जीवित सदगुरु की तरंग में डूबो—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक; मंगलवार, १७ जुलाई
१९७९;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
बनियां
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।।
पसंधा मारै जाय, पूर को मरम
न जानी।
निसिदिन तौलै घाटि
खोय यह
परी पुरानी।।
केतिक
कहा पुकारि, कहा नहिं करै
अनारी।
लालच
से भा पतित, सहै
नाना दुख
भारी।।
यह
मन भा निरलज्ज, लाज नहिं करै
अपानी।
जिन
हरि पैदा किया
ताहि का मरम न
जानी।।
चौरासी
फिरि आयकै
पलटू जूती खाय।
बनियां
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाए।।
सातपुरी
हम देखिया, देखे चारो
धाम।।
देखे
चारो धाम, सबन
मां पाथर
पानी।
करमन
के बसि
पड़े, मुक्ति
की राह झुलानी।।
चलत
चलत पग
थके छीन भई
अपनी काया।
काम
क्रोध नहिं
मिटे, बैठकर
बहुत नहाया।।
ऊपर
डाला धोय, मैल दिल बीच
समाना।
पलटू
नाहक पचि मुए, संतन में है नाम।
सातपुरी
हम देखिया, देखे चारो
धाम।।
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
काम
हमारा होय, बिना कौड़ी
को चाकर।
कमर
बांधिके फिरै, करै
तिहुं लोक
उजागर।।
उसे
हमारी सोच, पलकभर नाहिं बिसारी।
लगी
रहै
दिनरात, प्रेम से
देता गारी।।
संत
कहैं दृढ़ करै
जगत का भरम छुड़ावै।
निंदक
गुरु हमार, नाम से वही मिलावै।।
सुनिके
निंदक मरि
गया, पलटू
दिया है रोय।
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
उसकी
हसरत है, जिसे दिल से
मिटा भी न
सकूं
ढूंढने
उसको चला हूं, जिसे पा भी न
सकूं।
उनके
गुस्से के
मिटाने की हैं
सौ तदबीरें
लाग
की आग नहीं है
कि बुझा भी न
सकूं।
चुटकियां
लेने से दिल
में वो करें
क्यों इनकार
दाग
कुछ दर्द नहीं
है कि दिखा भी
न सकूं।
मैं
अगर घर से
निकलता हूं तो
घर क्यों है
उदास
क्या
दमे—बाजे—पसीं
है कि फिर आ भी
न सकूं।
कोई
पूछे तो
मुहब्बत से, ये क्या है इन्साफ
वो
मुझे दिल से
भुला दे, मैं भुला भी
न सकूं।
नक्शे—हस्ती
मैं अभी मह्व
किए देता हूं
खतेत्तकदीर
नहीं है कि
मिटा भी न
सकूं।
उसकी
हसरत है, जिसे दिल से
मिटा भी न
सकूं
ढूंढने
उसको चला हूं, जिसे पा भी न
सकूं।
परमात्मा
की खोज अनूठी
खोज है।
परमात्मा जब तक
नहीं मिला, तब तक खोजी
है, खोज
है। परमात्मा
मिला कि खोजी
भी मिटा, खोज
भी मिटी। वस्तुतः
खोजी मिटे, खोज मिटे, तो परमात्मा
मिले। जब तक
मैं का भाव
शेष है, तब
तक उससे कोई
संबंध नहीं हो
पाता।
इसलिए
खोज अनूठी है, बेबूझ है, अतक्र्य है।
अपने
को मिटाए बिना
मिलना नहीं हो
सकता। बुद्धि
स्वभावतः
पूछेगी कि जब
हम ही न रहे, तो मिलने से
भी क्या होगा?
जब हम ही न
रहे, तो
मिलेगा कौन? जब हम ही न
रहे, तो
साक्षात्कार
कौन करेगा? दर्पण ही
टूट गया, तो
प्रतिछबि,
किसकी
बनेगी? इसीलिए
बात अतक्र्य
है, तर्क
भी सीमा के
पार है।
तर्क
तो यही कहेगा, मिलन तभी हो
सकता है जब दो
हों। दो तो
चाहिए—ही—चाहिए
मिलने को। दुई
के बिना मिलन
कैसे? और
जिन्होंने
जाना है, वे
कहते हैं, मिलन
तो तभी होता
है जब एक ही
बचता है।
क्योंकि एक
में ही मिलन
है। जब दो खो
जाते हैं और
एक ही रह जाता
है तब मिलन का
स्वाद है।
स्वाद लेने वाला
नहीं बचता, स्वाद ही
बचता है।
उसकी
हसरत है, जिसे दिल से
मिटा भी न
सकूं।
ढूंढने
उसको चला हूं, जिसे पा भी न
सकूं।
परमात्मा
को पाया नहीं
जा सकता। पाने
की भाषा ही
अहंकार भी
भाषा है। पाने
का अर्थ है, मैं रहूं और
मेरा परिग्रह
बढ़े। धन भी हो
मेरे पास, पद
भी हो मेरे
पास, समाधि
भी मेरे पास, स्वर्ग भी
मेरे पास, परमात्मा
भी मेरे पास।
मेरी तिजोड़ी
में सब बंद हो
जाए। मेरी
मुट्ठी में सब
हो। परमात्मा
भी छूट न जाए।
वह भी मेरी
मुट्ठी में होना
चाहिए। वह भी
मैं विजय
करूंगा।
अहंकार विजय
की यात्रा पर
निकलता है।
लेकिन
परमात्मा को
पाने का ढंग
अपने को
मिटाना है।
अपने को बिलकुल
नेस्तनाबूद
कर देना है। शून्यवत
हो जाना है।
इसलिए
परमात्मा को
पाने की बात
ही संभव नहीं
है। हम मिटें
तो परमात्मा
फलित होता है।
परमात्मा
हमें पा लेता
है—ऐसा कहना
उचित है। हम
कैसे
परमात्मा को
पाएंगे? हम
तो बाधा न दें,
इतना ही
काफी है। हम
तो बीच में न
आएं, इतना
ही बहुत है।
हम दीवार न बनें
तो धन्यभागी
हैं।
परमात्मा
हमें पा ले और
हम रुकावट न
डालें।
परमात्मा का
हाथ हमें पाने
आए तो हम भागें
न, बचें न, छिपें न। बस इतना
ही साधक को
करना है—छिपे
न, बचे न; खोल दे अपने
को, उघाड़
दे अपने को; हो जाए नग्न,
निर्वस्त्र।
कोई छिपाव
नहीं, कोई दुराब
नहीं। खोल दे
अपने हृदय को
पूरा—पूरा।
कहीं कोई
रत्ती—भर भी
बचाव रह गया
तो मिलन में
बाधा रह
जाएगी।
उसकी
हसरत है, जिसे दिल से
मिटा भी न
सकूं।
ढूंढने
उसको चला हूं, जिसे पा भी न
सकूं।
परमात्मा
को पाया नहीं
जा सकता। पाने
की भाषा ही
अहंकार की
भाषा है। पाने
का अर्थ है, मैं रहूं और
मेरा परिग्रह
बढ़े। धन भी हो
मेरे पास, पद
भी हो मेरे
पास, समाधि
भी मेरे पास, स्वर्ग भी
मेरे पास, परमात्मा
भी मेरे पास।
मेरी तिजोड़ी
में सब बंद हो
जाए। मेरी
मुट्ठी में सब
हो। परमात्मा
भी छूट न जाए।
वह भी मेरी
मुट्ठी में होना
चाहिए। वह भी
मैं विजय करूंगा।
अहंकार विजय
की यात्रा पर
निकलता है।
लेकिन
परमात्मा को
पाने का ढंग
अपने को मिटाना
है। अपने को
बिलकुल
नेस्तनाबूद
कर देना है। शून्यवत
हो जाना है।
इसलिए
परमात्मा को
पाने की बात
ही संभव नहीं
है। हम मिटें
तो परमात्मा
फलित होता है।
परमात्मा
हमें पा लेता
है—ऐसा कहना
उचित है। हम
कैसे
परमात्मा को
पाएंगे? हम
तो बाधा न दें,
इतना ही
काफी है। हम
तो बीच में न
आएं, इतना
ही बहुत है।
हम दीवार न
बनें तो धन्यभागी
हैं।
परमात्मा
हमें पा ले और
हम रुकावट न
डालें।
परमात्मा का
हाथ हमें पाने
आए तो हम भागें
न, बचें न, छिपें न। बस इतना
ही साधक को
करना है—छिपे
न, बचे न; खोल दे अपने
को, उघाड़
दे अपने को; हो जाए नग्न,
निर्वस्त्र।
कोई छिपाव
नहीं, कोई दुराब
नहीं। खोल दे
अपने हृदय को
पूरा—पूरा।
कहीं कोई
रत्ती—भर भी
बचाव रह गया
तो मिलन में
बाधा रह
जाएगी।
उसकी
हसरत है, जिसे दिल से
मिटा भी न
सकूं
ढूंढने
उसको चला हूं, जिसे पा भी न
सकूं।
नक्शे—हस्ती
मैं अभी मह्व
किए देता हूं...
तैयार
हूं मिटाने को
अपने को। ये
अस्तित्व के सारे
चिह्न पोंछ
डालने को
तैयार हूं।
नक्शे—हस्ती
मैं अभी मह्व
किए देता हूं
खतेत्तकदीर
नहीं है कि
मिटा भी न
सकूं।
यह कोई
भाग्य की रेखा
नहीं है कि
जिसे मिटा न
सकूं। यह मेरा
अहंकार तो
मेरी ही बनावट
है, यह तो
मेरे ही हाथ
का खिलौना है,
जब चाहूं तब
तोड़ दूं। यह
मेरा होना कोई
वास्तविक
होना नहीं है;
एक झूठ है, सरासर झूठ
है; एक
भ्रम है; एक
मान्यता है।
इसे तोड़ देने
में जरा भी
अड़चन नहीं है।
अगर नहीं तोड़
पाते हम। अड़चन
जरा भी नहीं है,
और अड़चन बड़ी
है। टूट तो
सकता है अभी, मगर टूटता
नहीं जन्मों—जन्मों।
क्या होगा
कारण?
पलटू
कारण कहते
हैं:
बनिया
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।।
पसंघा मारै जाय, पूर को मरम
न जानी।
पुरानी
आदत। सदियों—सदियों, जन्मों—जन्मों
की आदत। इसके
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। हम इस झूठ
को इतने दिन
तक जिए हैं कि
झूठ सच हो गया
है। सच को
बहुत दिनों तक
न जीया जाए तो झूठ
हो जाता है।
हम से उसके
संबंध टूट
जाते हैं।
हमारे
प्राणों में
उनकी जड़ें
नहीं रह जातीं।
और झूठ बहुत
दिन तक जीया
जाए तो सच—जैसा
मालूम होने
लगता है। सच
तो नहीं हो
सकता, लेकिन
सच—जैसा मालूम
होना ही हमारे
लिए सच होना
हो जाता है।
एडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि राजनीति—शास्त्र
का मूल आधार
है—झूठों को
दोहराते रहो, दोहराते रहो,
दोहराते
रहो, धीरे—धीरे
लोग मान लेते
हैं। इतनी बार
दोहराओ
कि लोग भूल ही
जाएं कि यह
झूठ है। यही
तो विज्ञापन—शास्त्र
का भी मूल
आधार है—दोहराए
जाओ। पहले लोग
ध्यान नहीं
देते, फिर
धीरे—धीरे
ध्यान देते
हैं, फिर
बिना ध्यान
दिए भी ध्यान
उनका लगा जाता
है। दोहराए
जाओ सब तरफ से,
चारों तरफ
से; हर तरफ
से गुंजार
उठाए जाओ। लोग
धीरे—धीरे
सम्मोहित हो
जाते हैं।
झूठ की
पुनरुक्ति
सम्मोहित कर
देती है।
और
जैसे ही
व्यक्ति
सम्मोहित हुआ
कि फिर झूठ उसके
लिए तो सच ही
जैसा है। और
उसके लिए तो
झूठ भी सच ही
जैसा काम
करेगा। वह तो
उसके जीवन का
यथार्थ हो
गया। वह उसके
लिए जीएगा
और मरेगा।
आदत
अहंकार को बल
दे रही है।
बचपन से ही
हमें अहंकार
सिखाया जाता
है। हमारी
सारी शिक्षा
अहंकार के
इर्द—गिर्द
घूमती है।
हमारा
नीतिशास्त्र
अहंकार को
परिपुष्ट
करता है। और
यह एक जन्म की
बात नहीं, जन्मों—जन्मों
की बात है, हर
जन्म में यही
किया गया है।
इसलिए अहंकार
जो कि नहीं है,
सब कुछ होकर
बैठ गया है।
जो कि नौकर भी
नहीं है, वह
मालिक होकर
बैठ गया है।
और आत्मा जो
कि मालिक है, उसकी हमें
कोई खबर ही न
रही।
उदाहरण
के लिए पलटू
कहते हैं, जैसे बनिए
को आदत हो जाए दांड़ी
मारने की।
बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।। अब वह
कोई सोच—विचार
कर दांड़ी
नहीं मारता, सोच—विचार
कर कम नहीं
तौलना, कम
तौलना उसकी
आदत हो गई।
मैंने
सुनी है एक
कहानी।
संत एकनाथ
तीर्थयात्रा
को जाते थे।
कोई सौ—डेढ़
सौ आदमियों की
मंडली भी संत
के साथ
तीर्थयात्रा
को जाती थी।
सारा गांव ही
तीर्थयात्रा
को जा रहा था।
एक तो एकनाथ
का संग—साथ और
फिर तीर्थ।
सोने में
सुगंध।
सत्संग भी होगा, तीर्थयात्रा
भी हो जाएगी।
गांव का एक
चोर भी एकनाथ
के पीछे पड़ा
कि मुझे भी ले
चलो। चोर
जाहिर चोर था।
एकनाथ ने
कहा कि भाई
मेरे, मुझे
तो कोई अड़चन
नहीं, लेकिन
तू झंझट
करेगा। चोरी
तेरी आदत है, चोरी तेरी
जीवन की शैली
है, तेरी
पद्धति है; तू
तीर्थयात्री—दल
में चुराएगा
और रोज झंझट
खड़ी होगी। मना
तुझे मैं करना
नहीं चाहता; क्योंकि मैं
कौन हूं मना
करूं तुझे
तीर्थयात्रा
जाने से! और
तेरे मन में
यह सदभाव
उठा, अच्छा!
सौभाग्य की
बात है यह
किरण तेरे मन
में उतरी।
शायद यही तेरा
रूपांतरण बन
जाए। लेकिन एक
वचन, एक
आश्वासन देना
होगा। कि
तीर्थयात्रा
जब तक चलेगी, शुरू से
लेकर आखिर तक,
जब तक हम
गांव वापस न आ
जाएं, तब
तक यह आदत
स्थगित रखना।
यह चोरी भूल
ही जाना। चोर
ने पैर पकड़
लिए और कहा कि
कसम खाता हूं
कि चोरी नहीं करूंगा।
लेकिन
चोर आखिर चोर!
रात हो तो उसे
बड़ी बेचैनी हो।
उसके हाथ तड़फने
लगें। रात उसे
नींद न आए।
करवटें बदले।
आखिर उसने
तरकीब निकाल
ली। एक यात्री
के बिस्तर में
से चीजें
निकालकर
दूसरे यात्री
के बिस्तर में
रख दे। चोरी
भी नहीं
हुई...खुद तो
लिया नहीं इसलिए
चोरी तो कोई
कह नहीं
सकता...लेकिन
उससे पुरानी
आदत को राहत
मिले। जैसे
खाज को खुजलाने
से सुख मिलता
लगता है।
मिलता तो नहीं, मिलता तो
दुख ही है।
मगर दस—पांच
लोगों का
सामान
गड्डमड्ड कर
दे, तो फिर
वह चैन से सोए!
यात्री बड़े
हैरान, किसी
का लोटा नदारद,
किसी की
बाल्टी खो गई,
किसी की
रस्सी ही खो
गई। मिल तो
जाएं—लेकिन
कभी किसी के
बिस्तर में, कभी किसी के
बंडल में, कभी
कहीं छिपी...।
यहां तक कि एकनाथ
के बिस्तर तक
में लोगों की
चीजें निकलने
लगीं। अब यह
तो कोई भरोसा
ही न करे कि एकनाथ
और चुराएंगे!
बड़ी बेचैनी
रही—और रोज यह
हो! यह कोई एक
दिन की बात
नहीं, रोज
सुबह उठकर
लोगों को अपनी
चीजें खोजनी
पड़ें। यह कौन
कर रहा है?
आखिर एकनाथ ने
विचार किया।
एक रात जग कर
बैठे रहे कि
देखें कौन
करता है। वही
चोर...उठा, उसने
इसका सामान
उसके बिस्तर
में किया; इसका
कंबल उसके
बिस्तर में
डाल दिया; उसका
तकिया खींच कर
इसके बिस्तर
में कर दिया; एकनाथ ने उसे रंगे—हाथों
पकड़ लिया और
कहा कि देख, तूने
आश्वासन दिया
था! उसने कहा, महाराज, चोरी
नहीं करूंगा,
इसका
आश्वासन दिया
था, लेकिन
अभ्यास नहीं
करूंगा, इसका
आश्वासन नहीं
दिया था। आपने
भी कहा है कि
तीर्थयात्रा
के बाद क्या
करूंगा? मारा
जाऊंगा, भूखा मारा जाऊंगा।
यही तो मेरी
कला है। चोरी
मैं नहीं कर
रहा हूं, एक
पैसे की किसी
की चीज मैंने
नहीं ली है, अपने नियम
पर आबद्ध हूं,
जो व्रत ले
लिया ले लिया;
जो संकल्प
कर लिया कर
लिया; मगर
अभ्यास नहीं
करूंगा, ऐसा
न मैंने आपसे
कहा था, न
आप अपेक्षा
रखना। थोड़ी—बहुत
तकलीफ लोगों
को होती है—वह
मुझे भी मालूम
है—मगर यह
मेरी
जीवनचर्या है!
आखिर उनकी
तकलीफ देखूं
कि अपनी तकलीफ
देखूं? रात भर सो
नहीं पाऊं—दिन
भर यात्रा
करनी है और
रात नींद नहीं
और दिन भर
चलना, मैं
मर ही जाऊंगा,
घर लौट ही न
पाऊंगा! हत्या
तुम्हारे सिर
लगेगी! एकनाथ
को भी बात ता
जंची। बात तो
ठीक थी।
चोर
आखिर चोर है।
आदत आसानी से
नहीं छूट
सकती। आदतें
नए—नए रास्ते
निकाल लेती
हैं, अपनी
अभिव्यक्ति
के नए—नए
मार्ग खोज
लेती हैं।
बनिया
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।।
पसंघा मारै जाय, पूर को मरम
न जानी।
बड़ा
प्यारा वचन
है। सीधे—सादे
वचन पलटू के, पर बड़े अमृत
भरे हैं, बड़े
रस भरे हैं।
सत्य की उनमें
बड़ी झलक है।
कहते हैं कि
आधा—पूरा तौल
रहा है, इसे
पूरे का मजा
आया ही नहीं।
बड़ी सांकेतिक
बात कह दी—पूर
को मरम न
जानी। इसे
सच्चे होने का
राज ही पता
नहीं है। इसे
स्वच्छ होने
का, सीधा, साफ—सुथरा
होने का
सौंदर्य ही
पता नहीं है।
और यह जो कमी
किए जा रहा है,
जो कम तौले
जा रहा है, यह
सिर्फ तौलने
की ही बात
नहीं है—ध्यान
रहे—यह आदत
अगर गहरी हो
गई तो यह पूरे
को, परमात्मा
को कभी पा ही न
सकेगा। यह कम
की ही आदत बनी
रही, तो
पूरे को कैसे
पाएगा? अपूर्ण
से ग्रस्त हो
जाएगा, तो
पूर्ण को न पा
सकेगा।
उपनिषद
कहते हैं: उस
पूर्ण से
पूर्ण को भी
निकाल लें तो
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है। उस पूर्ण
में हम पूर्ण
को जोड़ दें, तो भी पूर्ण पूर्ण ही
रहता है। उस
पूरे को कब
जानोगे? आदत
तुमने बांधी
है अपूर्ण की।
यह वचन
तो सीधा—साफ
है, लेकिन
इसका दर्शन
गहरा है।
इसमें थोड़ी
डुबकी मारो।
हम सब
ने अधूरे की
आदत बांध ली
है। कोई कहता
है, मैं शरीर
हूं; कोई
कहता है, मैं
बुद्धि हूं; कोई कहता है,
मैं मेरा धन
हूं, मैं
मेरा पद हूं, मैं मेरा
मकान
हूं...किसी का दीवाला
निकल जाता है
तो वह
आत्महत्या कर
लेता है, क्योंकि
वह कहता है, अब बचा ही
क्या? अब
जी कर क्या
करेंगे! जैसे
धन ही जीवन
था। किसी की
पत्नी मर गई, किसी का पति
मर गया, आत्महत्या!
जैसे धन ही
जीवन थी, जैसे
पति ही जीवन
था। जैसे जीवन
सीमाओं में समाप्त
हो जाता है।
इतने छोटे
बटखरों से
जीवन को तौलोगे?
और ये बटखरे
भी पूरे नहीं;
बनिए के बटखरे
हैं। ये बटखरे
भी सच्चे
नहीं। यह जो
अपूर्ण की आदत
बनी है, अपूर्ण
के साथ
तादात्म्य कर
लेने की, क्षुद्र
के साथ अपने
को जोड़ लेने
की, क्षुद्र
में आबद्ध हो
जाने की, क्षुद्र
से आच्छन्न हो
जाने की, आच्छादित
हो जाने की, इसके कारण
ही हम पूर्ण
को नहीं जान
पाते। पूर्ण
हमारा अधिकार
है। हम पूर्ण
हैं। तत्वमसि।
तुम भी वही
हो। जो बुद्ध
हैं, जो
महावीर हैं, जो कृष्ण
हैं। तत्वमसि।
तुम भी वही हो,
जो
क्राइस्ट हैं,
जो
जरथुस्त्र
हैं, जो
मुहम्मद हैं।
तुम भी वही हो,
जो इस सारे
विराट में
छाया है, जो
फूलों में
खिला है, चांदत्तारों में
मुस्कुराया
है।
तुम
वही हो। मगर
उस तरफ आंख
कैसे उठे? तुमने तो
बहुत छोटा—सा
आंगन बना लिया
है। आकाश को
भूल गए, आंगन
पर ही आंख
टिका दी। आंगन
में ही रह गए
हो अटक कर।
इतने छोटे
आंगन में दुख
न होगा तो
क्या होगा, नर्क न होगा
तो क्या होगा?
इस छोटे
आंगन में
सांसें घुट
रही हैं, प्राण
फैल नहीं पाते,
पंख खुल
नहीं पाते। पिंजड़े
बड़े छोटे हैं।
पिंजड़ों
के बाहर होने
की कला ही
धर्म है।
लेकिन
आदतें पिंजड़ों
की हैं। बंद
रहने की आदत
हो गई है।
छोटे होने में
हमारा अभ्यास
इतना गहन हो
गया है कि
विराट होने
में हम डरते
हैं। अगर कोई
तुमसे कहे कि तुम
परमात्मा हो, तो तुम
मानने को राजी
नहीं होते।
यही कहते रहे जाग्रतपुरुष
कि तुम
परमात्मा हो,
मगर तुम
मानने को राजी
नहीं होते।
तुम यह तो मानते
ही नहीं कि
तुम परमात्मा हो,
तुम यह भी
मानने को राजी
नहीं होते कि
बुद्ध परमात्मा
हैं, कि
कृष्ण
परमात्मा
हैं। तुम इतना
बचना चाहते हो
विराट से कि
तुम बुद्धों
को भी
परमात्मा स्वीकार
नहीं कर सकते।
क्योंकि उनको
स्वीकार करो
तो फिर आज
नहीं कल
तुम्हें यह भी
स्वीकार करना
पड़ेगा कि तुम
भी वही हो।
क्योंकि ऐसे
ही हड्डी—मांस—मज्जा
से तो वे भी
बने हैं। ऐसे
ही तो जैसे
तुम—बीमार भी
होते हैं, बूढ़े
भी होते हैं, मरते भी
हैं। तुम में
और उनमें शरीर
की तरह से कोई
भेद नहीं है।
अगर भेद है तो
सिर्फ बोध का
है। उन्हें
पता है कि वे
कौन हैं और
तुम्हें पता
नहीं कि तुम
कौन हो। वे
जागे हैं और
तुम सोए हो।
और सोना सिर्फ
तुम्हारी आदत
हो गई है।
सोने
के भी थोड़े
सुख हैं।
चिंता नहीं, फिक्र नहीं।
लेकिन सोने के
दुख भी बहुत
बड़े हैं।
क्योंकि सोने
के साथ ही
जुड़े हैं सारे
दुखस्वप्न।
और सोने का
सबसे बड़ा दुख
यह है कि
जागने का जो
आनंद—उत्सव है,
उससे तुम
वंचित रह
जाओगे। वे जो
कमल खिलते हैं
जागृति में, वह जो
चैतन्य का
नृत्य होता है
जागृति में, उसकी बूंद
भी तुम्हारे
कंठ न उतरेगी।
तुम सोए ही
पड़े रह जाओगे,
जीवन नाचता
हुआ पास से
गुजर जाएगा।
जीवन गीत गाता
हुआ पास से
गुजर जाएगा और
तुम सोए ही
पड़े रह जाओगे।
तुम्हें पता
ही न चलेगा कि
कैसा अपूर्व
अवसर था और
गंवा दिया।
बाधा एक है—आदत।
आदत मनुष्य को
यंत्रवत बना
देती है।
विलियम
जेम्स ने
उल्लेख किया
है कि वह एक हॉटल
में बैठा एक
मित्र के साथ
गपशप कर रहा
था। रास्ते से
गुजरता था एक मिलेट्री
का रिटायर्ड
कप्तान। सिर
पर रख ली थी उस
कप्तान ने एक
टोकरी, जिसमें
अंडे भरे थे।
विलियम जेम्स
बड़ा मनोवैज्ञानिक
था अमरीका का,
अपने मित्र
से बात कर रहा
था, संयोगवशात
आदत के संबंध
की बात चल रही
थी। उसने कहा
कि देखो, मैं
तुम्हें
उदाहरण देता
हूं। बाहर की
तरफ देखा और
जोर से आवाज
दी—अटेंशन!
वह जो आदमी, कोई बीस साल
पहले रिटायर
हो चुका था, उसने एकदम
टोकरी छोड़ दी
और अटेंशन
खड़ा हो गया!
सारे अंडे फूट
गए और रास्ते
पर बिखर गए।
बड़ा नाराज
हुआ! मरने—मारने
को उतारू हो
गया! विलियम
जेम्स से कहा,
यह भी कोई
मजाक है! मुझ
गरीब आदमी के
साथ! किसी तरह
अपना पालन—पोषण
कर रहा हूं।
विलियम जेम्स
ने कहा: लेकिन मैंने
तुमसे कुछ कहा
नहीं, अटेंशन शब्द का
उपयोग करने का
तो मुझे हक
है। तुम न सुनते,
तुम न
मानते। उस
आदमी ने कहा, यह मेरे बस
का है क्या? जब अटेंशन
कहा जाता है
तो अटेंशन
यानी अटेंशन।
यह मैंने कोई
जानकर किया? जानकर मैं
करता! यह तो अब
अचेतन आदत का
हिस्सा हो गया
है।
सैनिक
को तैयार किया
जाता है यंत्र
की भांति। इसलिए
सैनिक
मनुष्यता का
सर्वाधिक पतन
है। और दुनिया
में जब तक
सैनिक रहेंगे, तब तक आदमी
बहुत ऊंचाइयां
नहीं ले सकता।
सैनिक को हम
खूब सम्मान
देते हैं, क्योंकि
उसकी आत्मा हम
खरीद रहे हैं।
सैनिक को हम
अच्छी से
अच्छी
तनख्वाह देते
हैं, क्योंकि
उसका बड़ा
बहुमूल्य
जीवन हम नष्ट
कर रहे हैं।
सैनिक को हम
खूब तगमे
देते हैं—महावीर
चक्र
इत्यादि...।
उसको बड़ी प्रतिष्ठाएं
मिलती हैं।
क्यों? क्या कारण
है?
कारण
है कि वह अपने
जीवन की सबसे
बहुमूल्य
निधि बेच रहा
है—सस्ते में, दो टुकड़ों
में। सैनिक का
शिक्षण क्या
है? सारे
शिक्षण का एक
ही सार है कि
मनुष्य को नष्ट
कर दो और
आदतें—ही—आदतें
रह जाएं—राइट
टर्न, लेफ्ट टर्न, अटेंशन...। अब रोज
किसी आदमी को
तीन—चार घंटे
राइट टर्न, लेफ्ट टर्न; राइट
टर्न, लेफ्ट करना पड़े, कब तक सोच—सोच
कर करेगा? थक
जाएगा सोचना।
फिर तो एकदम
राइट टर्न
सुना कि राइट
टर्न हुआ।
सुनने में और
होने में बीच
में विचार
नहीं आएगा।
एक
महिला ने एक
मनोवैज्ञानिक
को कहा कि मैं
अपने पति से
बहुत परेशान
हूं। ज्यादा
तो नहीं, क्योंकि
वे मिलिट्री
में हैं और
कभी—कभी आते
हैं। मगर जब
आते हैं, तो
जब भी वे बाएं
करवट होते हैं,
ऐसे
घुर्राते हैं
कि मेरी तो
नींद लगती
नहीं, बच्चे
नहीं सो सकते,
पड़ोसी तक
शिकायत करते
हैं। उनका
घुर्राना क्या
है जैसे सिंह
की दहाड़! मगर
एक बात है कि
जब वे बाएं करवट
होते हैं तभी
घुर्राते
हैं। तो कोई
तरकीब?
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, तरकीब
आसान है। जब
वे बाएं करवट
होते हैं तभी घुर्राते
हैं न! तो तू कल
जब वे रात सोएं
और घुर्राने
लगें बाएं
होकर, तो
कान में उनसे
कहना—राइट
टर्न! पत्नी
ने कहा, इससे
क्या होगा
नींद में? मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि
कहां नींद, कहां होश—सैनिक
तो नींद में
ही होता है।
जागता कहां है?
उसको जागने
देते नहीं हम।
उसको तो अफीम
पिलाते हैं।
उसको सुलाए
रखते हैं। ये
सोए हुए आदमी हमें
चाहिए।
क्योंकि
लोगों की हत्याएं
करवानी हैं, गोलियां चलवानी
है, बम गिरवाने
हैं। ये कोई
जागे हुए आदमी
कर सकेंगे ऐसे
काम! इनके लिए
तो बिलकुल
मुर्दा चाहिए—मुर्दा
और मजबूत! तू
कोशिश तो कर!
पत्नी
को कुछ जंची
तो नहीं बात, मगर कोशिश
करने में हर्ज
भी क्या था? कोशिश की और
चौंकी। कि
जैसे ही उसने
कहा, राइट
टर्न, पति
एकदम करवट बदल
कर, राइट
टर्न हो गए।
घुर्राना बंद
हो गया।
नींद
में भी हमारी
आदतें, हमारी
अचेतन आदतें
काम करती हैं।
नींद में भी हम
उनके वशीभूत
होते हैं। वे
इतनी गहरी चली
गई होती हैं
कि जागना
जरूरी नहीं
होता। सैनिक
को वर्षों तक
हम इसी तरह
अचेतन करते
हैं। जब वह बिलकुल
अचेतन हो जाता
है...इसी को
शिक्षण कहते
हैं—सैनिक का
शिक्षण! परेड,
कवायद।
करवाते रहते
हैं उल्टी—सीधी
परेड, कवायद,
जिसका कोई
मूल्य नहीं
है। क्या सार
है आदमी को—बाएं
घूमो, दाएं
घूमो...!
एक
दार्शनिक एक
बार भर्ती हो
गया युद्ध
में। जैसे ही
उसको कहा, बाएं घूमो,
सब तो घूम
गए, वह खड़ा
ही रहा। पूछा
उसके कप्तान
ने—जाहिर, प्रसिद्ध
दार्शनिक था,
एकदम
कप्तान फौजी
भाषा में बोल
भी नहीं सकता
था; फौजी
भाषा तो गाली—गलौज
की होती है; अगर कोई और
होता तो
कप्तान ने जो
भी गंदी—से—गंदी
गालियां हो
सकती थीं, दी
होतीं; मगर
इससे तो थोड़ा
सम्मान से
व्यवहार करना
पड़ेगा, प्रसिद्ध
आदमी है, लोकविख्यात है—कहा, महानुभाव...कहना
तो चाहता था, हे उल्लू के
पट्ठे!...लेकिन
कहा, महानुभाव,
जब मैंने
कहा, बाएं
घूम, तो आप
खड़े क्यों हैं?
दार्शनिक
ने पूछा, लेकिन
बाएं घूमूं
क्यों? बाएं
घूमने में
प्रयोजन? बाएं
घूमने से क्या
मिलेगा? जो
बाएं घूम गए
हैं, उनको
क्या मिला? और मैंने यह
देखा कि जिसको
तुमने बाएं
घुमाया, फिर
उनको दाएं
घुमा दिया: वे
फिर वैसे ही
के वैसे खड़े
हैं—जहां मैं
खड़ा ही हूं
पहले से। मैं
वैसे ही का वैसा...इतने
उपद्रव में
मैं क्यों
पडूं? तो
पहले सिद्ध
करो कि सार
क्या है, प्रयोजन
क्या है? और
फिर यह भी
पक्का करो कि
फिर दाएं घूम
तो नहीं
कहोगे। नहीं
तो क्या सार, इतना चक्कर
मार कर फिर
वहीं आ गए! तो
पहले ही से वहीं
खड़े रहें न!
कप्तान
ने कहा कि यह
तो आदमी काम
का नहीं है। ऐसे
सोच—विचार
करोगे तो
सैनिक होने की
क्षमता खो
देते हो। विचार
का सैनिक होने
से कोई नाता
नहीं है।
संन्यासी
को विचार के
ऊपर उठना पड़ता
है, सैनिक को
विचार से नीचे
गिरना पड़ता
है। एक संबंध
में संन्यासी
और सैनिक में
समानता होती
है—दोनों
निर्विचार।
संन्यासी
निर्विचार
होता है विचार
का अतिक्रमण
करके, विचार
का साक्षी बन
कर और सैनिक
निर्विचार
होता है विचार
इत्यादि की झंझट
छोड़ कर; जड़वत हो जाता है।
भेद बड़ा है, लेकिन
समानता भी है।
कप्तान
ने सोचा कि यह
काम इससे नहीं
होने का, तो
कहा, भई, तुमसे यह
काम नहीं
होगा। तुम कोई
दूसरा काम करो।
अब भर्ती हो
ही गए हो, तो
तुम को हम
चौके में लगा देते
हैं। वहां कोई
दाएं नहीं
घूमना, बाएं
नहीं घूमना।
छोटे—मोटे काम,
वह तुम करो।
छोटा—से—छोटा
काम दिया—मटर
के दाने—कि
बड़े दाने एक
तरफ करो, छोटे
दाने एक तरफ
करो। जब दो
घंटे बाद
कप्तान आया, तो देखा कि
दार्शनिक
ठुड्डी से हाथ
लगाए वैसा ही
का वैसा बैठा
है जैसा छोड़
गया था। और
दाने वैसे ही
के वैसे। एक
दाना यहां से
वहां नहीं
हटाया है।
उसने, कप्तान
ने पूछा कि
कोई अड़चन
इसमें भी है
आपको? उसने
कहा, अड़चन
है। अब सवाल
यह है कि बड़े
कर दो एक तरफ, छोटे कर दो
एक तरफ, मंझोल भी हैं कुछ, उनको कहां
करो? और जब
तक सब चीजें
बिलकुल साफ न
हो जाएं...मैं
बिना विचार के
कदम उठाता ही नहीं।
तो कप्तान ने
कहा, हम
आपके हाथ जोड़ते
हैं, आप
कृपा करके घर
जाएं और घर ही
विचार करें।
यह स्थान आपके
लिए नहीं है।
सैनिक
को हम आदत में
ढालते हैं।
धीरे—धीरे वह
यंत्रवत हो
जाता है। तभी
तो यह संभव होता
कि हिरोशिमा
पर एटम बम गिर
देता है। नहीं
तो सोचेगा नहीं
आदमी: एक लाख
आदमी मेरे बम
गिराने से मर
जाएंगे! इससे
तो बेहतर है
कि मैं कह दूं
कि मुझे गाली
मार दो। ये एक
लाख आदमियों
में छोटे—छोटे
बच्चे होंगे, गर्भिणी
स्त्रियां
होंगी, अभी—अभी
विवाहित युवक
होंगे, अभी—अभी
विवाहित
युवतियां
होंगी, अभी
हनीमून पर
जाने के लिए
तैयार जोड़े
होंगे, वृद्ध
होंगे, वृद्धाएं होंगी, बीमार
होंगे, रुग्ण
होंगे—यह हीर—भरी
बस्ती, एक
लाख लोग, ये
मिट्टी में
मिल जाएंगे, एक पांच
सेकेंड
लगेंगे और राख
हो जाएंगे!
मैं इन्हें
राख करूं?
लेकिन
सवाल ही नहीं
उठता उसे यह।
वह सिर्फ अपनी
आज्ञा का पालन
करता है। उसे
कहा गया है जो, वही करता
है। वह
उत्तरदायित्व
के संबंध में
सोचता ही
नहीं।
उत्तरदायित्व
शब्द उसके
भीतर होता ही
नहीं कि मेरा
कोई मानवीय
दायित्व भी है;
कि मेरे
भीतर भी कोई
नैतिक अंतस्चेतन
होना चाहिए; कि मेरा भी
कोई अंतःकरण
है। अंतःकरण
को तो हम मिटा
डालते हैं।
वह एटम
बम गिरा कर
सैनिक रात मजे
से सोया। सुबह
जब पत्रकारों
ने उससे पूछा
कि रात सो सके—क्योंकि
कौन ऐसा आदमी
होगा जो एक
लाख आदमियों को
मारकर और रात
सो सके!—उसने
कहा, मैं बड़ी
निश्चिंतता
से सोया।
क्योंकि जो काम
दिया गया था, वह पूरा कर
दिया। फिर
नींद के
अतिरिक्त और
क्या है? नींद
मुझे गहरी आई।
एक लाख आदमी
जल—भुन गए और
यह आदमी रात
भर गहरी नींद
सोया रहा! आदमी
हमने मिटा
दिया इसके
भीतर से।
दुनिया
में जब तक
राष्ट्र हैं, सेनाएं
रहेंगी। और जब
तक सेनाएं हैं,
तब तक करोड़ों
लोग बिना
आत्मा के
जीएंगे। उनका
काम ही यही है
कि वे मशीन की
तरह व्यवहार
करें।
भारतीय
सरकार ने ठीक
ही किया है।
यहां मेरे पास
जगह—जगह से
पत्र आ रहे
हैं सैनिकों
के, जिनमें
कुछ संन्यासी
हैं, जो
बहुत मुझमें
उत्सुक हैं
उनके पत्र आ
रहे हैं कि
सरकार की
सूचनाएं मिली
हैं कि न तो
मेरी कोई
किताब पढ़ी जाए,
न टेप सुने
जाएं, न
मुझसे किसी
तरह का संबंध
रखा जाए।
मुझसे किसी
तरह का भी
संबंध रखना
सेना से बगावत
समझी जाएगी।
बात सच है।
बात ठीक ही
है। क्योंकि
मैं जो कह रहा
हूं, वह
कोई एक ही
सेना से बगावत
की बात नहीं
है, मैं तो
चाहता हूं इस
दुनिया में
सेना रह ही न
जाए। इसलिए सरकार
ठीक ही बात कह
रही है।
क्योंकि मेरी
बात सैनिकों
तक नहीं
पहुंचनी
चाहिए। अगर यह
उन तक पहुंचेगी
और उनको यह
बोध होना शुरू
हो जाए कि
उनका जीवन किस
तरह नष्ट किया
जा रहा है, किस
तरह उनकी
आत्मा को
धूमिल किया जा
रहा है, किस
तरह उनकी
चेतना को
आदतों में
दबाया जा रहा
है, किस
तरह उनको
मशीनों में
बदला जा रहा
है, तो
शायद उनके
भीतर भी अपनी
आत्मा को इस
तरह नष्ट न
होने देने के
लिए विचार
उठे। मेरी बात
खतरनाक हो
सकती है।
मेरी
बात का मौलिक
आधार यही है
कि मनुष्य के
भीतर सबसे बड़ी
कीमती, मूल्यवान
चीज है उसकी
चेतना। और जिन
कारणों से भी
चेतना नष्ट हो
जाती है, वे
सभी कारण घातक
हैं। आदत सबसे
बड़ी घातक चीज है।
तुमने
कहा गया है
बार—बार कि
अच्छी आदतें
होती हैं, बुरी आदतें
होती हैं; मैं
तुमसे कहता
हूं कि सब
आदतें बुरी
होती हैं। आदत
मात्र बुरी
होती है। आदत
ही बुरी होती
है। एक आदमी
को आदत है कि
वह सिगरेट
पीता है, इसको
हम कहते हैं, बुरी आदत।
क्या बुरा है
इसमें? यह
आदमी धुआं
भीतर ले जाता
है, बाहर
ले जाता है।
स्वास्थ्य के
खिलाफ है जरूर,
शायद सत्तर
साल जीता तो
अब दो साल कम जीएगा, शायद
यह आदमी जानता
नहीं कि
स्वच्छ और
ताजी हवाओं को
भीतर ले जाने
में ज्यादा
सार है—ज्यादा
आयुवर्द्धक, ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक—यह
नाहक हवाओं को
गंदा करके
भीतर ले जा
रहा है, नासमझ,
मगर कोई पाप
नहीं कर रहा
है। और इसको
जब समय पर सिगरेट
नहीं मिलती है
तो तलफ लगती
है। मैं इसके
धुएं के बाहर—भीतर
ले जाने को या
थोड़ी—सी निकोटिन
इसके भीतर
पहुंच जाने को
कोई पाप नहीं
मानता। लेकिन
बिना सिगरेट
के यह नहीं जी
सकता, इस
बात में असली
भूल है। यह
आदत का गुलाम
हो गया। इसको
सिगरेट न मिले
तो यह मुश्किल
में पड़ जाएगा।
जब
पहली दफा
उत्तरी ध्रुव
पर यात्री गए, तो उनकी नाव
फंस गई। सोचा
था कि लौट
आएंगे समय पर,
लेकिन नहीं
लौट सके, तीन
सप्ताह देर से
लौट पाए। उन
तीन सप्ताह
में उन
यात्रियों की
डायरी में जो
उल्लेख
है...भोजन चुक
गया, उसकी
लोगों को
फिक्र नहीं, मछलियां मार कर किसी
तरह भोजन कर
लेते, सबसे
बड़ी दिक्कत खड़ी
हो गई कि
सिगरेट चुक
गई। तीन
सप्ताह के लिए
सिगरेट नहीं
थी। और कैप्टन
इतना घबड़ा गया
कि लोग जहाज
की रस्सियां
काट—काट कर
पीने लगे। अब
अगर सब रस्सियां
कट जाएं तो
फिर यात्रा हो
ही नहीं सकती।
उसे लोगों को
पहरे पर रखना
पड़ता कि कोई रस्सियां
न काटे। मगर
जिनको पहरे पर
रखता, वे
ही रस्सियां
काट कर पी
जाते। अब तुम
सोच नहीं सकते
कि कोई जहाज
की सड़ी—गली
रस्सियों को
काटकर और पीएगा।
लेकिन आदत आदत
है। आदमी किसी
भी मजबूरी के
लिए राजी हो
सकता है।
मजबूरी में
किसी चीज के
लिए राजी हो
सकता है।
मैं
सिगरेट पीने
को पाप नहीं
कहता। लेकिन
वह जो आदत है...।
अगर कोई
सिगरेट पीने
का मालिक हो, कि जब चाहे
पी ले और जब
चाहे छोड?
दे; आज
पी ले और फिर
छह महीने नाम
न ले, फिर
पी ले एक दिन
और फिर ऐसे रख
दे जैसे कभी न
पी थी, तो
मैं कुछ एतराज
नहीं करूंगा,
मैं कहूंगा—यह
मालिक है
अपना। इसकी
मौज! कभी अगर एकाध
दहा धुआं उड़ाने
का मजा इसे
लेना होता है
तो ले लेता
है। मगर यह कोई
आदत नहीं है; तो पाप नहीं
है। पाप निकोटिन
में नहीं है, पाप सिगरेट
में नहीं है, तमाखू में
नहीं है, पाप
अगर कहीं है
तो आदत में
है। तो फिर
बात बदल जाएगी।
फिर हमें पूरा—का—पूरा
दृष्टिकोण
बदलना पड़ेगा।
एक
आदमी है कि
जिसको आदत है
कि रोज सुबह
माला जपे।
अगर एक दिन
माला न जपे, तो तलफ लगती
है—उसको भी
मैं तलफ ही
कहता हूं, है
वह तलफ ही।
हालांकि वह
आदमी कहता है
कि बिना माला जपे मुझे
अच्छा नहीं
लगता; मुझे
राम से ऐसा
लगाव है; प्रभु
की मुझे ऐसी
याद आती है; वह धार्मिक
शब्दों का
उपयोग करता है,
सच बात यह
है कि तकलीफ, वह जब तक
माला...अब माला
जपने में कौन—सी
खूबी हो सकती
है? गुरिए
सरका रहा है
और राम—राम, राम—राम, राम—राम
और गुरिए सरका
रहा है और राम—राम,
राम—राम कर
रहा है, जब
तक वह अपनी
संख्या पूरी न
कर ले, अगर एक
हजार आठ बार
करना है माला
का जप तो एक
हजार आठ बार न
कर ले—अगर एक
हजार सात बार
भी किया तो
दिन भर उसे
खटक लगी रहेगी
कि कुछ कमी रह
गई, कुछ
कमी रह गई—यह
आध्यात्मिक
ढंग का निकोटिन
है। इसमें कुछ
बहुत फर्क
नहीं है। यह
आदत धार्मिक
है मगर उतनी
ही घातक है
जितनी पहली
आदत। शायद
थोड़ी ज्यादा
घातक है।
क्योंकि पहली
तो बुरी है, ऐसा लोगों
को पता है; दूसरी
आदत बड़ी अच्छी
है, ऐसा
लोगों को पता
है।
मैं एक
यूनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
था। घूमने जाता
था रोज सुबह।
यूनिवर्सिटी
के एक प्रोफेसर
भी मेरे साथ
घूमने जाते
थे। उनको आदती
थी कि कोई भी
मंदिर देखें
तो हाथ जोड़कर
नमस्कार करना
है। मैं जरा
परेशान हुआ।
क्योंकि जहां
से हम गुजरते
थे, कहीं मढ़िया
हनुमान जी की
आ जाए, कहीं
शिव जी का
शिवलिंग आ जाए,
कहीं
रामचंद्र जी
का मंदिर आ
जाए, वे
जल्दी से खड़े
हो जाएं—उनके
साथ मुझे भी
खड़ा होना पड़े।
अब उनके साथ, घूमने उनको
ले गया हूं, तो इतना तो
शिष्टाचार
रखना ही पड़े।
मैंने उनसे
कहा, यह
मामला क्या है?
उन्होंने
कहा, यह
बचपन से मेरी संस्कारशीलता...सुसंस्कार!
मेरे माता—पिता
बड़े धार्मिक
थे। उन्होंने
मुझे यह सिखाया।
मैंने कहा, यह कोई सुसंस्कार
नहीं है, यह
सिर्फ एक जड़
आदत है।
उन्हें बहुत
समझाया, उनके
बात कुछ सिर
में घुसी।
मैंने
कहा कि अगर यह सुसंस्कार
है, तो कल तुम
मेरे साथ चलो
और तय कर लो कि
चाहे हनुमान
जी मिलें और
चाहे शिव जी
मिलें, चाहे
राम जी मिलें—कोई
भी मिले—नमस्कार
नहीं करना। बस
पहली हनुमान
जी की मढ़िया
जैसे—जैसे
करीब आने लगी,
उनकी हालत
देखने जैसी!
सुबह की ठंडी
हवा और उनके
माथे पर
पसीना। और वे
हाथों को अकड़ाए
हुए, क्योंकि
डरे। कि वे
हाथ न जोड़ लें,
नहीं तो
मेरे
साथ...मैंने
कहा कि बस यह
आखिरी दिन है,
आज तय हो
जाएगा, या
तो मेरा साथ, या हनुमान
जी का साथ। अब
तुम तय ही कर
लो। तुम अपनी
पार्टी
निश्चित कर
लो! वे मेरा
साथ छोड़ना भी
नहीं चाहते थे—और
हनुमान जी का
कैसे छोड़ें।
और हनुमान जी
बैठे हैं, और
देख रहे। और
बस जैसे—जैसे
उनकी मढ़िया
करीब आने लगी,
वे मुझसे
बोले कि माफ
करें, मेरी
हिम्मत मढ़िया
के सामने से
बिना नमस्कार
किए निकलने की
नहीं है—मैं
गिर पडूंगा।
मेरे पैर लड़खड़ा
रहे हैं! और
मैंने कहा, तुम इसको
संस्कार कहते
थे? सुसंस्कार?
तुम इसको
धार्मिकता
समझते थे? और
कहां के
हनुमान हैं
यहां! एक
पत्थर पर लोगों
ने लाल रंग
पोत दिया है।
मैंने
उनको कहा कि
जब अंग्रेजों
ने पहली दफा भारत
में रास्ते
बनाए और
रास्ते के
किनारे मील के
पत्थर लगाए, तो उनको कुछ
पता नहीं था, उन्होंने
मील के पत्थर
लाल रंग से
रंगे, क्योंकि
लाल रंग दूर
से दिखाई पड़ता
है। और हरियाली
हो चारों तरफ,
वृक्ष—पौधे
हों, तो
लाल रंग ही
दिखाई पड़ेगा,
दूसरा रंग
छिप जाएगा।
मगर वे बड़ी
मुश्किल में
पड़े, क्योंकि
मील के पत्थर
जहां—जहां
उन्होंने
लगाए, लोग
उनकी पूजा
करने लगे।
क्योंकि इस
मुल्क में तो
लोग हनुमान जी
को इसी तरह तो
बनाते रहे हैं।
कहीं भी पत्थर
खड़ा कर दो, लाल
रंग पोत दो, दो फूल चढ़ा
दो, फिर
तुम्हारे
पीछे जो आएगा
वह झुककर
नमस्कार करने
वाला है। न हो
तो तुम करके
देखो। एक पत्थर
रख कर अपने घर
के समाने लाल
रंग पोत दो, सेंदुर पोत
कर दो फूल
वहां रख दो, बस तुम देखोगे
कि चले लोग! और
फूल चढ़ने
लगे, पैसे
भी चढ़ने
लगे, नमस्कार
भी होने लगे।
और
लोगों की मनोकांक्षाएं
भी पूरी होने
लगेंगी यह भी
खयाल रखना।
क्योंकि पचास
मूरख आएंगे तो
दस—पांच की तो
हो ही जाएंगी
पूरी। वैसे भी
हो जातीं, वे न आते तो
भी। गांव के
लोगों को
समझाना पड़ा अंग्रेजों
को, बहुत
मुश्किल से
समझाना पड़ा कि
भाई, ये
हनुमान जी
नहीं हैं, यह
मील का पत्थर
है।
मैंने
उसने कहा, कहां के
हनुमान जी! बोले
कि बात तो
आपकी समझ में
आती है, मगर
मेरा दिल
क्यों धड़कता
है? बस ठीक
हनुमान जी की मढ़िया
सामने आई कि
उन्होंने तो
हाथ जोड़ लिए।
उन्होंने
मुझसे कहा, आप चाहे साथ
रखो, चाहे
न रखो, मगर
हनुमान जी को
छोड़ कर मुझे
चैन न रहेगी।
मेरा दिन भर
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
अब इसको
क्या कहोगे? शराब की लत, अफीम की लत, कि सिगरेट
पीने की लत और
इस लत में कुछ
भेद है?
फिर
शराब में तो
कुछ केमिकल भी
हैं जो नशा
लाते हैं।
अफीम में तो
कुछ है बात, जिससे नशा चढ़ता है।
अफीम चाहे
हिंदू को
पिलाओ, चाहे
मुसलमान को, चाहे ईसाई
को, तीनों
को नशा लगेगा।
लेकिन अनुमान
जी की मूर्ति
के सामने
सिर्फ हनुमान
के भक्त को ही
नशा लगता है—और
किसी को नहीं
लगता। इसलिए
मामला शुद्ध
मनोवैज्ञानिक
है। बाहर कुछ
भी नहीं है।
मस्जिद के
सामने से
हिंदू बिलकुल
ऐसे निकल जाता
है कि उसे पता
ही नहीं चलता
है कि मस्जिद
थी। उसी मस्जिद
के सामने
मुसलमान का
भाव देखो!
कैसा भाव—विभोर
हो जाता है! वह
अल्लाह का घर
है। जैन मंदिर
के सामने कभी
हिंदू को कोई
चिंता होती है?
शास्त्रों
में तो लिखा
है कि पागल
हाथी के पैर
के नीचे दब कर
मर जाना, मगर
अगर जैन मंदिर
में शरण मिलती
हो तो मत लेना।
और जैन शास्त्रों
में भी यही
लिखा है।
क्योंकि
शास्त्रों में
कुछ भेद नहीं
है। ये एक ही
तरह के लोग
लिखते हैं।
इनके नाम, विशेषण
भिन्न हों, मगर इनकी
बौद्धिकता
में कोई
भिन्नता नहीं
होती। इनकी मूढ़ता में,
जड़ता में कोई भेद
नहीं होता।
जैन
शास्त्रों
में भी ठीक
यही लिखा है
कि अगर कोई
जैन पाए कि
पागल हाथी
उसके पीछे पड़ा
है और लगता हो
कि पास में ही
हिंदू मंदिर
है, प्रवेश
कर जाए तो बच
सकता है, मगर
प्रवेश मत
करना। पागल
हाथी के पैर
के नीचे दब कर
मर जाने से
स्वर्ग
मिलेगा, मगर
हिंदू मंदिर
में प्रवेश
किया तो नर्क
निश्चित है।
यह तो
बिलकुल मनोवैज्ञानिक
जाल है। इस
जाल में तो
कुछ भी अर्थ
नहीं है। यह
तो सिर्फ
तुम्हारा
बनाया हुआ भ्रम
है।
जिनको
तुम अच्छी
आदतें कहते हो, अगर वे
आदतें हैं, तो अच्छी
नहीं। मुक्ति,
स्वातंत्र्य
अच्छी बात है।
अब अगर
एक आदमी मजबूर
है तीन बजे उठ
कर घूमने जाने
को—चाहे बीमार
भी हो, चाहे
धुआंधार
वर्षा हो रही
हो, चाहे
बर्फ पड़ रही
हो, मगर
उसको जाना ही
पड़ेगा—तो यह
मनोवैज्ञानिक
रोग है। यह
कोई ब्रह्ममुहूर्त
में घूमना
नहीं है।
एक
महिला मेरे
पास आई और
उसने कहा कि
मेरे पति आपके
पास आते हैं, हम थक गए, आप
ही कुछ करें।
क्योंकि शायद
आपकी मानें वे,
और किसी की
तो वे मानते
नहीं। मैंने
पूछा, क्या
अड़चन है? तो
उसने कहा कि
वे आधी रात उठ
आते
हैं...सरदार जी थे।
बड़े ओहदे पर
थे, मिलिट्री
में थे। मेरे
पड़ोस में ही
रहते थे। कभी—कभी
आते थे... पत्नी
ने कहा, आधी
रात उठ आते
हैं और इतने
जोर से जपु
जी का पाठ करते
हैं—एक तो
सरदार, फिर
मिलिट्री में,
मजबूत और
फिर जपु
जी का पाठ—घर
में सोना हराम
हो गया! न
बच्चे सो सकते,
न मैं सो
सकती। पास—पड़ोस
के लोग भी
एतराज करते
हैं। और उनसे
कुछ कहो तो वे
कहते हैं, तुम
सब नास्तिक हो;
धार्मिक
कार्यों में
बाधा डालते
हो! अरे तुम भी
उठो और तुम भी जपु जी का
पाठ करो! मैं
तो करता ही
इसलिए इतने
जोर से हूं कि
जिससे तुमको
भी कुछ बोध
आए। सोए—सोए
भी तुम्हारे
कान में ये
शब्द पड़ गए तो
अमृत हैं। वे
तो सुनने वाले
नहीं। दो बजे
रात उठ आते!
मैंने
उनसे पूछा, मैंने कहा:
चरन सिंह, तुम्हारी
पत्नी कहती है
कि तुम आधी
रात उठ कर
जपुजी का पाठ
करते हो। अरे—कहा—आधी
रात, नहीं,
ब्रह्म
मुहूर्त! दो
बजे सुबह!
अंग्रेजी
हिसाब से दो
बजे सुबह होता
है, बिलकुल
ठीक। क्योंकि
बारह बजे एक
दिन खतम हो गया।
फिर तो एक बजे,
दो बजे...यह
तो फिर दूसरे
दिन में गिनती
है इनकी।
अंग्रेजी
हिसाब से दो
बजे सुबह। कौन
कहता है आधी
रात? मेरी
पत्नी की
बातों में मत पड़ना, वह
तो उलटी—सीधी
खबरें उड़ाती
है मेरे बाबत।
वह तो कहती है,
मैं चिल्ला—चिल्ला
कर जपु जी
का पाठ करता
हूं। अरे, यह
मेरा सहज स्वर
है! इसमें कोई
चिल्लाना
नहीं है। और
क्या आप जैसा
धार्मिक
व्यक्ति भी
इसके विरोध
में है? मैंने
कहा कि नहीं, तुम करते तो
अच्छा ही हो, सिर्फ इन
बेचारे
अधार्मिकों
पर थोड़ी दया
करो, और
अगर दो से तुम
चार बजे कर दो
तो अच्छा
होगा। उन्होंने
कहा, बहुत
मुश्किल बात
है। तो दो
घंटे मैं क्या
करूंगा? मैं
पगला जाऊंगा।
दो बजे के बाद
मुझे नींद आती
नहीं, आ
सकती नहीं, जिंदगी—भर
का अभ्यास है।
वह तो यह समझो
कि जपु जी
में उलझा रहता
हूं, नहीं
तो कुछ और
उपद्रव कर
बैठूंगा।
मैंने कहा, यह बात जरूर
सोचने—विचारने
जैसी है!
पत्नी को इसका
कुछ अंदाज नहीं
है।
मैंने
पत्नी को कहा
कि वे यह कहते
हैं कि दो बजे
से चार बजे
फिर मैं क्या
करूंगा? कुछ
और उपद्रव कर
बैठूंगा।
पत्नी ने कहा,
अगर कुछ और
उपद्रव करना
हो तो भइया, जपु
जी का पाठ ही
करो!
अच्छी
आदतें भी
आदतें हैं। और
जिन चीजों से
भी मालकियत खो
जाती हो, उनमें
आत्मा नष्ट
होती है।
पलटू
कहते हैं—
बनिया
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।।
पसंघा मारै जाय, पूर को मरम
न जानी।
निसिदिन तौलै घाटि
खोय यह
परी पुरानी।।
यह
पुरानी जो आदत
पड़ गई है, छोड़ता
नहीं है। रोज
वही किए जाता
है—वही खोट।
ऐसे
दिये वक्त ने झांसे
हारे
राजा नकल के
पांसे।
बदल
गया सब दाना
पानी
तारत्तार
हो गई जवानी
जैसे
कोई बूढ़ा खांसे।
हुए
बसंत, हलंत
हमारे
टुकड़े—टुकड़े
हुए सितारे
सपने
टूटे यहां—वहां
से।
जीवन
आखिर—आखिर में
बस ऐसा ही
पाया जाता है
कि गंवाया। एक
सपना यहां टूट
गया, एक सपना
वहां टूट गया,
सारे यात्रापथ
पर टूटे हुए
सपनों के ढेर
लगते जाते हैं
और हाथ सत्य
कभी लगता
नहीं।
क्योंकि सत्य
तुम्हारे
आंतरिक
स्वातंत्र्य
में है। उस
स्वतंत्रता
को हमने मोक्ष
कहा है। वह
तुम्हारी परम
धन्यता की अवस्था
है। लेकिन उस
स्वतंत्रता
को पाना हो, तो आदतों से
मुक्त होना
पड़ेगा। फिर वे
बुरी हों कि
अच्छी, इससे
सवाल नहीं है।
बंधन बुरा है,
मुक्ति
अच्छी है।
केतिक
कहा पुकारि, कहा नहिं करै
अनारी।
और
कितना पुकारो, कितना पुकार—पुकार
कर कहा है
संतों ने, जागे
पुरुषों ने—उठो
अपनी आदतों से,
स्वतंत्रता
से जीओ!
केतिक
कहा पुकारि, कहा नहिं करै
अनारी।
लालच
से भा पतित, सहै
नाना दुख
भारी।।
मगर
नहीं, तुम
अपने लालच में
ही पड़े हो।
तुम अपने लोभ
में ही पड़े
हो। लोभ भी एक
आदत है। लोभ
का अर्थ है: और;
और की आदत।
तुम्हारे पास
दस हजार रुपए
हैं; जब
नहीं थे तो
तुम सोचते थे,
दस हजार हो
जाएं तो बस
पर्याप्त; जब
दस हजार हो
जाते हैं तो
तुम कहते हो, लाख हो जाएं
तो पर्याप्त।
वह दस का
अनुपात बना ही
रहता है।
जितने हैं, उससे दस गुने।
और यह तुम कभी
सोचते भी नहीं
कि दस हजार भी
हो गए, फिर
कुछ न हुआ; लाख
भी हो गए, फिर
कुछ न हुआ; दस
लाख भी हो गए, फिर कुछ न
हुआ। दस करोड़
भी हो जाएंगे,
तो कैसे कुछ
हो जाएगा? आखिर
यह मात्रा का
बढ़ता जाना ही
जीवन में कोई
क्रांति तो
नहीं ला सकता।
गुणात्मक
परिवर्तन
होना चाहिए, परिमाणात्मक परिवर्तन
से कोई भी
क्रांति नहीं
होती।
एक
मकान से दो
मकान हो गए, दो से चार
मकान हो गए—इससे
क्या होगा? तुम तो वही
के वही हो। एक
मकान में रहो
कि चार मकानों
में रहो, तुम
तो वही के वही
हो। तुम्हारी तिजोड़ी
में कितने नोट
हैं, इससे
तुम्हारी
आत्मा में कोई
समृद्धि न
बढ़ती है, न
घटती है। तुम
तो वही के वही—दीन,
भिखारी।
तुम्हारा भिक्षापात्र
कभी भरेगा
नहीं।
लालच
से भा पतित, सहै
नाना दुख
भारी।।
और
कितने दुख
झेलते हो! मगर
फिर भी जागते
नहीं। जिन
दुखों को
झेलते हो, उन्हीं
दुखों को रोज—रोज
पैदा करने की
चेष्टा भी
करते हो। जिस
चीज से कल दुख
पाया था, फिर
आज उसी के
पीछे दौड़ रहे
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
सुबह ही सुबह
नाश्ते की
टेबल पर बैठा
चुपचाप अखबार
पढ़ रहा था।
पत्नी अंट—शंट
बके जा
रही थी, मगर
वह अपना अखबार
ही पढ़े जा
रहा था। पत्नी
ने कहा, कुछ
खाओगे—पीओगे
नहीं? मुल्ला
ने कहा, अखबार
में छपी
गालियां खा
रहा हूं। तू
चुप रह! इतनी
गालियां काफी
हैं, तू और
सिर खा रही
है। पत्नी ने
अपना सिर ठोंक
लिया—जो उसकी
आदत थी—उसने
कहा कि किसके
पल्ले पड़ गई!
जिंदगी खराब हो
गई! कम—से—कम
सुबह तो ढंग
से बोला करो।
सुबह तो ठीक
से शुरू हो।
सुबह ही से सब
खराब कर देते
हो, ऐसी
वाणी बोलते
हो। और इस तरह
व्यवहार करते
हो...मैं कोई
तुम्हारे
पीछे पड़ी थी!
तुम्हीं मेरे पीछे
पड़े थे। प्रेम—पत्र
किसने पहले
लिखा था? और
कौन छुट—छुप
कर मेरी गली
में आता था? और रात चोरी
से कौन मेरे
दरवाजे
खटकाता था? मैं
तुम्हारे घर
गई थी? मैंने
चिट्ठी लिखी
थी. मैं
तुम्हारी गली
में गई थी? मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा कि
नहीं, मैं
ही गया।
क्योंकि
हमेशा चूहा ही
चूहादानी
की तरफ जाता
है, चूहादानी नहीं जाती। चूहादानी
तो अपनी जगह
बैठी रहती है।
मैं मूरख!
फिर
दूसरी कहानी
है कि पत्नी
बीमार पड़ी—कुछ
संघातक
बीमारी हो गई, मरने के
करीब है।
मुल्ला से
उसने कहा कि
बस, जीवन
में तुमने दुख—ही—दुख
दिए, मरते
वक्त एक सुख
दे दो—एक
आश्वासन।
मुझे पक्का
मालूम है, इधर
मैं मरी कि
उधर तुमने
शादी की। मुल्ला
ने कहा, कभी
नहीं, कभी
नहीं, एक
अनुभव बहुत
है! इस जनम में
क्या, दस
जन्मों तक अब
शादी करने
वाला नहीं
हूं। तूने जो
पाठ दिए हैं, कभी भूलूंगा
नहीं। यह बात
ही मत उठा।
लेकिन पत्नी
ने कहा कि तुम छोड़ो यह
बकवास, मैं
तुम्हीं
जानती हूं, भलीभांति
जानती हूं—मुझ
से बेहतर
तुम्हें कौन
जानता है—इधर
मैं मरी कि
उधर तुमने
शादी की। एक
वचन मुझे दे
दो कि मेरे
कपड़े, मेरे
गहने
तुम्हारी नई
पत्नी को नहीं
पहनने दोगे।
मेरी आत्मा को
बहुत दुख
होगा। मुल्ला
ने कहा, अब
तूने बात ही
उठा दी, तो
साफ बता दूं, रजिया को तेरे
कपड़े बनेंगे
भी नहीं।
अभी
मरी भी नहीं
है पत्नी और
दूसरी चूहादानी
की उन्होंने
तैयारी कर ली!
एक आदत
से आदमी छूटता
भी नहीं है कि
दूसरी के लिए
तैयार कर लेता
है। पहले ही
तैयारी कर
लेता है कि
कहीं ऐसा न हो
खाली रह जाऊं।
लोग आदतें बदलते
रहते हैं।
सिगरेट पीने
वाला पान खाने
लगता है। वह
कहता है, सिगरेट
छोड़ दी, पान
खाते हैं। पा
खाने वाला पान
खाना छोड़ देता
है, तमाखू मलने लगता
है। वह कहता
है, हम
तमाखू खाते
हैं। मेरे एक
परिचित हैं, उन्होंने
तमाखू भी छोड़
दी। अब वे नसनी,
नस सूंघा
करते हैं। वह
और भद्दी लगती
है, उनकी
नाक लाल...और
बीच—बीच में
निकालकर
डिबिया वह नसनी...!
मैंने उनसे
कहा, भइया,
तुम तमाखू
ही खाते थे तो
कम—से—कम किसी
को दिखाई तो
नहीं पड़ती थी।
सिगरेट पीते
थे तो कम—से—कम
थोड़ी देखने—दिखाने
में ढंग की
मालूम पड़ती
थी। यह और नससुंघनी
तुमने कहां से
सीख ली! मगर वह
कुछ—न—कुछ तो
चाहिए। एक
छोड़ते हैं, दूसरी को पकड़ते
हैं।
तुम
जरा अपने जीवन
को गौर से
देखना, यही
तुम्हारी गति
है। यह मन का
ही ढंग है। यह
मन का जाल है।
यह
मन भा
निर्लज्ज, लाज नहिं करै
अपानी।
यह मन
बहुत
निर्लज्ज है।
इसको लाज भी
नहीं आती, वही—वही मूढ़ताएं
रोज—रोज करता
है, फिर भी
लाज नहीं आती।
यह बहुत
निर्लज्ज है।
जिन
हरि पैदा किया
ताहि का मरम न
जानी।।
और सब
तो कर रहे हो, न मालूम
क्या—क्या कर
रहे हो—कैसे—कैसे
उलटे कामों
में लगे हैं
लोग! एक—से—एक
उपद्रव, जिनमें
कोई मूल्य
नहीं है। कोई
कुछ नहीं मिलता
तो पोस्टआफिस
के स्टैम्प ही
इकट्ठे कर रहा
है। उलझाएं
हैं अपने को
किसी तरह।
कैसी—कैसी
आदतें हैं
लोगों की, जरा
देखो। कोई
शतरंज ही खेल
रहा है। कोई
ताश के पत्तों
में ही उलझा
हुआ है। और
ऐसे उलझे हैं कि
जैसे जीवन—मृत्यु
का सवाल हो।
ताश के खिलाड़ियों
को देखो! सब
भूल—भाल कर
लगे हैं।
और इस
जिंदगी में और
भी सब खेल इसी
तरह के हैं।
राजनीति के खिलाड़ी
हैं, सब भूल—भाल
कर लगे हैं।
धन के खिलाड़ी
हैं। जैसे
जिंदगी में बस
एक काम है कि
मरते वक्त धन
का ढेर छोड़ कर
मरना। है। एक कौड़ी भी
साथ न ले जा
सकेंगे। और
मौलिक बात चूकी
जा रही है—जिन
हरि पैदा किया
ताहि का मरम न
जानी।
जिस स्रोत
से आए हो, उसको
कब खोजोगे?
उस अंतरतम
को कब खोजोगे,
जो
तुम्हारा
वास्तविक
जीवन है, जो
तुम्हारा
अस्तित्व है,
जो
तुम्हारा सार
है! उसका मरम
नहीं जाना!
चौरासी
फिरि आय
कै पलटू जूती खाय।
इतना
लंबा चक्कर
लगा कर आदमी
हो पाए हो और
इधर भी जूते
खा रहे हो! और
बीमारी छोटी
है। बीमारी
कुछ बड़ी नहीं
है। पलटू यह
कह रहे हैं, बीमारी
सिर्फ एक बार
है कि
तुम्हारी
चेतना अभी
स्वतंत्र
नहीं है, परतंत्र
है, बस। और
आदतों के जाल
से घिर गई है।
बीमारियां बड़ी
नहीं हैं, बीमारियां
छोटी हैं, सीधी—साफ
हैं। शायद
इसीलिए
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़तीं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
जा रहा था
रास्ते से
बिलकुल घसिटता,
गालियां
देता हुआ।
डाक्टर मिल
गया। उसने कहा
कि क्योंकि
इतनी गालियां
दे रहे हो, बात
क्या है? उसने
कहा: मेरे पैर
में बड़ी तकलीफ
है। डाक्टर ने
कहा, तुम
मेरे साथ आओ, गालियां
देने से क्या
होगा! डाक्टर
ने कहा कि
तुम्हारे
अपेंडिक्स को
निकालना
पड़ेगा।
डाक्टर ने
बहुत जांच की।
जब डाक्टर
बहुत जांच करे
और कुछ न मिले,
तो
अपेंडिक्स
निकालता है।
पक्का समझ
लेना, जब
भी डाक्टर कहे—अपेंडिक्स,
समझ लेना कि
उसको कुछ मिल
नहीं रहा है।
अपेंडिक्स
बिलकुल
निर्दोष चीज है।
उसको निकाल
बाहर कर दिया।
मगर दर्द था
सो जारी ही
रहा।
दूसरे
डाक्टर के पास
नसरुद्दीन
गया कि भई, होगा क्या
मामला? अपेंडिक्स
भी निकल गई!
उसने कहा कि
तुम्हारे टान्सिल
निकाल
पड़ेंगे। जब
अपेंडिक्स
निकल जाए, तो
टान्सिल।
टान्सिल
भी निकल गया, मगर दर्द
जारी रहा।
तीसरे
के पास गया, उसने कहा कि
तुम्हारे
दांत बदलने
पड़ेंगे। दांत
भी निकल गए, मगर दर्द था
सो जारी—का—जारी
रहा। हालत भी
खराब हो गई—दांत
निकल गए, अपेंडिक्स
निकल गई, टान्सिल निकल गए...अब
कुछ निकलने को
बचा भी नहीं—बस
ये तीन ही
चीजें निकाल
सकते हो—हालत
बिलकुल उसकी
खस्ता हो गई, बिलकुल
मुर्दा जैसी
हालत हो गई।
बिलकुल झुक कर
चलने लगा, लकड़ी
टेक—टेक कर
चलने लगा। और
फिर एक दिन
लोगों ने देखा,
उसने लकड़ी
फेंक दी है, सीधा खड़ा हो
गया है और
मुस्कुराता
हुआ, फिल्मी
धुन
गुनगुनाता
हुआ चला जा
रहा है। लोगों
ने पूछा, अरे
भाई, कोई
चिकित्सक मिल
गया जिसने
बीमारी ठीक कर
दी? उसने
कहा, ऐसी
की तैसी
चिकित्सकों
की! मेरे जूते
में खीली थी, वह गड़ती
थी, उसकी
वजह से
परेशानी हो
रही थी। नालायकों
की समझ में
आया नहीं। बड़ी—बड़ी
जांच—पड़ता की...कार्डियोग्राम
इत्यादि...। अब कार्डियोग्राम
में कहीं जूते
में लगी खीली
आए!
तुम्हारी
जिंदगी में भी
कोई सवाल बड़े
नहीं हैं। और
पंडित बड़े—बड़े
समाधान लिए
बैठे हैं।
तुम्हारी
जिंदगी के
सवाल भी बहुत
छोटे हैं। समझ
हो तो जूते की
खीली निकालने
जैसे हैं।
आदतों
से मुक्त होओ!
इसलिए
मैं अपने
संन्यासी को
कोई अनुशासन
नहीं देता, क्योंकि
अनुशासन आदत
बन जाते हैं।
मुझसे लोग
पूछते हैं, कि संन्यासी
को कितने बजे
उठना चाहिए? मैंने कहा, जितने बजे
नींद खुले।
क्या खाना
चाहिए? कब
खाना चाहिए? कितनी बार
खाना चाहिए? अगर ये
बातें तुम
मुझसे पूछोगे
तो आदतें बन
जाएंगी। यह
तुम्हारी
चेतना को ही
निर्णय लेना चाहिए।
अगर इतना होश
भी नहीं है कि
कब उठना, कब
खाना, कब
पीना, तो
तुम आशा छोड़ो
कि तुम जीवन
के मूल को, कि
जीवन के सत्य
को कभी जान
सकोगे! अगर ये
बातें भी तुम
दूसरों से
पूछते फिरोगे—जिंदगी
अपनी अगर
तुम्हें जीना
नहीं आता, अगर
जिंदगी को
थोड़ा संवार कर,
सुंदर करके
जीना नहीं आता
तो तुम और
क्या करोगे?
वह
खाना चाहिए, जो परेशानी
में न डाले।
तब सो जाना
चाहिए, जो
स्वास्थ्यप्रद
हो। तब उठ आना
चाहिए, जब
जिंदगी ताजी
से ताजी हो।
जब तुम गीत गा
सको और नाच
सको। जब सूरज जगे, जब
पक्षी बोलें,
जब वृक्ष उठ
आएं, तब
तुम्हारा पड़े
रहना ठीक
नहीं। और भोजन
उतना कि शरीर
पर बोझ न हो।
और भोजन वह कि
किसी को दुख न
हो। सीधी—सीधी
बातें, इतनी
सीधी बातें भी
तुम तय न कर
सकोगे, यह
भी कोई
अनुशासन देगा?
तो फिर अड़चनें
होती हैं। फिर
अनुशासन में
तरकीबें
निकलती हैं।
अगर
मैं कहूं कि
पांच बजे सुबह
उठ आओ, तो तुम
पूछोगे—अगर
बुखार चढ़ा हो,
फिर? तो
कोई अपवाद
बनाना पड़ेगा।
अगर तबियत
बीमार हो, फिर?
अगर मैं
कहूं कि दो
बार भोजन करो
और तुम कहो कि मुझे
तो बीमारी है
और डाक्टर
कहते हैं कि
थोड़ा—थोड़ा
भोजन चार—छह
बार करो, तो?
फिर सवाल
उठने शुरू
होते हैं।
तुम
जानकर हैरान
होओगे कि
बौद्ध
ग्रंथों में
बौद्ध भिक्षु
के लिए तैंतीस
हजार नियम
हैं। याद भी
कौन रखेगा! जो
भिक्षु याद ही
कर लेगा
तैंतीस हजार
नियम, वह
पालन कब करेगा?
याद ही करने
में मर जाएगा।
तैंतीस हजार
नियम! मगर
बनाने पड़े
होंगे।
इसी
तरह तो कानून
बनते हैं
दुनिया में।
इसी तरह तो विधान
बनते हैं।
सरकार एक नियम
बनाती है, फिर लोग
उसमें से
तरकीब निकाल
लेते हैं, फिर
उस तरकीब को
मिटाने के लिए
और नियम बनाती
है, वे
उसमें से
तरकीब निकाल
लेते हैं—फिर
नियमों में से
नियम बनते चले
जाते हैं, फिर
इतने नियम हो
जाते हैं कि
तय ही करना
मुश्किल हो जाता
है कि यह
मामला क्या है?
नियम कौन—से
लागू होते हैं?
फिर नियम
विपरीत भी हो
जाते हैं।
क्योंकि हर परिस्थिति
को सम्हालने
के लिए एक
नियम बनाते जाते
हैं, फिर
नियमों का जाल
फैल जाता है, फिर
विशेषज्ञ
चाहिए जो
नियमों का
निर्णय करे कि
इसमें से
रास्ता क्या
है। फिर वकील
चाहिए। फिर
अदालत चाहिए।
संन्यासी
को स्व—निर्भर
होना है। उसे
स्व—चेतना से
जीना है। उसे
आदतों का
गुलाम नहीं होना
है। आदतें
होनी ही नहीं
चाहिए जीवन
में। जीवन स्व—स्फूर्त
होना चाहिए।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि तुम रोज
अलग समय पर जगो, क्योंकि आदत
नहीं होनी चाहिए;
कि रोज अलग
समय पर सोओ, क्योंकि आदत
नहीं होनी
चाहिए। नहीं,
जो
तुम्हारे लिए
सुखद और
प्रीतिकर लगे,
वह करो, लेकिन
उस करने को
आदत मत बना
लेना। उससे
अन्यथा कभी
करना पड़े, तो
एकदम परेशान
नहीं हो जाना
चाहिए। उससे
अन्यथा करने
की संभावना भी
खुली रखनी
चाहिए। क्योंकि
परिस्थितियां
बदलती हैं; और अन्यथा
भी कभी करना
होता है। हम
नियमों के गुलाम
नहीं हैं, नियम
हमारे सेवक
हैं।
चौरसी
फिरि आयकै
पलटू जूती खाय।
बनिया
बानि न छोड़ै, पसंघा मारै
जाय।।
इतना
चक्कर काट कर
आए हो, फिर
भी जागते
नहीं! अभी भी
जूते—पर—जूते
खाए जाते हो!
कोई और नहीं
मार रहा है, खुद ही को
मार रहे हो।
अगर दूसरे भी
मार रहे हैं, तो तुम
निमंत्रण
देते हो तब
मार रहे हैं।
सातपुरी
हम देखिया, देखे चारो
धाम।।
देखे
चारो धाम, सबन
मां पाथर
पानी।
पलटू
कहते हैं, सब देख आए, सब तीर्थ—पुरियां
देख लीं, चारों
धाम कर डाले, कुछ नहीं
पाया—पत्थर और
पानी, इसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं पाया।
वहां जीवंत धर्म
नहीं है। वहां
मरी हुई लाशें
हैं धर्म की।
और लाशों के
पास बैठे हुए
गिद्ध—पंडित
कहो, पुरोहित
कहो, पुजारी
कहो, वे
लाशों के पास
बैठे गिद्ध
हैं।
करमन
के बसि
पड़े, मुक्ति
की राह झुलानी।।
चलत
चलत पग
थके, छीन
भई अपनी काया।
खूब
यात्रा कर—करके
थक गए हैं, काया क्षीण
हो गई है, पैर
टूटने लगे हैं,
राह खो गई
है, कर्मों
का जाल फैल
गया है और
तीर्थों में
कुछ भी नहीं
पाया।
देखे
चारो धाम, सबन
मां पाथर
पानी।
अब
क्या करें? अब कहां
जाएं?
काम
क्रोध नहिं
मिटे, बैठ
कर बहुत
नहाया।।
खूब
घिस—घिस कर
नहाए, खूब
डुबकी मारी
जाकर, कुछ
मिटा नहीं।
लेकिन
यह देश हमारा
अदभुत मूढ़ता
से भरा है! यह
देश ही क्यों, सारी दुनिया,
सारी
मनुष्य—जाति!
छोटे—छोटे
लोगों को तो
छोड़ दो, जिनको
तुम
बुद्धिमान
कहते हो, उनकी
बातें सुनकर
भी बड़ा
आश्चर्य होता
है।
अभी
कुछ दिन पहले
अखबारों में
मैंने पढ़ा कि
जयप्रकाश
नारायण जब
पटना वापस
लौटे, तीन
महीने इलाज
करवाने के बाद,
तो धन्यवाद
उन्होंने जसलोक
अस्पताल के
चिकित्सकों
को नहीं दिया,
गंगा मइया
को दिया!
महाराज, अगर
गंगा मइया
को ही बचाना
था, तो कहो
को बंबई के लोगों
को परेशान
करते हो? काहे
जसलोक
अस्पताल को
तुमने जसलोक
सभा बना रखा
है? कि
वहां धारा—सभा
में तो कोई
नहीं दिखाई
पड़ता, सब जसलोक सभा
में मौजूद।
फिर काहे के
लिए डायलिसिसि...गंगा
का पानी पीओ, मजा करो! और
खुद ही डायलिसिस
पर नहीं हैं, संपूर्ण
क्रांति करवा
कर पूरे मुल्क
को डायलिसिस
पर रखवा दिया
है। और लौट कर
पटना में कहा
कि गंगा मइया
की कृपा से बच
कर आ गया।
छोटों
को छोड़ दो, जिनको तुम
बुद्धिमान
कहते हो, नेता
कहते हो, लोकनायक
कहते हो, उनमें
और तुम में
कुछ बहुत भेद
नहीं मालूम
होता। वही
गंगा मइया!
तो गंगा मइया
तो पटना में
ही उपलब्ध थी,
उनके घर के
पीछे ही बहती
होगी, कहो
को तकलीफ में
पड़ते हो और
दूसरों को
तकलीफ में
डालते हो? इंग्लैंड
से चिकित्सक
बुलाए गए, उनको
धन्यवाद नहीं;
जसलोक अस्पताल के
चिकित्सक जी—जान
तोड़कर
पीछे लगे रहे,
उनको
धन्यवाद नहीं;
धन्यवाद
गंगा मइया
का!
यह भारत
की
बुद्धिहीनता
कभी टूटेगी
या नहीं! इस
देश का बुद्धुओं
से छुटकारा भी
होगा या नहीं!
और बड़े—बड़े
बुद्धू!!
लेकिन
लोगों को ये
बातें जंचती
हैं। इसलिए
राजनीतिज्ञ
कुशल हैं, होशियार
हैं। लोग गंगा
मइया को
मानते हैं, इसलिए
राजनेता भी
कहता है: गंगा मइया की
कृपा से! और यह
गंगा मइया
की कृपा से
बिहार में हर
साल अकाल पड़ता
है! और गंगा मइया
की कृपा से
बिहार से
ज्यादा गरीब
और कौन है? और
गंगा मइया
की कृपा से
बिहार में
जितना उपद्रव
होता है, गोली
चलती है, दंगे—फसाद
होते हैं, हड़ताल—घिराव
होते हैं, उतने
और कहां होते
हैं! यह सब गंगा
मइया की
कृपा!
अभी
कुछ ही दिन
पहले मोरारजी
देसाई
गंगासागर में
स्नान करके
लौटे थे...गंगा मइया की
कृपा, देखो!
गंगा मइया
भी खूब कृपा
करती है!
चौरासी फिरि
आयकै
पलटू जूती खाय!
गंगासागर
होकर लौट आए, और दिल्ली
में आ कर गति बिगड़ी!
सोचा भी नहीं
होगा कि एकदम
से रामनाम
सत्त है हो
जाएगा! मगर हो
गया।
कल
किसी ने पूछा
था कि अब आप
मोरारजी भाई
के संबंध में
कुछ कहेंगे या
नहीं? अब
कहने को क्या
बचा! परमात्मा
उनकी आत्मा का
शांति दे!!
काम
क्रोध, नहिं
मिटे, बैठकर
बहुत नहाया।।
ऊपर
डाला धोय, मैल दिल बीच
समाना।
मैल तो
भीतर है। अंधकार
तो भीतर है।
अचेतना तो
भीतर है। तुम
बाहर धो रहे
हो। ध्यान से
मिटेगी, स्नान
से नहीं।
प्रेम से धुलेगी,
पानी से
नहीं।
पाथर
में गयो
भूल, संत
का मरम न
जाना।।
और तुम
पत्थर की
मूर्तियों
में—ये रहे
हनुमान जी, ये रहे शिव
जी, ये राम
जी—पत्थरों की
मूर्ति में भटके
हो! जीवित सदगुरु
को खोजो!
पाथर
में गयो
भूल, संत
का मरम न
जाना।।
अगर
कहीं कोई
जीवित संत हो, तो उसकी
तरंग में डूबो!
वहीं गंगा है,
वहीं तीर्थ
है।
तेरे
जलवों के आगे हिम्मते—शर्हे—बयां
रख दी,
जबाने—बे—निगह
रख दी, निगाहे—बे—जबां रख
दी।
मिटी
जाती थी
बुलबुल, जलवा—ए—गुल
हाय रंगीं
पर,
छुपा
कर किसने इन
पर्दों में बर्के—आशियां
रख दी
नियाजे—इश्क
को समझा है
क्या, ऐ वाइजे—नादां,
हजारों
बन गए काबे, जबीं मैंने कहा
रख दी।
सिर
रखने की कला
आती हो, सिर
झुकाने की कला
आती हो, तो
काबा बन जाता
है—हजारों
काबे बन जाते
हैं।
नियाजे—इश्क
को समझा है
क्या,ऐ वाइजे—नादां,
ऐ
नासमझ उपदेशक, हे मूढ़
पंडित, तूने
प्रेम की
शक्ति को समझा
क्या है! तूने
प्रेम—भक्ति
को समझा क्या
है!
नियाजे—इश्क
को समझा है
क्या, ऐ वाइजे—नादां,
हजारों
बन गए काबे, जबीं मैंने जहां
रख दी।
जहां
मैंने सिर
झुकाया—अंतःकरणपूर्वक, होशपूर्वक,
जाग्रति से—जहां
मैंने अहंकार
गिराया, वहां
काबा बना, वहां
काशी बनी, वहां
कैलाश बने।
कफस
की याद में ये इजिज्तराबे—दिल, मआजल्लाह
कि
मैंने तोड़ कर
इक—एक शाखे—आशियां
रख दी।
करिश्मे
हुस्न के पिनहां
थे शायद रक्से—बिसमिल
में,
बहुत
कुछ सोच कर
जालिम ने तेगे—खूंफिशां
रख दी।
इलाही
क्या किया
तूने कि आलम
में तलातुम
है,
गजब
की एक मुश्ते—खाक
जेरे—आसमां
रख दी।
हे
परमात्मा, तूने क्या
चमत्कार किया
कि संसार में
ऐसा तूफान उठा
दिया! एक
मुट्ठी—भर खाक
है आदमी, मगर
उसके भीतर
कैसी आग रख दी!
इलाही
क्या किया
तूने कि आलम
में तलातुम
है,
...कि संसार
में तूफान है...
गजब की
एक मुश्ते—खाक
जेरे—आसमां
रख दी।
आसमान
के नीचे इस
मुट्ठी भर खाक
में तूने क्या
जादू छिपा
दिया है! और
तुम कहां
खोजते फिर रहे
हो—बाहर? भीतर
खोजो। और भीतर
खोजने का बोध
तुम्हें वहां
मिलेगा, जिसने
भीतर खोजा हो।
किसी सदगुरु
को खोजो!
पलटू
नाहक पचि मुए, संतन में है नाम।
व्यर्थ
मूढ़ता
में न पड़ो, नाहक अपने
को परेशान न
करो, संतों
में छिपा है
वह; संतों
में प्रगट है
वह।...संतन
में है नाम।
सातपुरी
हम देखिया, देखे चारो
धाम।।
वहां
नहीं है। वहां
तो सिर्फ—
देखे
चारो धाम, सबन
मां पाथर
पानी।
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
पलटू
कहते हैं, जब से जाना
है, जब से
पहचाना है, जब से उससे
आंखें चार
हुईं, तब
से बड़ी निंदा
होने लगी है; तब से चारों
तरफ निंदक
पैदा हो गए
हैं। यह सदा से
होता रहा है।
आदमी ऐसा अजीब
है! जिनसे
तुम्हें जीवन की
कुंजियां मिल
सकें, उनको
तुम गालियां
देते हो। और
जो तुम्हारी
जिंदगी में
सिवाय कांटे
बोने के कुछ
भी नहीं करते,
उनका तुम
सम्मान करते
हो! तुम्हारी मूढ़ता की
कोई सीमा नहीं
है। तुम्हारी
खोपड़ी उलटी है!
राजनेता पूजा
जाता है, संत
सूली पर लटकाए
जाते हैं।
निंदक
जीवै जुगन—जुग...
लेकिन
पलटू कहते हैं, करो निंदा, हमें तो
इससे भी लाभ
है।
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
पलटू
कहते हैं, यह तो हमारा
ही काम हो रहा
है, निंदक
तो सदा जीते
रहें, जुग—जुग
जीएं।
पलटू
से मैं बिलकुल
राजी होऊं।
क्योंकि यहां जितने
लोग आते हैं, वे निंदकों
के कारण आ
पाते हैं।
जितनी मुझे
लोग गालियां
देते हैं, उतने
ही लोग उत्सुक
होते हैं कि
मामला क्या है?
किसी एक
आदमी को इतनी
गालियां देने
वाले लोग अगर
हों, तो
कुछ बात होगी!
कोई चिनगारी
होगी! उसे
खोजने चले आते
हैं। नहीं तो
आओ कैसे?
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
पलटू
कहते हैं, काम हमारा
होता है!
काम
हमारा होय, बिना कौड़ी
को चाकर।
कुछ
पैसा भी नहीं
लेना—देना
होता और वह
हमारा प्रचार
भी करता है।
कमर
बांधिके फिरै, करै
तिहुं लोक
उजागर।
और वह
कमर बांध कर
घूमता है—उसको
काम ही एक है—और
वह चारों तरफ
उजागर कर देता
है, खबर
पहुंचा देता
है।
आखिर
सारी दुनिया
से जो लोग आ
रहे हैं, तुम
जानते हो, कौन
उनको ला रहा
है? वह जो
निंदा चल रही
है। और निंदा
भी कैसी गजब की!
मुझसे लोग
पूछते हैं कि
आप इन निंदकों
के खिलाफ कुछ
करते क्यों
नहीं? मैंने
कहा, मैं
उनके खिलाफ
कुछ करूं
क्यों? वे
बिचारे मेरी
सेवा में रत
हैं, मैं
उनके खिलाफ
कुछ करूं?
अभी
पंजाब से एक
मित्र आए, साथ में
पंजाबी की एक
पत्रिका लाए। गुरुमुखी
में लेख छपा
हैं। लेखक ने
लिखा है कि वह
आश्रम में रह
कर, अनुभव
करके यह लेख
लिख रहा है।
अब जो भी उसका
लेख पढ़ कर आ
जाएगा, वह
सदा के लिए
मेरा हो
जाएगा। लेख
में ऐसी बातें
कही हैं कि
चौंक ही जाओगे
जब यहां आओगे!
लेख
में लिखा है
कि आश्रम
पंद्रह मील के
क्षेत्र में
फैला हुआ है।
पंद्रह मील!
छः एकड़ की
जमीन को
पंद्रह मील!
तो जब हमारे
पास चार वर्गमील
का आश्रम होगा, तो समझो
हजारों मील
में फैलेगा।
आश्रम के
दरवाजे पर ही,
अंदर जैसे
ही प्रवेश
करते हो—लेख
में लिखा है—एक
आदमकद
नग्न स्त्री
की प्रतिमा।
अब वह मित्र
जो लेकर आए थे
पत्रिका, पत्रिका
पढ़ें और देखें
कि वह प्रतिमा
कहां है? मुझ
से पूछते थे
कि प्रतिमा
कहां है? मैंने
कहा, भाई, यह तुम उसी
से पूछो, जिसने
अनुभव कर के
लिखा है! वह रह
कर गया है
आश्रम में—ऊपर
लिखता है कि
मैं आश्रम में
रह कर आया
हूं। और आश्रम
में पांच—पांच
हजार लोग जमीन
के भीतर, अंडर—ग्राउंड
बैठ सकें, ऐसे
कक्ष। पांच—पांच
हजार लोग! तुम
जमीन के भीतर
बैठे हो। इस भ्रांति
में मत रहना
कि जमीन के
ऊपर बैठे हो!
और वहां जो
हाल होता है, उसका वर्णन
तो ऐसा है कि
स्वर्ग में भी
जो देवता
होंगे, वे
भी ललचाते
होंगे। शराब,
गांजा, अफीम,
भांग...और कई
नई चीजें जो
देवताओं को
उपलब्ध नहीं
हैं—एल.एस.डी.,
मारिजुआना...और पांच
हजार स्त्री—पुरुष
नग्न हो कर
फिर जैसी रासलीला
में संलग्न
होते...!
जब कोई
ऐसे लेख पढ़ कर
आएगा, तो
स्वभावतः कुछ
परिणाम लेगा,
कुछ निश्चय
लेगा, कुछ
निर्णय लेगा—कि
झूठ की भी एक
सीमा होती है।
और जो लोग इस
तरह के झूठ
बोल रहे हैं, जरूर उनका
निहित
स्वार्थ
होगा।
अब
मुझे अड़चन
नहीं है, इन
पर चाहूं तो
मुकदमा चला
सकता हूं। ये
तो क्या
प्रमाण कर
सकेंगे! इतना
ही काफी हो
जाएगा बताना
कि पंद्रह मील
आश्रम कहां है?
वह मूर्ति
कहां है? लेकिन
इन पर मुकदमा
क्या करना!
पलटू ठीक कहते
हैं—
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
काम
हमारा होय, बिना कौड़ी
को चाकर।
कमर
बांधिके फिरै, करै
तिहुं लोक
उजागर।।
उसे
हमारी सोच, पलक भर
नाहिं बिसारी।
वह
सोचता ही रहता
है हमारी बात।
पलक भर को नहीं
बिसारता।
लगी
रहै दिन—रात, प्रेम से
देता गारी।।
उसको
लगी ही रहती
है धुन। प्रेमवश
गाली देता
रहता है।
संत
कहैं दृढ़ करै
जगत का भरम छुड़ावै।
और
पलटू कहते हैं
कि अगर हम में
कुछ भूल हो, तो वह जगत का
भ्रम छुड़ा
देता है—अच्छा
ही है! अगर हम
में भूल न हो, तो भी जगत का
भ्रम छुड़ा
देता है।
क्योंकि झूठी
भूल को फैलाता
है, लोग
आकर देख लेते
हैं। हर हालत
में बेहतर है।
किसी भी
दृष्टि से
बुरा नहीं।
निंदक
गुरू हमार...
पलटू
तो कहते हैं, यहां तक कि
हम तो उसको
गुरु मानते
हैं। गुरु क्या,
गुरु—घंटाल!
निंदक
गुरु हमार, नाम से वही मिलावै।।
वह
हमारी निंदा
करता है और हम
परमात्मा का
धन्यवाद करते
हैं कि वाह—वाह, खूब खेल
करवा रहे हो!
मुफ्त के चाकर
लगा दिए!
सुनिके
निंदक मरि
गया, पलटू
दिया है रोय।
और जब
निंदक मर गया
तो पलटू कहते
हैं, मैं रोने
लगा। आंख से
आंसू गिरने
लगे, कि
बेचारा! इतनी
मेहनत करता था,
प्रेम में
गाली बकता
था!...यह भी एक
लगाव है, प्रेम
है, रिश्ता
है।...दिन—रात
मेरी चिंता
करता था। न—मालूम
कितने लोगों
को मेरे पास
भेजा। चारों दिशाओं
में खबर पहुंचाई।
सुनिके
निंदक मरि
गया, पलटू
दिया है रोय।
निंदक
जीवै जुगन—जुग, काम हमारा
होय।।
जो
जानते हैं, जिन्होंने
सत्य का थोड़ा
साक्षात्कार
किया है, वे
तो अपने संबंध
में बोले गए
झूठ को भी
सत्य की सेवा
में ही संलग्न
कर लेते हैं।
जो जानते हैं,
वे तो अंधेरे
को भी प्रकाश
तक पहुंचने की
सीढ़ी बना लेते
हैं। जो जानते
हैं, वे
मृत्यु को भी
अमृत का द्वार
बना लेते हैं।
आज
इतना ही।
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