ध्यान को हंसी—खेल बना लो--(प्रवचन—बावनवो—(प्रवचन—बावनवां)
1—यदि
सभी फिलासफी
ध्यान—विरोधी
है तो क्यों
बुद्ध पुरूष
दार्शीनिक
मीमांसा की
मजबूत शृंखला
अपने पीछे छोड़
जाते है?
2—क्या
विचार से समस्याएं
हल हो सकती है?
3—खुले, निर्मल
आकाश को एकटक
देखने,
प्रज्ञावान
सदगुरू के
फोटो
पर
त्राटक करने
और अंधकार को
अपलक देखने
में क्या
फर्क है?
4—क्या
विज्ञान और
धर्म का कहीं
मिलन हो सकता
है?
5—हम
अपने अधैर्य
को कैसे वश
में करें?
6—आधुनिक
विज्ञान को ध्यान
में रखकर
कृपया अंधकार
एवं
प्रकाश के
संबंध में कुछ
और कहें।
पहला
प्रश्न :
उस रात
आपने कहा कि
सभी फिलासफी
ध्यान— विरोधी
हैं। लेकिन
दूसरी तरफ आप कहते
हैं कि तंत्र, योग और
वेदांत जैसे
पूर्वीय
दर्शन बुद्ध
पुरुषों द्वारा
रचे गए हैं।
यदि सभी फिलासफी
ध्यान—विरोधी
है तो क्यों
बुद्ध पुरूष दार्शीनिक
मीमांसा की
मजबूत श्रृंखला
अपने पीछे छोड़
जाते हैं?
फिलासफी का सही
अनुवाद दर्शन
नहीं है।
दर्शन
पूर्वीय शब्द
है। दर्शन का
अर्थ होता है
देखना। और फिलासफी
का अर्थ होता
है सोच—विचार
करना। हरमन
हेस ने
पश्चिमी भाषा
में दर्शन के
लिए एक नया
शब्द गढ़ा
है, वह
इसे फिलोसिया
कहता है—सिया
का अर्थ होता
है देखना।
फिलासफी का अर्थ
विचार करना है, दर्शन का
अर्थ देखना है।
और दोनों
बुनियादी रूप
से भिन्न हैं,
भिन्न ही
नहीं, एक—दूसरे
के सर्वथा
विपरीत हैं।
क्योंकि जब
तुम विचार
करते हो तो
तुम देख नहीं
सकते। तुम
विचारों से
इतने भरे होते
हो कि दर्शन
धूमिल हो जाता
है, देखना
धुंधला हो
जाता है। जब
तुम
निर्विचार
होते हो तो ही
तुम देखने में
समर्थ होते हो।
तब तुम्हारी आंखें
साफ हो जाती
हैं, निर्मल
हो जाती हैं।
दर्शन तब घटित
होता है जब
विचार विलीन
हो जाते हैं।
सुकरात, प्लेटो और अरस्तू
के लिए, पश्चिम
की पूरी
परंपरा के लिए
विचारणा आधार
है। कणाद, कपिल,
पतंजलि, बुद्ध
के लिए, पूर्व
की पूरी
परंपरा के लिए
दर्शन आधार है,
देखना आधार
है। इसलिए
बुद्ध फिलासफर
नहीं हैं—बिलकुल
नहीं। पतंजलि,
कपिल या
कणाद फिलासफर
नहीं हैं।
उन्होंने
सत्य को देखा
है; उसके
संबंध में
विचार नहीं
किया है।
यह
भलीभांति
स्मरण रखो कि
तुम विचार
इसीलिए करते
हो, क्योंकि
तुम देख नहीं
सकते। अगर तुम
देख सको तो
विचार करने की
जरूरत नहीं रहती।
विचार करना
सदा अज्ञान में
होता है।
विचार करना
ज्ञान नहीं है,
क्योंकि जब
तुम जानते हो
तो विचार करने
की जरूरत नहीं
रहती। जब तुम
नहीं जानते हो
तो उस खाली
जगह को, अपने
अज्ञान को
विचार से भरते
हो। विचार
करना अंधेरे
में टटोलना है।
इसलिए
पूर्वीय
दर्शन फिलासफी
नहीं है।
पूर्वीय
दर्शन के लिए फिलासफी
शब्द का उपयोग
बिलकुल गलत है।
दर्शन का अर्थ
है देखना, और विचार
की मध्यस्थता
के बिना देखना,
दृष्टि
पैदा करना, जानना, अनुभव
करना। और यह
देखना, यह
अनुभव तत्काल
होता है, प्रत्यक्ष
होता है, तुरंत
होता है, सीधा—साफ
होता है।
विचार
कभी अज्ञात तक
नहीं पहुंचा
सकता है। कैसे
पहुंचा सकता
है? यह
असंभव है।
विचार की
प्रक्रिया को
ही समझना होगा।
जब तुम विचार
करते हो तो
वस्तुत: क्या
करते हो? विचार
करने के लिए
तुम अतीत की
स्मृतियों को
ही काम में
लाते हो।
अगर
मैं तुम्हें
एक प्रश्न पूछूं
पूछूं कि
क्या ईश्वर है, तो तुम क्या
करोगे? तुम
ने ईश्वर के
संबंध में जो
कुछ सुना है, जो कुछ पढ़ा
है, जो कुछ
संग्रह किया
है, तुम उस
सब को
दोहराओगे।
अगर तुम किसी
नए निष्कर्ष
पर भी
पहुंचोगे तो उसका
नयापन ऊपरी
होगा, यथार्थ
नहीं होगा। वह
निष्कर्ष
पुराने
विचारों का
महज जोड़ होगा।
तुम अनेक
पुराने
विचारों को
मिलाकर एक नई
संरचना खड़ी कर
सकते हो, लेकिन
वह संरचना
देखने में ही
नई होगी, वस्तुत:
नई बिलकुल
नहीं होगी।
सोच—विचार
कभी मौलिक
सत्य को नहीं
उपलब्ध हो
सकता है।
विचार कभी
मौलिक नहीं
होता, हो
नहीं सकता।
विचार सदा
अतीत का होता
है, बीते
हुए का होता
है, ज्ञात
का होता है।
विचार कभी
अज्ञात को
नहीं छू सकता,
वह सदा
ज्ञात के
वर्तुल में
कोल्हू के
बैल की तरह
घूमता रहता है।
तुम्हें
सत्य का पता
नहीं है; तुम्हें
ईश्वर का पता
नहीं है। तुम
क्या कर सकते
हो? तुम
उसके बारे में
विचार कर सकते
हो। तुम
वर्तुल में
घूम सकते हो, चक्कर लगा
सकते हो।
लेकिन इससे
तुम्हें सत्य
का कभी अनुभव
नहीं होगा।
इसलिए
पूर्व का जोर
दर्शन पर है, विचार पर
नहीं। तुम
परमात्मा के
संबंध में
विचार नहीं कर
सकते, लेकिन
तुम उसे देख
सकते हो। तुम
परमात्मा के
संबंध में
किसी
निष्कर्ष पर नहीं
पहुंच सकते, लेकिन तुम
उसे अनुभव कर
सकते हो, उसको
उपलब्ध हो
सकते हो।
परमात्मा
तुम्हारा
अनुभव बन सकता
है। सूचना, ज्ञान, शास्त्र,
सिद्धात और फिलासफी
के द्वारा तुम
उसे जान नहीं
सकते; तुम
उसे तभी जान
सकते हो जब
तुम अपने सारे
ज्ञान को
उठाकर फेंक दो।
तुम ने जो भी
सुना है, पढ़ा
है, संग्रह
किया है, तुम्हारे
मन ने जो भी
धूल इकट्ठी की
है, उस
सबको, पूरे
अतीत को अलग
रख देना होगा।
तब तुम्हारी आंखें
निर्मल हैं, तब तुम्हारी
चेतना का आकाश
निरभ्र है और
तब तुम उसे
देख सकते हो।
परमात्मा
यहां है, अभी है, लेकिन
तुम्हारी आंखों
पर परदा पड़ा
है। परमात्मा
या सत्य को
खोजने के लिए
तुम्हें कहीं
नहीं जाना है,
वह यहीं है।
वह ठीक यहीं
है जहां तुम
हो। और ऐसा ही
हमेशा से है।
लेकिन
तुम्हारी आंखें
बंद हैं, तुम्हारी
आंखें धूमिल
हैं। तो
प्रश्न यह
नहीं है कि
कैसे अधिक सोच—विचार
किया जाए, प्रश्न
यह है कि कैसे
निर्विचार
चेतना को
उपलब्ध हुआ
जाए।
यही
कारण है कि
मैं कहता हूं
कि ध्यान और फिलासफी
एक—दूसरे के
विरोधी हैं। फिलासफी
सोच—विचार
करना है; ध्यान
निर्विचार
निष्कर्ष पर
पहुंचता है।
और पूर्व की फिलासफी
वस्तुत: फिलासफी
नहीं हैं।
पश्चिम में फिलासफी
हैं, पूर्व
में केवल धार्मिक
अनुभव हैं, उपलब्धिया हैं।
हां, जब कोई
बुद्ध होता है,
या कोई कणाद
या कोई पतंजलि
होता है, जब
कोई परम ज्ञान
को उपलब्ध
होता है तो वह
उसके संबंध
में वक्तव्य
देता है। ये
वक्तव्य अरस्तु
के वक्तव्यों
से या
पाश्चात्य
चिंतकों के
निष्कर्षों
से बहुत भिन्न
हैं। और
भिन्नता या
फर्क यह है कि
बुद्ध या कणाद
पहले बोध को
उपलब्ध होते
हैं—बोध पहले
है—और तब वे
वक्तव्य देते
हैं। अनुभव
प्राथमिक है
और तब वे
अभिव्यक्ति
देते हैं।
अरस्तु, हिगल, कांट पहले
सोच—विचार
करते है और तब
वे उस विचार
से, तर्क
से, पक्ष—विपक्ष
के मंथन से विशेष
निष्कर्षों
पर पहुंचते
हैं। ये
निष्कर्ष
ध्यान की
साधना से नहीं
आते हैं, मात्र
विचार से, मनन
से निकाले
जाते हैं। और
तब उन पर वे
वक्तव्य देते
हैं, सिद्धात
प्रतिपादित
करते हैं।
स्रोत ही अलग
है।
बुद्ध
के लिए उनका
वक्तव्य
संवाद का एक
माध्यम भर है, वे यह कभी
नहीं कहते हैं
कि उनके बोलने
से, उनके
कहने से तुम
सत्य को पा
लोगे। अगर तुम
बुद्ध को समझ
सकते हो तो
उसका यह अर्थ नहीं
है कि तुमने
सत्य को पा
लिया, उसका
इतना ही अर्थ
है कि तुमने
समझा है, जानकारी
ली है। अब
तुम्हें
ध्यान से
गुजरना होगा;
मन की गहरी
घाटियों से गुजरना
होगा, गहन
समाधि में
उतरना होगा।
तभी तुम सत्य
को उपलब्ध हो
सकोगे।
तो
अनुभव के
द्वारा ही
सत्य तक
पहुंचा जाता
है, यह
अस्तित्वगत
है, मानसिक
नहीं। सत्य को
जानने के लिए
और सत्य को
उपलब्ध होने के
लिए तुम्हें
बदलना होगा।
अगर तुम वही
बने रहते हो
जो हो, अगर
तुम सूचनाएं
जमा किए जाते
हो, तो तुम
बड़े पंडित हो
जाओगे, बड़े
शास्त्री हो
जाओगे, लेकिन
तुम बुद्ध
नहीं होगे।
तुम वही के
वही आदमी बने
रहोगे, तुममें
कोई रूपांतरण
नहीं होगा।
इसीलिए
मैंने कहा कि फिलासफी
एक आयाम है और
ध्यान बिलकुल
विपरीत आयाम
है, सर्वथा
विरोधी आयाम है।
तो जीवन के
संबंध में सोच—विचार
मत करो, बल्कि
जीवन को उसकी
गहराई में जीओ।
और आत्यंतिक
समस्याओं के
विषय में
विचार मत करो,
बल्कि इसी
क्षण
आत्यंतिक में
प्रवेश कर जाओ।
और वह
आत्यंतिक
भविष्य में
नहीं है; वह
सदा ही यहां
और अभी है।
एक और
मित्र ने भी
इसी तरह का
प्रश्न पूछा
है।
उन्होंने
पूछा है :
क्या
सोच— विचार से
समस्याओं का
समाधान हो
सकता है?
हां, कुछ
समस्याएं
विचार से हल
की जा सकती
हैं। लेकिन
केवल वे ही
समस्याएं
विचार से हल
की जा सकती
हैं जो विचार
से ही पैदा
होती हैं। कोई
सच्ची समस्या,
कोई
अस्तित्वगत
समस्या, जीवन—समस्या
विचार से नहीं
पैदा होती है।
सच्ची समस्या
विचार से नहीं
पैदा होती, वह जीवन में
ही मौजूद है।
विचार करना
उसके लिए अधिक
काम का नहीं
होगा। केवल एक
अर्थ में
विचार करना
काम का हो
सकता है कि
निरंतर विचार
करते—करते
तुम्हें कभी
यह सत्य हाथ
लग जाए कि विचार
करना व्यर्थ
है। और जिस
क्षण तुम समझ
लेते हो कि
अस्तित्वगत समस्याओं
के लिए विचार
करना व्यर्थ
है, तुम्हें
एक अर्थ में
थोड़ी मदद तो मिल
गई। विचार के
द्वारा ही
तुम्हें यह ज्ञान
हुआ।
लेकिन
विचार से पैदा
हुई समस्याएं
विचार से ही
हल हो सकती
हैं। उदाहरण
के लिए, गणित की
समस्याएं हैं।
गणित की
समस्याएं
विचार से हल
की जा सकती
हैं, क्योंकि
समस्त गणित
विचार से
निर्मित हुआ
है।
उदाहरण
के लिए, अगर पृथ्वी
पर मनुष्य न
हो तो क्या
गणित रहेगा? गणित नहीं
रहेगा।
मनुष्य के
मस्तिष्क के
विदा होने के
साथ ही गणित
भी विदा हो
जाएगा। जीवन
और अस्तित्व
में गणित नहीं
है।। बगीचे
में वृक्ष हैं,
लेकिन जब
तुम एक, दो,
तीन गिनते
हो तो तीन
वृक्ष नहीं
हैं। यह तीन
की संख्या
मानसिक चीज है।
वृक्ष हैं, लेकिन अंक
नहीं हैं। अंक
तीन तुम्हारे
मन में है।
तुम नहीं
रहोगे तो
वृक्ष तो
होंगे, लेकिन
तीन वृक्ष नहीं
होंगे। केवल
वृक्ष होंगे।
तीन की संख्या
मन से निर्मित
हुई है; यह
मन का खेल है।
मन गणित
निर्मित करता
है; इसलिए
गणित की कोई
भी समस्या मन
से ही हल होगी,
विचार से ही
हल होगी।
स्मरण रहे, गणित के
प्रश्न
निर्विचार से
नहीं हल हो
सकते हैं। कोई
ध्यान वहां
काम नहीं देगा।
क्योंकि
ध्यान मन को
विसर्जित कर
देगा और मन के
साथ पूरा गणित
विसर्जित हो
जाएगा।
तो ऐसी
समस्याएं हैं, जो मन से
पैदा होती हैं
और मन से ही
उनका समाधान
हो सकता है।
लेकिन ऐसी
समस्याएं भी
हैं जो मन से
नहीं पैदा
होती हैं, वे
अस्तित्वगत
समस्याएं हैं
और उनका
समाधान मन से
नहीं हो सकता
है। उनके
समाधान के लिए
तुम्हें
अस्तित्व में
ही गहरे उतरना
होगा।
उदाहरण
के लिए, प्रेम है।
प्रेम एक
अस्तित्वगत
समस्या है, तुम विचार
के द्वारा
उसका समाधान
नहीं कर सकते।
बल्कि विचार
से तुम और भी
उलझन में पड़
जाओगे, तुम
जितना विचार
करोगे उतने ही
समस्या के
स्रोत से दूर
हट जाओगे।
यहां ध्यान
सहयोगी होगा।
ध्यान से
तुम्हें
अंतर्दृष्टि
मिलेगी; ध्यान
से तुम समस्या
की अचेतन जड़ों
तक पहुंच जाओगे।
और अगर तुम इस
संबंध में सोच—विचार
करोगे तो तुम
सतह पर ही
रहोगे।
ध्यान
रहे, जीवन
की समस्याएं
विचार से नहीं
हल हो सकती
हैं। उलटे
सचाई यह है कि
बहुत सोच—विचार
के कारण तुम
समाधान से
वंचित हो रहे
हो, सोच—विचार
के कारण
अधिकाधिक
समस्याएं
पैदा हो रही
हैं।
उदाहरण
के लिए, मृत्यु की
समस्या विचार
से नहीं पैदा
हुई है, इसलिए
तुम उसका
समाधान विचार
से नहीं कर
सकते। चाहे
तुम कितना भी
विचार करो, तुम मृत्यु
का समाधान
कैसे करोगे? तुम्हें
उससे
सांत्वना मिल
सकती है और
तुम सोच भी
सकते हो कि
सांत्वना ही
समाधान है।
लेकिन
सांत्वना
समाधान नहीं
है। तुम अपने
को धोखा दे
सकते हो, विचार
से यह संभव है।
तुम
व्याख्याएं
निर्मित कर
सकते हो और
व्याख्याओं
से तुम समझ ले
सकते हो कि
मैंने समस्या
का हल पा लिया।
विचार के
द्वारा तुम
समस्या से
पलायन कर सकते
हो, लेकिन
तुम उसे हल
नहीं कर सकते।
और इस फर्क को
ठीक से समझ लो।
उदाहरण
के लिए, मृत्यु है।
तुम्हारी
प्रेमिका मर
जाती है, या
तुम्हारा
मित्र या
तुम्हारी
बेटी मर जाती
है। मृत्यु
चारों तरफ
मौजूद है। तुम
अब क्या कर
सकते हो? तुम
उसके संबंध
में विचार कर
सकते हो। तुम
सोच—विचार कर
सकते हो कि
आत्मा अमर है,
क्योंकि यह
तुमने पढ़ा है।
उपनिषद कहते
हैं कि आत्मा
अमर है, सिर्फ
शरीर मरता है।
लेकिन यह
तुम्हारा
अपना ज्ञान
नहीं है।
क्योंकि अगर
तुम वस्तुत:
जानते कि
आत्मा अमर है
तो कोई समस्या
ही न रही। या
कि तब भी
समस्या रहती?
अगर तुम
सचमुच जानते
हो कि आत्मा
अमर है तो मृत्यु
है ही नहीं।
फिर समस्या
कहां है गु:
लेकिन
समस्या है।
मृत्यु है, और तुम
बेचैन हो, तुम
गहन शोक में
हो। तुम इस
शोक से बचना
चाहते हो; तुम
किसी भांति इस
संताप को
भूलना चाहते
हो। और तुम इस
व्याख्या को
पकड लेते हो
कि आत्मा अमर
है। अब यह एक
चालाकी है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
आत्मा अमर
नहीं है; लेकिन
तुम्हारा यह
कहना एक
चालाकी है।
तुम अपने को
धोखा देने की
चेष्टा कर रहे
हो। तुम शोक
में हो और तुम
इस शोक से हट
जाना चाहते हो।
उसमें यह
व्याख्या
सहयोगी होगी।
अब तुम अपने
को यह कहकर
सांत्वना दे
सकते हो कि
आत्मा अमर है,
कोई मरता
नहीं है, सिर्फ
शरीर मरता है।
जैसे मनुष्य
कपड़े बदलता है,
जैसे घर
बदलता है, वैसे
ही आत्मा एक
घर से दूसरे
घर में चली गई
है। इस तरह
तुम सोच सकते
हो। लेकिन
तुम्हें खुद
इसका कुछ पता
नहीं है, तुमने
यह सब सुना है,
तुमने ये सब
सूचनाएं
इकट्ठी कर ली
हैं। लेकिन इन
व्याख्याओं
से तुम्हें
थोड़ा चैन मिल
जाएगा; तुम
मृत्यु को भूल
सकते हो।
लेकिन
वस्तुत: वह
समस्या का समाधान
नहीं है। कुछ
भी तो हल नहीं
हुआ। अगले दिन
किसी और की
मृत्यु होगी
और यह समस्या
फिर उठ खड़ी
होगी। फिर कोई
और मरेगा और
फिर यह समस्या
उठ खड़ी होगी।
और गहरे में
तुम जानते हो
कि मैं भी
मरूंगा। तुम
मृत्यु से बच
नहीं सकते, इसीलिए
भय है। लेकिन
तुम व्याख्या
के द्वारा इस
भय को टाल
सकते हो, भुला
सकते हो।
लेकिन उससे
कुछ नहीं होगा।
मृत्यु
अस्तित्वगत
समस्या है, तुम
विचार से उसका
समाधान नहीं
कर सकते।
विचार से तुम
सिर्फ झूठे
समाधान
निर्मित कर सकते
हो। तब फिर
क्या करें?
तब एक
दूसरा आयाम है—ध्यान
का आयाम।
विचार से, चिंतन से
काम नहीं
चलेगा।
स्थिति का
सीधा
साक्षात्कार
करना है।
मृत्यु घटित
हुई है, तुम्हारी
प्रेमिका चल
बसी है। विचार
में मत पड़ो।
उपनिषद और
गीता और
बाइबिल को मत
बीच में लाओ। क्राइस्टों
और बुद्धों से
मत पूछो; उन्हें
उनकी जगह रहने
दो। मृत्यु
सामने है, उसका
साक्षात्कार
करो, उसे
सीधे —सीधे
देखो। इस
स्थिति के साथ
पूरी तरह रहा, उसके बारे
में विचार मत
करो। तुम क्या
विचार कर सकते
हो? तुम
सिर्फ पुराने
कचरे को दोहरा
सकते हो।
मृत्यु ऐसी नई
घटना है, वह
इतनी अज्ञात
है कि
तुम्हारा
ज्ञान वहा किसी
काम का नहीं
होगा। इसलिए
मन को अलग करो
और मृत्यु के प्रगाढ़
ध्यान में
उतरो।
कुछ
करो मत। तुम
क्या कर सकते
हो जो सहयोगी
हो सकता है? तुम कुछ
नहीं जानते हो;
इसलिए अपने
अज्ञान में
रहो। झूठे
ज्ञान को, उधार
ज्ञान को बीच
में मत लाओ।
मृत्यु यहां
है; तुम
उसके साथ रहो।
अपनी समग्र
उपस्थिति से
मृत्यु का सामना
करो, साक्षात
करो। विचार मत
करो, क्योंकि
तब तुम स्थिति
से बच रहे हो, यहां से हट
रहे हो। विचार
मत करो; मृत्यु
के प्रति जागे
रहो। दुख होगा,
शोक होगा, दिल पर भारी
बोझ होगा। उसे
होने दो। वह
जीवन का
हिस्सा है; वह प्रौढ़ता
का हिस्सा है;
वह परम
उपलब्धि का
हिस्सा है।
उसके साथ रहो,
समग्रत:
उपस्थित रहो।
यह ध्यान होगा।
और तुम्हें
मृत्यु का एक प्रगाढ़
बोध उपलब्ध
होगा। तब
मृत्यु स्वयं
शाश्वत जीवन
बन जाएगी।
लेकिन
मन को और
ज्ञान को बीच
में मत लाओ।
मृत्यु के साथ
रहो। तब
मृत्यु
तुम्हें अपना
रहस्य प्रकट
कर देगी। तब
तुम जानोगे कि
मृत्यु क्या
है। तब तुम
मृत्यु के
आत्यंतिक रहस्य
में प्रवेश पा
जाओगे। तब
मृत्यु
तुम्हें जीवन
के अंतरतम
केंद्र पर पहुंचा
देगी, क्योंकि
मृत्यु ही
जीवन का
केंद्र है।
मृत्यु जीवन
के विपरीत
नहीं है, वह
जीवन की ही
प्रक्रिया है।
लेकिन मन यह
विरोध खड़ा
करता है कि
जीवन और
मृत्यु एक—दूसरे
के विपरीत हैं।
तब तुम विचार
करने में
संलग्न हो
जाते हो। और
क्योंकि मूल
बात ही गलत है,
विरोध ही
गलत है, इसलिए
तुम किसी
वास्तविक और
सच्चे
निष्कर्ष पर
नहीं पहुंच
सकते।
जब भी
कोई
अस्तित्वगत
समस्या हो, जीवन की
समस्या हो तो
मन को बीच में
लाए बिना उस
समस्या के साथ
रहो। इसे ही
मैं ध्यान
कहता हूं। और
समस्या के साथ
मात्र रहने से
ही समस्या का समाधान
हो जाएगा। और
अगर तुम
वस्तुत:
मृत्यु के साथ
रह सके तो फिर
तुम्हारे लिए
मृत्यु
समाप्त हो
जाएगी, क्योंकि
तब तुम जानते
हो कि मृत्यु
क्या है।
यह हम
कभी नहीं करते
हैं। हम न कभी
प्रेम के साथ
रहते हैं, न मृत्यु
के साथ, न
किसी भी चीज
के साथ रहते
हैं जो
प्रामाणिक रूप
से यथार्थ हो,
सच हो। हम
सदा विचार के
साथ गति करते
हैं। और विचार
बड़े झूठे हैं,
वे सब कुछ
झूठ कर देते
हैं। सब विचार
उधार हैं, वे
तुम्हारे नहीं
हैं। वे
तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकते। केवल
तुम्हारा
अपना सत्य ही
तुम्हारी
मुक्ति बन
सकता है। और
तुम अपने सत्य
तक अपनी
अत्यंत मौन
उपस्थिति के
द्वारा ही
पहुंच सकते हो।
सच्ची
समस्याओं के
लिए विचार
निष्फल हैं, व्यर्थ
हैं; विचार
से सच्ची
समस्याओं का
हल नहीं होगा।
लेकिन विचार
उन झूठी
समस्याओं को
जरूर हल कर सकता
है जो विचार
से ही पैदा
हुई हैं, क्योंकि
झूठी
समस्याएं
तर्क के
नियमों का अनुगमन
करती हैं।
लेकिन जीवन
तर्क के
नियमों का
अनुगमन नहीं
करता है। जीवन
के अपने ही
गुह्य नियम
हैं और तुम उन
पर तर्क को
नहीं लाद सकते।
इस
संबंध में एक
बात और। जब भी
तुम मन को
लाते हो, मन विश्लेषण
करता है, विभाजन
करता है। सत्य
एक है और मन
सदा खंडों में
बांटता है। और
जैसे ही तुमने
सत्य को बांटा
कि तुमने उसे झुठला
दिया। और फिर
तुम जिंदगी भर
संघर्ष करते
रह सकते हो और
कुछ उपलब्ध
नहीं होगा। क्योंकि
बुनियादी रूप
से सत्य एक था
और मन ने उसे
दो खंडों में
बांट दिया, और अब तुम
खंडों के साथ
काम कर रहे हो।
उदाहरण
के लिए, मैंने कहा
कि जीवन और
मृत्यु एक हैं।
लेकिन मन के
लिए वे दो हैं
और मृत्यु
जीवन की शत्रु
है। लेकिन
वस्तुत:
मृत्यु जीवन
की शत्रु नहीं
है; क्योंकि
जीवन मृत्यु
के बिना नहीं
हो सकता। अगर
जीवन मृत्यु
के बिना नहीं
हो सकता तो
मृत्यु शत्रु
कैसे हो सकती
है? मृत्यु
बुनियादी
स्थिति है, मृत्यु जीवन
को संभव बनाती
है। जीवन
मृत्यु में ही
बड़ा होता है, मृत्यु
आत्मा है, उसके
बिना जीवन
असंभव है।
लेकिन मन, विचार
उसे बाटता है
और उसे विपरीत
छोर के रूप में
प्रस्तुत
करता है। और
तब तुम उसके
संबंध में
विचार करते रह
सकते हो।
लेकिन तुम जो
भी विचार
करोगे वह झूठा
होगा; क्योंकि
आरंभ में ही
तुमसे एक पाप
हो गया—विभाजन
का पाप।
जब तुम
ध्यान में
उतरते हो तो
विभाजन विलीन
हो जाते हैं।
जब तुम ध्यान
में उतरते हो
तो विभाजन
संभव ही नहीं
हैं। तुम मौन
में विभाजन
कैसे कर सकते
हो?
हम लोग
यहां हैं।
हरेक व्यक्ति
अपने मन में
कुछ न कुछ
विचार कर रहा
है। तब हम लोग
अलग—अलग हैं; तब
प्रत्येक
व्यक्ति अलग
है। क्योंकि
तुम्हारा
विचार
तुम्हारा
विचार है और
मेरा विचार
मेरा विचार है।
मेरे मन में
मेरे अपने
सपने हैं और
तुम्हारे मन
में तुम्हारे
अपने सपने हैं।
तब यहां अनेक
व्यक्ति हैं।
लेकिन
अगर हम सारे
लोग ध्यान
में हो—न तुम
विचार कर रहे
हो, न
मैं विचार कर रहा
हूं विचार
करना बंद हो
गया है—तो
यहां अनेक
व्यक्ति नहीं
होंगे। सच तो
यह है कि तब यहां
व्यक्ति ही
नहीं होंगे।
जब हम सारे
लोग ध्यान में
हैं तो सीमाएं
विलीन हो गई
हैं। जब मैं
ध्यान में हूं
और तुम ध्यान
में हो तो हम
दो व्यक्ति
नहीं हैं। हम
दो नहीं रह
सकते, क्योंकि
दो मौन एक हो
जाते हैं। वे
दो नहीं रह
सकते, क्योंकि
तुम एक मौन को
दूसरे मौन से
अलग कैसे कर
सकते हो? यह
नहीं हो सकता
है। तुम एक
विचार से
दूसरे विचार
को, एक मन
से दूसरे मन
को अलग कर
सकते हो, उनके
बीच सीमा—रेखा
खींच सकते हो।
लेकिन दो मौन
तो एक ही हैं, वे दो शून्यों
की भांति हैं।
और दो शून्य
दो नहीं हैं, एक ही हैं।
तुम हजार
शून्य रख सकते
हो, लेकिन
वे सब एक हैं।
ध्यान
अंतस में
शून्य
निर्मित करता
है—सभी विभाजन, सभी
सीमाएं विलीन
हो जाती हैं।
और उससे
तुम्हें
सच्ची आंख
उपलब्ध होती
है—तीसरी आंख,
दर्शन। अब
तुम्हारे पास
देखने वाली
सच्ची आंखें
हैं। और इन
सच्ची आंखों
के लिए सत्य उदघाटित
हो जाता है, खुला और
प्रकट हो जाता
है। और सत्य
के प्रकट होते
ही कोई समस्या
नहीं रह जाती
है।
तीसरा
प्रश्न :
खुले
निर्मल आकाश
को एकटक देखने,
प्रज्ञावान सदगुरु के
फोटो पर
त्राटक करने
और अंधकार को
अपलक देखने
में क्या फर्क
है?
देखने की विधि
दरअसल विषय से
संबंधित नहीं
है, यह
देखने से ही
संबंधित है।
क्योंकि जब
तुम किसी चीज
को अपलक देखते
हो तो तुम्हारी
दृष्टि स्थिर
हो जाती है।
तुम्हारा
फोकस एक जगह
पर हो जाता है
और तुम स्थिर
हो जाते हो।
और मन का
स्वभाव है कि
वह सतत चलता
रहे, सतत
गति करता रहे।
और अगर तुम
सचमुच अपलक
देखते हो, इधर—उधर
गति नहीं करते,
तो मन
निस्संदेह
कठिनाई में
पड़ेगा। मन की
प्रकृति है कि
वह एक विषय से
दूसरे विषय पर
डोलता रहे, सतत गति
करता रहे।
लेकिन
यदि तुम
अंधकार पर, या
प्रकाश पर, या किसी चीज
पर त्राटक
करते हो, अगर
तुम वास्तव
में एकटक
देखते हो तो
मन की गति बंद
हो जाती है।
क्योंकि अगर
मन गति करता
रहे तो तुम
एकटक नहीं देख
पाओगे, तुम
अपने लक्ष्य
को चूकते
रहोगे। जब मन
कहीं और चला
जाता है तो
तुम भूल जाओगे,
तुम्हें
याद नहीं
रहेगा कि तुम
किसे देख रहे
थे। शारीरिक
रूप से तो
विषय वहा मौजूद
रहेगा, लेकिन
तुम्हारे लिए
वह खो जाएगा।
क्योंकि तुम
वहां नहीं हो,
तुम विचार
में भटक गए हो।
एकटक
देखने का, त्राटक
का मतलब है
अपनी चेतना को
गति नहीं करने
देना, उसे स्थिर
करना। और जब
तुम मन को गति
नहीं करने
देते हो तो वह
शुरू—शुरू में
संघर्ष करता
है, कठिन संघर्ष
करता है।
लेकिन अगर तुम
त्राटक का
अभ्यास जारी
रखो तो मन
धीरे—धीरे संघर्ष
छोड़ देता है।
तब वह कुछ
क्षणों के लिए
ठहर जाता है।
और जब मन ठहर
जाता है तो मन,
नहीं होता
है, क्योंकि
मन केवल गति
में हो सकता
है, विचार
केवल गति में
संभव है। जब कोई
गति नहीं होती
तो विचार
विलीन हो जाते
हैं। क्योंकि
विचार भी गति
है; एक
विचार से
दूसरे विचार
पर गति करना
है। विचार एक
प्रक्रिया है।
यदि
तुम किसी एक
चीज को निरंतर
देखते हो, पूरे होश
से देखते हो, सावचेत होकर
देखते हो.
क्योंकि तुम
मुर्दा—मुर्दा
आंखों से भी
देख सकते हो।
तब तुम विचार
करते रहोगे और
तुम्हारी आंखें,
मुर्दा आंखें
देखती रहेंगी,
देखने का
बहाना करती
रहेंगी। तुम
मुर्दा आंखों
से देखोगे
और तुम्हारा
मन यहां—वहां
गति करता
रहेगा। वह
देखना नहीं है,
और उससे कुछ
लाभ नहीं होगा।
देखने
का अर्थ है कि
तुम्हारी आंखें
ही नहीं, तुम्हारा
समग्र मन भी आंखों
की राह से
किसी विषय पर
स्थिर हो गया
है। कोई भी
विषय हो सकता
है, यह तुम
पर निर्भर है।
अगर तुम्हें
प्रकाश पसंद
है तो ठीक है।
और अगर
तुम्हें
अंधेरा अच्छा
लगता है तो वह
भी ठीक है।
विषय गौण है।
महत्वपूर्ण
यह है कि
देखने में मन
को बिलकुल ठहरा
देना है, स्थिर
कर देना है, ताकि आंतरिक
गति, भीतरी
उछलकूद, हलन—चलन,
सब बंद हो
जाए। तुम
सिर्फ देखो, कुछ करो मत।
वह शात—स्थिर
देखना
तुम्हें
बिलकुल बदल
देगा। वह
ध्यान बन
जाएगा।
यह
अच्छा है। तुम
इसे प्रयोग कर
सकते हो।
लेकिन स्मरण
रहे कि
तुम्हारी आंखें
और तुम्हारी
चेतना एक साथ
हों, एक
हो जाएं। आंखों
से वास्तव में
तुम्हें
देखना है।
तुम्हें वहां
उपस्थित रहना
है, अनुपस्थित
नहीं।
तुम्हारी
उपस्थिति
जरूरी है—समग्र
उपस्थिति। और
तब तुम विचार
नहीं कर सकते;
तब विचार
करना असंभव है।
लेकिन
इसमें एक खतरा
है कि तुम मूर्च्छित
हो जा सकते हो, तुम नींद
में चले जा
सकते हो। खुली
आंखों से भी
संभव है कि
तुम सो जाओ।
तब तुम्हारी
दृष्टि पथरा
जाएगी।
आरंभ
में यह कठिनाई
होगी कि तुम देखोगे और
वहां उपस्थित
नहीं रहोगे।
यह पहली बाधा
है। तुम्हारा
मन भागता
रहेगा।
तुम्हारी आंखें
तो ठहरी होंगी, लेकिन
तुम्हारा मन
गति करता
रहेगा। आंख और
मन का मिलना
नहीं होगा। यह
पहली कठिनाई
होगी। और अगर
तुम इस कठिनाई
पर विजय पा गए
तो दूसरी कठिनाई
यह होगी कि
गति—शून्य
देखने में
तुम्हें नींद
पकड़ लेगी। तुम
आत्मसम्मोहन
में चले जाओगे,
तुम स्वयं
ही अपने को
सम्मोहित कर
लोगे। और यह
स्वाभाविक है।
क्योंकि
हमारा मन दो
ही अवस्थाएं
जानता है. सतत
गति या नींद।
स्वभावत: मन
दो ही
अवस्थाओं में
रहना जानता है
निरंतर गति
में, विचार
में, या
नींद में।
और
ध्यान तीसरी
अवस्था है।
ध्यान की
तीसरी अवस्था
का मतलब है कि
मन उतना शांत
है जितना प्रगाढ़
नींद में वह
शात होता है
और साथ ही
उतना सजग और सावचेत
है जितना
विचार की
अवस्था में
होता है।
ध्यान में
दोनों गुण एक
साथ मौजूद
रहते हैं।
तुम्हें पूरी
तरह सजग और
सावचेत रहना
है और साथ ही
साथ गहरी नींद
जैसे शात भी
रहना है।
इसीलिए
पतंजलि का योगसूत्र
कहता है कि
ध्यान प्रगाढ़
निद्रा की
अवस्था जैसा
है—सिर्फ इस
फर्क के साथ
कि तुम सावचेत
हो। पतंजलि
समाधि की
तुलना
सुषुप्ति से
करते है।
दोनों में
इतना ही अंतर
है कि
सुषुप्ति में
तुम सजग नहीं
हो और ध्यान
में तुम सजग
हो। लेकिन
दोनों में एक
समान गुण है.
वह है प्रगाढ़
मौन, निस्तरंग,
निष्कंप, निश्चल मौन।
तो
आरंभ में ऐसा
हो सकता है कि
अपलक देखने से
तुम्हें नींद
लग जाए। इसलिए
जब तुम अपने
मन को स्थिर
करने में सफल
हो जाओ और
तुम्हारा मन
ठहर जाए तो
सजग रहो, सो मत जाओ।
क्योंकि यदि
नींद आ गई तो
तुम फिर गड्डे
में गिर गए, अतल खाई में
उतर गए। इन दो खाईयों—सतत
विचार ओर नींद—के
बीच में ध्यान
का पतला—सा
पुल है।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि
विज्ञान आब्जेक्टिव
के साथ प्रयोग
करता है और
धर्म सब्जेक्टिव
के साथ। लेकिन
इधर एक नया
विकासमान है, जिसका
नाम
मनोविज्ञान—
या ज्यादा
उचित होगा
कहना गहराई का
मनोविज्ञान, डेप्थ
साइकोलाजी है—
जो आब्जेक्टिव
और सब्जेक्टिव
दोनों से
संबंधित है।
तो क्या इस
गहराई के
मनोविज्ञान
में विज्ञान
और धर्म का
मिलन होता है?
वे नहीं मिल
सकते हैं।
गहराई का
मनोविज्ञान
या चित्त की
गतिविधियों
का अध्ययन भी आब्जेक्टिव
है। और गहराई
के
मनोविज्ञान
की विधि भी आब्जेक्टिव
विज्ञान की
विधि है। इस
भेद को समझने
की कोशिश करो।
उदाहरण के लिए, तुम
ध्यान का
अध्ययन
वैज्ञानिक
ढंग से कर सकते
हो। तुम किसी
ध्यान करने
वाले व्यक्ति
का निरीक्षण
कर सकते हो।
लेकिन यह
निरीक्षण
तुम्हारे लिए आब्जेक्टिव
हो गया। तुम
ध्यान करते हो
और मैं
निरीक्षण
करता हूं। यह
देखने के लिए
कि तुम्हें
क्या हो रहा
है, तुम्हारे
भीतर क्या हो
रहा है, मैं
सभी
वैज्ञानिक
यंत्र प्रयोग
में ला सकता हूं।
यह
अध्ययन आब्जेक्टिव
है; मैं
खुद प्रयोग के
बाहर हूं। मैं
ध्यान नहीं कर
रहा हूं; तुम
ध्यान कर रहे
हो। तुम मेरे
लिए आब्जेक्ट
हो। तब मैं यह
समझने की
चेष्टा कर
सकता हूं कि
तुम्हें क्या
हो रहा है।
यंत्रों के
द्वारा भी
तुम्हारे
बारे में बहुत
कुछ जाना जा
सकता है, लेकिन
वह जानकारी आब्जेक्टिव
और वैज्ञानिक
ही होगी। असल
में मैं जो भी
अध्ययन करता
हूं वह वही
नहीं है जो
तुम्हें हो
रहा है, बल्कि
वह तुम्हारे
शरीर पर हुआ
प्रभाव है।
तुम
किसी बुद्ध
में प्रवेश
करके नहीं देख
सकते कि
उन्हें क्या
हो रहा है; क्योंकि
यथार्थत: वहा
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
बुद्ध पुरुष
का गहनतम
केंद्र शून्य
है, वह।
शून्य घटित
हुआ है। और
अगर शून्य
घटित हुआ है
तो तुम उसका
अध्ययन कैसे कर
सकते हो? तुम
किसी चीज का
अध्ययन कर
सकते हो। तुम अल्फा
तरंगों का
अध्ययन कर
सकते हो; मन
को, शरीर
को, रासायनिक
व्यवस्था को
क्या हो रहा
है, यह तुम
समझ सकते हो।
लेकिन जब कोई
बुद्ध हो जाता
है तो वहां
उसकी गहराई
में कुछ भी
नहीं होता है,
सब होना
समाप्त हो
जाता है।
संसार समाप्त
हो गया, यह
कहने का यही
अर्थ है। अब
वहा कोई संसार
न रहा,कोई
घटना न रही।
बुद्ध पुरुष
ऐसे होते हैं
जैसे नहीं हैं।
इसीलिए बुद्ध
कहते हैं कि
मैं अब अनत्ता
हो गया हूं; मेरे भीतर
कोई भी नहीं
है; मैं बस
शून्य हूं; ज्योति बुझ
गई है और घर
खाली है।
वहा
परम शून्य है।
तुम उसके
संबंध में
क्या लिखोगे? ज्यादा
से ज्यादा यही
लिख सकते हो
कि कुछ नहीं
हो रहा है।
यदि कुछ हो
रहा होता तो
उसे आब्जेक्टिव
रूप से देखा
जा सकता था।
विज्ञान
की विधि आब्जेक्टिव
है। और
विज्ञान सब्जेक्टिव
से बहुत भयभीत
है—कई कारण से।
विज्ञान और
वैज्ञानिक
चित्त सब्जेक्टिवमें
विश्वास नहीं
करता है।
क्योंकि पहले
तो वह निजी है, वैयक्तिक
है और उसमें
कोई प्रवेश
नहीं कर सकता।
वह सार्वजनिक
और सामूहिक
नहीं हो सकता
है। और जब तक
कोई चीज
सार्वजनिक और
सामूहिक न हो,
उसके संबंध
में कुछ नहीं
कहा जा सकता।
जो व्यक्ति
उसके संबंध
में कुछ कह
रहा है वह हो
सकता है खुद
धोखे में हो, या औरों को
धोखा दे रहा
हो। वह झूठा
हो सकता है; या यदि झूठा
न भी हो तो वह
स्वयं भ्रमित
हो सकता है।
वह सोचता हो, मानता हो कि
कुछ हुआ है और
हो सकता है यह
महज भ्रांति
हो, आत्मवचना हो।
तो
विज्ञान के
लिए सत्य का आब्जेक्टिव
होना जरूरी है।
जरूरी है कि
दूसरे उसमें
भाग ले सकें, ताकि हम
निर्णय कर
सकें कि यह
बात सही है या
नहीं।
दूसरी
बात जरूरी है
कि प्रयोग
दोहराया जा
सके, उसे
दोहराने
योग्य होना
चाहिए। अगर हम
पानी को गर्म
करते हैं तो
वह एक विशेष
तापमान पर भाप
बन जाता है।
यह प्रयोग
दोहराया जा
सकता है। और
हम चाहे जितनी
बार भी दोहराएं,
पानी सदा
उसी तापमान पर
भाप बनता है।
लेकिन यदि
पानी एक बार
तो सौ डिग्री
पर भाप बनता
है और फिर
नहीं बनता, या कभी वह
अस्सी डिग्री
पर भाप बनता
है, तो यह
वैज्ञानिक
तथ्य नहीं बन
सकता है।
प्रयोग का
दोहराए जाने
योग्य होना
जरूरी है और
यह भी जरूरी
है कि हर बार
के प्रयोग में
एक ही निष्पत्ति
हाथ लगे।
लेकिन सब्जेक्टिव
उपलब्धि को, वैयक्तिक
ज्ञान को
दोहराया नहीं
जा सकता, उसकी
भविष्यवाणी
भी नहीं हो
सकती है। और न
तुम उसे
बुलावा दे
सकते हो, वह
अपने आप घटित
होता है। उसके
साथ जबरदस्ती
नहीं की जा
सकती है। संभव
है, तुम्हें
गहन ध्यान
घटित हुआ हो, तुम्हें
आनंद का शिखर—
अनुभव हुआ हो;
लेकिन यदि
कोई कहे कि
फिर करके
दिखाओ तो तुम
नहीं दिखा
सकोगे। इसके
विपरीत, क्योंकि
कोई कहता है
और तुम करने
का प्रयत्न करते
हो, यह
प्रयत्न ही
बाधा बन सकता
है। यहां तक
कि
निरीक्षकों
की उपस्थिति
भी बाधा बन
सकती है। तुम
प्रयोग को
नहीं दोहरा
पाओगे।
विज्ञान
के लिए आब्जेक्टिव
और दोहराने
योग्य प्रयोग
जरूरी हैं। और
मनोविज्ञान
को, यदि
वह विज्ञान
होना चाहता है,
वैज्ञानिक
नियमों का
अनुसरण करना
होगा।
धर्म सब्जेक्टिव
है, निजी
है, उसे
किसी तथ्य को
सिद्ध करने की
चिंता नहीं है।
उसकी एकमात्र
फिक्र है कि
कैसे
वैयक्तिक अनुभव
को उपलब्ध हुआ
जाए। जो गहनतम
है उसे
वैयक्तिक
रहना चाहिए; जो परम है
उसे निजी रहना
चाहिए। वह
सामूहिक नहीं
हो सकता है।
जब तक सभी लोग
बुद्धत्व को न
उपलब्ध हो
जाएं बुद्धत्व
सामूहिक नहीं
हो सकता। उसे
उपलब्ध होने
के लिए
तुम्हें
विकास करना है।
तो
विज्ञान और
धर्म वस्तुत:
नहीं मिल सकते
हैं, क्योंकि
उनके रास्ते
अलग— अलग हैं।
धर्म बिलकुल
निजी है—वही
व्यक्ति
स्वयं के साथ
संबंधित है।
यही कारण है
कि अतीत में
जो देश अन्य
देशों से ज्यादा
धार्मिक हुए
वे व्यक्तिवादी
हो गए। उदाहरण
के लिए भारत
है।
भारत व्यक्तिवादी
देश है, वह यहां तक व्यक्तिवादी
है कि
स्वार्थी
मालूम पड़ता है।
हरेक व्यक्ति
अपनी ही चिंता
करता है, अपने
विकास की, अपने
बुद्धत्व की
चिंता करता है।
उसे दूसरों की
कोई चिंता
नहीं है, वह
दूसरों के
प्रति, समाज
के प्रति, सामाजिक
स्थिति के
प्रति, गरीबी
और गुलामी के
प्रति उदासीन
है। हरेक
व्यक्ति अपनी
फिक्र करता है,
स्वयं के शिखर
तक उठने की
फिक्र करता है।
यह बात
स्वार्थपूर्ण
मालूम पड़ती
है।
पश्चिम के
देश ज्यादा
समाजवादी है
और कम व्यक्तिवादी।
इसीलिए साम्यवाद
की धारणा
भारतीय चित्त
के लिए असंभव
हो गई। हमने
जगत को बुद्ध
और पतंजलि तो
दिए, लेकिन
हम मार्क्स न
दे सके।
मार्क्स को
पश्चिम से आना
पड़ा, जहां
समाज, सामूहिक
जीवन व्यक्ति
से ज्यादा
महत्वपूर्ण है,
जहां वितान
धर्म से
ज्यादा महिमावान
है, जहां आब्जेक्टिव
घटना
तुम्हारी
बिलकुल निजी
घटना से
ज्यादा महत्वपूर्ण
है। पश्चिम के
लिए एकांत में
घटित होने
वाली चीज
स्वप्नवत है।
इसे
देखो। जो
सार्वजनिक
रूप से घटित
होता है उसे
हम माया कहते
हैं। शंकर
कहते हैं कि
सारा जगत माया
है। वह जो
तुम्हारे
अंतरतम में
घटित होता है, वही परम,
वही ब्रह्म
सत्य है और
शेष सब असत्य
है। और पश्चिम
की वैज्ञानिक
दृष्टि ठीक
इसके विपरीत
है। उसके
अनुसार जो
तुम्हारे
भीतर घटित
होता है वह
भ्रांति है, जो बाहर
घटित होता है
वही सत्य है।
ये दो
दृष्टियां
इतनी भिन्न
हैं और उनके
रास्ते इतने
विपरीत हैं कि
उनका मिलन
नहीं हो सकता
है। और उसकी
जरूरत भी नहीं
है। उनके आयाम
अलग— अलग हैं, उनके
क्षेत्र अलग—अलग
हैं। वे एक—दूसरे
के क्षेत्र
में बाधा नहीं
देते हैं, उनमें
कोई विरोध
नहीं है।
विरोध की कोई
जरूरत नहीं है।
विज्ञान आब्जेक्टिव
जगत के साथ
काम करता है
और धर्म
वैयक्तिक, निजी,
सब्जेक्टिव जगत के साथ
काम करता है।
वे एक—दूसरे
के क्षेत्र
में अतिक्रमण
नहीं करते हैं;
उनमें
संघर्ष की कोई
संभावना ही
नहीं है।
और
मेरी दृष्टि
यह है कि जब
तुम बाहरी
दुनिया के साथ
काम कर रहे हो
तो तुम्हें
वैज्ञानिक
रुझान से काम
करना चाहिए और
जब तुम अपने
पर काम कर रहे
हो तो तुम्हें
धार्मिक
रुझान से काम
करना उचित है।
और दोनों के
बीच कोई विरोध, कोई
संघर्ष मत
पैदा करो।
उसकी कोई
जरूरत नहीं है।
अंतस के जगत
में विज्ञान
को मत ले जाओ
और वैसे ही
बाहर के जगत
में धर्म को
मत ले जाओ।
अगर
तुम बाहर के
जगत में धर्म
को ले जाओगे
तो तुम
अराजकता पैदा
करोगे। भारत
में हमने यही
किया है; पूरा गड़बड़—घोटाला
हो गया है। और
अगर तुम आंतरिक
जगत में
विज्ञान को ले
जाओगे तो तुम
विक्षिप्तता पैदा
करोगे, पश्चिम
ने यही किया
है। अब पश्चिम
पूरी तरह
विक्षिप्त हो
रहा है। और
दोनों ने एक
ही भूल की है।
तो
दोनों को गडु—मडु मत करो, न बाह्य
में अंतस को घुसाओ और न
अंतस में
बाह्य को। सब्जेक्टिव
को सब्जेक्टिव
रहने दो और आब्जेक्टिव
को आब्जेक्टिव।
और जब तुम बाहर
जाओ तो
वैज्ञानिक और आब्जेक्टिव
रहो और जब
अंदर प्रवेश
करो तो
धार्मिक और सब्जेक्टिव
होओ। कोई
विरोध पैदा
करने की जरूरत
नहीं है—बिलकुल
नहीं।
संघर्ष
तब खड़ा होता
है जब हम
दोनों आयामों
पर एक ही
दृष्टि को
थोपने की
कोशिश करते
हैं। हम पूरी
तरह
वैज्ञानिक
होना चाहते
हैं या पूरी
तरह धार्मिक।
यह गलत है; आब्जेक्टिव
जगत में
धार्मिक
दृष्टिकोण से
चलना या सब्जेक्टिव
जगत में
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
अपनाना भूल
भरा है, खतरनाक
है, हानिकारक
है।
पांचवां
प्रश्न :
आपने अनेक
उपायों और
विधियों की
चर्चा की है।
उन्हें सफल्लापूवर्क
पूरा करने की
हममें बहुत
उत्कंठा है।
हम अपने अति
अधैर्य को
कैसे वश में
करें?
