सूत्र:
84—शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओ
और यह भाव करो
कि
में सर्वत्र
हूं। जो
सर्वत्र है वह
आनंदित है।
85—ना—कुछ
का विचार करने
से सीमित आत्मा
हो जाती है।
मैंने एक
बूढ़े डाक्टर
के संबंध में
एक कहानी सुनी
है। एक दिन
उसके सहायक ने
उसे फोन किया, क्योंकि
वह बड़ी कठिनाई
में पड़ गया था।
एक रोगी का दम
घुट रहा था; रोगी के गले
में बिलियर्ड
की गेंद अटक
गई थी। सहायक
को समझ नहीं
पड़ रहा था कि
क्या करे। तो
उसने बूढ़े
डाक्टर से
पूछा कि मुझे
क्या करना
चाहिए?
बूढ़े
डाक्टर ने कहा
'एक पंख से
रोगी को
गुदगुदाओ।’ कुछ मिनटों
के बाद सहायक
ने फिर डाक्टर
को फोन किया।
वह बहुत
प्रसन्न था, खुश था।
उसने कहा: 'आपका
इलाज तो अदभुत
सिद्ध हुआ।
रोगी हंसने
लगा और उसने
गेंद को उगल
दिया। लेकिन
मुझे बताइए कि
आपने यह अनोखा
इलाज कहां
सीखा?'
बूढ़े
डाक्टर ने
कहा. 'मैंने खुद
ही गढ़ लिया था।
यह सदा मेरा
सिद्धात रहा
है कि जब
तुम्हें कुछ न
सूझे कि क्या
किया जाए तो
कुछ भी करो।’
लेकिन
जहां तक ध्यान
का संबंध है, यह
सिद्धात नहीं
चलेगा। अगर
तुम्हें नहीं
मालूम है कि
क्या किया जाए
तो कुछ मत करो।
क्योंकि मन
बहुत जटिल है,
बहुत
पेचीदा है और
नाजुक है। अगर
तुम नहीं
जानते ही कि
क्या करना
चाहिए तो बेहतर
है कि कुछ भी
मत करो।
क्योंकि जाने
बिना तुम जो
भी करोगे उससे
समाधान की
बजाय उलझाव ही
अधिक पैदा
होगा। वह घातक
भी सिद्ध हो
सकता है, आत्मघातक
भी सिद्ध हो
सकता है।
अगर
तुम मन के
बारे में कुछ
नहीं जानते हो।
और सच तो यही
है कि तुम मन
के बारे में
कुछ भी नहीं
जानते हो।
तुम्हारे लिए
मन एक शब्द भर
है;
तुम्हें
उसकी जटिलता
का कुछ ज्ञान
नहीं है। मन
अस्तित्व में
सर्वाधिक
जटिल चीज है, उसकी कोई
तुलना नहीं हो
सकती है, और
मन सर्वाधिक
नाजुक भी है; तुम उसे
नष्ट कर दे
सकते हो। तुम
उसके साथ कुछ
ऐसा कर सकते
हो जिसे फिर
अनकिया न किया
जा सके।
ये
विधियां
मनुष्य के मन
के गहन ज्ञान
पर,
मन के सघन
साक्षात्कार
पर आधारित हैं।
और प्रत्येक
विधि लंबे
प्रयोगों से
गुजरकर बनी है।
इसलिए
ध्यान रहे, कोई
भी चीज अपनी
तरफ से मत करो।
और दो विधियों
को मिला कर
प्रयोग मत करो;
क्योंकि
उनकी
प्रक्रिया
भिन्न है; उनके
ढंग भिन्न हैं;
उनके आधार
भिन्न हैं। वे
एक ही लक्ष्य
पर ले जाती
हैं; लेकिन
साधन के रूप
में वे पूरी
तरह भिन्न हैं।
कभी—कभी तो वे
एक—दूसरे के
बिलकुल
विपरीत हो
सकती हैं। तो
दो विधियों को
मत मिलाओं।
किसी भी विधि
में कुछ मत
मिलाओ; विधि
जैसी दी हुई
है उसे वैसी
ही प्रयोग करो।
उसमें कोई
बदलाहट मत करो,
उसमें कोई
सुधार मत करो।
क्योंकि तुम
उसमें कोई
सुधार नहीं कर
सकते, और
तुम उसमें जो
भी बदलाहट
करोगे, वह
घातक होगा।
और
ध्यान रहे, किसी
भी विधि को
प्रयोग में
लाने के पहले
उसे सावधानी
से भलीभांति
समझ लो। और
अगर तुम्हें
कोई उलझन हो
और अगर तुम
नहीं जानते हो
कि विधि
वस्तुत: क्या
है तो बेहतर
है कि उसे
प्रयोग में मत
लाओ, क्योंकि
प्रत्येक
विधि तुममें
एक आमूल क्रांति
लाने के लिए
है।
ये
विधियां
विकासकारी
नहीं हैं; ये
क्रांतिकारी
हैं। विकास से
मेरा मतलब है
कि अगर तुम
कुछ न करो, बस
जीते चले जाओ,
तो कभी
करोड़ों
वर्षों में
ध्यान
तुम्हें अपने
आप ही घटित
होगा, लाखों
जन्मों में
तुम विकसित
होगे; समय
के सामान्य कम
में कभी तुम
उस बिंदु पर
पहुंचोगे जहां
कोई बुद्ध क्रांति
के द्वारा एक
क्षण में
पहुंच जाते
हैं।
तो
ये विधियां क्रांतिकारी
विधियां हैं।
सच तो यह है कि
ये मनुष्य—निर्मित
हैं,
ये
प्राकृतिक
नहीं हैं।
प्रकृति भी
तुम्हें
बुद्धत्व पर,
आत्मोपलब्धि
पर पहुंचा
देगी, तुम
किसी न किसी
दिन उसे जरूर
पा लोगे; लेकिन
तब फिर यह बात
प्रकृति के
हाथ में है।
तुम उसके लिए
सिर्फ दुख में
रहे आने के
सिवाय और कुछ
नहीं कर सकते
हो। उसके लिए
बहुत लंबा समय
चाहिए—करोड़ों
वर्ष, करोड़ों
जन्म।
धर्म
क्रांतिकारी
है। धर्म
तुम्हें विधि
देता है जो
लंबी
प्रक्रियो को
कम करती है, जिससे
तुम छलांग लगा
सकते हो—ऐसी
छलांग जो
तुम्हें
करोडों
जन्मों से बचा
सकती है। एक
क्षण में तुम
करोड़ों वर्ष
की यात्रा
पूरी कर सकते
हो।
इसीलिए
यह खतरनाक भी
है;
और जब तक
तुम ठीक—ठीक
नहीं समझते हो,
मत प्रयोग
करो। और अपनी
ओर से उसमें
कुछ मत जोड़ो; कुछ मत बदलों।
पहले विधि को
बिलकुल सही—सही
समझने की
चेष्टा करो।
और जब तुम उसे
समझ जाओ तो
प्रयोग करो।
और इस बूढ़े
डाक्टर के
सिद्धात को मत
काम में लाओ
कि जब तुम्हें
नहीं पता हो
कि क्या किया
जाए तो कुछ भी
करो। नहीं, कुछ मत करो।
न करना करने
से कहीं
ज्यादा
लाभदायक होगा।
इसलिए
क्योंकि मन
इतना नाजुक है
कि अगर तुम
कुछ गलत कर गए
तो उसे अनकिया
करना बहुत
कठिन होगा।
उसे अनकिया
करना बहुत—बहुत
कठिन है। कुछ
गलत कर बैठना
आसान है, लेकिन
उसे अनकिया
करना बहुत
कठिन है। इसे
स्मरण रखो।
अनासक्ति—संबंधी
पहली विधि :
शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओ
और यह भाव करो
कि मैं
सर्वत्र हूं।
जो सर्वत्र है
वह आनंदित है।
बहुत
सी बातें
समझने जैसी
हैं। पहली बात
: 'शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओ।’
शरीर के
प्रति हमारी
आसक्ति
प्रगाढ़ है। यह
अनिवार्य है;
यह
स्वाभाविक है।
तुम अनेक—अनेक
जन्मों से
शरीर में रहते
आए हो; आदि
काल से ही तुम
शरीर में हो।
शरीर बदलते
रहे हैं, लेकिन
तुम सदा शरीर में
रहे हो, तुम
सदा सशरीर रहे
हो।
कभी
ऐसे क्षण, ऐसे
समय भी रहे
हैं जब तुम
शरीर में नहीं
थे; लेकिन
तब तुम अचेतन
थे, मूर्च्छित
थे। जब तुम
मरते हो,
जब तुम एक
शरीर छोड़ते
हो, तो तुम
मूर्च्छा की हालत
में मरते हो
और फिर तुम
मूर्च्छित ही
रहते हो। फिर
तुम्हारा एक
नए शरीर में
जन्म होता है,
लेकिन उस
समय भी तुम मूर्च्छित
ही रहते हो।
एक मृत्यु और
दूसरे जन्म के
बीच का अंतराल
मूर्च्छा में
बीतता है।
इसलिए
तुम्हें पता
नहीं है कि
शरीर में नहीं
होना, अशरीरी
होना क्या है,
कैसा है। जब
तुम शरीर में
नहीं हो तो
तुम्हें नहीं
मालूम कि मैं
कौन हूं।
तुम्हें एक ही
बात का पता है
और वह है शरीर
में होने का; तुमने अपने
को शरीर में
ही जाना है।
यह
इतनी प्राचीन
है,
इतनी
निरंतर है, कि तुम भूल
ही गए हो कि
मैं शरीर से
भिन्न हूं। यह
एक विस्मरण है
जो स्वाभाविक
है, अनिवार्य
है। और इसी
कारण से
आसक्ति है।
तुम्हें लगता
है कि मैं
शरीर हूं; और
यही आसक्ति है।
तुम्हें लगता
है कि मैं
शरीर के सिवाय
कुछ भी नहीं
हूं शरीर से
अधिक कुछ भी
नहीं हूं।
शायद
तुम मेरे साथ
इस बात पर
सहमत न हो, क्योंकि
कई बार तुम
सोचते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं मैं आत्मा
हूं। लेकिन यह
तुम्हारा
जानना नहीं है;
यह बस तुमने
सुना है, तुमने
पढ़ा है। यह
तुमने जाने
बिना मान लिया
है।
तो
पहला काम यह
है कि तुम्हें
इस तथ्य को
स्वीकार करना
है कि वस्तुत:
मेरा जानना
यही है कि मैं
शरीर हूं। अपने
को धोखा मत दो; क्योंकि
धोखा देने से
काम नहीं
चलेगा। अगर
तुम सोचते हो
कि मैं पहले
से ही जानता
हूं कि मैं
शरीर नहीं हूं
तो तुम शरीर
के प्रति अपनी
आसक्ति को दूर
नहीं कर सकते।
क्योंकि
तुम्हारे लिए
आसक्ति है ही
नहीं; तुम
जानते ही हो।
और तब अनेक
कठिनाइयां उठ
खड़ी होंगी, जिनका
समाधान नहीं
हो सकता। किसी
कठिनाई को
आरंभ में ही
हल किया जा
सकता है। एक
बार तुम उसके
आरंभ को चूक
गए तो तुम
कठिनाई को
नहीं हल कर
सकते। हल करने
के लिए
तुम्हें फिर
आरंभ पर लौटना
होगा। तो यह
स्मरण रहे, तुम्हें
पहले यह
भलीभांति बोध
होना चाहिए कि
मैं नहीं
जानता कि मैं
शरीर के
अतिरिक्त कुछ
हूं। यह पहला
बुनियादी बोध
है।
यह
बोध अभी
तुम्हें नहीं
है। तुमने जो
कुछ सुना है
उससे
तुम्हारा मन
भरा है और
भ्रांत है।
तुम्हारा मन
दूसरों से
मिले ज्ञान से
संस्कारित है!
यह ज्ञान उधार
है। यह ज्ञान
सच्चा नहीं है।
ऐसा नहीं कि
यह गलत है; जिन्होंने
कहा है
उन्होंने ऐसा
जाना है।
लेकिन जब तक
वह तुम्हारा
अनुभव न हो
जाए तब तक तुम्हारे
लिए गलत है।
जब मैं कहता
हूं कि कोई
चीज गलत है तो
मेरा मतलब यह
है कि यह
तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं है। यह
किसी और के
लिए सच हो
सकता है, लेकिन
तुम्हारे लिए
सच नहीं है।
और इस अर्थ
में सत्य
वैयक्तिक अनुभूति
है। अनुभूत
सत्य ही सत्य
है। जो अनुभूत
नहीं है वह
सत्य नहीं है।
कोई जागतिक
सत्य नहीं
होता है।
प्रत्येक
सत्य को सत्य
होने के लिए
पहले
वैयक्तिक
होना पड़ता है।
तुम
जानते हो, तुमने
सुना है कि
मैं शरीर नहीं
हूं—यह
तुम्हारे
ज्ञान का
हिस्सा है, यह तुमने
बाप—दादों से
सुना है—लेकिन
यह तुम्हारा
अनुभव नहीं।
पहले इस तथ्य
का साक्षात
करो कि मैं
अपने को शरीर
की भांति ही
जानता हूं। यह
साक्षात्कार
तुम्हारे
भीतर बड़ी
बेचैनी पैदा
करेगा। इस
बेचैनी को
छिपाने के लिए
ही तुमने यह
ज्ञान इकट्ठा
किया था। तुम
माने रहते हो
कि मैं शरीर
नहीं हूं और
तुम शरीर नहीं
हूं और तुम
शरीर की भांति
रह आते हो।
इससे तुम विभाजित
हो जाते हो; इससे
तुम्हारा
सारा जीवन
अप्रामाणिक
हो जाता है, झूठा और
नकली हो जाता
है। वस्तुत:
यह चित्त की
रुग्ण अवस्था
है, भ्रांत
अवस्था है।
तुम जीते हो
शरीर की तरह
और तुम बातें
करते हो आत्मा
की तरह। और तब
द्वंद्व है, संघर्ष है; तब तुम सतत
एक आंतरिक
उपद्रव में, एक गहन अशांति
में जीते हो, जिसका
निराकरण संभव
नहीं है।
तो
पहले इस तथ्य
को देखो कि
मैं आत्मा के
संबंध में कुछ
नहीं जानता
हूं मैं जो
कुछ भी जानता
हूं वह शरीर
के संबंध में
जानता हूं।
इससे
तुम्हारे
भीतर एक बड़ी
बेचैनी की
स्थिति पैदा
होगी, जो भी
अंदर छिपा है
वह उभर कर सतह
पर आएगा। इस
तथ्य के
साक्षात्कार
से कि मैं
शरीर हूं तुम्हें
वस्तुत: पसीना
आने लगेगा। इस
तथ्य का
साक्षात करके
कि मैं शरीर
हूं तुम्हें
बहुत बेचैनी
होगी, तुम
बहुत अजीब
अनुभव करोगे।
लेकिन इस
अनुभव से
गुजरना ही
होगा, तो
ही तुम जान
सकते हो कि
शरीर के प्रति
आसक्ति का
क्या अर्थ है।
ऐसे
शिक्षक हैं जो
कहे चले जाते
हैं कि तुम्हें
अपने शरीर से
आसक्त नहीं
होना चाहिए।
लेकिन
तुम्हें इस
बुनियादी बात
का ही पता
नहीं है कि
शरीर के प्रति
यह आसक्ति
क्या है। शरीर
के प्रति
आसक्ति शरीर
के साथ प्रगाढ़
तादात्म्य है, लेकिन
पहले तुम्हें
समझना है कि
यह तादात्म्य
क्या है।
तो
अपने उस सारे
ज्ञान को अलग
हटा दो जिसने
तुम्हें यह भ्रांत
धारणा दी है
कि तुम आत्मा
हो। यह अच्छी
तरह जान लो कि
मैं एक ही चीज
को जानता हूं
और वह शरीर है।
कैसे यह बोध
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
उपद्रव को, तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
नरक को उभार
कर ऊपर ले आता
है, उसे
प्रत्यक्ष कर
देता है?
जब
तुम्हें बोध
होता है कि
मैं शरीर हूं
तो पहली दफा
तुम्हें
आसक्ति का बोध
होता है। पहली
दफा तुम्हारी
चेतना में इस
तथ्य का बोध होता
है कि यह शरीर—जों
पैदा होता है
और मर जाता है—यही
मैं हूं। पहली
दफा तुम्हें
इस तथ्य का
बोध होता है
कि यह खून, हड्डी—मांस—मज्जा—यही
मैं हूं। पहली
दफा तुम्हें
इस तथ्य का
बोध होता है
कि यह
कामवासना, क्रोध—यही
मैं हूं। इस
तरह सभी झूठी
प्रतिमाएं
गिर जाती हैं;
तुम अपनी
सचाई में
प्रकट हो जाते
हो।
यह
सचाई दुखद है, बहुत
दुखद है। यही
कारण है कि हम
उसे छिपाते
रहते हैं। यह
एक गहरी
चालाकी है।
तुम अपने को
आत्मा माने
रहते हो और जो
भी तुम्हें
नापसंद है उसे
तुम शरीर पर
थोप देते हो।
तुम कहते हो
कि कामवासना
शरीर का है और
प्रेम मेरा है।
तुम कहते हो
कि लोभ और
क्रोध शरीर के
हैं और करुणा
मेरी है।
करुणा आत्मा
की है और
क्रूरता शरीर
की है। क्षमा
आत्मा की है
और क्रोध शरीर
का है। जो भी
तुम्हें गलत
और कुरूप
मालूम पड़ता है,
उसे तुम
शरीर पर थोप
देते हो। और
जो भी तुम्हें
सुंदर मालूम
पड़ता है, उसके
साथ तुम अपना
तादात्म्य
बना लेते हो।
इस तरह तुम
विभाजन पैदा
करते हो।
यह
विभाजन
तुम्हें
जानने नहीं
देगा कि आसक्ति
क्या है। और
जब तक तुम यह
नहीं जानते कि
आसक्ति क्या
है और जब तक
तुम उसके नरक
से,
उसकी पीड़ा
से नहीं
गुजरते हो, तब तक तुम
उसे दूर नहीं
हटा सकते।
कैसे दूर
करोगे? तुम
किसी चीज को
तभी दूर करोगे
जब वह रोग
सिद्ध हो, जब
वह भारी बोझ
सिद्ध हो, जब
वह नरक सिद्ध
हो। तभी तुम
उसे अपने से
अलग कर सकते
हो।
तुम्हारी
आसक्ति अभी
नरक नहीं
सिद्ध हुई है।
बुद्ध कुछ भी
कहें, महावीर
कुछ भी कहें, वह अप्रासंगिक
है। वे कहे जा सकते
है कि आसक्ति
नरक है। लेकिन
यह तुम्हारा भाव
नहीं है।
इसीलिए तुम
बार—बार पूछते
हो कि आसक्ति
से कैसे छूटा
जाए, अनासक्त
कैसे हुआ जाए,
आसक्ति के
पार कैसे हुआ
जाए। तुम यह 'कैसे' इसीलिए
पूछते रहते हो
क्योंकि
तुम्हें नहीं
मालूम है कि
आसक्ति क्या
है। अगर तुम
जानते हो कि
आसक्ति क्या
है तो तुम कूद
कर बाहर निकल
जाओगे, तब
तुम 'कैसे'
नहीं
पूछोगे।
अगर
तुम्हारे घर
में आग लगी हो
तो तुम किसी
से पूछने नहीं
जाओगे, तुम
किसी गुरु के
पास यह पूछने
नहीं जाओगे कि
आग से कैसे
निकला जाए।
अगर घर जल रहा
हो तो तुम
तत्सण बाहर
निकल जाओगे।
तुम एक क्षण
भी देर नहीं
करोगे। तुम
गुरु की खोज
नहीं करोगे।
तुम
शास्त्रों से
सलाह नहीं
लोगे। तुम यह
जानने की
चेष्टा भी
नहीं करोगे कि
निकलने के
उपाय क्या हैं,
कि निकलने
के लिए किन
साधनों को काम
में लाया जाए,
कि निकलने
के लिए कौन सा
द्वार सही
द्वार है। ये
चीजें
अप्रासंगिक
हैं, जब घर
धू— धू कर जल
रहा हो।
जब
तुम जानते हो
कि आसक्ति
क्या है तो
तुम यह जानते
हो कि घर जल
रहा है। और तब
तुम उसे अपने
से दूर कर
सकते हो।
इस
विधि में
प्रवेश के
पहले तुम्हें
आत्मा संबंधी
उधार ज्ञान को
हटा देना होगा, ताकि
शरीर के प्रति
आसक्ति अपनी
समग्रता में प्रकट
हो सके। यह
बहुत कठिन
होगा, उसका
साक्षात्कार
गहरी चिंता और
संताप में ले
जाएगा। यह
आसान नहीं
होगा; कठिन
होगा, दुष्कर
होगा। लेकिन
यदि तुम्हें
एक बार उसका
साक्षात्कार हो
जाए तो तुम
उसे दूर कर सकते
हो। और 'कैसे'
पूछने की
जरूरत नहीं है।
यह बिलकुल ही
आग है, नरक
है, तुम
उससे छलांग
लगाकर बाहर
निकल सकते हो।
यह
सूत्र कहता है
: 'शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओ
और यह भाव करो
कि मैं
सर्वत्र हूं।
जो सर्वत्र है
वह आनंदित है।’
और
जिस क्षण तुम
आसक्ति को दूर
हटाओगे, तुम्हें
बोध होगा कि
मैं सर्वत्र
हूं। इस
आसक्ति के
कारण तुम्हें
महसूस होता है
कि मैं शरीर
में सीमित हूं।
शरीर तुम्हें
नहीं सीमित
करता है, तुम्हारी
आसक्ति
तुम्हें
सीमित करती है।
शरीर
तुम्हारे और
सत्य के बीच
अवरोध नहीं
निर्मित करता
है, उसके
प्रति तुम्हारी
आसक्ति अवरोध
निर्मित करती
है।
एक
बार तुम जान
गए कि आसक्ति
नहीं है तो
फिर तुम्हारा
कोई शरीर भी
नहीं है—अथवा
सारा
अस्तित्व
तुम्हारा
शरीर बन जाता
है;
तुम्हारा
शरीर समग्र
अस्तित्व का
हिस्सा बन जाता
है। तब वह
पृथक नहीं है।
सच
तो यह है कि
तुम्हारा
शरीर तुम्हारे
पास आया हुआ
निकटतम
अस्तित्व है, और
कुछ नहीं।
शरीर निकटतम
अस्तित्व है,
और वही फिर
फैलता जाता है।
तुम्हारा
शरीर
अस्तित्व का
निकटतम
हिस्सा है और
फिर सारा
अस्तित्व
फैलता जाता है।
एक बार
तुम्हारी
आसक्ति गई कि
तुम्हारे लिए
शरीर न रहा, अथवा समस्त
अस्तित्व
तुम्हारा
शरीर बन जाता
है। तब तुम
सर्वत्र हो, सब तरफ हो।
शरीर
में तुम एक
जगह हो; शरीर
के बिना तुम
सर्वत्र हो।
शरीर में तुम
एक विशेष स्थान
में सीमित हो; शरीर के बिना
तुम पर कोई सीमा
न रही। यह कारण
है कि जिन्होंने
जाना है वे
कहते हैं कि
शरीर कारागृह
है। दरअसल, शरीर
कारागृह नहीं
है, आसक्ति
कारागृह है।
जब तुम्हारी
निगाह शरीर पर
ही सीमित नहीं
है तब तुम
सर्वत्र हो।
यह
बात बेतुकी
मालूम पड़ती है।
मन को, जो शरीर
में है, यह
बात बेतुकी
मालूम पड़ती है।
यह बात पागलपन
जैसी लगती है—कोई
व्यक्ति सभी
जगह कैसे हो
सकता है। और
वैसे ही बुद्ध
पुरुष को
हमारा यह कहना
कि मैं 'यहां'
हूं पागलपन
जैसा मालूम
पड़ता है। तुम
किसी एक स्थान
में कैसे हो
सकते हो? चेतना
कोई स्थान
नहीं लेती है।
इसीलिए अगर
तुम आंखें बंद
कर लो और पता
लगाने की
चेष्टा करो कि
शरीर में मैं
कहा हूं तो
तुम हैरान रह
जाओगे; तुम
नहीं खोज
पाओगे कि मैं
कहां हूं।
अनेक
धर्म और अनेक
संप्रदाय हुए
हैं जो कहते हैं
कि तुम नाभि
में हो। दूसरे
कहते हैं कि
तुम हृदय में
हो। कुछ का
कहना है कि
तुम सिर में
हो। कुछ कहते
हैं कि तुम इस
चक्र में हो
और कुछ कहते
हैं कि उस
चक्र में हो।
लेकिन शिव
कहते हैं कि
तुम कहीं नहीं
हो। यही कारण
है कि अगर तुम आंखें
बंद कर लो और
खोजने की
कोशिश करो कि
मैं कहा हूं
तो तुम कुछ
नहीं बता सकते।
तुम तो हो, लेकिन
तुम्हारे लिए
कोई 'कहां'
नहीं है।
तुम बस हो।
प्रगाढ़
नींद में भी
तुम्हें शरीर
का बोध नहीं रहता
है। तुम तो हो।
सुबह जाग कर
तुम कहोगे कि
नींद बहुत
गहरी थी, बहुत आनंदपूर्ण
थी। तुम्हें
एक गहन आनंद
का बोध था, लेकिन
तुम्हें शरीर
का बोध नहीं
था। प्रगाढ़
निद्रा में
तुम कहां होते
हो? और जब
तुम मरते हो
तो कहा जाते
हो? लोग
निरंतर पूछते
हैं कि जब कोई
मरता है तो वह कहां
जाता है?
लेकिन
यह प्रश्न
निरर्थक है, मूढ़तापूर्ण
है। यह प्रश्न
हमारे इस भ्रम
से ही उठता है
कि हम शरीर
में हैं। अगर
हम मानते हैं
कि हम शरीर
में हैं तो
फिर प्रश्न
उठता है कि
मरने पर हम
कहा जाते हैं।
तुम
कहीं नहीं
जाते हो। जब
तुम मरते हो
तो तुम कहीं
नहीं जाते हो, इतनी
ही बात है। तब
तुम किसी एक
स्थान में
बंधे नहीं हो,
बस। लेकिन
अगर तुम्हें
बंधने की
कामना हो तो
तुम बंध जाओगे।
तुम्हारी
कामनाएं
तुम्हें नए
कारागृहों में
ले जाती हैं।
लेकिन जब तुम
शरीर में नहीं
हो तो तुम
कहीं नहीं हो,
या तुम सब
कहीं हो। यह
तुम पर निर्भर
है कि कौन सा
शब्द—कहीं
नहीं या सब
कहीं—तुम्हें
रास आता है।
अगर
तुम बुद्ध से
पूछोगे तो वे
कहेंगे कि तुम
कहीं नहीं हो।
यही कारण है
कि वे 'निर्वाण'
शब्द चुनते
हैं। निर्वाण
का अर्थ है कि
तुम कहीं नहीं
हो। ज्योति के
बुझने को भी
निर्वाण कहते
हैं। तुम कह
सकते हो कि
बुझने के बाद
ज्योति कहां है?
बुद्ध
कहेंगे कि वह
कहीं नहीं है;
ज्योति बस
नहीं हो गई है।
बुद्ध
नकारात्मक
शब्द चुनते
हैं 'कहीं
नहीं।’ निर्वाण
का वही अर्थ
है। जब तुम
शरीर से बंधे
नहीं हो तो
तुम निर्वाण में
हो, तुम
कहीं नहीं हो।
शिव
विधायक शब्द
चुनते हैं, वे
कहते हैं कि
तुम सब कहीं
हो। लेकिन
दोनों शब्द एक
ही अर्थ रखते
हैं। अगर तुम
सब कहीं हो तो
तुम कहीं एक
जगह नहीं हो सकते।
तुम सब कहीं
हो, यह
कहना करीब—करीब
वैसा ही है
जैसा यह कहना
कि तुम कहीं
नहीं हो।
लेकिन शरीर से
हम आसक्त हैं
और हमें लगता
है कि हम बंधे
हैं। यह बंधन
मानसिक है, यह तुम्हारी
अपनी करनी है।
तुम अपने को
किसी भी चीज
के साथ बांध
सकते हो।
तुम्हारे पास
एक कीमती हीरा
है, और
तुम्हारे
प्राण उसमें
अटके हो सकते
हैं। यदि वह
हीरा चोरी हो
जाए तो तुम आत्महत्या
कर सकते हो, तुम पागल हो
सकते हो। क्या
कारण है? बहुत
लोग हैं जिनके
पास हीरा नहीं
है, उनमें
से कोई भी
आत्महत्या
नहीं कर रहा
है, किसी
को हीरे के
बिना कोई पार
कठिनाई नहीं
हो रही है।
लेकिन
तुम्हें क्या
हुआ है?
कभी
तुम भी हीरे
के बिना थे और
कोई समस्या
नहीं थी। अब
तुम फिर हीरे
के बिना हो, लेकिन
अब समस्या है।
यह समस्या
कैसे निर्मित
होती है? यह
तुम्हारी
अपनी करनी है।
अब तुम आसक्त
हो, बंधे
हो। हीरा
तुम्हारा
शरीर बन गया
है, अब तुम
इसके बिना
नहीं रह सकते।
अब इसके बिना
तुम्हारा
जीना असंभव है।
जहां
भी तुम आसक्त
होते हो, नया
कारागृह बन
जाता है। और
हम जीवन में
यही करते हैं.
हम निरंतर और—और
कारागृह
बनाते रहते
हैं, बड़े
से बड़े
कारागृह
बनाते रहते
हैं। और फिर
हम उन
कारागृहों को
सजाते हैं, ताकि वे घर
मालूम पड़े। और
फिर हम भूल ही
जाते हैं कि
वे कारागृह
हैं।
यह
सूत्र कहता है
कि अगर तुम
शरीर से अपनी
आसक्ति को दूर
कर सको तो यह
बोध घटित होगा
कि मैं
सर्वत्र हूं
सब कहीं हूं।
तब तुम बूंद न
रहे,
सागर हो गए;
तब तुम्हें
सागर होने का
भाव होता है।
अब तुम्हारी
चेतना किसी
स्थान से नहीं
बंधी है; वह
स्थान—मुक्त
है। तुम
बिलकुल आकाश
के समान हो
जाते हो, जो
सबको घेरे हुए
है। अब सब कुछ
तुममें है—तुम्हारी
चेतना अनंत तक
फैल गई है।
और
फिर सूत्र
कहता है. 'जो
सर्वत्र है वह
आनंदित है।’
एक
जगह से बंधे
रहकर तुम दुख
में रहोगे, क्योंकि
तुम सदा उससे
बड़े हो जहां
तुम बंधे हो।
यही दुख है।
मानो तुम अपने
को एक छोटे—से
पात्र में
सीमित कर रहे.
