दिनांक; शुक्रवार, 20 जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान,
इच्छा केवल
रजकण में मिल
तव
मंदिर के निकट
पडूं
आते—जाते
कभी तुम्हारे
श्री
चरणों से लिपट
पडूं
2—भगवान,
धर्म और आदमी
के बीच कौन—सी
दीवारें हैं,
इस
पर प्रकाश
डालने की कृपा
करें।
पहला
प्रश्न:
भगवान,
इच्छा
केवल रजकण में
मिल
तब
मंदिर के निकट
पडूं
आते—जाते
कभी तुम्हारे
श्री
चरणों से लिपट
पडूं
वीणा, जो मांगा है
वह हो ही गया
है। अक्सर ऐसा
होता है कि जो
हो जाता है
उसकी भी हमें
खबर नहीं हो
पाती।
अनुभूति तो
घटती है हृदय
में, मस्तिष्क
तक खबर
पहुंचते—पहुंचते
समय लगता है।
कभी तो वर्षों
लग जाते हैं।
और कभी जन्म भी। जन्मों का भी फासला हो सकता है। क्योंकि हृदय की अनुभूति मस्तिष्क के शब्दजाल में प्रकट हो सके, यह आसान मामला नहीं है। हृदय की अनुभूति मौन है। एक गुनगान अनुभव होगा। एक गीत अनसुना, शब्द—शून्य; भाषा से मुक्त भाव की एक धारा।
और कभी जन्म भी। जन्मों का भी फासला हो सकता है। क्योंकि हृदय की अनुभूति मस्तिष्क के शब्दजाल में प्रकट हो सके, यह आसान मामला नहीं है। हृदय की अनुभूति मौन है। एक गुनगान अनुभव होगा। एक गीत अनसुना, शब्द—शून्य; भाषा से मुक्त भाव की एक धारा।
मस्तिष्क
समझे तो कैसे
समझे? मस्तिष्क
समझता है
शब्दों को, तर्कों को, विचार को; भाव में
उसकी कोई गति
नहीं है। भाव
मस्तिष्क के
लिए है ही
नहीं; उसका
कोई अस्तित्व
नहीं है। और
धर्म की जो
परम अनुभूति
है, वह तो
भाव की है, भावना
की है। इसलिए
मस्तिष्क तो छूंछा का छूंछा रह
जाता है। थोड़ी—सी
प्रतिध्वनि
पहुंच जाए, बस इतना
बहुत। थोड़ी—सी
छाया पड़ जाए, इतना बहुत।
और इतना भी
होने में समय
लगता है, क्योंकि
मस्तिष्क बड़ी
धूल से भरा है;
उस दर्पण पर
बहुत धूल की
पर्तें हैं।
हृदय की छाया
बन सकती है, जो गूंज
हृदय में होती
है उसकी अनुगूंज
मस्तिष्क तक
पहुंच सकती है,
लेकिन खूब
सफाई करनी पड़े,
खूब बुहारी
देनी पड़े
मस्तिष्क को।
तूने
जो पूछा है
वीणा, वह तो
हो ही गया है।
तुझे देर—अबेर
लगेगी शायद, लेकिन मुझे
दिखाई पड़ रहा
है कि हो गया
है। तेरा हृदय
तो भाव—विभोर
है। और जिसका
हृदय भाव—विभोर
है, वह
प्रभु—मंदिर
के पास आ ही
गया। और तो
उसके मंदिर के
पास आने की
कोई विधि नहीं
है। न तो काबा
में, न
काशी में, न
कैलाश में वह
है; वह तो
वहीं है जहां
हृदय
आनंदमग्न है,
जहां हृदय
मस्त है, जहां
हृदय दीवाना
है, जहां
हृदय परवाना
है।
सभी
भंवरे
एक
से होते नहीं
हैं
कुछ
हैं,
जो
रस पी करके
उड़
जाते हैं
कुछ
हैं,
जो
स्वेच्छा से
कमल—कोष
में
बंध
जाते हैं
कुछ
हैं,
जो
कांटों से
बिंधते, या कि
विवश
बींधे
जाते हैं
इसीलिए
कहता
हूं
भंवरे—भंवरे में
अंतर
होता है
और
परवाने
सभी
जलते नहीं हैं
कुछ
हैं,
जो
मंडराते हैं
रूप
शिखा पर
कुछ
हैं,
जो
पंख जलाकर
पछताते
हैं
बिरले
ही हैं
जो
ज्योति—शिखा
पर
प्राणों
का अर्ध्य
चढ़ा
पाते हैं
इसीलिए
कहता हूं
परवाने—परवाने
में
अंतर
होता है
और
वीणा, तू धन्यभागी
है उन कुछ
थोड़े—से
परवानों में
जो दीपशिखा
पर अपने जीवन
का अर्घ्य चढ़ा
पाते हैं।
बिरले
ही हैं
जो
ज्योति—शिखा
पर
प्राणों
का अर्घ्य
चढ़ा
पाते हैं
घटना
घटनी शुरू हो
गई। आज नहीं
कल मस्तिष्क
तक खबर पहुंच
जाएगी। उसकी
चिंता भी लेने
की कोई जरूरत
नहीं है।
मस्तिष्क न
समझे तो भी चल
जाएगा।
क्योंकि
मस्तिष्क
यहीं पड़ा रह
जाएगा। मौत
शरीर को भी
यहीं छोड़ जाती
है, मस्तिष्क
को भी यहीं
छोड़ जाती है।
मस्तिष्क शरीर
का ही हिस्सा
है। लेकिन
तुम्हारे
भीतर एक और
आकाश है जो
शरीर का अंग
नहीं; शरीर
में है और
शरीर का ही
नहीं है। पार
से आया है।
शरीर पड़ा रह
जाएगा पींजड़े
की भांति, वह
हंस हृदय का
उड़ जाएगा। वह
अदृश्य हंस
है। उस हंस को
मार्ग मिल गया
है। उस हंस को
मानसरोवर की
खबर मिल गई
है। लेकिन
मस्तिष्क को
अभी थोड़ी
बेचैनी है।
बेचैनी
स्वाभाविक
है। मस्तिष्क
का काम ही यही
है कि
प्रत्येक चीज
को स्पष्ट कर
ले; जो हो
रहा है, उसे
साफ—साफ समझ
ले; गणित
में बिठा ले, तर्क से
प्रमाण जुटा
ले; जो हो
रहा है वह
बेबूझ न रह
जाए।
मस्तिष्क
का काम है
रहस्य को
रहस्य न रहने
दे, उसे
सुस्पष्ट
परिभाषा में
बांध ले। मगर
कुछ चीजें हैं
जो परिभाषा
में बंधती
नहीं। प्रेम
परिभाषा में बंधता
नहीं। लाख करो
उपाय, परिभाषा
छोटी पड़ जाती
है। व्याख्या
में समाता
नहीं। बड़े—बड़े
हार गए, सदियां
बीत गईं, प्रेम
के संबंध में
कितनी बातें
कही गईं—और
प्रेम के
संबंध में एक
भी बात कही
नहीं जा सकी
है। जो कहा
गया, सब
ओछा पड़ा। जो
कहा गया, सब
थोथा सिद्ध
हुआ। प्रेम
इतना बड़ा है, इतना विराट
है कि यह आकाश
भी छोटा है।
प्रेम के आकाश
से यह आकाश
छोटा है। ऐसे
कितने ही आकाश
उसमें समा
जाएं। महावीर
ने इस आकाश को
अनंत कहा है, और आत्मा के
आकाश को अनंतानंत।
अगर अनंत को
अनंत से गुणा
कर दें। असंभव
बात। क्योंकि
अनंत का अर्थ
ही हो गया कि
उसकी कोई सीमा
नहीं, अब
उसका गुणा
कैसे करोगे? कोई आंकड़ा
नहीं। लेकिन
महावीर ने कहा,
अगर यह हो
सके कि अनंत
को हम अनंत से
गुणा कर सकें,
तो अनंतानंत,
तो हमारे
भीतर के आकाश
की थोड़ी—सी
रूपरेखा
स्पष्ट होगी।
लेकिन
मन हर चीज को
समझ कर, जान
कर स्पष्ट कर
लेना चाहता
है। क्यों? मस्तिष्क की
यह आकांक्षा
क्यों है? यह
इसलिए कि जो
स्पष्ट हो
जाता है, मस्तिष्क
उसका मालिक हो
जाता है। जो
राज राज
नहीं रह जाते,
मस्तिष्क
उनका उपयोग
करने लगता है
साधन की तरह।
लेकिन कुछ राज
हैं जो राज ही
हैं और राज ही
रहेंगे।
मस्तिष्क उन
पर कभी
मालकियत नहीं
कर सकता और
उनका कभी साधन
की तरह उपयोग
नहीं हो सकता।
वे परम साध्य
हैं। सभी साधन
उनके लिए हैं।
प्रेम जिस तरफ
इशारा करता है,
वह इशारा
परमात्मा की
तरफ है। प्रेम
का तीर जिस
तरफ चलता है, वह परमात्मा
है। प्रेम का
लक्ष्य सदा
परमात्मा है।
इसलिए तुम
जिससे भी
प्रेम करो
उसमें तुम्हें
परमात्मा की
झलक अनुभूत
होने लगेगी। इसीलिए
तो प्रेमियों
को लोग पागल
कहते हैं। मजनू
को लोग पागल
कहते हैं; क्योंकि
उसे लैला
परमात्मा
मालूम होती
है। शीरीं को
लोग पागल कहते
हैं, क्योंकि
फरहाद
उसे परमात्मा
मालूम होता
है। पागल न
कहें तो क्या
कहें?? एक
साधारण—सी
स्त्री, एक
साधारण—सा
पुरुष
परमात्मा
कैसे? लेकिन
उन्हें प्रेम
के रहस्य का
कुछ अनुभव नहीं
है। प्रेम की
जहां भी छाया
पड़ती है, वहीं
परमात्मा का
आविष्कार हो
जाता है। प्रेम
भरी आंख से
फूल को देखोगे
तो फूल
परमात्मा है।
और प्रेम—भरी
आंख से कांटे
को देखोगे
तो कांटा भी
परमात्मा है।
प्रेम की आंख
जहां पड़ी, वहीं
परमात्मा उघड़
आता है।
वीणा, तूने मुझे
प्रेम से देखा
तो परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगा। मैं तुम
सब में
परमात्मा को
देख रहा हूं।
ऐसा कोई है ही
नहीं जो
परमात्मा न
हो। जिस दिन
प्रेम की आंख
इतनी गहन हो
जाती है कि
सबमें
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगे, उस
दिन कहना:
भक्ति, प्रेम
की
पराकाष्ठा।
पलटू उसी
भक्ति की बात
कर रहे हैं।
वह प्रेम का
परम रूप; खिला
कमल, उड़ी गंध। प्रेम
तो थोड़ा—थोड़ा
दिखाई भी पड़ता
है, छुओ तो
थोड़ा—थोड़ा
स्पर्श में भी
आता है—पकड़
नहीं बैठती, छिटक—छिटक
जाता है जैसे
पारा छिटक—छिटक
जाए—लेकिन
भक्ति तो
बिलकुल पकड़
में नहीं आती।
प्रेम तो फूल
जैसा है, भक्ति
गंध है, सुवास
है। उड़ गई
आकाश में, लग
गए पंख, छूट
गया सब स्थूल,
हो गई सूक्ष्मातिसूक्ष्म।
और तेरा प्रेम
भक्ति बन रहा
है। इसलिए
मस्तिष्क की
चिंता में मत
पड़! छोड़—छाड़
यह ऊहापोह।
परमात्मा ने
तुझे चुन
लिया।
एक
पुरानी फकीरों
की कहावत है
कि हम
परमात्मा को
तभी चुन पाते
हैं जब
परमात्मा
हमें चुन लेता
है। पहले वह
चुनता है। हम
उसकी याद तभी
कर पाते हैं
जब वह हमारी
याद इतनी
गहनता से करता
है कि हमारी
निद्रा में भी
तूफान उठ आते
हैं, हमारी मूर्च्छा
में भी, हमारी
मूर्च्छा की
गहराइयों में
भी उसकी किरण
प्रविष्ट हो
जाती है। उसने
याद किया।
इससे तू उसे
याद कर पाई।
उसने याद किया,
इसलिए तेरा
हृदय मेरे
हृदय के साथ धड़कना
शुरू हुआ।
उसने याद किया,
इसलिए तेरी
श्वास मेरी
श्वास से
बंधी।
बाहर
चाहे जितनी भी
भय बाधा हो
मेरे
मन के कृष्ण—कन्हाई
की
तुम
प्यारी राधा
हो
बाहर
चाहे जितनी भी
भय बाधा हो
राधा
कैसे रुके सदन
में
मुरली
ने आराधा
हो
और
हृदय में
मुरलीधर—प्रति
पावन
प्रेम अगाधा
हो
बाहर
चाहे जितनी भी
भय बाधा हो
मन
मुरलीधर मौन
मुरलिया
अनहदनाद
अगाधा हो
सुन
सकता है वही
कि जिसने
प्रेमयोग
को साधा हो
बाहर
चाहे जितनी भी
भय बाधा हो
मेरे
मन के कृष्ण—कन्हाई
की
तुम
प्यारी राधा
हो
बाहर
चाहे जितनी भी
भय बाधा हो
मस्तिष्क
समझ पाए न समझ
पाए, बाहर
कितनी ही अड़चनें
हों, बाधाएं
हों, व्यवधान
हों, चिंता
न लेना, भीतर
ज्योति जलनी
शुरू हो गई
है। भीतर का
भरोसा करो।
मस्तिष्क
उठाएगा संदेह,
प्रश्न; मस्तिष्क
कहेगा कि हृदय
अंधा है; मस्तिष्क
होगा कि प्रेम
अंधा है—सदा
मस्तिष्क ने
यह कहा है—हंसना
मस्तिष्क पर,
क्योंकि
प्रेम के ही
पास आंख है।
अंधा अगर कोई
है तो
मस्तिष्क
अंधा है। और
प्रेम ही है
अकेला जो
स्वस्थ है।
क्योंकि
प्रेम में ही
स्वयं में
स्थिति मिलती
है। इसलिए
स्वस्थ है
प्रेम।
स्वास्थ्य है
प्रेम। अगर
कोई
विक्षिप्त है
तो मस्तिष्क
है। मगर
मस्तिष्क
उठाता प्रश्न
बड़े ऐसे है कि
सार्थक लगते
हैं। पूछने का
ढंग उसका बहुत
सुसंबद्ध
है। उसके
पूछने के ढंग
से सावधान
रहना!