यहां दो
बातें स्मरण
रखने जैसी हैं।
एक कि
अध्यात्म
हमारी कामना
का फल नहीं हो
सकता, क्योंकि
कामना ही
हमारी सब
चिंता और
संताप का मूल
कारण है। और
तुम अपनी
कामनाओं को
आध्यात्मिक
जगत में नहीं
ला सकते हो।
लेकिन
यह होता है।
और यह
स्वाभाविक है।
क्योंकि हम एक
ही यात्रा से
परिचित है—वह
है कामना की
यात्रा। हम
सांसारिक
चीजों की
कामना करते
हैं। कोई धन
चाहता है, कोई यश
चाहता है, कोई
पद—प्रतिष्ठा
चाहता है, कोई
कुछ चाहता है।
हम संसार की
चीजों की कामना
करते हैं और
इस तरह की
कामनाओं से
हमें निराशा
हाथ लगती है।
और
निराशा ही हाथ
लगने वाली है, हमारी
कामना पूरी
होती है या
नहीं, यह
अप्रासंगिक
है। अगर कामना
पूरी नहीं
होती है तब तो
जाहिर है कि
हम दुखी होंगे।
लेकिन अगर
कामना पूरी हो
जाती है तो भी
हम दुखी होंगे।
क्योंकि जब
कोई कामना
पूरी होती है
तो कामना तो
पूरी होती है,
लेकिन
आश्वासन नहीं
पूरा होता है।
तुम्हें मन
चाहा धन मिल
सकता है, लेकिन
वस्तुत: धन
नहीं चाहा गया
था, धन के
द्वारा कुछ और
ही चाहा गया
था। और वह कभी
पूरा नहीं
होता है। तुम
धन तो पा सकते
हो, लेकिन
तुमने धन के
इर्द—गिर्द जो
आशा पाली थी—सुख
की आशा, आनंद
की आशा, महासुख की आशा—वह
आशा पूरी नहीं
होती है।
इसलिए धन न
मिलने पर भी
तुम दुखी होते
हो और धन मिलने
पर भी तुम
दुखी होते हो।
सब कुछ है, सब
साधन हाथ में
हैं, लेकिन
साध्य हाथ से
निकल गया है।
साध्य सदा छूट—छूट
जाता है।
इसलिए कामना
की राह में एक
गहन निराशा
अनिवार्य है।
और जब
यह गहन निराशा
तुम्हें पकड़ती
है तो
तुम्हारी नजर
इस संसार से
सर्वथा भिन्न
चीज की तरफ
उठती है। तब
एक धार्मिक
कामना पैदा
होती है, एक धार्मिक
चाह का जन्म
होता है।
लेकिन तुम फिर
कामना करने
लगते हो। और
तुम फिर बेचैन
होने लगते हो;
तुम यह पाना
चाहते हो, वह
पाना चाहते हो।
तो मन नहीं
बदला; कामना
का विषय बदल
गया। पहले तुम
धन चाहते थे, अब ध्यान
चाहते हो।
पहले पद—प्रतिष्ठा
की खोज थी, अब
मौन और शांति
की खोज है।
पहले कुछ
चाहते थे, अब
कुछ और चाहते
हो। लेकिन मन
और मन की
व्यवस्था, तुम्हारे
होने का ढंग, सब वही का
वही है। पहले
तुम क चाहते
थे, अब ख
चाह रहे हो; लेकिन चाहना
जारी है, कामना
जारी है।
और
कामना समस्या
है, यह
समस्या नहीं
है कि तुम
क्या चाहते हो।
तुम क्या
चाहते हो यह
समस्या नहीं
है, समस्या
यह है कि तुम
चाहते हो, तुम
फिर कामना कर
रहे हो। और
तुम्हें फिर
निराशा हाथ
लगेगी, दुख
हाथ लगेगा।
तुम असफल
होंगे तो दुखी
होगे, तुम
सफल होंगे तो
भी दुखी होगे।
वही बात फिर—फिर
होगी, क्योंकि
तुम असली बात
नहीं समझे, तुम असली
बात ही चूक गए।
तुम
ध्यान को नहीं
चाह सकते, क्योंकि
ध्यान तभी घटित
होता है जब
कोई चाह नहीं रहती।
तुम मोक्ष की,
निर्वाण की
कामना नहीं कर
सकते; क्योंकि
मोक्ष या
निर्वाण केवल निष्काम
अवस्था में
घटित होता है,
उसे कामना
का विषय नहीं
बनाया जा सकता
है।
इसलिए
मेरे देखे—और
उन सबके देखे
जो जानते हैं—कामना
करना ही संसार
है, चाहना
ही संसार है।
ऐसा नहीं है
कि तुम
सांसारिक
चीजें चाहते
हो, नहीं, चाहना ही
संसार है, कामना
ही संसार है।
और जब
तुम कामना
करते हो तो
अधैर्य
अनिवार्य है।
क्योंकि मन
प्रतीक्षा
करना नहीं
चाहता है, मन
स्थगित करना
नहीं चाहता है।
मन अधीर है।
अधैर्य कामना की
छाया है।
कामना जितनी
तीव्र होगी, उतना ही
अधैर्य होगा।
और अधैर्य से
अशांति पैदा
होगी। तब तुम
ध्यान को कैसे
उपलब्ध होगे?
कामना से मन
गतिमान होता
है और कामना
से अधैर्य
पैदा होता है।
और अधैर्य से
अधिक अशांति
आती है।
ऐसा
होता है और यह
मैं रोज—रोज
देखता हूं। एक
आदमी
सांसारिक
जीवन में था
और उतना अशांत
नहीं था।
लेकिन वह जब
ध्यान शुरू
करता है, या धार्मिक
आयाम में गति
शुरू करता है
तो वह ज्यादा अशांत
हो जाता है—जितना
कि वह पहले
कभी नहीं था।
क्योंकि अब
उसकी कामना
पहले से
ज्यादा है और उसका
अधैर्य अधिक
है। और संसार
की चीजें इतनी
ठोस और
वास्तविक थीं
कि वह उनकी प्रतीक्षा
कर सकता था।
वे सदा उसकी
पहुंच के भीतर
थीं। अब
अध्यात्म के
जगत में चीजें
इतनी अदृश्य
हैं, इतनी
सूक्ष्म हैं,
दूर की हैं,
कि वे कभी
उसकी पहुंच के
भीतर नहीं
लगती हैं।
जिंदगी बहुत
छोटी मालूम पड़ती
है और कामना
के विषय अनंत
मालूम पड़ते
हैं। इससे और
अधिक अधैर्य,
और अधिक अशांति
पैदा होती है।
और अशांत मन
से तुम ध्यान
कैसे करोगे?
