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मंगलवार, 10 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--05)

मिरर गेजिंग मेडिटेशन (त्राटक)(अध्‍याय—पाँचवाँ)

क बार मैं मुंबई में ओशो के निवास स्थान वुडलैंड में उनसे मिलने गया। वहां मैंने ओशो से निवेदन किया कि कोई खास ध्यान दें करने को। तब उन्होंने मुझे मिरर गेजिग (दर्पण में अपने प्रतिबिंब को देखना) ध्यान प्रयोग दिया। मैं हर शाम अपने बाथरूम में सारे वस्त्र उतारकर अंधेरे में दर्पण के ठीक सामने इस तरह दीया लगाता कि उसका प्रकाश मेरे ऊपर आता पर दीये का प्रतिबिंब दपर्ण में नहीं बनता और फिर एक टक उसमें स्वयं के चेहरे को देखता। धीरे— धीरे मुझे इस ध्यान में बहुत मजा आने लगा। इसमें मुझे बड़े सुंदर—सुंदर अनुभव हो रहे थे।

एक दिन की बात है जैसे ही मैं नजरें गड़ा कर दर्पण में अपने चेहरे को देखता, देखते—देखते यूं लगता कि सारा शरीर मानों मिट्टी का बन गया है और चेहरे की आकृतियां बदलने लगतीं, चेहरा बडा हो जाता, नाक छोटी हो जाती, दांत बाहर आ जाते, पूरे शरीर को मरोड़ने लगता और धीरे— धीरे एक सूई की नाक की तरह बारीक ब्लैक होल (काला छेद) मुझे अपनी ओर खींचता। मैं डर गया, घबरा गया और प्रयोग बंद कर दिया। ऐसा दो—तीन बार हुआ, चौथी बार मैंने अपने को तैयार किया कि अब डरूंगा नहीं और ध्यान में पूरा जाऊंगा, जो हो सो हो।
एक दिन जैसे ही वह काले छेद की आकृति बनने लगी और अपनी ओर खींचने लगी। जैसे ही मैं उस ब्लैक होल को देखने लगा, मेरे कितने ही जन्म एक के एक बाद मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे। बडा अजीब लग रहा था, एक मिनट में सैकड़ों जन्म दिखाई देने लगे। फिर एक बिंदु पर रुक गया। और फिर उस ब्लैक होल की जगह एक दम श्वेत नीले—नीले रंग की रोशनी हो गई और धीरे— धीरे वह भी विदा हो गई और जो मेरे शरीर का अक्स था उसके इर्द—गिर्द सिल्वर कॉर्ड की निशानी बन गई और इस बीच मेरी आंखें बंद हो गईं। बड़ा प्यारा अनुभव हुआ। अगली बार जब मुंबई जाना हुआ तो मैंने ओशो को अपना अनुभव सुनाया।
ओशो बोले 'सुंदर अनुभव है, ध्यान जारी रखो। इस घटना के सत्रह साल बाद अंग्रेजी में ' डायमंड सूत्रा' पर बोलते हुए ओशो ने कहा कि 'मैंने मिरर गेजिग का ध्यान स्वभाव को दिया जो उसने बड़े प्राणों से किया। जैसे ही तुम अमन की दशा में जाते हो, तुम्हारा चेहरा विलीन हो जाता है, और जैसे ही पूरा मन विसर्जित हो जाता है, और इस ध्यान प्रयोग में पूर्व जन्मों के अनुभव भी होते हैं, और छोटी सतोरी का अनुभव भी होता है जो स्वभाव को हुआ।सत्रह साल बाद ओशो ने जवाब दिया।
मिरर गेजिग, जिसे त्राटक ध्यान कहा जाता है ओशो की यह विधि यहां दी जा रही है ताकि जो मित्र भी इस विधि का आनंद लेना चाहें, ले सकते हैं:
त्राटक ध्यान
पहला चरण:
पने कमरे के दरवाजे बंद कर लें, और एक बड़ा दर्पण अपने सामने रख लें। कमरे में अंधेरा होना चाहिए। और फिर दर्पण के बगल में एक छोटी सी लौं—दीपक, मोमबत्ती या लैंप की—इस प्रकार रखें कि वह सीधे दर्पण में प्रतिबिंबित न हो। सिर्फ आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो, न कि दीपक की लौ। फिर लगातार दर्पण में अपनी स्वयं की आंखों में देखें। पलक न झपकाएं। यह चालीस मिनट का प्रयोग है, और दो या तीन दिन में ही आप अपनी आंखों को बिना पलक झपकाए देखने में समर्थ हो जाएंगे।
यदि आंसू आएं तो उन्हें आने दें, लेकिन दृढ़ रहें कि पलक न झपके और लगातार अपनी आंखों में देखते रहें। दृष्टि का कोण न बदलें। आंखों में देखते रहें, अपनी ही आंखों में। और दो या तीन दिन में ही आप एक बहुत ही विचित्र घटना से उरवगत होंगे। आपका चेहरा नये रूप लेने लगेगा। आप घबरा भी सकते हैं। दर्पण में आपका चेहरा बदलने लगेगा। कभी—कभी बिलकुल ही भिन्न चेहरा वहां होगा, जिसे आपने कभी नहीं जाना है कि वह आपका है।
पर असल में ये सभी चेहरे आपके हैं। अब अचेतन मन का विस्फोट होना प्रारंभ हो रहा है। ये चेहरे, ये मुखौटे आपके हैं। कभी—कभी कोई ऐसा चेहरा भी आ सकता है जो कि पिछले जन्म से संबंधित हो। एक सप्ताह लगातार चालीस मिनट तक देखते रहने के बाद आपका चेहरा एक प्रवाह, एक फिल्म की भांति हो जाएगा। बहुत से चेहरे जल्दी—जल्दी आते—जाते रहेंगे। तीन सप्ताह के बाद, आपको स्मरण भी नहीं रह पाएगा कि आपका चेहरा कौन सा है। आप अपना ही चेहरा स्मरण नहीं रख पाएंगे, क्योंकि आपने इतने चेहरों को आते—जाते देखा है।
यदि आपने इसे जारी रखा, तो तीन सप्ताह के बाद, किसी भी दिन, सबसे विचित्र घटना घटेगी : अचानक दर्पण में कोई भी चेहरा नहीं है। दर्पण खाली है, आप शून्य में झांक रहे हैं। वहां कोई भी चेहरा नहीं है। यही क्षण है. अपनी आंखें बंद कर लें, और अचेतन का सामना करें। जब दर्पण में कोई चेहरा न हो, बस आंखें बंद कर लें—यही सबसे महत्वपूर्ण क्षण है— आंखें बंद कर लें, भीतर देखें, और आप अचेतन का साक्षात करेंगे। आप नग्न होंगे—बिलकुल नग्न, जैसे आप हैं। सारे धोखे तिरोहित हो जाएंगे।
यही सच्चाई है, पर समाज ने बहुत सी पर्तें निर्मित कर दी हैं ताकि आप उससे अवगत न हो पाएं। एक बार आप अपने को अपनी नग्नता में, अपनी संपूर्ण नग्नता में जान लेते हैं, तो आप दूसरे ही व्यक्ति होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते। तब आप जानते हैं कि आप क्या हैं। और जब तक आप यह नहीं जानते कि आप क्या हैं, आप कभी रूपांतरित नहीं हो सकते, क्योंकि कोई भी रूपांतरण केवल इसी नग्न वास्तविकता में ही संभव है; यह नग्न वास्तविकता किसी भी रूपांतरण के लिए बीज—रूप है। कोई प्रवंचना रूपांतरित नहीं हो सकती। आपका मूल चेहरा अब आपके सामने है और आप इसे रूपांतरित कर सकते हैं।
और असल में, ऐसे क्षण में रूपांतरण की इच्छा मात्र से रूपांतरण घटित हो जाएगा।
दूसरा चरण:
ब आंखें बंद कर लें और विश्राम में चले जाएं। मैं आपको सत्य देने में असमर्थ हूं। और कोई कहे समर्थ है तो वह प्रारंभ से ही असत्य दे रहा है! सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है। यह देने वाले की असमर्थता का नहीं, सत्य के जीवंत होने का संकेत है। वह वस्तु नहीं है कि उसे लिया—दिया जा सके। वह जीवंत अनुभूति है और अनुलुह स्वयं ही पानी होती है।
मृत वस्तुएं ली—दी जा सकती हैं, अनुभूतियां नहीं। क्या वह प्रेम प्रेम की वह अनुभुति जो मैंने जानी है, मैं आपके हाथों में रख सकता हूं? क्या वह सौंदर्य और संगीत जो मुझे अनुभव हुआ है, मैं आपको दान कर सकता हूं? उस आनंद को मैं कितना चाहता हूं कि आपको दे दूं जो मेरी इस साधारण—सी दिखती देह में असाधारण रूप से घटित हुआ है, पर कोई रास्ता उसे देने का नहीं है! मैं तड़पकर ही रह जाता हूं कितनी असमर्थता है!
एक मेरे मित्र थे, उनके पास जन्म से ही आंखें नहीं थीं। मैंने कितना चाहा कि मेरी दृष्टि उन्हें मिल जावे, पर क्या वह हो सकता था? शायद एक दिन वह हो भी जावे, क्योंकि आंखें शरीर की अंग हैं, और हस्तांतरित हो सकती हैं, पर वह दृष्टि जिसे सत्य उपलब्ध होता है, उसे तो कुछ भी चाहकर नहीं दिया जा सकता वह शरीर की नहीं आत्मा की शक्ति है।
आत्मा के जगत में जो भी पाया जाता है, वह स्वयं ही पाया जाता है। आत्मा के जगत में कोई ऋण संभव नहीं है। वहां कोई पर—निर्भरता संभव नहीं है। किसी दूसरों के पैरों पर वहां नहीं चला जा सकता है। स्वयं के अतिरिक्त वहां कोई भी शरण नहीं है।
(ओशो, साधना पथ )

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