हो, सागर
को एक घड़े में
बंद किया जा
रहा है। दुख
अनिवार्य है।
यही दुख है।
और जब भी इस
दुख की
अनुभूति हुई
है, बुद्धत्व
की खोज, ब्रह्म
की खोज शुरू
हो जाती है।
ब्रह्म
का अर्थ है
अनंत, असीम
फैलाव। और
मोक्ष की खोज
स्वतंत्रता
की खोज है।
सीमित शरीर
में तुम
स्वतंत्र
नहीं हो सकते
हो। एक स्थान
में तुम बंध
जाते हो। कहीं
नहीं या सब
कहीं में ही
तुम स्वतंत्र
हो सकते हो।
मनुष्य
के मन को देखो।
वह सदा
स्वतंत्रता
खोज रहा है—उसकी
दिशा चाहे जो
भी हो। दिशा
राजनीतिक हो
सकती है, सामाजिक
हो सकती है, मानसिक हो
सकती है, धार्मिक
हो सकती है।
दिशा जो भी हो,
मनुष्य का
मन
स्वतंत्रता
की खोज कर रहा
है।
स्वतंत्रता
मनुष्य की
गहनतम
आवश्यकता
मालूम पड़ती है।
जहां भी
मनुष्य के मन
को अवरोध
मिलता है, जहां
भी उसे गुलामी
का, बंधन
का अहसास होता
है, वह
उसके विरुद्ध
लड़ता है।
मनुष्य
का सारा
इतिहास
स्वतंत्रता
के युद्ध का
इतिहास है।
आयाम भिन्न हो
सकते हैं।
मार्क्स और
लेनिन आर्थिक
स्वतंत्रता
के लिए लड़ते
हैं। गांधी और
अब्राहम
लिंकन
राजनीतिक
स्वतंत्रता
के लिए लड़ते
हैं। और
हजारों तरह की
गुलामियां
हैं,
और संघर्ष
जारी है।
लेकिन एक बात
निश्चित है कि
कहीं गहरे में
मनुष्य निरंतर
और— और स्वतंत्रता
की खोज कर रहा
है।
शिव
कहते हैं—और
यही बात सभी
धर्म कहते है—कि
तुम राजनीतिक
तल पर स्वतंत्र
हो सकते हो, लेकिन
संघर्ष
समाप्त नहीं
होगा। एक तरह
की गुलामी हट
जाएगी, लेकिन
और तरह की गुलामियां
है। जब तुम राजनीतिक
रूप से स्वतंत्र
होगे तो तुम्हें
अन्य गुलामियों
का बोध होगा।
आर्थिक
गुलामी
समाप्त हो
सकती है, लेकिन
तब तुम अन्य
गुलामियों के
प्रति सजग हो जाओगे,
यौन और शरीर
के तल पर जो
गुलामियां
हैं उनके
प्रति सजग हो
जाओगे। यह
संघर्ष तब तक
नहीं खत्म
होगा जब तक
तुम यह नहीं
अनुभव करते, यह नहीं
जानते, कि
मैं सर्वत्र
हूं। जिस क्षण
तुम्हें
प्रतीत होता
है कि मैं
सर्वत्र हूं
कि मैं सब जगह
हूं तो
स्वतंत्रता
प्राप्त हुई।
यह
स्वतंत्रता
राजनीतिक
नहीं है, यह
स्वतंत्रता
आर्थिक नहीं
है, यह
स्वतंत्रता
सामाजिक भी
नहीं है। यह
स्वतंत्रता
अस्तित्वगत
है। यह
स्वतंत्रता
समग्र है।
इसीलिए हमने
उसे मोक्ष कहा
है—समग्र
स्वतंत्रता।
और तुम तभी
आनंदित हो
सकते हो। हर्ष
या आनंद तभी
संभव है जब
तुम पूरी तरह
स्वतंत्र हो।
सच तो यह है कि
पूरी तरह
स्वतंत्र
होना ही आनंद
है। आनंद
परिणाम नहीं
है; स्वतंत्रता
की घटना ही
आनंद है। जब
तुम पूरी तरह
स्वतंत्र हो
तो तुम आनंदित
हो।
यह
आनंद परिणाम
की तरह नहीं
घटित हो रहा
है।
स्वतंत्रता
ही आनंद है, गुलामी
दुख है, संताप
है। जिस क्षण
तुम किसी सीमा
में बंधा
अनुभव करते हो
उसी क्षण तुम
दुख में पड़
जाते हो। जहां—जहां
भी तुम सीमित
अनुभव करते हो
वहा—वहां तुम
दुख अनुभव
करते हो। और
जब तुम असीम—अनंत
अनुभव करते हो,
दुख विलीन
हो जाता है।
तो
बंधन दुख है
और मुक्त जीवन
आनंद है। जब
भी तुम्हें इस
स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है,
तुम्हें
आनंद घटित
होता है। अभी
भी जब तुम्हें
किसी तरह की
स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है, चाहे
वह समग्र न भी
हो, तो तुम
प्रसन्न हो जाते
हो। जब तुम
किसी के प्रेम
में पड़ते हो, तुम पर एक
खुशी, एक
आनंद बरस जाता
है। यह क्यों
होता है?
असल
में जब भी तुम
किसी के प्रेम
में पड़ते हो तो
तुम शरीर के
प्रति अपनी
आसक्ति को दूर
हटा देते हो।
किसी गहरे
अर्थ में अब
दूसरे का शरीर
भी तुम्हारा
अपना शरीर हो गया
है। तुम अब
अपने शरीर में
ही सीमित नहीं
हो,
दूसरे का
शरीर भी
तुम्हारा
शरीर बन गया
है, तुम्हारा
घर बन गया है, आवास बन गया
है। तुम्हें
थोड़ी
स्वतंत्रता
महसूस होती है,
अब तुम
दूसरे में गति
कर सकते हो और
दूसरा तुममें
गति कर सकता
है। एक अर्थ
में एक अवरोध
गिर गया, अब
तुम पहले से
ज्यादा हो।
जब
तुम किसी को
प्रेम करते हो
तो तुम पहले
से बहुत
ज्यादा हो
जाते हो।
तुम्हारा
होना थोड़ा
फैला, थोड़ा
विराट हुआ।
तुम्हारी
चेतना अब पहले
की तरह
क्षुद्र न रही,
उसने नया
विस्तार पा
लिया। प्रेम
में तुम्हें
थोड़ी
स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है। हालाकि यह
समग्र नहीं है,
और देर—
अबेर तुम फिर
बंधन अनुभव
करोगे।
तुम्हें
विस्तार तो
मिला, लेकिन
यह विस्तार
अभी भी सीमित
है।
इसीलिए
जो लोग
वस्तुत: प्रेम
करते हैं वे
देर—अबेर
प्रार्थना
में उतर जाते
हैं।
प्रार्थना का
अर्थ है वृहत
प्रेम।
प्रार्थना का
अर्थ है पूरे
अस्तित्व के
साथ प्रेम। अब
तुम्हें
रहस्य का पता
चल गया।
तुम्हें
कुंजी का, गुप्त
कुंजी का पता
चल गया कि
मैंने एक
व्यक्ति को
प्रेम किया और
जिस क्षण
मैंने प्रेम
किया, सारे
अवरोध गिर गए,
सारे
दरवाजे खुल गए
और कम से कम एक व्यक्ति
के लिए मेरा
होना विस्तृत
हुआ, मेरे
प्राणों का
विस्तार हुआ।
अब तुम्हें
गुप्त कुंजी मालूम
है कि अगर मैं
पूरे
अस्तित्व को
प्रेम करने लगूं
तो मैं शरीर
नहीं रहूंगा।
प्रगाढ़
प्रेम में तुम
शरीर नहीं रह
जाते हो। जब
तुम किसी के
प्रेम में
होते हो तो
तुम अपने को
शरीर नहीं
समझते हो। और
जब तुम्हें
प्रेम नहीं
मिलता है, जब
तुम प्रेम में
नहीं होते हो,
तब तुम अपने
को शरीर
ज्यादा अनुभव
करते हो, तब
तुम्हें अपने
शरीर का खयाल
ज्यादा रहता
है। तब
तुम्हारा
शरीर बोझ बन
जाता है, जिसे
तुम किसी तरह
ढोते हो। जब
तुम्हें
प्रेम मिलता
है, शरीर
निर्भार हो
जाता है। जब
तुम्हें
प्रेम मिलता
है और तुम
प्रेम में होते
हो तो तुम्हें
ऐसा नहीं लगता
कि गुरुत्वाकर्षण
का कोई प्रभाव
है। तुम नाच
सकते हो, तुम
वस्तुत: उड़
सकते हो। एक
अर्थ में शरीर
नहीं रहा—लेकिन
सीमित अर्थ
में ही। वही
बात एक गहरे अर्थ
में तब घटती
है जब तुम
समग्र
अस्तित्व के साथ
प्रेम में
होते हो।
प्रेम
में तुम्हें
आनंद मिलता है।
आनंद सुख नहीं
है। स्मरण रहे, आनंद
सुख नहीं है।
सुख
इंद्रियों के
द्वारा मिलता
है; आनंद इंद्रियगत
नहीं है, वह
अतींद्रिय
अवस्था में
प्राप्त होता
है। सुख
तुम्हें शरीर
से मिलता है, आनंद तब
मिलता है जब
तुम शरीर नहीं
होते हो। जब
क्षण भर के
लिए शरीर
विलीन हो गया
है और तुम मात्र
चेतना हो तो
तुम्हें आनंद
प्राप्त होता
है। और जब तुम
शरीर हो तो
तुम्हें केवल
सुख मिल सकता
है; वह सदा
शरीर से मिलता
है। शरीर से
दुख संभव है, सुख संभव है,
लेकिन आनंद
तभी संभव है
जब तुम शरीर
नहीं हो।
आनंद
कभी—कभी अचानक
और आकस्मिक
रूप से भी
घटित होता है।
तुम संगीत सुन
रहे हो और
अचानक सब कुछ
खो जाता है।
तुम संगीत में
इतने तल्लीन
हो कि तुम्हें
अपने शरीर की
सुध भूल गई।
तुम संगीत में
डूब गए हो, तुम
संगीत के साथ
एक हो गए हो।
तुम इतने एक
हो गए हो कि
कोई सुनने
वाला नहीं बचा
है; सुनने
वाला और सुना
जाने वाला
संगीत एक हो
गए हैं। सिर्फ
संगीत बचा है,
तुम नहीं
बचे। तुम
विस्तृत हो गए,
फैल गए। अब
तुम संगीत के
स्वरों के साथ
बह रहे हो। अब
तुम्हारी कोई
सीमा न रही।
संगीत के स्वर
मौन में विलीन
हो रहे हैं और
तुम भी उनके
साथ मौन में
विलीन हो रहे
हो। शरीर की
सुधि जाती रही।
और जब भी शरीर
की सुधि नहीं
रहती है, शरीर
अनजाने ही, अचेतन रूप
से दूर हट
जाता है और
तुम्हें आनंद घटित
होता है।
तंत्र
और योग के
द्वारा तुम
यही चीज
विधिपूर्वक
कर सकते हो।
तब वह आकस्मिक
नहीं है, तब
तुम उसके
मालिक हो। तब
यह चीज
तुम्हें
अनजाने नहीं
घटती है, तब
तुम्हारे हाथ
में कुंजी है
और तुम जब
चाहो द्वार
खोल सकते हो—या
तुम चाहो तो
द्वार हमेशा
के लिए खोल
सकते हो और
कुंजी को फेंक
सकते हो।
द्वार को फिर
बंद करने की
जरूरत न रही।
सामान्य
जीवन में भी
आनंद घटता है, लेकिन
वह कैसे घटता
है, यह
तुम्हें नहीं
मालूम। स्मरण
रहे, यह
सदा तभी घटता
है जब तुम
शरीर नहीं
होते हो। तो
जब भी तुम्हें
पुन: किसी
आनंद के क्षण
का अनुभव हो
तो सजग होकर
देखना कि उस
क्षण में तुम
शरीर हो या
नहीं। तुम
शरीर नहीं
होगे। जब भी
आनंद है, शरीर
नहीं है। ऐसा
नहीं कि शरीर
नहीं रहता है;
शरीर तो
रहता है, लेकिन
तुम शरीर से
आसक्त नहीं हो,
तुम शरीर से
बंधे नहीं हो।
तुम उससे बाहर
निकल गए हो।
हो सकता है, संगीत के
कारण तुम बाहर
निकल गए, या
खूबसूरत
सूर्योदय को
देखकर बाहर
निकल गए, या
एक बच्चे को
हंसते देखकर
बाहर निकल गए
या किसी के
प्रेम में
होने के कारण
शरीर से बाहर आ
गए—कारण जो भी
हो, मगर
तुम क्षण भर
के लिए बाहर आ
गए। शरीर तो
है, लेकिन
दूर हो गया, तुम उससे
आसक्त नहीं हो।
तुमने एक उड़ान
ली।
इस
विधि के
द्वारा तुम
जानते हो कि
जो सर्वत्र है
वह दुखी नहीं
हो सकता; वह
आनंदित है, वह आनंद है।
तो स्मरण रहे,
तुम जितने
सीमित होंगे
उतने ही दुखी
होगे। फैलो, अपनी सीमाओं
को दूर हटाओ, और जब भी
संभव हो, शरीर
को अलग हटा दो।
तुम आकाश को
देखो, वहां
बादल तैर रहे
हैं, उन
बादलों के साथ
तैसे, शरीर
को जमीन पर ही
रहने दो। और
आकाश में चांद
है; चांद
के साथ यात्रा
करो। जब भी
तुम शरीर को
भूल सको, उस
अवसर को मत
चूको, यात्रा
पर निकल पड़ी।
और तुम धीरे—
धीरे परिचित
हो जाओगे कि
शरीर से बाहर
होने का क्या
मतलब है।
और
यह सिर्फ
अवधान की बात
है। आसक्ति
अवधान देने की
बात है। अगर
तुम शरीर को
अवधान देते हो
तो तुम उससे
आसक्त हो। अगर
अवधान हटा
लिया जाए तो
तुम आसक्त
नहीं रहे।
उदाहरण
के लिए, तुम
खेल के मैदान
में खेल रहे
हो। तुम हाकी
या वाली—बाल
खेल रहे हो, या कोई और
खेल खेल रहे
हो। तुम खेल
में इतने
तल्लीन हो कि
तुम्हारा
अवधान शरीर पर
नहीं है।
तुम्हारे पैर
पर चोट लग गई
है और खून बह
रहा है; लेकिन
तुम्हें उसका
पता नहीं है।
दर्द भी है, लेकिन तुम
वहा नहीं हो।
खून बह रहा है,
लेकिन तुम
शरीर के बाहर
हो। तुम्हारी
चेतना, तुम्हारा
अवधान गेंद के
साथ दौड़ रहा
है, गेंद
के साथ भाग
रहा है।
तुम्हारा
अवधान कहीं और
है। लेकिन
जैसे ही खेल
समाप्त होता
है, तुम
अचानक शरीर
में लौट आते
हो और देखते
हो कि खून बह
रहा है, पीड़ा
हो रही है। और
तुम्हें
आश्चर्य होता
है कि यह कैसे
हुआ, कब
हुआ और कैसे
तुम्हें उसका
बोध नहीं हुआ!
