प्रश्नसार:
1—ध्यानी
व्यक्ति नकारात्म
तरंगों से
अपना बचाव
कैसे करे?
2—बोधपूर्ण
होने पर भी जो
मैं—भाव बना
रहता है, उसे कैसे
विलीन किया
जाए?
3—क्या
ऐसी संस्कृति
संभव है जो
मनुष्य को
समग्रता से स्वीकार
करे?
पहला
प्रश्न :
जो
ध्यानी व्यक्ति
खुला, निष्क्रिय, ग्राहक और
संवेदनशील है
उसे अपने
चारों ओर फैली
नकारात्मक
और तनावग्रस्त
तरंगों के
प्रभाव के
कारण दुःख
सहना पड़ता है।
कृपा करके
समझाएं कि वह
हानिप्रद तरंगों
से अपना बचाव
कैसे करे?
यदि तुम
वास्तव में
खुले हुए हो
और ग्रहणशील
हो तो
तुम्हारे लिए
कुछ भी नकारात्मक
नहीं है।
नकारात्मकता
तुम्हारी
व्याख्या है, तुम्हारी
धारणा है। अगर
तुम खुले हुए
हो तो
तुम्हारे लिए
कुछ भी हानिप्रद
नहीं है।
क्योंकि हानि
का भाव भी
तुम्हारी
व्याख्या है,
तुम्हारी
धारणा है। अगर
तुम सचमुच
ग्रहणशील हो
तो कुछ भी
तुम्हें हानि
नहीं कर सकता,
कुछ भी
तुम्हें
हानिप्रद
नहीं मालूम हो
सकता। कोई चीज
तुम्हें
हानिप्रद
इसीलिए लगती
है; क्योंकि
तुम प्रतिरोध
करते हो, क्योंकि
तुम उसके
विरोध में हो,
क्योंकि
तुम्हें उसका
स्वीकार नहीं
है।
इस बात
को गहराई से
समझने की
जरूरत है।
शत्रु है, क्योंकि
तुम उससे अपना
बचाव कर रहे
हो। शत्रु है;
क्योंकि
तुम खुले नहीं
हो। अगर तुम
खुले हो तो
सारा
अस्तित्व
मित्रवत हो
जाता है; इससे
अन्यथा नहीं
हो सकता। सच
तो यह है कि
तुम्हें यह
भाव भी नहीं
उठेगा कि वह
मित्रवत है, वह बस
मित्रवत है।
तब उसके मित्र
होने का भाव
भी नहीं उठता
है, क्योंकि
तुम्हें यह
भाव तभी उठ
सकता है जब
उसके साथ उसका
विपरीत भाव, शत्रुता का
भाव भी मौजूद
हो।
यह बात
मुझे इस भांति
कहने दो. अगर
तुम ग्रहणशील
हो, खुले
हो, तो
उसका मतलब है
कि तुम
असुरक्षा में
रहने के लिए
राजी हो। गहरे
में उसका यह
अर्थ है कि
तुम मरने के
लिए भी तैयार
हो। तुम
प्रतिरोध
नहीं करोगे; तुम विरोध
नहीं करोगे; तुम बाधा
नहीं बनोगे।
यदि मृत्यु आए
तो कोई
प्रतिरोध
नहीं होगा; तुम उसे भी
आने दोगे। तुम
अस्तित्व को
समग्रत:
स्वीकार करते
हो। तब फिर
तुम उसे
मृत्यु की तरह
कैसे अनुभव
करोगे? अगर
तुम उसे
अस्वीकार
करोगे तो ही
मृत्यु
तुम्हें
शत्रु मालूम
पड़ेगी। अगर
अस्वीकार
नहीं है तो
शत्रु कैसा? शत्रु तो
तुम्हारे
अस्वीकार से
निर्मित होता
है। मृत्यु
तुम्हारी कोई
हानि नहीं कर
सकती; क्योंकि
हानि
तुम्हारी
व्याख्या है।
अब कोई भी
तुम्हारी कुछ
हानि नहीं कर
सकता; यह
असंभव है।
ताओवादी शिक्षा
का यही रहस्य
है। लाओत्सु
की बुनियादी
शिक्षा यही
है. अगर तुम स्वीकार
करते हो तो
सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
है; इससे
अन्यथा नहीं
हो सकता। और
जब तुम
अस्वीकार
करते हो तो
तुम शत्रु
निर्मित करते
हो। तुम जितना
ही अस्वीकार
करोगे, तुम
जितना ही बचाव
करोगे, उतने
ही शत्रु पैदा
हो जाएंगे।
शत्रु तुम्हारी
निर्मिति है।
वह कहीं बाहर नहीं
है; वह
तुम्हारी
व्याख्या से
पैदा होता है।
एक बार
तुम यह समझ
लोगे तो फिर
यह प्रश्न कभी
नहीं उठेगा।
तुम यह नहीं
कह सकते कि
मैं
ध्यानपूर्ण
हूं मैं खुला
हुआ हूं
ग्रहणशील हूं
इसलिए अपने
चारों ओर की
नकारात्मक
तरंगों से
अपनी रक्षा
कैसे करूं। अब
कुछ भी
नकारात्मक
नहीं हो सकता।
नकारात्मक
का अर्थ क्या
है? नकारात्मक
का अर्थ है वह
चीज जिसे तुम
इनकार करते हो,
जिसे तुम
स्वीकार करना
नहीं चाहते, जिसे तुम
हानिप्रद
मानते हो। और
यदि ऐसा है तो
तुम खुले हुए
नहीं हो, तब
तुम ध्यान में
नहीं हो। यह
प्रश्न केवल
बौद्धिक तल पर
उठता है; यह
अनुभूतिगत
प्रश्न नहीं
है। तुमने
ध्यान का
स्वाद नहीं
लिया है, तुम्हें
ध्यान का पता
नहीं है। तुम
सिर्फ सोच—विचार
कर रहे हो। और
सोच—विचार महज
कल्पना है, अनुमान है।
यह तुम्हारा
अनुमान है कि
अगर मैं ध्यान
करूंगा और
संवेदनशील हो जाऊंगा तो
मैं असुरक्षा
में पड़ जाऊंगा,
तब
नकारात्मक
तरंगें
मुझमें
प्रवेश कर
जाएंगी और
मुझे नुकसान पहुंचाएंगी
और तब मैं
अपनी रक्षा
कैसे करूंगा।
यह एक बौद्धिक
प्रश्न है, कल्पित
प्रश्न है।
मेरे
पास बौद्धिक
प्रश्न मत लाओ।
वे व्यर्थ हैं, असार हैं।
ध्यान करो, संवेदनशील
होओ, और तब
तुम कभी ऐसे
प्रश्न मेरे
पास नहीं
लाओगे।
क्योंकि
तुम्हारे
स्वीकार करने
में ही नकारात्मक
विदा हो जाएगा।
फिर कुछ भी
नकारात्मक
नहीं है। और
अगर तुम सोचते
हो कि कुछ
नकारात्मक है
तो तुम खुले
नहीं हो सकते,
नकारात्मक
का डर ही
तुम्हें बंद
कर देगा। तुम
बंद हो जाओगे,
खुल नहीं
सकते। यह डर
ही कि कुछ
तुम्हारी
हानि कर सकता
है तुम्हें
खुलने नहीं
देगा, तुम
ग्रहणशील
कैसे हो सकते
हो!
