारा कोई
भला नहीं
होनेवाला है,
जिनसे
तुम्हारा कोई
रूपांतरण
नहीं होनेवाला
है, बल्कि
वे बाधा बन
सकते हैं।
लेकिन हम
निरंतर तर्क
करते रहते हैं।
आज
ही एक लड़की
मुझे मिलने आई।
उसने मुझसे
पूछा 'बताइए
कि क्या ईश्वर
है?' वह विवाद
करने को तत्पर
थी कि ईश्वर
नहीं है।
मैंने उसकी
तरफ देखा।
मैंने उसकी आंखों
में झांका। वह
तनावग्रस्त
थी। वह तर्कों
से भरी थी। वह
इस मुद्दे पर
झगड़ना चाहती
थी। वह
वस्तुत: गहरे
में यह मानना
चाहती थी कि
ईश्वर नहीं है।
क्योंकि अगर
ईश्वर है तो
तुम कठिनाई
में पड़ोगे।
अगर ईश्वर है
तो तुम वही
नहीं रह सकते
जो हो। तब एक
चुनौती खड़ी हो
जाती है।
ईश्वर एक
चुनौती है।
उसका अर्थ है
कि तुम अपने
से संतुष्ट
नहीं रह सकते,
तुमसे कुछ
उच्चतर, कुछ
श्रेष्ठतर
संभव है। तब
चेतना की एक
ऊंची अवस्था,
परम अवस्था
संभव है।
ईश्वर का वही
अर्थ है। वह
लड़की तर्क
करने को तत्पर
थी। उसने कहा 'मैं नास्तिक
हूं और मैं
ईश्वर में
विश्वास नहीं
करती हूं।’
मैंने
उस लड़की से
कहा. 'यदि ईश्वर
नहीं है तो
तुम उसमें
अविश्वास कैसे
कर सकती
हो? और
ईश्वर से कोई
लेना—देना
नहीं है।
तुम्हारे
विश्वास, तुम्हारे
अविश्वास, उसके
पक्ष और
विपक्ष में
तुम्हारे
तर्क, सब
तुमसे
संबंधित हैं।
परमात्मा से
कोई लेना—देना
नहीं है। तुम क्यों
चिंतित हो?
अगर परमात्मा
नहीं है तो तुम
इतनी लंबी यात्रा
करके मेरे पास
क्यों आई हो? जो चीज नहीं
है, उसके
संबंध में
विवाद करने के
लिए तुम मेरे
पास क्यों आई
हो? उसे भूल
जाओ, उसे
क्षमा कर दो; और अपने घर
जाओ। अपना समय
मत गंवाओ। अगर
ईश्वर नहीं है
तो तुम्हें
चिंता क्यों
है? वह
नहीं है, यह
सिद्ध करने का
प्रयत्न
क्यों करती हो?
यह प्रयत्न
तुम्हारे
बाबत कुछ खबर
देता है, कि
तुम भयभीत हो।
अगर परमात्मा
है तो वह
चुनौती है।
अगर परमात्मा
नहीं है तो
तुम जो हो वही
बनी रह सकती हो,
तब जीवन में
कोई चुनौती
नहीं है।’
जो
आदमी
चुनौतियों से, खतरों
से, जोखिमों
से भयभीत है, जो अपने को
बदलने से, अपने
रूपांतरण से
डरता है, वह
सदा परमात्मा
को अस्वीकार
करेगा।
अस्वीकार
उसका ढंग बन
जाता है।
लेकिन यह अस्वीकार
उसके संबंध
में कुछ बताता
है—ईश्वर के
संबंध में
नहीं।
मैंने
उस लड़की को
कहा कि
परमात्मा कोई
ऐसी चीज नहीं
है जिसे सिद्ध
या असिद्ध
किया जा सके।
परमात्मा कोई
विषय नहीं है
जिसके पक्ष या
विपक्ष में हम
कोई मत बना
सकें।
परमात्मा
तुम्हारे
अंतस की
संभावना है।
वह कोई बाह्य
चीज नहीं है, वह
तुम्हारे
अंतस की
संभावना है।
अगर तुम उस
संभावना तक
पहुंच सके तो
वह सत्य हो
जाता है। और
अगर तुम उस
शिखर तक की
यात्रा न कर
सको तो वह असत्य
है। और अगर
तुम उसके
विरोध में
तर्क देते हो
तो यात्रा
करने की बात
ही न रही, तुम
वही के वही
बने रहते हो।
और यह एक दुष्चक्र
बन जाता है।
तुम
तर्क करते हो
कि ईश्वर नहीं
है,
और इसी कारण
तुम कभी उसकी
ओर कदम नहीं
उठाते, क्योंकि
यह एक आंतरिक
यात्रा है, एक आंतरिक
तीर्थयात्रा
है। तुम कभी
यात्रा नहीं
करते, क्योंकि
तुम उस बिंदु
की ओर कैसे
यात्रा कर सकते
हो जो है ही
नहीं? तो
तुम वही के
वही बने रहते
हो।
और
जब तुम वही के
वही बने रहते
हो तो
तुम्हारा परमात्मा
से कभी
साक्षात्कार
नहीं होता है।
कभी उसके किसी
अनुभव से, उसकी
किसी तरंग से
तुम्हारा
मिलन नहीं
होता है। और
तब तुम्हारे
लिए यह बात और
भी सिद्ध हो
जाती है कि वह
नहीं है। और
जितनी ही यह
बात सिद्ध
होती है, तुम
उससे उतनी ही
दूर होते जाते
हो, तुम
उतने ही नीचे
गिरते जाते हो,
अंतराल
उतना ही बड़ा
होता जाता है।
तो
मैंने उस लड़की
से कहा कि
प्रश्न यह
नहीं है कि
परमात्मा है
या नहीं, प्रश्न
यह है कि तुम
विकास करना
चाहती हो या
नहीं। अगर तुम
विकसित होती
हो तो
तुम्हारा परम
विकास ही उससे
मिलन बन जाएगा,
तुम्हारा
परम विकास ही
उसका
साक्षात्कार
बन जाएगा।
मैंने उससे एक
कहानी कही।
एक
सुबह जब तेज
हवा चल रही थी
और वसंत ऋतु
विदा हो रही
थी,
एक घोंघा
चेरी के वृक्ष
के ऊपर धीरे—धीरे
चढ़ने लगा। यह
देख कर पास के
बलूत के वृक्ष
पर बैठी चिड़िया
हंसने लगीं; क्योंकि
चेरी का मौसम
नहीं था, वृक्ष
पर एक भी चेरी
का फल नहीं था।
और यह गरीब
घोंघा ऊपर
चढ़ने के लिए
जी—तोड़
परिश्रम कर
रहा था।
चिड़ियां उसकी
बेकार की
मेहनत पर हंस
रही थीं।
फिर
एक चिड़िया उड़ी
और घोंघे के
पास जाकर
बोली. 'मित्र, कहां जा रहे
हो? पेड़
पर तो अभी एक भी
चेरी नहीं है।’
लेकिन
घोंघा जरा भी
नहीं रुका, उसने
अपनी ऊपर की
यात्रा जारी
रखी। और चलते—चलते
ही उसने कहा : 'लेकिन जब तक
मैं वहां
पहुंचूंगा, तब तक फल आ
जाएंगे। जब
मैं
पहुंचूंगा तो
फल वहां होंगे।
मुझे ऊपर तक
चढ़ने में बहुत
समय लगेगा और
तब तक फल आ
जाएंगे।’
परमात्मा
नहीं है; लेकिन
जिस क्षण तुम
पहुंचोगे, वह
वहां होगा।
परमात्मा कोई
ऐसी चीज नहीं
है जो पहले से
मौजूद हो, वह
ऐसा नहीं है।
परमात्मा
विकास है।
परमात्मा
तुम्हारा ही
विकास है। जब
तुम उस बिंदु पर
पहुंचते हो
जहां तुम पूरी
तरह सचेतन हो,
तब
परमात्मा है।
लेकिन विवाद
मत करो। विवाद
में अपनी
शक्ति गंवाने
के बजाय अपने
को रूपांतरित
करने में
शक्ति का
उपयोग करो।
और
शक्ति बहुत
नहीं है। अगर
तुम अपनी
शक्ति को
विवाद में
व्यय करोगे तो
तुम विवाद
करने में
निष्णात हो
जाओगे। लेकिन
यह अपव्यय है; यह
छोटी सी चीज
के लिए बहुत
बड़ी कीमत देने
जैसा है, क्योंकि
वही शक्ति
ध्यान बन सकती
है। तुम कुशल
तार्किक बन
सकते हो; तुम
बहुत
तर्कपूर्ण
विवाद कर सकते
हो; तुम
किसी चीज के
पक्ष या
विपक्ष में
बहुत तर्कसंगत
करने वाले
प्रमाण खोज ले
सकते हो, लेकिन
तुम वही के
वही रहोगे।
तुम्हारे
तर्क तुम्हें
रूपांतरित
करने वाले
नहीं हैं।
एक
बात स्मरण रहे
: जो भी
तुम्हें
रूपांतरित करे, वह
शुभ है। जिससे
भी तुम्हें
विकास और
विस्तार मिले,
जिससे
तुम्हारी
चेतना में
वृद्धि हो, वही शुभ है।
और जो भी
तुम्हें अटकाए
और तुम्हारी
यथास्थिति को
बनाए रखे, वह
अशुभ है, वह
घातक है, आत्मघातक
है।
अंतिम
प्रश्न:
मैं
कभी—कभी अपने
को अकर्म की
अवस्था में,
बहुत निष्क्रिय
अनुभव करता है
लेकिन तब मेरे
चारों ओर क्या
हो रहा है उसके
प्रति मेरा
बोध कम हो
जाता है।
दरअसल मैं अपने
चारों ओर की
चीजों से
विरक्त सा ही
जाता हूं। इससे
लगता है कि क
निष्क्रियता
झूठी है,
क्योंकि मेरी
समझ से निष्क्रियता
के साथ तो बोध
बढ़ना चाहिए। क्या
आप हस अवस्था
पर कुछ कहने
की कृपा
करेंगे?
सामान्यत:
हम
ज्वरग्रस्त
अवस्था में
होते हैं—सक्रिय, लेकिन
ज्वरग्रस्त।
अगर तुम
निष्कि्रय हो
जाओगे तो ज्वर
चला जाएगा।
अगर तुम निष्क्रियता
और अकर्म की
अवस्था में
होगे, अगर
तुम अपने भीतर
विश्रामपूर्ण
होगे, तो
सक्रियता चली
जाएगी, स्वर
खो जाएगा; और
ज्वर के साथ
जो तीव्रता
रहती है वह भी
नहीं रहेगी।
तुम थोड़ा उदास
अनुभव करोगे;
तुम्हें
लगेगा कि मेरा
बोध घट रहा है।
लेकिन बोध
नहीं घट रहा
है, सिर्फ
ज्वर की तेजी
घट रही है।
और
यह शुभ है।
इससे भयभीत मत
होओ। और यह मत
सोचो कि यह निष्क्रियता
सच्ची नहीं है।
यह बात
तुम्हारा मन
कह रहा है
जिसे
ज्वरग्रस्त
सक्रियता की
और ज्वर की
तेजी की जरूरत
है। ज्वर कोई
बोध नहीं है।
लेकिन ज्वर
में एक रुग्ण
बोध,
एक रुग्ण
सजगता होती है।
वह रुग्णता है,
उसके पीछे
मत जाओ। उसे
जाने दो; निष्कि्रयता
में उतरो।
आरंभ में
तुम्हें लगेगा
कि मेरा बोध बढ़ने
के बजाए कम हो रहा
है। उस कम होने
दो क्योंकि जो
चीज निष्क्रियता
के आने से कम
होती है वह ज्वरग्रस्त
है और इसीलिए
कम होती है।
उसे कम होने
दो। एक क्षण
आएगा जब तुम
एक संतुलन पर
पहुंच जाओगे।
उस संतुलन के
बिंदु पर फिर
न बढती होती
है और न घटती।
वह स्वस्थ
बिंदु है; अब
बुखार जा चुका।
और संतुलन के
उस बिंदु पर
तुम्हें जो भी
बोध होता है
वह सम्यक बोध
है; वह
ज्वरग्रस्त
नहीं है। और
काश, तुम
उस बिंदु की
प्रतीक्षा कर
सको।
यह
कठिन है, क्योंकि
आरंभ में
तुम्हें लगता
है कि मेरी पकड़
ढीली हो रही
है, कि मैं
सचमुच मुर्दा
हो रहा हूं? कि मेरी
सक्रियता, मेरी
सजगता, मेरा
सब कुछ चला
गया, कि
मैं मृत्यु
में उतर रहा
हूं। ऐसा लगता
है; क्योंकि
तुम जिस जीवन
को जानते हो
वह ज्वरग्रस्त
है। दरअसल, वह जीवन
नहीं है, केवल
ज्वर है, उत्तप्तता
है, एक
तनाव की
अवस्था, अति
सक्रियता की
अवस्था है।
आरंभ में तुम
एक ही अवस्था
को जानते हो—इस
ज्वर की
अवस्था को।
तुम कुछ और
नहीं जानते हो,
इसलिए
तुलना कैसे कर
सकते हो?
इसलिए
जब तुम निष्क्रिय
होते हो, शिथिल
होते हो, तो
तुम्हें
महसूस होगा कि
कुछ खो गया है।
उसे खो जाने
दो। निष्क्रियता
के साथ रहो।
शीघ्र ही एक
संतुलन का
बिंदु आएगा जब
तुम ठीक उस
बिंदु पर होगे
जहां ज्वर
नहीं है; तुम
बस स्वयं
होंगे। तब कोई
दूसरा तुम्हें
सक्रियता में
नहीं ढकेलेगा;
तब कोई
दूसरा
तुम्हें
संचालित नहीं
करेगा। और अब
एक सक्रियता
तुम्हें घटित
होगी, लेकिन
वह सहज—स्फूर्त
होगी, वह
स्वाभाविक
होगी। तुम कुछ
करोगे, लेकिन
अब तुम आगे की
ओर खींचे नहीं
जाओगे और पीछे
की ओर ढकेले
नहीं जाओगे।
और
वह कसौटी क्या
है जिससे तुम
जानोगे कि यह
सक्रियता मुझ
पर थोपी नहीं
गई है, कि यह
सक्रियता
ज्वरग्रस्त
नहीं है? यही
कसौटी है : अगर
कर्म सहज है
तो तुम उससे
तनावग्रस्त
नहीं होंगे, कोई बोझ
नहीं अनुभव
करोगे; बल्कि
तुम उसका आनंद
लोगे। और कर्म
अपने आप में
लक्ष्य होगा,
उसका कोई और
लक्ष्य नहीं
होगा। यह कोई
साधन नहीं
होगा जिसके
जरिए कहीं
पहुंचना हो; यह तुम्हारी
ऊर्जा का
प्रवाह होगा,
अतिरेक
होगा। और यह
अतिरेक, यह
बाढ़ यहां और
अभी होगी; यह
भविष्य में
किसी प्रयोजन
के लिए नहीं
होगी। तुम
उससे आनंदित
होगे। वह जो
भी कर्म होगा—चाहे
बगीचे में
गड्डा खोदना
हो या वृक्ष
की छंटाई करनी
हो या बैठना
हो, चलना
हो या भोजन
करना हो—तुम
जो भी कर रहे
होगे वह अपने
आप में पूर्ण
होगा, वह
समग्र कर्म
होगा। और उसके
बाद तुम थकोगे
नहीं, बल्कि
तुम ताजा
अनुभव करोगे।
ज्वरग्रस्त
सक्रियता
तुम्हें
थकाती है; वह
रुग्ण है। स्वाभाविक
सक्रियता
तुम्हें पोषण
देती है, तुम
उसके बाद
ज्यादा
ऊर्जस्वी, ज्यादा
शक्तिशाली
महसूस करते हो,
ज्यादा
जीवंत महसूस
करते हो। वह
सक्रियता
तुम्हें
ज्यादा जीवन
प्रदान करती
है।
लेकिन
आरंभ में जब
तुम निष्क्रिय
होने लगते हो
और अकर्म में
उतरते हो तो
तुम्हें यह अनुभव
होना
अनिवार्य है
कि मेरा बोध
कम हो रहा हूं।
नहीं, तुम्हारा
बोध नहीं कम
हो रहा है,
तुम्हारी
सिर्फ
ज्वरग्रस्त
मानसिकता, ज्वरग्रस्त
सजगता कम हो
रही है। तुम
इस निष्क्रियता
में प्रतिष्ठित
हो जाओगे और
एक सहज—स्वाभाविक
बोध घटित होगा।
ज्वरग्रस्त
सजगता ओर सहज बोध
में यही फर्क है।
दोनों में यही
फर्क है:
ज्वरग्रस्त
सजगता में एक
दिशा में
एकाग्रता होती
है;
शेष सब भूल
जाता है। तुम
किसी एक चीज
पर एकाग्र
होते हो। तुम
मुझे सुन रहे
हो। अगर यह
ज्वरग्रस्त
सजगता है तो
तुम मुझे तो सुनते
हो, लेकिन
शेष सब कुछ के
प्रति तुम
बिलकुल बेहोश
होते हो।
लेकिन अगर यह निष्क्रिय
बोध है—ज्वरग्रस्त
बोध नहीं—संतुलित
