ओशो एक बार
आकर अपनी
कुर्सी पर
विराजमान
होते तो बिना
रुके बिना
किसी तरह के
विश्राम या
ब्रेक के
लगातार बोलते
जाते। लगभग
चालीस सालों
तक यह सिलसिला
अनवरत चलता
रहा। इस सूरज
तले शायद ही
कोई ऐसा विषय
होगा जिस पर ओशो
ने अपनी बात न
कही हो।
दुनिया भर से
श्रेष्ठतम
प्रतिभावान, कलाकार, प्रोफेसर्स,
दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक,
डॉक्टर्स,
इंजीनीयर्स,
साहित्यकार,
कलाकार ओशो
के पास आए और
जीवन के हर
आयाम से संबंधित
प्रश्न पूछे
और ओशो हर
प्रश्न, हर
विषय पर इस
तरह बोलते कि
सुनने वाले बस
सुनते ही रह
जाते।
विभिन्न
विषयों को, जीवन को इस
तरह से भी
देखा जा सकता
है यह सुन कर ही
अचंभित हो
जाते।
इसी के
साथ ओशो बोलते
समय शब्दों के
बीच अंतराल
देते। उनका
कहना रहा है
कि सुनते हुए
सुनने वाले को
ध्यान में ले
जाने का उनका
अपना बनाया उपाय
है। शायद ही
कभी किसी ने
बोलने का
उपयोग इस तरह
से किया हो।
और फिर ओशो की वाणी, ऐसी मदमस्त कर देने वाली, इतनी सुहानी, इतनी कर्ण प्रिय, इतनी सुरीली की शायद ही किसी गायक का गला ऐसा रहा होगा। उनको सुनते यूं लगता है कि बस कोई लोरी सुना रहा हो। यदि किसी को नींद न आती हो, तो ओशो का कोई भी प्रवचन सुनें कुछ ही देर में नींद आ जाएगी।
और फिर ओशो की वाणी, ऐसी मदमस्त कर देने वाली, इतनी सुहानी, इतनी कर्ण प्रिय, इतनी सुरीली की शायद ही किसी गायक का गला ऐसा रहा होगा। उनको सुनते यूं लगता है कि बस कोई लोरी सुना रहा हो। यदि किसी को नींद न आती हो, तो ओशो का कोई भी प्रवचन सुनें कुछ ही देर में नींद आ जाएगी।
ओशो एक
बार में एक
घंटे से लेकर
चार घंटे तक
बोलते रहे हैं।
सामान्यतया डेढ़ से दो
घंटे ओशो
बोलते। ऐसा कई
बार होता कि
हम कुछ मित्र
ओशो के प्रवचन
के दौरान सबसे
पीछे की तरफ
बैठ जाते ताकि
वहां टांगे
पसार सकें, लेट सकें।
एक दिन
ऐसा हुआ कि मा
मुक्ता आई और
मुझे पीछे से
उठाकर ठीक ओशो
के सामने बैठा
दिया। जैसे ही
ओशो आए मुझे
यूं लगा जैसे
ओशो का शरीर नहीं
है, कोई
अं जैसी आकृति
वहां है और
वही आकृति
कुर्सी पर
विराजमान हो
गई। जब प्रवचन
शुरू हुआ तो
उनके वचन मुझे
यूं लगे मानो
संगीत बज रहा
है। और भीतर
रीढ़ में कुछ
गरम— गरम जैसा
कुछ पिघल रहा
है। मेरा पूरा
आसन गिला हो
गया। जब ओशो
ने 'आज
इतना ही' बोला
तो मैंने आंखें
खोल कर देखा।
वो जो
प्रकाशपुंज
था, वह
शरीर में बदल
गया और ओशो
धीरे— धीरे
अपने कक्ष में
चले गए। मैं आंखें
बंद करके बैठा
रह गया। बाद
में मुझे
बताया कि ओशो
ने भीतर जाकर
लक्ष्मी को
कहा कि 'स्वभाव
वहां बैठा है,
उसे बैठा
रहने दो।’ वर्ना
सामान्यतया
ओशो के जाने
के बाद सभी को
उठना होता था
क्योंकि सफाई
शुरू हो जाती।
कुछ समय बाद
मैं धीरे—
धीरे चलता हुआ
बाहर चला गया।
मैंने यह
प्रश्न ओशो को
पूछा जिसका
उत्तर ओशो ने
दिया, प्रस्तुत
है वह प्रवचनांश
आपके लिए:
प्रश्न
:
ओशो, आज बडी
मुद्दत के बाद
आपके सम्मुख
होने का अवसर
मिला। एक अजब
अनुभव से
गुजरा। ऐसा
लगता था जैसे आंखों
के सामने
प्रकाश ही
प्रकाश है। और
बडी अजीब सी
सुगंध से
नासापुट भर गए
थे। रीढ़ में
अंदर पसीना सा
जा रहा था।
मैं कहां था, खबर नहीं है।
शब्दों का बस
संगीत था—पहली
बार, अर्थ
न था।... आनंद, प्रभु आनंद!
स्वभाव!
सन्मुख होना
ही सत्संग है।
लेकिन सन्मुख
होना सिर्फ
भौतिक अर्थों
में कोई
सार्थकता
नहीं रखता।
ऐसे तो कोई
सामने बैठ
सकता है और
फिर भी उसकी पीठ
हो। अगर मन
में विचारों
का ऊहापोह चल
रहा है, तो सन्मुख
होकर भी तुम
विमुख ही
रहोगे। मन में
ऊहापोह
समाप्त हो गए
हों, विचारों
की तरंगें न
हों, मन एक
शांत झील हो
गया हों—तो
फिर तुम कहीं
भी हो, सन्मुख
हो।
सन्मुखता एक आंतरिक
अवस्था है।
बैठते—बैठते
सत्संग में
कभी घटती है।
तुम्हारे
घटाए तो घट
नहीं सकती, कि तुम
चाहो तो घट
जाए। क्योंकि
तुम्हारी चाह
भी बाधा है।
तुम्हारी चाह
भी एक विचार
है, एक
चेष्टा है। और
जहां विचार है,
चेष्टा है,
वहीं विमुखता
है। इसलिए
अनायास ही
घटती है।
धैर्य चाहिए।
बैठते रहे
सत्संग में, उठते रहे
सत्संग में
कोई जल्दी न
की, कोई
अपेक्षा न की—तो
किसी न किसी
दिन तुम अचानक
अपने को सन्मुखता
में पाओगे। और
तब यह घडी घेर
लेगी तुम्हें।
यह अपूर्व
अनुभव होगा।
क्योंकि जब
तुम सदगुरु
के सन्मुख
होते हो तो
तुम भी मिट
जाते हो, सदगुरु
भी मिट जाता
है।
इस
आधारभूत बात
को ठीक से समझ
लेना। जब तक
मैं का भाव है, तभी तक तू
भी है। मैं और
तू एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जब
तक शिष्य हैं
तभी तक गुरु
भी हैं। गुरु
की तरफ से तो न
गुरु है न
शिष्य है। शिष्य
की तरफ से
शिष्य भी है
और गुरु भी है।
जैसे ही शिष्य—
भाव मिटा, जैसे
ही तुम शांत
हो गए, इतनी
भी अस्मिता न
रही, इतना
भी अहंकार न
रहा कि मैं
हूं कि मैं
शिष्य हूं कि
मैं धार्मिक
हूं कि
संन्यासी हूं
कि सत्य का
खोजी हूं
अन्वेषी हूं—ऐसा
कोई भाव ही न
रहा; एक निर्भावदशा
हो गई—उसी
क्षण गुरु भी
मिट गया। न
तुम रहे न
गुरु रहा। तब
अपूर्व
प्रकाश का
अनुभव होगा।
वह प्रकाश
मेरा नहीं है,
वह प्रकाश
तुम्हारा
नहीं है, वह
प्रकाश
परमात्मा का
है। जहां मैं
नहीं, जहां
तू नहीं वहां
जो शेष रह
जाता है उसी
का नाम
परमात्मा है—उस
शून्य का, उस
सन्नाटे का!
वही
हुआ। तुम कहते
हो: 'आज
बड़ी मुद्दत के
बाद आपके
सन्मुख होने
का अवसर मिला।’
मुद्दत
के बाद भी मिल
जाए तो जल्दी
है। मुद्दत के
बाद भी मिल
जाए तो
सौभाग्य है।
क्योंकि लोग
इतने अंधे हैं, आते भी
हैं मगर आते
कहां हैं!
बहरे हैं, सुनते
हैं मगर सुनते
कहां! न सुनते
हैं, न
देखते हैं; क्योंकि
भीतर इतना
उपद्रव चल रहा
है, भीतर
इतना शोरगुल
मचा है। इस
शोरगुल के
कारण ही हम
चूक रहे हैं।
नहीं तो
वृक्षों के
पास बैठ जाओगे,
वहां भी यही
प्रकाश प्रकट
होगा। जहां
बैठ जाओगे
शांत होकर, मौन होकर, जहां मैं
मिटा वहीं प्रकाश
प्रकट हुआ। यह
मैं की मृत्यु
पर अनुभव होता
है।
सम्मुख
होने का इतना
ही अर्थ है कि
शिष्य का मैं
मिट जाए।
विमुख होने का
अर्थ है—मैं
सघन। फिर पीठ
हो गुरु की
तरफ या मुंह
हो गुरु की
तरफ कुछ भेद
नहीं पड़ता।
पास रहो कि
हजार मील दूर
रहो, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। तुम
कहते हो : एक
अजब अनुभव
गुजरा।
अजब
लगेगा, क्योंकि कभी
पहले हुआ नहीं।
अन्यथा
बिलकुल
स्वाभाविक है,
नैसर्गिक
है। मगर जैसे
अंधे आदमी को
अचानक आंख
मिले तो
प्रकाश का
अनुभव बड़ा अजब
अनुभव होगा; हालांकि
जिनके पास आंखें
हैं वे कहेंगे,
इसमें अजब
क्या, इसमें
गजब क्या? अंधे
को आंख मिलें
और फूलों के
रंग दिखे और
इंद्रधनुष
सतरंगा और
तितलियों के
पंख! अजब
अनुभव होगा। आंख
वालों से
कहेगा कि बड़ा
अजब अनुभव हुआ;
वे कहेंगे,
इसमें अजब
क्या! फूलों
में रंग होते
हैं, इंद्रधनुष
सतरंगा होता
है, तितलियों
के पर
परमात्मा
अपनी तूलिका
से खूब लता है!
इसमें अजब कुछ
भी नहीं। मगर
अंधा भी ठीक
कह रहा है, गलत
नहीं कह रहा
है। ऐसा पहले
नहीं हुआ था।
उसके पास ऐसी
कोई स्मृति
नहीं है जिसके
आधार पर इसे
समझ सके।
अजब का
इतना ही अर्थ
होता है कि
हमारा अतीत कोई
कुंजी नहीं
देता, हमारा
अतीत पृष्ठभुमि
नहीं देता; हमारे अतीत
से कोई संदर्भ
नहीं उठता, हमारा अतीत
एकदम अवाक रह
जाता है, मौन
रह जाता है, बोल भी नहीं
पाता। एक क्षण
को
आश्चर्यचकित,
विमुग्ध, ठगे—ठगे हम
रह जाते हैं।
अवाक। वाणी खो
जाती है। शब्द
खो जाते हैं, शान खो जाता
है, सूझ—बूझ
खो जाती है।
एक रहस्य किसी
अज्ञात लोक से
उतर कर हमें
घेर लेता है।
हम रहस्य में नहा जाते
हैं।
यही
परमात्मा के
अनुभव की
शुरुआत है
स्वभाव! परमात्मा
ने पहली बार
दस्तक दी
तुम्हारे
द्वार पर।
निश्चित
ही परमात्मा
को हमने पहले
जाना नहीं।
उसकी दस्तक भी
अपरिचित है।
अगर सामने भी
परमात्मा खड़ा
हो जाए तो हम
एकदम से पहचान
न सकेंगे।
इसीलिए तो सदगुरु
की जरूरत है, कि जब
परमात्मा
तुम्हारे
सामने खड़ा हो
तो तुम्हें झकझोरे और
कहे कि भर आंख
देख लो, जी
भर पी लो! इसी
की तलाश थी जन्मों—जन्मों
से। जिसको
खोजते थे, आज
द्वार पर खड़ा
है। कहीं ऐसा
न हो कि आई शुभ
घड़ी चूक जाए।
भर लो झोली, भर लो प्राण!
यह जो सुगंध
बरस रही है, यह सदा के
लिए तुम्हारी
हो सकती है।
लेकिन प्रत्यभिशा
दो तरह से हो
सकती है. या तो
तुम्हारी
स्मृति में
कोई अनुभव हो
तो तुम पहचान
कर लो; या
किसी और, पहचान
जिसको हो, उसके
कहे पर भरोसा
कर लो, श्रद्धा
कर लो। इसीलिए
धर्म श्रद्धा
के बिना नहीं
जी सकता।
विज्ञान बिना
संदेह के नहीं
जी सकता, धर्म
बिना श्रद्धा
के नहीं जी
सकता। उनकी
विधियां
विपरीत हैं।
विज्ञान को
जीना हो तो
संदेह करना ही
होगा।
विज्ञान की
पूरी कला
संदेह की कला
है। संदेह को निखारो, उसको धार दो।
जितना संदेह
कर सकते हो
उतनी ही
तुम्हारे
भीतर
वैज्ञानिक
प्रतिभा
विकसित होगी।
कुछ भी मान न
लो, परीक्षण
करो, प्रयोग
करो हजार—
हजार तरह से जांचो, परखो।
जब कोई उपाय
ही न रह जाए
इनकार करने का
तब मानना। और
तब भी मत कहना
कि सत्य है यह,
इतना ही
कहना
परिकल्पना है,
हाइपोथिसिस है। इतना ही
कहना कि अब तक
जो मैंने
जांचा—परखा है,
उसमें ठीक
लग रहा है, लेकिन
कल हो सकता है
और नये तथ्यों
का पता चले और
गलत हो जाए।
इसलिए
कामचलाऊ है। विज्ञान
के सभी
सिद्धात
कामचलाऊ हैं।
अभी तक के लिए
सच हैं, कल
का कुछ भरोसा
नहीं।
विज्ञान
कहता है कि सब
तरफ से जांचना; फिकर
इसकी ही करना
कि किसी तरह
गलत हो जाए।
जब गलत हो ही न
सके तो मान
लेना। मजबूरी
में मानना।
और
धर्म कहता है
बिलकुल उलटी
बात। धर्म
कहता है :
श्रद्धा के
बिना एक कदम
आगे न बढ़ा जा
सकेगा।
तुम्हारे
अनुभव में तो
परमात्मा की
कोई पहचान
नहीं है। अगर
तुम इनकार करते
गए तो यह
पहचान कभी
होगी भी नहीं।
किसी पहचान
करने वाले से
दोस्ती बना लो।
किसी पहचान
करने वाले का
हाथ पकड़ लो।
किसी की पहचान
हो गई हो, उसके साथ
अपना तारतम्य
जोड़ लो। यही
शिष्यत्व है।
उसके साथ
संदेह करोगे,
विचार
करोगे, तर्क
करोगे, विवाद
करोगे—दूर—दूर
रहोगे फिर, फासला बना
रहेगा। उसके
साथ तो प्रेम
ही हो सकता है।
श्रद्धा
प्रेम की ही
सघनता है—इतनी
सघनता कि सदगुरु
अगर दिन को
रात कहे तो भी
शिष्य मानने
को राजी हो
जाता है। ऐसा
नहीं कि मानने
के लिए चेष्टा
करता है।
चेष्टा की, तो उसका
अर्थ है कि
भीतर अभी
संदेह था। चेष्टा
करता ही नहीं।
तिब्बत
में एक बहुत
महत्वपूर्ण
कथा है। मारपा
अपने गुरु के
पास गया।
मारपा एक बहुत
अदभुत संत हुआ।
मारपा नया—नया
था, लेकिन
श्रद्धा उसकी प्रगाढ़ थी।
ऐसी प्रगाढ़
कि एक दिन
गुरु ने कहा
कि श्रद्धा अगर
पूरी हो तो
आदमी जल पर भी
चल सकता है।
गुरु तो समझा
ही रहा था।
लेकिन मारपा
गया और नदी पर
चल गया। और
शिष्यों ने
देखा मारपा को
नदी पर चलते
देख कर
ईर्ष्या जगी।
उन्होंने भी
कोशिश की, किनारे
पर डुबकी खा
गए। मारपा नया—नया
था, और
शिष्य पुराने
थे। और
उन्होंने
गुरु को आकर
कहा कि मारपा
नदी पर चल रहा
है। गुरु भी
थोड़ा हैरान
हुआ। उसने
सोचा भी नहीं
था कि कोई
चलेगा, वह
खुद भी कभी
चला नहीं था।
यह तो शास्त्र
को समझा रहा
था। फिर एक
दिन यह हुआ कि
गुरु समझा रहा
था कि श्रद्धा
अगर पूर्ण हो
और कोई पर्वत
से भी कूद पड़े
तो खरोंच नहीं
लगती। मारपा
गया और कूद
गया। और खरोंच
न लगी। और
शिष्यों ने भी
सोचा, हिम्मत
की, लेकिन
देखी गहराई; पानी पर तो
चलने की कोशिश
भी की थी कि
किनारे डूब गए,
वापस लौट आए
थे; यहां
से तो लौटने
का भी उपाय
नहीं था, यहां
से गिरे तो गए।
छोटे—मोठे
पत्थरों पर से
कूद कर देखा, उसी में हाथ—पैर
टूट गए। लौट
कर गुरु को कहा।
गुरु को
अहंकार जगा।
गुरु कोई गुरु
न रहा होगा।
थोथे गुरु! सौ
में
निन्यानबे
थोथे ही होते
हैं। जहां
असली सिक्के
होते हैं वहां
नकली सिक्के भी
चलेंगे ही।
असली होते हैं,
इसलिए तो
नकली चलते हैं।
असली न हों तो
नकली चल भी
नहीं सकते।
और
नकली सिक्कों
की एक खूबी होती
है—
अर्थशास्त्र
का नियम है—कि
नकली सिक्के
असली सिक्कों
को चलन के
बाहर कर देते
हैं।
तुम्हारी जेब
में अगर दस
रुपये का एक
नकली नोट है
और दस रुपये
का एक असली
नोट है तो
पहले तुम नकली
को चलाओगे।
स्वभावत: इससे
जितनी जल्दी
झंझट मिटे
उतना बेहतर।
पान वाले को पकडाओगे, सब्जी
वाले को पकड़ाओगे,
जहां भी चल
जाए चला दोगे।
असली को बचाओगे,
नकली को
चलाओगे। और
अगर सभी के
पास नकली
रुपये हैं तो
बाजार में
नकली रुपये ही
चलेंगे, असली
तिजोडियों
में बंद हो
जाएंगे।
और यही
अकसर सदगुरुओं
के संबंध में
होता है। असली
सदगुरु
चल नहीं पाते।
नकली सदगुरु
खूब चलते हैं।
नकली सदगुरु
इसलिए चल जाता
है कि वह
तुम्हारी
आकांक्षाओं की
तृप्ति का
भरोसा दिलाता
है, आश्वासन
दिलाता है। वह
तुम्हें
सांत्वना
देता है, संक्रांति
नहीं, वह
तुम्हें
संतोष देता है,
रूपांतरण
नहीं, वह
तुम्हारी
मलहम—पट्टी
करता है, तुम्हारे
जीवन को नये
आयाम नहीं
देता।
ऐसा ही
यह मारपा का
गुरु रहा होगा।
उसे अहंकार
जगा कि जब
मेरा शिष्य
नदी पर चल गया, पहाड़ से
कूद गया, तो
मैं तो चल ही
सकता हूं।
पूछा
उन्होंने
मारपा को कि
तू कैसे चला।
उसने कहा कि
कुछ नहीं, बस
आपका नाम लिया
और चल गया। के
अहंकार की तो
कोई सीमा न
रही कि मेरा
नाम जब इतना
काम कर सकता
है गुरु
तो मैं
क्या नहीं कर
सकता! गुरु ने
शिष्यों को इकट्ठा
किया और कहा.
आओ नदी पर! और
गुरु चला कि
पहले ही कदम
पर डुबकी खा
गया। पहाड़ से
कूदने की तो
फिर उसने
कोशिश ही नहीं
की।
गुरु
को डुबकी खाते
देख कर मारपा
बडा हैरान हुआ।
पूछा गुरु से, इसका राज
क्या है? गुरु
मारपा के
चरणों पर गिर
पड़ा और उसने
कहा : ' मुझे
माफ करो।’ मेरा
अपना कोई
अनुभव नहीं है।
मैं तो
शास्त्र समझा
रहा था। लेकिन
तुम्हारी
श्रद्धा
अपूर्व है, कि तुमने
झूठे पर भी
श्रद्धा की तो
भी काम कर गई।’
श्रद्धा
का रसायन बडा
गहरा है। झूठे
पर भी श्रद्धा
काम कर सकती
है, क्योंकि
सवाल झूठ और
सच का नहीं है
सवाल श्रद्धा
का है।
श्रद्धा
तुम्हारे
भीतर एक
आत्मबल जगाती
है, एक
ऊर्जा का
स्फुरण होता
है तो कभी—कभी
झूठे गुरुओं
के पास भी
सच्ची
श्रद्धा ने भवसागर
पार कर लिया
है। और अकसर
सच्चे गुरुओं
के पास भी
श्रद्धा न हो तो
लोग पत्थरों
की तरह बैठे
रहे हैं; उनके
प्रायों
में कोई वीणा
नहीं बजी, कोई
गीत नहीं जगा।
स्वभाव, तुम्हारे
भीतर धीरे—
धीरे श्रद्धा
का जन्म हो
रहा है। मैं
रोज श्रद्धा
में नये— नये
पत्ते लगते
देख रहा हूं।
तुम धीरे—
धीरे मिटे जा
रहे हो। जितना
मिटोगे उतना
ही प्रकाश
अनुभव होगा।
जहां मिटे, कि प्रकाश
ही प्रकाश है।
अहंकार
अंधेरा है और निरहंकारिता
प्रकाश है।
अहंकार
दुर्गंध है और
निर—अहंकारिता
सुगंध है।
तो इस
भ्रांति में
मत पडना कि
मेरा प्रकाश
था, जो
तुमने जाना।
इस भ्रांति
में मत पड़ना
कि वह मेरी
सुगंध थी, जो
तुमने जानी।
वहां कहां
मेरा, कहां
तेरा! वहां
सुगंध है; न
मैं है न तू है।
वहां प्रकाश
है, न मैं
है न तू है।
तुम
कहते हो : 'ऐसा लगता था
जैसे आंखों के
सामने प्रकाश
ही प्रकाश है।’
अब तुम किसी
झूठे गुरु से
जाकर कहोगे तो
वह कहेगा. 'हां,
वह मेरा
प्रकाश था—वह
मेरी समाधि का,
मेरे योग—बल
का!' अगर
कोई कहे वह
मेरा प्रकाश
था, तो समझ
लेना कि यह
जगह रुकने की
नहीं है, यहां
से हट जाना।
क्योंकि जहां
मेरा और मैं
है वहां तुम
मिट न सकोगे।
वहां
तुम्हारा तू
भी जिंदा
रहेगा, सूक्ष्म
भाव से जिंदा
रहेगा। तुम
कहते हो. 'और
एक बडी अजीब
सी सुगंध से
नासापुट भर गए।’
पहली
बार जब अनुभव
होता है तो
आश्चर्य—विमुग्ध
कर जाता है, चकित कर
जाता है, चौंका
जाता है।
'रीढ़
में अंदर
पसीना सा आ
रहा था।’
जब
तुम्हारे
भीतर प्रकाश
भरेगा, ऊर्जा उठेगी
तो रीढ़ पर यह
अनुभव हो सकता
है। क्योंकि
रीढ़ तुम्हारे
मस्तिष्क से
जुड़ी है। रीढ़
और मस्तिष्क
अलग—अलग नहीं
हैं। वैज्ञानिक
तो कहते हैं.
मस्तिष्क रीढ़
का ही फूल है।
जैसे वृक्ष
में फूल लगता
है, ऐसे
रीढ़ के ही
ऊपर जाकर
मस्तिष्क लगा
है। मस्तिष्क रीढू का ही
एक विकसित रूप
है। रीढ़ और
मस्तिष्क एक
ही श्रृंखला
में बंधे हैं।
इसलिए
जैसे ही
तुम्हारे
भीतर
मस्तिष्क में
अहंकार—शून्यता
पैदा होगी, मैं— भाव
मिटेगा, विचार
क्षण भर को भी
ठहर जाएंगे—वैसे
ही रीढ़ में
कोई सोई ऊर्जा
जगने लगेगी।
उसको ही हमने
कुंडलिनी कहा
है। वह बड़ी
उत्तप्त
ऊर्जा है।
लगेगा पसीना—
पसीना हो गए।
लेकिन बड़ा
प्रीतिकर
लगेगा वह
अनुभव भी। और
वह पसीना भी
बहुत शीतल कर
जाएगा। वह कोई
साधारण पसीना
नहीं है। पहले
तो साधारण ही
लगेगा, क्योंकि
हम साधारण
पसीने से ही
परिचित हैं, और किसी तरह
का पसीना तो
हमने जाना
नहीं।
जब
मोहम्मद को
पहली बार परमात्मा
का अनुभव हुआ, तो वे
भागे हुए घर
आए और कंबल ओढ़
कर सो गए।
उन्होंने
पत्नी से कहा :
और कंबल जितने
घर में हों, मेरे ऊपर
डाल दे। मुझे
लगता है बुखार
है। पसीना—पसीना
हुआ जा रहा
हूं। पत्नी ने
उनके ऊपर कंबल
पर कंबल डाल
दिए। वे कैप
रहे हैं और
पसीना—पसीना
हुए जा रहे
हैं। पत्नी ने
पूछा कि आप
भले—चंगे
घर से गए थे, अभी थोड़ी
देर पहले ही
घर से गए थे।
अचानक ऐसा बड़ा
बुखार कैसे आ
गया?
मोहम्मद
ने कहा : तू
पूछती है तो
मैं तुझे कहता
हूं। मगर किसी
और को मत
बताना। मैं पहाडी पर
जाकर बैठा था
ध्यान करने, कि आवाज
आई—बोल!
गुनगुना! पढ़!, मैं बहुत
घबड़ाया। आवाज
बाहर से भी
आती लगती थी
और भीतर से भी
आती लगती थी।
जैसे बाहर और
भीतर एक हो गए
थे! कोई मेरे
अंतस्तल से
बोल रहा था और
वही आकाश से
भी बोल रहा था।
और मैं तो बेपढा—लिखा
हूं तो मैंने
कहा, मैं पढूं क्या
खाक! मैं तो बेपढा—लिखा
हूं! लेकिन
फिर आवाज आई
कि तू फिकर मत
कर, जब मैं
साथ हूं तो लंगडे
पर्वत चढ़ जाते
हैं, अंधे
रोशनी देख
लेते हैं।
नहीं जो पढ़े
हैं वे पढ़ने
लगते हैं।
नहीं जिनके
कंठ हैं उनसे
गीत फूट पड़ते
हैं। तू गा, गुनगुना, पढ़! और कुछ
हुआ कि मैं
गुनगुनाने
लगा। और ऐसी
अदभुत ऋचाएं
उतरने लगीं, जो मेरे बस
के हैं, जो
मेरी नहीं हैं
ऐसे
कुरान का जन्म
हुआ। कुरान का
इतना ही अर्थ
होता है—कुरान
शब्द का अर्थ
होता है—पढु।
मोहम्मद
ने अपनी पत्नी
से कहा : किसी
और को मत कहना।
या तो मैं
पागल हो गया
हूं या कवि हो
गया हूं दो में
से कुछ एक हो
गया है। और एक
बात पक्की है
कि जो हुआ है
वह मेरे वश के
बाहर है, मेरी
सामर्थ्य के
बाहर है।
मोहम्मद
की पत्नी ही
मोहम्मद की
पहली शिष्या थी।
उसने कहा कि
नहीं; घबड़ाने की कोई बात
नहीं, यह
बुखार नहीं है।
उम्र में भी
बड़ी थी।
मोहम्मद से
अनुभवी भी थी।
मोहम्मद
छब्बीस वर्ष
के थे, पत्नी
चालीस वर्ष की
थी। उसने कहा
कि कुछ अनूठा
हुआ है, कुछ
ईश्वरीय हुआ
है। यह अवस्था
दिव्य भाव की
है, यह
समाधि की है।
तुम्हारे
भीतर से
परमात्मा गुनगुनाया
है। तुम उसकी
बांसुरी बन गए
हो। घबड़ाओ
मत। उठो! और जो
आशा हो उसका
पालन करो।
ऐसा ही
पसीना
तुम्हें
स्वभाव, आ गया होगा। घबड़ाना मत।
कभी और भी
ज्यादा आ सकता
है। कभी तो
बिल्कुल ऐसा
लग सकता है कि
जैसे एक सौ दस
डिग्री बुखार
है। ऐसी
प्रज्वलित
अग्नि भीतर
उठती है, तुम्हारे
ही प्राणों
में सोए हुए
अंगारे सारी
राख झाडू देते
हैं। ऐसे
उत्तप्त हो
उठते हो तुम!
धीरे— धीरे
फिर इस उत्ताप
को भी सहने की
क्षमता आ जाती
है। इसको भी
आत्मसात कर
लेने का गुण आ
जाता है। फिर
इसका उठना बंद
हो जाता है।
कहते
हो. 'मैं
कहां था, खबर
नहीं है।’
थे ही
नहीं। होते तो
खबर होती।
कहते हो कि
शब्दों का बस
तुम
संगीत था—पहली
बार अर्थ न था।
वही मुझे
सुनने का ठीक—ठीक
ढंग है। जब
तुम मुझे ऐसे
सुन सको, जैसे कोई
पहाड़ी झरने का
कल कल नाद
सुनता है या
हवाओं के
झोंकों का
गुजरना वृक्षों
से, या
पक्षियों का
गीत, या
दूर से आती
कोयल की आवाज—
ऐसे जब तुम
मुझे सुन
सकोगे...।
क्योंकि जब तक
अर्थ खोजने की
इच्छा बनी
रहती है तब तक
तुम दूर बने
रहते हो; सुन
रहे हो, लेकिन
भीतर तुम सोच
रहे हो कि ठीक
है या गलत है, मेरे विचार
से मेल खाता
कि नहीं खाता,
मैं जो अब
तक मानता रहा
हूं उसके साथ
बैठता कि नहीं
बैठता। जब तक
तुम इस हिसाब
में पड़े हो...
अर्थ का और
क्या अर्थ
होता है? अर्थ
का यही अर्थ
होता है कि
तुम अपने साथ
तारतम्य
बिठाने की
कोशिश कर रहे
हो; अपने
अतीत, अपने
मन के साथ जोड़—तोड़
बिठा रहे हो।..
.तब तक तुम सुनोगे
तो जरूर, लेकिन
चूक जाओगे।
सत्संग
का वह ढंग
नहीं। सत्संग
तो पागलों की
जमात है। यह
तो मतवालों की
बात है। सुना
नहीं कबीर ने
कल कहा, कि कबीर तो
कलाल है, शराब
बेचने वाला
है! और यह कबीर
का सत्संग तो
शराबखाना है।
सभी
सत्संग मधुशालाएं
हैं। मंदिर—मस्जिदों
से उनका क्या
लेना—देना!
मदिर—मस्जिद
तो होशियार
लोग चलाते हैं, चालाक
लोग चलाते हैं।
संतों के पास मधुशालाएं
निर्मित होती
हैं। वहां पियक्कड़
इकट्ठे होते
हैं। वहां लोग
सुनते हैं।
अर्थ की चिंता
किसको। वहां
पीते हैं। आम
खाते हैं, गुठलियां नहीं गिनते।
गायक
मेरी उलझी
वीणा
कैसे
अरे बजा जाते
हो?
मैंने
चुप—चुप सपने
पाले
चुप—चुप
उर अरमान
सम्हाले
पर
जीवन—रहस्य को
तुम ही
आकर
सदा बजा जाते
हो।
दृग
में घिर—घिर
बादल आते
दृश्य
सामने के छिप
जाते
नीर
भरी पुतली में
छलिया
रह—रह
तुम्हीं लजा
जाते हो।
मधु—पीड़ा
यह उर का
स्पंदन
यह
अतीत की सुख
कर उलझन,
अंतर्यामी
अंतर में तुम
धड़कन
बन कर छा जाते
हो।
परमात्मा
अर्थ नहीं है, अनुभव है,
शब्द नहीं
है, शून्य
है।
गायक
मेरी उलझी वीणा
कैसे
अरे बजा जाते
हो?
तुम हो
एक उलझी वीणा।
जन्मों—जन्मों
से तुमने अपने
तार उलझा रखे
हैं। तुम सुलझाओगे
तो और उलझ
जाओगे। तुम ही
तो उलझाने
वाले हो, सुलझाओगे तुम कैसे? तुम तो रख दो
अपनी वीणा
उसके सामने।
गुरु
तो बहाना है, निमित्त
है। उसके
बहाने तुम
परमात्मा के
सामने अपनी
वीणा रख देते
हो। कहते हो
कि मैं तो
बजाने की बहुत
कोशिश कर चुका,
सिवाय विसंगीत
के कुछ भी
पैदा नहीं
होता। तार टूट
जाते हैं, सब
तार उलझ गए
हैं; कुछ
ठीक—ठिकाना
नहीं है। इस
वीणा से संगीत
पैदा भी हो
सकता है, इसकी
संभावना भी छोड चुका
हूं। अब तुम
ही बजाओ।
गायक
मेरी उलझी
वीणा
कैसे
अरे बजा जाते
हो?
और तब
वे अपूर्व
क्षण आने लगते
हैं। जब उसकी अंगुलियां, अदृश्य अंगुलियां
तुम्हारी
वीणा से
अपूर्व संगीत
को पैदा कर जाती
हैं। वह अर्थ
नहीं है, संगीत
है।
संगीत
में कोई अर्थ
होता है? संगीत में
जो अर्थ खोजने
गया, वह
भूल में पड़ जाएगा।
संगीत तो पीओ,
जीओ, नाचो, गुनगुनाओ। संगीत से भरशइरत हो
जाओ। मैं जो
तुम्हें दे
रहा हूं वह
संगीत है, सिद्धांत
नहीं।
मैंने
चुप—चुप सपने
पाले
चुप—चुप
उर अरमान
सम्हाले
पर
जीवन—रहस्य को
तुम ही
आ
कर सदा बजा
जाते हो।
कितना
ही तुम उपाय
करो, तुम्हारी
बुद्धि से
जीवन के रहस्य
को जानने की
कोई विधि नहीं
है, कोई
द्वार नहीं है।
जितना तुम
उपाय करोगे, उतनी ही
मुश्किल हो
जाएगी।
ईसप की
कहानी है सेंटीपीट
के संबंध में।
एक शतपदी, सौ पैर
वाला जानवर
चला जा रहा है।
सदा से चलता
रहा है। एक
खरगोश ने उसे
देखा! और उसने
कहा चाचा! एक
बात मुझे
हमेशा बड़ी जिज्ञासा
और कुतूहल से
भर देती है कि
सौ पैर हैं, कौन सा पहले
उठाना, कौन
सा पीछे उठाना,
कैसे
सम्हाल लेते
हो? न लड़खड़ाते,
न उलझ जाते।
और सौ पैर! मैं
तो कल्पना ही
करता हूं तो
घबड़ा जाता हूं
कि नंबर एक उठाऊं
कि नंबर दो कि
नंबर तीन, फिर
कौन सा किसके
बाद! सौ का
हिसाब!
शतपदी
ने कहा मैंने
कभी सोचा
नहीं! सोचता
हूं उत्तर
देता हूं। और
सम्हल कर
शतपदी चला और लडूखडा कर
गिर पड़ा। उठना
चाहा तो फिर
गिर पड़ा।
खरगोश को उसने
बड़े तर्रा
कर देखा और
कहा. इस तरह से
गलत जिज्ञासा
कभी किसी और
से मत करना।
अब तक मैं
चलता रहा जन्म
से, कभी
यह झंझट उठी
ही न थी। अब
मैं भी
मुश्किल में
पड गया हूं कि
कौन पहले कौन
पीछे! सौ की
संख्या मुझे
भी कहां आती
हैं, वैसे
भी मैं कभी
स्कूल में
भरती हुआ नहीं।
कहा कि
भैया, तूने
जो मेरे साथ
किया सो ठीक, मैं किसी
तरह अपना
गुजार बसर कर
लूंगा, मगर
अब किसी और
शतपदी से इस
तरह की
जिज्ञासा मत
करना। नहीं तो
हमारा वंश ही
नष्ट हो जाएगा।
तुमसे
कोई पूछ ले, कैसे
श्वास लेते हो?
तुम भी ऐसी
ही मुश्किल
में पड जाओगे।
हालांकि अब तक
लेते रहे हो।
और तुमसे कोई
पूछ ले, कैसे
खून को भीतर
चलाते हो? खून
दौड रहा है, तीव्र गति
से दौड़ रहा है।
और कैसे भोजन
को पचा लेते
हो! और कैसे
रोटी की, सब्जी
की.. .किस
कीमिया से
रक्त बन जाता
है, हड्डी—मांस—मज्जा
बन जाती है? तुमसे कोई
पूछे तो तुम
क्या कहोगे? तुम कहोगे, कभी सोचा
नहीं; यह
सब हो रहा है।
जीवन
का जो भी गहन
है, सब
हो रहा है।
जीवन की गहनता
के लिए कोई
उत्तर नहीं है।
और जिस दिन
तुम समग्र
जीवन को इसी
तरह स्वीकार
कर लेते हो तो
तुम फिर कबीर
का वचन कह
सकते हो—होनी
होय सो होय।
मैंने
चुप—चुप सपने
पाले
चुप—चुप
कर अरमान
सम्हाले
पर
जीवन—रहस्य को
तुम ही
आकर
सदा बजा जाते
हो।
जीवन—रहस्य
तो एक संगीत
की तरह है, जो
परमात्मा
बजाता है; एक
सिद्धात की
तरह नहीं है
जो गणित की
तरह ब्लैक—बोर्ड
पर समझाया
जाता है। एक
संगीत की तरह
है जो वीणा पर
बजाया जाता है,
कि बांसुरी
पर बजाया जाता
है।
ऐसी ही
एक प्रीतिपूर्ण
घड़ी से स्वभाव
तुम गुजरे। यह
घड़ी बार—बार आएगी, मगर कुछ
बातें खयाल
रखना। इसे
लाना मत चाहना,
नहीं तो रुक
जाएगी। अब
इसकी
प्रतीक्षा मत
करना। यह
प्रीतिकर थी,
मधुर थी। यह
तुम्हें मस्त
कर गई।
स्वभावत: मन
कहेगा. और—और, फिर—फिर हो।
बस तुमने चाहा
कि फिर—फिर हो,
कि अड़चन हो
जाएगी।
तुम्हारे किए
हुई भी नहीं
थी, तुम्हारे
चाहे होगी भी
नहीं। हो गई, धन्यवाद दो
परमात्मा को
और भूल जाओ।
कहते
हैं न, नेकी
कर और कुएं
में डाल! नेकी
कर के कुएं
में डालो
या न डालो,
मगर जब भी
ऐसे अनुभव हो,
अनुभव करो
और कुएं में
डाल। पीछे लौट
कर देखना ही
मत। और कभी भी
यह इच्छा, आकांक्षा,
अभीप्सा मत
जगाना कि अब
फिर ऐसा हो; जो कि
स्वाभाविक है।
अगर हो ऐसा तो
मैं तुम्हें
कुछ दोष न दे
सकूंगा। यह
निरंतर का
अनुभव है, रोज
का अनुभव है।
पहली बार जब
किसी को ध्यान
होता है या
ऐसे अपूर्व
अनुभव होते
हैं, तो
स्वभावत: उसके
मन में यह
वासना जगती है
कि अब रोज—रोज
ऐसा हो, अब
फिर—फिर ऐसा
हो। बस वही
वासना बाधा बन
जाती है।
क्योंकि पहली
बार जब हुआ था
ऐसा, तब
कोई वासना
नहीं थी; तब
तो अकस्मात; आई थी कोई
हवा और उड़ा ले
गई थी
तुम्हें! आई
थी कोई गंध और डुबा गई थी
तुम्हें।
वर्षा हो गई
थी। लेकिन अब
तो तुम एक नई
शर्त लगा कर
बैठे हों—होनी
चाहिए! जहां
इस तरह का
दावा है, आग्रह
है—होनी चाहिए—वहीं
बाधा पड़ जाती
है।
इसलिए
पहली बात खयाल
रखना, दुबारा
ऐसा हो, इसकी
आकांक्षा मत
रखना। होगा
बहुत बार होगा,
और—और गहरा
होगा। अभी तो
कुछ भी नहीं
हुआ। यह तो
पहली बूंदा—बांदी है।
अभी तो
मूसलाधार
वर्षा होगी।
लेकिन अगर इसी
की तुमने
आकांक्षा की
तो बूंदा—बांदी भी
बंद हो जाएगी।
और
इसको बौद्धिक
विश्लेषण का
विषय भी मत
बनाना। इस पर
बैठ कर मत
सोचना कि क्या
हुआ, क्यों
हुआ, कैसे
हुआ, नहीं
तो शतपदी की
हालत में पड़
जाओगे। और उलझ
जाओगे। जो एक
घटना हुई थी, जिससे कि बहुत
कुछ सुलझ सकता
था, उस
घटना को भी
अगर बौद्धिक
विचारणा बना
लिया तो वह
घटना भी उलझा
जाएगी
सुलझाने की
बजाय। योग
प्रीतम का यह
गीत तुम्हारे
लिए है :
आंखों
के अंसुवन
में
ओंठों
की पुलकन
में
ढुलक—ढुलक
जाए मेरा
प्यार रे!
प्राणों
का पंछी तो
उडा—उड़ा जाए
रे!
सांसों
का सरगम तो
छिडा—छिड़ा
जाए रे!
खुशियां
हैं मन में
अपार रे!
प्रीतम
की बगियन
में
प्यार
भरी बतियन
में
झरती
है रस की
फुहार रे!
बांहों
में सारा
आकाश
समा जाए रे!
सांसों
में सारा
वातास
समा जाए रे!
तन
मन हो जाए बेसम्भार
रे!
जयरा की
गुनगुन में
हियरा की धड़कन
में
उसका
ही बज रहा
सितार रे!
बजने
दो। उसका
सितार है! तुम
विश्लेषण में
मत पड़ना।
बरसने दो, उसका
अमृत है। तुम
किसी केमिस्ट
से जाकर इसका
विश्लेषण मत
करवाना।
चुपचाप पीए
जाओ। और—और की
मांग मत उठाना,
नहीं तो मन
वापिस आ जाता
है पीछे के
दरवाजे से। और
जहां मन आया
वहीं हमारा
संबंध
परमात्मा से
टूट जाता है।
(होनी
होय सो होय)
आज इति।
🌺🙏🙏🙏🌺
जवाब देंहटाएं