इसीलिए
मैं इस बात पर
जोर देता हूं
कि जब तक मृत्यु
का भय
तुम्हारे
भीतर से नहीं
जाता है, तुम
ग्रहणशील
नहीं हो सकते,
तुम खुले
नहीं हो सकते।
तब तक तुम
अपने मन में
ही कैद रहोगे,
अपने
कारागृह में
ही बंद रहोगे।
लेकिन
तुम अनुमान कर
सकते हो; और तुम जो भी
अनुमान करोगे
वह गलत होगा।
क्योंकि मन
ध्यान के
संबंध में कुछ
भी नहीं जान
सकता, उस
जगत में उसका
प्रवेश संभव
नहीं है। मन
जब पूरी तरह
विसर्जित हो
जाता है तब
ध्यान घटित
होता है। तुम
उसके संबंध
में कुछ
अनुमान नहीं
कर सकते, तुम
उसके संबंध
में कुछ सोच—विचार
नहीं कर सकते।
खुले
होओ। और
तुम्हारे
खुलने में
अस्तित्व में
जो कुछ भी
नकारात्मक है
वह विदा हो जाता
है। तब मृत्यु
भी नकारात्मक
नहीं है।
तुम्हारे भय
से नकार
निर्मित होता
है। कहीं गहरे
में तुम भयभीत
हो और उसी भय
के कारण तुम
सुरक्षा के
उपाय करते हो।
और उन सुरक्षा
के उपायों की
आडू में
शत्रुता पैदा
होती है।
इस
तथ्य को देखो
कि शत्रु तुम
पैदा करते हो।
अस्तित्व को
तुमसे कोई
शत्रुता नहीं
है। कैसे
अस्तित्व
शत्रुतापूर्ण
हो सकता है? तुम
अस्तित्व के
हिस्से हो, तुम उसके
अंग हो, अभिन्न
अंग हो।
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति
शत्रुतापूर्ण
कैसे हो सकता
है? तुम
अस्तित्व से
जुड़े हुए हो, तुम उससे
पृथक नहीं हो।
तुम्हारे और
अस्तित्व के
बीच कोई
अंतराल नहीं है।
जब भी
तुम्हें लगता
है कि
नकारात्मकता
है, मृत्यु
है, घृणा
है, शत्रु
है, और यदि
मैं खुला और
असुरक्षित
रहा तो
अस्तित्व
मुझे मिटा
देगा, तो
तुम्हें खयाल
आता है कि
मुझे अपना
बचाव करना
होगा। और फिर
तुम बचाव की
ही नहीं सोचते,
कुछ और भी
सोचते हो।
क्योंकि
सुरक्षा का
सर्वश्रेष्ठ
उपाय आक्रमण
करना है,
हमला करना है।
तो तुम मात्र
अपना बचाव ही नहीं
करते; जब
भी तुम्हें
खयाल आता है
कि मुझे अपना
बचाव करना है
तो तुम
आक्रामक हो
जाते हो।
क्योंकि
आक्रमण
सुरक्षा का
सबसे कारगर
उपाय है।
भय
शत्रु पैदा करता
है और सुरक्षा
को जन्म देता
है। और
सुरक्षा से
फिर आक्रमण
आता है। इस
तरह तुम हिंसक
हो जाते हो; तुम
निरंतर अपने
बचाव में लगे
रहते हो। और
तब तुम सबके
विरुद्ध हो
जाते हो। इस
बात को अच्छे
से समझना होगा
कि अगर तुम
भयभीत हो तो
तुम सबके
विरुद्ध हो।
मात्रा का फर्क
हो सकता है; लेकिन तब
तुम्हारे
शत्रु तो
शत्रु हैं हां,तुम्हारे
मित्र भी
शत्रु ही हैं।
मित्र थोड़ा कम
शत्रु है, इतना
ही फर्क है।
तब तुम्हारा
पति या
तुम्हारी
पत्नी भी
शत्रु है।
तुमने सिर्फ
कोई व्यवस्था
बना ली है, कुछ
समायोजन कर
लिया है। या
संभव है, तुम
दोनों का कोई
समान शत्रु है;
बड़ा शत्रु
है और उस समान
और बड़े शत्रु
के खिलाफ तुम
दोनों मिल गए
हो, तुमने
एक दल बना
लिया है।
लेकिन
शत्रुता है।
अगर
तुम बंद हो तो
सारा
अस्तित्व
तुम्हारा दुश्मन
है। ऐसा है
नहीं; लेकिन
ऐसा तुम्हें
मालूम पड़ता है
कि समस्त अस्तित्व
शत्रुतापूर्ण
है। जब तुम
खुले होते हो
तो समस्त
अस्तित्व
तुम्हारा
मित्र हो जाता
है। और अभी जब
कि तुम बंद हो,
मित्र भी
शत्रु है।
इससे अन्यथा
नहीं हो सकता;
गहरे में
तुम अपने
मित्र से भी
डरते हो।
हेनरी थोरो ने या
किसी अन्य ने
कहीं
परमात्मा से
प्रार्थना
में कहा है कि 'मैं अपने
शत्रुओं से
निपट लूंगा, लेकिन तुम
मुझे मेरे
मित्रों से
निपटने में मेरी
सहायता करो।
मैं अपने
शत्रुओं से लड़
लूंगा, तुम
मुझे मेरे
मित्रों से
बचाओ।’
मित्रता
सिर्फ सतह पर
है; गहरे
में शत्रुता
है। संभव है, तुम्हारी
मैत्री
शत्रुता को
छिपाने के लिए
एक मुखौटा भर
हो। अगर तुम
बंद हो तो तुम
सिर्फ शत्रु
ही पैदा कर सकते
हो, क्योंकि
जब तुम खुले
होते हो तो ही
मित्र प्रकट
होता है। जब
तुम किसी के
प्रति समग्रत:
खुलते हो तो
ही मैत्री
घटित होती है।
और कोई दूसरा
उपाय नहीं है।
जब तुम
बंद हो तो
प्रेम कैसे कर
सकते हो? तुम अपने
कारागृह में
बंद हो; मैं
अपने कारागृह
में बंद हूं।
और जब हम
मिलते हैं तो
सिर्फ
कारागृह की
दीवारें एक—दूसरे
से मिलती हैं;
हम तो उनके
पीछे छिपे
रहते हैं। हम
अपने—अपने
कैप्सूल में
बंद रहते हैं;
और ये कैप्सूल
ही एक—दूसरे
को स्पर्श
करते हैं।
हमारे शरीर ही
एक—दूसरे को
छूते हैं; गहरे
में हम दूर—दूर
रहते हैं, कटे—कटे
रहते हैं।
संभोग में भी
जब तुम्हारे
शरीर एक—दूसरे
में प्रवेश
करते हैं, तुम
प्रवेश नहीं
करते। सिर्फ
शरीर ही मिलते
हैं; तुम
तब भी अपने
कैप्सूल में,
अपने कवच
में बंद रहते
हो। तुम अपने
को महज धोखा
दे रहे हो कि
कोई मिलन हुआ
है। काम—कृत्य
में भी, जो
कि गहनतम
मिलन है, कोई
मिलन हो नहीं
पाता। यह हो
नहीं सकता, क्योंकि तुम
बंद हो। प्रेम
असंभव हो गया
है। और कारण
यही है कि तुम
भयभीत हो।
तो ऐसे
प्रश्न मत
पूछो। ऐसे गलत
प्रश्न मत लाओ।
अगर तुमने
खुलापन जाना
है तो तुम यह
नहीं सोच सकते
कि कोई चीज
तुम्हारे लिए
हानिप्रद हो
सकती है। अब
कुछ भी
हानिप्रद
नहीं है।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
मृत्यु भी
वरदान है।
तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य
बदल गया है।
अब
तुम जहां भी
देखते हो, खुले
हृदय से देखते
हो। यह खुला
हृदय हर चीज की
गुणवत्ता को बदल।
तब तुम्हें
कि छ भी चीज
तुम्हें' हानि
छ वाली, तब
तुम यह नहीं
पूछोगे कि
बचाव कैसे
किया जाए।
उसकी कोई
जरूरत नहीं
होगी। यह
जरूरत ही
इसलिए पैदा
होती है
क्योंकि तुम
बंद हो।
लेकिन
तुम बौद्धिक
प्रश्न खड़े कर
सकते हो। लोग
मेरे पास आते
हैं और पूछते
हैं: 'अच्छा, अगर
हमने ईश्वर को
पा लिया तो
क्या होगा?' वे अगर से
प्रश्न शुरू
करते हैं।
अस्तित्व में
कोई अगर—मगर
नहीं हैं; अस्तित्व
में तुम ऐसे
प्रश्न नहीं
उठा सकते। ऐसे
प्रश्न
अनर्गल हैं, मूढ़तापूर्ण हैं; क्योंकि
तुम नहीं
जानते कि तुम
क्या कह रहे
हो। 'अगर
मैंने ईश्वर
को पा लिया, तब क्या
होगा?' वह
प्रश्न 'तब
क्या?' कभी
नहीं आता है।
क्योंकि
ईश्वर के
अनुभव के बाद
तुम नहीं हो, सिर्फ ईश्वर
है। इस अनुभव
के बाद कोई
भविष्य नहीं
रहता है, केवल
वर्तमान रहता
है। और इस
अनुभव के बाद
कोई चिंता
नहीं रहती; क्योंकि तुम
अस्तित्व के
साथ एक हो गए
हो। इसलिए वह
प्रश्न कि 'तब क्या
होगा?' कभी
नहीं उठता है।
यह
प्रश्न मन के
कारण उठता है।
क्योंकि मन
सतत चिंता में
रहता है, संघर्ष
में जीता है।
मन सतत भविष्य
के बाबत सोच—विचार
करता रहता है।
दूसरा
प्रश्न :
जब
मैं अधिकाधिक
बोधपूर्ण
होता हूं तो
मेरा होने का
भाव भी
प्रगाढ़ होता
है, और यह भाव
बना रहता है
कि मैं हूं
मैं उपस्थित
है मैं
बोधपूर्ण
हूं। कृपया
समझाएं समझाएं
कि यह भाव शुद्ध
बोध की अहंकारशून्य
अवस्था में
कैसे विलीन हो
जाए?
यह
भी एक बौद्धिक
प्रश्न है 'जब
मैं अधिकाधिक
बोधपूर्ण
होता हूं तो
मेरा होने का
भाव भी प्रगाढ़
होता है और यह
भाव बना रहता
है कि मैं हूं?
मैं
उपस्थित हूं?
मैं
बोधपूर्ण
हूं।'
ऐसा
कभी होता नहीं
है,
क्योंकि
जैसे —जैसे
बोध बढ़ता है, 'मैं' कम
होता जाता है।
पूर्ण—बोध में
तुम तो होते
हो, लेकिन
ऐसा कोई भाव
नहीं रहता है
कि मैं हूं। शब्दों
में ज्यादा से
ज्यादा यही
कहा जा सकता
है कि एक
सूक्ष्म 'हूं—पन'
का भाव रहता
है, मगर
कोई 'मैं' नहीं रहता
है। तुम अपने
होने को अनुभव
करते हो; और
उसे प्रगाढ़ता
से अनुभव करते
हो, तुम
आप्तकाम
अनुभव करते हो;
मगर कोई 'मैं' नहीं
रहता है। तुम
यह नहीं अनुभव
कर सकते कि मैं
हूं तुम यह
नहीं अनुभव कर
सकते कि मैं
उपस्थित हूं
तुम यह नहीं
अनुभव कर सकते
कि मैं
बोधपूर्ण हूं।
वह 'मैं' असजगता का, मूर्च्छा का,
बेहोशी का
हिस्सा है, वह तुम्हारी
नींद का
हिस्सा है।
अगर तुम वास्तव
में सजग हो, चेतन हो, बोधपूर्ण
हो तो वह नहीं
रह सकता।
इसी
भांति बौद्धिक
प्रश्न उठते
हैं। तुम उनके
संबंध में
सोचते रह सकते
हो और कुछ भी
हल नहीं होगा।
अगर ऐसा होता
है कि तुम्हें
लगता है कि
मैं हूं मैं
सजग हूं तो एक
बात गांठ बाध
लेने जैसी है
कि तुम सजग
नहीं हो, बोधपूर्ण
नहीं हो। तब
ये भाव कि मैं
सजग हूं मैं
चेतन हूं
विचार भर हैं,
तुम उनका
विचार कर रहे
हो। वे अनुभूत
क्षण नहीं
हैं।
तुम
सोच सकते हो
कि मैं सजग
हूं तुम दोहरा
सकते हो कि
मैं बोधपूर्ण
हूं लेकिन उसका
कुछ परिणाम
नहीं होने
वाला है। यह
दोहराना बोध
नहीं है; यह
दोहराने की
जरूरत नहीं है कि
मैं सजग हूं।
तुम बस सजग
होते हो और 'मैं' नहीं
पाया जाता।
सजगता
का प्रयोग करो।
ठीक अभी सजग
होओ। और 'मैं' कहां
है? तुम तो
हो, तुम तो
प्रगाढ़ रूप
से हो;
लेकिन ‘मैं’ कहां है?