यही
उलझन है। इसे
समझने की
कोशिश करो।
अगर तुम
वास्तव में
निराश हो, दुखी हो,
अगर तुम
समझते हो कि
बाहर की सारी
चीजें व्यर्थ
हैं—धन, कामवासना,
पद—प्रतिष्ठा,
सब व्यर्थ
हैं—अगर
तुम्हें यह
बोध हुआ है, तो अब
तुम्हें उससे
भी एक गहरी
बात समझने की
जरूरत है। अगर
ये चीजें
व्यर्थ हैं तो
कामना करना और
भी व्यर्थ है।
तुम कामना
करते रहते हो
और कुछ भी
नहीं होता है।
कामना से दुख
ही निर्मित
होता है।
इस
तथ्य को देखो
कि कामना से
दुख निर्मित
होता है। और
अगर तुम कामना
न करो तो कोई
दुख नहीं है।
तो कामना को छोड़ो! और नई
कामना मत
निर्मित करो।
बस कामना करना
छोड़ दो। कोई
आध्यात्मिक
कामना मत पैदा
करो, मत
कहो कि अब मैं
ईश्वर को
खोजने निकला
हूं कि मैं यह
पाना चाहता हूं, वह पाना
चाहता हूं,
कि मैं सत्य
को उपलब्ध
होना चाहता
हूं। नई कामना
मत निर्मित
करो।
अगर
तुम नई कामना
निर्मित करते
हो तो उसका
अर्थ है कि
तुमने अपने
दुख को नहीं
समझा। उस दुख
को देखो जो
कामना से पैदा
होता है। समझो
कि कामना दुख
है और उसे
गिरा दो, छोड़ दो। उसे
छोड़ने के लिए
किसी प्रयत्न
की जरूरत नहीं
है।
स्मरण
रहे, अगर
तुम प्रयत्न
करोगे तो तुम
दूसरी कामना
निर्मित कर
लोगे। तुम कोई
दूसरी कामना
इसीलिए तो
खोजते हो ताकि
उसे पकड कर
इसे छोड़ सको।
अगर दूसरी
कामना होगी तो
तुम उसका
सहारा पकड़ लोगे।
तब तुम नई
कामना से चिपक
जाओगे और
पुरानी को छोड़
दोगे। अगर कोई
नई कामना
मिलती हो तो
पुरानी को छोड़ना
आसान है।
लेकिन तब तुम
पूरी बात ही
चूक गए।
कामना
मात्र को छोड़ो
और नई कामना
मत निर्मित
करो। और तब
कोई अधैर्य
नहीं होगा। तब
तुम्हें
ध्यान साधना
नहीं पड़ेगा, ध्यान
तुम्हें घटित
होने लगेगा।
क्योंकि
निष्काम
चित्त ध्यान
में होता है।
और तब तुम इन
विधियों के
साथ खेल सकते
हो। मैं इसे
खेल कहता हूं।
तब तुम इन
विधियों के
साथ खेल सकते
हो। तब यह
साधना नहीं है,
अभ्यास
नहीं है।
अभ्यास शब्द
ठीक नहीं है, यह शब्द ही
गलत है। तब
तुम इन
विधियों के
साथ खेल सकते
हो, तुम
उनका आनंद ले
सकते हो।
क्योंकि अब
कुछ पाने की
कामना नहीं है,
अब कहीं
पहुंचने का
अधैर्य नहीं
है।
तुम
खेल सकते हो, और खेल से—जब
ध्यान खेल हो
जाता है—सब
संभव है। और
सब तुरंत संभव
होता है, क्योंकि
तुम अशांत
नहीं हो, बेचैन
नहीं हो, तुम
जल्दी में नहीं
हो, तुम्हें
कहीं जाना
नहीं है, कहीं
पहुंचना नहीं
है। तुम यहीं
और अभी हो।
ध्यान हो तो
ठीक, न हो
तो ठीक। अब
तुममें कुछ
गलत नहीं है, क्योंकि कोई
कामना नहीं है,
अपेक्षा
नहीं है
भविष्य नहीं
है। और ध्यान
रहे, जब
ध्यान और गैर—
ध्यान
तुम्हारे लिए
समान हैं तो
यही ध्यान है,
तुम पहुंच
गए। मंजिल आ
गई, परम का
आविर्भाव हुआ।
यह
अजीब मालूम
पड़ेगा कि मैं
कहता हूं कि
ध्यान को
साधना मत बनाओ।
खेल बनाओ, उसे हंसी—खेल
समझो और किसी
फल के लिए
नहीं, उसे
करने में ही
उसका सुख लो।
हमारा मन बहुत
गंभीर है, अत्यंत
गंभीर है। अगर
हम खेलते भी
हैं तो उसे
गंभीर चीज बना
लेते हैं, हम
खेल को भी काम
बना लेते हैं,
कर्तव्य
बना लेते हैं।
छोटे बच्चों
की तरह खेलो।
ध्यान की
विधियों के
साथ खेलो। और
तब उनसे बहुत
कुछ संभव है।
उन्हें
गंभीरता से मत
लो, उन्हें
हंसी—खेल समझो।
लेकिन
हम तो सब
चीजों को
गंभीर बना
लेते हैं। हम
तो खेल को भी
गंभीर बना
लेते हैं। और
धर्म के साथ
तो हम सदा से
गंभीर रहे हैं।
हमने धर्म को
कभी हंसी—खेल
की तरह नहीं
लिया। और यही
कारण है कि
पृथ्वी
अधार्मिक बनी
रही। धर्म को
हंसी—खेल
बनाना है, आनंद
बनाना है, उत्सव
बनाना है। इसी
क्षण को उत्सव
बनाना है, तुम
जो भी कर रहे
हो उसका आनंद
लेना है—इतना
आनंद लेना है,
इतना गहन
आनंद लेना है
कि मन समाप्त
हो जाए।
अगर
तुम मुझे ठीक
से समझो तो ये
एक सौ बारह
विधियां बताएंगी
कि प्रत्येक
चीज विधि बन
सकती है। अगर
तुम मुझे
वस्तुत: समझते
हो तो यह हो
सकता है।
इसीलिए तो एक
सौ बारह
विधियां हैं।
अगर तुम उस
चित्त की
गुणवत्ता को
समझो जिसमें
ध्यान होता है
तो प्रत्येक
चीज विधि बन
सकती है। उसके
साथ खेलो, उसे
उत्सव बनाओ, उसका आनंद
लो। उसमें
इतने गहरे
उतरो कि समय
समाप्त हो जाए।
लेकिन
यदि कामना है, चाह है, तो समय
समाप्त नहीं
हो सकता। सच
तो यह है कि
कामना ही समय
है। जब तुम
कुछ कामना
करते हो तो
उसके लिए
भविष्य जरूरी
है, क्योंकि
कामना यहीं और
अभी पूरी नहीं
हो सकती है।
कामना भविष्य
में ही पूरी
हो सकती है।
इसलिए कामना
को गति करने
के लिए भविष्य
की जरूरत होती
है। और तब समय
तुम्हें नष्ट
कर देता है, तुम शाश्वत
से वंचित रह
जाते हो।
शाश्वत अभी और
यहीं है।
तो
ध्यान को हंसी—खेल
की तरह लो, उसे आनंद
और उत्सव बनाओ।
और किसी भी
चीज को उत्सव
बनाया जा सकता
है। तुम बाहर बगीचे में
गड्डा खोद रहे
हो—यही चीज
विधि बन सकती
है। सिर्फ खोदो
और खोदने के
कृत्य को उत्सव
बनाओ, उसका
आनंद लो। पूरी
तरह कृत्य ही
बन जाओ और
कर्ता को भूल
जाओ। कोई 'मैं'
नहीं है, कृत्य ही है।
और तुम कृत्य
में डूबे हो, आनंदपूर्वक
डूबे हो। तब
समाधि है—कोई
अधैर्य नहीं,
कोई कामना
नहीं और कोई
प्रयोजन
नहीं।
यदि
तुम ध्यान में
प्रयोजन, कामना और
अधैर्य को जोड़ोगे
तो तुम सब
नष्ट कर दोगे।
और तब तुम
जितना करोगे,
उतनी ही
निराशा होगी।
तुम कहोगे कि
मैं इतना कर
रहा हूं और
कुछ नहीं होता
है। लोग मेरे
पास आते हैं
और कहते हैं. 'मैं यह कर
रहा हूं? मैं
वह कर रहा हूं
और इतने
महीनों से कर
रहा हूं इतने
वर्षों से कर
रहा हूं; और
कुछ नहीं हो
रहा है!'
एक
साधक यहां हालैंड
से आया था। वह
एक विधि का
प्रयोग दिन
में तीन सौ
बार करता था।
उसने मुझसे
कहा. 'दो
वर्षों से मैं
प्रति दिन यह
विधि तीन सौ
दफे कर रहा
हूं। एक दिन
की भी चूक
नहीं हुई है।
मैंने सब छोड़
दिया है, क्योंकि
मुझे यह विधि
तीन सौ बार
करनी है। और
कुछ नहीं हुआ!'
और इस कठिन
साधना के कारण
वह साधक
विक्षिप्तता
के कगार पर आ खडा हुआ था।
मैंने
उससे कहा : 'पहली तो
बात कि तुम
इसे छोड़ दो।
और जो कुछ
करना चाहो करो,
लेकिन इस
विधि को मत
करो। अन्यथा
तुम पागल हो
जाओगे।’
उसने
इस विधि को
अत्यंत
गंभीरता से
लिया हुआ था।
यह उसके लिए
जीवन—मरण का
सवाल था। चाहे
जैसे हो उसे
यह हासिल करना
था। और उसने
कहा. 'कौन
जानता है कि
मेरे कितने
दिन बचे हैं? समय कम है और
मुझे यह इसी
जन्म में
हासिल कर लेना
है। मैं पुन:
जन्म लेना
नहीं चाहता, जीवन ऐसा
संताप है!' वह
फिर—फिर जन्म
लेगा। और जिस
ढंग से वह
प्रयोग कर रहा
है वह और—और
पागल होता
जाएगा।
लेकिन
यह गलत है।
पूरी दृष्टि
ही गलत है।
ध्यान को खेल
की तरह लो, उसे हंसी—खेल
समझो और उसका
आनंद लो। और
तब उसकी
गुणवत्ता ही
बदल जाती है।
तब तुम उसका
उपयोग किसी
साध्य के लिए
साधन की तरह
नहीं कर रहे
हो। नहीं, तुम
यहीं और अभी
उसका आनंद ले
रहे हो। तब
यही साधन है
और यही साध्य
है। यही आरंभ
है और यही अंत
है।
और तब
तुम ध्यान से
वंचित नहीं
रहोगे। तब तुम
इसे नहीं चूक
सकते, ध्यान
तुम्हें घटित
होगा।
क्योंकि अब
तुम उसके लिए
तैयार हो; तुम
खुले हुए हो।
किसी ने नहीं
कहा है कि
ध्यान को खेल
की तरह लो, लेकिन
मैं कहता हूं
इसे खेल की
तरह लो। छोटे
बच्चों की
भांति इसके
साथ खेलो।
अंतिम
प्रश्न :
उस दिन
आपने कहा कि
अस्तित्व में
अंधकार
प्रकाश से
ज्यादा
बुनियादी है
जब कि अधिकांश
धर्मों का
खयाल ठीक इसके
विपरीत है।
क्या आप इस पर, विशेषकर इसके
प्रति आधुनिक
विज्ञान की
दृष्टि को
ध्यान में
रखकर, कुछ
और प्रकाश
डालने की कृपा
करेंगे? क्या
आधुनिक
विज्ञान यह
नहीं कहता है कि
पदार्थ के
अंतिम
विभाज्य घटक विद्यत—ऊर्जा
मात्र हैं?
फिर वही
विभाजन:
प्रकाश और
अंधेरा। वे दो
हैं, अगर
तुम मन से
देखते हो। और अगर
तुम उन पर
ध्यान करते हो
तो एक है। और
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है कि
तुम प्रकाश पर
ध्यान करते हो
या अंधकार पर।
अगर तुम ध्यान
करते हो तो वे
एक ही घटना के
दो छोर हैं।
तब प्रकाश कम
अंधकार है और
अंधकार कम
प्रकाश है।
अंतर केवल
मात्राओं का
है। वे एक—दूसरे
के विपरीत दो
चीजें नहीं
हैं, बल्कि
वे एक ही तत्व
की, एक ही
घटना की भिन्न—भिन्न
मात्राएं हैं,
अवस्थाएं
हैं।
और वह
तत्व न प्रकाश
है और न
अंधकार। वह एक, जिसकी ये
दोनों
मात्राएं हैं,
न प्रकाश है
और न अंधकार
है—या वह
दोनों है। और
तुम उसमें
प्रकाश से भी
प्रवेश कर
सकते हो, तुम
उसमें अंधकार
से भी प्रवेश
कर सकते हो।
यह तुम पर
निर्भर है।
अनेक
धर्मों ने
प्रकाश का
उपयोग किया है; क्योंकि
वह ज्यादा
सुगम है, ज्यादा
सरल है।
अंधकार कठिन
है और दुर्गम
है। अगर तुम
अंधकार के
द्वार से
प्रवेश करने
की कोशिश में
हो तो तुम
कठिन मार्ग का
चुनाव कर रहे
हो। इसीलिए
अनेक धर्मों
ने प्रकाश को
चुना है।
लेकिन तुम
दोनों में से
किसी को भी
चुन सकते हो।
यह तुम पर
निर्भर है।
अगर
तुम
दुस्साहसी हो
और चुनौतियों
से घबराते
नहीं तो
अंधेरे को
चुनो। अगर तुम
कमजोर हो और
कठिन रास्ते पर
नहीं जाना
चाहते हो तो
प्रकाश को
चुनो।
क्योंकि
दोनों एक ही
तत्व के दो
पहलू हैं जो कहीं
प्रकाश की तरह
दिखाई पड़ता है
और कहीं अंधकार
की तरह दिखाई
पड़ता है।
उदाहरण
के लिए, यह कमरा
प्रकाश से भरा
है, लेकिन
यह प्रकाश
हरेक व्यक्ति
के लिए एक
जैसा नहीं है,
या कि है? अगर मेरी आंखें
कमजोर हैं तो
मेरे लिए वैसा
ही प्रकाश
नहीं है जैसा
तुम्हारे लिए
है। मुझे वह
थोड़ा धुंधला
मालूम पड़ता है।
मान लो कि
मंगल ग्रह से,
या किसी
अन्य ग्रह से
कोई व्यक्ति यहां
आता है और
उसकी आंखें
ज्यादा बेधक
हैं। तो जहां
तुम्हें
प्रकाश दिखाई
पड़ता है वहीं
उसे बहुत
तीव्र प्रकाश,
बहुत
ज्यादा
प्रकाश दिखाई
पड़ेगा। और
जहां तुम्हें
अंधकार दिखाई
पड़ता है वहां
उसे प्रकाश
दिखाई पड़ेगा।
ऐसे
पशु—पक्षी हैं
जिन्हें रात
में दिखाई
पड़ता है जब तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता है। उनके
लिए जो प्रकाश
है तुम्हारे
लिए वह अंधेरा
है। तो प्रकाश
क्या है? और अंधकार
क्या है?
दोनों
एक ही तत्व
हैं—एक ही
घटना हैं। और
तुम उसमें
कितना प्रवेश
कर सकते हो और
वह तुममें
कितना प्रवेश
कर सकता है, उस
प्रवेश पर
निर्भर है कि
तुम उसे
प्रकाश कहते
हो या अंधकार।
ये ध्रुवीय विपरीतताए
विपरीत दिखाई
भर पड़ती हैं, वे विपरीत
हैं नहीं। वे
एक ही घटना की
सापेक्ष
मात्राएं हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पदार्थ के
अंतिम विभाज्य
घटक विद्युत—ऊर्जा
मात्र हैं।
लेकिन वे यह
नहीं कहते हैं
कि वे प्रकाश
हैं; वे
उन्हें
विद्युत—ऊर्जा
कहते हैं।
अंधकार भी
विद्युत—ऊर्जा
है और प्रकाश
भी विद्युत—ऊर्जा
है। विद्युत—ऊर्जा
प्रकाश का
पर्यायवाची
नहीं है। अगर
तुम उसे
विद्युत—ऊर्जा
नाम देते हो
तो उसकी एक
अभिव्यक्ति
प्रकाश है और
उसकी दूसरी
अभिव्यक्ति
अंधकार है।
लेकिन इस
संबंध में
वैज्ञानिक
बहस में पड़ने
की जरूरत नहीं
है; वह
व्यर्थ है।
अच्छा
है कि अपने मन में
विचार करो कि
तुम्हें क्या
पसंद है। अगर
तुम्हें
प्रकाश भाता
है तो प्रकाश
से प्रवेश करो।
वह तुम्हारा
द्वार है। और
अगर तुम्हें
अंधकार के साथ
अच्छा लगता है
तो
अंधकार से
प्रवेश करो।
और दोनों
तुम्हें एक ही
मंजिल पर
पहुंचा देंगे।
इन एक
सौ बारह
विधियों में
अनेक विधियां
हैं जो प्रकाश
से संबंध रखती
है और थोड़ी सी
विधियां हैं
जो अंधकार से
संबंधित हैं।
और शिव सभी
संभव विधियों
की चर्चा कर
रहे है। शिव
किन्हीं विशेष
तरह के लोगों से
नहीं बात कर रहे
है; वे सभी
तरह के लोगों से
बात कर रहे
हैं। निश्चित
ही कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो
अंधकार से प्रवेश
करना पसंद
करेंगे।
उदाहरण के लिए,
स्त्रैण
चित्त के लोग,
निष्क्रिय
और भावुक
चित्त के लोग
अंधकार के
द्वार से प्रवेश
करना पसंद
करेंगे।
उन्हें
अंधकार अधिक
पसंद होगा। और
पुरुष चित्त
प्रकाश को
ज्यादा पसंद
करेगा।
तुमने
शायद इस तथ्य
पर ध्यान नहीं
दिया होगा कि
अतीत के और
वर्तमान के
अनेक कवियों
और दार्शनिकों
ने, जिन्हें
मनुष्य—मन की
अच्छी परख है,
स्त्री की
तुलना अंधकार
से की है और
पुरुष की तुलना
प्रकाश से की
है। प्रकाश
आक्रामक है—पुरुष—तत्व।
अंधकार
ग्राहक है—स्त्री—तत्व।
अंधकार गर्भ
जैसा है।
तो
चुनाव तुम पर
निर्भर है।
अगर तुम्हें
अंधकार पसंद
है तो ठीक है, उससे ही
प्रवेश करो।
और अगर
तुम्हें
प्रकाश पसंद
है तो भी ठीक
है, प्रकाश
से प्रवेश करो।
और कभी—कभी
विरोधी तत्व
भी आकर्षित
करता है। तुम
उसे भी प्रयोग
कर सकते हो।
किसी के
प्रयोग में
कोई खतरा नहीं
है; क्योंकि
प्रत्येक
मार्ग एक ही
मंजिल पर पहुंचा
देता है।
लेकिन
इस संबंध में
सोच—विचार ही
मत करते रहो।
समय नष्ट न
करो, प्रयोग
करो। क्योंकि
तुम जिंदगी भर
इसी सोच—विचार
में पड़े रह
सकते हो कि
कौन विधि रास
आएगी, कि
क्या किया जाए
और क्या न
किया जाए, कि
क्यों इतने
अधिक धर्मों
ने प्रकाश पर
जोर दिया और
इतने कम
धर्मों ने अंधकार
पर जोर दिया।
इन बातों की
चिंता में मत पडी, उससे
कुछ लाभ नहीं
होगा। अच्छा
है कि तुम
अपनी पसंद पर
विचार करो।
विचार करो कि
मुझे क्या रास
आएगा, मुझे
क्या
सुविधाजनक
रहेगा। और फिर
प्रयोग शुरू
कर दो।
और शेष
सब विधियों को
भूल जाओ।
क्योंकि ये
सभी एक सौ
बारह विधियां
तुम्हारे लिए
नहीं हैं। अगर
तुम अपने लिए
एक भी विधि
चुन सके तो
पर्याप्त है।
तुम्हें सभी
एक सौ बारह
विधियों से
गुजरने की
जरूरत नहीं है।
एक विधि
पर्याप्त है।
सिर्फ इतना
सजग और
बोधपूर्ण
होने की जरूरत
है कि तुम उस
विधि को पहचान
सको जो
तुम्हारे लिए अनुकूल
है। अन्य सभी
विधियों और
उपायों की
झंझट में मत पड़ो, वह व्यर्थ
है।
एक
विधि को चुन
लो और उसके
साथ खेलपूर्ण
ढंग से प्रयोग
करो। अगर
तुम्हें
अच्छा लगे और
लगे कि कुछ हो
रहा है तो
उसमें गहरे
जाओ और शेष एक
सौ ग्यारह को
भूल जाओ। और
अगर तुम्हें
लगे कि मैंने
गलत विधि चुनी
है तो उसे छोड़
दो और दूसरी
विधि चुनो। और
तब उससे खेलो।
अगर तुम इस
तरह चार, पांच या छह
विधियों का
प्रयोग करोगे
तो सही विधि
तुम्हारे हाथ
आ जाएगी।
लेकिन गंभीर
मत होओ—बस
खेलो।
आज
इतना ही।
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