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गुरुवार, 19 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सूमधुर यादें--(अध्‍याय--19)

ओशो के मुखारबिंद से मेरी कविता(अध्‍यायउन्‍नीसवां)

द्गुरु के प्रेम में होना, ध्यान और भक्ति का आनंद लेते श्रद्धा के शिखर का अनुभव करना, अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। एक बार ओशो के कारवां में शामिल हो जाने के बाद, कभी और कुछ याद नहीं रहा। उन दिनों की बात है, जब ओशो हमारे अपने गृह नगर पुणे में विराजमान थे। रोज सुबह ओशो के अमृत प्रवचन दिन भर आश्रम में कार्य— ध्यान करना। कब सुबह होती, कब शाम होती और कब रात हो जाती कुछ पता ही नहीं चलता। ओशो के प्रेम में डूबे संन्यासियों के साथ कैसे समय गुजर रहा था पता ही नहीं चलता था।
रोज सुबह ओशो अपने अमृत वचनों से हमें नहला जाते, तरोताजा कर जाते... पूरा दिन एक नशा सा छाया रहता। वह दौर था जब ओशो भक्तों के वचनों पर बोल रहे थे। भक्तों के जीवन का दीवानापन, मस्ती और सधुक्कड़ी बातों में ओशो इतना भाव— विभोर कर देते कि बस उनके साथ हम सभी भाव जगत में पूरी तरह से खो ही जाते।
हम सभी ओशो के साथ जीवंत भक्ति का अनुभव कर रहे थे, उस मस्ती को स्वयं जी रहे थे। दादू मीरा, कबीर, सहजो. .इन भक्तों की बातें सुन कर यकीन होता कि भक्ति का जगत बहुत निराला और तर्क की पकड़ के बाहर है।
ओशो के कार्य का वह बहुत अलग ही दौर था जब हम मित्र बैठ जाते तो या तो ओशो की बातें होतीं, भजन होते—कीर्तन होते, शेरो—शायरी होती, गाना—बजाना होता। उसी दौर में काव्य का सृजन भी हो जाता। ऐसे ही किसी भाव के जगत में सैर करते एक कविता लिखी, ओशो को भेज दी। दूसरे ही दिन ओशो ने अपने प्रवचन में उस कविता को लिया। उस कविता का आप भी आनंद लिजिए
आलोक हमारा स्वभाव है। पाना नहीं है, उपलब्धि नहीं है आलोक, हमारी निजता है।
जरा सा दर्शन तुम्हें इसका हो जाए तो तुम्हें ऐसा लगेगा जैसे स्वभाव को लगा है। स्वभाव ने लिखा है
ओशो,
कैसे सकून पाऊं तुम्हें देखने के बाद
अब क्या गज़ल सुनाऊं तुम्हें देखने के बाद
आवाज दे रही है मेरी जिन्दगी मुझे
जाऊं या मैं न जाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं......



काबे का इहतराम भी मेरी नजर में है
सर किस जगह झुकाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं.......
तेरी निगाहे—मस्त ने मखमूर कर दिया
क्या मैकदे को जाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं.......
नजरों में ताबे—दीद भी बाकी रही नहीं
किससे नजर मिलाऊं तुम्हें देखने के बाद
कैसे सकून पाऊं तुम्हें दिखने के बाद
अब क्या गजल सुनाऊं तुम्हें देखने के बाद
जरा भीतर झांको, गजलें ही गजलें गज उठती हैं। गीत ही गीत फूट पड़ते है। फूल ही फूल खिल जाते हैं। जरा भीतर देखो, दीये ही दीये जल जाते हैं। दीपावली हो जाती है। जरा भीतर देखो, रंगो की फुहारें फुट पड़ती हैं। फाग मच जाती है। जरा भीतर मुड़ कर देखो, बांसुरी बज उठती है, कोयल कूकने लगती है, पपीहा पी—पी पुकारने लगता है। जरा भीतर मुड कर देखो।
मेरे पास होने का एक ही प्रयोजन हो सकता है कि तुम भीतर मुड कर देखने की कला सीख जाओ। संन्यास भीतर मुड़ कर देखने की कला है।
चुनो ही क्यों? दोनों को साथ—साथ चलने दो। कोयल की कुहूंकुहूं मेरे प्रवचन में बाधा नहीं है, पृष्ठभूमि है। कोयल की कुहूंकुहूं मैं जो कह रहा हूं उसी को समर्थन है, मैं जिस मस्ती का पाठ पढ़ा रहा हूं उसी मस्ती के लिए आधार है।
आज इति।
साहेब मिल, साहेब भये

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