दिनांक; शनिवार, 21
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
भेख भगवंत
के चरन को ध्याइकै,
ज्ञान
की बात से
नाहिं टरना।
मिलै लुटाइए
तुरत कछु खाइए,
माया
औ मोह की ठौर
मरना।।
दुक्ख औ सुक्ख फिरि
दुष्ट औ मित्र
को,
एकसम
दृष्टि इकभाव
भरना।
दास
पलटू कहै राम कहू बालकेख
राम
कहु राम कहु सहज
तरना।।
देखि
निंदक कहैं करौं
परनाम मैं,
धन्य
महराज, तुम भक्त
धोया।
किहा
निस्तार तुम
आइ संसार में,
भक्त
कै मैल बिन
दाम खोया।।
भयो
परसिद्ध
परताप से आपके,
सकल
संसार तुम सुजस
बोया।
दास
पलटू कहै, निंदक के
मुये से,
भया
अकाज मैं बहुत
रोया।।
पराई
चिंता की आगि
महैं,
दिनराति जरै संसार
है, जी।।
चौरासी
चारिउ
खान चराचर,
कोऊ न पावै
पार है, जी।
जोगी
जती तपी
संन्यासी,
सबको
उन डरारा जारिहै, जी।
पलटू
मैं भी हूं जरत
रहा,
सतगुरु
लीन्हा निकारि है, जी।।
इक
नाम अमोलक मिलि
गया,
परगट भये मेरे
भाग हैं, जी।
गगन
की डारि पपिहा बोलै,
सोवत
उठी मैं जागि
हौं, जी।।
चिराग
बरै बिनु
तेल बाती,
नाहिं
दीया नहिं आगि
है, जी।
पलटू
देखिके
मगन भया,
सब
छुट गया तिर्गुना—दाग
है, जी।।
कितनी
ऊषा, कितनी
संध्या
कितने
कुसुमों
के मधुरीते
यों
ही पथ पर चलते—चलते
कितने
ही संवत्सर
बीते
पग
शिथिल, किंतु
गति मंद नहीं
यद्यपि
है तन—मन चूर—चूर
जिससे
मैं मिलने को
व्याकुल
मुझसे
वह कितना दूर—दूर।
जिस
पनिहारिन
की गगरी पर
मैं
ललचाया वह ढुलक
गई
जिस—जिस
प्याली पर धरे
अधर
वह—वह
छूते ही छलक
गई
देखो
मेरे प्रति
मेरी ही
किस्मत
है कितनी
क्रूर—क्रूर
जिससे
मैं मिलने को
व्याकुल
वह
मुझसे कितना
दूर—दूर।
मुझको
पथ पर अथ से
इति तक
पल—भर
भी कहीं विराम
नहीं
मैं
राही बन कर
आया हूं
रुकने
का मेरा काम
नहीं
मेरे
अंतर में
अन्वेषण
मस्तक
पर छाई धूर—धूर
मैं
जिससे मिलने
को व्याकुल
वह
मुझसे कितना
दूर—दूर।
कितनी
ऊषा, कितनी
संध्या
कितने
कुसुमों
के मधुरीते
यों
ही पथ पर चलते—चलते
कितने
ही संवत्सर
बीते
पग
शिथिल, किंतु
गति मंद नहीं
यद्यपि
है तन—मन चूर—चूर
जिससे
मैं मिलने को
व्याकुल
मुझसे
वह कितना दूर—दूर।
सत्य
की खोज में जो
भी निकले हैं, उन सब को ऐसा
ही प्रतीत
होता है कि
सत्य बहुत दूर
है। प्रतीति
का कारण है, क्योंकि
मिलता नहीं।
इतना चलते हैं
और मिलता नहीं।
तो निश्चित ही
दूर होगा। यह
तार्किक निष्पत्ति
है कि बहुत चल
कर भी जिसे न
पाया जा सके, स्वभावतः
मानना होगा
बहुत दूर है।
हमारे छोटे—छोटे
पग, हमारी
छोटी—छोटी
आंखें, हमारे
छोटे—छोटे हाथ
उस तक नहीं
पहुंच पाते।
शायद अनंत दूरी
है हमारे और
उसके बीच।
लेकिन
तर्क की यह
निष्पत्ति
तार्किक भला
दिखाई पड़े, सत्य नहीं
है।
परमात्मा
दूर नहीं है।
परमात्मा
निकट से भी निकट
है। उसे चल कर
पाने की जो
चेष्टा करेगा, उसके लिए
दूर हो जाता
है। उसे बैठकर
जो पाना
चाहेगा, तत्क्षण
पा लेता है।
चले कि भटके।
रुके कि पहुंचे।
इस सूत्र को, इस स्वर्ण—सूत्र
को हृदय में
सम्हाल कर रख
लो। चले कि दूर
चले, परमात्मा
से दूर चले, रुके कि पास
आए। बिलकुल
रुक जाओ तो
पहुंच ही गए।
क्योंकि
परमात्मा
तुम्हारे अंतरतम
में विराजमान
ही है। तुम
भागते हो, चलते
हो, दौड़ते
हो, आपाधापी
करते हो, इसलिए
स्वयं को नहीं
देख पाते, स्वयं
से परिचित
नहीं हो पाते।
बैठो तो परिचय
हो। थोड़ा रुको,
थोड़ा थमो
तो परिचय हो।
फुर्सत कहां,
आंखें दूर
अटकी रहती हैं,
पास को देखो
तो कैसे देखो?
परमात्मा
इसलिए नहीं नहीं
मिलता कि दूर
है बल्कि
इसलिए नहीं
मिलता है कि
इतने पास है, इतने पास है
कि आंख खोली
कि दूर हो
गया। आंख बंद
रखी तो सामने
है। हाथ
फैलाया कि दूर
हो गया। क्योंकि
हाथ के भीतर
ही वह मौजूद
है। पग बढ़ाया
कि चूके, क्योंकि
पग जिसने
बढ़ाया, वही
वह है। क्रिया
से परमात्मा
नहीं पाया
जाता है, पाया
जाता है
अक्रिया से।
उस अक्रिया
में ठहरने को
बुद्ध ने
ध्यान कहा है,
पलटू ने
ज्ञान कहा है।
अक्रिया में
ठहरने को। दौड़ना
नहीं, भागना
नहीं, तलाशना
नहीं, रुक
जाना, ठहर
जाना।
और
अक्रिया केवल
देह की नहीं, मन की। देह
से तो कोई भी
बैठ सकता है।
बहुत लोग आसन
लगाए बैठे हैं
गुफाओं में, वृक्षों के
नीचे। आसन तो
लगा है, लेकिन
मन का आसन
नहीं लगा है।
तन तो ठहर गया,
मन और—और
भागा हो गया
है। तन को
जितना बिठाते
हो, मन
उतना भागा—भागा
हो जाता है।
तन तो यहां है,
मन कहीं और।
तन का आसन तो केवल
मन के आसन की
पूर्व—भूमिका
है।
शरीर
को ठहरा लेना
है ताकि ठहरी
हुई उस भूमिका
में मन भी ठहर
जाए। शरीर
ठहरे और मन दौड़ता
रहे तो कुछ
सार नहीं। तो
सब थोथा है।
ऐसे ही योगी
भटक गए हैं।
भोगी
भटक गए हैं तन
को दौड़ा—दौड़ा कर; मन तो दौड़ ही
रहा है। योगी
भटक गए हैं, तन को तो
ठहरा लिया है
लेकिन तन में
लगी हुई जो ऊर्जा
थी, तन के
दौड़ने में जो
शक्ति लगी थी,
वह भी अब मन
को मिल गई, मन
और भागा—भागा
हो गया। भोगी
का मन तो
संसार में ही
भटकता है, योगी
का मन स्वर्ग—नर्क,
मोक्ष—कैवल्य
और न—मालूम
कहां—कहां
भटकने लगता
है। उसके पास
भटकने के लिए
ज्यादा शक्ति
उपलब्ध हो
जाती है। शरीर
में जो उलझी
थी ऊर्जा, वह
भी मन को मिल
गई। भोगी भी
भटका है, योगी
भी भटका है।
सिर्फ ध्यानी
पहुंचता है।
ध्यानी
का अर्थ है: मन
भी ठहरे, तन
भी ठहरे। बस
ठहराव आ जाए।
यह झील चेतना
की बिलकुल निस्तरंग
हो जाए। उस निस्तरंग
चित्त में
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
जाना जाता है।
परमात्मा
वस्तु की तरह
नहीं जाना
जाता, ज्ञेय
की तरह नहीं
जाना जाता, परमात्मा तो
ज्ञाता की तरह
जाना जाता है,
जानने वाले
की तरह जाना
जाता है।
परमात्मा दृश्य
नहीं बनता कभी,
वह तो
द्रष्टा है।
वह तुम्हारे
भीतर भी
द्रष्टा होकर
विराजमान है
और तुम दृश्य
की तरह उसकी
खोज कर रहे हो,
इसलिए बहुत
दूर—दूर...।
तुम्हारे
कारण दूर है।
तुम थोड़ा समझो, तुम थोड़ा गुनो
तो उससे
ज्यादा पास और
कोई भी नहीं
है।
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै।
पलटू
कहते हैं, भगवान के
चरण में ध्यान।
कहां हैं
भगवान के चरण?
काशी में, काबा में, कैलाश में? कहां हैं
भगवान के चरण?
तुम्हारे
हृदय में
विराजमान है।
किसी और मंदिर
में नहीं
जाना। हृदय
में ही
उतरेंगे, हृदय
की सीढ़ियों
में ही उतरोगे
तो पा लोगे
मंदिर।
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै।
और
भगवान अगर समझ
के बाहर हो, बूझ के बाहर
हो—जो कि
स्वाभाविक
है। न उसे
देखा, न
पहचाना, न
कभी उसका
स्वाद लिया; न रंग का पता,
न रूप का; उसका ठिकाना
भी मालूम नहीं,
उसकी आकृति
भी मालूम नहीं,
तुम कैसे
उसके चरणों
में ध्यान
लगाओगे? उसकी
देह ही नहीं
है तो उसके
चरण क्या
होंगे?
तो चरण
में ध्यान
लगाने का और
भी गहरा अर्थ
खयाल में ले
लो। कुछ ऐसा
नहीं है कि
आंख बंद करके
तुम परमात्मा
के चरणों की
कल्पना करो कि
ये रहे चरण
कमल! वह तो
कल्पना ही
होगी। तुम दो
चरणों को देख
लोगे, स्वर्ण
के बने हुए, तो भी
कल्पना ही
होगी। और
कल्पना को खूब
दोहराते रहोगे
तो प्रगाढ़
होती जाएगी।
जब भी आंख बंद
करोगे, दो
चरण दिखाई
पड़ेंगे। मगर
तुमने एक झूठ
में अपने मन
को रमा लिया।
चरण में ध्यान
लगाने का केवल
इतना ही अर्थ
होता है—जो कि
प्रगट नहीं
होता वक्तव्य
में, छिपा
रह जाता है—चरण
में ध्यान
लगाना परोक्ष
रूप से कुछ और
कहा जा रहा है;
कहा जा रहा
है: झुको। चरण
में ध्यान
लगाने का मतलब
होता है:
समर्पण।
झुकने की कला।
चरण तो केवल
प्रतीक हैं, क्योंकि चरण
का अर्थ होता
है: छुओगे
तो झुकोगे।
ध्यान लगाओगे
चरणों में तो
झुकना ही
पड़ेगा—आंख को
झुकना पड़ेगा,
दृष्टि को
झुकना पड़ेगा,
दर्शन को
झुकना पड़ेगा।
यह तो प्रतीक
है कहने के
लिए। इस
प्रतीक में मत
उलझ जाना।
नहीं तो लोगों
ने चरण बना
लिए हैं—पत्थर
के, सोने
के, चांदी
के। उन्हीं पर
फूल चढ़ा रहे
हैं। चूक गए! प्रतीक
को जोर से पकड़
लिया।
झेन
फकीर रिंझाई
अपने शिष्यों
से कहा करता
था, मेरी
अंगुली को मत
पकड़ो, मेरे
इशारे को
देखो। मेरी
अंगुली को मत
चूसने लगो, चांद को
देखो जिस तरफ
अंगुली उठी
है।
मगर
दुनिया में
सारे लोगों ने
अंगुलियां
पकड़ ली हैं, अंगुलियां चूस रहे
हैं। अंगुलियां
कितनी ही चूसो,
उससे पोषण
नहीं मिलता।
छोटे बच्चे ही
धोखे नहीं खा
रहे हैं, बड़े
बच्चे भी धोखे
खा रहे हैं।
बड़ी उम्र वाले
भी अंगुलियां
चूस रहे हैं।
प्रतीक को पकड़ना,
प्रतीक को
खूब जोर से
पकड़ लेना कि
चूक गए तुम अर्थ
से। प्रतीक
पकड़ा नहीं
जाता। प्रतीक
समझा जाता है।
चरण
में ध्यान का
अर्थ होता है:
झुको; अपने
ही भीतर झुक
जाओ। यह अकड़ न
रह जाए अहंकार
की। अहंकार अकड़कर खड़ा
होता है। चरण
में ध्यान
लगाया, झुकना
पड़ा। झुक गया
जो, पा
लिया उसने।
अगर पूरे झुक
जाओ तो क्षण
भर का विलंब
नहीं होगा।
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै,
लेकिन
कठिन है।
भगवान को
प्रतीक भी
मानो, उसके
चरण को प्रतीक
भी मानो, तो
भी कुछ आलंबन
नहीं दिखाई
पड़ता—कहां झुकें?
