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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--07)

माउंट आबू में ओशो के ध्‍यान शिविर(अध्‍यायसातवां)

माउंट आबू बहुत ही सुंदर स्थान है। यहां सारी दुनिया से पर्यटक आते हैं, यहां के प्रसिद्ध जैन मंदिर देखने जैसे हैं। ओशो यहां पर ध्यान शिविर लिया करते थे। ओशो ने संन्यास शुरू कर दिया था। हर शिविर में हजारों गेरुआ वस्त्र धारी संन्यासी इकट्ठे होते। उन दिनों एक तरह का दीवानापन चलता था जो यूं था मानो पहाड़ी नदी हो। ओशो के आसपास एक से बढकर एक मस्त मौला मित्र इकट्ठे हो रहे थे। ऐसी दीवानगी, मस्ती कि मत पूछो।
ओशो स्वयं सुबह से लेकर शाम तक हमारे बीच रहते। सारे ध्यान प्रयोगों का स्वयं संचालन करते। रात्रि त्राटक ध्यान में ओशो की आंखों को देखते कूदते हुए हूं हूं हूं की चोट करना, ओशो आधे नंगे बदन अपने हाथों से उत्साह बढ़ाते. .इतनी ऊर्जा, इतनी तीव्रता, सघनता, हूं की ऐसी चोट सभी मित्र ऊर्जा के विस्फोट से भर उठते। इसी ध्यान के दौरान एक दिन मुझे ऐसा लगा कि कभी ओशो का शरीर रह जाता, कभी सर रह जाता, कभी सिर्फ हाथ रह जाते, कभी सारा शरीर ही गायब हो जाता। बडे अजीब अनुभव होते थे।

उन दिनों जब ओशो साधना शिविर में होते माउंट आबू में बडा अद्भत नजारा हुआ करता था। चारों तरफ भगवा वस्त्र पहने संन्यासी। देशी—विदेशी जहां देखो वहीं भगवा संन्यासी। पूरा पर्वत मानों भगवा रंग से रंग जाता। और संन्यासी गाते होते 'रजनीश आए आनंद लाए, आनंद लाए रजनीश आए।पूरा पर्वत ओशो की जय—जय कार और भजनों से गज उठता था। बड़ी धूम मचती थी। स्काउट ग्राउंड में ओशो के प्रवचन और ध्यान हुआ करते थे। अंतिम दिन जब ओशो विदा लेते तो चारों तरफ सभी दीवानों में एसी विरह पीड़ा, अपने प्रियतम से दूर होने का ऐसा असर, कोई रो रहा है, कोई मौन है। ओशो की कार रेंगती चलती काफी मित्र कीर्तन करते, नाचते—गाते उन्हें विदाई देते, एक बार तो एक मित्र ओशो की कार पर चढ़ कर नाचने लगे, भीतर ओशो बैठे हैं... ओशो के काम का वह बहुत अलग दौर था। सब कुछ उन्मुक्त। पियक्कड़ों की ऐसी जमात जिसे सिवाय ओशो के कुछ दिखाई नहीं देता। उस समय किसी को पता नहीं था कि यह कारवां कहां जा रहा है, क्या हो रहा है.. .बस सब मस्त थे।
आज इति

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