पुणे आने से पहले
71—72 में ओशो ने
मित्रों को
संन्यास देना
शुरू कर दिया
था। तब ओशो
बंबई रहते थे, उनके
खिलाफ बहुत सी
अफवाहें उड़ती
थीं। बहुत कुछ
बोला जाता था
कि ओशो ऐसा
करते हैं, वैसा
करते हैं, औरतों
से उनके संबंध
हैं इत्यादि।
एक बार पुणे
में ओशो बाफना
जी के घर पर
अतिथि थे, दोपहर
का समय था मैं,
संघवी जी, मेरे बड़े
भाई साहब बाफना
जी के यहां
मिलने पहुंचे।
संघवी जी भी
ओशो के बारे में
तरह—तरह की
अफवाहें उड़ाया
करते थे। थोड़ी
ही देर में
हमारे भाई
साहब ने ओशो
से पूछा कि 'आपके बारे
में बहुत सारी
अफवाहें उडती
हैं, कई
बातें बोली
जाती हैं, आप
क्या कहेंगे?'
ओशो बड़े
प्यार से मुस्कराकर
बोले, 'यदि
आपको मेरे पर
विश्वास है तो
मैं हां कहूं या
ना कहूं इसका
कोई अर्थ नहीं
है और यदि
आपको मेरे पर
विश्वास नहीं
है तो भी हां
या ना कहने का
कोई अर्थ नहीं
है। यदि मैं
कुछ गलत कर
रहा हूं तो आप
जो कुछ भी करना
चाहें कर सकते
हैं।’ मेरे
बड़े भाई साहब
ने कहा कि 'ये
तो बड़ा
दार्शनिक
जवाब हुआ।
जैसे आप साफ—सुथरे
जवाब देते हैं
वैसा जवाब
नहीं हुआ।’ ओशो बोले, 'मैंने तो जवाब दे दिया जो आपको ठीक लगे करें।’ इस पर मेरे भाई साहब को बड़ा बुरा लगा और उठकर दरवाजा पटककर चले गए। उनके पीछे—पीछे दूसरे भाई साहब भी चले गए। कमरे में मैं अकेला रह गया। मैंने कहा, 'आपने जवाब तो दिया लेकिन मेरे को कुछ समझ नहीं आया।’ तो ओशो बोले उत्तर चाहिए तो संन्यास लेना होगा।’ मैंने कहा 'यह तो अजीब शर्त है आपने किसी पर यह शर्त नहीं लगाई मेरे पर क्यों?' तो वे बोले, 'उत्तर चाहिए तो संन्यास लो।’ मैंने कहा, 'ठीक है, सोचूंगा।’ और मैं नमन करके बाहर आ गया।
बाहर बड़ा
हंगामा हो रहा
था। सभी आपस
में गरमा—गरम
चर्चा में लगे
थे कि इतने
बड़े व्यक्ति
होकर इस तरह
की हरकतें
कैसे कर सकते
हैं। मैं
चुपचाप घर आ
गया। घर पर
मैंने अपने
भाइयों को
बोला कि ' आप लोगों को
इस तरह से
प्रश्न नहीं
पूछना चाहिए।’
इस पर वे
बोले कि 'तुम्हें
क्या जवाब
दिया?' तो
मैंने कहा कि 'वे बोले कि
संन्यास लो।’
मेरे
भाइयों ने
बोला, 'जो
तुम्हें ठीक
लगे करो।’ मैंने
ओशो को बंबई
पत्र लिखा कि
मुझे संन्यास लेना
है। तो तीसरे
ही दिन एक
पैकेट आ गया
जिसमें माला थी
और नया नाम था।
यह पैकेट
हमारे बड़े भाई
साहब के हाथ
लगा तो वे बड़े
व्यंग्य से
बोले, 'लो
जी आप
संन्यासी हो
गए, आपका
नाम हो गया
स्वामी आनंद
स्वभाव।
मैंने तो भगवा
कपड़े बनवा कर
पहन लिये।
माला पहन ली
और दाढ़ी
बाल बढ़ा लिये।
घर में रोज
हंगामा होने
लगा कि यह सब
क्या है, यह
नाटक क्या है,
यह कंपनी है
यहां ऐसा नहीं
चल सकता। डांटते
भी थे, मजाक
भी बनाते थे, अंदर से ओशो
से प्रेम भी करते
थे। तो बडा
अजीब समय
निकला। लेकिन
मैं जीवन की
नई डगर पर ओशो
के साथ चल पड़ा था।
मुझे नहीं पता
था कि मैं
कहां जा रहा
हूं क्या हो
रहा है.. .लेकिन
एक मस्ती हर
समय छाई रहती।
कुछ
वर्षों बाद
ओशो स्वयं ने 'योगा दि अल्फा
एंड दि ओमेगा'
श्रृंखला
पर बोलते हुए
इस घटना का
जिक्र किया है।
देखिये :
'तर्क—वितर्क
का यह एक दुष्चक्र
है। यदि मैं
तुम्हें समझा
दूं तुम
सम्मोहित हो
गये, यदि
मैं तुम्हें
नहीं समझा
सकता, मैं
गलत हूं। तो
दोनों तरह से
मैं गलत हूं।
यदि कोई समझ
गया है
ऐसा
हुआ। स्वभाव
यहां है। कुछ
साल पहले, वह अपने
दो भाइयों के
साथ आया; तीनों
एक साथ मेरे
से तर्क—वितर्क
करने आए। और
स्वभाव उन
तीनों में से
सर्वाधिक
तार्किक था; लेकिन वह
ईमानदार
व्यक्ति है, और सरल।
धीरे— धीरे वह
समझ गया। उन
दो भाइयों में
वह नेता की
तरह आया था; फिर वह समझ
गया। तब वे
दूसरे दो उसके
खिलाफ हो गये।
अब वे कहते
हैं कि वह
सम्मोहित हो
गया।
उन्होंने आना
बंद कर दिया; वे मुझे
नहीं सुनेंगे।
अब वे भयभीत
हैं यदि
स्वभाव
सम्मोहित हो
सकता है, वे
भी सम्मोहित
हो सकते हैं।
वे टालते हैं,
और
उन्होंने
अपने आसपास
सुरक्षा
तंत्र बना
दिया है। यदि
मैं दूसरे भाई
को समझा सकूं—क्योंकि
मैं जानता हूं
कि एक को अभी
भी समझा जा
सकता है—तब बच
जाने वाला और
भी अधिक
सुरक्षात्मक
हो जाएगा; और
तब वह कहेगा, 'दो भाई जा
चुके।’ और
बाकी बचा रहने
वाला भी अच्छे
दिल का है; वहां
उसके लिए भी
संभावना है।
तब सारा
परिवार
सोचेगा कि तीना
भाई पागल हो
गये।
इस तरह
से चीजें चलती
हैं। यदि तुम
समझा नहीं
सकते, तुम
गलत हो; यदि
आप समझा सकते
हैं, तब भी
तुम गलत हो।’
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