किस दिशा
में झुकें?
कैसे झुकें?
झुकने को
कुछ सहारा
चाहिए। इसलिए
पलटू कहते हैं:
भेख। भेख
का अर्थ होता
है: अगर भगवान
न मिले तो
भगवान का वेषधारी
कोई मिल जाए, देहधारी कोई
मिल जाए।
भगवान तो अदेह
है, निर्गुण
है, निराकार
है। उसे समझने
के लिए तो
उतनी ही
निराकार
आंखें चाहिए,
उतना ही
निर्गुण
चित्त चाहिए।
कठिन है आज
एकदम से वैसा
निराकार हो
जाना। लेकिन
जिसने भगवान
को देखा हो, जिसने भगवान
से आंखें चार
की हों, ऐसे
किसी देहधारी
की आंख में झांकता,
उसकी आंखों
में तुम्हें सीढ़ियां
मिलेंगी।
उसकी आंखों
में तुम्हें
परमात्मा का
प्रतिबिंब
मिलेगा। अगर
चांद को सीधा
न देख सको तो
किसी झील में
झांकना। माना
कि झील का
चांद तो केवल
प्रतिबिंब है,
मगर है तो
असली चांद का
ही
प्रतिबिंब।
असली की कुछ
छाप तो है।
असली की कुछ
धुन तो है। और
जो प्रतिबिंब
को देखने में
समर्थ हो गया,
जो
प्रतिबिंब को
समझने में
समर्थ हो गया,
ज्यादा देर
न लगेगी असली
की तरफ आंख
उठाने में।
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै
भगवान
के चरणों में
ध्यान लगे, शुभ, न लग
सके तो सदगुरु
के चरणों में।
जो अभी देह
में है, देह
यानी भेख।
देह यानी अभी
जो वेष में
है। जब बुद्ध
पृथ्वी पर चल
रहे हैं, तो
अभी परमात्मा
रूप लिए है।
इसे हम अवतार
कहें, बुद्धत्व
कहें, जिनत्व कहें, जो
भी नाम देना
हो दें। बुद्ध
पृथ्वी पर हैं,
तो भगवान
अभी देह में
समाया हुआ।
अभी आकाश आंगन
में उतरा हुआ
है। शायद आंगन
को तुम देख
पाओ, आकाश
विराट है। मगर
जिसने आंगन को
समझ लिया, उसने
आकाश की तरफ
यात्रा के लिए
सबसे महत्वपूर्ण
कदम उठा लिया।
बुद्ध की
आंखों में
झांकोगे तो
सीमा में बंधे
हुए असीम को
पाओगे। बुद्ध के
चरणों में झुकोगे,
कह सकोगे: बुद्धं शरणं गच्छामि।
समग्र चित्त
से बुद्ध के
चरणों में सिर
रखोगे, बुद्ध
के चरण तो
तिरोहित हो
जाएंगे, पाओगे
तो तुम भगवान
के ही चरण। सदगुरु
वही है जिसके
चरणों में सिर
रखकर उसके चरण
तो विलीन हो
जाएं और भगवान
के अदृश्य चरण
प्रकट होने
लगें।
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै,
ज्ञान
की बात से
नाहिं टरना।
और एक
बार अगर कभी
ऐसा शुभ क्षण
आ जाए, ऐसी
शुभ घड़ी, ऐसा
शुभ मुहूर्त
कि कोई ऐसे
चरण मिल जाएं
जिनमें
निराकार की
थोड़ी प्रतीति
हो जाए; कोई
ऐसा आकार मिल
जाए जिसमें
निराकार की
छवि बनती हो, प्रतिफलन
होता हो; कोई
ऐसी वाणी
सुनाई पड़ जाए
जिसमें शून्य
का नाद हो, जिसमें
अनाहत हो, जिसमें
ओंकार की
ध्वनि हो; कोई
ऐसी
प्रतिध्वनि
मिल जाए, तो
फिर टरना
मत! फिर हटना
मत! फिर सब
दांव पर लगा
देना! फिर बचना
मत! क्योंकि
जो बचा, उसने
फिर खोया, बुरी
तरह खोया।
और
बहुत बार तुम
बच गए हो।
पलटू ठीक कहते
हैं, चेताते
हैं। न—मालूम
कितनी बार
कितने
बुद्धों के
करीब तुम पहुंच
गए होओगे! लंबी
तुम्हारी
यात्रा है।
जन्मों—जन्मों
से तुम चल रहे
हो। यह असंभव
है कि तुम में
से कुछ लोग
बुद्ध के करीब
न पहुंचे हों।
यह असंभव है
कि तुम में से
कुछ लोग
महावीर के दर्शन
न किए हों। यह
असंभव है कि
तुम में से
कुछ लोगों ने
जीसस की वाणी
न सुनी हो। यह
असंभव है कि
तुम में से
कुछ कानों में
मुहम्मद की
कुरान न गूंजी
हो। यह असंभव
है! यहां नहीं
तो वहां, वहां
नहीं तो यहां,
कहीं—न—कहीं
किसी—न—किसी
मार्ग पर, किसी
मोड़ पर किसी बुद्धपुरुष
का दर्शन जरूर
तुम्हें हुआ
होगा! इतनी
लंबी यात्रा
में, जन्मों—जन्मों
की यात्रा में
यह असंभव है
कि तुम एक बार
भी किसी बुद्ध
के करीब न आए
होओ। संभावना
यही है कि
बहुत बार आए
होओगे। कभी
कोई कबीर मिल
गया होगा, कभी
कोई नानक, कभी
कोई पलटू, कभी
कोई रैदास, कभी कोई
फरीद। इतने
ज्योतिर्मय
पुरुष हुए! इतने
दीए जले!
मिट्टी में
इतनी बार
चिन्मय का अवतरण
हुआ! देह में
इतनी बार
परमात्मा
प्रकट हुआ!
नहीं, तुम
पहुंच तो गए
होओगे कई बार
करीब, लेकिन
डर गए; चूक
गए।
शायद
कहा होगा: फिर
कभी। अभी और
बहुत काम हैं।
आऊंगा
कभी, जरूर आऊंगा,
लेकिन अभी
तो मैं जवान
हूं। हो जाऊंगा
वृद्ध, जीवन
का काम—धाम, व्यवसाय
पूरा हो जाएगा,
तो जरूर आऊंगा।
ये चरण तो हैं
जहां झुकना है,
ये चरण तो
हैं जहां
बैठना है!
या तो
तुमने ऐसे
तर्क खोजकर कल
पर टाल दिया
होगा। जिसने
कल पर टाला, सदा को
टाला। या फिर
तुमने कुछ भूल—चूकें
निकाल ली
होंगी। तुमने
देखा होगा, बुद्ध! अरे, ये तो
वस्त्र पहने
हुए हैं! जिनत्व
को उपलब्ध
व्यक्ति तो
निर्वस्त्र
होता है। तो वस्त्रधारी
बुद्ध, कहीं
चूक हो रही है!
ये असली बुद्ध
नहीं हो सकते।
और तुम
महावीर के पास
भी चूक गए
होओगे, क्योंकि
तुमने सोचा
होगा: बांसुरी
कहां है? मोर—मुकुट
कहां है? कृष्ण
ने तो बांसुरी
बजाई, मोर—मुकुट
बांधा, अपूर्व
सौंदर्य में
प्रकट हुए। यह
भी कोई ढंग है:
नंग—धड़ंग
खड़े हैं!
तुमने चूक
निकाल ली
होगी।
और ऐसा
नहीं है कि
तुमने कृष्ण
के पास चूक न
निकाल ली होगी—चूक
निकालने वाला
मन सब जगह चूक
निकाल लेता है।
उसने कृष्ण के
पास भी चूक
निकाल ली होगी
कि ये कैसे
भगवान! युद्ध
में उतरते
हैं। उतरते ही
नहीं, संन्यासी
होते अर्जुन
को खींच—खांच
कर युद्ध में
लगा देते हैं।
समझा—बुझा कर
युद्ध में
उतार देते
हैं।
महाविनाश, हिंसा
करवाते हैं।
ये कैसे
भगवान!
वीतराग
नहीं मालूम
होते। सोलह
हजार इतनी पत्नियां
हैं। एक पत्नी
नरक ले जाने
को काफी, ये
सोलह हजार
पत्नियों को
लेकर किस नरक
में पहुंचेंगे?
फिर ये सारी
पत्नियां
इनकी पत्नियां
नहीं, इनमें
कई दूसरों की पत्नियां
हैं जो भगाई
हुई हैं। और
यह बांसुरी
बजा कर यह जो
रासलीला चल
रही है
पूर्णिमा की
रात, वृदांवन में, किसी
वंशीवट
में, यह तो
राग का खेल
हुआ, वीतरागता कहां है? नहीं—नहीं,
यहां भगवान
नहीं हो सकते।
मुहम्मद
के हाथ में
तलवार देख कर, तुम लौट पड़े
होओगे देख कर
तलवार कि
भगवान के हाथ
में और तलवार!
भगवान और
युद्ध के लिए
तत्पर! और
जीसस को सूली
चढ़ा देखकर
तुमने कहा
होगा, अरे,
अपने को बचा
न सके—और जगत
के तारनहार!
अपने को बचा न
सके! और
कहानियां सब मनगढ़ंत
होंगी कि जल
पर चले और
मुर्दों को
जिंदा किया।
दिखाना था
चमत्कार तो आज
दिखा देते!
कोई एक
लाख आदमी
इकट्ठे थे जब
जीसस को सूली
लगी। जीसस के
चरणों में सिर
झुकाने को
नहीं, देखने
आए थे कि आज
देखें, अब
करे यह सिद्ध
कि परमात्मा
का असली बेटा
यही है! अब करे
सिद्ध, अब पुकारे
अपने
परमात्मा को,
अब दिखलाए
चमत्कार! और
निश्चिंत घर
लौटे थे कि सब धोखाधड़ी
थी।
जीसस
के साथ दो
चारों को भी
सूली लगी थी, वे भी मर गए।
वैसे ही मर गए
जैसे जीसस मर
गए। लौट आए घर
लोग निश्चिंत
हो कर कि चलो
अच्छा हुआ, धोखे से बचे!
और जिन्होंने
जीसस का
अनुगमन किया
होगा, उनको
भी कहा होगा—देख
लिया परिणाम?
वे सब झूठी
कहानियां जो
तुम गढ़ते
थे, अफवाहें,
और यह आदमी
दो कौड़ी
का साबित हुआ!
अपने को भी
बचा न सका, किसी
और को क्या बचाएगा?
खुद भी डूब
गया, तुम
को भी डुबा
रहा था।
या तो
तुमने कोई
तर्क निकाल
लिया होगा और
बच गए होओगे।
और तर्क
निकालने में
तुम काफी कुशल
हो। और तर्कों
की कोई कमी
नहीं है। तुम
निकाल ही लोगे।
महावीर
पेचिश की
बीमारी से
मरे। महावीर
और पेचिश की
बीमारी!
जीवनभर उपवास
करते रहे और
पेट की बीमारी
से मरे! मेरे
हिसाब से तो
बिलकुल ठीक
है। क्योंकि
उपवास इतने
दिन करोगे तो
पेट खराब होने
वाला है।
महावीर पेचिश
की बीमारी से
ही मरने
चाहिए। और
किसी बीमारी
से मरते तो
मुझे दिक्कत
होती। महीने—महीने
भर उपवास
करोगे और फिर
एक दिन भोजन
करोगे, तो
पेचिश नहीं
होगी तो और
क्या होगा? पेट ने पचाने
की क्षमता छोड़
दी होगी। मेरे
हिसाब से तो बिलकुल
तर्कयुक्त
है। मेरे
हिसाब से तो
यह बात गढ़ी
हुई नहीं हो
सकती। जैन तो गढ़ते कैसे?
लेकिन अनेक
लौट गए होंगे
यह देख कर कि
महावीर और
पेचिश की
बीमारी!
जैनों
ने तो कहानी गढ़ी कि
पेचिश की
बीमारी असली
नहीं थी। वह
तो गोशालक नाम
के दुष्ट
व्यक्ति ने
काली विद्या
उनके ऊपर फेंक
दी थी, उस
काली विद्या
के कारण उनको
पेचिश की
बीमारी थी।
महावीर को
नहीं थी
बीमारी, गोशालक
की दुष्टता के
कारण थी। जरूर
लोग संदेह
उठाने लगे
होंगे कि
महावीर को
पेचिश की बीमारी!
भक्तों को
कहानी गढ़नी
पड़ी होगी महावीर
को बचाने के
लिए।
भक्तों
में और
दुश्मनों में
बहुत फर्क
नहीं है।
दोनों का गणित
एक। देखते हो
तुम, गणित
दोनों का एक
है। भक्त भी
कहता है, नहीं,
महावीर को
कैसे पेचिश की
बीमारी हो
सकती है! गोशालक
की तरकीब है
यह। उसी दुष्ट
ने जादू किया,
मंतर किया।
लेकिन तुम
तार्किक को
इससे तृप्त
नहीं कर सकते।
वह कहेगा, जब
गोशालक का
मंत्र और जादू
महावीर पर चल
गया, जब
महावीर अपनी
रक्षा नहीं कर
पाए गोशालक की
काली विद्या
से, तो
इनको तुम
तीर्थंकर
कहते हो? ये
संसार के
अंधकार से, अमावस से
तुम्हारी
रक्षा कर
पाएंगे? ये
अपने को नहीं
बचा पाए
साधारण
गोशालक से, ये किसको
बचा पाएंगे
तुम
जरा सोचना।
बचने की
तरकीबें आदमी
का मन निकाल
लेता है। ऐसे
ही तुम बचते
चले आए हो।
इसलिए पलटू
ठीक कहते हैं—
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै,
ज्ञान
की बात से
नाहिं टरना।
एक बार
तुम्हें कहीं
अगर थोड़ी—सी
झलक मिले, पुलक मिले, रोमांच हो
जाए; एक
बार अगर
किन्हीं
आंखों में
झांक कर
तुम्हें
शून्य की थोड़ी
ध्वनि सुनाई
पड़ जाए; किसी
के पास बैठ कर
तुम्हारा
हृदय आंदोलित
हो उठे, तुम्हारी
हृदयत्तंत्री
बज जाए, तो
बचना मत, भागना
मत, टालना
मत, समझाना
मत, अपने
लिए तर्क मत
खोजना, स्थगित
मत करना। उस
क्षण छलांग
लगा जाना।
क्योंकि भगवान
में सीधी
छलांग कठिन है,
निराकार से
सीधा संबंध
जोड़ना कठिन है,
अगर कहीं
आकार में
परमात्मा
उपलब्ध हो, तो अवसर
गंवाना मत।
और
ध्यान रहे, आकार में जब
भी परमात्मा
उपलब्ध होगा
तो तुम आकार
के कारण कुछ—न—कुछ
भूल—चूक खोज
सकते हो।
निराकार आकाश
में कोई भूल—चूक
नहीं खोज
सकते। वहां
खोजने को कुछ
है ही नहीं।
निराकार आकाश
है। लेकिन
आंगन? तिरछा।
कि आंगन की
दीवाल? सुंदर
नहीं। कि आंगन
की दीवाल? मिट्टी
की, सोने
की नहीं। कि
आंगन की दीवाल
गिरी—गिरी हो
रही है। कि
आंगन की दीवाल
पर घास—पात ऊग
आया है। घास—पात
तो आंगन की
दीवाल पर ऊगा
है, आंगन
तो वैसा ही
शुद्ध है जैसा
आकाश। लेकिन
आंगन की भूमि
में हो सकता
है कंकड़
हों, पत्थर
हों, कांटे
हों। आंगन तो
वही है जैसा
आकाश, लेकिन
आंगन की भूमि
भी है, दीवाल
भी है। और
दीवाल और भूमि
में तुम भूल—चूक
खोज सकते हो।
और वहीं आदमी
भूल—चूक खोज
कर अटक जाता
है, रुक
जाता है। फिर
आंगन तिरछा तो
नाचें
कैसे?
अब
आंगन के तिरछे
से क्या लेना—देना!
जिसे नाचना
आता है, जिसे
नाचना है, वह
तिरछे—से—तिरछे
आंगन में नाच
लेगा। और जिसे
नहीं नाचना है,
कितने ही
गणित के हिसाब
से बनाया गया
आंगन हो, वह
नहीं नाच
पाएगा।
मैंने
सुना है, गणित
के एक
प्रोफेसर
आजादी के
युद्ध में
सम्मिलित हुए
और उनको छः
महीने की सजा
हो गई। जब वे लौटे
तो उनके
विद्यार्थियों
ने पूछा, कैसी
रही
जेलयात्रा? सब ठीक तो था?
उन्होंने
कहा, और सब
तो ठीक था, लेकिन
मेरी कोठरी की
दीवाल के जो
कोने थे वे
ठीक नब्बे अंश
के नहीं थे।
इस
आदमी को वही
बात अखरी।
ज्यामिति के
प्रोफेसर थे, ज्योमेट्री के, इनको
जो सबसे
ज्यादा
अखरी...छः
महीने उस कमरे
में रहना, जरूर
इनको बहुत
मुश्किल हो गई
होगी! बार—बार
देखना वही कि
दीवाल जो है, वह ठीक
नब्बे अंश की
नहीं है। इरछी—तिरछी
है। किस
नालायक ने
बनाई है! जेल
में कोई और
तकलीफ उन्हें
याद ही न आई, उनको बात
अखरी तो अखरी
एक।
तुम्हें
जब कोई बात अखरे
तो खयाल करना, तुम्हारे मन
के कारण अखरती
है, तुम्हारी
दृष्टि के
कारण अखरती है,
तुम्हारे
पूर्व
पक्षपातों के
कारण अखरती है।
और इन
छोटी—छोटी
बातों के कारण
इस आदमी के छः
महीने खराब हो
गए होंगे।
चौबीस घंटे
उसी कोठरी में
रहना। आंख बंद
करे तो भी
उसको दिखाई
पड़ता होगा कि
वह दीवाल! रात
सोए तो भी
सपने आते
होंगे कि
दीवाल तिरछी।
किस नालायक ने
बनाई है! गणित
का इसे कोई
बोध नहीं था!
तुम सोच भी
नहीं सकते कि
तुमने यह
तकलीफ झेली
होती इस
कालकोठरी
में। और हजार तकलीफें
थीं, मगर और सब
तकलीफें
गौण हो गईं।
तुम
अगर महावीर के
पास जाकर चूक
जाओ, तो ध्यान
रखना, अपने
कारण चूक रहे
हो। अगर
तुम्हें
महावीर की नग्नता
में कुछ अड़चन
आए, तो
समझना कि यह
तुम्हारी भीतरी
अड़चन है। तुम
शायद नग्न
होने से डरते
हो। तुम शायद
नग्न होने में
भयभीत हो।
तुम्हें शायद
भय है कि नग्न
होओगे तो उघड़
जाओगे, तुम्हारे
सब पाप उघड़
जाएंगे।
तुम्हें डर है
कि नग्न होते
ही तुम्हारी
सारी
कामवासना
अभिव्यक्त हो
जाएगी। तुमने
कपड़ों में
सिर्फ देह
नहीं ढांकी
है, अपनी
कामवासना भी ढांकी है।
तुम्हें
महावीर की
नग्नता से अगर
अड़चन हो तो कहीं, गौर से भीतर
तलाशना, तुम्हें
अपनी नग्नता
से ही अड़चन
है। तुम्हें अगर
बुद्ध के पास
बैठ कर कोई
कठिनाई होने
लगे, तो
सोचना कि
कठिनाई मुझे
हो रही है, जरूर
कारण मेरे
भीतर होना चाहिए।
तुम्हें अगर
ऐसा लगे कि
बुद्ध वस्त्र
पहने हुए हैं
और वस्त्र तो
नहीं पहनने
चाहिए, सब
त्याग दिया तो
अब वस्त्र भी
क्या, तो
जरा गौर से
देखना, कहीं
तुम्हारे
भीतर
वस्त्रों के
प्रति मोह होगा।
तुम्हें
वस्त्रों में
रस होगा। तो
तुम यह नहीं
मान सकते कि
मुझे वस्त्रों
में रस है, इसलिए
यह कैसे हो
सकता है कि
बुद्ध को
वस्त्रों में
रस न हो। अगर
कृष्ण के पास
नाचती हुई गोपियों
को देख कर
तुम्हारे मन
में ऐसे उठा
कि यह कैसा वीतराग—भाव?
तो तुम इतना
ही जानना कि
स्त्रियों
में तुम्हारा
रस है और कुछ
भी नहीं। तुम
जब भी कृष्ण, बुद्ध, महावीर,
कबीर, नानक
के संबंध में
कुछ सोचो, तो
ध्यान रखना, तुम्हारा
वक्तव्य
तुम्हारे
संबंध में कुछ
बताता है, उनके
संबंध में कुछ
भी नहीं। तभी
तुम टिक सकोगे।
तभी तुम्हारे
जीवन में
क्रांति हो
सकेगी।
मिलै लुटाइये
तुरत कछु खाइए,
बड़ा
प्यारा वचन, सीधा—साफ।
जैसे दो और दो
चार। तीर की
तरह सीधा जाता
है। मिलै लुटाइये...अगर
मिल जाए कभी
कोई ऐसा सदगुरु
और मिल जाए
उसकी संपदा का
पता, झलक
दिख जाए...मिलै
लुटाइए...तो
खुद तो पीना
ही, पचाना
ही; खुद तो
आपूर भर ही
लेना अपने को,
आकंठ, लुटाना
भी! इतने पर ही
मत रुक जाना
कि ठीक, अपने
को मिल गया, अब क्या
करना! मिलै
लुटाइए।
जीसस
ने कहा है, चढ़ जाना
मकानों की मुंडेरों
पर और चिल्लान,
क्योंकि
लोग बहरे हैं।
खबर देना। कोई
मानेगा नहीं
तुम्हारी, कोई
सुनेगा नहीं
तुम्हारी, फिक्र
मत करना। सौ
से कहोगे, एक
तो सुनेगा। एक
ने भी सुन
लिया तो बहुत।
और एक
राज की बात है
कि जितना लुटाओगे
उतना पाओगे।
जैसे कुएं से
कोई पानी भरता
जाए तो नए—नए
झरने कुएं में
नया—नया जल ले
आते हैं। किसी
कुएं में पानी
भरा जाए, कंजूस
कुएं को बंद
कर दे, ताला
लगा दे—सोचे
कि ऐसे रोज—रोज
लोगों को पानी
निकालने दिया
तो किसी दिन जरूरत
पड़ी, अकाल
पड़ा, पानी
न हुआ, तो
हम प्यासे
मरेंगे—बंद
कुआं सड़
जाएगा। बंद
कुएं के झरने
मर जाएंगे।
बंद कुएं के
झरने बंद हो
जाएंगे। कुएं
का पानी जहर
हो जाएगा। जिस
दिन जरूरत
होगी, उस
दिन पीने
योग्य नहीं
होगा। मारेगा,
जिलाएगा नहीं। कुएं
से तो पानी
उलीचते ही
रहो। जितना उलीचोगे, कुआं उतना
ताजा रहेगा।
उतना जीवंत।
और ऐसी ही अवस्था
भीतर के आनंद
की है। कहीं
मिल जाए आनंद,
तो—मिलै
लुटाइए।
तुरत
कछु खाइए,
बड़ी
प्यारी बात है, कि सुनना ही
मत, पचा
लेना। तुरत खाइए! पी
जाना
तुम्हारी
मांस—मज्जा बन
जाए। सदगुरु
मिले, तो
उसे पीओ, खाओ,
पचाओ। उसे
तुम्हारे रोएं—रोएं में
बस जाने दो।
उसे तुम्हारी
श्वास—श्वास
में समा जाने
दो। वह
तुम्हारे खून
में बहे। वह
तुम्हारी
हड्डियों में
प्रविष्ट हो जाए।
वह तुम्हारा
जीवन बन जाए।
मिलै लुटाइए
तुरत कछु खाइए, जहां दिखाई
पड़े, क्षण—भर
भी न चूकना!
ज्ञान
की बात से
नाहिं टरना।
फिर
करोगे क्या? सदगुरु के चरणों
में झुक कर
करोगे क्या? पचाओ उसे, पीओ
उसे! उससे
परमात्मा बह
रहा है।
उपनिषद
कहते हैं: अन्नं
ब्रह्म। अन्न
ब्रह्म है।
मैं तुमसे
कहता हूं:
ब्रह्म भी
अन्न है। जैसे
भोजन शरीर के
लिए, स्वस्थ
रखता, परिपुष्ट
रखता, ऐसा
ही आत्मा का
भोजन भी है।
वही सत्संग
में मिलता है।
वही पोषण, जो
तुम्हारी
आत्मा को
बलवान करता है,
आत्मवान
करता है।
मिलै लुटाइए
तुरत कछु खाइए,
कहते
हैं: तुरत।
क्षण—भर की भी
देरी न हो, मन बड़ा
बेईमान है।
सब
पात पीले पड़
गए
कुछ
बच रहे, कुछ
झड़ गए
फिर
वर्ष बीता एक
यह, बीती
वसंत—बहार भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
कुछ
वृष्टि के, हेमंत के
कुछ
ग्रीष्म और
वसंत के
दिन
बीतते ये जा
रहे, बन—मिट
रहा संसार भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
था
कल वसंत यहां
हंसा
अलि, कुसुम—कलियों
में फंसा
जड़
और चेतन में
हुई क्षण एक
आंखें चार भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
अब
वह न सौरभ वात
में
अब
वह न लाली पात
में
अवशेष
यदि कुछ तो
निशा के
आंसुओं का हार
ही,
लो
आ गया पतझार
भी।
इस
आह का क्या
अर्थ है?
दुख—सुख
सुनाना
व्यर्थ है?
लौटा
नहीं प्रिय को
सकी, पिक
की अशांत
पुकार भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
जिसमें
विलीन वसंत है,
उस
शून्य का क्या
अंत है?
क्या
शून्य में ही
लय कभी होगा
हमारा प्यार
भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
सब
पात पीले पड़
गए
कुछ
बच रहे, कुछ
झड़ गए
फिर
वर्ष बीता एक
यह, बीती
वसंत—बहार भी,
लो
आ गया पतझार
भी।
देर न
करना! वसंत के
जाते देर नहीं
लगती! अभी बुद्ध
हैं, अभी
बुद्ध नहीं
हैं। बुद्ध तो
एक वसंत हैं
चैतन्य के। और
प्रकृति का
वसंत तो हर
वर्ष आ जाता
है, लेकिन
बुद्धों के
वसंत आने में
तो सदियां लग
जाती हैं।
सदियों—सदियों
में कभी कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता है।
टालना मत!
कहना मत कि कल!
क्योंकि क्या
पता, कब
वसंत बीत जाए!
कब हाथ में झरे
पत्ते रह जाएं?
उन्हीं झरे
पत्तों को लोग
शास्त्र कहते
हैं। पहले तो
पत्तों से ही
शास्त्र बनते
भी थे। पत्तों
पर ही लिखे भी
जाते थे। अब
अगर पत्तों पर
नहीं भी लिखे
जाते तो भी
फर्क नहीं है
कुछ, ये पतझड़
के ही पत्ते
हैं! जब वसंत
था और पत्ते
हरे थे और फूलों
से लदे थे और
वृक्ष ताजा था,
जीवंत था, हरा था, बदलियों
से बात करता
था, चांदत्तारों के साथ
संबंध था, नाचता
था, गाता
था, गुनगुनाता
था, तब तुम
कहां थे? तुम
आते ही हो तब
जब वृक्ष जा
चुका, सूखे
पत्ते पड़े रह
गए! उनको तुम
संजो लेते हो।
उनसे तुम
शास्त्र
निर्मित कर
लेते हो। फिर
सदियों—सदियों
तक पंडित
उन्हीं
पत्तों की
पूजा करता रहता
है। सड़े—गले
पत्ते, सूखे—साखे
पत्ते। माना
कि कभी उन पर
वसंत था, पर
अब नहीं है।
और माना कि
कभी उनमें फूल
खिले थे, मगर
अब नहीं हैं।
और माना कि
कभी भौंरे
उनके आसपास
गुनगुनाए थे,
मगर वह बात
गई, गई हो
चुकी।
वसंत
जब हो चैतन्य
का कहीं, तो
झुक जाना। तो
टिक जाना। तो
सब दांव पर
लगा देना। फिर
तर्कजाल
खड़े मत करना।
फिर व्यर्थ की
बातों में मत
उलझना। फिर
व्यर्थ के
बहाने न खोजना
बचने के।
इसलिए
कहते हैं—
मिलै लुटाइए
तुरत कछु खाइए,
क्षण
न बीते; तत्क्षण।
माया
औ मोह की ठौर
मरना।।
जिसमें
तुम पड़े हो
अभी, माया और
मोह के रास्ते
पर, वहां
तो मृत्यु के
सिवाय और कुछ
नहीं है। जिसने
अमृत पा लिया
हो, उससे
साथ जोड़ लो।
देर न करो, उससे
साथ जोड़ लो।
ऐसे भी बहुत
देर हो चुकी
है। बहुत देर
हो चुकी है!
दुक्ख
और सुक्ख फिरि
दृष्ट और
मित्र को,
एकसम
दृष्टि इकभाव
भरना।
और सदगुरु
से सत्संग हो
जाए तो कुछ
पृष्ठभूमि
निर्मित करनी
होगी, ताकि
सत्संग गहराए।
ताकि सत्संग
रोज—रोज घना
हो, सघन हो,
तीव्र हो।
प्रज्वलित हो
उठे अग्नि
सत्संग की। तो
कौन—सी भूमिका
उपयोगी होगी?
दुख और सुख,
दोनों को एक
समझना शुरू
करो। जब सदगुरु
मिल जाए तो
आनंद मिलना
शुरू हुआ, अब
दुख और सुख की
फिक्र छोड़ो।
अब दोनों को
समान समझो। अब
कुछ ऊपर की
बात होने लगी।
अब कुछ आकाश
उतरने लगा। अब
पृथ्वी से आंखें
हटाओ।
दुख और सुख
समान समझो।
दुष्ट और
मित्र को भी समान
समझो।
क्योंकि
दुष्ट और
मित्र, शत्रु
और मित्र, ये
सब यहीं माया—मोह
के झगड़े हैं।
जो साथ दे वह
साथी है, जो
विरोध करे वह
दुश्मन है।
लेकिन जिसके
मन में इस जगत
में कुछ पाने
और पकड़ने
की ही
आकांक्षा न
रही गई हो, अब
कौन दोस्त, कौन दुश्मन?
एकसम
दृष्टि इकभाव
भरना।
अब तो
एक समदृष्टि
को जगाओ।
मित्र हो तो, शत्रु हो तो—समभाव,
एक दृष्टि।
इससे भूमिका
बनेगी। सदगुरु
को ज्यादा
आसानी से पी
सकोगे। आकाश
सुगमता से उतर
सकेगा।
चाहा, न जीवन पा
सका
चाहा, न मृत्यु
बुला सका
कैसी
तुम्हारी
रीति है, यह भी नहीं, वह भी नहीं
कुछ
भी नहीं, कुछ भी
नहीं।
क्यों
लिपटने
सुख से लगा
क्यों
भागने दुख से
लगा
जब
जानता हूं
सत्य तो, सुख भी नहीं,
दुख भी नहीं
कुछ
भी नहीं, कुछ भी
नहीं।
इस
साधना से क्या
हुआ
आराधना
से क्या हुआ
यदि
कर सका प्रिय
का इधर, मुख
भी नहीं, रुख
भी नहीं
कुछ
भी नहीं, कुछ भी
नहीं।
इस
जिंदगी को जरा
गौर से तो
देखो।
क्यों
लिपटने
सुख से लगा
क्यों
भागने दुख से
लगा
जब
जानता हूं
सत्य तो, सुख भी नहीं,
दुख से भी
नहीं
कुछ
भी नहीं, कुछ भी
नहीं।
कितनी
देर और लगाओगे
इस सीधे—से
सत्य को जानने
में? कितनी
बार तो सुख
आया और कितनी
बार तो दुख
आया—सब आया और
गया। पानी पर
खींची लकीरें
हैं। बन भी
नहीं पातीं और
मिट जाती हैं।
क्या बचा
तुम्हारे हाथ
में? सुख
भी स्मृति रह
गई—बस पानी पर
खींची
लकीरें। दुख
भी स्मृति रह
गई—बस पानी पर
खींची
लकीरें।
कितनी बार तो
लगा कि बस, इस
सुख को छाती
से लगा लूं और
कभी न छोडूं।
मगर क्या टिका?
और भी
आश्चर्य की
बात है, अगर
सुख टिक भी जाए
तो जल्दी ही
दुख हो जाता
है।
कल
मैं एक गीत पढ़
रहा था:
दुनिया
जिसे कहते हैं,
जादू
का खिलौना है।
मिल
जाए तो मिट्टी
है,
खो
जाए तो सोना
है।
मिल
जाए तो मिट्टी
है, खो जाए तो
सोना है। जो
मिल जाता है, वही मिट्टी
हो जाता है।
जिस स्त्री के
पीछे दीवाने
थे, मिल गई और
मिट्टी हो गई।
जिस पुरुष के
पीछे पागल थे,
मिल गया और
मिट्टी हो
गया। मिल जाए
तो मिट्टी है,
खो जाए तो
सोना है। न
मिले...मजनू
सौभाग्यशाली था,
लैला नहीं
मिली, सोना
बनी ही रही।
इतने
सौभाग्यशाली
सभी मजनू नहीं
होते। मजनुओं
को लैला मिल
जाती है। और
तब गले में
फांसी लग जाती
है। मजनू कभी
जाग ही न सका
अपने स्वप्न
से, क्योंकि
लैला मिली ही
नहीं। मिल
जाती तब बच्चू
को पता चलता नोनत्तेल—लकड़ी!
तब फिर लैला—लैला
न करता।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक शराबखाने
में बैठा था।
एक मित्र के
साथ गपशप चल
रही थी, पी
रहे थे।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने उस मित्र
से पूछा कि
बड़ी देर हो गई,
आज घर नहीं
जाना है? मित्र
ने कहा, घर
जाकर क्या
करूं? घर
है कौन? गैर—शादी—शुदा
हूं। घर खाली
और सूना है।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने हाथ सिर से
मार लिया; उसने
कहा, हद्द
हो गई! तुम
इसलिए यहां
बैठे हो? हम
इसलिए बैठे
हैं कि घर
पत्नी है। घर
जाएं तो कैसे
जाएं! जितनी
देर कट जाए
उतना अच्छा
है। मिल जाए
तो मिट्टी है,
खो जाए तो
सोना है।
कितनी
बार तो सुख
मिले! या तो खो
गए और नहीं खो
गए तो
तुम्हारे हाथ
में मिट्टी हो
गए। और कितनी
बार तो दुख
मिले! या तो खो
गए या धीरे—धीरे
तुम उनके आदी
हो गए, वे तुम्हारी
आदत बन गए।
सुख और दुख के
पार भी कुछ है,
इसीलिए
जीवन में अर्थ
है, गरिमा
है, महिमा
है, परमात्मा
है। सुख—दुख
के पार उठना
है।
सदगुरु
को पीना हो तो
सुख—दुख के
पार उठना पड़े।
कुछ
बात दिल की कह
सकूं
उपहास
जग का सह सकूं
सुख—दुख
में सम रह
सकूं, इतना
मुझे अधिकार
दो,
मुझको
न सुख—संसार
दो।
मैं
नित नई पालूं
व्यथा
मेरी
निराली हो कथा
जिसका
न आदि न अंत हो, वह प्रेम—पारावार
दो
मुझको
न सुख—संसार
दो।
साहस
हृदय में दो
अमर
चूमूं
तरंगों के अधर
नौका
भंवर में
डालकर, चाहे
न फिर पतवार
दो,
मुझको
न सुख—संसार
दो।
कुछ
बात दिल की कह
सकूं
उपहास
जग का सह सकूं
सुख—दुख
में सम रह
सकूं, इतना
मुझे अधिकार
दो,
मुझको
न सुख—संसार
दो।
मांगना
हो परमात्मा
से प्रार्थना
में कुछ तो इतना
ही मांगना कि
सुख—दुख में
सम रहने की
क्षमता दो।
क्यों? क्योंकि
जिसमें यह
क्षमता आ गई, वह परमात्मा
को पाने का
पात्र हो जाता
है। मांगना हो
तो इतना ही
मांगना कि शत्रु
और मित्र को
समान रूप से
देख सकूं; कांटे
और फूल को
समदृष्टि से
देख सकूं, क्योंकि
जिसमें समता
की दृष्टि आ
गई, सम्यकत्व आ गया, उसकी
समाधि दूर
नहीं। सम्यकत्व
समाधि की ही
पहली किरण है,
पगध्वनि
है। और जहां
समाधि की
पगध्वनि सुनी
जाती है, वहां
समाधान है, वहां
परमात्मा है।
दास
पलटू कहै राम कहु बालके,
राम
कहु राम कहु सहज
तरना।।
पलटू
वही कह रहे
हैं जो
शंकराचार्य
ने कहा है: भज गोविंदम मूढ़मते। मूढ़मति को बालके कह
रहे हैं कि हे
बालक!
दास
पलटू कहै राम कहु बालके,
राम
कहु राम कहु सहज
तरना।।
एक ही
धुन तुम्हारे
भीतर गूंजने
लगे निराकार की, निर्गुण की;
सत्संग ही
तुम्हारा
प्राण बन जाए;
उठो तो राम
में, बैठो
तो राम में, सोओ तो राम
में; खाओ
तो राम, पीओ
तो राम, बोलो
तो राम, सुनो
तो राम—राम से
ही घिर जाओ; राम के सागर
में डुबकी लग
जाए। उस दिन
ही जानना कि मूढ़ता
मिटी। फिर तुम
बालक न रहे, प्रौढ़ हुए।
फिर तुम्हारे
भीतर बुद्धि
का आविर्भाव
हुआ, प्रतिभा
जगी। धार्मिक
व्यक्ति के
अतिरिक्त और
कोई
प्रतिभाशाली
नहीं है।
धार्मिक
व्यक्ति के
अतिरिक्त
मेधा की कोई
परम
अभिव्यक्ति नहीं
है।
देखि
निंदक कहैं करौं
परनाम मैं,
और बड़ी
निंदा होगी।
अगर ऐसे झुके
किसी सत्संग में, अगर झुके
किन्हीं
चरणों में, अगर गहे
कोई चरण, अगर
लगाया ध्यान
निराकार में,
अगर
परमात्मा की
तलाश गहन हुई,
प्राण उसके
रस में पगने
लगे, तो
बड़ी निंदा
होगी। भीड़—भाड़
अंधों की है, आंखवालों को पसंद
नहीं करती।
देखि
निंदक कहैं करौं
परनाम मैं,
निंदकों
से भर जाएगा
जगत तुम्हारे
लिए। जो अपने
थे, पराए हो
जाएंगे। इधर
जैसे—जैसे
तुम्हारे
भीतर सम्यक्त्व
का भाव बढ़ेगा,
वैसे—वैसे
तुम पाओगे कि
शत्रु बढ़ने
लगे। बड़ी उलटी
दुनिया है!
तुम्हारे
भीतर से शत्रु—भाव
छूटने लगा और
उधर बाहर
शत्रु बढ़ने
लगे। अब तुम
किसी का बुरा
नहीं सोचते और
हजारों लोग जो
तुम्हारे
संबंध में कभी
नहीं सोचते थे,
वे
तुम्हारा
बुरा सोचने
लगेंगे। वे
एकदम पागल हो
उठेंगे।
तुम्हें हानि
पहुंचाने को न—मालूम
कितने लोग
तत्पर हो
उठेंगे। हजार
काम छोड़कर
तुम्हें हानि
पहुंचाने को
आने लगेंगे।
पलटू कहते हैं,
लेकिन तुम
एक खयाल रखना,
तुम तो
प्रणाम करना!
देखि
निंदक कहैं करौं
परनाम मैं,
नमस्कार
करना।
धननय
महाराज, तुम भक्त
धोया।
धन्यवाद
देना कि
महाराज, तुम
क्या आ जाते
हो, धो
जाते हो।
तुम्हारी
बातें, तुम्हारी
गालियां, तुम्हारे
पत्थर, सभी
मेरी धूल झड़ा
देते हैं।
मेरी भूल—चूक
बता जाते हो।
कबीर
ने कहा है:
निंदक नियरे राखिए
आंगन कुटी छवाय।
अगर निंदक हों, तो पास में
ही बसा लेना
और आंगन कुटी छवा देना; ढंग से उनकी
सेवा—सत्कार
करना। उनकी
बातें सुनना
गौर से। क्योंकि
निंदक की
बातें या तो
सच होंगी या
झूठ होंगी—और
तीसरी तो कोई
होने की
संभावना नहीं
है। सच हों, तो लाभ
होगा। सच हों
तो तुम्हें
अपनी भूल—चूक
पता चलेगी, उसे सुधारना,
भूल—चूकें
बहुत हैं। और
अगर झूठ हों, तो भी लाभ
होगा। लाभ यह
होगा कि अब
झूठ से तुम परेशान
मत होना। झूठ
से क्या
परेशान होना!
सच हों तो
ग्रहण कर लेना,
झूठ हों तो
भीतर—भीतर हंस
लेना। मगर
निंदक
तुम्हारी
सेवा कर रहा
है।
किहा
निस्तार तुम
आइ संसार में...
पलटू
भी खूब कहते
हैं। कहते
हैं:
धन्य
महाराज, तुम भक्त
धोया।
किहा
निस्तार तुम
आइ संसार में,
भक्त
कै मैल बिन
दाम खोया।।
तुम्हारी
बड़ी कृपा है
जो तुम संसार
में आ जाते हो, आते रहते
हो। अवतारी—पुरुष
समझो तुम्हें
कि आ—आ कर
भक्तों को
धोते रहते हो,
नहलाते
रहते हो। गंगा—जल
हो तुम। और
बिना दाम! कभी—कभी
चकित होकर
सोचना पड़ता है
कि कुछ लोगों
को जैसे कोई
और काम ही
नहीं है! वे
दूसरों की
निंदा में ही समय
लगाए रखते हैं—चौबीस
घंटे! उनका
श्रम महान है!
उनकी साधना महान
है!
धन्य
महराज, तुम भक्त
धोया।
भक्त
कै मैल बिन
दाम खोया।।
भयो
परसिद्ध
परताप से आपके,
सकल
संसार तुम सुजस
बोया।
और
तुम्हारी ही
कृपा है कि
जिससे
प्रसिद्ध हुआ
भक्त! नहीं तो
भक्तों को
जाने कौन? भक्तों को
पहचाने कौन?
भयो
परसिद्ध
परताप से
आपके...
क्योंकि
भक्त तो
चुपचाप शायद
बैठे—बैठे, मस्ती—मस्ती
में डूबे—डूबे
एक दिन विदा
हो जाता है।
मगर निंदक
उसकी खबर
दुनिया के
कोने—कोने तक
पहुंचा देते
हैं।
सकल
संसार तुम सुजस
बोया।
निंदक
तो बोता है
कांटे, लेकिन
भक्त को तो
कांटे लगते ही
नहीं, उसके
पास तो कांटे
आते ही फूल हो
जाते हैं। निंदक
तो फेंकता है
अंगार, लेकिन
भक्त को छूते
ही फूल हो
जाते हैं।
पलटू कहते हैं,
तुम सुजस
बोया। निंदक
और सुयश बोए? निंदक तो
जितना गढ़
सकता है उतनी
निंदा गढ़ता
है। लेकिन
पलटू कहते हैं,
तुम्हारी
निंदा से कुछ
होता नहीं; सुयश ही
फैलाता है।
तुम्हारे
कारण बहुत लोग
भक्त को खोजते
चले आते हैं।
तुम्हारे
कारण बहुत लोग
भक्त के हो
जाते हैं।
दास
पलटू कहै, निंदक के
मुये से,
भया
अकाज मैं बहुत
रोया।।
पलटू
कहते हैं कि
जब मेरा
प्रधान निंदक
मर गया...दास
पलटू कहै, निंदक के मुए
से, भया
अकाज...बहुत
अकाज हो गया।
बड़ी बुरी बात
हो गई। मैं
बहुत रोया कि
उस बेचारे ने
कितनी सेवा की।
अथक, बिना
किसी
पारिश्रमिक
के। धन्य महराज,
तुम भक्त
धोया।
स्मरण
रखना, जैसे
ही तुम्हारी
धर्म में गति
होगी, वैसे
ही निंदा बढ़ने
लगेगी। यह
बहुत हैरानी
की बात है, मगर
अपरिहार्य
है। बुद्ध
बिना गाली खाए
इस पृथ्वी से
नहीं जा सकते।
बुद्धों के
रास्ते पर लोग
कांटे बोते ही
हैं। उनकी भी
मजबूरी है।
कांटे बोने
वाले भी क्या
करें, एक
अनिवार्यता
है! अंधे लोग
आंख वाले को
पसंद नहीं
करते।
क्योंकि उसकी
मौजूदगी में
उन्हें अपना
अंधापन अखरता
है। बुद्धू
बुद्धों को
पसंद नहीं कर
सकते। कहते
हैं, ऊंट
पहाड़ के पास
जाना पसंद
नहीं करता।
क्योंकि वहां
जाकर उसे पता
चलता है कि
अरे, मैं
भी कुछ नहीं!
ऊंट शायद
इसीलिए
रेगिस्तान चुनते
हैं रहने के
लिए। बड़े
होशियार हैं!
रेगिस्तान
में वे ही पहाड़
हैं। पहाड़ों
के पास ऊंट
जाने से डरता
है। पहाड़ को
देख कर ऊंट को
लगेगा, मैं
तो ना—कुछ, मैं
तो कुछ भी
नहीं।
बुद्धों की
मौजूदगी तो गौरीशंकर
जैसी है—उत्तुंग,
आकाश छूती।
उनके पास जाकर
तुम अचानक
कीड़े—मकोड़े
जैसे मालूम
होने लगते हो।
उनकी रोशनी
में तुम एकदम
अंधकार मालूम
होने लगते हो।
उनका
प्रज्वलित
प्रकाश और
तुम्हें अपने
भीतर की सारी
ग्लानि और सारे
पाप दिखाई
पड़ने लगते
हैं। उनकी
खींची हुई बड़ी
रेखा के सामने
तुम एकदम छोटे
और क्षुद्र हो
जाते हो। कोई
नहीं चाहता कि
क्षुद्र हो।
हालांकि वे
तुम्हें
क्षुद्र नहीं
कर रहे हैं।
मगर यह अनिवार्यरूपेण
घट जाता है।
तुमने
कहानी सुनी।
अकबर ने एक
दिन लकीर खींच
दी दरबार में
आकार। पहेली
की एक किताब
में उसने पढ़ी
थी। हल नहीं
कर पाया था
खुद तो दरबार
में लकीर खींच
दी और लोगों
से कहा कि
बिना इसे छुए
जो छोटा कर
देगा, उसे
लाख स्वर्णमुद्राएं
मिलेंगी।
बिना छुए! उसी
प्रश्न में
अटक गए बुद्धिमान:
बिना छुए? छोटा
करना है तो
छूना तो पड़ेगा
ही। छोटा करना
है तो बिना
छुए कैसे होगा?
और तब उठा बीरबल और
उसने एक बड़ी
लकीर उसके
नीचे खींच दी।
छुआ नहीं उसे
और छोटा कर
दिया। लकीर
उतनी की उतनी
ही है—छोटी
हुई नहीं, न
बड़ी हुई, मगर
छोटी दिखाई
पड़ने लगी।
ऊंट तो
ऊंट है, चाहे
पहाड़ के
किनारे खड़ा हो
और चाहे
रेगिस्तान
में। मगर पहाड़
के किनारे
छोटा दिखाई
पड़ता है। तुम
तो तुम हो, चाहे
पापियों के
बीच बैठो, चाहे
पुण्यात्माओं
के। लेकिन
पापियों के बीच
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति
मिलेगी। तुम
श्रेष्ठ
मालूम पड़ोगे।
पुण्यात्माओं
के बीच बैठोगे,
तुम
निकृष्ट
मालूम पड़ोगे;
तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगेगी। और
अहंकार को चोट
लगे तो अहंकार
सांप की तरह
फुफकारता है।
वही निंदा बन
जाती है।
अहंकार को चोट
लगे, तो
जहर उगलता है।
उगलेगा
ही। इसलिए यह
अपरिहार्य है
कि बुद्धों के
रास्ते पर
कांटे बोए
जाएंगे, अंगारे
फेंके जाएंगे,
सूलियां दी
जाएंगी, जहर
पिलाया
जाएगा। जो
व्यक्ति
परमात्मा का अमृत
पीता है, उसे
संसार का जहर
पीना पड़ता है।
वह कीमत चुकानी
पड़ती है—मगर
वह कीमत
चुकाने जैसी
है।
परमात्मा
का अमृत जो पी
रहा है, उसे
फिक्र भी क्या
संसार के जहर
की? संसार
का जहर उसका
बिगाड़ भी क्या
लेगा? ज्यादा—से—ज्यादा
इतना ही होगा
कि वह नीलकंठ
हो जाएगा। और
देखते हो, पक्षी
तो बहुत हैं
मगर नीलकंठ
जैसा प्यारा
कोई पक्षी है?
नीलकंठ शिव
का प्रतीक हो
गया, क्योंकि
शिव जहर पी
गए। और जहर के
कारण कंठ नीला
हो गया। इसलिए
वर्ष में एक
दिन लोग नीलकंठ
की तलाश में
जाते हैं, उसका
दर्शन करने
जाते हैं।
नीलकंठ है भी
प्यारा!
मगर यह
कोई शिव की ही
बात नहीं। जो
भी शिवत्व
को उपलब्ध हुए
हैं, उन सब के
कंठ नीले हो
गए हैं। वे
सभी नीलकंठ हैं।
उन सब को जहर
पीना पड़ेगा।
हर चीज की
कीमत चुकानी
होती है। अमृत
मुफ्त नहीं
है। मगर क्या
कीमत है यह! दो कौड़ी की
कीमत है यह!
अमृत जिसको
मिल रहो हो!
जहर मार तो न
सका शिव को!
सूली मार तो न
सकी जीसस को!
तुम्हारे
पत्थर क्या
बिगाड़ सके
बुद्ध का? और
तुम्हारी
गालियां क्या
बिगाड़ सकीं
मुहम्मद का? नहीं, उलटा
ही परिणाम
हुआ।
भयो
परसिद्ध
परताप से आपके,
सकल
संसार तुम सुजस
बोया।
देखि
निंदक कहैं करौं
परनाम मैं,
धन्य
महराज, तुम भक्त
धोया।
पलटू
चेताते हैं कि
जैसे ही तुम
रस पीना शुरू करोगे
परमात्मा का, जगत में
बहुत विरोध
होगा। इससे
बचा नहीं जा
सकता। बचने की
फिक्र भी मत
करना। बचने की
फिक्र की तो
अमृत पीने से
वंचित रह
जाओगे। यहां
जो भी मेरे
पास आ कर बैठे
हैं, वे
जानते हैं कि
कितनी निंदा
उन्हें सहनी
पड़ रही है।
उन्हें कितना
जहर पीना पड़
रहा है। धन्यवाद
देकर पीना!
प्रणाम करते
रहना उनको जो
तुम्हारे लिए
जहर पिलाएं।
जो तुम्हें
गालियां दें
उनको नमस्कार
करते रहना।
उनका अनुग्रह
मानना!
पराई
चिंता की आगि
महैं,
दिनराति जरै संसार
है, जी।।
यह बड़ा
अदभुत संसार
है। इसे अपनी
चिंता नहीं। यह
पराई चिंता
में जलता है।
इसे अपनी
फिक्र नहीं।
जितनी देर
दूसरों की
निंदा करता है, उतनी देर
ध्यान नहीं
करेगा। ध्यान
की कहो तो लोग
कहते हैं—समय
कहां? और
जरा किसी की
निंदा की बात
करो तो कहते
हैं: कुछ और
बताइए! कुछ और
आगे! फिर क्या
हुआ? लोगों
से अगर
परमात्मा की
बात कहो तो
लोग कहते हैं
कि छोड़ो
भी, कहां
की बात उठा दी?
परमात्मा
की बात
शिष्टाचार से
कोई सुन ले तो
सुन ले, कोई
सुनना नहीं
चाहता। असल
में परमात्मा
की बात छेड़ने
वालों को लोग
समझते हैं कि
उबाने वाले
लोग, बोर
करने वाले
लोग। इनसे लोग
बचते हैं।
तुम
मेरी बात न
समझो तो जाकर
देखो। चले जाओ
रोटरी क्लब और
जाकर वहां
एकदम
परमात्मा की
बात छेड़
दो। सब बड़े चौंकेंगे
कि यह क्या बत
कर रहा है
आदमी! चले जाओ लायंस
क्लब, ध्यान
इत्यादि की
बात छेड़ो।
लोग एक—दूसरे
की तरफ
देखेंगे कि ये
अजनबी सज्जन
कहां से आ गए? वहां तो कुछ
और ही बातें
चलती हैं। कौन
किसकी स्त्री
को ले भागा? कौन किसी
पत्ती दिल्ली
से काट रहा है?
किसने
किसको चारों
खाने चित कर
दिया? बड़ी
ऊंची बातें
चलती हैं
वहां! वे सभी
स्वीकृत हैं।
उनमें लोग रस
लेते हैं। खोद—खोद
कर पूछते हैं।
जिस
फिल्म में
हत्या न हो, आत्महत्या न
हो, व्यभिचार
न हो, बलात्कार
न हो, उस
फिल्म को
देखने कोई
जाता ही नहीं।
तुम जरा कोई
ऐसी फिल्म तो
बना कर देखो, जिसमें ये
चीजें भर न
हों। शुभ ही
शुभ हो—कि
भक्त बैठे हैं,
भगवान का
भजन ही भजन चल
रहा है—पिटाई
हो जाएगी
सिनेमा के
मैनेजर की। आग
लगा देंगे लोग
फिल्म में! कि
यह क्या मामला
है? यह कोई
बात हुई? लोग
यह देखने नहीं
आते हैं, लोग
इसके लिए पैसा
खर्च नहीं
करते हैं। लोग
तो कुछ गंदा
हो तो उनका रस
है। लोग गंदगी
के कीड़े हैं।
पराई
चिंता की आगि
महैं,
दिनराति जरै संसार
है, जी।
बड़ा
अदभुत संसार
है, पलटू
कहते हैं, दूसरों
की चिंता में
जला जाता है!
रात—रात लोग
सोते नहीं।
अपनी चिंता
करने वाले लोग
तो कम ही हैं।
जो अपनी चिंता
कर लेते हैं, वे तो परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
चौरासी
चारिऊ
खान, चराचर,
कोऊ
न पावै
पार है, जी।।
चौरासी
योनियों में
भटकते रहे; अंडज, पिंडज,
स्वेदज, उदभिज—सब तरह की
योनियों में
भटकते रहे, कोऊ
न पावै
पार है, जी,
और अब तक
पार न हुए? कब
से डुबकियां
लगा रहे हो! कब
से डूबते जा
रहे हो! कितने
दिनों से डूब रहे,
उबर रहे!
सागर—ही—सागर
है, अथाह
सागर है, कहीं
कोई किनारा
नहीं दिखाई
पड़ता। कोई बड़ी
मौलिक भूल हो
रही है। तुम
पराई चिंता
में पड़े हो।
दुबले हुए जा
रहे हो। एक
अपने को छोड़
कर तुम्हें
संसार भी की
फिक्र है।
जिसने अपनी
चिंता कर ली, वह पार हो
जाता है। और
जो पार हो
जाता है, वह
संसार को भी
पार होने का
रास्ता बता
सकता है।
जोगी
जती तपी
संन्यासी,
सबको
उन डारा जारिहै, जी।
सब जल
रहे हैं—जोगी, जती, तपी,
संन्यासी।
हजार तरह के
लोगों ने उपाय
कर लिए हैं, मगर
बुनियादी भूल
अगर नहीं
मिटती तो क्या
फर्क पड़ेगा? जैन मुनि है,
वह हिंदू
संन्यासी के
विरोध में लगा
है। हिंदू
संन्यासी है,
वह मुसलमान
फकीर का विरोध
कर रहा है।
सनातनी आर्यसमाजी
के खिलाफ, आर्यसमाजी
सनातनी के
खिलाफ लगा हुआ
है। संन्यासी
हो गए, साधु
हो गए, महात्मा
हो गए—मगर
सारा काम वही!
वही निंदा चल
रही है! वही
निंदा—रस!
पता
नहीं नौ रसों
में निंदा—रस
क्यों नहीं
गिना गया? क्योंकि नौ
रसों में और
किसी रस में
तो किसी को
कोई रस नहीं
है, निंदा—रस
सार्वलौकिक
है, सार्वभौम
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
और उसकी पत्नी
एक बगीचे
में बैठे हैं।
पास की ही झाड़ी
में—रात का
अंधेरा है—एक
युवक—युवती
प्रेमालाप कर
रहे हैं। और
युवक बहुत आतुरता
से प्रार्थना
कर रहा है कि
मुझे वरो!
तुम्हारे
बिना मैं न जी
सकूंगा, मर जाऊंगा।
मुल्ला की
पत्नी बेचैन
होने लगी।
उसने मुल्ला
को हुद्दा
दिया और कहा
कि खांसो,
खंखारो! नहीं तो यह
लड़का फंस
जाएगा जाल
में। बच जाए
तो अच्छा झंझट
से। मुल्ला
लेकिन जैसा
बैठा था, बैठा
रहा। फिर
पत्नी ने हुदिआया।
मुल्ला ने कहा,
हुदिआना बंद कर! जब
मैं इसी तरह
की बेवकूफी कर
रहा था, तो
कौन खांसा—खंखारा था?
मैं क्यों खांसूं—खंखारूं? फंसने दे! सारी
दुनिया फंस!
जब मैं फंसा
तो क्यों कोई
और बचे!
तुम
दूसरों की
निंदा में रस
इसलिए लेते हो
कि उससे
तुम्हारे मन
को एक सुख
मिलता है कि
मैं अकेला ही
नहीं फंसा हूं, और सब भी
फंसे हैं।
मुझसे भी
ज्यादा फंसे
हैं, मुझसे
भी बुरी तरह
फंसे हैं। मैं
तो कुछ नहीं।
अपनी तो किन
पापियों में गिनती
है! बड़े—बड़े
पापी पड़े हैं,
महा पापी
पड़े हैं!
इसलिए तुम
दूसरे की
निंदा को जब
देखते हो तो
खूब बढ़ा—चढ़ा
कर देखते हो।
चिंदी का सांप
बना कर देखते हो।
राई का पहाड़
बनाकर देखते
हो। खुद की
आंख में पहाड़
भी पड़ा हो तो
राई जैसा और
दूसरे की आंख में
राई भी पड़ी हो
तो पहाड़ जैसी।
इसके पीछे
गणित है।
अहंकार का सीधा
गणित है।
और ऐसा
ही नहीं कि
सांसारिक
भोगी इसमें
उलझा है, जिसको
कहो जोगी, जती,
तपी, संन्यासी;
जिनको तुम
तथाकथित
धार्मिक
महात्मा कहते
हो, वे भी
इसी में उलझे
हुए हैं। उनको
भी बड़ी बेचैनी
है! किसी
महात्मा का यश
फैलने लगे तो
दूसरे
महात्माओं को
बेचैनी। वे सब
उसके पीछे पड़
जाएंगे। सब
उसके दुश्मन
हो जाएंगे। सब
उसकी निंदा
में संलग्न हो
जाएंगे। उनके
अहंकार को चोट
पड़ने लगती है।
क्या
तुम सोचते हो
जीसस को जिन
लोगों ने सूली
दी वे बुरे
लोग थे? तो
तुम गलती
सोचते हो।
बुरे लोग नहीं
थे वे; चोर,
बदमाश, लुच्चे—लफंगे
नहीं थे वे; अपराधी—पापी
नहीं थे वे; जिन्होंने
सूली दी, सज्जन—तथाकथित
सज्जन—समादृत,
प्रतिष्ठित,
धर्मगुरु, पंडित, पुरोहित,
इतनी जमात
थी जिन्होंने
जीसस को सूली
दी। अगर किसी
चोर ने, बदमाश
ने, हत्यारे
ने जीसस को
मार डाला होता
तो मनुष्यता
के ऊपर इतना
कलंक न लगता।
लेकिन जिन्होंने
मारा, वे
भले लोग थे, जिनको हम
भला कहते हैं।
जिन्होंने
मारा, वे
बुरे लोग नहीं
थे।
सुकरात
को जिन्होंने
जहर पिलाया, वे भी समाज
के समादृत लोग
थे।
श्रेष्ठतम।
जो समाज के
ऊपर हक किए
बैठे हैं।
समाज के
मुखिया, सरपंच,
उन्होंने
सुकरात को जहर
दिया। क्या
कारण है, इनको
क्या अड़चन हो
गई थी? गरीब
सुकरात इनका
क्या बिगाड़ता
था? जरूर
कुछ बिगाड़ रहा
था। सुकरात के
पास असली सिक्के
थे सत्य के और
इनके पास नकली
सिक्के थे। और
नकली सिक्के
असली सिक्कों
को बर्दाश्त
नहीं करते।
नकली सिक्के,
अर्थशास्त्र
का नियम है, असली
सिक्कों को
चलन के बाहर
कर देते हैं।
वही सिद्धांत
जीवन के और—और
तलों पर भी
लागू होता है।
तुमने
देखा है, तुम्हारे
जेब में अगर
दो सिक्के पड़े
हों, एक दस
रुपए का असली
नोट और दूसरा
नकली—उल्हासनगर
सिंधी
एसोसिएशन में
बना हुआ—तो
तुम पहले
किसको चलाओगे?
पहले तुम
नकली को
चलाओगे, असली
को बचाओगे।
क्योंकि नकली
जितनी जल्दी
चल जाए उतना
अच्छा। और
जिसके हाथ में
नकली पड़ेगा और
जैसे ही उसकी
समझ में आएगा
नकली है, वह
भी जल्दी
चलाएगा। उसको
जितनी जल्दी
चल जाए उतना
अच्छा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
घर लौटा, बड़ा
प्रसन्न था।
अपनी पत्नी से
बोला, आज
मैंने तीन
आदमियों का
उपकार किया।
पत्नी ने कहा,
तुमने और
उपकार! यह बात
नई, कभी
सुनी नहीं। न
कभी आंखों
देखी, न
कभी कानों
सुनी है।
तुमने और
उपकार! मुल्ला
ने कहा, सच
मान, तीन
आदमियों का
उपकार किया।
पत्नी ने कहा,
जरा
विस्तार से
कहो तो मैं
समझूं। तो
मुल्ला ने कहा,
वह जो नकली
दस रुपए का
नोट था न, एक
मिठाईवाले के
यहां चला
दिया! पांच
रुपए की मिठाई
खरीद ली। सुबह
से बैठा था
बेचारा! कोई बिक्री
नहीं हुई थी—बोहनी
ही नहीं हुई
थी। एकदम गदगद
हो गया! सो उसका
उपकार किया।
पास
में ही एक
भिखमंगा खड़ा
था। सो आधी
मिठाई उसे दे
दी। वह भी
चमत्कृत हो
गया! एकदम पैर
छू लिए और कहा, हे दाता, बहुत
दाता देखे, मगर तुम
जैसा दाता
नहीं देखा!
पत्नी ने कहा,
चलो ठीक है,
यह तो दो का
उपकार हुआ; तीसरा? और
तीसरा, मुल्ला
ने कहा, मैं।
वह दस का जो
नकली नोट निकल
गया, छाती
से पत्थर टल
गया। तीन
आदमियों का
उपकार करके लौटे
हैं।
नकली
सिक्के असली
सिक्कों को
चलन के बाहर
कर देते हैं।
जीव के
जगत में भी
यही लागू है।
सुकरात को जिन
लोगों ने जहर
दिया, वे
नकली सिक्के
थे। सुकरात की
मौजूदगी चुभने
लगी, बहुत चुभने लगी,
तीर की तरह चुभने
लगी। सो न
सकें, चिंता
बहुत पकड़ने
लगी। सुकरात
की मौजूदगी
उनको इतना दीन—हीन
करने लगी, उनके
भीतर ऐसी
हीनता का भाव
उठाने लगी, उनके अहंकार
को ऐसा जीर्ण—जर्जर
करने लगी कि
उन्हें कुछ
करना ही पड़ा।
सुकरात को जहर
दे कर मार
डालना पड़ा।
तो
ध्यान रखना—
जोगी
जती तपी
संन्यासी,
सबको
उन डारा जारिहै, जी।
यह जो
दूसरे की
चिंता, और
कहीं दूसरा
आगे न पहुंच
जाए, इसकी
फिक्र; कहीं
दूसरा मुझसे
ऊपर न उठ जाए; कहीं दूसरा
किसी भी तरह
की
प्रतियोगिता
में पहले न हो
जाए, आगे न
हो जाए, इस
चिंता में लोग
मरे जा रहे
हैं।
पलटू
मैं भी हूं जरत
रहा,
सतगुरु
लीन्हा निकारि है, जी।।
पलटू
कहते हैं, ऐसे ही मैं
भी जल रहा था; ऐसी ही मूढ़ता
में मैं भी
डूबा था; ऐसी
ही व्यर्थता
में मैं भी
उलझा था; लेकिन
वह सदगुरु
की कृपा हुई—सतगुरु
लीन्हा निकारि है,
जी—सतगुरु
ने खींच कर
बाहर निकाल
लिया। सतगुरु
ने कहा, पागल,
अपनी सोच, अपना ध्यान
कर! दूसरों की
दूसरे जानें!
उनका जीवन है!
जैसा उन्हें
जीना है, जीएं।
उनकी
स्वतंत्रता
है। तू क्यों
उनकी चिंता में
पड़ा है? उनके
पापों के लिए
तुझे दंड नहीं
मिलेगा। और न
उनके पुण्यों
के लिए तुझे
पुरस्कार
मिलेगा। तू
अपनी फिक्र कर—अपनी
खोज—खबर ले!
और तब
जिंदगी में एक
नया आविर्भाव
होता है।
इस
प्रणय—सिंधु
अथाह में
कुश—कंटकों की
राह में
प्रियतम—मिलन
की चाह में
मुझको
मिली जो यातना
उपहार
है, उपहार
है।
कुछ
शांति पाने के
लिए
मन
को मनाने के
लिए
जग
को सुनाने के
लिए
मुझको
मिली जो भावना
उपहार
है, उपहार
है।
तूफान
में, मंझधार
में
सुख—दुख
भरे संसार में
प्रिय—प्रीति
के प्रतिकार
में
मुझको
मिली जो वेदना
उपहार
है, उपहार
है।
फिर तो
सभी उपहार
मालूम होने
लगता है। लोग
गाली दें, तो उपहार; लोग निंदा
करें, तो
उपहार। वही है
बुद्धिमान इस
जगत में, जो
हर चीज की
सीढ़ी बना ले; जो हर मार्ग
के पत्थर को
सीढ़ी में बदल
दें; जो
जहर को भी
औषधि बना ले।
वही है
बुद्धिमान इस
जगत में।
इस
प्रणय—सिंधु
अथाह में
कुश—कंटकों की
राह में
प्रियतम—मिलन
की चाह में
मुझको
मिली जो यातना
उपहार
है, उपहार
है।
तूफान
में, मंझधार
में
सुख—दुख
भरे संसार में
प्रिय—प्रीति
के प्रतिकार
में
मुझको
मिली जो वेदना
उपहार
है, उपहार
है।
तुम
बुद्धों को
चोट पहुंचा
नहीं सकते।
घाव कर सकते
हो, चोट नहीं
पहुंचा सकते।
मार सकते हो, पीड़ा नहीं
दे सकते। मिटा
सकते हो, लेकिन
उनके आनंद को
खंडित नहीं कर
सकते। उनकी आनंद
की धारा अखंड
है, अविच्छिन्न
है।
जिसके
लिए पागल सभी
योगी
कभी, भोगी
कभी
पूरी
न जो होगी कभी
वह आश भी मेरे
लिए
वरदान
है, वरदान
है।
जो
जन्म से स्वार्थिन
नहीं
जो
पूर्ण परमार्थिन
रही
सुनसान
में साथिन रही
उच्छवास
भी मेरे लिए
वरदान
है, वरदान
है।
जो
आह बन तपती
कभी
जो
ज्वाला बन
जगती कभी
जो
बुझ नहीं सकती
कभी
वह
प्यास भी मेरे
लिए
वरदान
है, वरदान
है।
आंख खुलें तो
इस जगत में
कुछ भी बुरा
नहीं है।
शत्रु भी नहीं।
वह भी
तुम्हारा
मार्ग साफ कर
रहा है। निंदक
भी नहीं। वह
भी तुम्हें धो
रहा है, निखार
रहा है। जो
तुम्हारी
छाती में छुरा
भोंक दे, वह
भी नहीं। क्योंकि
वह भी
तुम्हारी
अंतिम
परीक्षा ले
रहा है।
अट्ठारह
सौ सत्तावन के
गदर में एक
सिद्ध संन्यासी
को, जो तीस
वर्षों से मौन
था और जिसने
प्रतिज्ञा ले
रखी थी कि बस
आखिरी समय एक
वचन
बोलूंगा...नग्न
रहता था; मस्ती
में मस्त था; चांदनी रात
थी, मौज
में निकल पड़ा।
भूल से, जाना
तो नहीं चाहता
था वहां, अंग्रेजों
की छावनी में
पहुंच गया।
पकड़ लिया गया।
एक तो नंग—धड़ंग,
फिर बोले न!
समझे वे कि
कोई जासूस है।
सिद्ध योगी
होने का ढोंग
कर रहा है। एक
अंग्रेज ने
उठा कर भाला
उसकी छाती में
भोंक दिया।
खून का फव्वारा
छूट उठा। और
वह हंसा और उसने
अपना आखिरी
वचन बोला: तत्वमसि।
तू भी वही है।
तीस
साल पहले
प्रतिज्ञा ली
थी कि बस
आखिरी वचन
बोलूंगा, मरते
समय। जो वचन
बोला, अदभुत
है। उपनिषदों
का सार है।
सारे धर्मों का
सार है! सारे
बुद्धों का
सार है! तत्वमसि।
वह तू ही है।
मरते क्षण
उसने इशारा
किया—उस आदमी
की तरफ जिसने
भाला भोंक
दिया है और
कहा कि तू भी
वही है। तू भी
परमात्मा है।
यह आखिरी परीक्षा
हो गई। शत्रु
में भी उसको
ही देख पाया, मृत्यु में
भी उसको ही
देख पाया—अब
और कोई
परीक्षा न
रही।
इक
नाम अमोलक मिलि
गया,
परगट भये मेरे
भाग हैं, जी।
और
गुरु ने कैसे निकाला? सदगुरु ने कैसे
खींच लिया
बाहर? इक
नाम अमोलक मिलि
गया। एक
परमात्मा की
याद दिला दी।
एक साई हुई स्मृति
जगा दी। सुरति
को झकझोर
दिया।
इक
नाम अमोलक मिलि
गया,
परगट भए मेरे
भाग हैं, जी।
और अब
पहली दफा
भाग्य का उदय
हुआ; भाग्योदय
हुआ, सूर्योदय
हुआ। पहली दफा
सुबह हुई।
सदियों—सदियों
की अमावस कटी।
इस जगत
में एक ही चीज
है जो खरीदी
नहीं जा सकती, वह अमोलक है,
वह ध्यान
है। उसका कोई
मूल्य नहीं
है। यद्यपि सर्वाधिक
मूल्यवान वही
है। उसकी कोई
कीमत नहीं है।
न खरीद सकते, न बेच सकते।
मगर अगर कोई
लेने को राजी
हो और हृदय को
खोले, निर्दोष
भाव से, निष्कपट
भाव से, सहज
भाव से, पीने
को राजी हो, तो ध्यान
पिलाया जा
सकता है।
खरीदा नहीं जा
सकता, बेचा
नहीं जा सकता,
लेकिन सदगुरु
अपने ध्यान को
शिष्य के
ध्यान में
उंडेल सकता
है। जैसे सदगुरु
सुराही है
शराब की। और
शिष्य अगर
पात्र हो, अगर
शिष्य प्याली
बनने को राजी
हो, तो यह
अमोलक घटना
घटती है।
इक
नाम अमोलक मिलि
गया,
परगट भए मेरे
भाग हैं, जी।
आज
रवि—शशि—रश्मियों
ने नव—प्रभा
जग में जगाई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
कुंकुम रोचना
से थाल ऊषा ने
सजाया
आज
नव—रवि समुद
अपने साथ हीरक—हार
लाया
आज
प्रकृति वधु
सजीली सज उठी
बन—ठन निराली
आज
माणिक मोतियां
बिखरा रहीं
मानस—मराली
आज
शुभ—अभिषेक का
सब साज ऊषा
साज लाई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
प्राणों ने
प्रणय का एक
सुंदर गीत
गाया
आज
युग—युग से
प्रतीक्षित
विकल हिय का
मीत आया
आज
भावों ने जगत
में मानवी कुछ
केलि कर ली
शून्य
एकाकी हृदय की
कल्पना से गोद
भर दी
प्रणय
की पुलकित
प्रतीक्षा
झूमती साकार
आई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
कण—कण में हुई
फिर व्याप्त
आशा की निशानी
आज
पल में उमंग
आईं सुप्त—सी साधें
पुरानी
आज
गदगद हो हृदय
ने प्रेम के
दो बूंद ढाले
आज
पंख हिला उठे
अरमान के पंछी
निराले
हूक—सी
उठने लगी जब
हृदय—डाली डगमगाई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
कोयल कह उठी
मैं नेह—रस—वश
कूक दूंगी
आज
जग की वाटिका
में एक जीवन
फूंक दूंगी
आज
मैं ऋतुराज का
स्वागत
करूंगी खोलकर
उर
आज
तन—मन—धन लुटा
दूंगी उन्हें
मैं मोल भर—भर
आज
प्रियतम आ रहे
हैं, साधना
भी साथ आई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
रह—रह लुट रहे
हैं चाहते—से
चाव मेरे
आज
मसृण मृदु
ढुलकते हैं
हृदय के भाव
मेरे
आज
कुछ सुस्निग्ध
स्पंदन हो रहा
सूने हृदय में
आज
मिलना चाहते
हैं स्वर
हमारे अमर लय
में
आज
उस संगीत की
स्वर—साधना
फिर जाग आई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
धन होती सजनि, तो नेह जल से
सींच देती
चित्रकार
न हो सकी वह
चित्र उनका
खींच लेती
आप
अपनी लेखनी की
ओर ही मैं
ताकती हूं
एक
अस्फुट रेख
प्रिय के
प्रेम की मैं आंकती हूं
शब्द
टूटे ही सही, अब प्रिय—मिलन
की धुन समाई
आज
अलि उनको
बधाई।
आज
सुनती हूं सजनि, हृदयेश का
अभिषेक होगा
आज
सुनती हूं हमारा
हृदय उनसे एक
होगा
आज
सुनती हूं
बनेंगे सत्य
वे नायक हमारे
हम
बनेंगी गीत
उनके और वे
गायक हमारे
आज
चिर—आराधना
परिपूर्ण—सी
पड़ती दिखाई,
आज
अलि उनको
बधाई।
जिस
क्षण सदगुरु
की सुराही से
शिष्य का
पात्र भर जाता
है, उस क्षण आ
गया जीवन का
परम महोत्सव।
उस क्षण आ गया
वसंत। उस क्षण
धन्यवाद दिया
जा सकता है।
उस क्षण आभार
प्रकट किया जा
सकता है। उसके
पहले तो हमारे
पास आभार
प्रकट करने को
है भी क्या? कृतज्ञता भी
व्यक्त करें
तो किस बात की
करें? पतझड़—ही—पतझड़
जाना; अमावस—ही—अमावस
पहचानी; न
कभी पूर्णिमा
देखी, न
कभी वसंत आया;
कोयल कूकी
ही नहीं, पपीहा
पुकारा ही
नहीं; हम
रिक्त हैं। हम
अर्थहीन हैं।
अर्थ का उदय
होता है, जब
प्रभु का
स्मरण आता है।
बस उसकी स्मरण
की जो घटना है,
वही खींच
लेती है संसार
के सागर से
व्यक्ति को।
इक
नाम अमोलक मिलि
गया,
परगट भये मेरे
भाग हैं, जी।
गगन
की डारि पपिहा बोलै...
आज
आकाश की डगाल
पर बैठ कर, आज दूर आकाश
से पपीहा बोला
है...
गगन
की डारि पपिहा बोलै,
सोवत
उठी मैं जागि
हौं, जी।।
झकझोर
कर गुरु ने
जगा दिया है।
नींद टूट गई
है। सपने उखड़
गए हैं।
चिराग
बरै बिनु
तेल बाती,
और आज
अपने भीतर
क्या देख रहा
हूं कि एक ऐसा
दिया जल रहा
है, जिसमें न
तेल है न बाती
है।
चिराग
बरै बिनु
तेल बाती,
नाहिं
दीया नहिं आगि
है, जी।
न तो
वहां कोई दीया
है, न कोई आग
है, बस
रोशनी है, शुद्ध
रोशनी है।
पूर्ण प्रकाश
है। स्रोत नहीं
कहीं कोई आकाश
का, कारण
नहीं कोई
प्रकाश का, इंधन नहीं
प्रकाश का, बस प्रकाश—ही—प्रकाश
है—आदि, अनंत।
पलटू
देखिके
मगन भया,
सब
छुट गया तिर्गुना—दाग
है, जी।।
पलटू
कहते हैं, मैं मगन हो
गया, मैं
मस्त हो गया, मैं नाच
उठा।
सब
छुट गया तिर्गुना—दाग
है, जी।।
और एक
क्षण में वे
सारे बंधन, तीन गुणों
के बंधन—सत, रज, तम के
बंधन—वे सारी रस्सियां
कहां विलीन हो
गईं, पता
नहीं चलता। यह
मस्ती में जो
अंगड़ाई ली है,
उसमें सब
बंधन टूट गए।
खयाल
रहे, लोग बंधन
तोड़ना चाहते
हैं पहले—फिर
परमात्मा
मिलेगा, ऐसा
उनका खयाल है।
ऐसा नहीं
होता। पहले
परमात्मा
मिलता है, तब
बंधन टूटते
हैं। लोग
सोचते हैं, अंधेरा
हटेगा पहले, फिर प्रकाश
होगा। ऐसा
नहीं होगा।
पहले प्रकाश
होता है, फिर
अंधेरा...फिर
अंधेरा कहां?
हमको
जग से भय ही
क्या है, जब तक साकी
हैं, प्याले
हैं।
जब जब पीड़ा ने जिल ठानी
तबत्तब
हमने गहरी
छानी
बेसमझे बूझे
दुनिया ने
कह
डाला उसको
नादानी,
जग
क्या जाने, हमने उर में
पीड़ा के पंछी
पाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
हमको
अपना कुछ
ध्यान नहीं
कुछ
मान नहीं, अपमान नहीं
हम
दीवानों की
दुनिया में
कुछ
भले—बुरे का
ज्ञान नहीं
हम
भेद—भावमय
जगती के सब
भेद मिटाने
वाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
जब
मधु पी हम
झूमा करते,
मदिरालय
में घूमा करते
अपने
सुख—दुख के
प्यालों को
जब
बार—बार चूमा
करते
तब
जग विस्मित कह
उठता है इनके
तो ठाठ निराले
हैं
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
सुख
में मैंने
रोदन ठाना
दुख
में मैंने
गाया गाना
जब
अपने को ही खो
डाला
तब
ही अपनों को
पहचाना
कोई
क्या जाने, प्राणों ने
कितने विप्लव
कर डाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
यह
खोया और कमाया
क्या?
यह
मुक्ति और यह
माया क्या?
जब मिटकर मिल
जाना ही है
तब
अपना और पराया
क्या?
हम
अपने और पराए
को मल एक
बनाने वाले
हैं,
हम
बड़े निकट
मतवाले हैं।
इस
जीवन का
विश्वास किसे?
इस
पीड़ा का अभास
किसे?
वह
मिलने की ही
उत्कंठा
जग
कह देता है
प्यास जिसे
हम प्यासत्तृप्ती, मृगतृष्णा
की उलझन
सुलझाने वाले
हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
लो
मेरे मधुघट
छलक उठे,
प्यासे—मतवाले
ललक उठे
लख
लाल सुरा की
लाल धार
बालक—बूढ़े
सब किलक उठे,
मधु
ढाल—ढाल, सबके हिय—जिय
हम आज लुभाने
वाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
हम
करते हैं
व्यापार नया
हम
पा जाते हैं
प्यार नया
बस
कर में प्याला
लेते ही
हम
दिखलाते
संसार नया
दिखला
साकी की मधु
झांकी हम
चित्त चुराने
वाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
दिन
हो या आधी रात
रहे
पतझर
हो या मधुवात
बहे
पीने
वालों का मौसम
क्या
ग्रीषम
हो या बरसता
रहे
हम
तो कुछ अपने
ही ढंग का
संसार बसाने
वाले हैं,
हम
बड़े विकट
मतवाले हैं।
जिन्होंने
उसकी सुरा पी
ली, जिन्होंने
एक घूंट भी
परमात्मा का
स्वाद ले लिया,
जिन्होंने सदगुरु को
मौका दिया कि
ढाल दे अपने
को तुम्हारे
प्राणों में,
वे एक दूसरे
ही लोक के
वासी हो गए।
फिर इस संसार
में होकर भी
इस संसार को
नहीं हैं। फिर
उनकी मस्ती की
क्या सीमा! वे
आनंद विभोर
जीते हैं। उनका
न फिर कोई
जन्म है, न
कोई मृत्यु
है। फिर तो
शाश्वतता
उनकी अपनी है।
फिर कैसा भय, फिर कैसी
चिंता? फिर
कौन अपना, फिर
कौन पराया? फिर कौन
छोटा, कौन
बड़ा? उन्हें
तो फिर एक ही
दिखाई पड़ता है
उस मस्ती में।
उस मस्ती की
बस्ती में
उन्हें तो बस
फिर एक ही
दिखाई पड़ता
है। वही है
वृक्षों में,
पहाड़ों में,
पर्वतों
में, पशुओं
में, पक्षियों
में। और जिसको
एक ही
परमात्मा का
दर्शन होने
लगे, वह मुक्त
हुआ, उसको
मोक्ष हुआ।
उसने निर्वाण
पाया। उसकी मंजिल
आ गई।
मंजिल
की शुरुआत—
भेख
भगवंत के चरन
को ध्याइकै,
ज्ञान
की बात से
नाहिं टरना।
मिलै लुटाइए
तुरत कछु खाइए,
माया
और मोह की ठौर
मरना।।
दुक्ख
औ सुक्ख फिरि
दुष्ट और
मित्र को,
एकसास
दृष्टि इकभाव
भरना।
दास
पलटू कहै राम कहु बालके,
राम
कहु राम कहु सहज
तरना।।
राम का
बोध हो जाए, मिल गई नाव।
राम का बोध हो
जाए, तर
गए। उस बोध
में ही तर गए।
लेकिन
कहीं झुकना
सीखना पड़े! छोड़ो
तर्कजाल।
छोड़ो
अहंकार की
चालाकी भरी
बातें। कहीं
सरलचित्त होकर
झुक जाओ। बस
उस झुकने में
ही राज है।
वहां से
यात्रा शुरू
होती है। तुम
झुके कि
परमात्मा के
मिलने में
देरी नहीं है।
जो मिटता है, वह उसे
निश्चित पाता
है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें