हम सभी के
बीच सरदार गुरुदयाल
सिंह बहुत
प्रसिद्ध हैं।
वे अपने आपमें
अनूठे सज्जन
थे। उनकी
जितनी तारीफ
की जाए कम है।
ओशो ने अपने
प्रवचनों में
सरदार गुरुदयाल
सिंह के बारे
में बहुत कुछ
बोला है। उनकी
हंसी के ठहाके
जग प्रसिद्ध
हैं। वे मेरे
बहुत ही अजीज
मित्र थे।
शुरू में
मुलाकात हुई
और हमारे बीच
कोई बात बन गई।
उनमें एक
भोलापन था, जिसका
आनंद उनके साथ
रहने में आता
था। यह घटना
उन दिनों की
है जब ओशो
माउंट आबू में
ध्यान शिविर
लिया करते थे।
वहां
शिविर के
दौरान एक दिन
मैं जब सुबह
शिविर स्थल पर
पहुंचा तो
मुझे पता चला
कि सरदार गुरुदयाल
सिंह को वहां
से निकाल दिया
गया है।
क्योंकि
जयंती भाई को
उनका विदेशी लडकियों
के साथ घूमना—फिरना, साथ रहना
पसंद नहीं आया।
मुझे यह बात
बडी अजीब लगी।
मैंने पूछा कि
'भाई सरदार
को क्यों
निकाल दिया?' तो मुझे
जवाब मिला कि
उन्होंने ऐसा—ऐसा
किया और इस
कारण उन्हें
निकाल दिया और
ज्यादा जानना
है तो ओशो से
पूछो।
मैं
दिन में ओशो
से मिलने गया
और उन्हें
बताया कि 'सरदार को
निकाल दिया
गया है।’ यह
बात उन्हें
पता नहीं थी।
वे बोले, 'भारतीय
मन अभी बहुत
दमित है।
पश्चिम का मन
सहज है। दोनों
की जीवनचर्या
बडी अलग है।
कुछ लोग उनके
साथ सहज हो
जाते हैं, जब
कि अधिकांश के
लिए थोड़ा जटिल
मामला हो जाता
है।’ सरदार
को इस हिदायत
के साथ वापस
बुला लिया गया
कि यहां पर
सार्वजनिक
जगह पर अपने
व्यवहार में
सावधानी बरते।
और हमारे
मित्र फिर
हमारे साथ आ
गये, उनके
हंसी के ठहाके
फिर चारों तरफ
सुनाई देने लगे।
यह सच
है कि हम हर
व्यक्ति से, हर कृत्य
से राजी नहीं
हो सकते।
हमारे मतभेद
होना
स्वाभाविक है।
लेकिन जब हम
किसी व्यक्ति
को ओशो से दूर
करें, या
ओशो के कार्य
से, उनके
स्थल से दूर
करें, तो
यह बहुत जरूरी
है कि हर आयाम
से हम इस बात
को जांच लें, परख लें कि
कितनी हमारी
ईर्ष्या काम
कर रही है, कितना
हमारा
विद्वेष बीच
में आ रहा है, कितना हमारा
अपना
व्यक्तिगत
संबंध बात को
बिगाड़ रहा है।
शुभ तो यही हो
कि हम अपने पर
काम करें, यदि
किसी व्यक्ति
को लेकर हमें
ईर्ष्या है, या विद्वेष
है तो अपनी
ईर्ष्या पर
काम करें। यह
बड़ा आसान है कि
किसी व्यक्ति
को हटा दिया
जाए। और यह
अधिक आसान हो
जाता है जब आप
ऐसी जगह हों जहां
आप निर्णय ले
सकें या अपनी
बात मनवा सकें।
सरदार गुरुदयाल
सिंह से किसी
को व्यक्तिगत
समस्या हो
सकती है। उनके
साथ रहने वाली
किसी लड़की को
लेकर किसी का
ईर्ष्या से
भरना संभव है, लेकिन इस
मुद्दे को
आधार बनाकर
उन्हें शिविर
स्थल से जाने
को ही कह देना
उचित नहीं कहा
जा सकता। जब
ओशो के सामने
यह बात गई तो
उन्होंने
तत्काल सरदार
को वापस बुलवा
लिया। ओशो के
आसपास होने
वाली ये छोटी—छोटी
घटनाएं भी
बहुत सिखाती
है कि विभिन्न
स्थितियों
में किस तरह से
विवेक पूर्ण
निर्णय लिये
जाते हैं।
आज इति।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें