स्वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें—(आनंद स्वभाव)
(मैंने आनंद स्वभावको भारत के लिए एंबेसेडर (धर्मदूत) बनाया है। वे भारत भर में घूम रहे है, अब मैं तो कहीं आता—जाता नहीं हूं। और वे बहुत ही अच्छा कार्य कर रहे है, शिविर संचालन, उद्यबोधन देना, अलग—अलग जगहों पर विभिन्न संस्थाओं में जाना। इस कारण वे अधिकांश समय भ्रमण पर ही होते है। अब हम हर देश में एंबेसेडर नियुक्त कर रहे है—कोई जो समाचार माध्यमों में मेरा प्रतिनिधित्व करे, शिविर संचालन करे, इस बात का ध्यान रखे कि देश में मेरे खिलाफ या मेरे पक्ष में क्या हो रहा है।
(मैंने आनंद स्वभावको भारत के लिए एंबेसेडर (धर्मदूत) बनाया है। वे भारत भर में घूम रहे है, अब मैं तो कहीं आता—जाता नहीं हूं। और वे बहुत ही अच्छा कार्य कर रहे है, शिविर संचालन, उद्यबोधन देना, अलग—अलग जगहों पर विभिन्न संस्थाओं में जाना। इस कारण वे अधिकांश समय भ्रमण पर ही होते है। अब हम हर देश में एंबेसेडर नियुक्त कर रहे है—कोई जो समाचार माध्यमों में मेरा प्रतिनिधित्व करे, शिविर संचालन करे, इस बात का ध्यान रखे कि देश में मेरे खिलाफ या मेरे पक्ष में क्या हो रहा है।
ओशो
.......ओर इस
तरह से एक
लंबी यात्रा
शुरू हो गई.......।
सन् 1964 में पुणे
के पास पर्वतीय
स्थल महाबलेश्वर
में ओशो की
गोष्ठी
वार्ता चल रही
थी......वो पहली
मुलाकात का
पहला पल.....ओर आज
का यह पल.....कहने
को लंबी
यात्रा.......पर यूं
लगता है अभी—अभी
की तो बात है।
स्वामी
आनंद स्वभाव
अमुख:
'स्वभाव
यहां है। कुछ
साल पहले, वह
अपने दो
भाइयों के साथ
आया था, तीनों
एक साथ मेरे
से तर्क—वितर्क
करने आए। और
स्वभाव उन
तीनों में से
सर्वाधिक
तार्किक था; लेकिन वह
ईमानदार, और
सरल व्यक्ति
है। धीरे—
धीरे वह समझ
गया। उन दो
भाइयों में वह
नेता की तरह
आया था; फिर
वह समझ गया।
'पंद्रह साल
में आनंद
स्वभाव ने कभी
पत्र नहीं लिखा! पंद्रह
साल सुनने के
बाद चिंतन—मनन
घंटों चलता था।
वह चिंतन—मनन
क्या है? वह तुम्हारे
भीतर शोरगुल
है। और परसों
चूंकि चिंतन—मनन
नहीं चला तो
प्रवचन खोखला
लगा। परसों की
ही बात
तुम्हारे काम
की थी, स्वभाव,
बाकी
पंद्रह साल तो
यूं ही गए।
परसों की ही
बात सुन कर
अगर तुम चुप
हो गए होते, मौन हो गए
होते, शून्य
हो गए होते, तो कोई बंद
द्वार खुल
जाता।
'मैं
स्वभाव को
उसके बहुत
शुरू से जानता
हूं। वह
भ्रमित नहीं
था, यह सत्य
है— क्योंकि
वह पूरी तरह
से बेवकूफ था।
वह हठी, जिद्दी
था। वह बिना
जाने, लगभग
हर चीज जानता
था। अब, पहली
बार उसकी
चेतना का एक
हिस्सा
बुद्धिमान हो
रहा है, सचेत,
सजग और वह
हिस्सा चारों
तरफ उलझन पैदा
कर रहा है.
वहां केवल
भ्रम की स्थिति
है।
'स्वभाव रजस
टाइप का था, क्षत्रिय
जैसा, लड़
पड़ने को तैयार,
हमेशा
क्रोध की कगार
पर, अब वह
मंदा हो गया
है, वह सौ
किमी. प्रति घंटा
की रफ्तार से
दौड़ रहा था, और मैं
उसे दस कि. मी.
प्रति घंटे की
रफ्तार पर ले
आया निश्चित
वह सुस्त
महसूस करेगा।
यह सुस्ती
नहीं है; यह
बस तुम्हारी
गतिविधि की
सनक को
सामान्य दशा
में ले आना है
क्योंकि
सिर्फ वहां से
सत्व होना
संभव होगा; वर्ना वह
संभव नहीं
होगा।
तुम्हें तमस
और रजस के बीच
संतुलन पाना
होगा, सुस्ती
और गतिविधि के
बीच। तुम यह
जानो कि कैसे
आराम करना है
और कैसे काम करना
है।
'यह
हमेशा आसान है
कि पूरी तरह
से आराम करो; यह भी आसान
है कि पूरी
तरह से काम
करो। लेकिन इन
दो विपरीतताओ
को जानना और
उनमें जाना और
उनके बीच
लयबद्धता
पैदा करना
मुश्किल है—
और वह
लयबद्धता
सत्य है।
'स्वभाव! सन्मुख
होना ही
सत्संग है।
लेकिन सन्मुख
होना सिर्फ
भौतिक अर्थों
में कोई
सार्थकता
नहीं रखता।
ऐसे तो कोई
सामने बैठ
सकता है और
फिर भी उसकी पीठ
हो। अगर मन
में विचारों
का ऊहापोह चल
रहा है, तो सन्मुख
होकर भी तुम
विमुख ही रहोगे।
मन में ऊहापोह
समाप्त हो गए
हों, विचारों
की तरंगें न
हों, मन एक
शांत झील हो
गया हो—तो फिर
तुम कहीं भी
हो, सन्मुख
हो।
'यही
परमात्मा के
अनुभव की
शुरुआत है
स्वभाव! परमात्मा
ने पहली बार
दस्तक दी
तुम्हारे द्वार
पर। निश्चित
ही परमात्मा
को हमने पहले
जाना नहीं।
उसकी दस्तक भी
अपरिचित है।
अगर सामने भी
परमात्मा खड़ा
हो जाए तो हम
एकदम से पहचान
न सकेंगे।
इसीलिए तो सदगुरु
की जरूरत है, कि जब
परमात्मा
तुम्हारे
सामने खड़ा हो
तो तुम्हें झकझोरे और
कहे कि भर आख
देख लो, जी
भर पी लो! इसी
की तलाश थी
जन्मों—जन्मों
से। जिसको
खोजते थे, आज
द्वार पर खड़ा
है। कहीं ऐसा
न हो कि आई शुभ
घड़ी चूक जाए।
भर लो झोली, भर लो प्राण!
यह जो सुगंध
बरस रही है, यह सदा के
लिए तुम्हारी
हो सकती है।
'स्वभाव इस
तरह के
मित्रों के
कारण चिंता मत
लेना। वे धीरे
धीरे
अपने आप चले
जाएंगे। जाना
ही पड़ेगा
उन्हें। या तो
बदलना पड़ेगा
या जाना पड़ेगा।
मेरे साथ
ज्यादा देर
कैसे रुक सकते
हैं!
मैं उनको
देखता भी हूं
तो हैरान होता
हूं कि वे
क्यों रुके
हैं? कोई
कारण नहीं
दिखायी पड़ता
उनके रुकने का।
वे आनंदित भी
नहीं हैं—
आनंदित हो
नहीं सकते, क्योंकि
मुझमें पूरे
डूबते नहीं
हैं। और जा भी
नहीं सकते। बस,
कारण मुझे
यूं लगता है
कि जाएं कहां?
और कहीं भी
जाएंगे तो काम
करना पडेगा,
श्रम करना
पड़ेगा, मेहनत
करनी पड़ेगी।
एक आलस्य है।
चलो, अब
यहीं टिके
रहो! मगर मैं
धीरे धीरे
इस तरह के
लोगों को दूर
हटाए जा रहा
हूं। मेरे साथ
होना है तो
मेरे साथ होना
ही होगा पूरी
तरह। अधूरे अधूरे
मेरे साथ होने
का कोई उपाय
नहीं है।
'स्वभाव—मौलिक
रूप से
नास्तिक। जब
पहली—पहली बार
स्वभाव मेरे
पास आया था, वर्षों पहले,
तो शुद्ध
नास्तिक। जो
पहला प्रश्न
स्वभाव ने
मुझसे पूछा था,
वह यही था—कि
ईश्वर है, इसका
आप कोई प्रमाण
दे सकते हैं? स्वभाव शायद
अब भूल भी गया
होगा कि उसने
यह पहला
प्रश्न मुझसे
पूछा था। इसके
लिए मैं बहुत
प्रमाण
स्वभाव को
देता रहा हूं।
यह आखिरी
प्रमाण था। अब
स्वभाव नहीं
पूछ सकता—कि
ईश्वर है? क्योंकि
स्वभाव ने
मेरे पिता के
पास रह कर प्रेम
को पहचाना। और
स्वभाव ने
मेरे पिता को
अंधेरे से
रोशनी की तरफ
उठते हुए देखा।
बुद्धत्व का
कैसे
आविर्भाव
होता है, इसका
साक्षात्कार
किया। यह
साक्षात्कार
उसके लिए सीडी
बन जाएगा। यह
उसके
बुद्धत्व के
लिए अनिवार्य
था, यह
जरूरी था। और
मैं खुश हूं
कि स्वभाव ने
समग्रता से, सौ प्रतिशत,
रत्ती भर भी
कमी नहीं की।
'स्वभाव!
संन्यास का
यही अर्थ है—एक
अज्ञात
यात्रा। भीतर
चलना ऐसा नहीं
है जैसा बाहर
चलना होता है।
बाहर तो सीधे—साफ
रास्ते हैं।
मील के पत्थर
लगे हैं। नक्यो
उपलब्ध हैं। अतर्यात्रा
तो आकाश की
यात्रा है।
'स्वभाव,
जाम भी
भरेगा, दौर
भी चलेगा।’ कब आए इधर
मालूम नहीं!' आना भी होगा
उसका। आया ही
हुआ है।’ उट्ठे
भी अगर, ठहरे
भी कहां!' मत
घबड़ाओ कि
साकी कहीं ऐसा
न हो कि
तुम्हें छोड़
कर ही चला जाए,
कि किसी
दूसरे के
पात्र में ढाल
दे और तुम्हारा
पात्र खाली ही
रह जाए। साकी
की नजर मालूम
नहीं, कहां
रूके, कहां
न रूके, हम पर रूके
न रूके।
'नहीं,
न वहां देर
हैं न अंधेर
है परमात्मा
की तरफ से।
परमात्मा
चाहो तो
परमात्मा कहो,
जीवन का परम
नियम कहना
चाहो तो परम
नियम कहो—तुम्हारी
मौज। ये सिर्फ
शब्दों की
बातें हैं।
धर्म कहना
चाहो तो धर्म
हो। ये
सूफियों के
शब्द हैं—'साकी
की नजर'।
ये सूफियों के
शब्द हैं— 'जाम',
'दौर का
चलना'। ये
सूफियों के
प्रतीक—शब्द
हैं। यह
सूफियाना
भाशा है। मगर
बड़ी प्यारी!
बड़े पते की
बातें हैं!
मत घबड़ाओ!
बस अपने पात्र
को निखार कर
रखो।
तुम्हारी
श्रद्धा में
कमी न हो, तुम्हारा
समर्पण पूरा
हो। फिर बात
होती है। होना
अपरिहार्य है।
'कब
जाम भरे, कब
दौर चले
कब आए
इधर मालूम
नहीं
उट्ठे भी अगर, ठहरे भी
कहां
साकी
की नजर मालूम
नहीं
हम चल
तो पड़े हैं जज़बा—ए
दिल...।’
'अब
स्वभाव एक बड़ी
फैक्टरी के
मालिक... अभी कल
ही मैं देखता
था कि उनकी
फैक्टरी वेकफील्ड
को
अंतर्राष्ट्रीय
पुरस्कार
मिला है।
चित्र छपा था।
चित्र देख कर
मुझे लगा कि
स्वभाव अगर
संन्यासी न
होते तो शायद
चित्र में
होते, पुरस्कार
लेते हुए
दिखाई पड़ते
चित्र में।
कोई और ले रहा
है। स्वभाव ही
प्राण थे उस
संस्थान के।
सब छोड़—छाड़
कर मेरे साथ
दीवाने हो गए।
तो लोग तो
कहेंगे ही कि
बरबाद हो गए, कि पागल हो
गए। उनका भी
कोई कसूर नहीं।
उनके अपने
मापदंड हैं।
जैसे कोयला
अगर हीरा हो
जाए तो दूसरे
कोयले तो यही
कहेंगे कि हो
गए बरबाद।
कोयला ही हीरा
होता है, खयाल
रखना। कोयले
और हीरे में
कोई रासायनिक
भेद नहीं है।
कोयला ही
सदियों तक भूमि
के नीचे दबा—दबा
हीरे में
रूपांतरित
होता है। हीरे
और कोयले का
रासायनिक
सूत्र एक ही
है। हीरा
कोयले की
अंतिम परिणति
है और कोयला
हीरे की शुरुआत
है। कहो कि
कोयला बीज है
और हीरा फूल
है। मगर दोनों
जुडे हैं। जब
कोई हीरा
निर्मित होता
होगा कोयले के
टुकड़े से, तो
और कोयले के
टुकड़े क्या
कहते होंगे? कि हुआ बरबाद!
गया काम से!
अपना न रहा!
अपने जैसा न
रहा! मगर हीरे पहचानेंगे
कि दो कौड़ी
का था, आज
बहुमूल्य हो
गया।
'तो स्वभाव, जो तुम जैसे
ही बरबाद हुए
हैं, वे पहचानेंगे।
तुम पहचानोगे।
क्योंकि इसके
पहले तुम जी
कहां रहे थे! एक धोखा
था, खींच
रहे थे, ढो
रहे थे। आज
तुम जी रहे हो।
एक उमंग है, एक उत्कुल्लता
है, एक
आनंद है। आज
तुम रसविभोर
हो। गई
अस्मिता, गया
अहंकार, गई
अकडू। आज
तुम तरल हो, सरल हो। और
यही तरलता, यही सरलता
तुम्हें
पात्र बनाएगी
उस परम घटना के
लिए। उस परम
सौभाग्य का
क्षण भी दूर
नहीं, जब
प्रभु भी
तुममें उतर आए,
जब वह
महारास हो, जब उसकी
रसधार बहे।
लेकिन लोग तो
तब भी कहते
रहेंगे...।’
ओशो के
विभिन्न
प्रवचनों से
उद्धृत
विरले
स्वभाव की बिरली
कथा.....
ओशो के साथ एक
लंबा समय
बिताया है। इस
बीच पुणे
कम्यून में
काम करते पता
नहीं कितने
देश—विदेश से
आए मित्रो
से परिचय रहा, साथ काम
किया और अपने—
अपने अनुभव एक—दूसरे
के साथ बांटे।
निश्चित
ही दुनियाभर
से आए
प्रतिभावान, सृजनकार दीवानों के
साथ बिताया
समय बहुत
यादगार रहा।
सालों पहले की
बात होगी जब
पहली बार
स्वामी आनंद
स्वभाव से
मिलना हुआ।
ओशो कहते हैं
न कि उनके साथ
तो दीवानों—मस्तानों
और जुआरियों
की बात बनती
है। हिसाबी—किताबी,
जोड़—बाकी
लगाने वाले
ओशो से चूक
जाते हैं। एक
बात तो
ईमानदारी से
कहूंगा कि
स्वामी आनंद
स्वभाव पूरे
जुआरी निकले।
ओशो से मिले
तो फिर सिवाय
ओशो के और
किसी बात में
रुचि नहीं रही।
सालों पहले
अपना जमा—जमाया
व्यवसाय था, संपन्नता और
समृद्धि थी। कोरेगांवपार्क
के आलीशान
बंगले में
रहते जीवन
सफलता से गुजर
रहा था। ओशो
से मिलने के
बाद अपना
व्यवसाय, बंगला
और सारी
सुविधाएं व सुरक्षाएं
एक तरफ रखकर
ओशो के कारवां
में शामिल हो
गये तो फिर
पलट कर नहीं
देखा।
स्वामी
आनंद स्वभाव
एक ऐसे विरले
व्यक्ति हैं, और वे
विरले हैं
क्योंकि
उन्होंने एक—एक
पल पूरी
ईमानदारी से
जीकर बताया।
एक बार ओशो से
मिलना हुआ तो मुड़कर
पीछे नहीं
देखा। कह सकते
हैं कि एक
सच्चा साधक, एक मुमुक्षु।
रजनीशपुरम
के उजड़ जाने
के बाद जब ओशो
ने स्वामी
आनंद स्वभाव
को बुलाकर कहा
कि पुणे का
आश्रम संकट
में है उसे बचा
लो तो सद्गुरु
के वचनों को
सिर—आंखों पर
रखकर आश्रम को
सभी कठिनाइयों
से बाहर
निकालने के
लिए रात—दिन
एक कर दिए। यह
वही समय था जब तंबाखू
खाने की आदत
पड़ी। काम इतना
था, संकट
इतने थे और
समय बहुत कम। तंबाखू
मुंह में दबाए
चौबीस घंटे
काम में लगे
रहे और उसी का
परिणाम हुआ
मुंह का कैंसर।
लेकिन स्वामी
आनंद स्वभाव
के प्रयास रंग
लाए, पुणे
का आश्रम हर
तरह से फिर से
सजीव हो उठा, मजबूत और
विशाल.. .ऐसी
स्थिति में
जहां विश्वभ्रमण
के बाद ओशो
फिर आकर रह
सके।
ओशो ने
जब भारत के
लिए अपना एंबेसेडर
नियुक्त किया
तो रात देखी न
दिन, ठंड
देखी न गर्मी,
पूरब से
लेकर पश्चिम
तक और दक्षिण
से लेकर उत्तर
तक पूरे देश
में ध्यान का
संदेश लेकर
बीस सालों तक
सतत यात्राएं
कर डालीं।
बस, ट्रेन,
कार, टेरक्टर,
हवाईजहाज जो भी मिला
उसी की सवारी
लेकर बड़े—बड़े
शहरों से लेकर
छोटे से छोटे
गांवों तक
ध्यान
शिविरों का
संचालन किया
और लाखों—लाखों
लोगों को
ध्यान के पथ
पर अग्रसर
किया।
स्वामी
आनंद स्वभाव
शिविर संचालन
इस खूबसूरत
ढंग से करते
कि जितने भी
मित्र उसमें
शामिल होते, तीन दिन
पूरा होते—होते
किसी दूसरे ही
जगत में पहुंच
जाते। गीत—संगीत,
शेते—शायरी, भावभरी
कथाएं, बात
कहने का दिलकश
अंदाज और ओशो
के प्रेम से भरा
हृदय। मैंने
स्वयं ने
कितने ही
शिविरों में
अनुग्रह और
भाव से अनेक
मित्रों की आंखों
से आंसू झरते
देखे हैं।
स्वयं
के अथक
प्रयासों से मेहसाणा
में एक इतना
विशाल कम्यून
बनाया जहां
साल भर ध्यान
की सतत धारा
प्रवाहित है।
भाव तो यह था
कि भारत की
चारों दिशाओं
में ऐसे कम्यून
बनाए जाएं और मेहसाणा
के बाद दक्षिण
की योजना जारी
ही थी और...। इस
और के बाद जो
कुछ हुआ, जो मैंने
देखा, जो
मैंने महसूस
किया.. .वह इतना
गहरा, सघन,
प्रेरणादायी
और आंखें खोल
देने वाला था
कि लगा कि यह
अनुभव जितने
अधिक मित्रों
तक जाए उतना
ही बेहतर..
.निश्चित ही साधना
की राह पर
चलने वालों के
लिए तो यह
पुस्तक मददगार
होगी ही इसी
के साथ
प्रत्येक
व्यक्ति को
इतना बल जरूर
देगी कि जीवन
के हर उतार—चढ़ाव
को कैसे सचमुच
आनंद के साथ, नृत्य करते,
स्वीकारभाव के साथ जीया
जा सकता 'है।
स्वामी
आनंद स्वभाव
को कुछ सालों
पूर्व पता चला
कि मुंह का
कैंसर हो गया
है। शुरू में
एक छोटा—सा
आपरेशन हुआ।
लगभग एक साल
ठीक—ठाक निकल
गया लेकिन
करीब दो साल
पूर्व फिर से कैंसर
ने मुंह को
पकड़ा तो एक—एक
दिन, एक—एक
पल पीड़ा, दर्द
और कष्ट से
देह का रोम—रोम
भर गया। एक
बडा आपरेशन, केमोथैरेपी,
खा नहीं
सकते, पी
नहीं सकते.. .हर
पल दर्द ऐसा
कि सांस तक
लेना
दुश्वार... और
इन दो सालों
में मैं
लगातार
स्वामी आनंद
स्वभाव के
संपर्क में
रहा।
मैंने
हर उतार—चढ़ाव
करीब से देखा
है। इतनी पीड़ा, इतना
कष्ट, इतनी
तकलीफ लेकिन
स्वभाव जी
हमेशा यूं
दिखते मानो
कुछ हो ही
नहीं रहा हो।
छोटे—छोटे
रंगीन कागजों
से सुंदर—सुंदर
खिलौने बनाते
रहते। एक रात
बहुत दर्द हुआ
तो दिवाल पर
लगे बडे
से कांच पर
सुंदर
चित्रकारी कर
दी। मैं सच
कहूं इन दो
सालों में
मैंने एक बार
भी स्वभाव जी
को किसी बात
को लेकर
शिकायत करते,
चिढ़ते,
गुस्सा
होते या दर्द
से कराहते
नहीं देखा।
चुपचाप.. .जब
कभी पूछता कि
कैसे हो? तो
कहते कि बहुत
दर्द है। न
स्वयं की पीड़ा
और बीमारी को
लेकर कोई
शिकायत, न
ही किसी
व्यक्ति
विशेष या किसी
भी बात को लेकर
किसी तरह की
नकारात्मकता।
कोई
कैसे इतने
कष्ट में इतना
शांत रह सकता
है? कोई
कैसे एक पल भी
किसी बात की
शिकायत न करे।
मैंने कभी बात
निकालने के
लिए इधर—उधर
की बात की
लेकिन
सामान्यतया
वे मौन ही रहे।
सच कहूं मुंह
के कैंसर की
पीडा को जिस
तरह से स्वामी
आनंद स्वभाव
ने लिया, जिस
स्वीकारभाव
से इन दो
सालों से गहन
कष्ट को जीया..
.मेरे लिए इतना
बड़ा अनुभव रहा
कि मैंने जोर
देकर, जिद्द करके उनसे
कुछ अपने
अनुभव बुलवा
लिये, कहने
को तो बहुत
कुछ हो सकता
था लेकिन
जितना कुछ
सारभूत हो
सकता था.. .बार—बार
कहने, अनुरोध
करने पर जैसे—तैसे
कभी—कभार थोड़ा—कुछ
बोल देते, कभी
रिकॉर्ड करके
रख देते.. .मैं
हर अनुभव को
लिखता चला गया।
मैं
बहुत भरोसे से
कह सकता हूं
कि यह पुस्तक
सभी मित्रों
को एक जीवंत
संदेश देगी कि
ओशो संदेश को
सचमुच कैसे जीया
जाता है। हर
पृष्ठ पर इतना
कुछ देखने, सीखने व
समझने को
मिलेगा कि
पुस्तक का अंत
आते—आते आप
स्वयं कह
उठेंगे... वाह
ओशो वाह...।
एक तरफ
कैंसर, आपरेशन, केमोथैरेपी,
रेडिएशन, दवाइयां, दर्द, कष्ट,
पीडा, तकलीफ,
दूसरी तरफ
कभी—कभार अपने
जीवन की कोई
छोटी—बडी घटना
का वर्णन, रंगीन
कागजों के
खिलौने, कभी
गरमा—गरम सूप,
कभी थोड़ा सा
नृत्य, कभी
ओशो की बातें..
.दो साल से
अधिक समय लगा
है इस किताब
को बनते—बनते...।
स्वामी
आनंद स्वभाव, ओशो के धर्मदूत..
.सच कहूं जी कर
बताया कि ओशो
ने अपना एबेंसेडर
यूं ही नहीं
बनाया है, जी
कर बताया कि
वे सच में ओशो
के धर्मदूत
हैं। ओशो कहते
हैं 'संदेश
बनो न कि
संदेशवाहक....।’
स्वामी
आनंद स्वभाव
को देखकर कहने
को मन होता है... .हां, अब
वे स्वयं ओशो
के जीते—जागते
संदेश हैं।
—
स्वामी
संतोष भारती
प्यारे
मित्रो,
आप सबसे अपने
दिल की बात
करने में
अत्यंत खुशी हो
रही है। सालों
तक आप लोगों
से सतत संपर्क
में रहा हूं।
पूरे देश में
होने वाले
ध्यान
शिविरों में
इतने—इतने
प्रेमी
मित्रों के
साथ इतने
अनगिनत ध्यान
के, आनंद
के, उत्सव
के, प्रेम
के, स्नेह
के पल जीये
हैं कि हर पल
मेरा रोम—रोम
अनुग्रह से भर
जाता है।
पिछले
कुछ समय से
मुंह के कैंसर
ने ऐसा पकड़ा है
कि बहुत मन
होने के
बावजूद देश भर
में फैले प्यारे
मित्रो
से पुन:
संपर्क नहीं
कर पा रहा हूं।
अब तो बोलना
भी मुश्किल हो
रहा है तो फोन
पर भी बात
करना संभव
नहीं हो पाता
है। निश्चित
ही जीवन का यह
अलग ही अनुभव
है। सालों तक
लाखों—लाखों मित्रो से
बात करता रहा
हूं गाता रहा
हूं अब स्वत:
मौन ही शरीर
की जरूरत बन
गई है।
ओशो से
इतना कुछ मिला
है कि जन्मों—जन्मों
तक भी उनके
संदेश को
फैलाने के लिए
रात—दिन चारों
दिशाओं में
यात्राएं
करता रहा हूं तो
कम है। जिस पल
से ओशो मिले
इस जीवन में
सिवाय ओशो के
और कुछ करने
का कभी मन
नहीं हुआ। ओशो
के देह से
बिदा होने के
बाद, जैसा
कि ओशो स्वयं
ने कहा है कि
उनके देह से
बिदा हो जाने
के बाद हमारी
जिम्मेदारी
अधिक बढ़ जाएगी,
लगातार देश
में भ्रमण
करता रहा हूं।
बहुत मन रहा
कि देश की
चारों दिशाओं
में ओशो के
विशाल कम्यून
हों जहां, प्रेमी
मित्र आकर
ध्यान कर सकें,
ओशो संदेश
का आनंद ले
सकें। इस दिशा
में मेहसाणा
कम्यून सफल
प्रयोग रहा।
आज इस सुंदर
स्थल पर साल
भर में लगभग
पंद्रह से बीस
हजार मित्र
आकर ध्यान में
डूब रहे हैं।
एक दिशा तो हो
गई लेकिन तीन
दिशाएं बच
गईं... और देह ने
हर गति पर
विराम लगा
दिया।
कैंसर
ने जब घर पर ही
रहने को मजबूर
कर दिया तो सदा
यही खयाल बना
रहा कि अब ओशो
संदेश को कैसे
फैलाया जाये।
उन्हीं दिनों
में संतोष से
बात करते यह
सुझाव
प्रीतिकर लगा
कि एक पुस्तक
लिखी जाए, मैं तो
यात्रा नहीं
कर सकता लेकिन
पुस्तक तो यात्रा
कर लेगी। जैसे—तैसे
बोलता और
संतोष लगातार
लिखता रहा। दो
से अधिक सालों
से यह सिलसिला
जारी रहा। बीच—बीच
में देह साथ
देना बंद कर
देती तो लेखन
रुक जाता।
मैं अपने
हृदय से संतोष
को धन्यवाद
देता हूं कि
इतने लंबे समय
से वह पूरे
धैर्य और
संतोष से पुस्तक
लिखने में
मेरा साथ देता
रहा।
मेरी
पत्नी उषा का
जितना
धन्यवाद दूं
उतना ही कम।
पूरा जीवन
इतना
प्रेमपूर्ण
साथ रहा और
बीमारी के बाद
जिस तरह से
मेरी देह का
खयाल रखा वह
अद्भुत है। इस
पुस्तक के
लेखन में उषा
ने अपनी तरफ
से भरपूर
सहयोग व सहारा
दिया। सोचता
हूं बिना उषा
के जो कुछ भी
कर पाया हूं वह
शायद संभव
नहीं हो पाता।
प्यारी—सी
बच्ची राग्नी
जब भी आती
अपनी हंसी, सृजन व
स्नेह से सभी
को उल्लास से
भर देती। उसके
साथ बैठ कर
बातें करते, हंसते, गाते
समय कैसे बीत
जाता पता ही
नहीं चलता। इस
पुस्तक की
रूपरेखा, डिजाईनिग,
प्रिंटिंग,
हर चीज को
इतना करीब से
व सावधानी से
खयाल रखा है
कि इसके अभाव
में इस पुस्तक
को इतना सुंदर
करना कैसे
संभव हो पाता?
मैं उसके ड्रीमअप पब्लिकेशन
का हृदय से
आभारी हूं।
विक्रम
प्रिंटर्स के
श्री अभिजीत व
उनके डिजाईनर
नामदेव
ने अपनी तरफ
से पूरा—पूरा
सहयोग दिया।
मेरे लिए तो
घर से कहीं
जाना संभव
नहीं हो पाता
है, पुस्तक
की हर प्रगति
को घर आकर
स्वयं बताना,
मेरे को
उनके प्रति
प्रेम से भर
देता है।
मेरे
सभी मित्रों व
स्नेहीजनों
का हृदय से
अनुग्रह
व्यक्त करता
हूं आपका स्नेह, प्रेम व
सहयोग हर पल
मेरे साथ है।
जीवन ने कभी
अवसर दिया तो
फिर कभी जरूर
आप सभी के साथ
मिलकर ओशो का
उत्सव मनाऊं—गा।
यदि ऐसा नहीं
हो पाता है तो
भी हृदय से तो
मैं आप सभी के
साथ हमेशा
रहूंगा।
—
स्वामी आनंदस्वभाव
ओशो धर्मदूत
कल्याणीनगर,
पुणे
नमस्कार | शिष्य की गुणवत्ता,शिष्य का दायित्व,शिष्य का समर्पण,गुरु संग चलने की,खेलने की,दौड़ने की,,,,,,ललक,उट्टकंठा,आतुरता,यह सबका दर्शन रूप यह पुस्तक नहीं बल्कि भावविभोर,उर्मिप्रधान ग्रंथ होगा | प्रणाम ओशो |
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