अध्यात्म
की यात्रा, ध्यान की
राह, भक्ति
की डगर.. .इतनी
आसान भी नहीं
होती है। जहां
संसार में
बहुसंख्य एक
दिशा में
सदियों से चला
जा रहा है, वहां
अचानक कोई एक
विपरीत दिशा
में चल पड़े तो कदम—कदम
पर कठिनाइयां
तो अवश्य ही
आती हैं। और
ये कठिनाइयां
और भी अधिक
दुरूह हो जाती
हैं जब हम
बुद्ध के साथ
चल रहे होते
हैं। हमारी
नींद को तोड्ने
के लिए, हमारी
बेहोशी को
समाप्त करने
के लिए, जागृत
व्यक्ति हमें
बार—बार झकझोरता
है, हमारी
तंद्रा को तोड्ने
की कोशिश करता
है। हमारा
सोया मन इन
क्षणों में
इतना भी सतर्क
नहीं रह पाता
कि हर चोट को
तत्काल समझ
पाए, नींद
से जगाने के
प्रयास को
प्रेम पूर्वक
देख पाए।
और
बुद्ध जब ओशो
जैसे हों तो
सच मानो की यह
बात और भी
कठिन हो जाती
है। ओशो के
साथ होना
तलवार की धार
पर चलने जैसा
है। किस समय, किस तरह
से ओशो चोट कर
देते हैं पता
ही नहीं चलता।
ओशो
अपनी
पुस्तकों को
लेकर विशेष
रूप से सचेत रहते
थे। हर पुस्तक
का शीर्षक, सभी
अध्यायों के
उप—शीर्षक, प्रथम पृष्ठ
का फोटो, भीतर
के फोटो, पिछले
पृष्ठ पर आने
वाला फोटो तथा
कोटेशन सब ओशो
स्वयं तय करते।
पुस्तक को
जितना अधिक
सुंदर से
सुंदर बनाया
जा सके उतना
ओशो हमें प्रेरित
करते, सुझाव
देते। ओशो को
अपनी
पुस्तकें
हार्ड बाउंड
में पसंद थी।
उनका कहना था
कि ये
पुस्तकें
सदियों तक
लाखों लोगों
को राह
दिखाएगी।
एक बार
की बात है ओशो
का जन्म दिन 11
दिसंबर आया।
उस समय हम
वर्ष भर में
चार उत्सव बडी
धूमधाम से
मनाते थे।
हजारों मित्र
भारत भर से आ
जाते। जब ओशो
के दीवानें
इकट्ठे होते
हैं तो उनका
मिलन ही अपने
आपमें उत्सव
बन जाता है।
उस उत्सव के
दौरान ओशो की
नई आई ग्यारह
पुस्तकें मैं
ओशो को दिखाने
ले गया।
सभी
मित्रों ने हर
पुस्तक पर अथक
मेहनत की थी।
सुंदर साज—सज्जा
और आकर्षक
पुस्तकें ओशो
को दिखाते मैं
बहुत खुश हो
रहा था। ओशो
एक—एक पुस्तक
देखते, पहला पन्ना,
भीतर के
पन्ने, उलट—पुलट
कर चारों तरफ
से देख रहे थे।
अचानक ओशो ने
पुस्तकें
देखते हुए एक
पुस्तक को दूर
फेंक दिया।
मैं तो बड़ा डर
गया कि यह
क्या मामला है।
कहां गलती रह
गई, क्या
खराबी हो गई? मैं बड़ा पशोपेश
में पड़ गया।
मैं तो भीतर
ही भीतर कैप
गया। हमने
अपनी तरफ से
इतनी मेहनत की,
पुस्तक को
सुंदर बनाने
में कोई कसर
नहीं छोडी
और ओशो ने उसे
दूर फेंक दिया।
अब क्या होगा?
सच कहूं उन
पलों में मैं
भीतर तक कंप
गया। वे पल
ऐसे तेज धार
जैसे हो गये
मानों
कोई आग
की लकीर हो।
मैं सचमुच
अनायास अ—मन
की दशा में आ
गया। कुछ पल
ऐसे ही गुजरे
फिर ओशो बोलते
हैं, 'स्वभाव
वो पुस्तक
देना तो।’ मैं
कंपकंपाते
हाथ से पुस्तक
उठा कर उन्हें
दे देता हूं।
और ओशो मुस्कराकर
बोलते हैं, ' मैं तो इसकी
बाइंडिंग देख
रहा था कि
कितनी मजबूत है।
बड़ी मजबूत है,
कहां से
करवाते हो?' कोई अनुमान
भी नहीं लगा
सकता कि अचानक
मैं कितना खुश
हो गया। जहां
एक पल पहले
मैं असंमजस
की स्थिति में
किंकर्तव्यविमूढ़
सा खडा का खडा रह गया
था वहीं अचानक
अब जैसे
प्रसन्नता के
सातवें आसमान
पर पहुंच गया।
कुछ पलों में
ओशो ने बात की
बात में ऐसे
अनुभव से
गुजार दिया कि
कोई संभवतया
सात जन्मों
में भी नहीं
कर पाए। चिंता,
भय, कष्ट
भी इतना कि
कहना मुश्किल
और बात की बात
में ऐसी खुशी
कि बस सारा
अस्तित्व उस
खुशी में शामिल
हो गया। आज जब
ऐसी कितनी ही
घटनाओं को
देखता हूं तो
पाता हूं कि
कितनी सहजता
से ओशो हमें
नित—नई अनुभूतियों
से गुजार रहे
थे। ध्यान और
अ—मन की दशा
में कितनी
सहजता से ले
जा रहे थे।
आज
इति।
🌺🙏🙏🙏🌺
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