चेतना की
तीव्रता में, प्रगाढ़ता
में अहंकार
विलीन हो जाता
है। बाद में
जब बोध खो
जाता है और
विचारना शुरू
होता है, तब
तुम अनुभव कर
सकते हो कि
मैं हूं।
लेकिन बोध के
क्षण में 'मैं'
नहीं रहता
है। अभी ही
इसे अनुभव करो।
तुम यहां शांत—मौन
हो, तुम
अपनी
उपस्थिति
अनुभव कर सकते
हो, लेकिन 'मैं' कहां
है? 'मैं' कहीं नहीं
पाया जाता है।’मैं' तभी
खड़ा होता है
जब तुम पीछे
लौटकर विचार
करते हो। जब
तुम होश खो
देते हो, 'मैं'
तुरंत उठ
खड़ा होता है।
यदि
तुम एक क्षण
के लिए भी सरल
बोध को अनुभव
कर सको तो तुम
तो हो, लेकिन
'मैं' नहीं
है। जब तुम
बोध खो देते
हो, जब बोध
का क्षण गुजर
जाता है और
तुम सोच—विचार
करने लगते हो,
तो तुरंत 'मैं' वापस
लौट आता है।
यह विचार—प्रक्रिया
का हिस्सा है।
'मैं'
की धारणा एक
विचार ही है, 'मैं' एक
विचार ही है।’मैं हूं, यह
भी एक विचार
है। जब तुम
सावचेत हो और
विचार नहीं है
तब तुम कैसे
अनुभव कर सकते
हो कि मैं हूं?
तुम्हारा
होना तो रहता
है, लेकिन
यह होना कोई
विचार नहीं है,
यह विचारना
नहीं है। यह
अस्तित्वगत
है। यह तथ्य
है। लेकिन फिर
तुम तथ्य पर
तुरंत विचार
करने लग सकते
हो। और तुम 'मैं' की
इस
अनुपस्थिति
के अंतराल के
बारे में भी
विचार कर सकते
हो। और जैसे
ही तुम
सोचविचार
करते हो, 'मैं'
लौट आता है।
विचारणा के
साथ अहंकार
प्रवेश कर
जाता है, विचारणा
अहंकार है।
निर्विचार
में अहंकार
नहीं है।
तो जब
भी तुम कोई
प्रश्न पूछना
चाहो, पहले
उसे
अस्तित्वगत
बना लो। मुझे
प्रश्न देने
के पहले देख
लो कि तुम जो
भी पूछ रहे हो
प्रासंगिक है
या नहीं। ऐसे
प्रश्न
प्रासंगिक
मालूम पड़ते
हैं, लेकिन
सिर्फ
बौद्धिक तल पर।
ये प्रश्न ऐसे
हैं जैसे मैं
कहता हूं कि
रोशनी जला दी
गई है और फिर
मैं पूछता हूं
कि रोशनी तो जला
दी गई है और तो
भी अंधेरा बना
है, अब इस
अंधेरे के साथ
क्या किया जाए?
इससे
केवल एक ही
बात प्रकट
होती है कि
रोशनी अभी भी
जली नहीं है।
अन्यथा
अंधेरा कैसे
रह सकता है? और अगर
अंधेरा है तो
प्रकाश नहीं
है। और अगर
प्रकाश है तो
अंधेरा नहीं
है। वे दोनों
एक साथ नहीं
हो सकते।
बोध और
अहंकार एक साथ
नहीं हो सकते।
अगर बोध जगा
है, अगर
बोध है, तो
अहंकार विदा
हो गया है।
बोध का आना और
अहंकार का
जाना, दोनों
युगपत घटनाएं
हैं, उनमें
एक क्षण का भी
अंतराल नहीं
है। प्रकाश
जला नहीं कि
अंधकार विलीन
हुआ नहीं। ऐसा
नहीं है कि
अंधकार धीरे —
धीरे जाता है,
थोड़ा— थोड़ा
जाता है, क्रमश:
जाता है। तुम
उसे बाहर जाते
हुए नहीं देख
सकते; तुम
यह नहीं कह
सकते कि अब
अंधकार बाहर
जा रहा है।
प्रकाश
के होते ही
अंधकार तत्क्षण
विलीन हो जाता
है। एक क्षण
का भी अंतराल
नहीं है।
क्योंकि अगर
अंतराल हो तो
तुम अंधकार को
बाहर जाते हुए
देख सकते हो।
और अगर एक
क्षण का भी
अंतराल हो तो
कोई कारण नहीं
है कि एक घंटे
का अंतराल
क्यों नहीं हो
सकता। लेकिन
कोई अंतराल
नहीं है; घटना युगपत।
वस्तुत:
प्रकाश का आना
अंधकार का
जाना एक ही
घटना के दो
पहलू हैं।
यही बात
बोध के साथ भी
है। जब तुम
बोधपूर्ण
होते हो तो
अहंकार नहीं
होता है।
लेकिन
अहंकार
तरकीबें
निकाल सकता है।
वह कह सकता है
कि मैं
बोधपूर्ण हूं? मैं सजग
हूं। अहंकार
कह सकता है कि
मैं सजग हूं
और तुम्हें
धोखे में रख
सकता है। तब
ऐसा प्रश्न
खड़ा होगा।
और
अहंकार सब कुछ
संग्रह करना
चाहता है। वह
बोध भी इकट्ठा
करना चाहता है।
अहंकार धन, पद और
प्रतिष्ठा ही
नहीं चाहता है,
वह ध्यान भी
चाहता है, समाधि
भी चाहता है, बुद्धत्व भी
चाहता है।
अहंकार को सब
चाहिए। जो कुछ
भी संभव है, अहंकार सब
पर मालकियत
करना चाहता है।
उसे सब चाहिए—ध्यान
भी, समाधि
भी, निर्वाण
भी—ताकि वह उदघोषणा
कर सके कि
मैंने ध्यान
भी पा लिया।
और तब
यह प्रश्न उठ
सकता है कि
ध्यान पा लिया, बोध आ गया,
लेकिन फिर
अहंकार क्यों
बना है? दुख
क्यों जारी है?
अतीत का
सारा बोझ बना
रहता है, कुछ
भी नहीं बदलता
है।
अहंकार
धोखा देने में
बहुत ही कुशल
है; उससे
सावधान रही।
वह तुम्हें
धोखा दे सकता
है। और वह
शब्दों का
अच्छा उपयोग
कर सकता है; वह शब्दों
का जाल गढ़
सकता है। वह
किसी भी चीज
के बारे में
बातें कर सकता
है—निर्वाण के
संबंध में भी।
मैंने
सुना है कि एक
बार ऐसा हुआ
कि दो तितलियां
न्यूयार्क की
गलियों से
होकर उड़ी
जा रही थीं।
न्यूयार्क की इम्पायर
स्टेट
बिल्डिंग के
पास से गुजरते
हुए मर्द—तितली
ने स्त्री—तितली
से कहा 'तुम जानती
हो, अगर
मैं चाहता तो
एक धक्के में
ही इम्पायर
स्टेट
बिल्डिंग को
धराशायी कर
देता।’
एक
समझदार आदमी
वहां मौजूद था, उसने यह
बात सुनी। और
उसने नर—तितली
को अपने पास
बुलाया और
उससे कहा 'तुम
क्या कह रहे
थे? तुम
भलीभांति
जानते हो कि
तुम इम्पायर
स्टेट
बिल्डिंग को
एक धक्के में
नहीं गिरा सकते।
यह बात तुम
बखूबी जानते हो,
उसे कहने की
जरूरत नहीं है।
फिर तुमने ऐसी
बात क्यों कही?'
नर—तितली
ने कहा 'मुझे क्षमा
करें महाशय।
मुझे बहुत खेद
है। मैं तो
सिर्फ अपनी
प्रेमिका पर
धाक जमाने की चेष्टा
कर रहा था।’
समझदार
व्यक्ति ने
इतना कह कर
उसे छोड़ दिया, 'ऐसा मत
करो।’
नर—तितली
जब अपनी प्रेमिका
के पास पहुंचा
तो प्रेमिका
ने उससे पूछा : 'वह
समझदार
व्यक्ति
तुमसे क्या कह
रहा था?' तो
उस नर शेखचिल्ली
ने कहा : 'उसने
मुझसे मिन्नत
करते हुए कहा
कि ऐसा मत करो।
वह इतना डर
गया था, वह
कांप रहा था।
उसने सुन लिया
था कि मैं इम्पायर
स्टेट
बिल्डिंग को
धराशायी करने
जा रहा था, इसलिए
उसने कहा ऐसा
मत करो।’
यही
निरंतर हो रहा
है। उस समझदार
व्यक्ति ने
बिलकुल भिन्न
अर्थ में वे
शब्द कहे थे, उसने कहा
था कि ऐसी
बातें मत कहो।
लेकिन अहंकार
उसका शोषण
करने से बाज
नहीं आता है।
तुम्हारा
अहंकार किसी
चीज का भी
शोषण कर सकता
है; वह
अत्यंत चालाक
है। और वह
चालाकी में
इतना अनुभवी
है—हजारों साल
का अनुभव उसके
पास है—कि
तुम्हें पता
भी नहीं चलेगा
कि. कहां
चालाकी हो गई।
मेरे
पास लोग आते
हैं और कहते
हैं, 'ध्यान
घटित हो गया
है, अब मैं
अपनी चिंताओं
से कैसे निपटूं?'
