जीवन के
शुरुआती
सालों से ही
इतने उतार—चढाव
देखे, सफलता—
असफलता देखी
कि अपने युवा
काल में ही
लगने लगा था
कि यार आखिर
यह सब है क्या?
यह हम क्या
किये चले जा
रहे हैं? इसका
कोई ओर—छोर भी
है कि बस जब तक
मौत नहीं आती
लगे ही रहो? जब भी अकेला
होता तो ये
प्रश्न इतनी
तीव्रता से
उठने लगते कि
किसी चीज में
मन नहीं लगता।
यूं लगता कि
सब छोड़ कर
कहीं चला जाऊं,
लेकिन कहां,
क्यों, होगा
क्या? फिर
प्रश्नों की
श्रृंखला
निकल पड़ती... थक
हार कर चुप हो
जाता।
पर यह
भी सच है कि
कभी ऐसा नहीं
लगा कि किसी
गुरु के पास
जाऊं, या
किसी से इस
बारे में बात
करूं। उन्हीं
दिनों की बात
होगी हमारे
भाई साहब के
एक घनिष्ठ
मित्र थे, बाबू
भाई उन्होंने
एक दिन बताया
कि एक नवयुवक बहुत
अच्छा बोलता
है और उसे
जरूर सुनना
चाहिए। बाबू
भाई की बात
में कुछ ऐसा
आकर्षण था, कुछ ऐसा
निमंत्रण था
कि हम तीनों
भाइयों को लगा
कि अवसर आए तो
इस युवक को
जरूर सुनना
चाहिए। पता
चला कि ये
सज्जन महाबलेश्वर
आए हुए हैं और
वहां प्रवचन
चल रहे हैं।
तो हम महाबलेश्वर
पहुंच गए।
वहां
जाने के बाद
बीच वाले भाई
साहब जहां ओशो
का प्रवचन हो
रहा था वहां
गए। काफी समय
गुजर गया और
वे वापस नहीं
आए तो बड़े भाई
साहब ने मुझे
भेजा, कि
' देख कर आ
वहां हो क्या
हो रहा है ?द्ध मैं
जब प्रवचन
स्थल पर
पहुंचा तो
देखा कि ओशो मंच
पर विराजमान
हैं और अपने
मधुर कंठ से
बोल रहे हैं।
मैं तो बस
सुनता ही रह
गया। असल में
जिस कक्ष में
प्रवचन चल रहा
था उसका दरवाजा
खोलने—बंद
करने पर जोर
की आवाज करता
था तो प्रवचन
में व्यवधान न
हो इसलिए उठ
कर वापस जाकर
भाई साहब को
यहां का हाल
बताना उचित
नहीं लगा।
पहली बार ओशो
की मधुर वाणी
सुन रहा था, उनके कंठ से
निकले शब्द
सीधे मेरे
हृदय में जा
रहे थे। मैं
अचंभित रह गया
था कि कोई इस
तरह भी बोल
सकता है, किसी
की वाणी इतनी
सम्मोहक हो
सकती है। और
ओशो की
खूबसूरती का
तो क्या कहना।
शरीर के निचले
हिस्से पर
सफेद लुंगी, आधा बदन
खुला, चेहरे
पर बड़ी—बड़ी
आकर्षक आंखें
और काली दाढ़ी
और बाल, सच
कहूं मेरा तो
ऐसा हाल हुआ
कि बस स्वंय
को संभाल ही न पाऊं।
ओशो 'छाया का
जीवन' विषय
पर बोल रहे थे।
जब पहली बार
ओशो के ये वचन
मैंने सुने तो
बस अंदर तक
हिल गया। ओशो
बोल रहे थे, 'क्या जीवन
भर चांदी के
सिक्के ही
इकट्ठे करते रहोगे?
जब मौत आएगी
तो सब धरा रह
जाएगा। इसके
पहले की मौत
आए कुछ
मूल्यवान की
खोज कर लेनी
चाहिए।’ बात
सुनी तो लगा
कि यह तो गजब
का सच है। आगे
वे बोले, 'अपने
साये के पीछे
ही भागते
रहोगे। या कभी
रुक कर देखोंगे
कि यह काया
किसकी छाया है।’
मैं तो
मंत्रमुग्ध
हो गया। हम तो
काया के पीछे
ही सुबह से
लेकर शाम तक
भागते रहते
हैं। यह काया
किसकी छाया है,
यह तो कभी
सोचा ही नहीं।
ये शब्द तो
हृदय में गहरे
उतर गये। बस
एक आग सी लग गई।
ओशो के दर्शन
और उनके
शब्दों ने तो
बस मेरे भीतर
आग ही लगा दी।
यूं लगा कि
अचानक जीवन
में भूचाल आ
गया हो। मेरे
को लगा कि
मुझे अभी इनसे
अकेले में
मिलना है, बात
करनी है, मेरे
भीतर उठते
सवालों से
शायद ये निजात
दिला दें। तो
मैं ओशो से
मिलने के लिए
उनके निवास पर
पहुंच गया।
वे
वहीं पर निकट
ही झील के पास
रुके हुए थे।
बडा सुंदर
माहोल था, झील का
पानी झीलमिल
करता हुआ। दूर—दूर
तक जहां तक
नजर जाए हरी—
भरी पहाड़ियां,
चारों तरफ
इतनी धुंध कि
कभी ओशो दिखते
तो कभी नहीं
दिखते। ओशो
धवल चादर
लपेटे शांत
बैठे थे।
मैं
उनके पास
पहुंचा और
मैंने कहा, 'प्रभु
आपका प्रवचन
बडा प्यारा
लगा। ऐसा लगा
कि जैसे यह सब
मेरे लिए ही
बोला।’ ओशो
अपनी बडी—बड़ी आंखों
को मेरे चेहरे
पर गढाये
मेरी बात
सुनते रहे।
मैंने उनसे
पूछा, 'क्या
आपने
परमात्मा को
देखा है, क्या
आप मुझे उससे
मिलवा सकते
हैं?' मुझे
तो लगता था कि
परमात्मा से
मिलना अति
कठिन होता
होगा, शायद
कोई हो जिसने
परमात्मा को
देखा हो, लेकिन
इतनी आसानी से
ओशो ने होमी
भर दी कि उन्होंने
परमात्मा को
देखा है और
इतना ही नहीं
मुझे भी मिलवा
सकते हैं, यूं
मानो किसी
मित्र से
मिलवाना हो।
ओशो ने बड़े
प्रेम से
मुस्कराते
हुए कहा, 'कल
आओ तो
परमात्मा से
भी मिलवा
दूंगा।’
मेरी
तो बांछें
खिल गईं।
परमात्मा से
मिलना इतनी
आसानी से हो
सकता है? मैं तो
विश्वास ही
नहीं कर पा
रहा था इस बात
पर, लेकिन
ओशो की बात
में इतनी
सच्चाई थी कि
लगा कि यह जो
कह रहे हैं वह
कर सकते हैं।
रात भर ठीक से
सो नहीं पाया।
बार—बार नींद
खुल जाए, यूं
लगे कि सुबह
हो गई है और
मैं सोया ही
रह गया हूं।
जैसे—तैसे रात
कटी और सुबह
उठकर प्रवचन
में पहुंच गया।
पूरे समय यही
इंतजार करता
रहा कि कब
प्रवचन खतम हो
और मैं उनसे
मिलूं।
प्रवचन के बाद
ओशो उसी जगह
झील के किनारे
बैठे थे। मैं
उनके पास
पहुंचा और
बोला, 'प्रभु,
पहचाना
मुझे। कल मैं
आपसे मिला था।’
बोले, 'हां,
हां।’ मैं
बोला, 'प्रभु
परमात्मा से
मिलवा दीजिए।’
बड़ी प्यारी
सी मुस्कराहट
के साथ अपने
दाएं हाथ से
स्वयं की तरफ
इशारा करके
ओशो बोले, 'यह
रहा परमात्मा।’
मैंने कहा,
'प्रभु यहां
तो आप है, मैं
हूं परमात्मा
कहां है?' तब
वे और भी जोर
देकर अपनी तरफ
ऊंगली से
इशारा करते
हुए बोले, 'अरे
यह रहा
परमात्मा।’
अब
मेरी हालत तो
अजीब हो गई, ओशो की
वाणी की इतनी प्रखरता
कि उनके कहे
को नकार भी
नहीं सकता, लेकिन वे
अपनी तरफ
इशारा कर रहे
थे, मैं
उन्हें देख
रहा था तब
मैंने फिर
पूछा 'लेकिन
मुझे तो दिख
नहीं रहा?' तब
ओशो बोले, 'परमात्मा
को देखने के
लिए आख चाहिए,
आख हो तो वह
हर जगह उपलब्ध
है न हो तो
कहीं दिखाई
नहीं देता।’
मैंने
पूछा: 'प्रभु
वह आख कैसे
मिलती है, कैसे
संभव हो कि
मैं भी उसे
देख पाऊं?'
इस बात पर
ओशो बोले, 'अब
प्रश्न ठीक
पूछ रहे हो कि
आख कैसे मिले,
ठीक प्रश्न
पूछोगे तो ठीक
उत्तर
निश्चित ही मिल
जाएंगे।
प्रवचन में
आते—जाते रहो,
थोड़े ही
दिनों में
ध्यान साधना
शुरू करने वाले
हैं। ध्यान
में उतरो। तब
वह आख भी मिल
जाएगी। तब
परमात्मा को देखना
संभव होगा।’
ओशो की
बात से मुझे
लगा कि वे
अशात का
आमंत्रण दे
रहे हैं।
मैंने मन ही
मन उनके
आमंत्रण को
स्वीकार कर लिया
था। हम वापस आ
गए। ओशो के
आग्नेय वचनों
ने मेरे जेहन
में एक उथल—पुथल
मचा दी थी।
ओशो के प्रति
ऐसी दीवानगी
हृदय में पैदा
हुई कि मैं तो
जहां भी ओशो
के प्रवचन
होते, ध्यान
शिविर हो वहीं
पहुंच जाता।
धंधे—व्यवसाय
की व्यस्तता
इतनी ज्यादा
थी कि एक मिनट
भी कहीं जाना
संभव नहीं
होता लेकिन
मैं ओशो के
पास जाने से
अपने को रोक
भी नहीं पाता।
पता ही नहीं
चला कि कैसे
स्वत: ओशो
मुझे एक नई यात्रा
पर ले चले थे। उनके
पास होना मेरे
लिए आनंद था, उत्सव था,
मस्ती थी, प्रेम था बस
यूं लगता कि
एक मिनट के
लिए भी उनसे
दूर जाना ना
हो।
ओशो की चुंगल में जो एकवार फंस गया उसका उद्धार हो गया समझो 🌺🙏🙏🙏🌺
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