पूछते
हो, प्यार
क्या है?
प्रश्न
ऐसा है
तुम्हारा,
पूर्ति
जिसकी है न
संभव
प्यार
को वाणी कहे,
यह
तो असंभव है
असंभव
प्यार
रहता है हृदय
के
कोश
में संचित, सुरक्षित,
और
उसके मर्म से
जब
स्वयं
प्रेमी भी
अपरिचित
तब
भला अनुमान से
ही
कह
सके सारी हकीकत,
अन्य
की सामर्थ्य
क्या है!
पूछते
हो, प्यार
क्या है?
यह
अनाहत नाद—सा
बजता हृदय में,
यह
मधुर आल्हाद—सा
सजता हृदय में
यह
कसक बनकर
कसकता है सदा,
दैव
का वरदान है
या आपदा!
प्यार
को अभिशाप भी
कहते
सुना है
प्रेमियों को
प्यार
को वरदान भी
कहते
सुना है
प्रेमियों को
पूछना
चाहो तो पूछो—
इन
अढ़ाई—अक्षरों
में
इतना
विरोधाभास
क्या है?
पूछते
हो, प्यार
क्या है?
मन
पूछता रहेगा, मन प्रश्न
उठाता रहेगा,
उत्तर न मन
के पास है, न
उत्तर मन को
दिया जा सकता।
हर नए उत्तर
में मन नए
प्रश्न उठा
लेगा। जैसे
वृक्षों में
पत्ते लगते
हैं, ऐसे
मन में प्रश्न
लगते हैं।
इसलिए वीणा, छोड़
मस्तिष्क के
प्रश्नों को,
गई वह घड़ी, अब हृदय में
डूब! मन कहे भी
कि अंधा है, तो कहना:
ठीक। और मन
कहे भी कि
पागलपन है, तो कहना: ठीक,
अब पागलपन
ही चुनना है, अब अंधापन
ही चुनना है।
मस्तिष्क की
आंखों से बहुत
देख लिया, पदार्थ
के अतिरिक्त
कुछ दिखाई न
पड़ा, अब
हृदय के
अंधेपन से देख
लें। जहां
मस्तिष्क हार
गया, कौन
जाने हृदय जीत
जाए? मस्तिष्क
की
बुद्धिमानी
बहुत कर ली, अब थोड़ी
हृदय की
बुद्धिहीनता
कर लें। मन की
चालबाजी बहुत
देख ली, अब
थोड़े हृदय की
निर्दोषता को
पहचान लें; थोड़े हृदय
के भोलेपन में
उतरें और
डुबकी मारें।
एक
ही उपाय है: बढ़ाए
चलो प्रेम को!
जिसे
प्यार करते हो
किए
जाओ,
प्यार
की बात
न
होंठों पर लाओ
बादल
की तरह
छाए
रहो,
उमड़ो—घुमड़ो,
यह
न हो कि तुम
यूं
ही बरस जाओ
जिसे
प्यार करते हो
किए
जाओ,
प्यार
की बात
न
होंठों पर लाओ
प्यार
को
वाणी
की दरकार नहीं,
प्यार
को शब्दों से
सरोकार
नहीं,
मौन
ही
प्यार
की वाणी, भाषा
फिर
भला
व्यर्थ
क्यों बके
जाओ
जिसे
प्यार करते हो
किए
जाओ,
प्यार
की बात
न
होंठों पर लाओ
प्यार—
दो साजों की
जुगलबंदी
है,
जिसमें
हर तार
मिल
के बजता है,
बेसुरे
तारों की
खूंटियां
खींचो
जो
बेमेल हों, मिलाते जाओ
जिसे
प्यार करते हो
किए
जाओ,
प्यार
की बात
न
होंठों पर लाओ
गुरु
और शिष्य के
बीच यही जुगलबंदी
घटती है।
प्यार—
दो साजों की
जुगलबंदी
है,
जिसमें
हर तार
मिल
के बजता है,
बेसुरे
तारों की
खूंटियां
खींचो
जो
बेमेल हों, मिलाते जाओ
जिसे
प्यार करते हो
किए
जाओ,
प्यार
की बात
न
होंठों पर लाओ
मन
बहुत बाधाएं
खड़ी करेगा।
क्योंकि मन
प्यार से बहुत
डरता है। उसका
भय स्वाभाविक
है। क्योंकि
प्रेम का जन्म
मन की मृत्यु
है। प्रेम का जीवन
और मस्तिष्क
हुआ गुलाम!
प्रेम आया कि
आत्मा आई, भक्ति आई कि
भगवान आया—फिर
कौन पूछेगा
मस्तिष्क को!
मस्तिष्क तो
अंधों की
बस्ती में
काना राजा है।
आंख वालों की
बस्ती में कौन
पूछेगा काने
को! मस्तिष्क
तो तभी तक
हमारे ऊपर
छाया रहता है
जब तक हमारे
पास मस्तिष्क
से बड़ी रोशनी
नहीं है। तो
हम टिमटिमाती,
पीली—सी
रोशनी में
मस्तिष्क की जीते
हैं—मोमबत्ती
जैसी। लेकिन
घर में बिजली
आ गई हो कि
सुबह सूरज
निकल आया हो, फिर कौन
मोमबत्ती की
फिक्र करता है—लोग
तत्क्षण बुझा
देते हैं! बस
ऐसी ही घटना
घटती है; जब
हृदय
प्रकाशित
होता है प्रेम
से और जब भक्ति
से आंदोलित
होता है तो
मस्तिष्क की
मोमबत्ती ऐसे
ही बुझा दी
जाती है जैसे
सुबह लोग
मोमबत्ती को
बुझा देते
हैं।
मोमबत्ती
तो चाहेगी कि
रात बनी ही
रहे, बनी ही
रहे, बनी
ही रहे; कि
रात साधारण
रात भी न हो, अमावस की
रात हो।
मस्तिष्क का
सारा न्यस्त
स्वार्थ यही
है कि
तुम्हारा
अज्ञान न
टूटे। और अज्ञान
टूटता है प्रेम
से। अज्ञान
ज्ञान से नहीं
टूटता। इसलिए
मस्तिष्क
ज्ञान से
बिलकुल नहीं
डरता।
शास्त्र पढ़ो,
सिद्धांत
समझो; हिंदू
हो जाओ, मुसलमान
हो जाओ, ईसाई
हो जाओ; बड़ी—बड़ी
बातों को
कंठस्थ कर लो;
गायत्री गुनगुनाओ,
नमोकार पढ़ो, इन
सबसे
मस्तिष्क
राजी है।
क्योंकि इन सब
से मस्तिष्क
का कुछ बिगड़ने
वाला नहीं, उलटे
मस्तिष्क और
इनसे मजबूत
होता है।
पांडित्य
मस्तिष्क को
मजबूत करता
है। तो जितने
शास्त्रों का
बोझ बढ़े, मस्तिष्क
कहता है बढ़ाए
चलो। लेकिन
प्रेम मृत्यु
है मस्तिष्क
की। सुनिश्चित
मृत्यु है।
वहां उसकी गति
नहीं। वहां
एकदम हारा—ठगा—ठिठका
रह जाता है।
इसलिए
मस्तिष्क
प्रेम को बहुत
गालियां देता
है, खयाल
रखना। और
गालियां इस
ढंग से देता
है कि तुम्हें
शायद जंचे
भी।
एक
मित्र ने पूछा
है, कि आप
पाखंड का
विरोध करते
हैं लेकिन
यहां लोग आपकी
कुर्सी के
सामने सिर
झुका रहे हैं!
सरासर पाखंड
हो रहा है! तो
फिर इस पाखंड
में और मंदिर
की प्रतिमा के
सामने झुकने
में क्या भेद
है?
मस्तिष्क
का प्रश्न है।
अगर कोई मंदिर
की प्रतिमा
में भी इतने
ही भाव से झुक
रहा है जितने
भाव से यहां, तो वहां भी
पाखंड नहीं
है। पाखंड
प्रतिमा के सामने
झुकने में
नहीं है, पाखंड
तो तब है जब कि
सिर्फ
मस्तिष्क झुक
रहा है और
हृदय में कोई
अनुभव नहीं हो
रहा है। पत्थर
की भी पूजा प्रेमपूर्ण
हो तो पत्थर
परमात्मा है।
और परमात्मा
की भी पूजा
पत्थर की तरह
हो तो सब
पाखंड है।
लेकिन
जिसने पूछा है, सोचा है कि
बहुत
बुद्धिमानी
का प्रश्न पूछ
रहा है। जिसने
पूछा है, उसको
खयाल है कि
उसने ऐसा सवाल
पूछा है जिसका
जवाब नहीं हो
सकता। मैं
निश्चित
पाखंड का विरोधी
हूं। पाखंड का
अर्थ तुम
समझते हो? पाखंड
का अर्थ होता
है, जहां
हृदय न हो, जहां
हृदय का
तालमेल न हो, जहां हृदय
की जुगलबंदी
न बंधी हो, वहां
झुकना।
क्योंकि मां
ने कहा, पिता
ने कहा, परिवार
ने कहा, तो
झुक गए मंदिर
में, मस्जिद
में। तुमने
जाना? अगर
तुम अपने
जानने से झुके
होओ, अगर
तुम्हारा
प्रेम ही
तुम्हें
झुकाया है, तो कौन कहता
है यह पाखंड
है? जरा भी
पाखंड नहीं।
झेन
फकीर इक्कू
एक मंदिर में
ठहरा। रात है
सर्द। इतनी
सर्द, इतनी
ठंड पड़ रही है
कि बाहर बर्फ
गिर रही है।
गरीब फकीर के
पास एक ही
कंबल है, वह
उसकी सर्दी को
नहीं मिटा पा
रहा है। वह
उठा कि मंदिर
में कुछ लकड़ी
तलाश लाए। और
लकड़ी तो न मिली
लेकिन बुद्ध
की प्रतिमाएं
थीं, वे
लकड़ी की थीं।
कई प्रतिमाएं
थीं, तो वह
एक प्रतिमा
उठा लाया, आग
जला ली। मंदिर
में जली आग, लकड़ी की चट—चटाक,
अचानक
रोशनी का होना,
पुजारी जग
गया। भागा हुआ
अया। आगबबूला
हो गया। आंखों
पर भरोसा न
आया कि एक
फकीर, जिसको
लोग सिद्धपुरुष
समझते हैं, वह भगवान की
प्रतिमा जला
रहा है! इससे
बड़ी और नास्तिकता
और बड़ा कुफ्र
क्या होगा? उसने कहा, यह तुम क्या
कर रहे हो? होश
में हो कि
पागल हो? भगवान
की प्रतिमा
जला रहे हो! इक्कू
हंसा, उसने
पास में ही
पड़े अपने संडे
को उठाया, प्रतिमा
तो जल गई थी, बस अब राख ही
रह गई थी, उस
राख में डंडे
को डालकर
टटोला।
पुजारी पूछने
लगा—अब क्या
खोज रहे हो? सब राख हो
चुका। इक्कू
ने कहा, भगवान
की अस्थियां
खोज रहा हूं।
पुजारी ने सिर
से हाथ मार
लिया। उसने
कहा, तुम
निश्चित पागल
हो। अरे, लकड़ी
की मूर्ति में
कहां की
अस्थियां! इक्कू
ने कहा, यही
तो मैं कहूं।
रात अभी बहुत
बाकी, बर्फ
जोर से पड़ रही
है और मंदिर
में तुम्हारे
मूर्तियां
बहुत हैं, एक—दो
और उठा लो! और
मैं ही क्यों तापूं, तुम
भी ठिठुर
रहे हो, तुम
भी तापो।
जब अस्थियां
नहीं हैं, तो
कैसा भगवान!
ऐसे
आदमी को मंदिर
में टिकने
देना खतरनाक
था। क्योंकि
पुजारी आखिर
सोएगा। यह और
मूर्तियां
जला दे!
बहुमूल्य
चंदन की
मूर्तियां हैं।
इक्कू को
धक्के मार कर
उसने बाहर
निकाल दिया। इक्कू ने
बहुत कहा कि
बर्फ पड़ रही
है, और भगवान
को बाहर निकाल
रहे हो! लकड़ी
की मूर्तियां
बचा रहे हो और
मुझे जीवित
बुद्ध को बाहर
निकाल रहे हो!
लेकिन उसने
बिलकुल नहीं
सुना, उसने
कहा तुम पागल
हो। तुम और
बुद्ध! धक्के
देकर दरवाजा
बंद कर लिया।
सुबह
जब उसने
दरवाजा खोला
मंदिर का तो
देखा कि इक्कू
बाहर बैठा है
और जो मील का
पत्थर है उस
पर फूल चढ़ा कर
आराधना में
झुका है और
उसकी आंखों से
आनंद के आंसू
बह रहे हैं।
पुजारी ने
जाकर हिलाया
और कहा कि तुम
मुझे और
परेशान न करो; तुम मुझे और उलझाओ मत, ऊहापोह में
मत डालो!
रात मंदिर में
भगवान की
मूर्ति जलाई,
अब सुबह राह
के किनारे लगे
मील के पत्थर
पर फूल चढ़ा कर
आराधना कर रहे
हो! इक्कू
ने कहा, जहां
आराधना है, वहां आराध्य
है। पत्थर को
भी प्रेम से
देखो तो
परमात्मा है
और परमात्मा
को भी सिर्फ
बुद्धि से
देखते रहो, तो परमात्मा
नहीं। रात जो
मैंने मूर्ति
जलाई, अपनी
सर्दी मिटाने
को न जलाई थी, तुम्हारा
पाखंड जलाने
को जलाई थी।
तुम्हें याद
दिलाना चाहता
था कि तुम यह
पूजा व्यर्थ
ही कर रहे हो, क्योंकि
तुमने खुद ही
कहा कि अरे
पागल, लकड़ी
में अस्थियां
कहां? अगर
तुमने यह
आराधना सच में
की होती तो
ऐसा वचन तुमने
न निकल सकता
था। भीतर तो
तुम जानते हो
कि लकड़ी ही है,
ऊपर मानते
हो कि भगवान
है।
पाखंड
का अर्थ होता
है: भीतर कुछ, बाहर कुछ।
जिन मित्र ने
पूछा है, उन्हें
पाखंड शब्द का
भी अर्थ नहीं
मालूम। पाखंड
का अर्थ होता
है: भीतर एक, बाहर दूसरी
बात, ठीक
उलटी बात।
लेकिन अगर
बाहर—भीतर
एकरस हो, जुगलबंदी बंधी हो, फिर
कैसा पाखंड!
तो अगर
कोई प्रीति से
पत्थर के
सामने झुके—प्रीति
कसौटी है—तो
पत्थर भगवान
है। क्योंकि
जहां झुक जाओ
तुम, वहां
भगवान है।
तुम्हारा
समर्पण भगवान
है। लेकिन कोई
ऐसे ही
औपचारिकता से,
सामाजिक
व्यवहार से, और लोग
झुकते हैं
इसलिए झुकना
चाहिए, औरों
को झुकते
देखकर झुकता
हो, संस्कारवश झुकता हो, तो पाखंड
है। पाखंड का
निर्णय झुकने
से नहीं होगा,
पाखंड का
निर्णय भीतर
हृदय के
अंतरतम में
होगा।
उन
मित्र ने पूछा
है कि कल
मैंने कुछ
संन्यासियों
को गाते सुना:
जय रजनीश हरे; यह तो महा
भयंकर पाखंड
हो रहा है!!
तुम
कैसे निर्णय
करोगे! अगर यह
उनके हृदय की
पुकार है तो
पाखंड नहीं।
और अगर वे
केवल एक औपचारिकता
अदा कर रहे
हैं तो जरूर
पाखंड है। मगर
तुम कैसे तय
करोगे? तुम
कौन हो
निर्णायक? तुम
अपने ही हृदय
का निर्णय ले
लो तो बहुत।
तुम दूसरे के
हृदयों का
निर्णय न लो!
तुम्हें अभी
अपने हृदय का
पता नहीं, औरों
का तो क्या
पता होगा? और
यहां जो बात
चल रही है, जो
सत्संग चल रहा
है, वह
अनिर्वचनीय
का है। नहीं
कहा जा सके जो,
उसको कहने
की चेष्टा चल
रही है। तुम जैसा
व्यक्ति, जो
अभी बुद्धि के
क्षुद्र जाल
में उलझा हो, उसका यहां
काम नहीं है।
तुम यहां आए
भी, व्यर्थ
आए! जिन मित्र
ने पूछा है, वे संन्यासी
भी हैं।
तुम्हारा
संन्यास भी व्यर्थ।
तुम्हारा
संन्यास
पाखंड!
अब तुम
समझो पाखंड का
अर्थ।
तुम्हारा
संन्यास
पाखंड।
क्योंकि अगर
तुम्हारे
भीतर पूजा का
भाव नहीं, अगर
तुम्हारे
भीतर आराधना
नहीं जगी, तो
तुमने बस कपड़े
रंग लिए, माल
पहन ली, यह
पाखंड। भीतर
रंग जाए और
बाहर रंगे, जुगलबंदी हो, फिर
पाखंड नहीं।
तुमने तो सोचा
होगा कि मैं
करूंगा खंडन
उन सबका जो इस
तरह का पाखंड
कर रहे हैं।
तुमने कभी
सोचा भी न
होगा कि मैं
तुमसे यह
कहूंगा कि तुम
पाखंडी हो।
मुझसे प्रश्न
पूछते समय थोड़े
सोच—समझ कर
पूछा करो। तुम
निपट पाखंडी
हो! तुम्हारा
संन्यास झूठ,
मिथ्या! तुम
झुके ही नहीं
हो। तुम्हारा
कोई समर्पण
नहीं है। तुम
मैं जो कह रहा
हूं समझ ही न पाओगे,
क्योंकि
शब्द पकड़ोगे
तुम। शब्द की
तुमने पकड़े
हैं। पूछा है
कि आप पाखंड
का इतना विरोध
करते हैं और
यहां आपके
संन्यासी
पाखंड कर रहे
हैं; इसको
आप रोकते
क्यों नहीं? मैं पाखंड
का विरोध करता
हूं। तुमसे
कहूंगा कि
संन्यास छोड़
दो। मैं पाखंड
का विरोधी
हूं। तुम्हारे
हृदय में अभी
लहर नहीं आई, तरंग नहीं
आई, अभी
तुमने मेरे
मौन को नहीं
सुना, अभी
मेरे शून्य से
तुम नहीं जुड़े;
अभी
तुम्हारे
भीतर अनाहत का
नाद नहीं हुआ।
बांध
रहा हूं
शब्दों में
अनुभूति को
जो
निर्बंध रही
है अब तक,
जो
स्वच्छंद बही
है अब तक
बांध
रहा हूं
शब्दों में उस
स्रोतस्विनी, पुनीत को
बांध
रहा हूं
शब्दों में
अनुभूति को
चक्षुश्रवा
बन सुना, श्रवण—
द्रष्टा
बन कर देखा है
जिसको,
शब्द
दे रहा हूं
मैं उस ही
तर्कातीत
प्रतीति को
बांध
रहा हूं
शब्दों में
अनुभूति को
जिसको
मन ही मन में
गोया,
दीर्घकाल
तक जिसे
संजोया,
व्यक्त
कर रहा हूं अब
उस ही
मन
की विमल
विभूति को
बांध
रहा हूं
शब्दों में
अनुभूति को
यह जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं, नहीं
कहा जा सके
ऐसा है; निर्वचन
न हो सके, ऐसा
है; अव्याख्य
है, ऐसा
है। इसे तुम
समझोगे तो
हृदय से ही
समझ पाओगे, बुद्धि से
नहीं। बुद्धि
पाखंडी है।
बुद्धि पाखंड
के ऊपर उठ भी
नहीं सकती है।
बुद्धि
चालबाज है। बुद्धि
बेईमान है।
बुद्धि बहुत
चालाक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने मित्र के
साथ सिनेमा
देखने गया हुआ
था। सिनेमा
में सभी बोर
हो रहे थे।
पिक्चर जो थी, वह उनकी समझ
के बाहर थी।
मुल्ला नसरुद्दीन
से कुछ ही आगे
एक गंजा
व्यक्ति बैठा
हुआ था।
मुल्ला के
मित्र ने
मुल्ला से कहा,
मुल्ला, पिक्चर
तो बोर कर रही
है; कुछ
करो कि
मनोरंजन हो।
यदि तुम उस
गंजे व्यक्ति
के सिर पर एक
चपत रसीद कर
दो तो मैं
तुम्हें दस
रुपए दूंगा।
लेकिन एक शर्त
है कि वह
व्यक्ति
नाराज न हो, क्रोधित न
हो। मुल्ला
बोला, अरे,
यह कौन—सी
बात है, अभी
लो! फिल्म का
इंटरवल हुआ, मुल्ला उठा
और पीछे से
जाकर उसने
गंजे आदमी की
चांद पर एक
चपत रसीद की
और बोला: अरे चंदूलाल, तुम यहां
बैठे हो! हम
तुम्हें
देखने
तुम्हारे घर
गए थे। वह
व्यक्ति बोला:
माफ कीजिए, भाई साहब, मैं चंदूलाल
नहीं। आपको
शायद गलतफहमी
हुई है, मेरा
नाम नटवरलाल
है। मुल्ला ने
कहा, ओह, क्षमा करिए,
भाई साहब, मुझे धोखा
हो गया। और
उसके बाद
मुल्ला गर्व
से छाती फुलाए
मित्र के पास
आया और बोला
कि चलो, निकालो दस रुपए!
मित्र
ने दस रुपए
दिए और बोला, मुल्ला, अब
की बार बीस
रुपए दूंगा
यदि तुम इस
गंजे आदमी की
चांद पर एक
चपत और लगा
दो। मुल्ला
बोला, अभी
लो, यह कौन—सा
बड़ा काम है!
मुल्ला गया और
जाकर फिर उसकी
चांद पर एक
चपत रसीद की
और बोला: अबे
साले, चंदूलाल,
मुझे ही
बेवकूफ बना
रहे हो! मैं
तुम्हें
अच्छी तरह से
जानता हूं।
तेरी यह नाटक
करने की आदत
जाएगी या नहीं?
वह व्यक्ति
फिर बोला, भाई
साहब, माफ
करिए, मैं चंदूलाल
नहीं, नटवरलाल हूं। मैं
किसी चंदूलाल
को जानता भी
नहीं! मुल्ला
ने पुनः उससे
क्षमा मांगी
और वापस आकर
मित्र से बीस
रुपए वसूल किए।
मित्र
ने बीस रुपए
देते हुए कहा, मुल्ला, यदि
एक चपत तुम और
लगा सको उस
गंजे को तो ये
पचास रुपए
तुम्हारे! मगर
शर्त वही है
कि वह न नाराज
हो और न
क्रोधित ही हो।
मुल्ला ने कहा,
चिंता मत
करो, होने
दो पिक्चर
समाप्त, चलो
बाहर, अभी
लगाए देता हूं
एक चपत और।
पिक्चर
समाप्त हुई, सब बाहर आए, मुल्ला ने
जाकर और भी
जोर से उस
व्यक्ति की
गंजी खोपड़ी पर
एक चपत रसीद
की और बोला, अबे साले चंदूलाल
के बच्चे, तुम
साले यहां हो
और तुम्हारे
धोखे में भीतर
हाल में मैंने
बेचारे नटवरलाल
को दो चपतें
रसीद कर दीं!
उस व्यक्ति ने
रुआंसे
स्वर में, बिलकुल
मरी हुई आवाज
में उत्तर
दिया, भाई
साहब, आप
क्यों मेरे पीछे
पड़े हुए हैं; मैं चंदूलाल
नहीं, नटवरलाल हूं।
बुद्धि
बहुत चालाक
है। रास्ते
खोज सकती है।
ऐसे रास्ते, जिनकी तुम
कल्पना भी न
कर सको। और
बुद्धि ने बहुत
रास्ते खोजे
हैं। बुद्धि
ने आदमी को
बहुत भटकाया
है। बुद्धि हर
जगह से रास्ता
निकाल लेती है,
तरकीब
निकाल लेती
है। मैं पाखंड—विरोधी
हूं, तुम्हारी
बुद्धि ने
उसमें से
रास्ता निकाल
लिया, मुझसे
ही बचने का।
तुम्हारी
बुद्धि ने
उसमें से
रास्ता निकाल
लिया अपने
अहंकार को
बचाने का, तुम्हारी
बुद्धि ने
उसमें से
रास्ता निकाल
लिया दूसरों
की निंदा करने
का। मैंने जो
कहा, वह तो तुम
समझे ही नहीं,
तुमने जो
समझना था वह
समझ लिया। और
शायद तुम सोचते
होओगे कि तुम
मेरे असली
संन्यासी!
क्योंकि मेरी
बात का कैसा
अनुसरण कर रहे
हो! जरा भी पाखंड
नहीं! और
पाखंड शब्द का
भी अर्थ तुमने
बदल लिया।
पाखंड
का अर्थ होता
है: द्वंद्व, भीतर द्वैत।
बाहर कुछ, भीतर
कुछ। लेकिन
बाहर—भीतर अगर
जुगलबंदी
है, फिर
कैसा पाखंड!
फिर तो कोई
कारण नहीं
पाखंड का।
जरा
सावधान रहना
अपनी
बुद्धिमानी
से। इस दुनिया
में सबसे
ज्यादा
सावधान होने
की जरूरत है अपनी
बुद्धिमानी
से। क्योंकि
सबसे बड़े धोखे
वहीं पैदा
होते हैं।
सबसे बड़ी चालबाजियां
वहीं पैदा
होती हैं।
एक
एकांत—प्रिय
साधु अपनी
पत्नी के साथ
जंगल में एक
छोटा—सा झोपड़ा
बनाकर सुख से
रहा करते थे।
लेकिन अक्सर
ऐसा होता था
कि जंगल में
आने—जाने वाले
लोग कभी
रास्ता भटक
जाते या लौटते
में उन्हें
शाम हो जाती
तो वे साधु की झोपड़ी
देखकर वहां
शरण मांगते।
साधु इससे
बहुत परेशान
था। एक दिन
शाम का समय था, साधु अपनी
पत्नी के साथ
शाम का मजा ले
रहा था, तभी
उसने देखा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
चला आ रहा है।
वह पुराना
परिचित है, यदि शरण मांगेगा
तो मना किया
भी नहीं जा
सकता था। अतः
साधु की पत्नी
ने एक उपाय
सुझाया कि हम
दोनों कमरे
में बंद हो
जाएं और ऐसा
अभिनय करें कि
जैसे बहुत झगड़ा
चल रहा है।
संभवतः
मुल्ला यह
देखकर कि ये
लोग झगड़
रहे हैं, अब
इनसे क्या शरण
मांगना, ऐसा
सोचकर स्वयं
ही चला जाएगा।
उन
लोगों ने ऐसा
ही किया। कमरे
के दरवाजे बंद
कर साधु ने
गाली बकना
शुरू कर दिया
और एक डंडे से
तकिया पीटना
शुरू कर दिया।
वे अभिनय में
तो कुशल थे ही—बड़े
पुराने साधु
थे! पत्नी ने
जोर—जोर से
रोना और बचाओ, बचाओ, मत
मारो, ऐसा
चिल्लाना
शुरू कर दिया।
ऐसा वे लोग
करीब आधा घंटा
तक करते रहे।
जब नसरुद्दीन
के चले जाने
का उन्हें
भरोसा हो गया,
तब वे निकल
कर बाहर आए और
आंगन में पड़ी
खाट पर बैठ गए,
साधु ने
हंसते हुए कहा,
साला, भाग
गा! देखा
मैंने कैसा
मारा? पत्नी
ने भी मुस्करा
कर कहा, और
देखा, मैं
भी कैसी रोई!
तभी खाट के
नीचे से सिर
निकलकर
मुल्ला नसरुद्दीन
बोला, और
देखा, मैं
भी कैसा भागा!
तुम
जरा सावधान रहना।
तुम जरा
होशियार
रहना। इस
दुनिया में और
कोई बड़ा
लुटेरा नहीं
है जो तुम्हें
लूट ले, इस
दुनिया में और
कोई बड़ा
जालसाज नहीं
है जो तुम्हें
धोखा दे दे,
तुम्हारी
बुद्धि सबसे
बड़ी जालसाज
है। और इस कुशलता
से देती है
धोखे और ऐसी
सादगी से देती
है धोखे कि
स्मरण भी नहीं
आता कि धोखा
हो रहा है।
प्रेम
कभी पाखंड
नहीं है। तर्क
सदा पाखंड है।
प्रेम कभी भी
अंधा नहीं है।
तर्क सदा अंधा
है। प्रेम कभी
भी पागल नहीं
है। तर्क
विक्षिप्तता
की ही एक
प्रक्रिया
है।
वीणा, तेरे भीतर
प्रेम का
अंधापन पैदा
हुआ अर्थात आंखें
पैदा हुईं। और
तेरे भीतर
प्रेम का
पागलपन जगा
अर्थात पहली
बार तू स्वस्थ
होनी शुरू हुई
है। छोड़ फिकिर!
जो तू मांग
रही है, वह
हो चुका है।
पूछा है तूने—
इच्छा
केवल रजकण में
मिल
तब
मंदिर के निकट
पडूं...
तू
मंदिर के भीतर
आ गई है! तू
मंदिर में है।
यह सारा
अस्तित्व
उसका मंदिर
है। बस भीतर
प्रेम जगा कि
सारा
अस्तित्व
मंदिर हुआ।
आते—जाते
कभी तुम्हारे
श्री
चरणों से लिपट
पडूं
उसके
चरणों में ही
हम हैं। उससे
अन्यथा होने का
उपाय नहीं है।
जहां भी हो, उसके ही चरण
हैं।
नानक
की कहानी
तुम्हें याद दिलाऊं।
गए काबा। रात
सोए। पुजारी
बहुत नाराज हो
गए, क्योंकि
काबा के
पवित्र मंदिर
की तरफ उनके
पैर थे।
पुजारियों ने
आकर कहा कि हम
तो समझे थे कि तुम
साधु मालूम
पड़ते हो, देखने
से फकीर मालूम
पड़ते हो, बातें
बड़ी ज्ञान की
करते हो और
इतनी भी
तुम्हें तमीज
नहीं, इतना
शिष्टाचार भी
नहीं, पवित्र
पत्थर की तरफ
पैर करके सो रहे
हो! नानक ने
कहा, मैं
भी बड़ी
मुश्किल में
था, रात
होने लगी, नींद
आने लगी, मेरी
भी बड़ी चिंता
थी कि पैर
करूं तो कहां
करूं! तुम
मेरे पैर वहां
कर दो जहां
परमात्मा न हो।
ऐतिहासिक
तथ्य तो इतना
ही मालूम होता
है—इससे
ज्यादा की
जरूरत भी नहीं
है, बात नानक
ने कह ही दी—लेकिन
कहानी थोड़े और
आगे जाती है।
कहानी थोड़ी कविता
बनती है।
इतिहास जहां
काम नहीं कर
पाता, वहां
काव्य की
जरूरत होती
है। इतिहास जो
नहीं कह सकता,
वह काव्य
कहता है। यहां
तक तो इतिहास
है, इसके
आगे बड़ा
प्यारा काव्य
है!
पुजारी
तो क्रोध में
थे, भन्नाए थे, उन्होंने
पकड़े
दोनों पैर
नानक के और
घुमा दिए
दूसरी तरफ; और चकित हुए
जानकर: काबा
उसी तरफ घूम
गया। सब दिशाओं
में पैर घुमा
कर देखे। जहां
पैर घुमाए,
काबा वहीं
घूम गया। तब
चरणों पर गिर
पड़े नानक के
कि हमें क्षमा
कर दो! इतनी
बात तो कविता
की है। काबा
घूमेगा नहीं।
काबा घूमने
वाला नहीं। यह
तुम पक्का
समझो। काबा घूम
सकता नहीं है।
लेकिन यह
काव्य भी
इशारा कर रहा
है एक गहन
सत्य की तरफ।
यह यही कह रहा
है कि परमात्मा
सब तरफ है।
उसके ही चरण
हैं।
एकनाथ
के संबंध में
भी मैंने
कहानी सुनी
है। गांव में
एक आदमी था जो
बड़ा नास्तिक।
आस्तिकों को
झकझोर डाला था
उसने। आखिर
आस्तिक
परेशान हो गए, उन्होंने
कहा, अगर
तुम्हें कोई
आदमी समझा
सकता है तो बस एकनाथ। और
कोई तुम्हें
नहीं समझा
सकता। उसने
कहा, कहां
हैं एकनाथ?
तो
उन्होंने कहा,
वे दूसरे
गांव में नदी
के किनारे एक
मंदिर में
रहते हैं। तुम
चले जाओ वहीं।
वह आदमी सुबह
ही
सुबह...ब्रह्ममुहूर्त
में पहुंच गया,
सोच कर कि
साधु से मिल
लेना
ब्रह्ममुहूर्त
में ही ठीक
होगा! फिर
निकल पड़ें
भिक्षा
मांगने या और
कहीं चले
जाएं!
तो
पांच बजे ही
पहुंच गया।
पांच बजे से
बैठा है मंदिर
के दरवाजे पर।
दरवाजा खुला
है और एकनाथ
सोए हैं। जरा
उजाला हुआ तो
वह बहुत हैरान
हुआ; जो देखा
उस पर आंखों
को भरोसा न
आया; आंखें
पोंछीं, धोयीं पानी से, फिर—फिर
देखा, जो
देखा उस पर
भरोसा नहीं
आता था, नास्तिक
हो कर भी नहीं
आता था। सोचने
लगा कि यह तो
महा नास्तिक
मालूम होता
है। वह शंकरजी
की पिंडी पर
पैर टेके सो
रहे थे। कम—से—कम
नानक तो पैर
किए थे सिर्फ,
कोई काबा पर
पैर टेक नहीं
दिए थे, सिर्फ
उस दिशा में
पैर किए थे, एकनाथ और एक कदम
आगे बढ़
गए!...नानक की
कहानी सुनी
होगी, सोचा
वही क्या करना,
जरा और आगे! शंकरजी की
पिंडी पर पैर
टेके हैं और
मस्त पड़े है; पैरों को तकिया
दिया हुआ है शंकरजी की
पिंडी का!
वह
नास्तिक की
छाती दहल गई।
उसने कहा, मैं नास्तिक
हूं, मैं
ईश्वर को
मानता भी नहीं,
लेकिन अगर
मुझसे कोई कहे
कि शंकरजी
की पिंडी को
पैर लगाओ, तो
मैं भी
लगाऊंगा नहीं;
हो—न—हो, कौन
जाने; फिर
पीछे झंझट हो
मरने के बाद, कहे कि क्यों,
अब बोलो!
हालांकि मैं
मानता हूं कि
ईश्वर नहीं
है। मगर यह
मान्यता मान्यता
ही है। अनुमान
अनुमान
है, तर्क तर्क है, पता नहीं हो
ही! कौन देख
आया! मरकर
लौटकर किसी ने
कहा तो नहीं
कि नहीं है! न किसीने
कहा है, न
किसी ने कहा, नहीं है, दोनों
संभावनाएं
खुली हैं, विकल्प
खुले हैं। कौन
जाने? पचास—पचास
प्रतिशत का
मामला! फिफ्टी—फिफ्टी!
हो भी सकता है,
नहीं भी हो
सकता है। मगर
यह आदमी तो हद
है! यह सौ प्रतिशत
माने बैठा है
कि नहीं है।
यह तो तकिया
लगाए हुए है।
इससे क्या हल
होगा?
मन में
तो हुआ कि लौट
जाऊं, इससे
क्या हल पूछना
है, यह और
मुझे बिगाड़ेगा।
मगर अब इतनी
दूर आ गया था
तो सोचा कि
जरा बात तो कर
लूं, आदमी
वैसे जानदार
मालूम पड़ता
है! और जिस
मस्ती से सो
रहा है! छह बज
गए, सात बज
गए, आठ बज
गए...कहा, हद
हो गई, यह
कैसा साधु!
साधु को तो
ब्रह्ममुहूर्त
में उठना
चाहिए। यह तो
साधुओं और तामसियों
का ढंग है कि
पड़े हैं, सो
रहे हैं आठ—आठ,
नौ—नौ बजे
तक। यह आदमी
बिलकुल
नास्तिक है।
नौ बजे
एकनाथ
उठे। उस आदमी
ने कहा, महाराज,
पूछने तो
बहुत कुछ आया
था, लेकिन
अब कुछ और ही
पूछने के लिए
सवाल उठ गए हैं
मन में। पहले
तो यह कि साधु
को
ब्रह्ममुहूर्त
में उठना
चाहिए। तो एकनाथ
ने कहा, तुम
क्या समझ रहे
हो मैं
ब्रह्ममुहूर्त
में नहीं उठा?
अरे, साधु
जब उठे तब
ब्रह्ममुहूर्त।
और कौन तय करेगा
ब्रह्ममुहूर्त?
कोई ठेका
लिया है किसी
ने? कोई
सील—मुहर लगी
है? ब्रह्ममुहूर्त
का क्या अर्थ
है? ब्रह्म
को जानने वाला
जब उठे। ब्रह्म
को जानने वाला
ब्राह्मण, ब्रह्म
को जानने वाला
जब उठे तब
ब्रह्ममुहूर्त।
अज्ञानियों
के जगने से
ब्रह्ममुहूर्त
हो सकता है!
सारी दुनिया
के अज्ञानी उठ
आएं पांच बजे
तो भी कुछ
नहीं होता। एकनाथ ने
कहा, जब
मैं उठूं, तब
समझना
ब्रह्ममुहूर्त।
वह आदमी बोला
कि बात तो जंचती
है? मगर
दूसरी बात!
चलो यह
भी ठीक कि जब
साधु उठे तब
ब्रह्ममुहूर्त; शंकरजी की पिंडी पर
पैर क्यों
टेके पड़े हो? शर्म नहीं
आती, संकोच
नहीं लगता? आस्तिक हो
या नास्तिक? एकनाथ ने कहा कि यह
सवाल जरा झंझट
का है! मैं खुद
ही पूछ रहा
हूं भगवान से
आज कई साल हो
गए कि बता, कहां
पैर रखूं? तू
बता, कहां
पैर रखूं? जहां
पैर रखूं वहीं
तू है। आखिर
कहीं तो पैर रखूं!
कोई अपने सिर
पर तो पैर रख न
लूं। तेरे ही
सिर पर
पड़ेंगे। तो
उसने ही मुझसे
कहा कि तू झंझट
न कर, पिंडी
पर पैर रख ले—यहां
मैं कम—से—कम
हूं। पंडित—पुरोहितों
के कारण यहां
मैं रह ही
नहीं पाता। तब
से मैं पिंडी
पर ही पैर
रखने लगा, मैं
भी क्या करूं?
जब वही कहे
तो आज्ञा
माननी पड़ेगी।
एकनाथ
जिस अपूर्व
प्रेम से भरकर
यह बात कह रहे
हैं, तो शंकर
की पिंडी पर
भी पैर रखने
का अधिकार है।
लेकिन इसका
कारण देख रहे
हो। महा
आस्तिकता इसका
कारण है। झुके
आस्तिक, तो
भक्ति, प्रतिमा
को जला डाले, तो आराधना।
सवाल भीतर का
है। सवाल बाहर
का नहीं है।
अपने हृदय को
ही टटोलते रहो,
वही है दिशासूचक
यंत्र।
वीणा, मन की फिक्र
छोड़। तू उसके
ही चरणों में
है, उसके
ही मंदिर में
है। उसके
अतिरिक्त और
कहीं होने का
कोई उपाय नहीं
है।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, धर्म और
आदमी के बीच
कौन—सी
दीवारें हैं,
इस पर
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
रामनारायण
चौहान, दीवारें
नहीं हैं, बस
दीवार है। एक
ही दीवार है:
मनुष्य के
अहंकार की, मनुष्य के
अकड़ की। मैं
कुछ हूं। मैं
श्रेष्ठ हूं;
दूसरे
निकृष्ट हैं।
मैं ऊपर हूं; दूसरे नीचे
हैं। बस इस
अहंकार की
दीवाल है। जिस
दिन यह अहंकार
गया, उस
दिन कोई दीवार
नहीं। और
चूंकि यह एक
दीवार तुम
नहीं जाने
देते, बहुत
लोग इकट्ठे हो
गए हैं जो इस
तुम्हारी दीवाल
में नई—नई ईंटें
चुनते हैं। और
जो भी
तुम्हारी इस
दीवाल में ईंटें
चुनते हैं, वे ही
तुम्हें
प्यारे लगते
हैं। पंडित
हैं, पुरोहित
हैं, उनका
काम इतना ही
है: तुम्हारे
अहंकार को सजाएं;
तुम्हारे
अहंकार को नए—नए
रूप—रंग दें; तुम्हारे
अहंकार को नए—नए
ढंग दें; तुम्हारे
अहंकार को ऐसा
सजाएं कि
वह अहंकार
मालूम ही न
पड़े।
तुम्हारे अहंकार
को विनम्रता
तक का वेश
पहना देते
हैं। तुम्हारे
अहंकार को
त्याग के
आभूषण पहना
देते हैं।
तुम्हारे
अहंकार को
ज्ञान की
बकवास सिखा
देते हैं।
दीवार
तो एक है, अहंकार,
हां, दीवार
को सजाने वाले
बहुत हैं।
चारों तरफ से
तुम्हारी
दीवार को
सजाया जा रहा
है। मां—बाप
तुमसे कहते
हैं कि खयाल
रखना, किस
कुल में पैदा
हुए हो। जैसे
कि हम सब अलग—अलग
कुलों में
पैदा हुए हैं।
एक ब्रह्म—कुल,
और तो कोई
कुल नहीं है।
नहीं लेकिन
मां—बाप कहते
हैं, याद
रखना, परिवार
की प्रतिष्ठा,
सम्मान, कुल—गौरव।
अहंकार! छोटे—से
बच्चे को
अहंकार दे रहे
हैं। फिर
स्कूल है, कालेज
है, विश्वविद्यालय
है, बस सब
अहंकार की
पूजा सिखा रहे
हैं। प्रथम
आना, नंबर
दो नहीं। दो
होना
बर्दाश्त ही
मत करना। प्रथम
ही होना
चाहिए।
जार्ज
बर्नार्ड शा
से किसी ने
पूछा मरने के
पहले कि तुम
नर्क जाना
पसंद करोगे, कि स्वर्ग? उसने कहा: नर्क
और स्वर्ग से
कोई फर्क नहीं
पड़ता। असली
सवाल यह है कि
जहां भी मैं
प्रथम हो सकूं,
वहां मैं
जाना पसंद
करूंगा। अगर
मुझे प्रथम होने
का मौका नर्क
में मिलता हो
तो नर्क के
लिए मैं राजी
हूं। स्वर्ग
को लात मार
दूंगा। स्वर्ग
में भी अगर
मुझे नंबर दो
खड़ा होना पड़े
तो मुझे जाने
की कोई इच्छा
नहीं है।
एक बार
जार्ज
बर्नार्ड शा
ने एक
व्याख्यान में
कह दिया कि
गैलीलियो ने
बात बिलकुल
गलत कही है कि
पृथ्वी सूरज
का चक्कर
लगाती है, मैं कहता
हूं कि सूरज
ही पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है। अब तो यह
बात
वैज्ञानिक
रूप से
प्रामाणिक हो
चुकी है कि
पृथ्वी ही
सूरज का चक्कर
लगाती है, गैलीलियो
ने जब कहा था
तब तो बड़ी
अड़चन थी। गैलीलियो
को बहुत सताया
गया था, ईसाई
पादरियों ने
बहुत कष्ट दिए
थे, दंड
दिए थे।
गैलीलियो को
अदालत में
बुलाकर क्षमा
मंगवाई थी।
बूढ़ा
गैलीलियो, बड़ा
व्यंग्य किया
था, बड़ा
मजाक किया था!
बड़ा समझदार
आदमी रहा
होगा। जब उसे
अदालत में बुलाया
पोप ने और कहा
कि घुटन टेक
कर माफी मांगों
और घोषणा करो,
क्योंकि
बाइबिल तो
कहती है कि
सूरज चक्कर
लगाता है
पृथ्वी
का...सारे
दुनिया के
शास्त्र यही कहते
हैं। इसीलिए
तो सारी
दुनिया की
भाषाओं में
ऐसे शब्द हैं:
सूर्योदय, सूर्यास्त;
सुबह उदय
होता है सूरज
का, सांझ
अस्त हो जाता
है। सूरज
चक्कर लगाता
है।...और तुम
कहते हो
पृथ्वी चक्कर
लगाती है सूरज
का! यह बात गलत
है। यह बाइबिल
के खिलाफ है, यह शास्त्र
के विपरीत है,
तुम क्षमा
मांग लो!
अन्यथा महंगा
पड़ जाएगा सौदा!
या तो मरने को
तैयार हो जाओ।
गैलीलियो
ने घुटने टेक
दिए।
मैं
गैलीलियो को
बहुत मस्त
आदमी मानता
हूं। अनेकों
ने गैलीलियो
की निंदा की
है। अनेकों ने
यह कहा कि
गैलीलियो डर
गया। उसने
क्षमा मांग ली।
क्षमा नहीं
मांगनी थी, शहीद हो
जाना था। मैं
नहीं मानता
ऐसा। मैं मानता
हूं गैलीलियो
बहुत
बुद्धिमान
आदमी था। ऐसी
टुच्ची बातों
के लिए मरने
में क्या सार
है! और फर्क ही
क्या पड़ता है
कि कौन चक्कर
लगाता है! मैं
तो मानता हूं
कि गैलीलियो
में आत्मघाती
वृत्ति नहीं थी,
नहीं तो वह
शहीद हो जाता।
शहीदों में
आमतौर से
आत्मघाती
वृत्ति होती
है। सौ में से
निन्यानबे
शहीद मरने को
उत्सुक होते
हैं, लेकिन
खुद मरने का
जुम्मा अपने
ऊपर नहीं लेना
चाहते, दूसरे
पर देना चाहते
हैं। सौ में
से निन्यानबे
शहीद
आत्मघाती
होते हैं।
उनकी मरने की
आतुरता होती
है। मगर इतनी
भी हिम्मत
नहीं होती कि खुद
की छाती में
छुरी मार लें।
वे दूसरे को
उकसाते हैं कि
तुम हमें
मारो। गैलीलियो
स्वस्थ आदमी
रहा होगा।
इसलिए मैं
सारे दुनिया
के वक्तव्यों
के विपरीत यह
वक्तव्य दे रहा
हूं कि मैं
मानता हूं
गैलीलियो
बहुत स्वस्थ
आदमी था और
उसने जो बात
कही, वह
केवल बड़ा
समझदार आदमी
कह सकता है।
उसने कहा, हे
प्रभु, मैं
माफी मांगता
हूं। मैं कहता
हूं, घोषणा
करता हूं कि
पृथ्वी सूरज
का चक्कर नहीं
लगाती। वह जो
मैंने कहा था,
गलत था, सूरज
ही पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है।
पोप
पादरियों की
जमात बड़ी
प्रसन्न हुई, लोगों ने
तालियां
बजाईं और तब
गैलीलियो ने
कहा: लेकिन एक
बात और मैं कह
दूं कि मेरे
कहने से कुछ
नहीं होता
चक्कर तो
पृथ्वी ही
लगाती है। मुझ
गरीब आदमी के
कहने से क्या
फर्क पड़ता है!
इसको
तो मैं बहुत
बुद्धिमान
आदमी कहता
हूं। इसने
करारा तमाचा
दिया। मरने से
भी ज्यादा गहरी
चोट पहुंचाई।
इसने कहा: मैं
क्या कर सकता
हूं? जैसा है
वैसा है। तुम
झंझट खड़ी करते
हो, मैं
माफी मांगे
लेता हूं। एक
दफे क्या तीन
दफे मांगे
लेता हूं। मगर
मैं बताए देता
हूं कि भूल
में मत रहना, चक्कर तो
पृथ्वी ही
लगाती है।
गैलीलियो
के वर्षों बाद, तीन सौ वर्ष
बाद बर्नार्ड
शा ने अपने एक
व्याख्यान
में कहा कि
मैं कहता हूं,
गैलीलियो
गलत था।
पृथ्वी का
चक्कर सूरज
लगाता है, सूरज
का चक्कर
पृथ्वी नहीं
लगाती। एक
व्यक्ति ने
खड़े होकर पूछा
कि आप तो हद कर
रहे हैं। आपके
पास प्रमाण? उसने कहा, प्रमाण यह
है कि जिस
पृथ्वी पर
बर्नार्ड शा
रहता है, वह
पृथ्वी किसी
का चक्कर नहीं
लगा सकती।
सूरज को ही
चक्कर लगाना
पड़ेगा!
बर्नार्ड
शा हमारे
अहंकार का
व्यंग्य कर
रहा है, मजाक
कर रहा है! वह
यह कह रहा है
कि आदमी की
अकड़। उसी अकड़
के कारण
शास्त्र कहते
थे कि सूरज
चक्कर लगाता
है। उसी अकड़
के कारण
शास्त्र कहते
हैं: पृथ्वी
केंद्र है
सारे जगत का।
क्यों? क्योंकि
आदमी पृथ्वी
पर रहता है और
आदमी केंद्र
है सारे प्राणियों
का और आदमी
सर्वोपरि है।
शास्त्र तुम्हारे
अहंकार भरते
हैं, शिक्षा
तुम्हारे
अहंकार को
प्रोत्साहन
देती है, महत्वाकांक्षा
जगाती है।
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
तुम्हारे
अहंकार को
भरने के ऐसे—ऐसे
उपाय बताते
हैं—और अहंकार
को भरना हो तो
उलटे—सीधे
उपाय करने
होते हैं।
क्योंकि
अहंकार अप्राकृतिक
है, अस्वाभाविक
है।
अगर
तुम सिर के बल
खड़े हो जाओ, बाजार में
भीड़ लग जाएगी।
पैर के बल
घंटों खड़े रहो,
कोई नहीं
आता। बड़े अजीब
लोग हैं! पैर
के बल घंटों
खड़े रहे, कोई
नहीं आया, सिर
के बल खड़े हो
गए, फौरन
भीड़ लग गई, लोग
पूछने लगेंगे
कि कोई योगी
महाराज आ गए, कोई महात्मा
आ गए? महात्मा
होना हो तो
सिर के बल खड़े
होना पड़ता है।
महात्मा होना
हो तो कोई—न—कोई
मूढ़ता
करनी पड़ेगी।
आधे बाल ही
कटा लो और शहर
में निकल जाओ
और सारा गांव
जानने लगेगा
कि है कोई
पहुंचा हुआ
पुरुष। न जंचती
हो बात, करके
देखो। आधी दाढ़ी,
आधे बाल साफ
कर लो, तीन
दिन से ज्यादा
नहीं लगेंगे,
सब अखबारों
में फोटो छप
जाएंगे, जगह—जगह
लोग पूछने
लगेंगे कि भाई,
इसका राज
क्या है? और
अगर जरा
होशियार आदमी
हो तो राज
बताने लगना।
और कुछ हैरानी
न होगी कि कुछ
और लोग कटा
लें। मूढ़ों
को भी और बड़े मूढ़ मिल
जाते हैं, जो
उनके शिष्य हो
जाते हैं।
चार
कौए उर्फ चार हौए
बहुत
नहीं थे सिर्फ
चार कौए थे
काले
उन्होंने
यह तय किया कि
सारे उड़ने
वाले
उनके
ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं
वे
जिसको
त्योहार कहें
सब उसे मनाएं।
कभी—कभी
जादू हो जाता
है दुनिया में
दुनिया—भर
के गुण दिखते
हैं औगुनिया
में
ये औगुनिए
चार बड़े सरताज
हो गए
इनके
नौकर चील, गुरुड़ और बाज हो
गए।
हंस
मोर चातक गौरैए
किस गिनती में
हाथ
बांधकर खड़े हो
गए सब विनती
में
हुक्म
हुआ, चातक
पंछी रट नहीं
लगाएं
पिऊ—पिऊ को छोड़ें
कांव—कांव
गाएं
बीस
तरह के काम दे
दिए गौरैयों
के
खाना—पीना
मौज उड़ाना
छुटभैयों को
कौओं
की ऐसी बन आई
पांचों घी में
बड़े—बड़े
मनसूबे आए
उनके जी में
उड़ने
तक के नियम
बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने
वाले सिर्फ रह
गए बैठे ठाले।
आगे
क्या कुछ हुआ
सुनाना बहुत
कठिन है
यह
दिन कवि का
नहीं चार कौओं
का दिन है
उत्सुकता
जग जाए तो
मेरे घर आ
जाना
लंबा
किस्सा थोड़े
में किस तरह
सुनाना!
कौए
चाहते हैं कि
सब कांव—कांव
करें। उनका
नियम सब का
नियम हो जाए।
वे नियंता बन
जाएं। कौओं की
कुल कुशलता
इतनी है कि
खूब कांव—कांव
करना जानते
हैं: शोरगुल बहुत
मचा लेते हैं; बकवासी हैं;
बक्कड़ हैं। पंडित—पुरोहितों
ने खूब कांव—कांव
मचा रखी है।
और उन्होंने
नियम बनाए हैं
कि आदमी कैसे
उठे, कैसे
चले, कैसे
बैठे, क्या
कहे, क्या
न कहे; उन्होंने
सारी नीति—मर्यादा
निर्धारित की
है। उन्होंने
आदमी को इस
तरह से
अकृत्रिम जगत
से खींचकर
कृत्रिम कर
दिया है।
कौओं
की ऐसी बन आई
पांचों घी में
बड़े—बड़े
मनसूबे आए
उनके जी में
उड़ने
तक के नियम
बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने
वाले सिर्फ रह
गए बैठे ठाले।
तुम जो
परमात्मा को
जान सकते हो, तुम गीता पढ़
रहे हो, कुरान
पढ़ रहे हो! तुम
जो परमात्मा
को जान सकते हो,
बैठे राम—राम
जप रहे हो, तोतारटंत! तुम जो
परमात्मा का
अनुभव कर सकते
हो, जो
तुम्हारे
भीतर बैठा है,
उससे कांव—कांव
करवा रहे हो!
मंत्र, गायत्री,
नमोकार जपवा
रहे हो! किससे?
उससे जिसकी
तुम तलाश कर
रहे हो। वह
तुम्हारे भीतर
बैठा है।
लेकिन
तुम्हारे
अहंकार को मजा
इसी में आएगा
कि कुछ उलटा—सीधा
हो। कांटों पर
लेटो तो
अहंकार को
प्रतिष्ठा
मिलती है; उपवास
करो तो अहंकार
को प्रतिष्ठा
मिलती है।
झेन
फकीर बोकोजू
के पास एक
आदमी ने आकर
कहा कि तुम
अपने गुरु की
बड़ी तारीफ
करते हो, तुम्हारे
गुरु में खूबी
क्या है? मेरा
गुरु चमत्कारी
है! अब अपनी
आंखों देखा
चमत्कार
तुम्हें बताता
हूं। एक दिन
गुरु ने मुझसे
कहा कि पूर आई
नदी में तू उस
तरफ चला जा!
नाव में बैठकर
मैं उस तरफ
गया। मुझे एक
कोरा कागज दे
दिया और कहा
कि उस तरफ तू
कोरा कागज
ऊंचा करके खड़ा
हो जाना, और
मैं इस किनारे
से लिखूंगा
अपनी कलम से
और तेरे कागज
पर अक्षर
उभरेंगे। और
उभरे! गुरु उस
तरफ, कोई
आधा मील फासले
पर, मैं इस
तरफ, गुरु
ने लिखा वहां
से अपनी कलम
से और अक्षर
उभरे मेरे
कागज पर। ऐसा
चमत्कार गुरु
ने मुझे दिखाया।
तुम्हारे
गुरु ने क्या
किया, तुम्हारे
गुरु का
चमत्कार क्या
है? बोकोजू
ने जो वचन कहा,
सोने के
अक्षरों में
लिख लेने जैसा
है, हृदय
में खोद लेने
जैसा है।
बोकोजू ने कहा
कि मेरे गुरु
का चमत्कार यह
है कि वे
चमत्कार कर सकते
हैं और नहीं
करते।
चमत्कार
कर सकते हैं
और नहीं करते!
इतनी उनकी सामर्थ्य
है! कठिन
सामर्थ्य है।
चमत्कार तुम कर
सको और न करो!
जरा—सी कला आ
जाएगी, दिखाने
का मोह आता है,
प्रदर्शन
का भाव जगता
है, क्योंकि
अहंकार की
पूजा तो तभी
होगी जब प्रदर्शन
होगा। हाथ से
राख निकाल सको,
फिर तुमसे न
रुका जाएगा।
फिर तुम चलोगे
तलाश में कि
मिलें कोई
बुद्धू जो राख
देखने को
उत्सुक हों, हाथ से राख
गिरे और वे
चमत्कार
मानें। तुम
कुछ छोटा कुछ
खेल कर पाओ, कुछ मदारीगिरी
कर पाओ, तो
बस करना शुरू
कर दोगे। लोग
ऐसे मूढ़
हैं कि व्यर्थ
में लेकिन
अप्राकृतिक
में उनकी
उत्सुकता है,
सहज
स्वाभाविक
में नहीं।
बोकोजू
ने यह भी कहा
कि मेरे गुरु
से मैंने पूछा
था कि आपके
जीवन का सबसे
बड़ा चमत्कार
क्या है? तो
मेरे गुरु ने
कहा कि जब
मुझे भूख लगती
तब मैं भोजन
करता और जब
मुझे प्यास
लगती तब मैं
पानी पीता और
जब मुझे नींद
आ जाती तो मैं
सो जाता। इतना
ही उत्तर
उन्होंने
मुझे दिया था
और अब मैं
अपने अनुभव से
कहता हूं कि
इससे बड़ा और
कोई चमत्कार
नहीं है।
मैं भी
अपने अनुभव से
तुमसे कहता
हूं कि सहज और
स्वाभाविक
होने से बड़ा
चमत्कार और
कोई नहीं है।
मगर वह दुनिया
में दिखाई
नहीं पड़ता सहज
और स्वाभाविक
होना।
अस्वाभाविक
दिखाई पड़ता है, असहज दिखाई
पड़ता है।
इसलिए जो
चीजें जितनी
अस्वाभाविक
हैं उतनी मूल्यवान
हो गईं। उपवास
मूल्यवान हो
गया, क्योंकि
भूख सहज है, स्वाभाविक
है। बिना भूख
के आदमी जी ही
नहीं सकता।
बिना भोजन के
आदमी जी नहीं
सकता। भूख
स्वाभाविक है,
भोजन
अनिवार्य है।
जीवन की
प्राथमिक
आवश्यकता है।
इसीलिए सारी
दुनिया में
उपवास का महत्व
हो गया। क्योंकि
उपवास उलटा
है। जो आदमी
उपवास करे, उसके प्रति
तुम्हारे मन
में सम्मान
पैदा होता है।
क्यों? क्योंकि
वह प्रकृति के
प्रतिकूल जा
रहा है। सिर
के बल खड़ा हो
रहा है। इसलिए
उपवासी जगह—जगह
पूजे जाते
हैं। कौन
कितना बड़ा
उपवासी है उतना
बड़ा महात्मा
है। कर रहा है
केवल शरीर के
साथ अत्याचार;
कर रहा है
केवल
आत्महिंसा; सता रहा है
अपने को, मार
रहा है अपने
को, आत्मघाती
है, लेकिन
पंडित—पुरोहितों
ने तुम्हें
तरकीबें दी
हैं। ये ईंटें
हैं जिनसे
अहंकार की
दीवाल मजबूत
होती चली जाती
है, बड़ी
होती चली जाती
है।
एक तो
भूख, दूसरी
कामवासना सहज
स्वाभाविक
है। क्योंकि
उससे ही तो
मनुष्य पैदा
हुआ है। उसको
भी पकड़ लिया
पंडित—पुरोहितों
ने। दबाओ
कामवासना को!
