दिनांक,
शुक्रवार, 13
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर।।
और
बात में देर, जगत में
जीवन थोरा।
मानुषत्तन
धन जात, गोड़ धरि करौं
निहोरा।।
कांचे
महल के बीच
पवन इक पंछी
रहता।
दस
दरवाजा खुला उड़न को नित उठि चहता।।
भजि लीजौ
भगवान, एहि में भल है
अपना।
आवागौन छुटि जाए, जनम की मिटै
कलपना।।
पलटू
अटक न कीजिए, चौरासी घर
फेर।
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर।।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
सो
जानेगा पीर, काह मूरख से
कहिए।
तिलभर
लगै न ज्ञान, ताहि से चुप हवै
रहिए।।
लाख
कहै समुझाय, बचन मूरख
नहिं मानै।
तासे
कहा बसाय, ठान जो अपनी ठानै।।
जेहिके
जगत पियार, ताहि से भक्ति न आवै।
जिनकर
हिया कठारे
है, पलटू धसैं न
तीर।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानेगा
पीर।।
सबद
छुड़ावै
राज को, सबदै करै
फकीर।।
सबदै करै फकीर, सबद फिर राम मिलावै।
जिनके
लागा सबद, तिन्हैं कछु और न भावै।।
मरैं
सबद के घाव, उन्हें को सकै जियाई।
होइगा
उनका काम, परी रौवै
दुनियाई।।
घायल
भा वा फिरै, सबद कै चोट
है भारी।
जियतै मिरतक होय, झुकै फिर उठे संभारी।।
पलटू
जिनके सबद का
लगा कलेजे
तीर।
सबद
छुड़ावै
राज को, सबदै करै
फकीर।।
ये
दिन बहार के
अब के भी रास आ
न सके,
कि गुंचे
खिल तो सके, खिल के मुस्करा
न सके।
मेरी
तबाही—ए—दिल
पर तो रहम खा न
सके,
मगर
कभी वो नजर से
नजर मिला न
सके।
वो
सब्जा नंगे—चमन
है, जो लहलहा
न सके,
वो गुल
है जख्मे—बहारां जो मुस्करा न
सके।
ये
आदमी है वो
परवाना शम्ए—दानिश
का,
जो
रोशनी में रहे, रोशनी को पा
न सके।
उन्हें
सआदते—मंजिल—रसी
नसीब हो क्या,
वो
पांव, राहेत्तलब में जो
डगमगा न सके।
न जाने
आह कि उन
आंसुओं पे
क्या गुजरी,
जो दिल
से आंख तक आए मिजह तक आ न
सके।
करेंगे
मर के बका—ए—दवाम
क्या हासिल,
जो
जिंदा रह के मकामे—हयात
पा न सके।
जहे खुलूसे—मुहब्बत
कि हादिसाते—जहां
मुझे
तो क्या, मेरे
नक्शे—कदम
मिटा न सके।
मेरी
नजर से गुरेजां
बहुत रहे, लेकिन,
मेरे खुलूसे—मुहब्बत
से बचके
जा न सके।
ये मेहरो—माह
मेरे हम—सफर
रहे बरसों,
फिर
उसके बाद मेरी
गर्द को भी पा
न सके।
मेरी
नजर ने शबे—गम
उन्हें भी देख
लिया,
वो
बेशुमार
सितारे कि
जगमगा न सके।
घटे
अगर तो बस इक मुश्ते—खाक
है इन्सां
बढ़े तो
वुसअते—कोनैन में
समा न सके।
नया
जमाना बनाने
चले थे दीवाने
नई
जमीन, नया असामां
बना न सके।
आदमी
एक अभीप्सा
है। एक
आकांक्षा——कुछ
होने की, असीम
को छूने की।
आदमी एक बीज
है और जब तक
बीज फूल तक न
पहुंच जाए, तब तक चैन
नहीं। तब तक
बेचैनी रहेगी
ही। धन हो कितना,
पद हो कितनी,
प्रतिष्ठा
हो कितनी, कुछ
काम न आएगा।
बीज का फूल तक
पहुंचना, इसके
अतिरिक्त और
कोई संतोष का
उपाय नहीं है।
एक तो
संतोष है
मुर्दा, कि
आदमी
अकर्मण्यता
में कर के बैठ
जाता है, कि
जो है सो ठीक
है। और एक
संतोष है
जीवंत, जो
तब उपलब्ध
होता है जब
बीज फूल बनते
हैं। हवाओं
में
मुस्कराते
हैं, सुवास
बिखेरते हैं,
चांदत्तारों से गुफ्तगू
करते हैं।
ये दिन
बहारे के
अब के भीतर
रास आ न सके,
कि गुंचद्धे
खिल तो सके, खिल के मुस्करा
न सके।
क्या
यह जिंदगी भी
ऐसे ही बिता
देनी है? बीज
बीज ही रह
जाएंगे? ये
दिन भी रास न
आएंगे? कि
कलियां कलियां
ही रह जाएंगी,
फूल न
बनेंगी? संभावना
संभावना
ही रहेगी या
इसे सत्य में
बदलना है, जो
इसे सत्य में
बदलने में लग
जाता है, वही
व्यक्ति
धार्मिक है। न
मंदिरों में
जाने से कोई
धार्मिक होता,
न मस्जिदों
में जाने से
कोई धार्मिक
होता।
ये
आदमी है वो
परवाना शम्ए—दानिश
का,
जो
रोशनी में रहे, रोशनी को पा
न सके।
और
जिसे हम तलाश
रहे हैं, वह
हमारे चारों
तरफ मौजूद।
परमात्मा
हमें खिलाने को
तत्पर, पर
हम हैं कि सिकुड़े
बैठे हैं।
रोशनी बरस रही
है और हम हैं
कि आंखें बंद
किए बैठे हैं।
उसका संगीत बज
रहा है, मगर
हम बहरे बने
बैठे हैं।
परमात्मा से
निकट और कुछ
भी नहीं, उससे
ज्यादा सत्यतर
और कुछ भी
नहीं। वही है
हवाओं में, वही है
सरिता की धार
में, वही
है सागर की
लहरों में——और
फिर भी इतना
दूर? वही
हमारी धड़कनों
में, वही
हमारी
श्वासों में——और
फिर भी इतने
दूर? कहीं
चूक हम से हुई
जा रही है। हम
शायद सूरज की तरफ
पीठ किए हुए
हैं।
उन्हें
सआदते—मंजिल—रसी
नसीब हो क्या,
वो पांव, राहेत्तलब में डगमगा न
सके।
हमारी
होशियारी ही
हमारी मौत हुई
जा रही है। हमारी
समझदारी ही
हमें बाजारों
में भटका रही
है। थोड़ा
निर्दोष
चित्त चाहिए
उसे पाने को।
थोड़ी मदमस्ती
चाहिए। थोड़े
पैर डगमगाएं।
थोड़े आंखों
में आंसू हों।
थोड़ा हृदय
गीला हो।
उन्हें
सआदते—मंजिल—रसी
नसीब हो क्या...
उन्हीं
नहीं मिलेगी
जीवन की मंजिल, असंभव है
जीवन की मंजिल
का मिलना——
वो
पांव, राहेत्तलब में जो
डगमगा न सके
जो उसे
खोजते समय
दीवानों की
तरह न चले, प्रेमियों
की तरह न चले, मस्तों की तरह न
चले। न
जिन्होंने
कभी गीत गाया,
न कभी जो
मुस्कुराए, न कभी जो रोए,
न कभी जो
नाचे। जो कभी
जीवन के
आह्लाद से न
भरे। और न कभी
जिन्होंने
जीवन के रहस्य
को अनुभव किया।
जोड़ते
रहे धन, हिसाब
लगाते रहे
खाते—बहियों
में, आंखें
गड़ाए
बैठे रहे
बाजारों में,
आंखें न उठाईं
आकाश के चांदत्तारों
की तरफ।
इस जगत
में दो जगत हैं।
एक जगत उसका
बनाया हुआ और
एक जगत आदमी
का अपना बनाया
हुआ। जब पलटू
जैसे संत कहते
हैं: सपना यह
संसार, तो
तुम यह मत
समझना कि वे
परमात्मा के
संसार को सना
कह रहे हैं।
परमात्मा का
संसार तो कैसे
सपना हो सकता
है! स्रष्टा
सत्य है तो
उसकी सृष्टि
कैसे स्वप्न
हो सकती है? और जिसकी
सृष्टि
स्वप्न हो, वह स्रष्टा
कैसे सत्य
होगा? नहीं,
एक और संसार
है जो हमने
बना लिया है।
फूल—चांदत्तारे
तो सच हैं, मगर
नोट हमारी
ईजाद हैं।
झरने—पहाड़—सागर
तो सत्य हैं, लेकिन पद और प्रतिष्ठाएं,
ये हमारी
खोज हैं। एक
संसार है जो
आदमी ने बना लिया
है, अपने
चारों तरफ, जैसे मकड़ी
जाला बुनती है,
ऐसे आदमी एक
संसार बुनता
है——वासनाओं
का, आकांक्षाओं
का, एषणाओं का, इच्छाओं
का, भविष्य
का: आज तो नहीं
है, कल कुछ
मिलेगा; लोभ
का विस्तार है
वह संसार; काम
का विस्तार है
वह संसार। एक
तो संसार है चहचहाते
पक्षियों का,
खिलते
फूलों का, आकाश
तारों से भरा;
एक तो संसार
है जो
परमात्मा के
हस्ताक्षर
लिए हुए है और
एक संसार है
जो आदमी ने
बना लिया है। जब
भी ज्ञानियों
ने कहा है:
सपना यह संसार,
तो
तुम्हारे
संसार के
संबंध में कहा
है, जो
तुमने बना
लिया है।
मगर
आदमी बड़ा
चालबाज है। वह
अपने बनाए
संसार को तो
झूठा नहीं
मानता, वह
परमात्मा के
बनाए संसार को
झूठा मान कर
उसका त्याग
करने लगता है।
धन छोड़ देता
है, पद छोड़
देता है, प्रतिष्ठा
छोड़ देता है, दुकान छोड़
देता है, बाजार
छोड़ देता है, घर—द्वार
छोड़ देता है, भाग जाता है
जंगल में। मगर
यह त्याग भी तुम्हारा
संसार है। यह
संतत्व भी
तुम्हारी ही
ईजाद है। और
वहां बैठ कर
भी अहंकार ही
निर्मित होता
है। वही धन से
निर्मित होता
था, वही
त्याग से
निर्मित होता
है। वही भोग
से निर्मित
होता था, वही
तपश्चर्या से
निर्मित होता
है। तुमने ढंग
तो बदल लिए
मगर मूल आधार
वही के वही
हैं। तुमने
पत्ते तो छांट
दिए मगर जड़ें वही
की वहीं हैं, फिर पत्ते आ
जाएंगे, फिर
वही पत्ते आ
जाएंगे——नए
रूप, नए
रंग में, मगर
रसधार वही
होगी।
जब तक
तुम जाग कर यह
न समझो कि
आदमी का बनाया
हुआ सब झूठ है, जब तक यह
तुम्हारा
अनुभव न हो
जाए——और यह मत
सोचना कि मर
कर पा लोगे।
जीवन व्यर्थ
जा रहा है तो
मृत्यु भी
व्यर्थ जाएगी,
क्योंकि
मृत्यु तो
जीवन की ही
पराकाष्ठा
है।
न जाने
आह कि उन
आंसुओं पे
क्या गुजरी,
जो दिल
से आंख तक आए मिजह तक आ न
सके।
ऐसे भी
आंसू हैं जो
हृदय में तो
उठे, आंखों तक
भी आ गए, लेकिन
पलकों तक न
पहुंच पाए।
ऐसे भी लोग
हैं जो मंजिल
के बहुत करीब थे,
एक कदम और, ठीक दिशा
में बस एक कदम
और और
मंदिर के
द्वार खुल
जाते, लेकिन
लोग पाते—पाते
चूक जाते हैं।
क्योंकि
चुकाने का
बहुत आयोजन
है। भटकाने को
बहुत पंडित
हैं, बहुत
पुरोहित हैं।
पहुंचाने को
तो शायद कभी कोई
बुद्धपुरुष
होता।
पहुंचाने को
तो कभी कोई
मुश्किल से सदगुरु
होता है। दीया
जलाने वाले तो
बहुत मुश्किल
से मिलते हैं,
जलते दीए को
बुझा देने
वाली बहुत भीड़
है।
करेंगे
मर के बका—ए—दवाम
क्या हासिल,
जो
जिंदा रह के मकामे—हयात
पा न सके।
क्या
पा सकोगे तुम
मर कर? क्या
मंजिल मिलेगी
मर कर? क्या
परमात्मा
मिलेगा?——जब
जिंदगी गंवा
दी और जिंदगी
में ही जिंदगी
की मंजिल न पा
सके।
जीवन
है क्षण। जोड़ो
अपने को प्रभु
से! उस जोड़ने
का नाम ही भजन
है। सेतु बनाओ
अपने और उसके
बीच प्रेम का, भीगे हुए
हृदय का, आंसुओं
का; फूल खिलाओ
अपने और उसके
बीच, दीए
जलाओ अपने और
उसके बीच——सेतु
बनाओ। वह तो
आने को तत्पर
है, तुम
जरा अपने हृदय
को खोलो!
बस एक
चीज है जिससे
परमात्मा बच
कर नहीं जा सकता——
जहे खलूसे—मुहब्बत
कि हादिसाते—जहां
मुझे
तो क्या, मेरे
नक्शे—कदम
मिटा न सके।
मेरी
नजर से गुरेजां
बहुत रहे, लेकिन
मेरे खुलूसे—मुहब्बत
से बचके
जा न सके।
आंख से
तो बहुत बचने
की कोशिश की, बचते रहे, लेकिन मैंने
जो प्रेम का
जाल फेंका, उससे बच कर न
जा सके। प्रेम
के जाल के
फेंकने का नाम
भजन है। भजन
कला है। तोतों
की तरह दोहराने
से नहीं होता,
प्राणों को
डालने से होता
है। और तब
आदमी छोटा
नहीं है। भजन
से जुड़ जाए तो
आदमी उतना ही बड़ा
है जितना
भगवान——क्योंकि
आदमी भगवान
है।
घटे
अगर तो बस इक मुश्ते—खाक
है इन्सां
बढ़े तो
वुसअते—कोनैन में
समा न सके।
घटे तो
बस एक मुट्ठी
भर राख। और
यही होती है
हालत अधिक
लोगों की——बस
एक मुट्ठी भर
राख! मर कर और क्या
रहोगे? एक
मुट्ठी भर
राख! प्रियजन,
परिवार के
लोग उठा लाएंगे।
हालांकि उस
राख को भी
हमने अच्छे
प्यारे नाम
दिए हैं, हम
कहते हैं:
फूल। हम
छिपाते अच्छे
शब्दों में
सत्यों को।
मुर्दे की राख
बीनने जाते
हैं, कहते
हैं: फूल
बीनने जा रहे
हैं। मुर्दे
की राख को
गंगा में सिराने
जाते हैं, कहते
हैं: फूल सिराने
जा रहे हैं।
जो जिंदगी में
फूल न हो सका, वह अब चिता
पर फूल हो गया
है! जिसकी
जिंदगी दुर्गंध—ही—दुर्गंध
थी, अचानक
मरकर सुगंध हो
गया है!
घटे
अगर तो बस इक मुश्ते—खाक
है इन्सां
बढ़े तो
वुसअते—कोनैन में
समा न सके।
घट जाए
तो एक मुट्ठी
भर राख, मुट्ठी
भर धूल, और
बढ़ जाए——तो यह
सारा आकाश भी
छोटा है, यह
सारा
अस्तित्व भी
छोटा है। बढ़
जाए तो इस अस्तित्व
को अपने में
समा ले। फिर
उसके भीतर आकाश
है; फिर
उसके ही भीतर चांदत्तारे
हैं; फिर
उसके ही भीतर
परमात्मा है।
मालिक उसके भीतर
है। फिर अब और
इससे बड़े होने
की क्या
संभावना है!
आदमी अगर जागे
न, तो
मुट्ठी भर राख
रह जाता है, और जागे तो
विराट आकाश हो
जाता है। बिना
जागे तृप्ति
नहीं है।
जागने की
प्रक्रिया का
नाम ही भक्ति
के शास्त्र
में भजन है।
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर।।
और
बात में देर, जगत में
जीवन थोरा।
पलटू
कहते हैं:
जल्दी करो, आतुरी करो, तीव्रता
करो, त्वरा
करो! भजन में
देर न हो, कौन
जाने मौत कब आ
जाए! भजन पूरा
हो जाए, फिर
आए मौत!
क्योंकि भजन
पूरा हो जाए
तो मौत आ कर भी
नहीं आ पाती।
भजन पूरा हो
जाए तो मौत
तुम्हें छू भी
न सकेगी। जैसे
कमल—पत्रों को
जल नहीं छू
पाता, ऐसे
ही मौत
तुम्हें भी न
छू सकेगी। यह
तो भजन की कमी
है कि मौत जीत
जाती है।
अन्यथा तुम
अमृत के पुत्र
हो: अमृतस्य
पुत्रः। मौत
तुम्हें छुए,
असंभव! मौत
तुम्हारे पास
फटके, असंभव!
दीया जला दो, फिर अंधेरा
पास आ जाए, असंभव!
हां, दीया
ही बुझा हो, तो फिर तो
अंधेरा होगा।
भजन
आतुरी
कीजिए और बात
में देर।।
लेकिन
लोग बड़े उलटे
हैं। और बात
में जल्दी करते
हैं। क्रोध
करना हो तो
देर नहीं करते; लोभ करना हो
तो देर नहीं
करते; धन
कमाना हो तो
देर नहीं करते;
दौड़ते हैं,
लगे ही रहते
हैं आपाधापी
में——दिन—रात, चौबीस घंटे,
सतत——भजन
करना हो तो
कहते हैं: कल; अभी और काम
हैं। भजन
टालते हैं।
ऐसे टालते—टालते
तो मौत आ
जाएगी। ऐसे
भजन को कल पर
टालते रहे, तो कल कभी
आता है? कल
कभी आया है कि
आएगा?
पलटू
कहते हैं: और
बात में देर
करो तो चलेगा।
क्रोध न भी
किया तो क्या
बिगड़ जाने वाला
है! लोभ न भी
किया तो क्या
खो जाएगा!
माया—मोह का
विस्तार न भी
किया तो कुछ
गंवाया नहीं! ऐसे
भी मौत आएगी
तो सब छीन
लेगी। जिसे
मौत ही छीन
लेगी, उसे
तुमने इकट्ठा
किया या न
किया, बराबर
है। एक ही चीज
को मौत नहीं
छीन पाती——भक्त
उसे भजन कहता,
ज्ञानी उसे
ध्यान कहता——बस
उसको मौत नहीं
छीन पाती।
जिसे मौत न
छीन पाए, वही
संपदा है। और
जिसे मौत न
छीन पाए, ऐसी
संपदा जिसके
पास है, वही
जीआ।
उसका बीज
फूलों तक
पहुंचा। उसकी
संभावना सत्य
बनी। वह एक
सपने की तरह
नहीं रहा, वह
एक सत्य की
तरह जीआ
और सत्य की
तरह रहा और
सत्य की तरह
मृत्यु में
उसने प्रवेश
किया——हंसते
और नाचते——क्योंकि
मौत उसका कुछ
भी बिगाड़ नहीं
पाती। उसके
लिए मौत है ही
नहीं। उसके
लिए मौत एक
झूठ है।
मेरी
जिंदगी है
जालिम तेरे गम
से आशकारा
तेरा
गम है दर—हकीकत
मुझे जिंदगी
से प्यारा।
वो अगर
बुरा न मानें
तो जहाने—रंगो—बू
में
मैं सुकूने—दिल
की खातिर कोई
ढूंढ लूं
सहारा।
मुझे
तुझसे खास
निस्बत, मैं
रहीने—मौजेत्तूफां
जिन्हें
जिंदगी थी
प्यारी, उन्हें
मिल गया
किनारा।
मुझे आ
गया यकीं—सा
कि यही है
मेरी मंजिल
सरे—राह
जब किसी ने
मुझे दफअतन
पुकारा।
मैं बताऊं
फर्क नासेह, जो है मुझ
में और तुझमें
मेरी
जिंदगी तलातुम, तेरी जिंदगी
किनारा।
मुझे
गुफ्तगू से बढ़
कर गमे—इज्ने—गुफ्तगू
है
वही
बात पूछते हैं, जो न कह सकूं
दुबारा।
कोई ऐ शकील देखे, ये जुनूं
नहीं तो क्या
है
कि उसी
के हो गए हम, जो न हो सका
हमारा।
परमात्मा
का होने का
अर्थ कि उसी
के हो गए हम जो
न हो सका
हमारा।
परमात्मा
तुम्हारा कभी
भी नहीं हो
सकता, क्योंकि
परमात्मा को
पाने के पहले
तो तुम को मिट
जाना होता है।
मैं मिटे तो
परमात्मा
मिलता है।
इसलिए
परमात्मा
मेरा तो कभी
हो ही नहीं सकता।
मैं के अभाव
में ही तो
उसका अनुभव
होता है। मैं
को मिटाने की
कला भजन है।
कोई ऐ शकील देखे, ये जुनूं
नहीं ता क्या
है
कि उसी
के हो गए हम, जो न हो सका
हमारा।
मैं बताऊं
फर्क नासेह, जो है
मुझमें और तुझमें...
हे
धर्मोपदेशक, मुझमें और तुझमें
क्या फर्क है...
मैं बताऊं
फर्क नासेह, जो है
मुझमें और तुझमें
मेरी
जिंदगी तलातुम, तेरी जिंदगी
किनारा।
तू
किनारे पर रह
रहा है, हम तूफानों
में जी रहे
हैं। छोड़ो
नाव, किनारे
छोड़ो, सुरक्षाएं छोड़ो, किनारे के
मोह छोड़ो,
अज्ञात की
यात्रा पर
निकलो। भजन तो
नाव है, अज्ञात
की यात्रा पर।
भजन तो चुनौती
है, तूफानों को स्वीकार
करने की। और
जो जिंदगी में
तूफानों
को स्वीकार
करता है, निखार
आता है, बहुत
निखार आता है
उसके प्राणों
में। उसकी आत्मा
उज्ज्वल होती
है। उसमें एक
चमक आती, एक
दीप्ति आती, एक ज्योति
जगती।
ज्योति
मुफ्त नहीं
जगती। तूफानों
से टक्कर लेनी
ही होती है।
व्यक्तित्व
की आग ऐसे ही
नहीं उभरती।
भीड़ के अंग ही
बने रहोगे तो
राख में ही
दबे रहोगे। व्यक्ति
बनो! भीड़ों
से मुक्त होओ!
न हिंदू होने
की जरूरत है, न मुसलमान
होने की जरूरत
है। न
ब्राह्मण
होने की जरूरत
है, न
शूद्र होने की
जरूरत है।
आदमी होना
काफी है। और
अगर कुछ होना
है तो अब
परमात्मा होओ!
अब उससे छोटा
क्या होना!
आदमी से भी
नीचे गिरना——कि
मुसलमान होना,
कि हिंदू
होना, कि
जैन होना! कुछ
ऊपर उठो! नहीं
तो मुट्ठी भर
खाक रह जाओगे।
और अगर
प्रेम करो तूफानों
से, अगर
प्रेम करो
असुरक्षा से,
अगर प्रेम
करो अज्ञात से,
तो
तुम्हारे
जीवन में
संन्यास घटित
हो गया। संन्यास
है असुरक्षा
में जीना।
परमात्मा
सुरक्षा है; तो हम अब और
सुरक्षा क्या
करें!
परमात्मा धन है;
तो अब हम और
धन के पीछे
क्या दौड़ें?
परमात्मा
परम पद है; तो
अब और सब पद
छोटे हैं और
ओछे हैं।
मुझे
तुझसे खास
निस्बत, मैं
रहीने—मौजेत्तूफां
जिन्हें
जिंदगी थी
प्यारी, उन्हें
मिल गया
किनारा।
तूफानों
में भी किनारा
मिल जाता है, बस एक प्रेम
चाहिए, प्रेम
की एक आंख
चाहिए, प्रेम
की प्रज्वलित
अग्नि चाहिए।
हम
चूकते हैं, क्योंकि न
तो ध्यान है
और न प्रेम
है। हम चूकते
हैं, क्योंकि
न तो हम अपने
भीतर उतरते और
न इस विराट
में प्रवेश
करते। हम मध्य
में ही अटके
रह जाते हैं।
हम त्रिशंकु हैं।
एक तरफ ध्यान
पुकारता है।
लेकिन प्रेम
है चुनौती, प्रेम है
समर्पण।
प्रेम है
अहंकार—विसर्जन।
न हम से
अहंकार—विसर्जन
हो पाता, और
न हम से एकांत
में प्रवेश हो
पाता, हम
अटके रह जाते
हैं बीच में।
हम दो पाटों
के बीच में
पिस जाते हैं।
बहुत बार
जिंदगी ऐसे ही
खराब हुई।
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर।।
और
बात में देर, जगत में
जीवन थोरा।
मानुषत्तन
धन जात, गोड़ धरि करौं
निहोरा।।
यह तो
चली जिंदगी, यह जा ही रही
जिंदगी, रोज
जा रही, हाथ
से छिटकी जा
रही——मानुषत्तन
धन जात...
जागो!...
......गोड़ धरि
करौं
निहोरा।।
टेक दो
घुटने जमीन पर, कर लो उसका
निहोरा।
पुकारा लो उसे;
गिरा लो
आंसू उसकी
प्रीति में; समर्पित हो
जाओ।
गोड़ धरि करौं
निहोरा...
घुटने टेको, अकड़े—अकड़े
काम न चलेगा।
लोग नदी के
किनारे भी
पहुंच कर प्यासे
खड़े हैं, क्योंकि
झुक नहीं सकते,
हाथ की
अंजुली नहीं
बना सकते।
शायद अपेक्षा
कर रहे हैं कि
नदी ही छलांग
लगाए और उनके
कंठ तक पहुंच
जाए। नदी
तैयार है, मगर
झुकना होगा
तुम्हें। हाथ
की अंजुली
बनानी होगी।
झुकना——समर्पण;
हाथ की
अंजुली बनाई——भजन।
फिर तृप्ति
तुम्हारी है।
परम तृप्ति तुम्हारी
है। फिर कौन तुम्हें
वंचित रख सकता
है?
मेरी
जिंदगी पे न मुस्करा, मुझे जिंदगी
का अलम नहीं
जिसे
तेरे गम से हो
वास्ता, वो खिजां
बहार से कम
नहीं।
मेरा
कुफ्र हासिले—जोहद है, मेरा जोहद
हासिले—कुफ्र
है
मेरी
बंदगी है वो
बंदगी, जो रहीने—दैरो—हरम
नहीं।
वही
कारवां, वही
रास्ते, वही
जिंदगी, वही
मरहले
मगर
अपने—अपने मकाम
पर कभी तुम
नहीं, कभी
हम नहीं।
न फना
मेरी न बका
मेरी, मुझे
ऐ शकील न ढूंढिए
मैं
किसी का हुस्ने—खयाल
हूं, मेरा कुछ वुजूदो—अदम
नहीं।
न तो
हमारा कोई
अस्तित्व है, न हमारा कोई
अनस्तित्व
है।
न फना
मेरी न बका
मेरी...
डरते
क्या हो, अपना
है क्या; सब
उसका है। दो
तो उसका है, न दो तो उसका
है। न फना
मेरी न बका
मेरी, न
जीवन अपना है,
न मृत्यु
अपनी है; न
होना अपना है,
न न—होना
अपना है; फिर
क्या कंजूसी?
उसका उसको
देते——और
कंजूसी! त्वदीयं
वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पए।
तेरी चीज और
तुझे दे दें, इसमें भी
कंजूसी आ रही
है?
न फना
मेरी न बका
मेरी, मुझे
ए शकील न ढूंढिए
मैं
किसी का हुस्ने—खयाल
हूं, मेरा कुछ वुजूदो—अदम
नहीं।
हम हैं
ही क्या, सिवाय
उसकी तरंगों
के! लेकिन
लहरें भी अकड़ी
बैठी हैं और
सागर पर
समर्पित नहीं
हैं। हम सब ने
अपने अहंकार
को खूब मजबूत
कर लिया है।
इस अहंकार के
अतिरिक्त और
हमें कोई रोक
नहीं रहा है
परमात्मा को
पाने से। बहाने
मत खोजना कि
अतीत जन्मों
के पाप रोक
रहे हैं।
तुमसे मैं
कहता हूं:
नहीं; अतीत
जन्मों के पाप
क्या खाक
रोकेंगे! अतीत
जन्मों के
पापों का फल
तो तुम पा
चुके अतीत
में। और यह भी
मत सोचना कि
भाग्य में
तुम्हारे
लिखा नहीं है।
परमात्मा
कोरे कागज की
तरह आदमी का
भाग्य देता है;
लिखते हो जो
कुछ, तुम
लिखते हो। कोई
विधाता नहीं
है तुम्हारे अतिरिक्त।
तुम्हारी
किस्मत
तुम्हारा
अपना निर्माण
है। तुम्हारी
किस्मत में
तुम कुछ लिखा
कर नहीं आते हो;
कुछ लिखा
नहीं है कि
यही होगा; तुम
चाहो, तो
सब संभव है!
हां, मगर
बहाने खोजने
हों, तो
किस्मत
प्यारा बहाना
है। कि क्या
करें, अपनी
किस्मत में
नहीं! क्या
करें, अतीत
जन्मों के पाप
बाधा डाल रहे
हैं! ये सब चालबाजियां
हैं, होशियारियां हैं। और
होशियारी
जिसने की, भजन
से बचा। भजन
के लिए भोलापन
चाहिए। भजन
में भोलापन हो
तो फिर——मेरा
कुफ्र हासिले—जोहद है——फिर
तो तुम्हारी
नास्तिकता भी
आस्तिकता हो जाए।
और फिर तुम
जिसको अब तक
आस्तिकता
समझते थे, वह
नास्तिकता
मालूम पड़ेगी।
मेरा
कुफ्र हासिले—जोहद है, मेरा जोहद
हासिले—कुफ्र
है
मेरी
बंदगी है वो
बंदगी, जो रहीने—दैरो—हरम
नहीं।
फिर
तुम पहचानोगे
प्रार्थना को, जिसका कोई
नाता न मंदिर
से है, न
मस्जिद से है।
प्रार्थना तो
तुम्हारा
अंतर्भाव है।
तुम्हारे
भीतर उठ आए
नृत्य का नाम
है। तुम्हारे
भीतर जग गए
उत्सव का
शीर्षक है।
मानुषत्तन
धन जात, गोड़ धरि करौं
निहोरा।।
टेक दो
पैर पृथ्वी
पर। झुक जाओ।
कांचे
महल के बीच
पवन इक पंछी
रहता।
तुम्हारी
हालत ऐसी है——कच्चा
है महल, कांच—कच्चा,
उसके भीतर
तुम रह रहे
हो। कब कांच
का यह महल टूट
जाएगा——किस
घड़ी, किस
पल, कुछ
पता नहीं।
इसका कुछ
भरोसा मत
करना।
कांचे
महल के बीच
पवन इक पंछी
रहता।
और है
ही क्या
तुम्हारी
जिंदगी? एक
पवन—पंछी।
सांस आई, सांस
गई——एक पवन—पंछी।
दस
दरवाजा खुला उड़न को नित उठि चहता।।
और
इंद्रियों के
दरवाजे दस
खुले हैं, जिनमें से
कभी भी पंछी
उड़ जाए।
दरवाजे भी पिंजड़े
के बंद नहीं
हैं, खुले
हैं——और एक भी दरवाजा
नहीं, दस
दरवाजे खुले
हैं। कब श्वास
बाहर गई और न
लौटेगी, कुछ
कहा नहीं जा
सकता। जब तक
सांस है, समर्पित
हो जाओ।
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर।।
और
बात में देर, जगत में
जीवन थोरा।
मानुषत्तन
धन जात, गोड़ धिर करौं
निहोरा।।
कांचे
महल के बीच
पवन इक पंछी
रहता।
दस
दरवाजा खुला उड़न को नित उठि चहता।।
भजि लीजौ
भगवान, एहि में भल है
अपना।
चेताते
हैं, जगाते
हैं, होशियार
करते हैं——सो
मत जाना; जिंदगी
सोए—सोए न
गंवा देना, भजि लीजौ
भगवान, भगवान
को स्मरण कर
लो, उसकी
स्मृति ही बचाएगी
अंतिम क्षणों
में।
आवागौन छुटि जाए, जनम की मिट
कल्पना।।
एक ही
भला है, एक
ही कल्याण है,
एक ही मंगल
है जीवन में——वह
है परमात्मा
को पा लेना।
उसे जिसने
पाया, सब
पाया; उसे
जिसने गंवाया,
सब गंवाया।
उसे पाते ही
सारा आवागमन
छूट जाता है; फिर न आना है,
न जाना है।
फिर बस गए।
फिर बस गए
अनंत में। फिर
शाश्वत का अंग
हो गए। फिर न
कोई जन्म, न
कोई मृत्यु।
फिर इन पींजड़ों
में भटकने की
जरूरत नहीं।
आवागौन छुटि जाए, जनम की मिटै
कलपना।।
और यह
जो दुख है——जन्म
का, और जीवन
का, और
मृत्यु का; और यह जो
हजार—हजार दुख
जीवन के मार्ग
पर फैले हैं...।
जीवन का रास्ता
बड़ा
कंटकाकीर्ण
है, बड़ा
पथरीला है; पहुंचना तो
बहुत कम, भटकना
बहुत आसान है;
चोटें ही
चोटें हैं, घाव ही घाव
हैं।
जीवन
यहां नर्क से
अतिरिक्त और
क्या है!
मैंने
सुना है, एक
आदमी मरा और
जब उसने नरक
के द्वार पर
दस्तक दी——सर्दी
के दिन हैं और
शैतान भी कंबल
ओढ़े बैठा
है। शैतान को
भी बड़ी दिक्कत
मालूम हुई कि
अब फिर उठो, फिर दरवाजा खोलो।
दुष्ट चले ही
आते हैं! उसने
ऐसे ही खिड़की
से झांककर
कहा कि भाई, क्यों सताते
हो, क्या
बात है? उस
आदमी ने कहा
कि मैं मर कर
आया हूं, दरवाजा
खोलो, मुझे
भीतर आने दो।
शैतान
ने पूछा, कहां
से आ रहे हो?
उस
आदमी ने कहा, पृथ्वी से आ
रहे हैं।
तो
स्वर्ग जाओ, क्योंकि
नर्क तो तुम
पृथ्वी पर भोग
ही चुके, अब
और क्या भोगना
है! अब भोगने
को बचा क्या
है?
तुम
जरा अपनी
जिंदगी को एक
तरफ रखकर देखो
जैसे किसी और
की जिंदगी हो, अपनी नहीं; साक्षी की
तरह देखो, द्रष्टा
की तरह देखो; तो क्या
पाओगे? कांटे
ही कांटे; अंधेरा
ही अंधेरा; घाव ही घाव!
एक लंबी व्यथा
है तुम्हारी
कथा——विषाद की,
संताप की, चिंता की।
दुखों से
मिलना हुआ है,
सुख तो केवल
आशा में अटके
रहे हैं।
आवागौन छुटि जाए, जनम की मिटै
कलपना।।
पलटू
अटक न कीजिए, चौरासी घर
फेर।
चूको
मत! क्योंकि
मनुष्य होना
दुर्लभ।
दुर्लभ इसलिए
कि मनुष्य के
जीवन में ही
संभव है पतन
और विकास। जानवरों
का कोई पतन
नहीं होता और
कोई विकास भी नहीं
होता। वे जैसे
पैदा होते हैं, वैसे ही मर
जाते हैं। कोई
कुत्ता कुत्ता
होने से नीचे
नहीं गिर
सकता। या कि
तुम सोचते हो
गिर सकता है? तुम किसी
कुत्ते से कह
सकते हो कि
हद्द हो गई, तू कुत्ते
से भी नीचे
गिर गया! नहीं,
किसी
कुत्ते से यह
कहना सार्थक
नहीं होगा। लेकिन
आदमी से तुम
कह सकते हो कि
हद्द हो गई, तुम आदमी से
भी नीचे गिर
गए!
आदमी
के लिए दोनों
संभव है——आदमी
से ऊपर उठ जाए, आदमी से नीचे
गिर जाए। आदमी
एक सीढ़ी है।
चाहे तो नर्क और
चाहे तो
स्वर्ग। वही
सीढ़ी नर्क ले
जाती है एक
दिशा में, वही
सीढ़ी स्वर्ग
ले जाती है
दूसरी दिशा
में। आदमी
अनूठा है इस
पृथ्वी पर।
गुलाब गुलाब
है, चंपा
नहीं हो सकता,
चमेली नहीं
हो सकता। आदमी
कुछ
सुनिश्चित
रूप लेकर पैदा
नहीं होता।
सिर्फ एक कोरी
संभावना, जो
कुछ भी बन
सकती है। जो
रावण बन सकती
है या राम बन
सकती है। वही
मिट्टी, वही
श्वास राम
बनती है। राम
और रावण जब
पैदा होते हैं
तो एक—सी
संभावना लेकर
पैदा होते हैं
और जब मरते
हैं, तो
कितना भेद
होता है!
कितना आकाश—पाताल
का भेद होता
है!
मनुष्य
के जीवन में
चुनाव की
स्वतंत्रता
है, जो किसी
और जीवन में
नहीं है।
मनुष्य अकेला
स्वतंत्र है।
अकेला, एकमात्र
स्वतंत्रता
का धनी है, मालिक
है। चाहो तो
सौभाग्य बना
लो, चाहो
तो दुर्भाग्य
बना लो। तुम
अपने निर्णायक
हो। तुम्हारा
हर निर्णय, तुम्हारा हर
कदम तुम्हारे
जीवन को बना
रहा है। तुम्हारा
हर कृत्य
तुम्हारे
जीवन को रूप
दे रहा है, आकार
दे रहा है।
तुम क्या बनोगे,
किसी और पर
जिम्मेवारी
नहीं डाली जा
सकती। आदमी चालबाजियां
करता है, जिम्मेवारियां दूसरों पर
डालना चाहता
है, मगर वे
सब आत्मवंचनाएं
हैं। अच्छा हो
उन झंझटों में
न पड़ो!
क्योंकि उनसे
लाभ कुछ भी
नहीं। मनुष्य—जीवन
चूका, तो
फिर पता नहीं
कब मिले, कितनी
देर लगे?
पलटू
अटक न कीजिए
चौरासी घर
फेर।
बड़ी
मुश्किल से
आदमी हुए हो——बड़ी
मुश्किल से!
चौरासी कोटि
योनियों के
चक्कर काटते—काटते
यह असंभव घटा
है कि मनुष्य
हुए हो। कितने
तड़फे
होओगे, मनुष्य
होने के लिए
कितनी—कितनी आकांक्षाएं,
अभीप्साएं
न की होंगी; कितनी
प्रार्थनाएं
न की होंगी! और
फिर मनुष्य जीवन
का उपयोग क्या
कर रहे हो? उसे
ऐसे गंवा रहे
हो जैसे उसका
कोई मूल्य ही
नहीं। लोग
बैठे ताश खेल
रहे हैं, शतरंज
खेल रहे हैं, लकड़ी के
हाथी—घोड़े दौड़ा
रहे हैं! पूछो,
क्या कर रहे
हो? कहते
हैं, समय
काट रहे हैं।
समय! एक पल भी
खरीद न सकोगे——सिकंदर
भी न खरीद
सका।
मरते
वक्त सिकंदर
ने अपने
चिकित्सकों
से कहा था, मुझे चौबीस
घंटे बचा लो, बस चौबीस
घंटे, और
ज्यादा नहीं
चाहता। कोई
बहुत बड़ी
आकांक्षा न
थी। फिर
सिकंदर चौबीस
घंटे बचना चाहे,
और न बच सके,
तो फिर
सिकंदर और भिखमंगे
में भेद क्या
रहा? लेकिन
चिकित्सक सिर
झुका लिए।
उन्होंने कहा,
असंभव है।
मौत तो आ गई।
अब तो पल—दो पल
के मेहमान हैं
आप। चौबीस
घंटे बचाए
नहीं जा सकते।
सिकंदर
क्यों चौबीस
घंटे बचना
चाहता था! एक
छोटा—सा वचन
दिया था। जब
निकला था
विश्व—विजय की
यात्रा पर, तो सिकंदर
की मां ने कहा
था: बेटा, लंबी
यात्रा है, कठिन यात्रा
है, अच्छा
तो यह होता कि
इस झंझट में
तू न पड़ता, लेकिन
तू मानता नहीं;
मैं बूढ़ी हो
गई हूं, तुझे
दोबारा देख
पाऊंगी या नहीं?
तो सिकंदर
ने कहा था, मैं
वचन का पक्का
हूं, तू
जानती है कि
मैं वचन का
पक्का हूं, जो कहूंगा
वह करूंगा, लौट कर आऊंगा——हर
हाल लौट कर आऊंगा।
और सिकंदर लौट
रहा था वापस
हिंदुस्तान
से। फासला
केवल इतना था
कि अगर चौबीस
घंटे का अवसर और
मिल जाता तो
वह अपना वचन
पूरा कर लेता।
बस कुछ ही
कोसों की दूरी
पर उसकी मृत्यु
हुई घर से।
वचन अधूरा रह
गया।
वचन
देने में ही
भूल हो गई।
वचन देते समय
याद न रखा कि
मैं वचन का
कितना ही
पक्का होऊं, लेकिन मौत
बीच में आ
जाएगी तो मैं
क्या करूंगा?
महाभारत
में प्यारी
कथा है। पांडव
वनवास कर रहे
हैं, अज्ञातवास
कर रहे हैं।
एक भिखमंगे
ने सुबह—सुबह
द्वार पर
दस्तक दी, अपना
भिक्षापात्र
फैलाया।
युधिष्ठिर
द्वार पर ही
बैठे हैं——धर्मशास्त्र
पढ़ रहे हैं।
धर्मराज हैं,
सो
धर्मशास्त्र
पढ़ते होंगे। भिखमंगे
से कहा: कल
आना। भीम भी
पास ही बैठा
हुआ मालिश कर
रहा है अपने
शरीर की——और
क्या कर रहा
होगा! दंड—बैठक
लगा रहा होगा,
और क्या कर
रहा होगा! कि
गदा घुमा रहा
होगा! उसने यह
सुना, उसने
जल्दी से एक
घंटा लिया और
बजाता हुआ
गांव की तरफ
भागा।
युधिष्ठिर ने
पूछा: कहां
जाता है? उसने
कहा, मैं
जरा गांव में
खबर कर आऊं कि
मेरे भाई ने
मृत्यु पर
विजय पा ली।
क्योंकि
उन्होंने एक भिखमंगे
को कहा: कल आना,
कल तुझे
भिक्षा
देंगे।
कभी—कभी
युधिष्ठिर
जैसे धर्म—पंडित
को भी जो बात
चूक जाए, वह
भीम जैसे सीधे—सादे
आदमी को समझ
में आ जाती
है।
बात तो
युधिष्ठिर को
चोट कर गई, भागे, भीम
से कहा: रुक; भिखारी को
बुला कर लाए——कि
नहीं, कल
का आश्वासन
ठीक नहीं। कल
का क्या भरोसा
है? मैं तो
सिर्फ टालने
के लिए कि अभी
किताब पढ़ रहा
हूं, बीच
में तुम बाधा
डालने आ गए——कल
आ जाना। मगर
भीम ठीक कहता
है। कल आए, न
आए। मैं न
रहूं, तुम
न रहो, वचन
पूरा न हो
सके। तुम भीख
आज ही ले जाओ।
हम
टालते चले
जाते हैं। समय
को काटते हैं——जिसका
इतना मूल्य है
कि सिकंदर ने
अपने चिकित्सकों
को कहा कि मैं
अपना आधा
राज्य भी देने
को तैयार हूं, मुझे बचा लो;
मैं अपना
पूरा राज्य भी
देने को तैयार
हूं, मुझे
बचा लो; मैं
अपने वचन को
पूरा करना
चाहता हूं; लेकिन चिकित्सकों
ने कहा, पूरा
राज्य दें, या न दें, अब
इससे कुछ भेद
नहीं पड़ता, जिंदगी
खरीदी नहीं जा
सकती, बात
खतम हो गई।
सिकंदर की
आंखों से, कहते
हैं, आंसू
झलके और
सिकंदर ने
कहा: काश, मुझे
कोई यह बात
पहले कह देता
कि जिस राज्य
को जीतने मैं
चला हूं, जिस
राज्य को जीतने
में सारी
जिंदगी गंवा
रहा हूं, वह
पूरा—का—पूरा
राज्य देकर
चौबीस घंटे भी
न खरीद सकूंगा,
तो मैंने
जिंदगी ऐसे न
गंवाई होती!
मगर मुझे किसी
ने कहा नहीं।
ऐसा तो
नहीं है कि
किसी ने न कहा
हो। मुझे पक्का
पता है कि एक
आदमी ने
सिकंदर को कहा
था, उसका नाम डायोजनीज
था। पलटू जैसा
आदमी रहा
होगा। मस्त
मौला। नंग—धड़ंग
रहता था नदी
के किनारे।
कुछ भी न था
उसके पास। एक
तरफ सिकंदर, जो सारी
दुनिया की
मालकियत का
दीवाना और एक
तरफ था डायोजनीज——नंग—धड़ंग।
पहले तो एक भिक्षापात्र
भी अपने पास
रखता था, लेकिन
एक दिन वह भी
छोड़ दिया।
बुद्ध तो भिक्षापात्र
कम से कम रखते
थे, डायोजनीज ने वह भी छोड़
दिया था।
एक दिन
भिक्षापात्र
को लेकर नदी
की तरफ जा रहा
था, प्यास
लगी थी, पानी
पीने, तभी
एक कुत्ता भी
हांफता हुआ
पास से गुजरा
और उससे पहले
पहुंच गया नदी
में और जाकर
पानी पीने
लगा। डायोजनीज
ने कहा, हद्द
हो गई; मात
दे दी मुझे इस
कुत्ते ने!
बिना भिक्षापात्र
के ही...! और अगर
कुत्ता बिना भिक्षापात्र
के जी सकता है,
तो फिर मैं
क्यों परेशान
होऊं, इसको
मैं क्यों
ढोता फिरूं? वहीं नदी
में बहा दिया।
कुत्ते से
दोस्ती कर ली।
दोस्ती दोनों
की जम गई।
कुत्ता और डायोजनीज,
दोनों साथ—ही—साथ
रहने लगे।
रहता
भी क्या था, एक टीन का पोंगरा
था——कचराघर
का जो पोंगरा
होता है टीन
का, जिसमें
कचरा फेंकते
हैं; वह पोंगरा
सड़ गया था
तो गांव के
लोगों ने उसे
गांव क बाहर
नदी के किनारे
डाल दिया था।
वह उसी पोंगरी
में रहता था।
उसी में
कुत्ता भी
रहने लगा था।
सिकंदर से उस डायोजनीज
ने निश्चित
कहा था कि जो
करना हो वह
अभी कर लो, कल
पर मत टालो।
सिकंदर
डायोजनीज
से मिलने गया
था और डायोजनीज
ने पूछा था कि
कहां जा रहे
हो? उसने कहा
था: विश्व—विजय
की यात्रा पर।
डायोजनीज
ने पूछा: फिर
क्या करोगे? उसन
कहा: फिर क्या
करूंगा? फिर
विश्राम
करूंगा। तो डायोजनीज
ने कहा, यह
तो हद्द हो गई!
अपने कुत्ते
से कहा कि सुन
भाई, देखता
है हद्द हो गई!
हम अभी
विश्राम कर
रहे हैं दोनों,
सिकंदर
कहता है सारी
दुनिया जीत
लूंगा फिर विश्राम
करूंगा! सारी
दुनिया का
जीतना और
विश्राम, इसमें
कोई तार्किक
संबंध है, इसमें
कोई गणित है? जब हम बिना
दुनिया को
जीते मजे से
विश्राम कर रहे
हैं, तो
तुम्हें क्या
अड़चन है
विश्राम करने
में? इतनी
झंझट लेकर फिर
विश्राम
करोगे? छोड़ो झंझट, नदी
का किनारा बड़ा
है। और यह
हमारा जो पोंगरा
है, यह भी
कोई छोटा
नहीं। पहले
मैं अकेला रहता
था, फिर यह
कुत्ता भी
रहने गला——तुम
भी रहने लगो।
वर्षा—धूप में
काम दे देता
है, वैसे
तो नदी के तट
पर गुजर जाता
है। और तट बड़ा
है, तुम भी
विश्राम करो।
दुनिया जीतने
चले हो!
सिकंदर
झेंपा।
सिर झुक गया।
कहा कि क्षमा
करना, बात
तो ठीक लगती
है; मगर
बीच से लौट
नहीं सकता।
यात्रा तो यह
मुझे पूरी
करनी होगी। एक
कसम ले ली कि
दुनिया जीत कर
रहूंगा। डायोजनीज
ने कहा: कसमें!
हमारी कसमें!!
हमारे वचन!!
इनका मूल्य
क्या है? ये
सब अहंकार की घोषणाएं
हैं। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि यात्रा
पूरी करके
वापस न लौट
सकोगे——कोई
कभी यात्रा पूरी
करके वापस
नहीं लौटता।
इस दुनिया की
सभी यात्राएं
बीच में टूट
जाती हैं।
दस साल
का बच्चा मर
जाए तो हम
कहते हैं।
असमय मृत्यु।
और सत्तर साल
का आदमी मरता
है तब हम नहीं
कहते असमय
मृत्यु, लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं: सभी मृत्युएं
असमय होती
हैं। क्योंकि
सत्तर साल वाला
बूढ़ा भी अभी
मरने की
तैयारी नहीं
कर रहा था।
अभी वह भी कल
के लिए राजी
था कि कल
होगा। सभी मृत्युएं
असमय हैं, क्योंकि
तैयार ही कोई
नहीं है। असमय
का क्या अर्थ
होता है? बिना
तैयारी के।
सिर्फ
उसकी मृत्यु
असमय नहीं है, जिसने भजन
किया।
भजि लीजौ
भगवान, एहि में भल है
अपना।
बस, एक ही भला है
इस जगत में, एक ही श्रेयस,
एक ही मंगल——भजि लीजौ
भगवान।
पलटू
अटक न कीजिए
चौरासी घर
फेर।
भजन
आतुरी
कीजिए और बात
में देर।।
हजार
गर्दिशे—शामो—सहर
से गुजरे हैं
वो
काफिले, जो
तेरी रहगुजर
से गुजरे हैं।
अभी
हवस को मयस्सर
नहीं दिलों का
गुदाज
अभी ये
लोग मकामे—नजर
से गुजरे हैं।
हर एक
नक्श पे था
तेरे नक्शे—पा
का गुमां
कदम—कदम
पे तेरी रहगुजर
से गुजरे हैं।
न जाने
कौन—सी मंजिल
पे जाके
रुक जाएं
नजर के
काफिले दीवारो—दर
से गुजरे हैं।
कुछ और
फैल गईं दर्द
की कठिन रहों
गमे—फिराक
के मारे जिधर
से गुजरे हैं।
जहां
सुरूर मयस्सर
था जामो—मय
के बगैर
वो मयकदे
भी हमारी नजर
से गुजरे हैं।
ऐसी
जगहें भी हैं
जहां बिना पिए
नशा आ जाता है।
उन्हीं जगहों
का, उन्हीं मधुशालाओं
का नाम सत्संग
है। वहां से
गुजर मत जाना।
जहां
सुरूर मयस्सर
था जामो—मय
के बगैर
वो मयकदे
भी हमारी नजर
से गुजरे हैं।
निश्चित
ही ऐसी मधुशालाएं
हैं। कभी मिटीं
नहीं, पृथ्वी
पर कहीं—न—कहीं
मधुशाला बनती
ही रहती है।
क्योंकि परमात्मा
आदमी को बिसार
नहीं पाता।
उसके लिए कोई—न—कोई
आयोजन जुटाता
ही रहता है।
ऐसी मधुशालाएं
हैं जहां शराब
नहीं ढलती और
फिर भी मस्ती पीई आती है,
पिलाई जाती
है। अगर कभी
ऐसी मधुशाला
के करीब आ जाओ,
तो चूक मत
जाना; परहेज
मत करना; व्रत—नियम
तोड़ देना; डुबकी
मार लेना। भजन
ऐसी ही शराब
है जो बेहोश भी
करती है और
होश से भी
भरती है।
नजर
में ढलके
उभरते हैं दिल
के अफसाने
ये और
बात है दुनिया
नजर न पहचाने।
वो बज्म
देखी है मेरी
निगाह ने, कि जहां
बगैर—शम्अ भी
जलते रहे हैं
परवाने।
ये
क्या बहार का
जोबन, ये
क्या निशात का
रंग
फसुर्दा मयकदे
वाले, उदास मयखाने।
मेरे
नदीम! तेरी
चश्मे—इलतिफात
की खैर
बिगड़—बिगड़
के संवरते
गए हैं अफसाने।
ये किस
की चश्मे—फुसूं—साज
का करिश्मा है
कि टूट
कर भी सलामत
हैं दिल के बुलखाने।
वह
परमात्मा
बनाता ही रहता
है कोई काबा, कोई काशी; कोई नया
काबा, कोई
नई काशी; पुराने
काबे और
पुरानी काशी
तो उजड़
जाते हैं——जल्दी
ही पंडितों के
हाथ में पड़
जाते हैं, पुरोहितों
के हाथ में पड़
जाते हैं।
लेकिन वह जल्दी
कहीं और नया
तीर्थ
निर्मित कर
लेता है। जिनको
पीना है, उनके
लिए उसकी तरफ
से कोई कमी
नहीं है।
जिनको पीना है,
उनके लिए
कुछ—न—कुछ
मार्ग बन ही
जाता है।
वो बज्म
देखी है मेरी
निगाह ने, कि जहां
बगैर—शम्अ भी
जलते रहे हैं
परवाने।
बिना
पीए पीना हो
जाता है; बिना
जले जलना हो
जाता है, ऐसा
चमत्कार, ऐसा
करिश्मा!
ये
किसी की चश्मे—फुसूं—साज
का करिश्मा है
यह
किसी जादू—भरी
आंख का
चमत्कार है?
कि टूट
कर भी सलामत
हैं दिल के बुतखाने।
माना
कि आदमी आज
बहुत उदास है, हताश है; माना
कि आज आदमी की
नजरों में
अंधेरा—ही—अंधेरा
है और हृदयों
में अब फूल
खिलते दिखाई
नहीं पड़ते, लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं: कसूर है
तो बस तुम्हारा
है। जरा सम्हलो!
जीवन का जो
महान अवसर
मिला है, उसका
थोड़ा उपयोग
करो! काटो मत
समय! यह
बहुमूल्य समय
काटने को नहीं
है। यह
बहुमूल्य समय
जीवन निर्मित
करने को है।
यह जीवन
संवारने को
है। जीवन को
शृंगार दो।
मगर भजन के
बिना कहां
जीवन को
शृंगार है।
जीवन को
सौंदर्य दो।
मगर भजन के
बिना जीवन में
कहां सौंदर्य
है। जीवन को
सत्य दो।
लेकिन भगवान
के बिना जीवन
को कोई सत्य न
मिला है न मिल
सकता है। क्या
कारण है कि आदमी
सुन लेता है
ऐसी बातें, फिर भी चलता
जाता अपने ही
पुराने ढंग, पुराने
रवैये से, पुराने
ढब से? कारण
है।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
सो जानैगा
पीर, काह
मूरख से कहिए।
यह जो
परमात्मा से
बचते हैं हम, उसका कारण
है; क्योंकि
परमात्मा से जुड?ने
का अर्थ है:
अपने हृदय को
उसके प्रेम—बाण
के लिए खुला
छोड़ देना, असुरक्षित
छोड़ देना। हटाओ
सारे कवच! हटा
लो ढालें! आने
दो उसका तीर, चुभ
जाने दो
प्राणों में!
पीर होगी बहुत——तीर
लगेगा तो पीर
तो होगी——मगर
वह पीड़ा बड़ी
मधुर है। पर
जानोगे तब जब
घटेगी। लाख
कबीर कहें, लाख नानक
कहें, लाख
पलटू कहें, लाख मैं
कहूं, लेकिन
जब तक तीर
तुम्हें न
लगेगा, जब
तक पीर
तुम्हारे
भीतर न फैल
जाएगी, तब
तक तुम जान न
पाओगे। यह कोई
साधारण तीर
नहीं है जो
मारता है, यह
ऐसा तीर है जो
जिलाता है। यह
तीर कुछ जहरीला
नहीं है, अमृत
है।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
लोग
डरते हैं, प्रेम—बाण से
डरते हैं; बचते
हैं।
सो जानैगा
पीर, काह
मूरख से कहिए।
और
उनसे तो यह
बात कही ही
नहीं जा सकती
जो अहंकार की मूढ़ता से
भरे हुए हैं।
बस एक ही मूढ़ता
है इस जगत में——अहंकार
की। उनसे तो
यह बात कही ही
नहीं जा सकती।
और ज्ञान
अहंकार को
जितना
परिपुष्ट
करता है और
कोई चीज
परिपुष्ट
नहीं कर सकती।
तथाकथित
ज्ञान, शास्त्रीय
ज्ञान——वेद, कुरान, बाइबिल,
पुराण
कंठस्थ हैं, अहंकार सजा
हुआ बैठा है।
लगाए तिलक, पहने जनेऊ
जमे हैं
पंडित। जरा
गौर से देखो, अहंकार ने
ज्ञान के
आभूषण पहन लिए
हैं, ज्ञान
की ओट में छिप
गया है। पंडित
जितने अहंकारी
होते हैं, कोई
और नहीं होता।
बड़ी धार होती
है उनके अहंकार
में। त्यागी
बड़े अहंकारी
हो जाते हैं।
इन सब को पलटू
मूरख कह रहे
हैं। इनसे बात
ही मत करना।
ये कुछ
समझेंगे ही
नहीं, क्योंकि
ये पहले से ही
समझे बैठे
हैं। ये समझे
बैठे हैं कि
इन्होंने समझ
ही लिया है।
शब्द कंठस्थ
कर लिए हैं
तोतों की तरह
और सोचते हैं,
जान लिया जो
जानने योग्य
है।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
इनको
तो प्रेम—बाण
लगने वाला ही
नहीं है। ये
तो खोपड़ी में
जी रहे हैं, ये तो हृदय
को भूल ही गए
हैं। ये तो
हृदय का मार्ग
ही बिसार दिए
हैं। इनके
भीतर हृदय है,
इसका भी
इन्हें पता
नहीं रहा है।
ये तो खोपड़ी में
बंद हैं, कैद
हैं।
सो जानैगा
पीर, कहा
मूरख से कहिए।
इन
मूर्खों से तो
कुछ कहना ही
मत।
खयाल
रखना, जब भी
संत मूरख शब्द
का प्रयोग
करते हैं, तो
उनका अर्थ
साधारण अर्थ
नहीं फोता।
उनका अर्थ
होता——बेपढ़ा—लिखा,
गंवार।
नहीं, उनका
अर्थ होता है:
पढ़ा—लिखा
गंवार।
चमन को
आग लगाने की
बात करता हूं
समझ
सको तो ठिकाने
की बात करता
हूं।
सहर को
शम्अ
जलाने की बात
करता हूं
ये गाफिलों
को जलाने की
बात करता हूं।
रविश—रविश
पे बिछा दो
बबूल के कांटे
चमन से
लुत्फ उठाने
की बात करता
हूं।
वो बागवान, जो पौदों से
बैर रखता है
ये आप
ही के जमाने
की बात करता
हूं।
वो
सिर्फ अपने
लिए जाम कर
रहे हैं तलब
मैं हर
किसी को
पिलाने की बात
करता हूं।
जहां चराग तले
लूट है, अंधेरा
है
वहां चराग
जलाने की बात
करता हूं।
नकाबे—रू—ए—जमाना
न उठ सकेगी कि
मैं
गुलों
से ओस उठाने
की बात करता
हूं।
घिसे
हुओं को नई
फिक्र दे रहा
हूं शाद
मंझे
हुओं को
सिखाने की बात
करता हूं।
थोड़ा—सा
निर्दोष हृदय
चाहिए, तो
ही तुम्हारे
भीतर संभावना
है प्रेम के
तीर को झेल
लेने की।
क्योंकि
प्रेम की
बातें अटपटी
हैं।
सहर को
शम्अ
जलाने की बात
करता हूं
ये गाफिलों
को जगाने की
बात करता हूं।
प्रेम
की बातें
अटपटी हैं, क्योंकि
प्रेम की
बातें
अतक्र्य हैं।
सुबह कोई शमा
जलाना है? दिन
को कोई दीया
जलाता है?
फिर
तुम्हें डायोजनीज
की याद दिलाऊं।
वह दिन में ही
हाथ में एक
लालटेन लिए
घूमा करता था।
जलती लालटेन, भर—दुपहरी!
लोग पूछते कि डायोजनीज
होश में हो? सूरज चमक
रहा है, धूप
बरस रही है, चारों तरफ
रोशनी है, लालटेन
किसलिए जलाए हो? तो डायोजनीज
कहता कि मैं
आदमी की तलाश
कर रहा हूं।
बड़ा अंधेरा
है! काश, सूरज
के ऊगने से
अंधेरा मिट
जाता, तो
सारे लोग
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते! बड़ा अंधेरा
है; बड़ी
अमावस है; हाथ
को हाथ नहीं
सूझता है।
इसलिए लालटेन जलाए घूम
रहा हूं, आदमी
की तलाश कर
रहा हूं।
और जब डायोजनीज
मरा, तब भी वह
अपनी लालटेन
पास रखे था।
लालटेन जल रही
थी, दोपहरी
थी, भीड़
इकट्ठी हो गई
थी। किसी ने
पूछा, डायोजनीज,
जिंदगी भर
तुम कहते रहे
कि बड़ा अंधेरा
है इसलिए
लालटेन जला कर
आदमी की तलाश
कर रहा हूं।
आदमी मिला? डायोजनीज ने कहा: आदमी
तो नहीं मिला,
लेकिन मेरी
लालटेन बच गई
यही क्या कम
है! क्योंकि
कई की नजर
लालटेन पर लगी
थी। इतना ही धन्यभाग
कि मेरी
लालटेन कोई
चुरा नहीं ले
गया। नहीं तो
नंगे आदमी के
पास लालटेन
कौन बचने दे!
कोई भी छीन
लेता; कोई
भी चुरा लेता।
डायोजनीज
ने कहा कि
मैंने लोगों
की आंखों में
मैं जो रोशनी
देना चाहता था
उसकी
उत्सुकता
नहीं देखी, लेकिन मेरी
लालटेन की
उत्सुकता
देखी कि किसी तरह
पा जाएं तो
छोड़ें नहीं।
सहर को
शम्अ
जलाने की बात
करता हूं
ये गाफिलों
को जगाने की
बात करता हूं।
चमन को
आग लगाने की
बात करता हूं
समझ
सको तो ठिकाने
की बात करता
हूं।
प्रेम
की बातें जरा
अटपटी हैं।
समझ सको तो
सीधी—साफ हैं।
लेकिन अगर
बहुत
अक्लमंदी हो——सब
उलटा हो जाता
है। प्रेम की
वाणी अटपटी।
इसलिए कबीर की
वाणी को कहा: उलटबांसी।
जैसे कोई
बांसुरी को
उलटी तरफ से बजाए।
हम
तर्क से जीते
हैं। वहां दो
और दो चार
होते हैं, सदा दो और दो
चार होते हैं;
कोई भी जोड़े
दो और दो चार
होते हैं।
प्रेम की दुनिया
में दो और दो
कभी पांच भी
हो जाते हैं, कभी तीन भी
हो जाते हैं, कभी दो और दो
एक भी हो जाते
हैं। कभी दो
और दो मिलकर
शून्य भी हो
जाते हैं।
वहां सब संभव
है। वहां
असंभव संभव
है।
सबसे
बड़ी असंभव
घटना तो यह
संभव है कि
आदमी की सीमित
क्षमता और
असीम का अवतरण
हो जाता है।
मुट्ठी—भर खाक
में सारा आकाश
उतर आता है।
जिसकी कोई औकात
न थी, एक बूंद—जैसी
जिसकी सीमा थी,
उसमें सारा
समुंदर उतर
आता है। असंभव
घटता है, लेकिन
तभी, जब
कोई प्रेम के
इस तीर को
झेलने को
तैयार हो।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
सो जानैगा
पीर, काह
मूरख से कहिए।
तिलभर
लगै न
ज्ञान, ताहि से चुप ह्वै
रहिए।।
ये
तथाकथित
ज्ञानियों को
तिल—भर भी
ज्ञान नहीं
है। और इनको
ज्ञान लग भी
नहीं सकता।
इन्होंने तो
खूब चिकनाई
पोत रखी है
शास्त्रों की
अपने ऊपर
चारों ओर। ये
तो चिकने घड़े
हैं। वर्षा भी
होती रहे तो
भी इनको पानी
छुएगा नहीं।
पंडित
से ज्यादा
चिकना घड़ा
तुमने देखा? उसमें ऐसी
चिकनाई लगी है,
पानी छू ही
नहीं सकता।
मैं
छोटा था तो
मेरे गांव में, मेरे पड़ोस
में घी बेचने
वाले एक सज्जन
रहते थे। उनके
कपड़ों में
इतना घी लग
चुका था...महा
कंजूस! शायद
उन पर दूसरी
जोड़ी कपड़े भी
थे, यह भी
संदिग्ध है——मैंने
नहीं देखे
दूसरी जोड़ी
कपड़े। वे एक
ही जोड़ी कपड़ा
पहने रहते थे।
और दिन—भर घी
बेचना और घी
खरीदना——घी ही
घी हो गया था
उनके कपड़ों
पर। मैंने
उनको स्नान
करते देखा——वे
कपड़े नहीं
उतारते थे।
लोटा लेकर
पानी ढाल लेते
थे, वह
कपड़ों पर तो
पानी लगता ही
नहीं था। फिर
मैंने वैसा
चमत्कार
दुबारा नहीं
देखा!
ऐसी ही
पंडित की दशा
है।
तिलभर
लगै न
ज्ञान, ताहि से चुप ह्वै
रहिए।।
पंडितों
से सिर मत
फोड़ना। पलटू
कह रहे हैं, पंडितों से
तो बचना; ये
तो महामूरख
हैं। इनको न
तो प्रेम का
तीर लगा है, न प्रेम की
पीर लगी है; न इनको
ध्यान का तीर
लगा है, न
ज्ञान का
आविर्भाव हुआ
है।
लाख
कहै समुझाय, बचन मूरख
नहीं मानै।
तुम
कितना ही
समझाओ, पंडित
विवाद करेगा,
मानेगा ही
नहीं। तुम
जितना मनाओगे,
उतना ही जिद्द
पकड़ेगा।
तासे
कहा बसाय, ठान जो अपनी ठानै।।
हठी है, अहंकारी है,
अपनी ही ठाने
रहेगा।
शास्त्रार्थ
करने को राजी
है, सत्य
की खोज में
जाने को राजी
नहीं है।
इस देश
को डुबाया
तो पंडितों ने
डुबाया।
इस देश को
मिटाया तो
पंडितों ने
मिटाया। इस देश
में एक बड़ी
अजीब स्थिति
पैदा कर दी——सब
को तोता बना
दिया! हरेक
आदमी ज्ञानी
मालूम होता
है। क्योंकि
जो देखो वही
ब्रह्मज्ञान
की चर्चा कर
रहा है। और
जीवन में, अपना भी पता
नहीं, ब्रह्म
का तो क्या
खाक पता होगा!
भजन की एक
बूंद कंठ से
नहीं उतरी है,
भगवान का
कोई अनुभव
नहीं हुआ है।
प्रेम की पीर
ही नहीं जानी
है। मगर लोगों
को शब्द याद
हो गए हैं। तुलसीदास
की चौपाइयां
दोहरा रहे
हैं।
जेहिके
जगत पियार, ताहि से भक्ति न आवै।
इस बात
को पहचान लेना, कि जिन्होंने
अभी भी माया
से, धन से, पद से
प्रतिष्ठा से,
यश से, महत्वाकांक्षा
से अपना मोह
लगा रखा हो, अपना प्यार
लगा रखा हो, समझ लेना——ताहि
से भक्ति न आवै।
इनको भक्ति
नहीं आ सकती।
इनको भक्ति
असंभव है।
सतसंगति
से विमुख, और के
सन्मुख धावै।।
ये
पंडित दूसरों
को समझाते फिर
रहे हैं और सतसंगति
से स्वयं
विमुख हैं।
पंडित हैं, मौलवी हैं, पादरी हैं, पुरोहित हैं——इनको
कुछ भी पता
नहीं
परमात्मा का।
मैं
वर्षों तक
जबलपुर में
रहा। वहां
ईसाइयों को एक
बड़ा कालेज है——लियोनॅर्ड
थियोलाजिकल
कालेज। वहां
पादरी—पुरोहित
तैयार किए
जाते हैं। एक
तरह की फैक्ट्री, जहां ईसाई
मिशनरी तैयार
किए जाते हैं।
उस कालेज के
प्रिंसिपल
कुछ—कुछ मेरे
चक्कर में पड़
गए! तो मुझसे
मिलने आने लगे।
आदमी भले थे।
मुझे कहा एक
बार कि आप भी
कभी आएं, हमारा
कालेज देखें।
सात सौ मिशनरी
तैयार हो रहे
हैं; पांच
वर्ष लगते हैं
तैयार होने में।
मैंने उनसे
कहा कि कालेज
में कैसे तुम
धार्मिक
व्यक्ति को
तैयार करोगे?
धर्म की कोई
शिक्षा तो हो
नहीं सकती।
धर्म तो संक्रामक
होता है। सदगुरु
के पास बैठकर
लगती है यह
बीमारी। इसकी
कोई शिक्षा
नहीं हो सकती।
पर फिर भी मैं आऊंगा।
मनोरंजन
रहेगा, देखूं क्या शिक्षा
होती है!
तो
उन्होंने जगह—जगह
मुझे घुमाया, जो शिक्षा
देखी वह सच
में मनोरंजक
थी। एक जगह, आखिरी कक्षा
में, इस
वर्ष के बाद
जो पादरी हो
जाएंगे, उनको
एक पाठ पढ़ाया
जा रहा था कि
जब तुम बाइबिल
समझाओ लोगों
को, तो किस
तरह खड़े होना,
किस शब्द को
जोर से बोलना,
किस शब्द को
बोलते वक्त
आंखें आकाश की
तरफ उठाना, किस शब्द को
बोलते वक्त
मुट्ठी बांध
लेना, किस
शब्द को बोलते
वक्त जोर से टेबिल
पीटना। मैंने
उनसे कहा, तुम
अभिनेता पैदा
कर रहे हो कि
तुम धर्म को
जानने वाले
लोग पैदा कर
रहे हो?
लौटते
में मैंने
उन्हें एक
कहानी सुनाई।
मैंने
उनसे कहा कि
मैंने सुना है, ऐसे ही एक
कालेज में
अध्यापक समझा
रहा है विद्यार्थियों
को कि जब तुम
समझाओ लोगों
को धर्म, बाइबिल
समझाओ, जब
स्वर्ग का
वर्णन करो, तो पूरा
मुंह
मुस्कुराहट
से खुल जाना
चाहिए——सारे
दांत दिखाई पड़
जाएं——आंखों
में एकदम चमक
आ जाए, जैसे
बिजली कौंध गई;
चेहरे पर
एकदम ओज छा
जाए, मस्ती
छा जाए, एकदम
मगनता
मालूम पड़े।
स्वर्ग का
वर्णन ऐसे ही
मत कर देना, वर्णन का
परिणाम
तुम्हारे
चेहरे पर
दिखाई पड़ना
चाहिए। एक
विद्यार्थी
ने खड़े होकर
पूछा: और जब
नर्क का वर्णन
करना पड़े, तब?
तो
प्रोफेसर ने
कहा कि तुम्हारी
जो साधारण
सूरत है, उससे
काम चल जाएगा।
नर्क का वर्णन
करने के लिए
तुम्हें कोई
अभ्यास करने
की जरूरत नहीं,
बस तुम सीधे
खड़े हो जाना।
तुम्हें
देखते ही ये
लोग समझ
जाएंगे कि
नर्क की क्या
हालत है।
असलियत
तो यह है कि
नर्क जैसा
चेहरा है, नर्क जैसा
व्यक्तित्व
है और स्वर्ग
का अभिनय करना
सिखा रहे हो।
मगर यही चल
रहा है।
एक जैन
मुनि मुझसे
मिलने आए थे।
मुझसे कहने लगे, आप भी गजब
हैं! रोज
बोलते हैं!
मेरे पास तो
सिर्फ चार
व्याख्यान
हैं। और अलग—अलग
समय के लिए
मैंने तैयार
कर रखे हैं।
जहां कम समय
हैं, वहां
दस मिनट का एक
व्याख्यान
तैयार कर रखा
है। एक बीस
मिनट वाला भी
है, एक तीस
मिनट वाला, एक चालीस
मिनट वाला।
चार से मैंने
जिंदगी में काम
चला लिया, आप
भी गजब हैं——बोलते
ही चले जाते
हैं! कैसे
बोलते हैं? कुछ मुझे भी
नुस्खा दें।
क्योंकि कभी—कभी
एक ही गांव
में वही—वही
व्याख्यान
बार—बार देने
में मुझे भी
बेचैनी होती
है। इसलिए तो
मैं ज्यादा
देर एक गांव
में रुकता भी
नहीं। और महावीर
ने कहा भी है
कि मुनि एक
गांव में
ज्यादा देन न
रुके। तो
मैंने कहा, अब मेरी समझ
में आया कारण।
तीन दिन से
ज्यादा रुकने
को कहा भी
नहीं और चार
व्याख्यान——पर्याप्त!
भूल—चूक कभी
जरूरत पड़ जाए
तो एक
अतिरिक्त, और
क्या चाहिए!
तीन दिन तो
महावीर ने कहा
है, कि बस
तीन दिन में
खिसक जाना।
तो
मैंने कहा कि
मैं पढ़ता तो
था शास्त्र
में कि तीन
दिन से ज्यादा
मुनि एक गांव
में रुके नहीं, लेकिन कारण
आपको देख कर
समझ में आया।
मैंने कहा, चार भी बहुत
हैं, एक भी
अतिरिक्त है
आपके पास। वह
भी किसी समय—असमय
के लिए।
मैंने
उनसे कहा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
बैठा है अपने
घर के भीतर——नंग—धड़ंग, गांधी
टोपी लगाए।
किसी ने
दरवाजा
खटखटाया तो उसने
ऐसा धीरे से
दरवाजा खोला,
जरा—सा
दरवाजा खोला,
झांक कर
देखा। उसने भी
झांककर
देखा, जो
बाहर आया था——दंपति,
पति—पत्नी——उन्होंने
भी देखा। वे
भी जरा हैरान
हुए! मगर अब
करें क्या? अब एकदम से
वह दरवाजा बंद
भी नहीं कर
सकता और वे भी
एकदम से लौट
नहीं सकते।
बात जरा भद्दी
हो जाएगी। तो
उसे भी कहना
पड़ा: आइए, आइए,
और उनको भी
आना पड़ा। तो
पति सामने हो
गए, पत्नी
जरा पीछे हो
गई...भारतीय
पत्नी, वह
जरा पति के
पीछे छिप गई, उसने कहा कि
यह तो...! पति तो
किसी तरह इस
बात को अनदेखा
करने की कोशिश
किए, कि
अपने को क्या
मतलब है? कम—से—कम
टोपी तो लगाए
है...बाकी जाने
दो! टोपी असली
चीज है! बाकी
तो सब गौण है।
इज्जत तो टोपी
में है। बाकी
देखना ही
क्यों? अपनी
नजर टोपी पर
रखो!
मगर
पत्नी से न
रहा गया। पूछ
ही बैठी कि और
सब तो ठीक है, टोपी भी
बिलकुल ठीक है,
मगर क्या
मैं पूछ सकती
हूं कि नंग—धड़ंग
क्यों बैठे
हैं? तो
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा कि बात
यह है कि इस
समय मुझसे कोई
मिलने आता ही
नहीं! इसलिए
नंग—धड़ंग
मजे से बैठा
हूं, गरमी
का वक्त, पसीना—पसीना
हुआ जा रहा
हूं। और कोई
इस समय मुझसे
मिलने आता ही
नहीं! इसलिए
नंग—धड़क
बैठा हूं। तो
पत्नी ने कहा,
ठीक है, नंग—धड़ंग बैठे
हैं, कोई
मिलने नहीं
आता, फिर
टोपी क्यों
लगाए हुए हैं?
तो उसने कहा,
यही कि कभी
भूल—चूक से
कोई आ जाए। अब
जैसे आप ही आ
गए।
तो
मैंने उनसे
कहा कि ठीक, तीन दिन
रुकना, चार
भाषण याद
रखना। कभी भूल—चूक,
बीमारी
इत्यादि कुछ
हो जाए और चार
दिन रुकना पड़े,
तो काम चल
जाए। मैंने
कहा: शास्त्र
में वचन लिखा
था, लेकिन
उसकी
व्याख्या
नहीं थी।
तुम्हें
देखकर
व्याख्या समझ
में आ गई। अब
ये लोगों को
अध्यात्म दे
रहे हैं, इस
तरह के लोग! ये हिज मास्टर्स
वॉइस! वह
देखा न, कुत्ता
बैठा है चोंगे
के सामने! ये
तुम्हारे मुनि
महाराज! ये
तुम्हारे
पंडित जी! ये
तुम्हारे
शास्त्री!
सतसंगति
से विमुख, और के
सन्मुख धावै।।
यहां—वहां
शोरगुल मचाए
फिरते हैं और सतसंगति
से विमुख हैं।
बुद्धों से तो
बचते हैं——बचना
ही पड़ेगा; क्योंकि
उनके सामने
खड़े होना
दर्पण में
अपना चेहरा
देखना है। और
कौन देखना
चाहता है कि
मैं मूढ़
हूं? कौन
देखना चाहता
है कि मैं
पापी हूं? कौन
देखना चाहता
है कि मैं
गर्हित हूं? कौन जानना
चाहता है कि
मैं जीवन गंवा
रहा हूं? लोग
तो अपने से गए—बीतों की
दोस्ती करते
हैं। क्योंकि
उनके बीच
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है।
समझदार
अपनों से बड़ों, जो पहुंच गए,
उनसे
दोस्ती बांधता
है, उनकी
छाया में
बैठता है। वही
सत्संग है।
क्योंकि वहां
पाठ मिलेगा
निर—अहंकारिता
का। वहां
देखेगा अपने
दोष। और दोष
दिखाई पड़ जाएं,
तो छोड़ने
में देर नहीं
लगती।
दोष का
दिखाई पड़ना
ही कठिन है, छोड़ना तो
बहुत आसान है।
दोष दिखाई
पड़ते ही छूट
जाता है, छोड़ना
नहीं पड़ता।
दिखाई पड़ गया
कि गलत है, बात
खतम हो गई।
कोई जानकर दीवालों
से नहीं
निकलता। जाने
कि दीवाल है
तो निकलता ही
नहीं। मानता
है कि दरवाजा
है, तो
दीवाल से टकरा
जाता है। कोई
जान कर पत्थर
खाता है, हां,
धोखा हो जो,
मिठाई का, तो बात और!
जानना, ठीक—ठीक
जानना जीवन का
रूपांतरण है।
ज्ञान मुक्ति
है।
सतसंगति
से विमुख, और के सन्मुख
धावै।।
और सब
जगह तो घूमता
फिरता है, लेकिन कहीं
अगर जीवन की
चेतना जगी हो,
कहीं अगर
नया मंदिर
परमात्मा का
बना हो, वहां
से बचता है, वहां से
भागता है।
सदगुरु
की निंदा
करेगा पंडित
सदा। क्योंकि सदगुरु की
छाया भी उसे
काटती है, उसे मुश्किल
में डालती है।
जिनकर
हिया कठोर है, पलटू धसैं
न तीर।
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
ऐसे
लोगों के हृदय
बड़े कठोर हैं।
पथरीले
हो गए हैं।
तर्क से भर गए
हैं।
सिद्धांत, शास्त्र ने,
सब ने मिल
कर उन्हें
बहुत कठोर कर
दिया है। उनकी
निर्दोषता, निर्मलता, उनकी कोमलता
खो गई है।
उनके भीतर कुछ
भी स्त्रैण
नहीं बचा। कुछ
भी मधुर नहीं
बचा। कुछ भी
सुकुमार नहीं
बचा। उनके
भीतर फूल जैसा
कुछ भी नहीं
है, सब
पत्थर है।
जिनकर
हिया कठोर है, पलटू धसैं
न तीर।
परमात्मा
का तीर भी अगर
प्रवेश करना
चाहे तो उनके
हृदय में नहीं
प्रवेश कर
सकता। बीच में
शास्त्रों की
दीवाल है। और
शास्त्र जिस
जोर से प्रेम
के तीर को
रोकते हैं और
कोई चीज नहीं
रोकती। शास्त्र
तो चीन की
दीवाल समझो!
प्रेमबान जाके लगा, सो जानैगा
पीर।।
और वही
जान सकता है
प्रेम के आनंद
को और प्रेम की
पीड़ा को...पीड़ा
और आनंद दोनों
साथ—साथ हैं।
पीड़ा इसलिए कि
नया—नया अनुभव
है——अपरिचित——और
आनंद, क्योंकि
द्वार खुल गए।
सदा से जिसकी
तलाश थी, उसका
नैकटय, उसका
सामीप्य मिल
गया।
सबद
छुड़ावै
राज को, सबदै करै
फकीर।।
प्रेम
का शब्द सब
कुछ छुड़ा
देता है——राज्य
को भी छुड़ा
देता है।
जिसको प्रेम
उपलब्ध हो गया
है, जिसको
परमात्मा का तीर
चुभ गया
है, उसकी
वाणी अगर तुम
उसके पास
पहुंच जाओ तो
सब छुड़ा
दे——राज्य भी छुड़ा दे। सबदै करै
फकीर। और शब्द
ही उसका, प्रेम
से जन्मा हुआ
शब्द ही न—मालूम
कितने लोगों
को संन्यस्त
कर देता है, फकीर कर
देता है।
सबदै करै फकीर, सबद फिर राम मिलावै।
यहां
तो तुड़वा
देता है
तुम्हें, व्यर्थ
से, और
वहां सार्थक
से जुड़ा देता
है। प्रेम के
अनुभव से
निकला हुआ
शब्द अपूर्व
है। उसकी
कीमिया, उसका
रसायन जादू
है। एक तरफ से तोड़ता है
और असार से और
दूसरी तरफ
जोड़ता है सार
से।
जिनके
लागा सबद, तिन्हैं कछु और न भावै।।
और
जिनको यह किसी
सदगुरु
का प्रेम से
भरा हुआ शब्द
छू गया, उन्हें
फिर कुछ और
नहीं भाता।
फिर इस संसार
में सब फीका—फीका
लगता है।
मरैं
सबद के घाव, उन्हैं को सकै जियाई।
होइगा
उनका काम, परी रोवै
दुनियाई।।
और
सिर्फ उन्हीं
का काम हुआ है
इस संसार में, जो सदगुरु
के चरणों में
मर गए और जी गए।
जिन्हें
पुनरुज्जीवन
मिला। जो
द्विज हुए।
बाकी सारा
संसार तो रोता
ही रोता रहता
है। आना और
जाना, रोना
और रोना। बाकी
सब के हाथ में
कुछ भी लगता नहीं।
होइगा
उनका काम, परी रोवै
दुनियाई...सारी
दुनिया रोती
रहती है, केवल
वे ही महोत्सव
को उपलब्ध
होते हैं जो
अहंकार की
दृष्टि से मर
जाते हैं और
आत्मा के रूप
में प्रगट
होते हैं।
मगर
किसी सदगुरु
की तलवार
चाहिए। कबीर
ने कहा है: हो
तैयारी सिर
कटवाने की, तो आ जाओ!
कबीर ने कहा
है: जो अपने घर
में आग लगा देने
की तैयारी हो,
तो आओ मेरे
साथ!
घायल
भा वा फिरै, सबद कै चोट
है भारी।
शुरू—शुरू
में जब चोट
लगती है तो
घायल पक्षी की
तरह तड़पता
है शिष्य।
उसकी पीड़ा गहन
है——यद्यपि
अपूर्व है, मधुर है, प्रीतिकर
है। भाग भी
नहीं सकता। इस
तीर को निकाल
भी नहीं सकता।
मगर घायल तो
होता है।
जन्मों—जन्मों
की पुरानी
आदतें टूटती
हैं, तो
घाव तो लगता
है।
घायल
भा वा फिरै, सबद कै चोट
है भारी।
जियतै मिरतक
होय...
जीते—जी
मार डालता है
गुरु!...
जियतै मिरतक होय, झुकै फिर उठै संभारी।।
जीते
जी मार डालता
है और फिर
झुकता है और
सम्हाल कर उठा
लेता है। गुरु
के सान्निध्य
में मृत्यु और
पुनर्जन्म
दोनों घटते
हैं। पुराने
शास्त्र कहते
हैं: आचार्यो
मृत्युः। वह
जो गुरु है, मृत्यु है। महामृत्यु।
लेकिन महाजीवन
भी।
पलटू
जिनके सबद का
लगा कलेजे
तीर।
सबद
छुड़ावै
राज को, सबदै करै
फकीर।।
लग
जाने दो यह
तीर। यह छीन
लेगा जो
व्यर्थ है, उसे, और
भर देगा झोली
सार्थक से।
जगत का राज तो
चला जाएगा, लेकिन
परमात्मा का
राज्य
मिलेगा। साहस
करो! हिम्मत
करो!
तुम्हारी
याद के जब जखम
भरने लगते हैं
किसी
बहाने
तुम्हें याद
करने लगते हैं
हदीसे—यार
के उनवां निखउने
लगते हैं
तो हर हरीम में
गेसू संवरने
लगते हैं।
हर
अजनबी हमें
महरम दिखाई
देता है
जो अब
भी तेरी गली
से गुजरने
लगते हैं।
सबा से
करते हैं
गुरबत—नसीब जिक्रे—वतन
तो
चश्मे—सुब्ह
में आंसू
उभरने लगते
हैं।
वो जब
भी करते हैं
इस नृत्को—लब
की बखियागरी
फिजा
में और भी नग्मे
बिखरने लगते
हैं।
दरे—कफस पे
अंधेरे की मोह्र
लगती है
तो फैज
दिल में
सितारे उतरने
लगते हैं।
याद
करनी होगी।
याद जगानी
होगी।
तुम्हारी
याद के जब जखम
भरने लगते हैं
किसी
बहाने
तुम्हें याद
करने लगते हैं
सदगुरु
बहाने खोजता
है तुम्हारे
लिए। बहुत
बहाने खोजता
है। यहां
तुम्हारे लिए
कितने बहाने खोजे जा
रहा हैं, कि
किसी तरह याद
आ जाए! किसी को
चुपचाप बैठे—बैठे
याद आए तो चुपचाप
बैठो। किसी को
वीणा छेड़कर
याद आए तो
वीणा छेड़ो।
किसी को पैरों
में घूंघर
बांधकर याद आए
तो घूंघर बांधो।
कोई सुनकर समझ
सके तो सुन कर
समझो। कोई
चुपचाप मौन
में गुन सके
तो मौन में गुनो।
सब उपाय।
लेकिन सब
उपायों का
अर्थ एक है——
तुम्हारी
याद के जब जखम
भरने लगते हैं
किसी
बहाने
तुम्हें याद
करने लगते
हैं।
हर
अजनबी हमें
महरम दिखाई
देता है
जो अब
भी तेरी गली
से गुजरने
लगते हैं।
और
उसके मंदिर
में प्रवेश तो
दूर, उसकी गली
से भी गुजर
जाओ, तो
फिर कोई
अपरिचित नहीं
मालूम होता, सब अपने
मालूम होते
हैं।
हर
अजनबी हमें
महरम दिखाई
देता है
अजनबी
भी परिचित
मालूम होता है, प्यारा
मालूम होता
है। क्योंकि
हरेक के भीतर उसी
की झलक, उसी
की रौनक, उसी
का जलवा।
हर
अजनबी हमें
महरम दिखाई
देता है
जो अब
भी तेरी गली
से गुजरने
लगते हैं।
तुम्हारी
याद के जब
जख्म भरने
लगते हैं
किसी
बहाने
तुम्हें याद करने
लगते हैं।
खोजो
बहाने। सब
विधियां, विधान,
बस बहाने
हैं। किसी तरह
तुम्हारे
हृदय को उघाड़ने
के लिए
तुम्हें राजी
करना है। वह
तो तीर लिए तैयार
है। उसने तो
तीर
प्रत्यंचा पर
कब का चढ़ा रखा
है। मगर
तुम्हारा
हृदय गीता, कुरान, बाइबिल,
न मालूम
कितनी—कितनी
ओटों में छिपा
है। हटाओ
ये दीवालें!
उतर जाने दो
उसका तीर!
झरने फूट पड़ेंगे
आनंद के, उत्सव
के!
तुम
मालिक हो उन
झरनों के।
गंवा मत देना!
बहुत जन्मों
में गंवाया है——अब
और नहीं!
भजन
आतुरी
कीजिए, और
बात में देर
और
बात में देर, जगत में
जीवन थोरा।
मानुषत्तन
धन जात, गोड़ धरि करौं
निहोरा।।
आज
इतना ही।
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