इस भांति
अहंकार चालें
चलता रहता है।
और उन्हें यह
समझ भी नहीं
आता है कि वे
क्या कह रहे हैं।
‘ध्यान हो
गया,कुंडलिनी
जग गई; अब क्या
करें? चिंताएं
तो अब भी हैं!’
तुम्हारा
मन चीजों को
मान लेना
चाहता है।
इसलिए कुछ किए
बिना ही तुम
मान लेते हो, विश्वास
कर लेते हो ?ए अपने को
धोखा दे लेते
हो। इस तरह
तुम अपनी
इच्छाओं की
पूर्ति कर
लेते हो।
लेकिन इच्छा—पूर्ति
से सत्य नहीं
बदलता, चिंताएं
बनी ही रहती
हैं। तुम अपने
को धोखा दे
सकते हो, लेकिन
चिंताओं को
धोखा नहीं दे
सकते।
चिंताएं
सिर्फ इसलिए
नहीं दूर हो
जाएंगी क्योंकि
तुम कहते हो
कि 'ध्यान
घट गया, कुंडलिनी
जाग गई, मैं
अब पांचवें
शरीर में
प्रविष्ट हो
गया।’ चिंताएं
तो सुनेंगी
भी नहीं कि
तुम क्या कह
रहे हो।
लेकिन
यदि सच ही
ध्यान घटित हो
जाए तो
चिंताएं कहां
हैं? ध्यानपूर्ण
चित्त में
चिंताएं कैसे
हो सकती हैं?
तो यह
स्मरण रहे कि
जब तुम सजग हो, बोध से
भरे हो, तो
तुम हो; लेकिन
तब तुम अहंकार
नहीं हो। तब
तुम असीम हो, तब तुम अनंत
विस्तार हो; लेकिन इस
विस्तार का
कोई केंद्र
नहीं है।
उसमें 'मैं'
का कोई
केंद्रीभूत
भाव नहीं है।
तब तुम केंद्र—रहित
अस्तित्व हो,
जिसका न
कहीं आरंभ
होता है और न
जिसका कहीं अंत
होता है। तुम
एक असीम आकाश
हो। और जब यह 'मैं' विलीन
होता है तो
अपने आप ही 'तुम' भी
विदा हो जाता
है, क्योंकि
'तुम' 'मैं' के
साथ ही रह
सकता है। मैं हूं, इसलिए तुम
भी हो। अगर यह 'मैं' मुझसे
विदा हो जाए
तो तुम भी
नहीं होगे।
मैं के जाते
ही तुम नहीं
हो सकते हो; कैसे हो
सकते हो?
मेरे
कहने का यह
मतलब नहीं है
कि तुम
शारीरिक रूप
से नहीं होगे।
तुम तो जैसे
हो वैसे ही
होंगे; लेकिन मेरे
लिए तुम नहीं
हो सकते। मेरे
'मैं' के
संदर्भ में ही
'तुम' अर्थपूर्ण
है, मेरा 'मैं' 'तुम'
को निर्मित
करता है। और
जब एक छोर
विदा होता है
तो दूसरा भी
विदा हो जाता
है। तब मात्र
अस्तित्व है;
सारे अवरोध
गिर गए। अहंकार
के जाते ही
सारा
अस्तित्व एक
हो जाता है।
अहंकार ही
बांटता है। और
अहंकार है, क्योंकि तुम
मूर्च्छित हो।
बोध की आग उसे
जला डालेगी।
इसे
अधिक—अधिक
प्रयोग करो।
अचानक सजग हो
जाओ। सड़क पर
चलते—चलते
अचानक खड़े हो
जाओ, गहरी
श्वास लो और
क्षण भर के
लिए सजग हो
जाओ। और जब
मैं कहता हूं
कि सजग हो जाओ
तो उसका मतलब
है कि उस क्षण
जो भी हो रहा
हो उसके प्रति
सिर्फ बोधपूर्ण
हो जाओ। सड़क
पर शोरगुल है,
लोगों की
आवाज है, उनकी
बातचीत है, चारों तरफ
जो कुछ भी हो
रहा है, सबके
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाओ। बस
होशपूर्ण हो
जाओ। उस क्षण
तुम नहीं हो; सिर्फ
अस्तित्व है
और उसका
सौंदर्य है।
तब
यातायात का
शोरगुल शोरगुल
नहीं रह जाता
है, वह
उपद्रव नहीं
मालूम पड़ता है।
क्योंकि अब
उसका
प्रतिरोध
करने वाला, उससे लड़ने
वाला कोई नहीं
रहा। वह आवाज
तुम्हारे पास
आती है और
गुजर जाती है।
वह सुनी जाती
है और खो जाती
है। वह आती है
और गुजर
जाती है।
अब कोई बाधा
नहीं है जिससे
वह टकराए।
अब वह तुममें
कोई घाव नहीं
बना सकती, क्योंकि
सारे घाव
अहंकार में
बनते हैं। वह
गुजर जाएगी; क्योंकि
टकराने के लिए
कोई अवरोध न
रहा। कोई
संघर्ष नहीं
होगा, कोई
उपद्रव नहीं
होगा। स्मरण रहे,
सड़क का शोरगुल
उपद्रव नहीं है।
वह उपद्रव तो
तब बनता है जब
तुम
उससे
लड़ने लगते हो, जब
तुम्हारी एक बंधीबंधायी
धारणा होती है
कि वह उपद्रव
है। जब तुम
उसे स्वीकार
कर लेते हो तो
वह आता है और चला
जाता है, और
तुम्हारा
स्नान हो जाता
है और तुम
ज्यादा ताजे
होकर निकलते हो।
और तब तुम्हें
कुछ भी थकाता
नहीं है।
एक ही
चीज थकाने
वाली है जो
तुम्हारी
शक्ति को
चूसती रहती है; और वह है
प्रतिरोध
जिसे हम
अहंकार कहते
हैं। लेकिन हम
कभी इसे इस
ढंग से नहीं
देखते हैं।
अहंकार ही
हमारा जीवन बन
गया है, जीवन
भर का सार—सूत्र
बन गया है।
लेकिन सच तो
यह है कि
अहंकार नहीं
है। कई बार
ऐसा होता है
कि जब मैं
किसी को कहता
हूं कि इस
अहंकार को
विदा करो तो
वह मुझे इस
तरह घूरता है
जैसे वह पूछ
रहा हो—यह
प्रश्न उसकी आंखों
में साफ दिखता
है—कि अगर
अहंकार ही मिट
गया तो जीवन
कैसे संभव होगा?
तब तो मैं
ही मिट जाऊंगा।
मैंने
सुना है कि एक बड़े
राजनेता से, देश के एक
महान राजनेता
से किसी ने
कहा. 'आप तो
थक जाते होंगे।
सारे दिन, आप
जहां भी जाते
हैं, हस्ताक्षर
मांगने वालों
की भीड़ लगी
रहती है।’ राजनेता
ने कहा. 'मेरी
तो करीब—करीब
जान ही निकल
जाती है, लेकिन
यह आधा सत्य
है।’ राजनेता
ने कहा. 'मेरी
तो करीब—करीब
जान ही निकल
जाती है, लेकिन
यह आधा सत्य
है।’ वह
राजनेता
निश्चित ही
बहुत ईमानदार
आदमी, बहुत
दुर्लभ आदमी
रहा होगा।
उसने कहा. 'मेरी
तो करीब—करीब
जान ही निकल
जाती है—लेकिन
करीब—करीब ही।
अगर मेरे
हस्ताक्षर
मांगने वाला
कोई न हो तो
मेरी पूरी की
पूरी जान निकल
जाएगी। यह
निरंतर की भीड़
मुझे करीब—करीब
मार डालती है,
लेकिन
दूसरी बात
ज्यादा
खतरनाक होगी।
अगर कोई
व्यक्ति मेरे
हस्ताक्षर
लेने न आए तो
मेरी तो
बिलकुल ही जान
निकल जाएगी।’
तो
अहंकार कितना
ही थकाने वाला
क्यों न हो, तुम्हें
लगता है कि
वही तुम्हारा
जीवन है और
अगर अहंकार
चला जाए तो
तुम्हारे
हिसाब से जीवन
भी चला जाएगा।
तुम सोच भी
नहीं सकते कि
जीवन
तुम्हारे
बिना कैसे हो
सकता है, तुम्हारे
'मैं' के
एक केंद्र
बिंदु के बिना
जीवन कैसे चल
सकता है।
एक तरह
से यह बात
तर्क —संगत है; क्योंकि
हम कभी अहंकार
के बिना नहीं
रहे हैं। हम
तो उसके
माध्यम से ही
जीते हैं, हम
तो उसके साथ
ही रहते आए
हैं। हम तो एक
ही तरह के
जीवन से
परिचित हैं जो
अहंकार पर
आधारित है।
हमें इससे
भिन्न किसी
जीवन का पता
नहीं है।
और
क्योंकि हम
अहंकार के
माध्यम से ही
जीते हैं; इसलिए
वस्तुत: हम जी
ही नहीं पाते।
हम सिर्फ जीने
के लिए संघर्ष
करते हैं, हमें
कभी जीवन का
स्पर्श नहीं
अनुभव हुआ। वह
सदा हमारे आस—पास
से निकल जाता
है। जीवन सदा
मिलता—मिलता
सा लगता है; वह सदा
हमारी आशा में
होता है कि कल
या अगले क्षण
वह मिलेगा और
हम जीएंगे।
लेकिन वह कभी नहीं
मिलता है, वह
कभी नहीं
उपलब्ध होता
है। जीवन सदा
आशा बना रहता
है, सपना बना
रहता है; और
हम चलते रहते
हैं। और चूंकि
वह मिलता नहीं
है, हम और
तेज—तेज चलते
हैं। वह बात
भी तर्कसंगत
है। जब हमें
जीवन नहीं
घटित होता है
तो मन एक ही बात
सोच सकता है
कि हम काफी
तेज नहीं चले,
वह कहता है :
और तेज चलो, जल्दी करो।
एक बार
ऐसा हुआ कि एक
बड़े
वैज्ञानिक, टी.एच हक्सले
लंदन में कहीं
व्याख्यान देने
जा रहे थे। वे रेलवे
स्टेशन पर, एक उपनगरीय स्टेशन
पर पहुंचे। लेकिन
गाड़ी लेट थी।
तो
उन्होंने एक
टैक्सी पकड़ी
और ड्राइवर से
बोले 'जल्दी
करो, गाड़ी
को तेज से तेज
चाल से ले चलो।’
जब गाड़ी बहुत
तेजी से भागने
लगी तो उनको
अचानक खयाल
आया कि
उन्होंने
टैक्सी वाले
को पता तो
बताया ही नहीं
है कि जाना
कहां है। और
तभी उन्हें यह
भी स्मरण आया
कि वे खुद भी
पता भूल गए
हैं। तो
उन्होंने
टैक्सी—चालक
से पूछा. 'मित्र,
क्या तुम
जानते हो कि
मुझे कहां
जाना है?'
टैक्सी—चालक
ने कहा. 'नहीं महाशय,
लेकिन हम
बहुत तेजी से
जा रहे हैं।’
यही हो
रहा है। तुम
उतनी तेजी से
जा रहे हो
जितनी तेजी
संभव है।
लेकिन तुम जा कहां
रहे हो? तुम क्यों
जा रहे हो? मंजिल
क्या है? गंतव्य
क्या है? क्योंकि
आशा है कि
किसी दिन जीवन
तुम्हें घटित
होगा। लेकिन
यह अभी ही
क्यों नहीं
घटित हो रहा
है? तुम
जिंदा हो—फिर
जीवन अभी
क्यों नहीं घट
रहा है? क्यों
निर्वाण सदा
भविष्य में है,
सदा कल है? वह आज क्यों
नहीं है? और
कल कभी नहीं
आता है। या वह
जब भी आता है, सदा आज की
तरह आता है—और
तुम उसे फिर
चूक जाओगे।
लेकिन
हम हमेशा इसी
तरह जीते रहे
हैं। हमें
जीने का एक ही
आयाम मालूम है—यही
आयाम जिसमें
हम अभी जी रहे
हैं। यह धीरे —
धीरे मरना है, जीना
बिलकुल नहीं।
हम किसी तरह
जीवन को ढोए
जा रहे हैं।
हम बस
प्रतीक्षा
में जीते हैं,
आशा में
जीते हैं।
अहंकार
के साथ जीवन
सदा
प्रतीक्षा है—और
एक निरर्थक
प्रतीक्षा है।
तुम तेजी से
दौड़ सकते हो, जल्दबाजी
कर सकते हो, लेकिन तुम
कहीं भी नहीं
पहुंचोगे। इस
जल्दबाजी में,
इस भाग—दौड़
में तुम सिर्फ
अपनी ऊर्जा गवाओगे और
मर जाओगे। और
तुम यह बहुत
बार कर चुके
हो। तुम
निरंतर
जल्दबाजी में
रहे हो, और
इस जल्दबाजी
से सतत अपनी
ऊर्जा गंवाते
रहे हो, और
तब मृत्यु के
अतिरिक्त कुछ
भी हाथ नहीं
आता है। तुम
जीवन के लिए
दौड़ रहे हो और
सिर्फ मृत्यु
हाथ आती है, और कुछ भी
नहीं।
लेकिन
मन सिर्फ एक
ही आयाम का
आदी रहा है; उसे एक ही
मार्ग का पता
है। और यह कोई
मार्ग भी नहीं
है, सिर्फ
मार्ग जैसा
भासता है।
लेकिन मन
कहेगा कि यदि
अहंकार नहीं
रहेगा तो जीवन
कहां रहेगा।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
अगर अहंकार है
तो जीवन की
कोई संभावना
नहीं है, केवल जीवन
का आश्वासन है।
अहंकार
आश्वासन देने
में अत्यंत
कुशल है; वह
निरंतर
तुम्हें
आश्वासन देता
रहता है। और
तुम इतने
मूर्च्छित हो
कि कोई
आश्वासन पूरा
नहीं होता है
और फिर भी तुम
भरोसा कर लेते
हो। जब भी कोई
नया आश्वासन
दिया जाता है,
तुम फिर
विश्वास कर
लेते हो।
पीछे
लौट कर देखो।
अहंकार ने
कितने
आश्वासन दिए, और मिला
कुछ भी नहीं।
सभी आश्वासन
व्यर्थ गए।
लेकिन तुम कभी
पीछे मुड़कर
नहीं देखते हो,
तुम कभी
हिसाब नहीं
करते हो। जब
तुम बच्चे थे
तो जवानी का
आश्वासन मिला
था, कि जब
जवान होंगे तो
जीवन उपलब्ध
होगा। हर कोई
यही कहता था
और तुम भी
मानते थे कि
जवान होने पर जो
भी मिलना है
सब मिल जाएगा।
अब वे दिन भी
गुजर गए और
कोई आश्वासन
पूरा नहीं हुआ।
लेकिन तुम भूल
गए। तुम आश्वासनों
की बात भूल गए
हो और यह भी
भूल गए हो कि
वे पूरे नहीं
हुए। पीछे मुड़कर
देखना इतना
दुखदायी है कि
तुम कभी नहीं
देखते।
और अब
तुम बुढ़ापे की
आशा कर रहे हो।
तुम सोचते हो
कि बुढ़ापे में
संन्यास घटित
होगा, ध्यान
घटित होगा और
सारी चिंताएं
विदा हो जाएंगी।
तुम उम्मीद
में हो कि
बुढ़ापे में जब
तुम्हारे
बच्चे
विश्वविद्यालय
में पहुंच चुकेंगे
और सब कुछ
व्यवस्थित हो
जाएगा, तुम
पर कोई
दायित्व नहीं
रहेगा, तो
तुम परमात्मा
की खोज में
लगोगे।
तुम्हें
भरोसा है कि
बुढ़ापे में
चमत्कार घटित
होगा।
यह
होने वाला
नहीं है, क्योंकि आशा
से कोई
चमत्कार नहीं
घटता है।
अहंकार के
आश्वासन से
कुछ भी नहीं
होता है।
चमत्कार
अभी घट सकता
है—चमत्कार
अभी ही घट
सकता है।
लेकिन उसके
लिए अत्यंत
तीव्र बोध की, सघन
जागरूकता की
जरूरत है, ताकि
तुम सारे
आश्वासनों को,
सभी आशाओं
को, सभी
भविष्य की
योजनाओं को, सभी सपनों
को अलग रख सको
और अभी और
यहीं उसे प्रत्यक्ष
देख सको जो कि
तुम हो। इस
अपने पर लौटने
में, जब
तुम्हारी
चेतना कहीं और
न जाकर तुम पर
ही लौट आती है,
तुम चैतन्य
का एक वर्तुल
बन जाते हो।
और यही क्षण
शाश्वत हो
जाता है। तुम
सजग और
बोधपूर्ण हो।
उस सजगता में,
उस बोध में
कोई 'मैं' नहीं है, मात्र
अस्तित्व है,
मात्र होना
है। और उस बोध
से ही सरलता
का जन्म होता
है।
सरलता
लंगोटी लगाना
नहीं है।
गरीबी में
रहना सरलता
नहीं है।
भिखारी होने
में सरलता
नहीं है। वे
तो बहुत जटिल
और चालाक
चीजें हैं।
वें बहुत
हिसाब—किताब
की चीजें हैं।
सरलता तब आती
है जब तुम एक
सहज जीवन को
उपलब्ध होते
हो जिसमें कोई
'मैं' नहीं होता।
उससे ही सरलता
का जन्म होता
है, तुम
विनम्र होते
हो। ऐसा नहीं
कि तुम सरलता
का अभ्यास
करते हो; क्योंकि
अभ्यास—जनित
सरलता कभी
सरलता नहीं हो
सकती। अभ्यास
से जन्मी
सरलता
प्रच्छन्न
अहंकार है।
सरलता
आती है; अगर तुम
बोधपूर्ण हो
तो सरलता
तुमसे
प्रवाहित
होने लगती है।
तुम विनम्र हो
जाते हो। यह
विनम्रता
किसी अहंकार
के विपरीत
नहीं है; क्योंकि
अहंकार के
विपरीत साधी
गई विनम्रता
दूसरे ढंग का
अहंकार ही
होगी। और यह
अहंकार
ज्यादा
सूक्ष्म होगा,
ज्यादा
खतरनाक होगा,
ज्यादा
जहरीला होगा।
सच्ची
विनम्रता
अहंकार के
विपरीत नहीं
होगी; वह
अहंकार की
अनुपस्थिति
होगी—मात्र
अनुपस्थिति।
अहंकार विलीन
हो गया, तुम
अपने घर आ गए
और तुमने जान
लिया कि
अहंकार नहीं
है—तब सरलता
का जन्म होता
है, तब
विनम्रता का
उदय होता है।
यह सरलता और
यह विनम्रता
स्वत:
प्रवाहित
होती हैं।
तुमने उनके
लिए कुछ किया
नहीं, वे
उप—उत्पत्तियां
हैं—प्रगाढ़
बोध की उप—उत्पत्तियां
हैं।
तो इस
तरह का प्रश्न
मूढ़तापूर्ण
है। अगर
तुम्हें लगता
है कि तुम
बोधपूर्ण हो
और फिर भी 'मैं' बना
है तो
भलीभांति
जानना कि
तुम्हें बोध
नहीं घटा है।
तो बोध के
प्रयत्न करो बोधपूर्ण
बनो। और बोध
की पहचान यह
है कि जब तुम
बोधपूर्ण होते
हो तो 'मैं'
नहीं होता, जब— तुम
बोधपूर्ण
होते हो तो 'मैं' नहीं
पाया जाता।
यही एकमात्र
पहचान है।
तीसरा
प्रश्न :
एक दिन आपने
आब्जेक्टिव
पश्चिमी संस्कृति
और सब्जेक्टिव
पूर्वीय संस्कृति
के असंतुलन के
विषय में हमें
समझाया। आपने यह
भी बताया कि अब
तक किसी भी संस्कृति
में समग्र मनुष्य
स्वीकृत नहीं
है। तो क्या आप
कभी भविष्य में
ऐसी संस्कृति
के आने का अनुमान
करते है जो मनुष्य
को उसकी समग्रता
में स्वीकार करेगी
और आब्जेक्टिव
और सब्जेक्टिव,दोनों का पहलुओं
से उसे विकसित
होने का अवसर देगी?
यह एकांगी
विकास, यह एकतरफा
विकास एक
स्वाभाविक
भूल की तरह, एक
स्वाभाविक
भांति की तरह
घटित हुआ है।
इस स्वाभाविक
भ्रांति को
समझने की
कोशिश करो।
क्योंकि इस पर
बहुत चीजें
निर्भर हैं।
जब भी
कोई बात कही
जाती है, उसका विपरीत
पक्ष अपने आप
ही अस्वीकृत
हो जाता है।
जब भी कुछ चीज
कही जाती है, उसका विपरीत
पक्ष साथ ही
साथ अस्वीकृत
हो जाता है।
अगर मैं कहता
हूं कि 'ईश्वर
भीतर है', तो
'ईश्वर
बाहर है' यह
बात अस्वीकृत
हो जाती है।
हालाकि मैंने
इसका उल्लेख
भी नहीं किया
है। लेकिन अगर
मैं कहता हूं
कि 'ईश्वर
बाहर है' तो
'ईश्वर
भीतर है' यह
बात अस्वीकृत
हो गई। अगर
मैं कहता हूं
कि शांत होने
के लिए
तुम्हें भीतर
जाना होगा तो
उसमें यह बात
निहित ही है
कि अगर तुम
बाहर जाओगे तो
कभी शांत न
होगे।
तो
भाषा में जो
भी कहा जाता
है, वह
सदा ही किसी
चीज का
अस्वीकार हो
जाता है, इनकार
हो जाता है।
इसका अर्थ है
कि भाषा कभी
पूरे जीवन को
नहीं समाहित
कर सकती है।
और अगर तुम
पूरे जीवन को
भाषा में कहने
की चेष्टा
करोगे तो भाषा
अतर्क्य हो
जाएगी, बेबूझ
हो जाएगी। अगर
मैं कहूं कि 'ईश्वर भीतर
है और ईश्वर
बाहर है', तो
वह वक्तव्य
अर्थहीन होगा।
अगर मैं कहूं
कि चाहे तुम
बाहर जाओ चाहे
भीतर, शांति
उपलब्ध होगी,
तो उसमें भी
कोई अर्थ नहीं
रहेगा।
क्योंकि मैं
दोनों बातें,
दोनों
विपरीत बातें
एक साथ कह रहा
हूं इकट्ठा कह
रहा हूं। और
वे एक—दूसरे
को काट देती
हैं, और
कुछ भी कहना
नहीं कहने
जैसा हो जाता
है।
यह
प्रयोग भी
किया गया है।
यह प्रयोग भी
कई बार हुआ है
कि समस्त जीवन
को भाषागत
अभिव्यक्ति
दी जाए, भाषा में
प्रकट किया
जाए। लेकिन यह
प्रयोग भी सफल
नहीं हुआ। वह
सफल हो नहीं
सकता है। तुम
कहने का
प्रयत्न कर
सकते हो, लेकिन
तब तुम्हारे
वक्तव्य
बेबूझ हो जाते
हैं, तब
उनमें कोई
अर्थ नहीं
होता है। तर्क
के अपने नियम
हैं जिन्हें
पूरा करना जरूरी
है। और भाषा
तर्क से चलती
है।
तुम
मुझसे पूछते
हो. 'क्या
आप यहां हैं?' यदि मैं कहूं
कि हां, एक
अर्थ में मैं यहां
हूं और एक
अर्थ में नहीं
हूं या यदि
मैं हां और
नहीं दोनों एक
साथ कहूं तो
क्या होगा? यदि तुम
मुझे प्रेम
करते हो तो
तुम मुझे
रहस्यवादी
संत कहोगे और
यदि प्रेम
नहीं करते तो
पागल कहोगे।
क्योंकि
दोनों बातें
एक साथ कैसे
हो सकती हैं? या तो मैं यहां
हूं—तो मुझे
ही कहना चाहिए।
और या मैं यहां
नहीं हूं—तो
मुझे नहीं
कहना चाहिए।
लेकिन यदि मैं
ही और नहीं
दोनों एक साथ
कहता हूं तो
मैं भाषा की
तर्क—व्यवस्था
के बाहर छलांग
लगा रहो हूं।
भाषा
सदा विकल्प है, भाषा सदा
चुनाव है। यही
कारण है कि
सभी
संस्कृतियां,
सभी समाज, सभी
सभ्यताएं एकागी
हो जाती हैं।
और कोई भी
संस्कृति
भाषा के बिना
नहीं हो सकती
है। सच तो यह
है कि भाषा ही
संस्कृति
निर्मित करती
है। और मनुष्य
ही एकमात्र
पशु है जिसके
पास भाषा है, इसलिए केवल
मनुष्य ही
संस्कृति या
समाज या सभ्यता
निर्मित करता
है, कोई
अन्य पशु
संस्कृति या
समाज या
सभ्यता नहीं
निर्मित करता
है। और भाषा
के साथ चुनाव
प्रवेश कर
जाता है। और
चुनाव के साथ
असंतुलन आता
है।
ध्यान
रहे, कोई
पशु असंतुलित
नहीं है, सिर्फ
मनुष्य
असंतुलित है।
सभी पशु
अत्यंत
संतुलन में
जीते हैं। पशु
ही नहीं, पेड़,
पत्थर सब
कुछ संतुलित
है; सिर्फ
मनुष्य
असंतुलित है।
समस्या क्या
है?
समस्या
यह है कि
मनुष्य भाषा
के माध्यम से
जीता है। और
भाषा चुनाव
पैदा करती है।
अगर मैं किसी
को कहूं कि 'तुम
सुंदर और
कुरूप दोनों
हो', तो इस
वक्तव्य का
कोई अर्थ नहीं
होगा। कुरूप
और सुंदर
दोनों? तुम्हारा
मतलब क्या है?
अगर मैं
कहूं कि 'तुम
सुंदर हो' तो
उसका अर्थ है।
अगर मैं कहूं
कि 'तुम
कुरूप हो' तो
उसका भी अर्थ
है। लेकिन अगर
मैं कहूं कि
तुम दोनों हो,
सुंदर और
कुरूप दोनों
हो, तो
उसका कोई अर्थ
नहीं है।
लेकिन
यथार्थ ऐसा ही
है। यथार्थत:
न कोई केवल
कुरूप है और न
कोई केवल
सुंदर है।
जहां —जहां
सौंदर्य है
वहां—वहां
कुरूपता है। जहां—जहां
बुद्धि है वहा—वहा
मूढ़ता है।
तुम्हें कोई
बुद्धिमान
व्यक्ति नहीं
मिलेगा जो मूढ़
न हो; तुम
ऐसे मूढ़
व्यक्ति को
नहीं खोज सकते
जो साथ—साथ
बुद्धिमान भी
न हो।
तुम्हारे
लिए यह धारणा
कठिन होगी।
क्योंकि जब
तुम कहते हो
कि यह आदमी मूढ़
है तब तुम खोज
बंद कर देते
हो, तुम
बंद हो जाते
हो, तुम
द्वार—दरवाजे
बंद कर लेते
हो। तुम कहते
हो, 'यह
आदमी मूढ़
है।’ अब
तुम उसकी
बुद्धि के
बारे में खोज—बीन
नहीं करोगे।
और अगर
तुम्हें उसकी
बुद्धि का पता
लगे तो तुम
उसे स्वीकार
नहीं करोगे।
तुम कहोगे. 'यह आदमी मूढ़ है, यह
बुद्धिमान
कैसे हो सकता
है! यह असंभव
है। कुछ गलत
बात हो गई है।
गलती से कुछ
ठीक हो गया
होगा। यह कुछ
संयोग से हो
गया है। वह
बुद्धिमान
नहीं हो सकता
है।’ और
अगर तुम
निर्णय ले
लेते हो कि यह
आदमी
बुद्धिमान है
और तब उससे
कुछ मूढ़ता
हो जाती है तो
तुम उस पर
ध्यान नहीं
दोगे, या
तुम कुछ सफाई
दोगे, उसे
बुद्धिसंगत
बनाओगे।
जीवन
तो एक साथ
दोनों है, लेकिन
भाषा विभाजन
करती है। भाषा
चुनाव है। और
इस कारण
प्रत्येक
संस्कृति
अपनी व्यवस्था
निर्मित करती
है, अपने
चुनाव बनाती
है। अतीत में
पूर्व ने
विज्ञान का
विकास किया, प्रौद्योगिकी
का विकास किया,
वैज्ञानिक
अनुसंधान का
विकास किया।
अतीत में
पूर्व ने वह
सब विकसित
किया जो अब पश्चिम
में विकसित हो
रहा है। पांच
हजार वर्ष
पहले पूर्व के
लोगों ने यह
सारा विकास कर
लिया था।
लेकिन उन्हें
लगा कि यह सब
व्यर्थ है—जैसा
कि आज पश्चिम
को अनुभव हो
रहा है।
उन्हें लगा कि
यह सारा विकास
निष्प्रयोजन
है। और जब
उन्हें ऐसा
लगा तो वे
विपरीत दिशा
में मुड़ गए।
उन्होंने कहा
: 'अब भीतर
चलो। जो भी
बाहर है वह
माया है; वह
कहीं नहीं ले
जाता है। भीतर
मुड़ो।’ विज्ञान का
विकास बंद हो
गया, प्रौद्योगिकी
का विकास रुक
गया।
और
इतना ही नहीं
कि विकास रुक
गया, जब
वे भीतर मुड़े
तो उन्होंने
उस सब की निंदा
शुरू कर दी जो
बाहर था।
उन्होंने कहा.