शरीर
में होने के
लिए तुम्हारे
अवधान की जरूरत
है। यह स्मरण
रहे,
जहा भी
तुम्हारा
अवधान है तुम
वहीं हो। अगर
तुम्हारा
अवधान फूल में
है तो तुम फूल
में हो। और
अगर तुम्हारा
अवधान धन में
है तो तुम धन
में हो।
तुम्हारा
अवधान ही
तुम्हारा
होना है। और
अगर तुम्हारा
अवधान कहीं
नहीं है तो
तुम सब कहीं
हो।
ध्यान
की पूरी
प्रक्रिया
चेतना की उस
अवस्था में
होना है जहां
तुम्हारा
अवधान कहीं
नहीं हो, जहां
तुम्हारे
अवधान का कोई
विषय न हो, कोई
लक्ष्य न हो।
जब कोई विषय
नहीं है तो
कोई शरीर नहीं
है। तुम्हारा
अवधान ही शरीर
का निर्माण करता
है। तुम्हारा
अवधान ही
तुम्हारा
शरीर है। और
जब अवधान कहीं
नहीं है तो
तुम सब कहीं
हो। और तब
तुम्हें आनंद
घटित होता है।
यह कहना भी
ठीक नहीं है
कि तुम्हें
आनंद घटित होता
है—तुम ही
आनंद हो। अब
यह तुमसे अलग
नहीं हो सकता;
यह
तुम्हारा
प्राण ही बन
गया है।
स्वतंत्रता
आनंद है।
इसीलिए
स्वतंत्रता
की इतनी
अभीप्सा है, इतनी
खोज है।
अनासक्ति—संबंधी
दूसरी विधि:
ना— कुछ का
विचार करने से
सीमित आत्मा
असीम हो जाती
है।
मैं
यही कह रहा था।
अगर तुम्हारे
अवधान का कोई
विषय नहीं है, कोई
लक्ष्य नहीं है,
तो तुम कहीं
नहीं हो, या
तुम सब कहीं
हो। और तब तुम
स्वतंत्र हो।
तुम स्वतंत्रता
ही हो गए हो।
यह दूसरा
सूत्र कहता है
:
'ना—कुछ का
विचार करने से
सीमित आत्मा
असीम हो जाती
है।'
अगर
तुम सोच—विचार
नहीं कर रहे
हो तो तुम
असीम हो।
विचार
तुम्हें सीमा
देता है। और
सीमाएं अनेक
तरह की हैं।
तुम हिंदू हो, यह
एक सीमा है।
हिंदू होना
किसी विचार से,
किसी
व्यवस्था से,
किसी ढंग—ढांचे
से बंधा होना
है। तुम ईसाई
हो, यह भी
एक सीमा है।
धार्मिक आदमी
कभी भी हिंदू
या ईसाई नहीं
हो सकता है।
और अगर कोई
आदमी हिंदू या
ईसाई है तो वह
धार्मिक नहीं
है। असंभव है।
क्योंकि ये सब
विचार हैं।
धार्मिक आदमी
का अर्थ है कि
वह विचार से
नहीं बंधा है।
वह किसी विचार
से सीमित नहीं
है; वह
किसी
व्यवस्था से,
किसी ढंग—ढांचे
से नहीं बंधा
है, वह मन
की सीमा में
नहीं जीता है—वह
असीम में जीता
है।
जब
तुम्हारा कोई
विचार है तो
वह विचार
तुम्हारा
अवरोध बन जाता
है। वह विचार
सुंदर हो सकता
है,
लेकिन फिर
भी वह बंधन है।
सुंदर
कारागृह भी
कारागृह ही है।
विचार
स्वर्णिम हो
सकता है, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता; स्वर्णिम
विचार भी
तुम्हें उतना
ही बांधता है
जितना कोई और
विचार। और जब
तुम्हारा कोई
विचार है और
तुम उससे
आसक्त हो तो
तुम सदा किसी
के विरोध में
हो। क्योंकि
सीमा हो ही
नहीं सकती, यदि तुम
किसी के विरोध
में नहीं हो।
विचार सदा
पूर्वाग्रह—ग्रस्त
होता है, विचार
सदा पक्ष या
विपक्ष में
होता है।
मैंने
एक बहुत
धार्मिक ईसाई
के संबंध में
सुना है, जो कि
एक गरीब किसान
था। वह मित्र—समाज
का सदस्य था, वह क्वेकर
था। क्वेकर
लोग अहिंसक
होते हैं, वे
प्रेम और
मैत्री में
विश्वास करते
हैं। वह
क्वेकर अपनी
खच्चर गाडी पर
बैठकर शहर से
गांव वापस आ
रहा था। एक
जगह खच्चर
अचानक बिना
किसी कारण के
रुक गया और
आगे बढ़ने से
इनकार करने
लगा। उसने
खच्चर को ईसाई
ढंग से, मैत्रीपूर्ण
ढंग से, अहिंसक
ढंग से
फुसलाने की
कोशिश की। वह
क्वेकर था, वह खच्चर को
मार नहीं सकता
था, उसे
कठोर वचन नहीं
कह सकता था; उसे डांट—फटकार
या गाली भी
नहीं दे सकता
था। लेकिन वह
गुस्से से भरा
था।
लेकिन
खच्चर को मारा
कैसे जाए? वह
उसे मारना
चाहता था। तो
उसने खच्चर से
कहा : 'ठीक
से आचरण करो।
मैं क्वेकर
हूं र इसलिए
मैं तुम्हें
मार नहीं सकता,
डांट नहीं
सकता, मैं
हिंसा नहीं कर
सकता; लेकिन
स्मरण रहे, ऐं खच्चर, कि मैं
तुम्हें किसी
ऐसे आदमी के
हाथ बेच तो सकता
हूं जो ईसाई न
हो।’
ईसाई
की अपनी
दुनिया है और
गैर—ईसाई उसके
बाहर हैं। कोई
ईसाई यह सोच
भी नहीं सकता
कि कोई गैर—ईसाई
ईश्वर के
राज्य में
प्रवेश पा
सकता है। वैसे
ही कोई हिंदू
या जैन यह
नहीं सोच सकता
कि उनके अलावा
कोई दूसरा
आनंद के जगत
में प्रवेश पा
सकता है—असंभव
है।
विचार
सीमा बनाता है, अवरोध
खड़े करता है; और जो लोग
पक्ष में नहीं
हैं उन्हें
विरोधी मान लिया
जाता है। जो
मेरे साथ सहमत
नहीं हैं वे
मेरे विरोध
में हैं। फिर तुम
सब कहीं कैसे
हो सकते हो? तुम ईसाई के
साथ हो सकते
हो; तुम
गैर—ईसाई के
साथ नहीं हो
सकते। तुम
हिंदू के साथ
हो सकते हो, लेकिन तुम
गैर—हिंदू के
साथ, मुसलमान
के साथ नहीं
हो सकते हो। विचार
को किसी ने किसी
के विरोध में होना
पड़ता है—चाहे
वह किसी व्यक्ति
के विरोध में
हो या किसी
वस्तु के। वह
समग्र नहीं हो
सकता है।
स्मरण रहे, विचार कभी
समग्र नहीं हो
सकता, केवल
निर्विचार ही
समग्र हो सकता
है।
दूसरी
बात कि विचार
मन से आता है, वह
सदा मन की उप—उत्पत्ति
है। विचार
तुम्हारा
रुझान है, तुम्हारा
अनुमान है, पूर्वाग्रह
है। विचार
तुम्हारी
प्रतिक्रिया
है, तुम्हारा
सिद्धात है, तुम्हारी
धारणा है, तुम्हारी
मान्यता है, लेकिन विचार
अस्तित्व
नहीं है। वह
अस्तित्व के
संबंध में है,
वह स्वयं
अस्तित्व
नहीं है।
एक
फूल है। तुम
उस फूल के
संबंध में कुछ
कह सकते हो; वह
कहना एक
प्रतिक्रिया
है। तुम कह
सकते हो कि
फूल सुंदर है,
कि असुंदर
है, तुम कह
सकते हो कि
फूल पवित्र है,
लेकिन तुम
फूल के संबंध
में जो भी
कहते हो वह
फूल नहीं है।
फूल का होना
तुम्हारे
विचारों के
बिना है। और
तुम फूल के
संबंध में जो
भी सोच—विचार
करते हो उससे
तुम अपने और
फूल के बीच अवरोध
निर्मित कर
रहे हो। फूल
को होने के
लिए तुम्हारे
विचारों की
जरूरत नहीं है।
फूल बस है।
अपने विचारों
को छोड़ो और तब
तुम फूल में
डूब सकोगे।
तुम
गुलाब के
संबंध में जो
भी कहते हो वह
व्यर्थ है; वह
कितना भी
अर्थपूर्ण
मालूम पड़े, लेकिन वह
अर्थहीन ही है।
जो तुम कहते
हो उसकी कोई
जरूरत नहीं है,
फूल का होना
तुम्हारे
कहने न कहने
पर निर्भर नहीं
है। बल्कि
तुम्हारा कुछ
कहना
तुम्हारे और
फूल के बीच एक
पतला परदा
निर्मित करता
है। वह एक
सीमा बना देता
है। इसलिए जब
भी कोई विचार
आता है, वह
तुम्हें
सीमित कर देता
है, तुम्हारे
लिए अस्तित्व
का द्वार बंद
हो जाता है।
यह
सूत्र कहता
है. 'ना—कुछ का
विचार करने से
सीमित आत्मा
असीम हो जाती
है।’ अगर
तुम सोच—विचार
में उलझे नहीं
हो, अगर
तुम सिर्फ हो,
पूरे सजग और
सावचेत हो, विचार के
किसी धुएं के
बिना हो, तो
तुम असीम हो।
यह
शरीर ही
एकमात्र शरीर
नहीं है, एक
गहनतर शरीर भी
है, वह मन
है। शरीर
पदार्थ से बना
है। मन भी
पदार्थ से बना
है, वह और
सूक्ष्म
पदार्थ से बना
है। शरीर बाहरी
पर्त है और मन आंतरिक
पर्त है। और
शरीर से
अनासक्त होना
बहुत कठिन
नहीं है, मन
से अनासक्त
होना बहुत
कठिन है; क्योंकि
मन के साथ
तुम्हारा
तादात्म्य
ज्यादा गहरा
है, तुम मन
से ज्यादा
जुड़े हो।
अगर
कोई तुमसे कहे
कि तुम्हारा
शरीर रुग्ण मालूम
पड़ता है तो
तुम्हें पीड़ा
नहीं होती है।
तुम शरीर से
उतने आसक्त
नहीं हो; वह
तुमसे जरा
दूरी पर मालूम
पड़ता है।
लेकिन अगर कोई
तुमसे कहे कि
तुम्हारा मन
रुग्ण, अस्वस्थ
मालूम पड़ता
है तो तुम्हें
पीड़ा होती है।
उसने
तुम्हारा
अपमान कर दिया।
मन से तुम
अपने को
ज्यादा निकट
अनुभव करते हो।
अगर कोई आदमी
तुम्हारे
शरीर के संबंध
में कुछ बुरा
कहे तो तुम
उसे बरदाश्त
कर सकते हो, लेकिन अगर
वही तुम्हारे
मन के संबंध
में कुछ बुरा
कहे तो
बरदाश्त करना
असंभव होगा।
क्योंकि उसने
गहरे में चोट
कर दी।
मन
शरीर की भीतरी
पर्त है। मन
और शरीर दो
नहीं हैं।
तुम्हारे
शरीर की बाहरी
पर्त शरीर है
और भीतरी पर्त
मन है। ऐसा
समझो कि
तुम्हारा एक
घर है, तुम उस
घर को बाहर से देख
सकते हो और
तुम उस घर को
भीतर से देख
सकते हो। बाहर
से दीवारों की
बाहरी पर्त
दिखाई पड़ेगी;
भीतर से
भीतरी पर्त
दिखाई पड़ेगी।
मन तुम्हारी आंतरिक
पर्त है; वह
तुम्हारे
ज्यादा निकट
है। लेकिन फिर
भी वह शरीर ही
है।
मृत्यु
में तुम्हारा
बाहरी शरीर
गिर जाता है; लेकिन
उसकी भीतरी
सूक्ष्म पर्त
को तुम अपने साथ
ले जाते हो।
तुम उससे इतने
आसक्त हो कि
मृत्यु भी
तुम्हें
तुम्हारे मन
से पृथक नहीं
कर पाती। मन
जारी रहता है।
यही कारण है
कि तुम्हारे
पिछले जन्मों
को जाना जा
सकता है। तुम
अभी भी अपने
सभी अतीत के
मनों को अपने
साथ लिए हुए
हो। वे सब के
सब तुममें
मौजूद हैं।
अगर तुम कभी
कुत्ते थे तो
कुत्ते का मन
अब भी तुम्हारे
भीतर है। अगर
तुम कभी वृक्ष
थे तो वृक्ष
का मन अब भी
तुम्हारे साथ
है। अगर तुम
कभी स्त्री या
पुरुष थे तो
वे चित्त अब
भी तुम्हारे
भीतर मौजूद
हैं। सारे के
सारे चित्त
तुम्हारे पास
हैं। तुम उनसे
इतने बंधे हो
कि तुम उनकी
पकड़ को नहीं
छोड़ सकते।
मृत्यु
में बाह्य
विलीन हो जाता
है,
लेकिन आंतरिक
कायम रहता है।
यह आंतरिक
शरीर बहुत ही
सूक्ष्म
पदार्थ है।
वस्तुत: वह
ऊर्जा का
स्पंदन मात्र
है—विचार की
तरंगें। तुम
उन्हें अपने
साथ लिए चलते
रहते हो। और
तुम उन्हीं
विचार—तरंगों
के अनुरूप फिर
नए शरीर में
प्रवेश करते
हो। तुम अपने
विचारों के
ढांचे के
अनुकूल, अपनी
कामनाओं के
अनुकूल, अपने
मन के अनुकूल
अपने लिए नया
शरीर निर्मित
कर लेते हो।
मन में उसका ब्लू—प्रिंट,
उसकी
रूपरेखा
मौजूद है, और
उसके अनुरूप
बाहरी पर्त
फिर बनती है।
तो
पहला सूत्र
शरीर को अलग
करने के लिए
है। दूसरा
सूत्र मन को, आंतरिक
शरीर को अलग
करने के लिए
है। मृत्यु भी
तुम्हें
तुम्हारे मन
से अलग नहीं
कर पाती; यह
काम केवल
ध्यान कर सकता
है। यही कारण
है कि ध्यान
मृत्यु से भी
बड़ी मृत्यु है,
वह मृत्यु
से भी गहरी
शल्य—चिकित्सा
है। इसीलिए
ध्यान से इतना
भय होता है।
लोग ध्यान के
बारे में सतत
बात करेंगे, लेकिन वे
ध्यान कभी
करेंगे नहीं। वे
बात करेंगे, वे उसके
संबंध में
लिखेंगे, वे
उस पर उपदेश
भी देंगे; लेकिन
वे कभी ध्यान
करेंगे नहीं।
ध्यान से एक
गहरा भय है, और वह भय
मृत्यु का भय
है।
जो
लोग ध्यान
करते हैं वे
किसी न किसी
दिन उस बिंदु
पर पहुंच जाते
हैं जहा वे
घबड़ा जाते हैं, जहां
से वे पीछे लौट
जाते हैं। वे
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं 'अब हम
आगे प्रवेश
नहीं कर सकते;
यह असंभव है।’
एक क्षण आता
है जब व्यक्ति
को लगता है कि
मैं मर रहा
हूं। और वह
क्षण किसी भी
मृत्यु से बड़ी
मृत्यु का क्षण
है। क्योंकि
जो सबसे
अंतरस्थ है
वही अलग हो
रहा है, वही
मिट रहा है।
व्यक्ति को
लगता है कि
मैं मर रहा
हूं। उसे लगता
है कि मैं अब
अनस्तित्व
में सरक रहा हूं।
एक गहन अतल का
द्वार खुल
जाता है; एक
अनंत शून्य
सामने खड़ा हो
जाता है। वह
घबरा जाता है
और पीछे लौटकर
शरीर को पकड़
लेता है, ताकि
मिट न जाए; क्योंकि
पांव के नीचे
से जमीन खिसक
रही है और
सामने एक अतल
खाई खुल रही
है—शून्य की
खाई।
इसलिए
लोग यदि
चेष्टा भी
करते हैं तो
सदा ऊपर—ऊपर
करते हैं। वे
पूरी त्वरा से
ध्यान नहीं
करते हैं।
कहीं अचेतन
में उन्हें
बोध है कि अगर
हम गहरे उतरेंगे
तो नहीं
बचेंगे। और यह
सही है। यह भय
सच है। तुम
फिर तुम नहीं
रहोगे। एक बार
तुमने उस अतल
को, उस शून्य को
जान लिया तो
तुम फिर वही
नहीं रहोगे जो
थे। तुम उससे
एक नया जीवन
लेकर लौटोगे,
तुम नए
मनुष्य जा।
पुराना
मनुष्य तो मिट
गया,
वह कहां गया,
तुम्हें
इसका नामो—निशान
भी नहीं
मिलेगा।
पुराना
मनुष्य मन के
साथ
तादात्म्य
में था, अब
तुम मन के साथ
तादात्म्य
नहीं कर सकते।
अब तुम मन का
उपयोग कर सकते
हो, अब तुम
शरीर का उपयोग
कर सकते हो, लेकिन अब मन
और शरीर यंत्र
हैं और तुम
उनसे ऊपर हो।
तुम उनका जैसा
चाहो वैसा
उपयोग कर सकते
हो, लेकिन
तुम उनसे
तादात्म्य
नहीं करते हो।
यह
स्वतंत्रता
देता है।
लेकिन
यह तभी हो
सकता है जब
तुम ना—कुछ का
विचार करो।’ना—कुछ
का विचार'—यह
बहुत
विरोधाभासी
है। तुम किसी
चीज के बारे
में विचार कर
सकते हो, लेकिन
ना—कुछ के
बारे में कैसे
विचार कर सकते
हो? इस 'ना—कुछ'
का क्या
अर्थ है? और
तुम उसके
संबंध में
विचार कैसे कर
सकते हो? जब
भी तुम किसी
के संबंध में
विचार करते हो,
वह विषय बन
जाता है, वह
विचार बन जाता
है। और विचार
पदार्थ हैं।
तुम ना—कुछ का
विचार कैसे कर
सकते हो? तुम
शून्य के
संबंध में
कैसे सोच सकते
हो? तुम
नहीं सोच सकते,
यह संभव
नहीं है।
लेकिन इस
प्रयत्न में
ही, ना—कुछ
के विषय में, शून्य के
संबंध में
सोचने के
प्रयत्न में
ही सोच—विचार
खो जाएगा, विलीन
हो जाएगा।
तुमने
झेन कोआन के
संबंध में
सुना होगा।
झेन गुरु साधक
को एक कोआन
देते हैं और
कहते हैं कि
इस पर विचार
करो। यह कोआन
जान—बूझकर
विचार को बंद
करने के लिए
दी जाती है।
उदाहरण के लिए, वे
साधक से कहते
हैं : 'जाओ
और पता लगाओ
कि तुम्हारा
मौलिक चेहरा
क्या है, वह
चेहरा जो
तुम्हारे
जन्म के भी
पहले था। अभी
जो तुम्हारा
चेहरा है उस
पर मत विचार
करो, उस
चेहरे पर
विचार करो जो
जन्म के पहले
था।’
तुम
इस संबंध में
क्या सोच—विचार
कर सकते हो? जन्म
के पहले
तुम्हारा कोई
चेहरा नहीं था;
चेहरा तो
जन्म के साथ
आता है। चेहरा
तो शरीर का
हिस्सा है।
तुम्हारा कोई
चेहरा नहीं है,
चेहरा शरीर
का है। आंखें
बंद करो और
कोई चेहरा
नहीं है। तुम
अपने चेहरे के
बारे में
दर्पण के
द्वारा जानते
हो। तुमने खुद
उसे कभी नहीं
देखा है, तुम
उसे देख भी
नहीं सकते। तो
कैसे कोई
मौलिक चेहरे
के संबंध में
सोच—विचार कर
सकता है?
लेकिन
साधक चेष्टा
करता है, और यह
चेष्टा करना
ही मदद करता
है। साधक
चेष्टा पर
चेष्टा करेगा—और
यह असंभव
चेष्टा है। वह
बार—बार गुरु
के पास आएगा
और कहेगा : 'क्या
मौलिक चेहरा
यह है?' लेकिन
उसके पूछने के
पहले ही गुरु
कहता है. 'नहीं,
यह गलत है।’
तुम जो कुछ
भी लाओगे वह
गलत होने ही
वाला है।
साधक
महीनों तक बार—बार
आता रहता है।
कुछ खोजता है, कुछ
कल्पना करता
है, कोई
चेहरा देखता
है और गुरु से
कहता है : 'यह
रहा मौलिक
चेहरा!' और
गुरु फिर कहता
है : 'नहीं!' हर बार उसे
यह नहीं सुनने
को मिलता है।
और धीरे— धीरे
वह बहुत
ज्यादा
भ्रमित हो
जाता है, उलझनग्रस्त
हो जाता है।
वह कुछ सोच
नहीं पाता है।
वह हर' तरह
से प्रयत्न
करता है और हर
बार असफल होता
है। यह असफलता
ही बुनियादी
बात है। किसी
दिन वह समग्र असफलता
पर पहुंच जाता
है। उस समग्र
असफलता में सब
सोच—विचार ठहर
जाता है और उसे
बोध होता है
कि मौलिक
चेहरे के
संबंध में कोई
सोच—विचार
नहीं हो सकता।
और इस बोध के
साथ ही सोच—विचार
गिर जाता है।
और
जब साधक को इस
अंतिम असफलता
का बोध होता
है और वह गुरु
के पास आता है तो
गुरु उससे
कहता है. 'अब
कोई जरूरत
नहीं है, मैं
मौलिक चेहरा
देख रहा हूं।’ साधक की आंखें
शून्य हैं। वह
गुरु से कुछ
कहने नहीं, सिर्फ उनके
सान्निध्य
में रहने को आया
है। उसे कोई
उत्तर नहीं
मिला; उत्तर
था ही नहीं।
वह पहली बार
उत्तर के बिना
आया है। कोई
उत्तर नहीं है;
वह मौन होकर
आया है।
पहले
वह जब भी आया
था,
कोई उत्तर
लेकर आया था।
मन मौजूद था, विचार चल
रहा था और वह
उस विचार से
सीमित था।
उसने कोई
चेहरा खोज
लिया था या
उसने किसी
चेहरे की
कल्पना कर ली
थी और वह उस
चेहरे से
सीमित था। अब
वह मौलिक हो
गया है; अब
उसकी कोई सीमा
नहीं है। अब
उसका कोई
चेहरा नहीं है,
कोई धारणा
नहीं है, कोई
विचार नहीं है।
वह बिना किसी
मन के आया है।
यही
अ—मन की
अवस्था है। इस
अ—मन की
अवस्था में 'सीमित
आत्मा असीम हो
जाती है।’ सीमाएं
विलीन हो जाती
हैं। और तुम
अचानक
सर्वत्र हो, सब कहीं हो।
तुम अचानक सब
कुछ हो। अचानक
तुम वृक्ष में
हो, पत्थर
में हो, आकाश
में हो, मित्र
में हो, शत्रु
में हों—अचानक
तुम सब कहीं
हो, सब में
हो। सारा
अस्तित्व
दर्पण के समान
हो गया है—और
तुम सर्वत्र
अपनी ही
प्रतिछवि देख
रहे हो।
यही
अवस्था आनंद
की अवस्था है।
अब तुम्हें
कुछ भी अशांत
नहीं कर सकता; क्योंकि
तुम्हारे
अतिरिक्त कुछ
और नहीं है।
अब कुछ भी
तुम्हें मिटा
नहीं सकता, क्योंकि
तुम्हारे
सिवाय कोई और
नहीं है। अब
मृत्यु नहीं
है; क्योंकि
मृत्यु में भी
तुम हो। अब
कुछ भी
तुम्हारे
विरोध में
नहीं है; क्योंकि
एकमात्र तुम
हो, अकेले
तुम हो।
इस
एकाकीपन को
महावीर ने
कैवल्य कहा है—समग्र
एकात। एकात
क्यों? क्योंकि
सब कुछ तुममें
समाहित है, सब कुछ
तुममें है।
तुम
इस अवस्था को
दो ढंगों से
अभिव्यक्त कर
सकते हो। तुम
कह सकते हो, 'केवल
मैं हूं अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं मैं
परमात्मा हूं
मैं समग्र हूं।
सब कुछ मेरे
भीतर आ गया है,
सारी
नदियां मेरे
सागर में
विलीन हो गई
हैं। अकेला
मैं ही हूं; और कुछ भी
नहीं है।’ सूफी
संत यही कहते
हैं और
मुसलमान कभी
नहीं समझ पाते
कि क्यों सूफी
ऐसी बातें
कहते हैं। एक
सूफी कहता है. 'कोई
परमात्मा
नहीं है, केवल
मैं हूं।’ या
वह कहता है. 'मैं
परमात्मा हूं।’
यह विधायक
ढंग है कहने
का कि अब कोई
पृथकता न रही।
बुद्ध
नकारात्मक
ढंग उपयोग
करते हैं; वे
कहते हैं. 'मैं
न रहा, कुछ
भी न रहा।’
दोनों
बातें सच हैं।
क्योंकि जब सब
कुछ मुझमें
सम्मिलित है
तो अपने को 'मैं'
कहने में
कोई तुक नहीं
है।’मैं' सदा ही 'तू,
के विरोध
में है, 'तू
के संदर्भ में
'मैं' अर्थपूर्ण
है, जब 'तू
न रहा तो 'मैं'
व्यर्थ हो
गया। इसीलिए
बुद्ध कहते
हैं कि 'मैं'
नहीं है, कुछ नहीं है।
या
तो सब कुछ
तुममें समा
गया है, या
तुम शून्य हो
गए हो और
सबमें विलीन
हो गए हो।
दोनों
अभिव्यक्तियां
ठीक हैं।
निश्चित
ही कोई भी
अभिव्यक्ति
पूरी तरह सही
नहीं हो सकती
है;
यही कारण है
कि विपरीत
अभिव्यक्ति
भी सदा सही है।
प्रत्येक
अभिव्यक्ति
आशिक है, अंश
है; इसीलिए
विरोधी अभिव्यक्ति
भी सही है, विरोधी
अभिव्यक्ति
भी उसका ही
अंश है।
इसे
स्मरण रखो।
तुम जो वक्तव्य
देते हो वह सच हो
सकता है और
उसका विरोधी वक्तव्य
भी,
बिलकुल
विरोधी
वक्तव्य भी सच
हो सकता है।
वस्तुत: यह
होना
अनिवार्य है।
क्योंकि
प्रत्येक
वक्तव्य अंश
मात्र है। और
अभिव्यक्ति
के दो ढंग हैं।
तुम विधायक
ढंग चुन सकते
हो या
नकारात्मक
ढंग चुन सकते
हो। अगर तुम
विधायक ढंग
चुनते हो तो
नकारात्मक ढंग
गलत मालूम पड़ता
है। लेकिन वह
गलत नहीं है, वह परिपूरक
है। वह दरअसल
उसके विरोध
में नहीं है।
तो
तुम चाहे उसे
ब्रह्म कहो या
निर्वाण कहो, दोनों
एक ही अनुभव
की तरफ इशारा
करते हैं। और
वह अनुभव यह
है ना—कुछ का
विचार करने से
तुम उसे जान
लेते हो।
इस
विधि के संबंध
में कुछ
बुनियादी
बातें समझ लेनी
जरूरी हैं। एक
कि विचार करते
हुए तुम
अस्तित्व से
पृथक हो जाते
हो। विचार
करना कोई संबंध
नहीं है; वह
कोई संवाद
नहीं है।
विचार करना
अवरोध है।
निर्विचार
में तुम
अस्तित्व से
संबंधित होते
हो, जुड़ते
हो, निर्विचार
में तुम संवाद
में होते हो।
जब
तुम किसी से
बातचीत करते
हो तो तुम
उससे जुड़े
नहीं हो।
बातचीत ही
बाधा बन जाती
है। और तुम
जितना ही
बोलते हो तुम
उससे उतने ही
दूर हट जाते
हो। अगर तुम
किसी के साथ मौन
में होते हो
तो तुम उससे
जुड़ते हो। और
अगर तुम दोनों
का मौन सच ही
गहन हो, अगर
तुम्हारे मन
में कोई विचार
न हो, दोनों
के मन पूरी
तरह मौन हों—तो
तुम एक हो।
दो
शून्य दो नहीं
हो सकते, दो
शून्य एक हो
जाते हैं। अगर
तुम दो
शून्यों को
जोड़ों तो वे
दो नहीं रहते,
वे मिलकर एक
बड़ा शून्य हो
जाते हैं, वे
एक हो जाते
हैं। सच तो यह
है कि कोई
शून्य बड़ा या
छोटा नहीं हो
सकता; शून्य
बस शून्य है।
तुम न उसमें
कुछ जोड़ सकते
हो और न उससे
कुछ घटा सकते
हो। शून्य
पूर्ण है। जब
भी तुम किसी
के साथ मौन
में होते हो, तुम एक होते
हो। जब तुम
अस्तित्व के
साथ मौन होते
हो तो तुम अस्तित्व
के साथ एक
होते हो।
यह
विधि कहती है
कि अस्तित्व
के साथ मौन
होओ और तब तुम
परमात्मा को
जान लोगे।
अस्तित्व के
साथ संवाद का
एक ही साधन है, मौन।
यदि तुम
अस्तित्व से
बातचीत करते
हो तो तुम
चूकते हो। तब
तुम अपने
विचारों में
ही बंद हो।
इसे
प्रयोग की तरह
करो। किसी चीज
के साथ भी, एक
पत्थर के साथ
भी इसे प्रयोग
करो। पत्थर के
साथ मौन होकर
रहो, उसे
अपने हाथ में
ले लो और मौन
हो जाओ। और
संवाद घटित
होगा, मिलन
घटित होगा।
तुम पत्थर में
गहरे प्रवेश
कर जाओगे और
पत्थर तुममें
गहरे प्रवेश
कर जाएगा।
तुम्हारे
रहस्य पत्थर
के प्रति खुल
जाएंगे और
पत्थर अपने
रहस्य
तुम्हारे
प्रति प्रकट
कर देगा।
लेकिन तुम
पत्थर के साथ
भाषा का उपयोग
नहीं कर सकते;
पत्थर कोई
भाषा नहीं
जानता है। और चूंकि
तुम भाषा का
उपयोग करते हो,
तुम उसके
साथ संबंधित
नहीं हो सकते।
मनुष्य
ने मौन बिलकुल
खो दिया है।
जब तुम कुछ
नहीं कर रहे
होते हो तो भी
तुम मौन नहीं
हो। मन कुछ न
कुछ करता ही
रहता है। और
इसी निरंतर की
भीतरी बातचीत
के कारण, इस
सतत आंतरिक
बकवास के कारण
तुम किसी के भी
साथ संबंधित
नहीं होते हो।
तुम अपने
प्रियजनों के
साथ भी
संबंधित नहीं
हो सकते, क्योंकि
यह बातचीत
चलती रहती है।
तुम
अपनी पत्नी के
साथ बैठे हो
सकते हो, लेकिन
तुम अपने भीतर
बातचीत में
लगे हो और
तुम्हारी
पत्नी अपने
भीतर बातचीत
में लगी है।
तुम दोनों
अपने—अपने
भीतर बातचीत में
लगे हो। पास
होकर भी तुम
एक—दूसरे से
बहुत दूर हो, दो ध्रुवों
जैसे दूर हो।
मानो तुम एक तारे
पर हो और
तुम्हारी
पत्नी दूसरे
तारे पर है और
दोनों के बीच
अनंत दूरी है।
और फिर
तुम्हें लगता
है कि प्रेम
नहीं है। तब
तुम एक—दूसरे
को दोष देते
हो कि 'तुम
मुझे प्रेम
नहीं करते।’
असल
में प्रेम का
प्रश्न ही
नहीं है।
प्रेम संभव ही
नहीं है।
प्रेम मौन का
फूल है। प्रेम
का फूल मौन
में ही खिलता
है,
मौन मिलन
में खिलता है।
यदि तुम
निर्विचार
नहीं हो सकते
हो तो तुम प्रेम
में भी नहीं
हो सकते। और
फिर
प्रार्थना
में होना तो
असंभव ही है।
लेकिन
हम तो
प्रार्थना
करते हुए भी
बातचीत में
लगे रहते हैं।
हमारे लिए
प्रार्थना
परमात्मा के
साथ बातचीत है।
हम बातचीत के
इतने अभ्यस्त
हो गए हैं, इतने
संस्कारित हो
गए हैं, कि
जब हम मंदिर
या मस्जिद भी
जाते हैं तो
वहां भी अपनी
बकवास जारी
रखते हैं। हम
परमात्मा के
साथ भी बोलते
रहते हैं, बातचीत
करते रहते हैं।
यह
बिलकुल
मूढ़तापूर्ण
है। परमात्मा
या अस्तित्व
तुम्हारी
भाषा नहीं समझ
सकता है।
अस्तित्व एक
ही भाषा समझता
है—मौन की
भाषा और मौन न
संस्कृत है, न
अरबी, न
अंग्रेजी, न
हिंदी। मौन
जागतिक है, मौन किसी एक
का नहीं है।
पृथ्वी
पर कम से कम
चार हजार
भाषाएं हैं।
और प्रत्येक
मनुष्य अपनी
भाषा के घेरे
में बंद है।
अगर तुम उसकी
भाषा नहीं
जानते हो तो
तुम उसके साथ
संबंधित नहीं
हो सकते। तुम
संबंधित ही
नहीं हो सकते।
अगर मैं
तुम्हारी
भाषा नहीं
जानता हूं और
तुम मेरी भाषा
नहीं जानते हो
तो हम दोनों
संबंधित नहीं
हो सकते; तब हम
एक—दूसरे के
लिए अजनबी हैं।
हम एक—दूसरे
में प्रवेश
नहीं कर सकते,
हम एक—दूसरे
को न समझ सकते
हैं, न
प्रेम कर सकते
हैं।
ऐसा
इसीलिए है, क्योंकि
हमें वह
बुनियादी
जागतिक भाषा
नहीं मालूम है
जो कि मौन है।
सच तो यह है कि
मौन के द्वारा
ही कोई किसी
से संबंधित
होता है। और
अगर तुम मौन
की भाषा जानते
हो तो तुम
किसी भी चीज
के साथ
संबंधित हो
सकते हो, जुड़
सकते हो।
क्योंकि
चट्टानें मौन
हैं, वृक्ष
मौन हैं, आकाश
मौन है—मौन
अस्तित्वगत
है। यह मानवीय
गुण ही नहीं
है, यह
अस्तित्वगत
है। सबको पता
है कि मौन
क्या है, सबका
अस्तित्व मौन
में ही है।
यदि
तुम्हारे हाथ
में एक पत्थर
है तो वह
पत्थर अपने
भीतर नहीं बोल
रहा है, लेकिन
तुम बोल रहे
हो। यही कारण
है कि तुम
पत्थर से
संबंधित नहीं
हो सकते हो।
और पत्थर तो
ग्रहणशील है,
खुला हुआ है,
वह तुम्हें
आमंत्रण दे
रहा है। पत्थर
तुम्हारा
स्वागत करेगा।
लेकिन तुम
बातचीत में
लगे हो और
पत्थर तुम्हारी
भाषा नहीं समझ
सकता। वही
बाधा बन जाता
है। ऐसे ही
तुम मनुष्यों
के साथ भी गहन
संबंध में नहीं
हो सकते, कोई
घनिष्ठता
संभव नहीं है।
भाषा, शब्द
सब कुछ नष्ट
कर देते हैं।
ध्यान
का अर्थ मौन
है—कोई विचार
नहीं। विचार
बिलकुल खो गए
हैं। ध्यान है
मात्र होना—खुला, ग्रहणशील,
तत्पर, मिलने
को उत्सुक, स्वागत में,
प्रेमपूर्ण—लेकिन
वहा सोच—विचार
बिलकुल नहीं
है। और तब
तुम्हें अनंत
प्रेम घटित
होगा और तुम यह
कभी नहीं कहोगे
कि कोई मुझे
प्रेम नहीं
करता है। तुम
यह कभी नहीं
कहोगे, तुम्हें
कभी यह भाव भी
नहीं उठेगा।
अभी
तो तुम कुछ भी
करो,
तुम यही
कहोगे कि कोई
मुझे प्रेम
नहीं करता है।
और तुम्हें यह
भाव भी उठेगा कि
कोई मुझे प्रेम
नहीं देता है।
हो सकता है
तुम यह नहीं कहो,
तुम यह दिखावा
भी कर सकते हो
कि कोई मुझे
प्रेम करता है,
लेकिन गहरे
में तुम जानते
हो कि कोई
तुम्हें प्रेम
नहीं करता है।
प्रेमी
भी एक—दूसरे
से पूछते रहते
हैं 'क्या तुम
मुझे प्रेम
करते हो?' अनेक
ढंगों से वे
निरंतर यही
बात पूछते
रहते हैं। सब
डरे हुए हैं, सब अनिश्चय
में हैं, सब
असुरक्षित
हैं। बहुत
तरीकों से वे
यह जानने की
कोशिश करते हैं
कि दूसरा सच
में मुझे
प्रेम करता है।
और उन्हें कभी
भरोसा नहीं हो
सकता है।
क्योंकि
प्रेमी कह
सकता है कि ही,
मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं; लेकिन
इसका भरोसा
क्या? तुम्हें
पक्का कैसे
होगा? तुम
कैसे जानोगे
कि प्रेमी
तुम्हें धोखा
नहीं दे रहा
है? वह
तुम्हें समझा—बुझा
सकता है; वह
तुम्हें यकीन
दिला सकता है।
लेकिन इससे
सिर्फ बुद्धि
संतुष्ट हो
सकती है; हृदय
तृप्त नहीं
होगा।
प्रेमी—प्रेमिका
सदा दुखी रहते
हैं। उन्हें
कभी इस बात का
पक्का भरोसा
नहीं होता कि
दूसरा मुझे
प्रेम करता है।
तुम्हें कैसे
भरोसा आ सकता
है! असल में
भाषा के जरिए
भरोसा देने का
कोई उपाय नहीं
है। और तुम
भाषा के जरिए
पूछ रहे हो।
और जब प्रेमी
मौजूद है तो
तुम मन में
बातचीत में
उलझे हो, प्रश्न
पूछ रहे हो, विवाद कर
रहे हो।
तुम्हें कभी
भरोसा नहीं
आएगा और
तुम्हें सदा
लगेगा कि मुझे
प्रेम नहीं
मिल रहा है, और यही गहन
संताप बन जाता
है।
और
ऐसा इसलिए
नहीं होता है
कि कोई
तुम्हें प्रेम
नहीं करता है, ऐसा
इसलिए होता है
कि तुम बंद हो,
तुम
विचारों में
बंद हो। वहा
कुछ भी प्रवेश
नहीं कर
प्रात। है।
विचारों में
प्रवेश नहीं
किया जा सकता,
उन्हें
गिराना होगा।
और अगर तुम
उन्हें गिरा
देते हो तो
सारा अस्तित्व
तुममें
प्रवेश कर
जाता है।
यह
सूत्र कहता है
: 'ना—कुछ का
विचार करने से
सीमित आत्मा
असीम हो जाती
है।’ तुम
असीम हो जाओगे।
तुम पूर्ण हो
जाओगे। तुम
जागतिक हो
जाओगे। तुम सब
कहीं होगे। और
तब तुम आनंद
ही हो।
अभी
तुम दुख ही
दुख हो और कुछ
नहीं। जो
चालाक हैं वे
अपने को धोखे
में रखतें हैं
कि हम दुखी
नहीं हैं, या
वे इस आशा में
रहते हैं कि
कुछ बदलेगा, कुछ घटित
होगा, और
हमें अपने
जीवन के अंत
में सब उपलब्ध
हो जाएगा।
लेकिन तुम दुखी
हो। तुम
दिखावे और
धोखे निर्मित
कर सकते हो, तुम मुखौटे
ओढ़ सकते हो, तुम निरंतर
मुस्कुराते
रह सकते हो, लेकिन गहरे
में तुम जानते
हो कि मैं
दुखी हूं? पीड़ित
हूं।
यह
स्वाभाविक है।
विचारों में
बंद रहकर तुम
दुख में ही
रहोगे।
विचारों से
मुक्त होकर, विचारों
के पार होकर—सजग,
सचेतन, बोधपूर्ण,
लेकिन
विचारों से
अछूते—तुम
आनंद ही आनंद
हो।
आज
इतना ही।
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