तो ब्रह्मचर्य
का बड़ा मूल्य
हो गया। अपनी
कामवासना को
बिलकुल दबा डालो तो
तुम महान
पुरुष हो गए।
दबी रहेगी
भीतर, आग
की तरह सुलगेगी
भीतर, लेकिन
दबा दो गहरे
में, अपने
अचेतन में। सड़ाएगी
तुम्हें वहां
से, तुम्हारी
आत्मा को गंदा
करेगी—जितनी
दबी हुई
कामवासना
आत्मा को गंदा
करती है और
परमात्मा से
दूर करती है
व्यक्ति को, उतनी कोई और
चीज नहीं।
क्योंकि
जिसने कामवासना
को दबाया है, वह चौबीस
घंटे
कामवासना—ही—कामवासना
से भरा रहता
है। जिसने
उपवास किया है,
वह चौबीस
घंटे भोजन—ही—भोजन
की सोचता है, रात सपने भी
भोजन के देखता
है।
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
दो ही तरह के
सपने देखते
हैं—भोजन के
और कामवासना
के। या तो
सुंदर
स्त्रियां
उन्हें सताती
हैं सपने
में...अब किस
सुंदर स्त्री को
पड़ी है? और
यह कोई नई बात
नहीं है कि
आजकल के
कलियुग के साधुओं
के संबंध में
सच हो, सतयुग
के साधुओं के
साथ भी यही सच
था—और भी
ज्यादा सच था।
अप्सराएं
सताती थीं
उनको आकाश से
उतर—उतर कर।
किस अप्सरा को
पड़ी है! ये
रूखे—सूखे
कंकाल ऋषि—मुनि,
वर्षों से
नहाए नहीं, धोए
नहीं, लक्स
टायलेट साबुन
का नाम नहीं
सुना, इनके
पास आओ तो
बदबू आए, ये
पसीने, धूल—धवांस से
भरे और इतने
से इनकी तृप्ती
नहीं होती और
राख लपेटे, भभूत रमाए; इनके बालों
में जितनी जूं
हों उतनी किसी
के बालों में
नहीं...जब पशु—पक्षी
तक घोंसला बना
लेते हैं इनके
बालों में तो जूंए
इत्यादि की तो
गिनती क्या
करनी, पिस्सू
इत्यादि का तो
हिसाब ही क्या
लगाना! जब
पक्षी में
घोंसला बना
लेते हों और
ये टस से मस नहीं
होते, फिर
कहना ही क्या!
इन पर स्वर्ग
की अप्सराएं मोहित
हो जाती हैं।
इनमें क्या
देखकर मोहित
होती होंगी? उर्वशी चली,
नाचती, सोलह
शृंगार करके,
ये मुनि
महाराज को सताने!
न तो
कहीं कोई
अप्सराएं हैं, न कहीं कोई
अप्सराएं
किसी को सताने
आती हैं। ये
इनके ही अचेतन
में दबाए गए
भाव हैं। इतने
दबा लिए हैं
कि अब ये खुली
आंख सपना देख
सकते हैं। कम
दबाओ तो बंद
आंख सपना देख
सकते हो, ज्यादा
दबाओ तो खुली
आंख सपना देख
सकते हो। ये
एक तरह के
विभ्रम में पड़
गए हैं। ये
संसार की माया
तो छोड़ आए हैं,
कहते हैं, लेकिन अब
इन्होंने
अपना माया जाल
खड़ा कर लिया है।
ये सपना देख
रहे हैं इंद्र
के सिंहासन पर
होने का। और
इसलिए ये इस
तरह की
परिकल्पना कर रहे
हैं कि शायद
इंद्र ने अपने
सिंहासन को
डांवाडोल होते
देखकर अप्सराओं
को भेजा है
भ्रष्ट करने।
इन्हीं
ऋषि—मुनियों
ने लिखा है:
स्त्री नरक का
द्वार है। अनुभव
से लिखा होगा।
क्योंकि ऋषि—मुनि
तो अनुभव की
बात कहते हैं।
गए होंगे नर्क
में स्त्री के
द्वार से।
कैसे
इन्होंने जाना
कि स्त्री नरक
का द्वार है? ऋषि—मुनि
स्वर्ग जाते
हैं, इनको
नर्क का अनुभव
कैसे हुआ? इन्होंने
इसी जिंदगी
में नरक देख
लिया है। स्त्री
को दबाया है
तो उसने नरक
खड़ा कर दिया
है। स्त्री
पुरुष को दबाए
तो पुरुष नरक
का द्वार हो
जाएगा।
मैंने
सुना है...आगे
की कहानी
है...हेमामालिनी
मरी। वैतरणी
नदी पर
पहुंची। चित्रगुप्त
महाराज खड़े
हैं
प्रतीक्षा
में। कहा:
बिटिया, तख्ती
लगी है, ठीक
से पढ़ लो! बड़ी
तख्ती लगी थी,
जिस पर दो
हड्डियों का
क्रास बना और
ऊपर एक आदमी
की खोपड़ी और
अंग्रेजी में
लिखा: डेंजर
और हिंदी में
लिखा: खतरा।
सावधान! जैसा स्प्रिट
की बोतलों पर
लिखा रहता है।
या जहां बिजली
का बहुत
वोल्टेज होता
है वहां लिखा
रहता है। नीचे
बड़े—बड़े
अक्षरों में
लिखा है कि
वैतरणी पार
करते समय एक
बात ध्यान
रहे: उनके लिए
जिनके मन में
कामवासना न
उठे, वैतरणी
छिछली है।
घुटनों से
ज्यादा पानी
नहीं। लेकिन
जैसे ही
कामवासना उठी
कि वैतरणी गहरी
हो जाती है।
एकदम डुबकी खा
जाता आदमी! और
डुबकी खाई कि
गए नरक! तो कहा:
बिटिया, ठीक
से पढ़ ले! अनेक
डूब गए हैं।
हेमामालिनी
ने कहा: आप
फिक्र न करो।
हेमामालिनी
चली वैतरणी पार
करने। आधी
वैतरणी पार हो
गई, तब
अचानक धड़ाम
की आवाज आई; पीछे लौटकर
देखा, चित्रगुप्त
महाराज डुबकी
खा रहे हैं!
उसने पूछा:
अरे बापू, क्या
हुआ? चित्रगुप्त
महाराज ने
कहा: ठीक रहा
है शास्त्रों
में कि स्त्री
नरक का द्वार
है। मार गए डुबकी,
चले गए नरक!
जितना दबाओगे
उतना उभरने की
संभावना है।
आज नहीं कल, कल नहीं
परसों। और दमन
अहंकार को
परिपुष्ट
करने की सबसे
बड़ी
प्रक्रिया
है। सहज होओ, स्वाभाविक
होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ।
प्रकृति के
अनुकूल, सब
अर्थों में।
अपने की
जबर्दस्ती
सता कर स्वर्ग
न ले जा
सकोगे।
परमात्मा
आत्म—हिंसकों
को सम्मान
नहीं दे सकता।
कम—से—कम
परमात्मा ने
तुम्हें जो
जीवन दिया है
उसका सम्मान
करो। उस जीवन
में ही तो
परमात्मा
छिपा है।
रामनारायण
चौहान, तुम
पूछते हो:
धर्म और आदमी
के बीच कौन—सी
दीवारें हैं?
दीवारें
नहीं हैं, बस
एक दीवार है।
अहंकार की।
हालांकि उस
दीवार में
बहुत—सी ईंटें
हैं और वे सब
ईंटों को जमाने
का एक ही ढंग
है। प्रकृति
के विपरीत जो
भी है, वही
अहंकार के लिए
ईंट बन जाता
है। मैं
सिखाता हूं
प्राकृतिक
जीवन। मेरी
देशना सीधी—सादी
है। सरलता से जीओ। न
भागना कहीं, न बचना है
किसी बात से।
परमात्मा ने
जो दिया है, सब शुभ है।
उसे धन्यवाद
दो। और अगर
उसने कीचड़ भी
दी है तो इसी
आशा में दी है
कि कीचड़ से
कमल पैदा होते
हैं। और उसने
अगर लोहा दिया
है तो इसी आशा
में दिया है
कि तुम्हारे
भीतर पारस
पत्थर भी है, उसे खोज लो, उसके छूते
ही लोहा भी
सोना हो
जाएगा। सोना
ही नहीं होता,
सोने में
सुगंध भी आ
जाती है। और
पंडित—पुरोहितों
भर से मत
पूछना। उनसे
बचना। न
उन्हें पता है,
न उन्हें
अनुभव है।
लेकिन इस
दुनिया में
इतने सरलचित्त
लोग बहुत कम
हैं जो यह कह
सकें कि हमें
पता नहीं है।
तुमसे भी कोई
कुछ पूछता है,
तुम्हें
चाहे पता न भी
हो तो भी तुम
उतर देते हो।
क्योंकि कोई
मानने को राजी
नहीं होता कि
मैं अज्ञानी
हूं।
मेरे
एक प्रोफेसर
थे
विश्वविद्यालय
में, कुछ भी
कहो, वे
कहें कि हां, मैंने यह
किताब पढ़ी है।
उनके ढंग—ढौल
से, उनकी
बातों से ऐसा
मुझे कभी लगा
नहीं कि वे कोई
बड़े अध्येता
हैं, या
उन्होंने कुछ
बहुत पढ़ा—लिखा
है। ढंग—ढौल
उनका ऐसा था
जैसे कि काशी
के चौबों का
होता है—बड़ा
पेट! खाने—पीने
के लिए बड़े
प्रसिद्ध थे
विश्वविद्यालय
में वे।
बातचीत भी
उनकी अति
साधारण कोटि
की। तमाखू फांकते
रहें। मुंह से
उनके पान की
लार टपकती रहे,
कपड़ों पर।
उन्हें देखकर
ही नहीं लगता
था कि उनको
कोई...उनके घर
भी मैं कई दफा
गया, कभी
उन्हें मैंने
नहीं देखा
सिवाय अखबार—अखबार
जरूर वे पढ़ते
थे। कभी मैंने
उन्हें विश्वविद्यालय
के पुस्तकालय
में नहीं
देखा। मैंने
जाकर
पुस्तकालय
में जांच—पड़ताल
भी की कि
उन्होंने कभी
कोई किताब
पुस्तकालय से
ली है। तो पता
चला दस सालों
में तो नहीं
ली है। और दस
साल के पहले
के रिकार्ड
उन्होंने कहा
हम रखते नहीं
हैं। दस साल
तक का रिकार्ड
है, इसमें
तो उन्होंने
कभी कोई किताब
नहीं ली। लेकिन
किसी भी किताब
का नाम लो और
वे कहेंगे कि
हां, मैंने
पढ़ी है।
एक दिन
मैंने दो झूठे
लेखक और उनकी
दो झूठी किताबें—न
तो कभी लेखक हुए
हैं वे और न
कभी वे
किताबें लिखी
गई हैं—कक्षा
में आकर उनका
नाम लिया और
मैंने कहा, इनके संबंध
में आपका का
खयाल है? उन्होंने
कहा: मैंने
पढ़ी हैं।
सुंदर
किताबें हैं!
अच्छे लेखक
हैं! सार की
बात लिखते
हैं। पढ़ने
योग्य हैं। जो
भी बातें कहीं
उसमें कुछ ऐसा
नहीं था कि
जिससे कोई ऐसा
लगे कि
उन्होंने
नहीं पढ़ी हैं।
मगर जो भी कहा,
किसी भी
किताब के
संबंध में कहा
जा सकता है उतना
ही कहा। जैसे
ज्योतिषी
कहते हैं।
ज्योतिषी को
हाथ दिखाओ, वह कहता है, धन आता है
लेकिन टिकता
नहीं। किसके
टिकता है? हाथ
देख—दाख कर
थोड़ा कहता है
कि अपने वालों
से बड़ा दुख
मिलता है। और
किससे मिलता है?
पराए दुख
देने की झंझट
करेंगे भी
क्यों? क्या
उनके अपने
नहीं हैं
जिनको दें? हाथ देखकर
ज्योतिषी
कहता है, सफलता
मिलेगी जरूर
लेकिन अभी दूर
है। किसी से भी
कहो, सही
है। सफलता सदा
ही दूर रहती
है। किसको
मिलती है? ज्योतिषी
हाथ देखकर
कहता है, तुम
तो नेकी करते
हो लेकिन लोग
बदी करते हैं।
क्या पारी और
क्या गजब की
बातें कही जा
रही हैं! बड़े
सत्य उदघाटित
किए जा रहे
हैं और जंचते
हैं कि हां, बात तो
बिलकुल ठीक
है! यही तो
सबका अनुभव है,
कि हम तो
नेकी करते हैं,
दूसरे बदी
करते हैं।
ऐसे ही
उन्होंने कहा
दिया कि बड़ी
सुंदर किताबें
हैं, बड़े
अच्छे लेखक
हैं, पढ़ने
योग्य हैं, काम की
बातें लिखी
हैं। मैंने
उनसे कहा: आप
मेरे साथ
पुस्तकालय
चलें। ये
किताबें मुझे
निकाल कर आप
दिखला दें। वे
थोड़े डरे; थोड़े
झिझके। कहने
लगे: क्यों, क्या बात है?
मैंने कहा,
आज निर्णय
होना है कि
आपने ये
किताबें पढ़ी
हैं कि नहीं? उन्होंने
कहा, पढ़ी
तो जरूर हैं
लेकिन बहुत
साल पहले पढ़ी
थीं तो ठीक—ठीक
मुझे ब्यौरा
नहीं है, लेकिन
ये लेखक तो
जाने—माने हैं
और ये किताबें
तो प्रसिद्ध
हैं। मैंने
कहा इसीलिए तो
मैं कहता हूं
कि आप चलें।
उनको मैं ले
गया और सारी
क्लास को भी
साथ ले गया। उनका
पसीना छूट गया,
लार और
ज्यादा बहने
लगी। हांफने
लगे। उनकी तोंद
ऊपर—नीचे
गिरने लगी।
किताबें तो
थीं ही नहीं।
मैंने कहा, आज तो चाहे
कुछ भी हो जाए,
ये किताबें
देखकर ही जाना
है!
सारी
लाइब्रेरी
में घुमा दिया; इस विषय से
उस विषय में
ले गए कि शायद
उस विषय में हों,
शायद उस
विषय में हों!
अकेले में
मुझे देखकर हाथ
जोड़े और कहा, मुझे माफ
करो, अब
सबके सामने
भद्द करवाने
से क्या फायदा,
अब मैं तुम
से नहीं
छिपाता, ये
किताबें
मैंने कभी पढ़ीं
नहीं और मुझे
पता भी नहीं
कि ये किताबें
हैं भी या
नहीं। तो
मैंने कहा कि
अब यह आदत आप छोड़
दो। यह हर बात,
मैं जानता
हूं, यह
आदत छोड़ दो!
मगर यह
आदत सबकी है।
कोई हिम्मत
नहीं कर पाता कहने
की कि मुझे
पता नहीं। कोई
तुमसे पूछता
है कि ईश्वर
है? तुम फौरन
जवाब देने को
तैयार हो। हां
या न, दोनों
ही जवाब हैं।
मगर इतने
हिम्मतवर
आदमी कम होता
है जो कहे: मुझे
मालूम नहीं।
तुम पंडितों
से पूछने
जाओगे, वे
जरूर जवाब
देंगे। तुम
किसी से भी
पूछो, वह
जवाब देगा, वह मौका
छोड़ेगा ही
नहीं। सलाह
देने का मौका
इस दुनिया में
कोई छोड़ता ही
नहीं। दुनिया
में सबसे
ज्यादा जो चीज
दी जाती है, वह सलाह है।
और सबसे कम जो
चीज ली जाती
है, वह भी
सलाह है। देने
वाले देते
रहते हैं, लेने
वाले लेते
नहीं हैं।
सलाह भटकती
रहती है!
कौन—सा
पथ है?
मार्ग
में आकुल—अधीरातुर
बटोही यों
पुकारा
कौन—सा
पथ है?
महाजन
जिस ओर जाएं—शास्त्र
हुंकारा
अंतरात्मा
ले चले जिस ओर—बोला
न्याय—पंडित
साथ
आओ
सर्वसाधारण—जनों
के—क्रांति—वाणी।
पर
महाजन—मार्ग—गमनोचित न
साधन हैं, न रथ है
अंतरात्मा
अनिश्चय—संशय—ग्रसित
क्रांति—गति—अनुसरण—योग्या है
न पद—सामर्थ्य।
कौन—सा
पथ है?
मार्ग
में आकुल—अधीरातुर
बटोही यों
पुकारा:
कौन—सा
पथ है?
और प्रत्येक
पूछ रहा है:
क्या है मार्ग, क्या है
मंजिल, कैसे
जाऊं? और
बताने वालों
ने दुकानें
लगा रखी हैं।
वे कहते हैं, आओ, हम
तुम्हें बताएंगे।
एक
सूफी कहानी
मैं कल पढ़ रहा
था। दो सूफी
तथाकथित गुरु
मिले।
औपचारिक
शिष्टाचार की
बातें होने के
बाद एक ने कहा
कि भाई, एक
शिष्य के कारण
मैं बहुत झंझट
में पड़ा हूं।
मैं लोगों को
समझाता हूं कि
समाधि पाओ।
बात इतनी कठिन
है और बात मैं
इतनी कठिन बना
देता हूं और ऐसे—ऐसे
शब्दों का जाल
फैलाता हूं कि
किसी की कुछ समझ
में आता ही
नहीं। जब
लोगों की कुछ
समझ में नहीं
आता तो लोग
समझते हैं, बड़ी ऊंची
बातें हो रही
हैं, बड़ी
गहरी बातें हो
रही हैं। और
फिर समाधि के
लिए कोई आकर
पूछता भी नहीं
कि मुझे पाना
है। क्योंकि
मैं इतनी कठिन
बातें बताता
हूं कि समाधि
पाने के लिए
क्या—क्या
करना होगा—कितने
उपवास, ब्रह्मचर्य
की साधना, तपश्चर्या,
देह का
गलाना, यह
कोई छोटा काम
नहीं है, जन्मों—जन्मों
में पूरा होता
है! तो लोग सुन
तो लेते हैं, कहते हैं:
महाराज, ठीक
कहते हैं; और
मेरा काम भी
ठीक चलता है, मगर एक
दुष्ट मेरे
पीछे पड़ गया
है; वह
कहता है कि
मैं सब करने
को राजी हूं, मगर समाधि
लेकर रहूंगा।
उसको मैंने
उपवास बतलाए
तो उपवास कर
गया। उसको
मैंने कहा कि
सिर के बल खड़े
रहो घंटों, तो वह सिर के
बल मैं कहता
हूं घंटे भर
खड़े रहो तो वह
दो घंटे खड़ा
रहता है। मेरे
ही सामने खड़ा
रहता है। मेरी
छाती पर दाल
दलता है। अब
मुझे भी घबड़ाहट
होने लगी कि
करूं क्या? जो भी कहता
हूं, करने
को राजी। कहा
कि सिर घुटा
ले, नंगा
हो जा, सिर
घुटा कर वह
नंगा घूम रहा
है। अब वह
मेरे चारों
तरफ ही घूमता
रहता है, वहीं
खड़ा रहता है।
और बार—बार
पूछता है, अब
और क्या करना
है? समाधि
कब तक मिलेगी?
उसकी बातें
सुन कर दूसरे
लोग तक भी आने
बंद हो गए हैं
कि महाराज, पहले अपने
शिष्य को, खास
पट्ट शिष्य को
तो समाधि दिलवाओ!
मेरी सब दुकान
उजाड़े दे
रहा है।
दूसरे
ने कहा, घबड़ाओ मत। मेरे
पास भी ऐसा एक
शिष्य आ गया
था, मैंने
उसे एकदम
रास्ते पर लगा
दिया। मैंने
कहा कि तू एक
कुप्पी भर
पेट्रोल पी ले,
समाधि लग
जाएगी। मूढ़
तो था ही, पी
गया कुप्पी भर
पेट्रोल, पा
गया समाधि!
दूसरे
ने कहा कि यह
भी खूब रही! यह
मैंने कभी सोचा
ही नहीं। आज
ही जाता हूं।
जाकर
शिष्य को कहा
कि देख, बस,
अब एक आखिर
उपाय, रामबाण,
पी जा
कुप्पी भर
पेट्रोल!
शिष्य तो
शिष्य ही था, गया ले आया
कुप्पी भर
पेट्रोल और पी
गया। और पीते
ही मर गया।
गुरु तो बहुत
घबड़ाया कि यह
और एक मुसीबत
हुई। अभी तक
कम—से—कम
जिंदा था, अब
लोग कहेंगे कि
तुम्हारा
पट्ट शिष्य
तुमने मार
डाला। भागा
हुआ दूसरे
गुरु के पास
गया कि भई, यह
तुमने क्या
किया? तुमने
जो रास्ता
बताया, मैंने
अपने शिष्य को
बताया, वह
पी गया कुप्पी
भर पेट्रोल, वह मर गया!
उसने कहा, यही
तो मेरे शिष्य
की हालत हुई।
वह भी मर गया। इसी
को तो मैं
समाधि कहता
हूं। उसकी
समाधि बनवा दी—वह
देखो बाहर
चबूतरा, वह
मेरे शिष्य की
समाधि। तुम भी
समाधि बनवा दो,
कहना, समाधि
लग गई!
तुम
पूछते रहोगे, पंडित बताते
रहेंगे। न तो
उस तक जाने का
कोई मार्ग है—क्योंकि
वह दूर ही
नहीं है कि
मार्ग हो। वह
तो तुम्हारे
प्राणों के
प्राण में
बैठा है। उस तक
जाने की कोई
विधि नहीं है;
क्योंकि
विधि तो उसे
पाने की होती
है जो पराया
हो। वह तो
हमारी आत्मा
है। उसे पाने
की क्या विधि?
न कोई मंत्र
है, न कोई विज्ञान
है। शांत और
मौन और सहज और
नैसर्गिक हो
जाओ, तुम
उसे पाए ही
हुए हो। शांत,
मौन निसर्ग
में तुम अचानक
चकित हो जाओगे,
हम जिसे
खोजते थे, वह
खोजने वाले
में छिपा है।
वह तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
द्रष्टा है।
वह तुम्हारे
भीतर बैठा हुआ
साक्षी, चैतन्य
है।
कोई
दीवार नहीं
है। दीवार
हमारी बनाई
हुई है। और
पंडित—पुजारी
उस दीवार को
बढ़ाने में
सहयोगी होते
हैं। क्योंकि
जितनी दीवाल
बड़ी हो, जितना
तुम अपने से
टूट जाओ, उतना
ही तुम उनके
शिकंजे में
फंस जाओगे।
उतने ही तुम
उनके कब्जे
में हो जाओगे।
सदगुरु
वह है जो
दीवाल गिरा दे,
जो तुमसे
छीन ले ज्ञान,
विधि—विधान;
जो तुमसे
छीन ले सब और
तुम्हारे
अहंकार के लिए
कोई जगह न
बचने दे; त्याग,
तपश्चर्या,
उपवास, ब्रह्मचर्य,
जो छीन ले
तुमसे सब और
तुम्हें छोड़
दे; निपट
तुम्हारे
निसर्ग के
अनुसार, फिर
गुलाब गुलाब
हो जाता है, चंपा चंपा
हो जाती है, चमेली चमेली
हो जाती है।
अभी बड़ी हालत
खराब है।
चमेली चंपा
होना चाह रही
है, गुलाब
कमल होना चाह
रहा है—और
नहीं हो पा
रहा है तो बड़ी
पीड़ा है, बड़ा
विषाद है। तुम
तुम हो और
तुम केवल तुम
ही हो सकते हो
और तुम तुम
ही हो जाओ तो
परमात्मा
उपलब्ध हुआ।
धर्म
का अर्थ है:
स्वभाव। तुम
अपने स्वभाव
में तल्लीन हो
जाओ कि धर्म
उपलब्ध हो
गया। धर्म को
खोजने न कहीं
जाना है, न
धर्म को पाने
के लिए कुछ
करना है। सब
खोजना, सब
करना छोड़ दो
तो धर्म अभी
मिला—अभी मिला
हुआ है, तत्क्षण!
लेकिन
हम उठाए जाते
हैं प्रश्न, उत्तर देने
वाले उत्तर
दिए जाते हैं।
हमारी मजबूरी
है कि हम बिना
प्रश्न पूछे
नहीं रह सकते,
उनकी
मजबूरी है कि
बिना उत्तर
दिए नहीं रह
सकते, जाल
जारी है, उपद्रव
चलता रहता है।
दुनिया
में धर्मों की
कोई जरूरत
नहीं है—न
हिंदू की, न मुसलमान
की, न जैन
की—दुनिया में
एक धार्मिकता
की जरूर जरूरत
है, धर्मों
की कोई जरूरत
नहीं है। और
धार्मिक व्यक्ति
मैं उसको कहता
हूं जो
नैसर्गिक है,
जो अपनी
निजता में जी
रहा है, जो
अपनी निजता पर
कोई पाखंड
नहीं रोपता,
जो अपनी
निजता पर
जबर्दस्ती
कोई आचरण नहीं
थोपता, जो
अपने अंतःकरण
से जीता है, जो अपने
भीतर साक्षी
के दीए के
अनुसार जीता
है। साक्षी के
अनुसार जीने
में मोक्ष है,
धर्म है, निर्वाण है।
साक्षी में जो
जीया, वही
बुद्ध है।
अप्प दीपो भव।
अपने दीए
स्वयं बनो। और
कोई दीया नहीं
है। और किसी
दीए की आशा
रखना नहीं। उस
आशा ने ही भरमाया
है, भटकाया
है।
आज
इतना ही।
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