'जो भीतर
है वही जीने
योग्य है, जो
भी बाहर है उसे
छोड़ो।’ वे
संसार—विरोधी हो
गए; वे जीवन—विरोधी
हो गए। उन्होंने
मात्र अध्यात्म
को चुना—शुद्ध
अध्यात्म को।
लेकिन
जीवन दोनों है।
वस्तुत: यह
कहना सही नहीं
है कि जीवन
दोनों है।
जीवन एक है।
जिसे हम
पदार्थ कहते
हैं वह
अध्यात्म की
एक अभिव्यक्ति
है; और
जिसे हम
अध्यात्म
कहते हैं वह
पदार्थ की एक
अभिव्यक्ति
के अलावा कुछ
नहीं है। जीवन
एक है। भीतर
और बाहर दो
विरोधी चीजें
नहीं हैं; वे
एक ही
अस्तित्व के
दो छोर हैं।
लेकिन
जब भी कोई
समाज एक
विकल्प की अति
पर पहुंचता है—और
एक का चुनाव
अति पर जाने
को बाध्य है—तो
तुरंत दूसरे
का अभाव उसे खलने लगता
है। और जिसका
अभाव है वह
तुम्हें
ज्यादा याद आता
है, ज्यादा
महसूस होता है।
जो तुम्हारे
पास है उसे
तुम भूल सकते
हो, लेकिन
जो नहीं है
उसका खयाल
भूलना
मुश्किल है।
तो पूर्व को
वैज्ञानिक और
तकनीकी विकास
के शिखर पर
पहुंच कर उसकी
व्यर्थता
महसूस हुई, उसे लगा कि
यह व्यर्थ है,
इससे शांति
नहीं उपलब्ध
हो सकती, इससे
आनंद नहीं
उपलब्ध हो
सकता। उसे लगा
कि इसे छोड़
देना बेहतर है,
इसका त्याग
करना ही उचित
है। और तब
उसने भीतर
जाने का, आंतरिक
जगत में
प्रवेश करने
का निश्चय
किया। और जब
यह आंतरिक
यात्रा शुरू
हुई तो वह
यात्रा अपने
ही आप बाह्य
का इनकार बन
गई।
पश्चिम
में अभी यही
हो रहा है। अब
पश्चिम ने
विज्ञान और
तकनीकी विकास
का शिखर छू
लिया है और
उसे उसकी
व्यर्थता
महसूस होने
लगी है।
और
भारत
दरिद्रता के
अतल गर्त में
उतर गया है।
यह होना ही था।
क्योंकि
पूर्वीय मानस
अंतस की
यात्रा पर निकल
गया। जब तुम
बाह्य की
उपेक्षा करके
अंतस में प्रवेश
करते हो तो
तुम्हारा
दरिद्र होना
निश्चित है, तुम्हारा
गुलाम होना
पक्का है, तुम्हारा
रुग्ण और दुखी
होना
अनिवार्य है,
उसे कोई
नहीं रोक सकता
है। अब ध्यान
में भारत की
रुचि नहीं है।
अब भारत
अंतर्यात्रा
में उत्सुक
नहीं है। अब
यह देश मोक्ष
और निर्वाण की
खोज करना नहीं
चाहता है। अब
भारत का सारा
रस आधुनिक टेक्नोलाजी
में है। उसके
विद्यार्थी
इंजीनियर और
डाक्टर होना चाहते
हैं। भारत की
प्रतिभा
आधुनिक टेक्नोलाजी
और परमाणु
ऊर्जा की खोज
में पश्चिम की
ओर भागी जा
रही है। और
पश्चिम की
प्रतिभा
ध्यान सीखने
के लिए, अंतर्यात्रा
में उतरने के
लिए पूरब आ
रही है।
जहां
तक बाह्य का
संबंध है, पश्चिम
ने सफलता का
शिखर छू लिया
है। मनुष्य के
इतिहास में
पहली दफा वहां
मनुष्य बाह्य
अंतरिक्ष की
यात्रा पर
निकला है, चांद
पर पहुंचा है।
लेकिन चांद पर
पहुंचने से
क्या होगा? आदमी तो
दुखी का दुखी
ही है। अब वे
पूछते हैं, 'इससे क्या
होगा? हम
चांद पर पहुंच
भी गए तो क्या
हो गया? आदमी
वही का वही है।’
चांद पर कोई
सहायता नहीं
कर सकता, क्योंकि
तुम आदमी को
पृथ्वी से
चांद पर भी
भेज दो तो वह
वही का वही
रहता है। तो
बाह्य
अंतरिक्ष की
यात्रा किसी
काम की नहीं
लगती, शक्ति
का अपव्यय
लगती है। कैसे
भीतर की ओर मुड़ा
जाए?
अब
पश्चिम के लोग
पूर्व की ओर
मुड़ रहे हैं
और पूर्व
पश्चिम की ओर
मुड़ रहा है।
लेकिन
फिर वही
चुनाव! अगर
पश्चिम पूरी
तरह पूर्व की
ओर मुड़ जाए तो
दो—तीन सदियों
में वह भी दरिद्र
हो जाएगा। हिप्पियों
को देखो; वे वही कर रहे
है। अगर पश्चिम
की नई पीढ़ी बिलकुल
हिप्पी हो जाए
तो विज्ञान, प्रौद्योगिकी
और उद्योगों
के लिए कौन
काम करेगा? कौन उस
सभ्यता को सम्हालेगा
जिसे पश्चिम
ने इतने श्रम
से हासिल किया
है? जिसे
हासिल करने
में सदियां
लगती हैं उसे
तुम एक पीढ़ी
में गंवा दे
सकते हो। अगर
नई पीढ़ी
इनकार कर दे
और कहे कि हम
विश्वविद्यालयों
में नहीं पढ़ेंगे
तो तुम क्या
कर सकते हो? पुरानी पीढी
कब तक जीकी?
बीस साल और,
और सब कुछ
समाप्त हो
जाएगा। यदि नई
पीढ़ी
इनकार कर दे
और कह दे कि हम
विश्वविद्यालयों
में नहीं पढ़ेंगे,
तो सब
समाप्त हो
जाएगा।
और वे
सच में विश्वविद्यालय
छोड़ रहे हैं; वे भाग
रहे हैं। और
वे कहते हैं. 'जब प्रेम ही
नहीं है तो
फिर क्या
प्रयोजन है बड़ी
गाड़ियों
का, बड़े
महलों का, बड़ी
प्रौद्योगिकी
का? जब मन
की शांति नहीं
है तो क्या
उपयोग है इस
सारी धन—दौलत
का? जब
जीवन ही नहीं
है तो किस काम
की है यह सुख—सुविधा?
इन्हें छोड़ो।’
और दो
सौ वर्षों के
भीतर पश्चिम
गरीबी के अतल गर्त
में गिर सकता
है। पूर्व में
यह घटना घट
चुकी है।
महाभारत के
समय में पूर्व
में करीब—करीब
वही तकनीक
मौजूद थी जो
आज पश्चिम में
दिख रही है।
और फिर वह
व्यर्थ सिद्ध
हुई।
और यदि
भारतीय मानस टेक्नोलाजी
में लग जाए तो
दो पीढ़ियों के
भीतर धर्म
यहां से विदा
हो जाएगा—विदा
हो ही चुका है—और
ध्यान शब्द तिथिबाह्म
मालूम पड़ेगा।
तब तुम आंतरिक
की चर्चा
करोगे तो लोग
सोचेंगे कि
तुम होश में
नहीं हो। वे
कहेंगे कि कोई
आंतरिक जैसी
चीज है ही
नहीं।
भाषा
के कारण ऐसा
होता है। भाषा
चुनाव है; भाषा
विकल्प है। और
मनुष्य का मन
अति पर चला
जाता है। और
जब वह एक
विकल्प की अति
पर जाता है तो
दूसरा विकल्प
खो जाता है।
और दूसरे
विकल्प के
खोने के साथ
उसके अनेक गुण
भी खो जाते
हैं। और जब वे
खो जाते हैं
तो तुम्हें
उनका अभाव महसूस
होता है, तुम्हें
उनकी कमी खलने
लगती है। और
तब तुम दूसरे
विकल्प की अति
पर चले जाते
हो—जहां कुछ
और खो जाता है।
इसलिए
कोई समग्र
संस्कृति अब
तक नहीं पैदा
हो सकी। और वह
तब तक नहीं
पैदा होगी जब
तक मनुष्य मौन
होना नहीं
सीखता है, जब तक मौन
मानव—मन का
आधार नहीं
बनता है। भाषा
नहीं, मौन।
क्योंकि मौन
में तुम समग्र
होते हो, भाषा
में तुम समग्र
नहीं होते हो।
जब तक
मनुष्यता
भाषा के जरिए
नहीं, मन
के जरिए नहीं,
वरन मौन के
जरिए जीना
नहीं शुरू
करती, जब
तक वह अपने
प्राणों की
समग्रता से
नहीं जीती, तब तक समग्र
संस्कृति
संभव नहीं है।
समग्र मनुष्य
ही समग्र
संस्कृति का
निर्माण कर
सकता है।
अभी
मनुष्य खंडित
है, विभाजित
है, टूटा
हुआ है।
मनुष्य जो हो
सकता है, उसे
जो होना चाहिए,
वह अभी उसका
एक अंश भर है।
मनुष्य अपनी
संभावना का, अपनी क्षमता
का एक खंड भर
है। और ये
खंडित मनुष्य
एक खंडित समाज
बनाते हैं। खंडित
समाज सदा रहे
हैं। लेकिन अब
यह संभव मालूम
पड़ता है कि
हमें अतियों
में डोलने की
अपनी मूढ़ता
का बोध हो जाए।
और अगर यह बोध
तीव्र और प्रगाढ़
हो, यदि हम
विपरीत अति की
तरफ गति। म्
करना छोड़ दें
तो हम समग्र
को देखना शुरू
करेंगे।
उदाहरण
के लिए मैं
हूं। मैं पदार्थ
के विरोध में
नहीं हूं; मैं
अध्यात्म के
विरोध में
नहीं हूं। मैं
अध्यात्म के
पक्ष में नहीं
हूं मैं पदार्थ
के पक्ष में
नहीं हूं। मैं
दोनों के लिए
हूं। मैं पदार्थ
और अध्यात्म
में, आंतरिक
और बाह्य में कोई
चुनाव नहीं करता; मैं दोनों के
लिए हूं। क्योंकि
अगर तुम दोनों
को स्वीकार
करते हो तो ही
तुम समग्र और
संपूर्ण हो
सकते हो।
लेकिन
परंपरा के
कारण, अतीत
के संस्कारों
के कारण इसे
समझना कठिन है।
जब भी तुम
किसी
आध्यात्मिक
व्यक्ति को
देखते हो, तुम
तुरंत खोजने
लगते हो कि वह
गरीब है या
नहीं। उसे
गरीब ही होना
चाहिए; उसे
झोपड़े
में ही रहना
चाहिए; उसे
भूखा ही रहना
चाहिए। क्यों?
वह गरीब
क्यों रहे? वह भूखा
क्यों रहे? वह भूखा
क्यों मरे? क्योंकि यह
हमारे
संस्कारों का
हिस्सा है, हमारी
परंपरा का
प्रभाव है कि
हम बाह्य के
विरुद्ध आंतरिक
को चुनते हैं।
अगर तुम किसी
व्यक्ति को
सुख—सुविधा
में रहते देखोगे
तो तुम
विश्वास नहीं
करोगे कि वह
आध्यात्मिक
हो सकता है।
वह
आध्यात्मिक
कैसे हो सकता
है?
लेकिन
सुख में गलत
क्या है? और अध्यात्म
सुख के
विरुद्ध कैसे
है? सच तो
यह है कि
अध्यात्म परम
सुख है।
वस्तुत:
आध्यात्मिक
व्यक्ति ही
सुख में जी सकता
है। क्योंकि
उसे सुख की
कला आती है, उसे सुख
लेना आता है, उसे अपने
साथ आनंद लिए
चलने की तरकीब
मालूम है।
लेकिन
परंपरा
तुम्हारे खून
में मिल गई है।
तुम जब किसी
आध्यात्मिक
व्यक्ति को
गरीबी में
रहते देखते हो
तो तुम्हें
लगता है कि वह
प्रामाणिक है।
लेकिन
अध्यात्म का
गरीबी से क्या
संबंध है? और क्यों
हम अतियों का
चुनाव करते
हैं? लंबी
परंपरा के
कारण तुम यह
नहीं समझ सकते
हो; तुम्हें
इसका बोध भी
नहीं है।
अभी एक
आदमी यहां आया
था। उसने मुझे
बताया कि वर्धा
में, जहां
विनोबा रहते
हैं, दिन
भर बहुत गर्मी
पड़ती है।
लेकिन विनोबा
पंखे का उपयोग
नहीं करते हैं,
कूलर का
उपयोग नहीं करते
हैं, एयरकंडीशनिग का उपयोग
नहीं करते हैं।
यह असंभव है
कि वे उनका
उपयोग करें।
कोई
आध्यात्मिक
व्यक्ति
एयरकंडीशनर
का उपयोग कैसे
कर सकता है? वह तो पंखे
का भी उपयोग
नहीं करता है।
और जो व्यक्ति
वहा से आया था
वह इससे बहुत
प्रभावित था।
उसने कहा कि
विनोबा जी
कितने
आध्यात्मिक
हैं। वे पंखे
तक का उपयोग
नहीं करते।
मैंने पूछा. 'वे फिर क्या
करते हैं?' वह
बोला : 'पूरे
दिन दस बजे से
पांच बजे तक
सात घंटे वे
एक गीले कपड़े
को अपने सिर
और पेट पर
रखते हैं।’
अब सात
घंटे विनोबा
के खराब हो
रहे हैं हर
दिन। और एक
पंखे या कूलर
या एयरकंडीशनर
की क्या कीमत
है! लेकिन वहा
पंखा होता तो
यह आदमी समझता
कि विनोबा
आध्यात्मिक
नहीं हैं। और
किसी रूप में
विनोबा भी इस
दृष्टिकोण से
सहमत हैं कि
उनके सात घंटे
महत्वपूर्ण
नहीं हैं।
जीवन
बहुत छोटा है।
और विनोबा
जैसा
प्रतिभावान
व्यक्ति भी
रोज सात घंटे
व्यर्थ ही
नष्ट करता है।
लेकिन उन्हें
भी लगता है कि
प्रौद्योगिकी
या विज्ञान
अध्यात्म—विरोधी
है। बाह्य और
अंतस में
उन्होंने
अंतस को चुना
है।
लेकिन
अगर तुमने
अंतस को चुना
है तो गीला कपड़ा
लगाना भी
बाह्य। वह वही
काम है, केवल ढंग
बहुत आदिम है।
तुम क्या कर
रहे हो? तुम
भी एक ढंग से
ठंडक पैदा कर रहे
हो, पर तुम
सात घंटे नष्ट
कर रहे हो। यह
बहुत बड़ी कीमत
है। लेकिन हम
कहेंगे : 'नहीं, यह तप, यह
अध्यात्म यह आदमी
महान है।’
यह चीज
हमारे हड्डी—मास—मज्जा
में घुस गई है।
मैं
जीवन को उसकी
समग्रता में
स्वीकार करता
हूं। बाह्य और
आंतरिक दोनों
हैं और दोनों
मेरे हिस्से
हैं। और उनमें
एक संतुलन
होना चाहिए।
तुम्हें एक की
कीमत पर दूसरे
को नहीं चुनना
है। और अगर
तुम चुनोगे तो
तुम अति के
शिकार हो जाओगे
और उसका दुख
भोगोगे।
तो एक
संतुलन पैदा
करो। बाह्य और
आंतरिक
परस्पर
विरोधी नहीं
हैं; वे
एक ही ऊर्जा
के प्रवाह हैं।
बाह्य और आंतरिक
एक ही नदी के
दो किनारे हैं
और नदी सिर्फ
एक किनारे से
नहीं बह सकती
है। तुम दूसरे
को भूल सकते
हो, लेकिन
दूसरा रहेगा।
और नदी तभी हो
सकती है जब
दूसरा भी है।
तुम दूसरे को
बिलकुल भूल जा
सकते हो।
लेकिन तब पाखंड
पैदा होता है,
क्योंकि तब
तुम्हें नाहक
दूसरे को
छिपाना पड़ता
है। उसकी कोई
जरूरत नहीं है,
दूसरे
किनारे के
बिना नदी नहीं
बह सकती है।
जीवन आंतरिक
और बाह्य के
बीच प्रवाहित
होता है; और दोनों
अनिवार्य हैं।
जीवन एक के
साथ संभव नहीं
है। और दो
वस्तुत: दो
नहीं हैं। नदी
के दो किनारे
देखने में ही
दो हैं; अगर
तुम नदी में
गहरे उतरोगे
तो तुम पाओगे
कि वे संयुक्त
हैं, जुड़े
हैं। एक ही भुमि
दो किनारों
जैसी प्रतीत
हो रही है।
बाह्य और आंतरिक
एक ही भूमि
हैं, एक
घटना हैं, एक
ही तत्व हैं।
अगर यह
अंतर्दृष्टि
गहराती है और
मनुष्य—और
मेरी
उत्सुकता
मनुष्य में है, समाजों, संस्कृतियों
और सभ्यताओं
में नहीं—अगर
मनुष्य समग्र
और संतुलित
होता है तो यह
संभव है कि
किसी दिन
मानवता एक
संतुलित समाज
बन जाए। और
तभी मनुष्य
सुख में होगा,
शांति में
होगा। और तभी
अनावश्यक
कठिनाई के
बिना विकास
संभव होगा।
अभी तो
यह एक दुर्लभ
घटना है कि
कोई व्यक्ति सम्यक
विकास को
उपलब्ध हो।
प्राय: सभी
बीज व्यर्थ
चले जाते हैं।
करोड़ों में
कभी कोई बीज
विकसित होता
है और फूल
बनता है। यह
तो शुद्ध
अपव्यय है।
लेकिन
यदि समाज
संतुलित हो—कुछ
भी अस्वीकृत न
हो, कुछ
भी चुना न जाए,
वरन एक गहन
लयबद्धता में
समग्र का
स्वीकार हो—तो
बहुत—बहुत लोग
विकास को
उपलब्ध होंगे।
तब वस्तुत:
स्थिति
बिलकुल उलटी
होगी; तब
बिरला ही कोई
व्यक्ति
विकास को
उपलब्ध होने
से वंचित
रहेगा।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें