ओशो से पूरी
दुनिया से
लाखों—लाखों
मित्रों ने
तरह—तरह के
प्रश्न पूछे
हैं। शायद ही
ऐसा कोई विषय
छूटा हो जिस
पर ओशो से प्रश्न
न पूछा गया हो।
और हर तरह के
प्रश्न का
जवाब ऐसा होता
कि सुनते ही
रह जाओ। एक
बार किसी ने
तो यह तक पूछ
लिया कि ' मैं आपको
सुनते—सुनते
बोर हो गया
हूं।’ जरा
सोचो कोई अपने
सद्गुरु से इस
तरह का प्रश्न
पूछ सकता है? क्या किसी
दूसरी सभा में
यह संभव है? लेकिन ओशो के
साथ सब कुछ
संभव है।
इस
प्रश्न का
उत्तर भी ओशो
ने बहुत ही
सुंदर दिया।
सबसे पहले तो
यह बात
स्वीकार ली कि
'मैं कोई
बहुत बड़ा
साहित्यकार
या शब्दों का
मालिक नहीं
हूं। थोड़े से
शब्द हैं जो
बार—बार उपयोग
करता हूं। बोर
होना
स्वाभाविक है।’
इतना कहने
के बाद ओशो उस मित्र
पर बोलते हैं,
कहते हैं, 'तुम भी गजब
के व्यक्ति हो,
बोर हो गये
लेकिन बदले
नहीं, रूपांतरित
नहीं हुए।
मेरे शब्द
मनोरंजन के
लिए नहीं
जगाने के लिए हैं......।’
ओशो से
प्रश्न पूछना
हमेशा ही
खतरनाक होता
है। आप कितना
ही अच्छा
प्रश्न पूछो, यदि
उन्हें पिटाई
करनी है तो
अच्छे से
अच्छे प्रश्न
में से भी
हमारी कमजोरी
निकाल कर
पिटाई कर देते।
और कभी अपना
घाव खोल कर रख
दो या कुछ ऐसी
बात पूछ लो जो
सहज ही लगे कि
ओशो पिटाई कर
देंगे उसमें
से ओशो कुछ और
ही निकाल लेते।
ऐसा ही हुआ एक
बार ओशो अपने
प्रवचन में रस
मलाई, गुड़
का धंधा और बाफना
जी की बातें
बोल रहे थे।
मुझे प्रवचन
ठीक नहीं लगा,
मैंने एक
प्रश्न ओशो से
पूछने के लिए
लिखा, 'पंद्रह
साल से आपको
सुनता हूं एक
से बढ़कर एक प्रवचन
देते हैं, बड़ा
सुंदर लगता है
लेकिन कल का
प्रवचन बडा
खोखला लगा।’ मेरी पत्नी
ने जब यह
प्रश्न देखा
तो कहा कि 'सद्गुरु
से इस तरह का
प्रश्न पूछते
हैं? आपका
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया?' मेरे एक
दूसरे दोस्त
ने मेरे से
कहा कि यह क्या
लिखा है।
मैंने कहा, 'प्रश्न तो
मेरे भीतर उठ
गया है अब डर
की वजह से मैं
यह ना पूछूं
तो कायरता
होगी। ओशो डाटेंगे
तो सुन लेंगे,
जो होगा सो
होगा।’ अगले
ही दिन ओशो ने
मेरे इस
प्रश्न पर बात
की।
आनंद
स्वभाव ने एक
प्रश्न पूछा
है कि आपको
पंद्रह साल से
सुनता हूं; सुनने के
बाद घंटों
चिंतन—मनन की
धारा जारी
रहती। लेकिन
परसों आपका
प्रवचन सुना,
बहुत खोखला
लगा।
पंद्रह
साल में आनंद
स्वभाव ने कभी
पत्र नहीं
लिखा! पंद्रह
साल सुनने के
बाद चिंतन—मनन
घंटों चलता था।
वह चिंतन—मनन
क्या है? वह
तुम्हारे
भीतर शोरगुल
है। और परसों
चूंकि चिंतन—मनन
नहीं चला तो
प्रवचन खोखला
लगा। परसों की
ही बात तुम्हारे
काम की थी, स्वभाव,
बाकी
पंद्रह साल तो
यूं ही गए।
परसों की ही बात
सुन कर अगर
तुम चुप हो गए
होते, मौन
हो गए होते, शून्य हो गए
होते, तो
कोई बंद द्वार
खुल जाता।
लेकिन
लोग सुनने भी
आते हैं तो
शून्य के लिए
थोड़े ही आते
हैं, सुनने
आते हैं तो
ज्ञान के लिए।
कुछ पकड में
आए, कुछ
बुद्धि काम
करे, कुछ
बुद्धि का
विचार चले, कुछ तारतम्य
बंधे। तो
पंद्रह साल सब
ठीक चला, क्योंकि
मेरे विचारों
ने तुम्हारे
भीतर और विचारों
का ऊहापोह जगा
दिया।
लोग
सोचते हैं
चिंतन—मनन बड़ी
मूल्य की
चीजें हैं। दो
कौड़ी का
मूल्य है उनका।
शून्य के
अतिरिक्त और
किसी चीज का
कोई मूल्य नहीं
है।
अगर
मेरी बात सुन
कर तुम्हें
खोखली लगी थी, मौका चूक
गए। उस क्षण
तुम्हें भी
बिलकुल खोखला
हो जाना था।
तो शायद पहली
दफा शून्य की
झलक मिलती।
मगर तुम सोचने
लगे होओगे कि
अरे, आज का
प्रवचन जंचा
नहीं। आज की
बात कुछ मन रुची
नहीं। आज की
बात में कुछ
था नहीं, कोई
सार हाथ नहीं
आया। तुम इस
विचार में पड़
गए होओगे। उसी
विचार से तो
यह प्रश्न आया।
आदमी का मन
बहुत अजीब है।
वह हर चीज में
से उपाय निकाल
लेता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी रात
अचानक मुल्ला
को झकझोर कर
बोली— आधी रात—सुनते
हो जी, नीचे
से खटर—पटर की
आवाजें आ रही
हैं, लगता
है कि चोर आ गए
हैं। जरा नीचे
जाकर देखना तो।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कंबल सिर
के ऊपर खींचते
हुए कहा, बकवास
बंद करो, चुपचाप
सो जाओ। कहीं
चोर भी खटर—पटर
की आवाजें
करते हैं? वे
तो बिना कोई
आवाज किए ही
अपना काम करते
हैं। कोई चोर
वगैरह नहीं
हैं। चूहे
वगैरह कूदते
होंगे। शांत
रहो। और मुल्ला
तो कंबल ओढ़ कर
बिलकुल
मुर्दा हो गया।
कुछ समय बाद
मुल्ला की
पत्नी ने फिर
मुल्ला को
हिलाया और
बोली, सुनते
हो जी, नीचे
से आवाजें अब
बिलकुल नहीं आ
रही हैं, देखना
कहीं चोर तो
नहीं हैं।
आदमी
का मन यहां से
भी, वहां
से भी, सब
तरफ से
विचारों का
ऊहापोह खोजता
है, निर्विचार
होने से डरता
है।
स्वभाव, तुमसे
कहा किसने कि
मेरी बातें
सुन कर चिंतन—मनन
करो? सुनो
और भूलो।
कहते हैं न, नेकी कर और
कुएं में डाल।
सुनो और भूलो।
जरा भी भीतर
सरकने मत दो।
मेरे पास
शून्य सीखना
है। मेरे पास
तुम्हें
देखना है कि
तुम्हारे
भीतर कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि उस ना—कुछ
में ही सब कुछ
के घटने की
संभावना है।
लेकिन
मन भी बड़ा
अजीब है।
पंद्रह साल
में धन्यवाद
नहीं दिया, एक दिन
बात नहीं जमी
तो शिकायत आ
गई! शिकायत करने
के लिए मन
कितना आतुर
होता है, धन्यवाद
देने में
कितना कंजूस!
मैंने
सुना है, एक मुसलमान बादशाह
का एक नौकर था।
उसे बड़ा
प्यारा था।
नौकर जैसा
संबंध नहीं
रहा था उससे, मैत्री जैसा
संबंध हो गया।
जी—जान देने
को तैयार रहा
सदा बादशाह के
लिए। शिकार को
गए थे। दोनों
रास्ता भटक गए।
एक झाडू के
नीचे रुके
छाया में।
सांझ होने लगी,
भूख भी लगी।
उस वृक्ष में
एक ही फल लगा
है— अनजाना, अपरिचित फल।
सम्राट ने हाथ
बढ़ा कर तोड़
लिया। नौकर ने
कहा, मालिक,
मुझे मालूम
है कि आपको
भूख लगी है; मुझे भी भूख
लगी है। लेकिन
यह अपरिचित फल
है, इसकी
पहली फांक
मुझे खाने दें।
पता नहीं
जहरीला हो, पता नहीं
घातक हो। जब
मैं हां कह
दूं तब आप चखें।
सम्राट
ने चार फांकें
की, एक
फांक अपने दास
को दी। उसने
फांक ली और
इतने आनंद से
खाई, आंखों
में उसके आनंद
के आंसू आ गए।
उसने कहा, मालिक,
बहुत आपके
सत्संग में
सुस्वादु
भोजन मिले हैं,
किसको मिले
होंगे! मगर
नहीं, इस
फल का मुकाबला
नहीं, एक
फांक और!
दूसरी
भी ले ली, वह भी खा गया।
और सम्राट से
बोला कि मालिक,
कभी आपसे
कुछ मांगा
नहीं; आज
पहली बार
मांगता हूं—तीसरी
फांक और।
सम्राट ने
तीसरी फांक भी
दे दी; इतना
ही प्रेम था
उस नौकर पर।
लेकिन जब उसने
कहा, मालिक,
बस आखिरी
इच्छा पूरी कर
दें, अब
जीवन में
दोबारा आपसे
कुछ कभी नहीं
मांगता। यह
चौथी फांक भी
दे दें। तो
सम्राट ने कहा,
तू अब
ज्यादती कर
रहा है। और
जल्दी से
सम्राट ने एक
कौर उस फांक
में से ले
लिया। तत्क्षण
यूका! इतनी
जहरीली चीज
उसने जीवन में
कभी खाई ही
नहीं थी। उसने
नौकर से कहा, पागल, तू
मांग—मांग कर
ये फांकें
खा गया! यह तो
शुद्ध जहर है!
और तूने कहा
क्यों नहीं?
तो उस
नौकर ने कहा, मालिक, जिन हाथों
से बहुत
सुस्वादु
भोजन मिले, उस हाथ से
मिली एक—दो कड्वी
फांकों
के लिए शिकायत
करनी शोभा
नहीं देता, इसलिए चुप
रह गया। क्या
बात करनी इस
एक फांक की!
लेकिन
स्वभाव को एक
दिन बात नहीं
जमी, शिकायत
तत्क्षण आ गई।
पंद्रह साल
जमी, धन्यवाद
नहीं आया। ऐसा
हमारा मन है।
और मैं तुमसे
कहता हूं कि
जो बात
तुम्हें नहीं
जमी, वही
काम की थी।
तुम्हें
जमती ही कौन
सी बातें हैं? तुम्हें
जमती वे ही
बातें हैं जो
तुमसे तालमेल
खाती हैं। जो
तुमसे तालमेल
खाती हैं वे
तुमको ही
मजबूत कर जाती
हैं। जो बातें
तुमसे तालमेल
नहीं खाती, जो तुम्हें
मजबूत नहीं
करतीं, उनमें
तुम्हें सार
नहीं मालूम
होता। फिर
जिनका मुझसे
प्रेम है, उनके
लिए यह असंभव
है कि मैंने
जो बात कही हो
वह खोखली हो।
यह सोचना
असंभव है। अगर
खोखली भी कही
है तो उसमें
भी कुछ राज
होगा। वह भी
किसी के लिए
कही गई होगी।
हो सकता है वह
स्वभाव के लिए
ही कही गई थी।
आनंद
है अनुभव।
लेकिन हमारे
मन की आदतें
तो दुख ही दुख
की हैं।
शिकायत, निंदा, विरोध,
ये हमारी मन
की आदतें हैं।
इन आदतों से
जागों तो आनंद
तो अभी घट जाए—इसी
क्षण, यहीं!
क्योंकि सारा
अस्तित्व
आनंद से भरपूर
है, लबालब
है। सिर्फ तुम
उसे अपने भीतर
लेने को राजी
नहीं हो।
तुम्हारे
द्वार—दरवाजे
बंद हैं।
खोलो द्वार—दरवाजे!
ये तुम्हारी
सारी
इंद्रियां
आनंद के द्वार
बनें। यह
तुम्हारी देह
आनंद को झेलने
के लिए पात्र बने।
यह तुम्हारा मन
आनंद को
अंगीकार करने
के योग्य शांत
बने। ये
तुम्हारे
प्राण आनंदित
होने के योग्य
विस्तीर्ण
हों। फिर जो
होगा वह उत्सव
है। फिर तुम
भी चांद—तारों
के साथ, फूलों के
साथ, वृक्षों
के साथ, हवाओं
के साथ नाच
सकोगे। उत्सव
आनंद की
अभिव्यक्ति
है।
तुम
तैयार होओ!
प्यारा आएगा, पाहुन
आएगा। तुम
तैयार होओ!
तुम अभी से मत
पूछो कि
प्रकाश कैसा
होगा, आख खोलो! तुम
अभी से मत
पूछो कि वीणा—वादन
के स्वर कैसे
होंगे, कान
खोलो!
कबीर, जागो! आनंद बरस
रहा है। आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है, अस्तित्व का
स्वभाव है।
तुम सोए हो, इसलिए
अपरिचित हो।
खोजना नहीं है
कहीं—सिर्फ
जाग, सिर्फ
जाग; सिर्फ
होश, सिर्फ
पुन: स्मृति
अपने निज की—
और तत्क्षण
बरस उठता है
आनंद, जैसे
मेघ बरस जाएं!
और बरसते
मेघों के नीचे
नाचते मोर
देखे? वही
उत्सव है। ऐसे
ही मैं
तुम्हें भी
नाचते हुए
देखना चाहूंगा।
नृत्य के ही
पाठ दे रहा
हूं गीत के ही
पाठ दे रहा
हूं।
जो
द्वार
तुम्हारे लिए
खोल रहा हूं
वह अदृश्य मंदिर
का द्वार है।
तुम अगर अपने
किनारे की जंजीरों, अपने
किनारे के मोह,
सुरक्षाओं,
सुविधाओं
को छोडने को
तैयार हो, तो
देर नहीं
लगेगी, जरा
भी देर नहीं
लगेगी।
क्या
पूछते हो आनंद
क्या है? आनंद को ही
क्यों न जान
लें! क्या
पूछते हो उत्सव
क्या है? उत्सव
ही क्यों न
मना लें!
आनंद
के संबंध में
कितना ही जान
लो, आनंद
नहीं होगा।
उत्सव के
संबंध में
कितना ही जान
लो उत्सव नहीं
होगा। उत्सव
शब्द उत्सव
नहीं, आनंद
शब्द आनंद
नहीं। आनंद भी
अनुभव, उत्सव
भी अनुभव।
आज इति
उत्सव आमार जाति, आनंद आमार
गोत्र
ओह......आज मानों मेरे प्रश्न का ओशो ने जो फटकार स्वरूप प्रसाद दिया हैं वह सच में अमूल्य हैं और यही तो हैं शिष्य का पकना,आग में जलना,और साथ-साथ साधक को चेताया भी है कि मन का धूमिल-कुत्सित मार्ग को अगर ना पहचाने तो मन सु-यात्रा,सु-पंथ से चंचल होकर सुयोग्य मार्ग से भटका सकते हैं | 🌺🙏🙏🙏🌺
जवाब देंहटाएं