और सहज बोध है
तो अगर कार
गुजरती है तो
तुम उसे भी
सुनते हो। तब
तुम मात्र सजग
हो, बोधपूर्ण
हो; तुम
सबके प्रति
बोधपूर्ण हो;
तुम्हारे
चारों ओर जो
भी हो रहा है, तुम सबके
प्रति बोधपूर्ण
हो।
और
यही इसका
सौंदर्य है कि
कार गुजरती है
और तुम उसकी
आवाज सुनते हो, लेकिन
वह आवाज बाधा
नहीं बनती है।
अगर तुम
ज्वरग्रस्त
ढंग से सजग हो
तो तुम कार की
आवाज सुनोगे
तो मुझे सुनने
से चूक जाओगे;
तब गाड़ी
बाधा बन जाएगी।
क्योंकि तुम
नहीं जानते हो
कि कैसे उस
सबके प्रति
पूरी तरह
बोधपूर्ण हुआ
जाए, मात्र
बोधपूर्ण हुआ
जाए, जो
तुम्हारे
चारों ओर घटित
हो रहा है।
तुम्हें
एक ही ढंग
मालूम है कि
कैसे सब कुछ
को भूलकर
सिर्फ एक चीज
के प्रति सजग
हुआ जाए। अगर
तुम किसी अन्य
चीज के प्रति
सजग हुए तो तुम्हारा
पहली चीज से
संपर्क टूट
जाएगा। अगर
तुम मुझे
ज्वरग्रस्त
मन से सुन रहे
हो तो कोई भी
चीज तुम्हें
बाधा दे सकती
है। क्योंकि
जैसे ही
तुम्हारा
अवधान दूसरी
चीज पर जाता
है,
तुम मुझसे
हट जाते हो, टूट जाते हो।
यह अवधान एक
आयामी है, यह
समग्र नहीं है।
और जो
स्वाभाविक, निष्क्रिय
बोध है, वह
समग्र होता है,
उसे कोई भी
चीज बाधा नहीं
दे सकती। वह
एकाग्रता
नहीं है, वह
ध्यान है।
एकाग्रता
सदा
ज्वरग्रस्त
होती है, क्योंकि
एकाग्रता में
तुम अपनी
ऊर्जा को एक बिंदु
पर जबरदस्ती
केंद्रित
करते हो।
ऊर्जा स्वत:
सभी दिशाओं
में प्रवाहित
होती है। इसे
गति करने के
लिए कोई एक
दिशा नहीं
चाहिए; ऊर्जा
सर्वत्र
प्रवाहित
होते रहने से
सहज रहती है।
हम द्वंद्व
निर्मित करते
हैं, क्योंकि
हम कहते हैं
कि इसे सुनना
शुभ है और उसे
सुनना अशुभ है।
अगर तुम
प्रार्थना कर
रहे हो और कोई
बच्चा हंसने
लगता है तो
तुम उसे विध्न
मानते हो।
तुम्हें उस
सरल बोध का
खयाल भी नहीं
है जिसमें
प्रार्थना भी
चलती रहती है
और बच्चा भी
हंसता रहता है
और दोनों में
कोई विरोध
नहीं है, कोई
संघर्ष नहीं
है। वे दोनों
एक ही समष्टि
के हिस्से हैं।
इसे
प्रयोग करो।
पूरी तरह
सावचेत होओ; पूरी
तरह बोधपूर्ण
होओ। एकाग्र
मत होओ। सब तरह
की एकाग्रता
थकाती है।
उसमें तुम
थकते हो
क्योंकि तुम
ऊर्जा के साथ जबरदस्ती
कर रहे हो, अस्वाभाविक
ढंग से उसे
मजबूर कर रहे
हो। सरल बोध
सर्वग्राही
होता है, उसमें
सब समाहित
होता है। जब
तुम निष्क्रिय
होते हो, शात
होते हो, तो
सब कुछ
तुम्हारे
चारों ओर घटित
होता है और
कुछ भी
तुम्हें
विचलित नहीं
करता। और तब
कुछ भी
तुम्हारे बोध
से चूकता नहीं,
सब कुछ घटित
होता रहता है
और तुम उसे
जानते रहते हो,
देखते रहते
हो।
एक
आवाज आती है; वह
तुम्हें
सुनाई पड़ती है,
तुम्हारे
भीतर गति करती
है और गुजर जाती
है; और तुम
जैसे के तैसे
रहते हो। जैसा
कि खाली कमरे
में होता है।
अगर यहां कोई
न हो तो सड़क
चलती रहेगी और
उसकी आवाज
कमरे में आती
रहेगी, गुजरती
रहेगी और कमरा
अप्रभावित
रहेगा—मानो
कुछ भी न हुआ
हो।
निष्क्रिय
बोध में तुम
अप्रभावित
रहते हो, अछूते
रहते हो। सब
कुछ घटित होता
है, तुम से होकर
गुजरता है;
लेकिन तुम उससे
अस्पर्शित रहते
हो, बेदाग रहते
हो। ज्वरग्रस्त
एकाग्रता में
प्रत्येक चीज
तुम्हें छूती
है, तुम्हें
प्रभावित
करती है।
इस
संबंध में एक
और बात।
पूर्वीय
मनोविज्ञान
में एक शब्द
है,
संस्कार।
अगर तुम किसी
चीज पर अपने
अवधान को
एकाग्र कर रहे
हो तो वह
एकाग्रता संस्कार
बनाएगी, तुम
उस चीज से
संस्कारित हो
जाओगे, तुम्हें
एक संस्कार
मिल जाएगा। और
अगर तुम मात्र
बोधपूर्ण हो,
निष्क्रिय
ढंग से
बोधपूर्ण हो,
अगर तुम
एकाग्र नहीं
हो, अपने
अवधान को कहीं
केंद्रित
नहीं कर रहे
हो, तुम बस
हों—तों कुछ
भी तुम्हें
संस्कारित
नहीं करेगा। तब
तुम कोई
संस्कार
इकट्ठा नहीं
करते हो। तुम
अस्पर्शित, शुद्ध, कुंवारे
बने रहते हो—कुछ
भी तुम्हें
स्पर्श नहीं
करता है। जो
व्यक्ति निष्क्रिय
रूप से
बोधपूर्ण है,
वह संसार
में रहता है, लेकिन संसार
उसमें नहीं
रहता है। वह
संसार से
गुजरता है, लेकिन संसार
उससे नहीं गुजरता
है।
झेन
संत बोकोजू
कहा करते थे. 'जाओ
और नदी को पार
करो, लेकिन
ऐसे पार करो
कि पानी
तुम्हें
स्पर्श न करे।’
और उनके
आश्रम के पास
जो नदी थी उस
पर कोई पुल नहीं
था। अनेक
शिष्य चेष्टा
करते थे, लेकिन
जब वे नदी को
पार करते थे
तो पानी उन्हें
छू जाता था।
एक दिन एक
शिष्य बोकोजू
के पास आया और
उसने कहा 'आप
हमें पहेलियां
देते हैं। हम
नदी पार करते
हैं; उस पर
कोई पुल नहीं
है। अगर पुल
होता तो बेशक
हम नदी पार
करते और पानी हमें
नहीं छूता।
लेकिन हमें
नदी से होकर
गुजरना पड़ता
है और पानी
छूता है।’ बोकोजू
ने कहा. 'मैं
आऊंगा और नदी
पार करूंगा।
तुम देखना।’
और
बोकोजू ने नदी
पार की।
निश्चित ही
पानी उनके पैर
में लग गया और
शिष्यों ने
कहा. 'देखिए, पानी
तो आपको लग
गया।’ बोकोजू
ने कहा. 'जहां
तक मैं जानता
हूं पानी मुझे
नहीं लगा है।
मैं तो साक्षी
मात्र था।
पानी ने मेरे
पैर को स्पर्श
किया, मुझे
नहीं। मैं तो
केवल देख रहा
था।’
निष्क्रिय
सजगता में, साक्षी—
भाव में तुम
संसार से
अस्पर्शित
गुजरते हो।
तुम संसार में
हो, लेकिन
संसार तुममें
नहीं है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं