जब शुरू में
कोरेगांव
पार्क, पुणे में
आश्रम
स्थापना हुई
तो ओशो
लाओत्सु भवन
के खुले प्रागणन
में प्रवचन
देते थे। कुछ
समय पश्चात
वहां पर छत
बनवाई गई। ओशो
ने ही डिजाईन
बनाया। जब छत
का कार्य चल
रहा था, ईंट,
कंक्रीट, सीमेंट से
बनी छत को लकड़ियों
के सहारों से
टिकाया हुआ था।
उस समय छत का
निर्माण इसी
तरह से होता
था। तो टनों
बोझा छत के
खंभों पर टिका
था। एक दिन
पता नहीं क्या
चूक रह गई कि
सारी की सारी
छत धड़ाम
से नीचे गिर
गई। पूरा छत
नीच बैठ गया।
सारा मलवा
बड़ी धमाके की
आवाज के साथ
नीचे आ गिरा।
मैं और
लक्ष्मी ने
जाकर मंजर
देखा तो दंग
रह गये, पूरी
छत नीचे गिरी
पड़ी थी।
इस
बात की राहत
थी कि कोई छत
के नीचे नहीं
आया था, किसी
को जरा भी चोट
नहीं लगी थी।
कुछ ही समय
पहले हम उसी
छत के नीचे
खड़े थे, हमारे
जाने की देर
थी और छत का
गिरना हुआ।
बेचारा
बिल्डर और
आर्किटेक्ट
तो बड़े डर गये, उन्हें
लगा कि उनका
नुकसान हो गया
है। उन्हें
डांटा जाएगा,
उन्हें काम
नहीं करने
दिया जाएगा।
भय में
व्यक्ति
बातों को कुछ
अधिक ही बढ़ा—चढ़ा
भी लेता है, ऐसा ही उनके
साथ भी हुआ।
उन्हें यह भी
समझ नहीं आ
रहा था कि
आखिर छत गिर कैसे
गई। सारी
सुरक्षा का
ध्यान
उन्होंने रखा
था और बहुत ही
मजबूत काम
किया था। पर
क्या करो, घटना
तो घट चुकी थी
और बेचारे
परिणाम
भुगतने के लिए
मन ही मन
तैयारी भी कर
रहे थे। जो हो
सो हो...।
शाम को
ओशो ने उन
दोनों को अपने
पास बुलाया।
वे सकुचाये—सकुचाये
ओशो के सामने
जाकर बैठ गये।
ओशो ने उन्हें
कहा 'जो
कुछ भी हुआ
उसमें आप
लोगों की कोई
गलती नहीं है।
इस तरह के
कामों में
छोटी—मोटी
चीजें होती
रहती हैं। कल
से वापस काम
शुरू कर दो।’ और मजेदार
बात यह हुई कि
ओशो ने बिल्डर
और आर्किटेक्ट
को अपनी तरफ
से उपहार दिये।
कहां तो सोच
रहे थे कि
उन्हें डांट पडेगी, उनका
रुपयों का नुकसान
हो जाएगा, और
यहां तो
उन्हें उपहार
दिया जा रहा
है, प्रेम
दिया जा रहा
है, उनके
साथ पूरी सहानुभुति
दिखाई जा रही
है, हमदर्दी
से पेश आया जा
रहा है। दोनों
ही प्रेम और
अनुग्रह से भर
गये। और उन
दोनों ने
मिलकर इतनी
सुंदर छत का
कुछ ही समय
में निर्माण
कर दिया।
ओशो ने
कभी किसी बात
के लिए किसी
भी व्यक्ति को
अपराध बोध
नहीं दिया।
दुनिया भर से
आए लोगों ने
ओशो के सामने
अपने जीवन के
घाव ईमानदारी
से खोल दिये, जो शायद
उन्होंने कभी
किसी को नहीं
कहा होगा, ओशो
को बता दिया, लेकिन कभी
भी ओशो ने
किसी बात के
लिए किसी को आत्मग्लानि
या अपराध बोध
नहीं दिया। हर
व्यक्ति को
यही कहा कि
जहां हो, जैसे
हो, वहीं
से यात्रा की
शुरुआत हो
सकती है, वहीं
से बुद्धत्व
तक पहुंचा जा
सकता है।
अब ऐसी
घटना कहीं ओर
हुई होती तो
सामान्यतया बिल्डर
या
आर्किटेक्ट
को मालिक का
गुस्सा ही भोगना
पड़ता। नुकसान
भी हुआ था, और जान—माल
की बहुत बड़ी
जोखिम हो चुकी
थी, किसी
को भी ऐसी बात
पर स्वाभाविक
ही क्रोध आता।
लेकिन ओशो ने
इस हालत में
भी, किसी
तरह का अपराध
बोध नहीं दिया।
बात को नया ही
अर्थ दे कर
उन्हें उपहार
देकर खुश कर
दिया।...
आज इति।
ओशो के प्रति हमारा समर्पण जितना होगा उतनी हमारी समझने की,देखने की,महसूस करने की,मानों हमारे सब आचार-विचार-व्यवहार-करने में सूक्ष्म ही सही परिवर्तन ना हों पाए यह शक्य ही नहीं हैं और यही तो हैं गुरुप्रसाद -गुरुकृपा !नमस्कार |
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