दिनांक,
गुरुवार, 12
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान,
उपनिषद—वाणी
तेन त्यक्तेन भुग्जीथाः
का आप समर्थन
करते हैं—भोग
और फिर त्याग।
अगर
त्यागना ही है
तो भोग क्यों? भोग की बात
ही क्यों
उठाती?
2—भगवान,
ओ रहमतें
बरसाने वाले, ओ मूक हृदय
के स्रोत
तुझे
कोटिशः
धन्यवाद, कोटिशः
वंदन!
मात्र
तेरे मदिरा—ए—जाम
की आशिक.......
3—भगवान,
आपसे
और अधिक सुंदर
भगवान की
अभिव्यक्ति
और क्या होगी, पर कभी—कभी
ध्यान लगने पर
आप भी छट जाते
हैं, और
ध्यान से वापस
लौटने पर मन
में एक पीड़ा
बनी रहती है
कि जिसकी कृपा
से ध्यान लग
रहा है, उनका
भी स्मरण भूल
जाता हूं, तो
कहीं यह उनके
प्रति
अकृतज्ञता तो
नहीं है? कीर्तन
में तो पीड़ा
का यह भाव
नहीं रहता।
मुझे
ध्यान और
भक्ति—दोनों
में रस आने
लगा है; पर जब भी आप
प्रवचन में
इनकी साफ—साफ
विभाजन रेखा
खींचते हैं तो
मैं फिर उलझन
में पड़ जाता
हूं। कृपया इस
संबंध में कुछ
और कह कर मेरा
मार्ग—निर्देश
करें। (क्षमा
करें, प्रश्न
पूछना ही
पड़ा।)
4—भगवान,
मैं
आपका
संन्यासी
क्या हुआ, बड़ा उपद्रव
हो गया है।
पराए तो पराए
अपने भी पराए
हो गए। मेरी
मस्ती ही उनके
क्रोध का कारण
बन रही है। अब
मैं क्या करूं?
पहला
प्रश्न:
भगवान, उपनिषद—वाणी
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः
का आप समर्थन
करते हैं—भोग
और फिर त्याग।
अगर
त्यागना ही है
तो भोग क्यों? भोग की बात
ही क्यों
उठानी?
धर्मशरण
दास, जीवन
विरोधों से
निर्मित है।
यहां रात नहीं
हो सकती दिन
के बिना। और
जीवन नहीं हो
सकता मृत्यु
के बिना। जीवन
द्वंद्व है।
जीवन द्वैत है।
द्वैत के बीच
जो तनाव है, वही जीवन का
आधार है।
इसलिए जो द्वंद्वातीत
हो गया, फिर
उसका कोई जीवन
नहीं, फिर
उसका कोई
आवागमन नहीं।
त्याग और भोग
इसी द्वंद्व
का एक अंतरतम
पहलू है—एक
आंतरिक जगत
इसी दुई का, इसी द्वंद्व
का।
अगर
भोगा नहीं तो
त्याग का तो
अर्थ भी समझ
में न आएगा।
त्याग में
अर्थ ही क्या
है? भोग का
अनुभव ही
त्याग में
अर्थ डालता
है। जिसने
अंधेरा नहीं
देखा, वह
रोशनी को
पहचान सकेगा?
लाख बरसती
रहे रोशनी
सूरज से और
चांद से और तारों
से, मगर
जिसने अंधेरा
नहीं देखा उसे
रोशनी का कुछ
पता ही न
चलेगा; प्रकाश
की परिभाषा ही
अंधकार से
बनती है। अंधकार
की लक्ष्मण—रेखा
खींचे बिना
तुम प्रकाश के
वर्तुल को पहचान
न पाओगे।
इसलिए अंधकार
एकदम व्यर्थ
नहीं है।
व्यर्थ
इस संसार में
कुछ भी नहीं
है। व्यर्थ भी
व्यर्थ नहीं
है, क्योंकि
व्यर्थ का बोध
ही सार्थक के
अनुभव में ले
जाता है। जिसने
असार को असार
की तरह पहचान
लिया उसे सार
के मंदिर का
द्वार मिल
गया।
तुम
कहते हो: जब
त्यागना ही है
तो भोग की बात
ही क्यों? लेकिन त्याग
का विचार ही
कैसे उठेगा? त्याग का
विचार कहां से
उठेगा? भोग
की पीड़ा ही
त्याग का
विचार बनती
है। भोग का
दंश, भोग
का नर्क। भोग
को भुगतोगे
नहीं तो त्याग
का आयाम ही
आवृत रह जाएगा,
आच्छादित
रह जाएगा; द्वार
खुलेंगे
नहीं। द्वार
पर तुम चोट ही
तब करोगे जब
भोग की पीड़ा
इतनी सघन हो
जाएगी कि और न सह
सकोगे।
जैसा
मैंने कहा कि
जीवन द्वंद्व
है, हर पहलू
पर द्वंद्व, वैसे ही इस
वक्तव्य का भी
दूसरा पहलू है—तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
इसका अर्थ ऐसे
तो साफ है कि
जिसने भोगा
उसने छोड़ा।
तेन त्यक्तेन,
उसने
त्यागा, भुंजीथाः,
जिसने
भोगा। जिसने
भोग को जाना, उसने
त्यागा। यह एक
पहलू। दूसरा
पहलू यह है—जिसने
त्यागा, उसने
ही भोगा। तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
छोड़ा जिसने, भोगा उसने।
एक
संसार का भोग
है, जो पीड़ा
देता है, क्योंकि
भ्रांति पर
निर्मित है; आकांक्षाओं—अभीप्साओं
की मरीचिका पर
निर्मित है।
दूर के ढोल
सुहावने लगते
हैं; और
जैसे ही तुम
पास पहुंचते
हो, पानी
के बबूले
सिद्ध होते हैं।
जब तक नहीं
मिलता कुछ, जब तक दूरी
बनी रहती है, तब तक
आकर्षण बना
रहता है। मिला
कि आकर्षण गया।
पास आए, दूरी
क्या मिटती है,
पाने की
आकांक्षा पर
भी पानी फिर
जाता है। हाथ
में लगते ही
कोई चीज
व्यर्थ हो
जाती है। और
के पास हो तो
सार्थक, अपने
पास हो तो
व्यर्थ। पड़ोसी
के बगीचें
की घास ज्यादा
हरी मालूम
होती है।
पड़ोसी की पत्नी
भी ज्यादा
सुंदर मालूम
होती है।
पड़ोसी के
बच्चे भी
ज्यादा
बुद्धिमान
मालूम होते
हैं। निकटता
से तो देखोगे,
बस भ्रम टूट
जाता है। भोग
संसार का
टूटना ही है, पानी का
बबूला है; कि
मरुस्थल में
प्यास के कारण
देखा गया
जलस्रोत है।
पलटू
कहते हैं:
सपना यह
संसार! सपना
जब तक चलता है
तब तक सच
मालूम होता
है। सपने से
ज्यादा सच कुछ
और मालूम होता
है? सपने में
कैसी—कैसी
चीजों पर
भरोसा कर लेते
हो! बिलकुल
बेबूझ को भी
मान लेते हो।
सपने में अपनी
पत्नी से बात
कर रहे हो और अचानक
पत्नी नदारद
हो गई, घोड़े
से बात करने
लगे, इसको
भी मान लेते
हो! पत्थर की
मूर्ति चलने
लगती है सपने
में, इसको
भी मान लेते
हो।
कल
मैंने एक खबर
पढ़ी। मनीला
में एक आदमी
रात जोर—जोर
से चिल्लाने
लगा—स्काईलैब!
स्काईलैब!...सारी
दुनिया में
हवा गिरने की—अब
गिरा, तब
गिरा। अब तो
गिर भी गया, यह गिरने के
पहले की बात
है। अब तो गिर
गया समुंदर
में। यह आदमी
अपने बिस्तर
में चिल्लाने
लगा—स्काईलैब!
स्काईलैब!
घर के लोगों
ने समझा कि
मजाक कर रहा
है। होगा मजाकी
स्वभाव का।
लेकिन वह सच
में ही सपना
देख रहा था, एक दुख—स्वप्न
देख रहा था कि स्काईलैब
गिरा। और घबड़ाहट
उसे इतनी हुई
कि उसका हार्टफेल
हो गया।
न कहीं
कोई स्काईलैब, न कहीं कुछ
गिरा अभी और
वह आदमी मर भी
गया! वह सपने
से जाग ही न
सका। इस आदमी
की आत्मा अगर
कहीं भटकेगी
तो मानती
रहेगी कि स्काईलाब
के गिरने से
देह छूटी।
क्योंकि अब
सपने के टूटने
का कोई उपाय
नहीं। और
जिसके कारण देह
छूट गई हो, वह
असत्य हो सकता
है? जिसके
कारण मौत जैसी
घटना घट गई, वह असत्य
कैसे होगा! घबड़ाहट
में हृदय की
धड़कन बंद हो
गई उसकी।
लेकिन
तुम भी सपने
में ऐसा ही
भरोसा कर लेते
हो। धन मिल
जाता है तो
अकड़ जाते हो; धन छिन जाता
है तो जार—जार
रोते हो। सुबह
जागकर
बहुत हैरान
होते हो—कैसे
भरोसा कर लिया
था इन बातों
पर?
भोग एक
सपना है। जैसे—जैसे
जागोगे वैसे—वैसे
त्याग फलित
होगा; त्याग
जागरण है। अगर
संसार सपना है,
तो
परमात्मा
जागरण है।
लेकिन जागोगे
कैसे अगर सोए
ही न? इसलिए
संसार परमात्मा
को जानने की
पाठशाला है।
इससे दुश्मनी
नहीं करनी है,
इससे कुछ
सिखावन लेनी
है; इससे
कुछ पाठ लेना
है। यह विश्व
वस्तुतः विश्वविद्यालय
है और जो यहां
से परमात्मा
का पाठ लेकर
गए, वही
उत्तीर्ण
हुए। जो धन, पद, प्रतिष्ठा
इकट्ठी करते
रहे, वे
सपने में ही
भटकते रहे।
जो इस
संसार में
जागा नहीं, उसने कुछ भी
जाना नहीं। यह
संसार आयोजन
है परमात्मा
का कि तुम जाग
सको। लेकिन
जगाने के लिए जरूरी
है कि नींद को प्रगाढ़
किया जाए—इतना
प्रगाढ़
कि नींद की
पीड़ा इतनी
बोझिल हो जो
कि सोना असंभव
हो जाए।
याद
करो, कभी जब
तुम सपना
देखते हो मधुर,
प्रीतिकर, तो टूटता
नहीं। लेकिन
जब तुम दुख—स्वप्न
देखते हो तो
जल्दी टूट
जाता है। दुख
कोई ज्यादा
देर अंगीकार
नहीं कर सकता
क्योंकि दुख
अस्वाभाविक
है। सुखद सपना
दे, रहे हो
कि तुम सम्राट
हो गए, कि
स्वर्ण के
तुम्हारे महल
हैं, कि
हीरे—जवाहरात
जड़ी हुई सीढ़ियां
हैं, कि
पारस पत्थर का
बना हुआ
तुम्हारा
सिंहासन है—जागने
की आकांक्षा
ही कैसे होगी?
कोई जगाने
भी लगे तो तुम
चाहोगे कि
रुको भाई! झूठ
ही सही, मगर
प्रीतिकर है,
मधुर है, स्वादिष्ट
है, थोड़ा
और स्वाद ले
लेने दो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रात जोर—जोर
से बड़बड़ाने
लगा। किसी से
विवाद हो रहा
है। मुल्ला
कहता है: सौ ही
लेकर रहूंगा!
नहीं, सत्तानबे नहीं; नहीं,
अट्ठानबे नहीं; नहीं,
निन्यानबे
नहीं...! दूसरा
कौन है इसका
तो पता नहीं
चल रहा है, लेकिन
पत्नी को यह
सुनाई पड़ रहा
है—मुल्ला जो
कह रहा है।
पड़ा है किसी
निन्यानबे के
चक्कर में।
नहीं, निन्यानबे
भी नहीं, कहता
है, सौ ही
लेकर रहूंगा।
पत्नी ने जगा
दिया, कि
नाहक क्यों
नींद खराब कर
रहे हो, कहां
का निन्यानबे,
कहां का सौ?
दुकान कर
रहे हो क्या? रात भी पिंड
नहीं छोड़ते
ग्राहक
तुम्हारा? अब
रात तो कम—से—कम
शांति से सोओ।
मुल्ला बहुत
नाराज हो गया।
मुल्ला ने
कहा: सब खराब
कर दिया। बात
बिलकुल तय
होने के करीब
थी। अब बीच
में मत बोलना!
आंख
बंद कर ली और
बोला कि हां
भाई, वापिस
लौट आओ। मगर
अब कौन वापिस
लौटे! बहुत करवट
ली, बाएं
लेटा, दाएं
लेटा...फिर
पत्नी पर टूट
पड़ा, कहा, तू भी
कोई...जगाने का
समय होता है एक!
हर बात का समय
होता है। जरा
रुक जाती, सौ
पर बात टिकी
जाती थी। एक
देवदूत प्रगट
हुआ था और कह
रहा था, मांग
ले क्या
मांगता है। तो
उससे मैं सौ
रुपए मांग रहा
था; वह भी
कंजूस पक्का
था। एक से
शुरू किया, किसी तरह
निन्यानबे तक
राजी हुआ था, बस अब एक की
बात और रह गई—जरा—सी
बात, सौ
रुपए हाथ में
होते। और अब
मैं आंख बंद
करके भी कह
रहा हूं कि
भाई लौट आ, यहां
तक भी कि चल
निन्यानबे ही
सही, मगर
कोई दिखाई ही
नहीं पड़ रहा
है।
सपने
फिर से नहीं
जोड़े जा सकते।
टूटे सो टूटे।
फिर कितनी ही
करवट बदलो...।
भोग एक
सपना है। एक
बार टूटे तो
त्याग फलित
होता है। और
फिर त्याग एक
नए भोग का
प्रारंभ है—परम
भोग का, परमात्मा
के भोग का।
भोग है झूठा, मिथ्या—धन
का, पद का, प्रतिष्ठा
का। सब सपनों
के नाम हैं।
फिर एक और भोग
है—परमात्मा
का, अस्तित्व
का, सत्य
का। रसो वैसः। फिर
उसका रस पीना।
तो एक
पहलू है कि
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
त्यागा। और
इसका मैं
दूसरा पहलू भी
तुमसे कह दूं:
जिन्होंने
त्यागा, उन्होंने
भोगा। और ये
दोनों ही अंग
समझ लेने जरूरी
हैं। दोनों को
समझोगे तो
दोनों के पार
भी हो सकोगे।
जो दोनों के
पार हो जाता
है—न भोग, न
त्याग—वह
द्वंद्व के
पार हो गया।
उसे हम
गुणातीत कहते
हैं, द्वंद्वातीत कहते हैं।
वह परम अवस्था
है—निर्विकल्प
समाधि की, निर्जीव
समाधि की।
मगर
तुमने अगर
जल्दबाजी की, कच्चे—कच्चे,
तुमने कहा
कि जब त्यागना
ही है तो
भोगना क्या—तो
तुम्हें, त्यागना
ही है यह खयाल
कैसे आया? कांटा
गड़ा नहीं
और कांटा
निकालना है, यह ,खयाल
कैसे आया? जरूर
किसी कांटे
लगे हुए आदमी
की बात सुन ली
होगी। जिसे
कांटा लगा, जिसने कांटे
की पीड़ा जानी,
जिसने
कांटा निकाला
और कांटा
निकालने का
सुख जाना, उसकी
बात सुन ली
होगी—किसी बुद्धपुरुष
की। मिल गए
होंगे कोई
पलटू, कोई
कबीर, कोई
नानक; उनकी
बात सुन ली
होगी। उधार
बात पकड़ ली।
उनको कांटा
लगा था, तो
पीड़ा थी; कांटा
निकाला, तो
सुख पाया।
तुम्हें
कांटा ही नहीं
लगा और तुम
कांटा
निकालने में
लग गए—कांटा
ही नहीं है, निकालोगे क्या खाक!
तुम बहुत
मुश्किल में
पड़ोगे। तुम कांटा
निकालने का
धोखा अपने को
दोगे—कांटा तो
होना चाहिए!
बीमार दवा ले
तो स्वस्थ हो
जाए। और तुम
किसी बीमार के
स्वस्थ होने
की बात सुनकर
खरीद लाए दवा—स्वस्थ
होओगे तो
उल्टे बीमार
हो जाओगे।
और ऐसा
ही हुआ। इस
देश के बड़े से
बड़े दुर्भाग्य
में एक
दुर्भाग्य यह
है। सौभाग्य
की बात थी कि यहां
बड़े फकीर हुए, पहुंचे हुए
फकीर हुए।
लेकिन
दुर्भाग्य की
बात थी कि नासमझों
ने उनकी बातें
पकड़ लीं और
उनकी बातों के
आधार पर जीने
की चेष्टा
शुरू कर दी।
कांटा टटोलने
लगे, जो
लगा ही नहीं
है। और कांटा
छोड़े बिना तो
त्याग होता
नहीं, तो
कांटा छोड़ने
लगे जो है ही
नहीं। जो नहीं
है उसे कैसे छोड़ोगे? तो छोड़ने का
पाखंड पैदा
होगा फिर।
इसीलिए
यह देश एक तरफ
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, ऐसे
अदभुत
ज्योतिर्मय
लोगों की धारा
है और दूसरी
तरफ बुद्धुओं
की एक महान
जमात। एक तरफ
जलते हुए थोड़े—से
दीए और दूसरी
तरफ अमावस की
रात। ठीक है है कि हम दीवाली
अमावस की रात
को मनाते हैं,
वह इस देश
की प्रतीक है।
दीए जला लिए—वे
बुद्ध, कृष्ण,
महावीर, कबीर,
नानक, पलटू,
रैदास, फरीद!
दीए जला लिए।
और अंधेरी रात
है, अमावस
की रात है।
अमावस की रात
में हम दीवाली
मनाते हैं, ऐसी इस देश
की हालत है।
देश में तो
अमावस की रात
है। हां, कभी—कभी
कोई दीया जल
जाता है और हम
उसी दीए के
गुणगान में
लवलीन हो जाते
हैं और भूल ही
जाते हैं कि
अमावस की रात
इससे मिटती
नहीं, अपनी
जगह बनी है।
जब तक कि
प्रत्येक
दीया जल न उठे,
जब तक कि
प्रत्येक
प्राण जल न उठें,
चैतन्य से
ज्योतिर्मय न
हो उठें, तब तक यह रात
मिटेगी नहीं।
पाखंड फैला।
एक तरफ सदगुरुओं
के वचन और
दूसरी तरफ पंखड़ियों
की जमात।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीच बाजार में
खड़ा, अपने गधे
को भगवदगीता
पढ़ा रहा था।
भीड़ लग गई। भगवदगीता
का एक पृष्ठ पढ़े और गधा
जोर से पैर
पटके और सिर
हिलाए। तो
मुल्ला कहे: नसरुद्दीन,
मजाक की भी
एक सीमा होती
है, और यह
मजाक जरा
जरूरत से
ज्यादा हुआ जा
रहा है। गधे
को और भगवदगीता
पढ़ा रहे हो!
गधा और भगवदगीता
समझेगा!
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा: मैंने
तो गधों के
सिवाय और किसी
को भगवदगीता
पढ़ते देखा
नहीं। जब बाकी
गधे समझ रहे
हैं तो इस गधे
का क्या कसूर
है? और
देखते नहीं कि
गधा कितना
कुशल और
प्रवीण है, एकदम सिर
हिलाता है, पैर भी
मारता है; कहता
है कि हां ठीक,
आगे बढ़ो!
इतना कंठस्थ
हुआ!
गीता
कंठस्थ कर लो
कि कुरान
कंठस्थ कर लो
कि बाइबिल
कंठस्थ कर लो, पाखंडी हो
जाओगे। अमावस
मिटेगी नहीं,
पूर्णिमा
जगेगी नहीं।
अंधेरा अंधेरा
रहेगा। और
खतरनाक
स्थिति हो गई:
अंधेरा तो बना
ही रहेगा और
तुम धोखा खाने
लगोगे रोशनी
का; क्योंकि
रोशनी की
बातें
तुम्हें याद
हो गई। हां, कृष्ण की
बातों में
रोशनी है। मगर
कृष्ण हो जाओ
तो। नहीं तो
वे सब बातें
हैं। तुम
उन्हें दोहराओ,
तोतों की
तरह दोहराते
रहो, कुछ
फर्क न होगा।
तुम जैसे थे
वैसे रहोगे, शायद और भी
गर्त में पड़
जाओगे, क्योंकि
अब अहंकार
जगेगा ज्ञान
का।
धर्मशरण
दास, जानोगे
कैसे कि
त्यागना है? त्याग की
बात ही कैसे
उठ सकती है? भोग जलाए,
भोग तड़फाए,
भोग भटकाए,
लहूलुहान
कर दे
तुम्हारे
पैरों को, तो
त्याग में
अर्थ आता है; तो त्याग का
बोध जगता है; तो समझ आनी
शुरू होती है
कि अब जागूं,
नींद बहुत
ले ली, बहुत
दुख—स्वप्न
देख लिए। वे
सारे दुख—स्वप्न
ही तुम्हारे
जगने का कारण
बन जाते हैं।
इसलिए उपनिषद
के वचन की मैं
निश्चित ही
स्तुति करता
हूं। अदभुत वचन
है: तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
उन्हीं ने
त्यागा, जिन्होंने
भोगा!
जल्दी
मत करना! फल
कच्चा टूट जाए, कड़वा रह
जाता है; तिक्त;
कि खट्टा; खाने योग्य
तो निश्चित ही
नहीं। फल पके
तो मीठा हो
जाता है। पकने
में मिठास है।
भोग को
जीओ। डरो
मत, भागो मत। भगोड़ों
से कोई रूपांतरण
नहीं होता।
भोग को
पहचानो। भोग
एक परिस्थिति
है।
गुरजिएफ
ने एक दिन
अपने एक
प्रमुख शिष्य
को कहा कि
पेरिस में
मेरे कोई तीस
शिष्य हैं, सबको खबर कर
दो कि रविवार
को सुबह फलां—फलां
जगह ठीक सात
बजे—मिनट भी
देर न हो—मुझे
मिलें। जो जगह
है वह कोई तीस
मील देर। सर्दी
के दिन, बर्फ
पड़ती है। सात
बजे सुबह, जंगल
के एक चौरस्ते
पर, मिनट
भर भी देर
नहीं—सबको कह
दो कि वहां
इकट्ठे हो
जाएं, कुछ
महत्वपूर्ण
बात कहनी है।
कौन चूके!
चूकने का मन
तो बहुत हुआ; मगर
महत्वपूर्ण
बात से चूक
जाएंगे। तो लोभवश
जागे, भागे,
पहुंचे ठीक
वक्त पर। कोई साढ़े छः
बजे पहुंच गया,
कोई पौने
सात, लेकिन
सात बजते—बजते
तो तीनों आदम
वहां मौजूद
थे।
गुरजिएफ
ने जिससे यह
संदेश
भिजवाया था, उससे कहा कि
और तू, सात
बजे ठीक मेरे
घर आ जाना। वह
थोड़ा जरा हैरान
हुआ कि यह
मामला क्या
है! सात बजे
वहां शिष्यों
से मिलना है
और मुझे सात
बजे घर बुला
रहे हैं! मगर
इतना समर्पण न
हो तो सदगुरुओं
से साथ नहीं
बनता। तो वह
सात बजे
गुरजिएफ के वहां
उपस्थित हुआ।
वह तो मस्त
सोए हुए थे।
नौकर ने कहा
बैठो; अभी
तो वह उठे ही
नहीं हैं। और
हैरानी हुई कि
वे बिचारे सब
जंगल में खड़े
होंगे! कोई आठ
बजे गुरजिएफ
उठा, एक
कागज पर लिखकर
दिया कि: अब
तुम जा सकते
हो, और कुछ
नहीं कहना है।
कागज, कहा
कि जाकर
शिष्यों को दे
दो, वे जो
इकट्ठे हैं
जंगल में। वे
बेचारे सात
बजे से राह
देख रहे हैं।
कोई चार बजे
उठा है, कोई
पांच बजे उठा
है, कोई
तीन बजे ही उठ
आया है। कोई
रात भर सो ही
नहीं सका कि
सुबह कोई
महत्वपूर्ण
संदेश मिलना
है। सात बज गए,
सवा सात बज
गए, साढ़े सात, धुकधुकी
लगी है, सब
एक तरफ टकटकी
लगाए देख रहे
हैं रास्ते पर—कोई
पता नहीं है।
कोई आता नहीं,
कोई जाता
नहीं। उस
शिष्य का पता
नहीं जो खबर दे
गया। साढ़े
आठ बजे घबड़ाहट
फैलने लगी।
पौने नौ बज गए,
तब कहीं वह
शिष्य
पहुंचा। जाकर
उसने चिट दे
दी। चिट पढ़ी, अपनी—अपनी गाड़ियों
में बैठे, घर
की तरफ वापिस
चले।
तुम
पूछोगे, यह
कोई मजाक था? नहीं, यह
मजाक नहीं था।
सदगुरुओं
के अपने उपाय
होते हैं। उन
तीस में से एक
ने भी यह नहीं
कहा कि यह
क्या ज्यादती
है? मजाक
की भी कोई
सीमा होती है।
नाहक हमारी
रात खराब
करवाई, सुबह
सर्दी में भटकवाया!
नहीं, लेकिन
यह मजाक न थी।
यह सिर्फ एक
उपाय था। एक उपाय
कि क्या तुम
विपरीत
परिस्थितियों
में भी श्रद्धा
को बचा सकते
हो? जबकि
संदेह
स्वाभाविक हो,
तब भी क्या
तुम श्रद्धा
को सुरक्षित
रख सकते हो?
संसार
ऐसा ही उस परमगुरु
के द्वारा
निर्णीत किया
गया एक उपाय
है। भोग एक
उपाय है
परमात्मा
द्वारा
सुनिश्चित
तुम्हें
ढकेला गया है।
श्रद्धापूर्वक
स्वीकार करो।
होशपूर्वक
समझो, विश्लेषण
करो, पहचानो।
संसार की पीड़ाओं
से अपनी आत्मा
में धार रखो, अपने चैतन्य
को प्रज्वलित
करो। यह
परिस्थिति चूक
न जाए!
इसलिए
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
भाग जाओ भोग
को छोड़कर, भोग की
जरूरत क्या है?
भोग की
जरूरत है।
क्योंकि भोग
से ही त्याग
का फूल निकलता
है। भोग के
बिना कोई
त्याग नहीं है।
यह आकस्मिक
नहीं है कि
जैनों के
चौबीस ही तीर्थंकर
राजपुत्र हैं—तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः!
जिन्होंने
भोगा
उन्होंने
त्यागा। यह
आश्चर्यजनक
नहीं है कि
हिंदुओं के सब
अवतार राजपुत्र।
बुद्ध भी
राजपुत्र। इस
सबके भीतर एक
सुसंगति है—तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः!
जिन्होंने
भोगा, उन्होंने
त्यागा।
जैसे
ही जैसे कोई
समाज समृद्ध
होता है, भोग
की व्यर्थता
साफ होने लगती
है। जैसे ही
जैसे
तुम्हारे
जीवन में भोग
से पहचान होती
है, भोग का
आकर्षण विदा
होने लगता है।
तब आता है त्याग—एक
सहज नैसर्गिक
त्याग! करना
नहीं पड़ता, हो जाता है।
हो जाए तब मजा
है। करना पड़े,
बात बेमजा
हो गई। करना पड़े
तो उसका अर्थ
है: जबर्दस्ती
हुई; हो
जाए तो उसका
अर्थ है: सहज; स्वस्फूर्त;
बोध से हुआ।
और तब एक नए
भोग का
प्रारंभ होता
है। वह परम
भोग है।
सच्चिदानंद
उसी का नाम
है।
तुम
चले
देखना, यह स्वर्ण
होकर
मृत्तिका, न
गले
राग है
यदि व्यर्थ तो
वैराग्य भी
तुच्छ
है यदि ग्रहण
तो है त्याग
भी
द्वंद्व
है भ्रम
द्वंद्व है तम
द्वंद्व
का निशिदूत
रस के सहज दल न दले
तुम
चले
देखना, यह स्वर्ण
होकर
मृत्तिका, न
गले
नींद
भी है सत्य
स्वप्निल तोष
भी
पंखड़ियां
भी सत्य पंकज
कोष भी
जागरण
में या सपन
में
चेतना
जगती रहे तो
कौन है कि छले
तुम चले
देखना, यह स्वर्ण
होकर
मृत्तिका, न
गले
कामना
शिव है सदा
गति प्रगति की
शिव
रहे तो भले
रति की विरति
की
शिव सुधासर
सत्य सुंदर
तुम
कहीं भी रहो
फिर हे, सत्य
शिव के तले
तुम
चले
देखना, यह स्वर्ण
होकर
मृत्तिका, न
गले
चेतना
जगती रहे तो
कौन है कि छले...
असली
सवाल है चेतना
के जागरण का।
और जहां पीड़ा
है वहां जागरण
आसान है। सुख
सुला देता है, दुख जगाता
है। इसलिए
जानने वालों
ने परमात्मा
को धन्यवाद
दिया है—उस सब
दुखों के लिए
जो उसने दिए; और उन सब
सुखों के लिए
जो उसने दिए।
सुख के लिए भी
धन्यवाद, दुख
के लिए भी
धन्यवाद। और
अगर ठीक से
पूछो तो दुख
के लिए ज्यादा
धन्यवाद बजाए
सुख के।
क्योंकि सुख
में तो आदमी
सो जाए, दुख
में नहीं सो
पाता है। जीवन
में तो आदमी
भूल जाए, लेकिन
मौत में तो
परमात्मा का
स्मरण आने ही
लगता है। पीड़ा
में तो
प्रार्थना
अपने—आप उमगती
है। इसलिए
वरदान ही
वरदान नहीं है,
अभिशाप भी
वरदान है।
अभिशाप भी
छिपे हुए वरदान
हैं।
चेतना
जगती रहे तो
कौन है कि छले!
त्याग
और क्या है? जागकर जीना!
होशपूर्वक
जीना! फिर यही
संसार
परमात्मा बन
जाता है।
तुच्छ
समझ मत त्यागो
स्वप्न
समझ भ्रम समझ
न भटको, अपना कह अनुरागो
त्याग
हृदय की दुर्बलता
है राग हृदय
का धन है
त्याग
राग के युगल
पुलिन में
आंदोलित जीवन
है
अंतर्धन
का दुर्बलता
पर बलि करक मत भागो
मन की
धारा मुक्त, जहां चाहे
जैसे बह जाए
किंतु
न अगर बंधे
फूलों में तो
कैसे गति पाए
गति
जीवन है जीवन
द्रोही राग
विराग न मांगो
गति के
बिना व्यर्थ
है सब कुछ गति
बिन लक्ष्य
कहां है
रति के
बिना तरंगित
हो जो ऐसा
वक्ष कहां है
मन की
ये उद्दाम
तरंगें जीवन
रस में पागो
त्याग सिमिटकर
रह जाता है
राग फैल
लहराता
जो
विराग में चुप
रहता है वही
राग में गाता
जीवन
का संगीत न भूलो, जागो, जागो, जागो
न तो
प्रश्न भोग का
है न प्रश्न
त्याग का है—प्रश्न
है जाग का, जागरण का, जागृति का!
धर्मशरण
दास, जल्दी न
करो! जीवन में
जिसने जल्दी
की, वह
बहुत कुछ गंवाता
है। जीवन को
अपनी गति से
चलने दो। थोपो
मत कुछ, अन्यथा
पाखंड होगा।
ऊपर—ऊपर ओढ़ो
मत, अन्यथा
दुविधा होगी।
तुम्हारे
भीतर ही संघर्ष
खड़ा हो जाएगा:
ऊपर कुछ, भीतर
कुछ; चाहोगे
कुछ, कहोगे
कुछ।
तुम्हारा
जीवन एक संस्रास,
एक संताप हो
जाएगा।
क्योंकि
निरंतर
अंतर्द्वंद्व
रहे, निरंतर
भीतर संघर्ष
चले, गृहयुद्ध
ही बना रहे
भीतर, तलवारें
ही खिंची रहें,
अपने लड़ाई
जारी रहे—तो
कैसा आनंद, कैसा सत्य? सत्य के लिए
तो शांति
चाहिए; भीतर
एक समन्वय
चाहिए; एक
समवेत संगीत
की अवस्था
चाहिए।
इसलिए
मैं अपने
संन्यासी को
कहता हूं:
जीवन को जीओ।
हां, एक शर्त
लगाता हूं: जागकर
जीओ।
भोगो, जी
भरकर भोगो—बस जागकर
भोगो! यही जाग
भोग को त्याग
में
रूपांतरित कर देती
है। यही जाग
इस संसार को
परमात्मा में
बदल देती है।
यही जाग पत्थर
को परमात्मा
की प्रतिमा
बना देती है।
यही जाग बस
काफी है धोखे
को तोड़ देने
को। धोखा वृक्षों
में, पत्थरों
में, पहाड़ों
में थोड़े ही
है—तुम्हारी
नींद में है; तुम्हारी
बेहोशी में, तुम्हारी
मूर्च्छा
में।
महावीर
से किसी ने
पूछा है: मुनि
कौन, अमुनि कौन? और
महावीर की
परिभाषा बड़ी
प्यारी है।
महावीर ने
कहा: असुत्ता
मुनि, सुत्ता अमुनि।
जो सोया है, वह अमुनि;
जो जागा है,
वह मुनि।
महावीर ने
नहीं कहा कि
जिसने घर छोड़ दिया,
वह मुनि; पत्नी छोड़
दी, वह
मुनि; धन
छोड़ दिया, पद
छोड़ दिया, वह
मुनि। महावीर
ने तो बड़ी ही
गहन परिभाषा
दी—असुत्ता!
जो सोया नहीं
है। फिर वह
कहीं भी हो, बीच बाजार
में हो, तो
भी मुनि है।
और जो सोया है,
हिमालय की
गुहा में सोया
रहे और सपने
देखता रहे, तो अमुनि
है।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान,
ओ रहमतें
बरसाने वाले, ओ मूक हृदय के
स्रोत
तुझे
कोटिशः
धन्यवाद, कोटिशः
वंदन!
मात्र
तेरे मदिरा—ए—जाम
की आशिक........
आनंद
निष्ठा, मधुशाला
है यह। यहां
जो पीने आए
हैं, बस वे
ही आए हैं। जो पियक्कड़
होने को तैयार
हैं, उनके
लिए ही मेरा
द्वार है। तू
पीना चाहती है,
तो सुराही
पर सुराही ढलेगी।
मगर
लोग बड़े कृपण
हो गए हैं।
देने में कृपण
हो गए हैं सो तो
ठीक, लेने में
तक कृपण हो गए
हैं। झोली
नहीं फैलाते,
हृदय नहीं
खोलते।
और यह
मदिरा कुछ ऐसी
मदिरा नहीं कि
प्यालियों
में भरी जाए; यह तो
तुम्हारा
हृदय प्याली
बने तो ही
ढाली जा सकती
है। यह मदिरा
अंगूरों से
ढली हुई तो
नहीं, आत्मा
से ढली हुई
है। यह मदिरा
ओंठों से नहीं
पी जाती; इस
मदिरा को पीने
के लिए उपवास
सीखना पड़े, पास आने की
कला सीखनी
पड़े, उपदेश
लेने की कला सीखनी पड़े,
उपनिषद
सुनने की कला सीखनी
पड़े।
ढलेगी, बहुत ढलेगी।
पीने—पिलाने
के लिए ही यह
सारा आयोजन
है।
मैं
छोड़ चलूं
मैं रिसने
वाले जर्जर घट
में क्या—क्या
जोड़ चलूं
जो नीड़
नीर में गले
पवन में हलकोर
खाए
जिसकी संकीरन
सीमा में खग
बंदी हो जाए
मैं
गगन मुक्त उस
क्षुद्र नीड़
के तिनके जोड़
चलूं
मैं
छोड़ चलूं
मैं रिसने
वाले जर्जर घट
में क्या—क्या
जोड़ चलूं
मैं
भूल गया था
राह चाह की
चंचल वेला में
मैं
भूल गया था
जीवन को लहरों
के मेला में
जब
लक्ष्य मिल
गया है तो
अपने पथ को
मोड़ चलूं
मैं
छोड़ चलूं
मैं रिसने
वाले जर्जर घट
में क्या—क्या
जोड़ चलूं
मैं
चलूं
तुम्हारी
कल्याणी वाणी
पाथेय रहे
जो
ध्येय नयन के
आगे है वह मन
में गेय रहे
ले
मर्त्य स्वरों
की बीन अमर से
लेने होड़
चलूं
मैं
छोड़ चलूं
मैं रिसने
वाले जर्जर घट
में क्या—क्या
जोड़ चलूं
हृदय
को घट बनाना
होगा। बाहर के
सारे घटों में
तो बाहर की ही
मदिरा भरी जा
सकती है। और
बाहर के सब घट
फूटे घट हैं; उनमें कुछ
भरा नहीं; उनसे
सब रिस—रिस
जाता है।
आत्मा का घट
बनाना होगा।
वही शिष्यत्व
है!
निष्ठा, तू ठीक कहती
है: मात्र
तेरे मदिरा—ए—जाम
की आशिक।
लेकिन आश्किी
खतरनाक सौदा
है। प्रेम है
मरने की
तैयारी; उससे
कम में काम
नहीं चलता। इस
मदिरा की कीमत
अहंकार की
मृत्यु से
चुकानी पड़ती
है। इस मदिरा
की कीमत केवल
वे ही चुका
सकते हैं जो
दीवाने हैं, पागल हैं।
समझदारों का
यह काम नहीं।
होशियारों का
यह काम नहीं।
गणित बिठालने
वालों का यह
काम नहीं। कौड़ी—कौड़ी का
हिसाब रखने
वालों का यह
काम नहीं।
हिज्र
की शब नाला—ए—दिल
वो सदा देने
लगे
सुनने
वाले रात कटने
की दुआ देने
लगे।
किस
नजर से आपने
देखा दिले—मजरूह
को
जख्म
जो कुछ भी चले
थे, फिर हवा
देने लगे।
जुज जमीने—कू—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह
जिसका
दरवाजा नजर
आया, सदा देने
लगे।
बागवां
ने आग दी, जब
आशियाने को
मेरे
जिन पे
तकिया था, वही पत्ते
हवा देने लगे।
मुट्ठियों
में खाकर ले
कर दोस्त आए वक्ते—दफन
जिंदगी
भर की मुहब्बत
का सिला देने
लगे।
आइना
हो जाए मेरा
इश्क उनके
हुस्न का
क्या
मजा हो दर्द
अगर खुद ही
दवा देने लगे।
सीना—ए—सोजां में साकिब घुट
रहा है यह
धुआं
उफ
करूं तो आग
दुनिया की हवा
देने लगे।
दीवानगी
चाहिए। ऐसी
दीवानगी—जुज
जमीने—के—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह—कि
उस प्यारे के
सिवाय कुछ भी
दिखाई न पड़े।
सारी गलियां
उसकी गलियां, सारे घर
उसके घर।
जुज जमीने—के—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह
जिसका
दरवाजा नजर
आया, सदा देने
लगे।
हर
दरवाजे पर
उसको पुकारने
का जिस दिन
पागलपन आ जाता
है...।
अभी तो
तुमने उसके भी
मंदिर चुन रखे
हैं। हिंदू एक
मंदिर जाता, मुसलमान
मस्जिद जाता,
सिक्ख
गुरुद्वारा
जाता। सिक्ख
फिक्र नहीं करता
हिंदू मंदिर
की, हिंदू
फिक्र नहीं
करता मस्जिद
की, मस्जिद
वाले को क्या
पड़ी किसी और
के मंदिर की तरफ
देखे! और सब
मंदिर तो काफिरों
के हैं, नास्तिकों
के हैं, भटके
हुओं के हैं।
ये दीवानों की
बातें नहीं हैं,
ये
दुकानदारों
की बातें हैं।
जुज जमीने—कू—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह
आंख के
सामने जब उसके
सिवाय कुछ और
दिखाई ही नहीं
पड़ता; जो
दिखाई पड़ता है
वही दिखाई
पड़ता है; हर
गली उसकी गली,
और हर द्वार
उसका द्वार—
जुज जमीने—कू—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह
जिसका
दरवाजा नजर
आया, सदा देने
लगे।
दरवाजा
जहां दिखाई
पड़ा वहीं
प्रार्थना
करने बैठ गए, वहीं झुक
गए...ऐसी
दीवानगी
चाहिए, तो
जरूर तेरा
पात्र मेरी
मदिरा से भर
जाए।
यहां
जो हिसाब—किताब
सलगाने
वाले लोग आ
जाते हैं, व्यर्थ आ
जाते हैं। जो
यहां अपना सोच—विचार
लेकर आ जाते
हैं, न आते
तो अच्छा था; समय खराब
करते हैं। यह
दीवानों की
महफिल है। यह
सत्संग कोई
शाब्दिक
सत्संग नहीं
है। ये तो पीने—पिलाने
की बातें हैं।
यहां तो साहस
चाहिए।
एक
बेहोशी है
संसार की और
एक बेहोशी है
परमात्मा की।
संसार में जो
बेहोश है, सपने में है;
और
परमात्मा में
जो बेहोशी बड़ी
अनूठी है—ऐसी
बेहोशी है कि
होश को बढ़ाती
है, घटाती
नहीं।
जिस
शराब की मैं
बात कर रहा
हूं, यह
तुम्हारे
अहंकार को डुबा
देगी और
तुम्हारी
आत्मा को जगा
देगी। अनेक—अनेक
ढंगों से—नृत्य
में, गीत
में, संगीत
में यही शराब
बह रही है।
लेकिन मधुशालाएं
लोगों को
मंदिर नहीं
मालूम पड़तीं।
लोगों को तो
मंदिर वे
स्थान मालूम
पड़ते हैं, जहां मुर्दा
परंपरा की
पूजा हो रही
है, जहां सड़ी—गली
लाशों के ढेर
लगे हैं।
जितनी पुरानी
लाश, उतनी
ही आदृत।
बुद्ध जब
जिंदा होते
हैं, तब तो
उनका सत्संग
एक मधुशाला
होता है; बुद्ध
जब मर जाते
हैं, तब
मंदिर बनता है—मंदिर
मुर्दा! जब
मुहम्मद के ओठों पर
कुरान होती है
तो काबा एक
मधुशाला होता
है; मुहम्मद
गए, कुरान
हवा हो गई, काबा
एक मुर्दा
स्थान रह जाता
है। पूजते रहो,
जन्मों—जन्मों
तक पूजते रहो,
काबा और
कैलास और
गिरनार भटकते
रहो, एक
बूंद भी नहीं
मिलेगी अमृत
की! किसी
जीवित बुद्ध
के पास ही
संभव होती है
यह अपूर्व
घटना, यह
चमत्कार!
यही
सबसे बड़ा
चमत्कार है।
पानी पर चलने
में कोई
चमत्कार नहीं
है। मूढ़ों
को चमत्कार
दिखाई पड़ता है
पानी पर चलने
में।
मैंने
सुना है, एक
आदमी एक होटल
में गया, चाय
बुलाई।
नाराजगी में
मैनेजर को
बुलाया और मैनेजर
से कहा: देखो, चाय में
मक्खी चल रही
है! मैनेजर था
पक्का ईसाई, एकदम घुटने
के बल जमीन पर
बैठ गया, हाथ
आकाश की तरफ
उठा दिए और
कहा: हे ईसा
मसीह, तो
तुम आ गए! इस
रूप में आओगे,
ऐसा न सोचा
था!
कुछ
हैं जिनके लिए
चमत्कारों का
यही अर्थ होता
है। पानी पर
चल रहे हैं, हवा में उड़
रहे हैं, राख
प्रगट कर रहे
हैं, ताबीज
और घड़ियां
निकाल रहे
हैं!
मैं तो
सिर्फ एक ही
चमत्कार
जानता हूं, जो शिष्य और
गुरु के बीच
घटता है।
उपनिषद एकमात्र
चमत्कार है।
सत्य का एक
हृदय से दूसरे
हृदय में उंडल
जाना एकमात्र
चमत्कार है।
यह
मदिरा जो मैं
अपनी सुराही
में लिए बैठा
हूं, तुम्हारी
प्याली तक
पहुंच जाए—लेकिन
अवसर दो।
तुम्हारे
कहने की ही
बात नहीं, हृदय
खोलो!
अखंड श्रद्धा
में ही यह
संभव हो सकता
है। संदेह में
तो आदमी बंद
होता है, श्रद्धा
में खुल जाता
है। श्रद्धा
में तुम्हारा
पात्र मेरे
सन्मुख हो
जाए।
निष्ठा!
यह घटना घट
सकती है।
घटेगी। घटनी
चाहिए। उसके
लिए ही यह
विराट आयोजन
चल रहा है कि
हजारों लोगों
के जीवन में
यह घटना घट
जाए। एक—दो को
नहीं पिलाना
है, लाखों को
पिलाना है।
पीने वालों को
इतना बढ़ाना है
कि यह मस्ती
की हवा, यह
मस्ती का रंग
दुनिया को
आंदोलित करने
लगे।
जुज जमीने—कू—ए—जानां कुछ
नहीं पेशे—निगाह
जिसका
दरवाजा नजर
आया, सदा देने
लगे।
अब तो
घबरा के ये
कहते हैं कि
मर जाएंगे
मरके
भी चैन न पाया
तो किधर
जाएंगे।
आग दोजख
की भी हो जाएगी
पानी—पानी
जब ये आसी अरके—शर्म
में तर
जाएंगे।
हम
नहीं वो जो
करें खून का
दावा तुझ पर
बल्कि
पूछेगा खुदा
भी तो मुकर
जाएंगे।
शोला—ए—आह
को बिजली की
तरह चमकाऊं
पर
मुझे डर है कि
वो देख के डर
जाएंगे।
जौक
जो मदरसे के बिगड़े हुए
हैं मुल्ला
उनको मयखाने
में ले आओ, संवर
जाएंगे।
निष्ठा, तू तो आई सो
आई, और जो
बिगड़ गए हैं, मदरसों में,
उनको भी ला!
जौक
जो मदरसे के बिगड़े हुए
हैं मुल्ला
उनको मयखाने
में ले आओ, संवर
जाएंगे।
उनको
भी संवारना
है। संवरना ही
नहीं, संवारना
भी है।
मेरे
संन्यासी को
स्मरण रखना
है: संवरना ही
नहीं, संवारना
भी है। जागना
ही नहीं, जगाना
भी है। क्यों?
क्योंकि जब
तुम दूसरों को
जगाने में लग
जाते हो तो
तुम्हारी
अपनी जाग भी
गहन होने लगती
है। जब तुम
दूसरों को
पुकारने में
लग जाते हो तब
तुम्हारी
आत्मा भी उस
पुकार को
सुनने लगती
है। जब तुम
दूसरों को
पिलाने को आतुर
हो जाते हो तो
फिर तुम पीने
में कृपणता
नहीं करते।
दूसरों को
समझाना अपने
को समझाने का
एक उपाय है।
इस दुनिया में
कुछ भी सीखना
हो तो सबसे
अदभुत कला
सीखने की है:
सिखाना शुरू
करो।
दिया
अपनी खुदी को
जो हमने उठा, वो जो पर्दा—सा
बीच में था, न रहा
रहे
पर्दे में अब
न वो पर्दा—नशीं, कोई दूसरा
उसके सिवा न
रहा।
न थी
हाल की जब
हमें अपने खबर, रहे देखते
औरों के ऐबो—हुनर
पड़ी
अपनी
बुराइयों पर
जो नजर, तो
निगाह में कोई
बुरा न रहा।
तेरे
रुख के खयाल
में कौन से
दिन, उठे मुझपे
न फितना—ए—रोजे—जजा
तेरी
जुल्फ के
ध्यान में कौन—सी
शब, मेरे सर
पे हुजूमे—बला
न रहा।
हमें सागरो—बाद
के देने में
तू, करे देर
जो साकी तो
हाय गजब
कि ये अहदे
निशात, ये दौरेत्तरब,
न रहेगा
जहां में सदा,
न रहा।
उसे
चाहा था मैंने
कि रोक रखूं, मेरी जान भी
जाए तो जाने न
दूं
किए
लाख फरेब, करोड़ फुसूं, न रहा, न
रहा, न रहा
न रहा।
जफर
आदमी न उसको जानिएगा, हो वो कैसी
ही साहबे—फह्मो—जका
जिसे
ऐश में यादे—खुदा
न रही, जिसे
तैश में खौफे—खूदा न
रहा।
थोड़े
से ही पाठ
हैं। सच कहो
तो एक ही पाठ
है। और तूने
वही पूछा। ठीक
ही है, जल्दी
करो पीने की!
हमें सागरो—बाद
के देने में
तू, करे देर
जो साकी तो
हाय गजब
किये अहदे
निशात, ये दौरेत्तरब,
न रहेगा
जहां में सदा,
न रहा।
कौन
जाने; आज
मधुशाला है, कल हो न हो!
कौन जाने; आज
शराब ढाली जा
रही है, कल
ढले, न ढले!
हमें सागरो—बाद
के देने में
तू, करे देर
जो साकी तो
हाय गजब
कि ये अहदे
निशात...
यह रात
रहेगी कि नहीं? यह बात
रहेगी कि नहीं?
ये दौरेत्तरब...
यह
मौसम, यह
वातावरण; यह
समय की गति, यह चाल, यह
ऋत...
ये दौरेत्तरब, न रहेगा
जहां में सदा,
न रहा।
इतना
तो पक्का है
कि बुद्ध आते
हैं और जाते
हैं; जो पी
लेते, पी
लेते; जो
व्यर्थ की
बातों में पड़े
रह जाते हैं, वंचित रह
जाते हैं।
तूने
ठीक पूछा।
लेकिन एक बात
स्मरण रहे:
साकी की तरफ
से कोई भी
देरी नहीं है; देरी होगी
तो पीने वाले
की तरफ से है।
अध्यात्म के
जगत में सदगुरु
तो बांटने को
आतुर होता है;
शिष्य ही
लेने में
आनाकानी करते
हैं, हजार
बहाने खोजते
हैं, हजार
तरकीबें अपने
को बचाने की
करते हैं।
क्योंकि यह
मामला मिटने
का है। मिटना
कौन चाहता है!
बीज भी मिटना
नहीं चाहता।
और जब तक मिटे
न तब तक पौधा
पैदा नहीं
होता। और नदी
भी मिटना नहीं
चाहती, लेकिन
जब तक मिटे न
तब तक सागर
नहीं बनती।
अपने को बचाओगे
तो ओस की बूंद
रह जाओगे।
अपने को
मिटाओगे तो
सागर हो तुम, महासागर हो
तुम!
दिया
अपनी खुदी को
जो हमने उठा, वो जो पर्दा—सा
बीच में था, न रहा
रहे
पर्दे में अब
न वो पर्दा—नशीं, कोई दूसरा
उसके सिवा न
रहा।
कुछ
नहीं है
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच, एक झीना—सा
पर्दा है। और
वह परमात्मा
पर नहीं है; वह तुमने ही
घूंघट कर लिया
है। वह तुमने
ही अपनी आंखों
को छिपा रखा
है एक पर्दे
में। हटाओ
यह पर्दा।
घूंघट उठाओ!
घूंघट के पट
खोल, तोहे पिया
मिलेंगे! पिया
मिले ही हुए
हैं, मगर
तुमने घूंघट
ऐसे जोर से
पकड़ रखा है!
तुमने घूंघट
में अपने सारे
प्राण लगा रखे
हैं।
मैं तो
ढालने को
तैयार हूं, निष्ठा! तू
मिट! जगह दे!
जगह खाली कर!
यह शराब ढालूं
तो कहां ढालूं?
अगर भीतर
मैं भरा रहा, अगर भीतर
अहंकार भरा
रहा, तो
जगह नहीं।
प्याली को
खाली करो!
मेरी तरफ से जरा
भी कृपणता
नहीं है; अति
आतुरता है।
क्योंकि
तुम्हें पता
हो न पता हो, मुझे पता है—यह
मौसम सदा नहीं
रहेगा, यह
ऋतु सदा नहीं
रहेगी; जो
आज घट सकता है,
कल की कौन
कहे! कल कभी
आता भी नहीं
है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, आपसे और
अधिक सुंदर
भगवान की
अभिव्यक्ति
और क्या होगी,
पर कभी—कभी
ध्यान लगने पर
आप भी छूट
जाते हैं, और
ध्यान से वापस
लौटने पर मन
में एक पीड़ा
बनी रहती है
कि जिसकी कृपा
से ध्यान लग
रहा है, उनका
भी स्मरण भूल
जाता हूं, तो
कहीं यह उनके
प्रति
अकृतज्ञता तो
नहीं है? कीर्तन
में तो पीड़ा
का यह भाव
नहीं रहता।
मुझे
ध्यान और
भक्ति—दोनों
में रस आने
लगा है; पर
जब भी आप
प्रवचन में
इनकी साफ—साफ विभाजन—रेखा
खींचते हैं, तो मैं फिर
उलझन में पड़
जाता हूं।
कृपया इस संबंध
में कुछ और कह
कर मेरा मार्ग—निर्देश
करें। (क्षमा
करें, प्रश्न
पूछना ही
पड़ा।)
योग
प्रीतम, मैं
लाख उलझाऊं
तुम उलझो
मत। मैं लाख
कहूं कि सात
बजे पहुंच
जाना, पहुंचना
ही मत। अगर
दोनों में रस
आ रहा है, तो
डूबो, दोनों
में डूबो।
दोनों में कुछ
ऐसा विरोध
नहीं है कि एक
साथ रस न लिया
जा सके। अंततः
तो दोनों एक
हो जाते हैं।
लेकिन, मैं जो
स्पष्ट भेद
करता हूं, उसका
कारण है। सभी
की इतनी
सामर्थ्य
नहीं कि दोनों
को एक साथ
सम्हाल लें।
एक ही सम्हल
जाए तो बहुत।
इसलिए स्पष्ट
भेद—रेखा
खींचता हूं।
कहीं ऐसा न हो
कि दो को सम्हालने
में एक भी न
सम्हल पाए। सौ
मैं से नब्बे
प्रतिशत लोग
एक को ही
सम्हाल लें तो
बहुत। एक ही
नहीं सम्हलता,
दो तो क्या सम्हलेंगे!
हां, जिनसे
दोनों सम्हल
जाएं, वे
सौभाग्यशाली
हैं।
तुम्हें
चिंता लेने की
जरूरत नहीं
है। सब आयाम
उसके हैं।
अंततोगत्वा
मेरी तो
चेष्टा यही है
कि प्रत्येक
से सारे आयाम
सध जाएं। मगर
मैं अपनी
चेष्टा को इतनी
असंभव नहीं
बना देना
चाहता हूं कि
वह किसी के वश
के ही भीतर न
रह जाए। मुझे
सबका ध्यान
रखना है—अंतिम
का भी।
शिक्षाशास्त्री
कहते हैं:
श्रेष्ठ
शिक्षक वही है, जो इस ढंग से
बात करे कि जो
सबसे अंतिम
विद्यार्थी
है, उसकी
भी समझ में आ
जाए। शिक्षाशास्त्र
का यह नियम
तुम्हें समझ
में आ
सकेगा।...योग
प्रीतम
विश्वविद्यालय
में शिक्षक
हैं।...शिक्षक को
तो ऐसे ही
बोलना चाहिए
कि अंतिम की
समझ में आ
जाए। अगर
सिर्फ प्रथम
की समझ में आए,
तो बाकी का
क्या हो? लेकिन
जो अंतिम के
लिए बोला जा
रहा है, वह
प्रथम के लिए
बंधन नहीं है।
वहीं प्रथम को
रुक नहीं जाना
है। वह उसकी
सीमा—निर्धारण
नहीं कर रहा
है। वह तो
केवल अंतिम भी
सोया न रह जाए!
मैं जब
बोल रहा हूं
तो अंतिम का
ध्यान रखकर
बोल रहा हूं।
एक भी न चूके।
जब हम यात्रा
पर निकलते हैं, महत यात्रा
पर निकलते हैं,
तो खयाल
रखना पड़ता है
कोई पीछे न
छूट जाए। उसमें
बूढ़े हैं, बुजुर्ग
हैं; उसमें
छोटे बच्चे
हैं; यात्रीदल में बीमार
हैं, अस्वस्थ
हैं। तो कभी—कभी
ऐसा भी होता
है कि जो
स्वस्थ हैं, बीमार नहीं,
युवा हैं, उनको भी
आहिस्ता—आहिस्ता
चलना होता है,
ताकि बीमार
भी साथ चल
सकें, अस्वस्थ
भी साथ चल
सकें, बूढ़े—वृद्ध—बच्चे
भी साथ चल
सकें। नहीं तो
कुछ तो बहुत
आगे निकल
जाएंगे, कुछ
बहुत पीछे रह
जाएंगे, उनके
बीच का सेतु
टूट जाएगा।
और मैं
एक संघ का
निर्माण कर
रहा हूं।
इसमें सेतु
टूटने नहीं
हैं, सेतु
बनाने हैं।
इसमें प्रथम
और अंतिम जुड़ा
रहे, एक
शृंखला
निर्मित करनी
है।
समस्त
बुद्धों ने
संघ निर्मित
किए। एक विशेष
कारण से।
बुद्ध तो आज
हैं, कल नहीं
होंगे, लेकिन
एक शृंखला
पैदा की जा
सकती है जो
बुद्ध की थाती
को, उनकी
सौगात को, उनकी
भेंट को
सम्हाल सके; थोड़े दूर तक
बुद्ध के जाने
के बाद भी
उनकी रोशनी को
ले जा सके।
जितनी कुशल वह
शृंखला होगी,
उतने दूर तक
ज्योति को
बांटा जा सकता
है—बुद्ध के
जाने के बाद
भी!
संन्यास
एक संघर्ष है।
यह पियक्कड़ों
की एक जमात
है। इसमें सब
तरह के लोग
हैं। मैं सबको
ध्यान में रखकर
बोल रहा हूं।
इसलिए कभी जब
प्रथम को ध्यान
में रखकर
बोलूं तो
अंतिम चिंतित
न हो। कभी जब
ऐसी बात कहूं
कि जो अंतिम
की समझ में न
आए, तो वह
परेशान न हो।
मुझे उसका
ध्यान है।
उसके लिए भी
कहूंगा। उसे
भी पहुंचाना
है। अगर वह न
भी चल सका तो
डोली और कहार
का इंतजाम करेंगे,
लेकिन उसे
भी पहुंचाना
है! कंधों पर
ले चलेंगे, लेकिन उसे
भी ले चलना
है। कांवर बना
लेंगे, लेकिन
उसे पीछे नहीं
छोड़ देना है!
और जब कभी मैं
अंतिम के लिए
बोलूं, तो
प्रथम को
बेचैन होने की
कोई जरूरत
नहीं है।
योग
प्रीतम, तुम्हें
अगर भक्ति और
ध्यान दोनों
में रस आता है,
दोनों में
डुबकी लो, दोनों
अपने हैं।
भक्ति भी उसका
घाट और ध्यान
भी उसका घाट।
एक घाट से
उतरो तो भी
वहीं तक पहुंच
जाता है आदमी।
और तुम्हें
दोनों घाटों
से तैरना आ
जाए—कहना
क्या!
रामकृष्ण
ने उपलब्धि के
बाद भी और—और
साधना—पद्धतियों
का प्रयोग
किया, जिनकी
अब कोई जरूरत
न थी—सिर्फ
देखने के लिए
कि और भी घाट
वहीं ले जाते हैं
या नहीं? घाट
तो बहुतेरे
हैं, लेकिन
सब वहीं ले
जाते हैं।
रामकृष्ण ने
बहुत—से
प्रयोग किए।
छः महीने तक
मुसलमान हो गए
थे। छः महीने
तक मंदिर में
नहीं तो थे, मस्जिद में
रहने लगे थे।
मूर्ति, काली
की मूर्ति, जिसको एक
क्षण को नहीं
बिसार सकते थे,
छः महीने के
लिए बिलकुल
पीठ कर ली थी
उसकी तरफ।
क्योंकि
मुसलमान के
लिए तो मूर्ति
कुफ्र है। छः
महीने
निराकार की
साधना की। छः
महीने बाद जब
वापिस लौटे तो
अपने शिष्यों
को कहा: घाट
अलग हैं, मगर
नाव कहीं से
भी छोड़ो
वहीं पहुंच
जाती है।
मस्जिद से भी
वहीं पहुंच
जाती है, मंदिर
से भी वहीं
पहुंच जाती
है।
एक
बहुत अनूठा
प्रयोग
रामकृष्ण ने
किया। बंगाल
में एक
संप्रदाय है—सखी
संप्रदाय, जिसको मानने
वाले मानते
हैं कि कृष्ण
एकमात्र
पुरुष हैं और
शेष सब
स्त्रियां
हैं। कृष्ण का
भक्त अपने को
सखी मानता है।
यह बौद्धिक
मान्यता नहीं
है। रामकृष्ण
ने इस परंपरा
की भी साधना
की। तो चाहे
और मानने वाले
ऊपर—ऊपर मानते
हों—क्योंकि
आसान नहीं है
यह बात मान
लेना। तुम पुरुष
हो और मानो कि
मैं स्त्री
हूं। लाख मानो,
रह—रह कर
याद आ जाएगी
कि हूं तो
पुरुष। चाहे
स्त्री के
कपड़े ही पहन
लो, तो भी
चाल—ढाल बता
देगी, व्यवहार
बता देगा।
कैसे छिपाओगे?
यह भाव तो
बहुत गहरा है।
हम अपने को
शरीर मानते
हैं, तब तक
इस भाव से
छूटना आसान
नहीं है, क्योंकि
शरीर तो पुरुष
है या स्त्री
है। जब तक
हमारा शरीर से
तादात्म्य है,
तब तक तुम
कितना ही लाख
ऊपर—ऊपर से
कहो कि मैं
सखी हूं, गोपी
हूं, मगर
कोई एकाध
धक्का मार
देगा कि गोप
प्रगट हो जाएगा,
गोपी विदा
हो जाएगी! कोई
पैर पर पैर रख
देगा कि सब
भूल—भाल जाएगा
कि मैं सखी
हूं! कि फेंक—फांक
कर कपड़े ताल
ठोंककर खड़े हो
जाओगे, मूंछ
पर ताव देने
लगोगे! शरीर
से तादात्म्य
हो तो।
लेकिन
रामकृष्ण
जैसा व्यक्ति, जिसका शरीर
से कोई
तादात्म्य
नहीं, जब
सखी—संप्रदाय
की साधना करने
लगे तो स्त्री
ही हो गए। इस
बात के
वैज्ञानिक
गवाह हैं।
डाक्टरों ने
उनकी
चिकित्सा की,
हैरान हुए
डाक्टर, उनके
स्तन उभर आए।
भरोसे में
नहीं आने वाली
बात थी यह कि
शरीर का
तादात्म्य
इतना छूट सकता
है, भाव भी
गहनता इतनी हो
सकती है कि
पुरुष के स्तन
उभर आएं। इतना
ही नहीं, रामकृष्ण
को हर महीने
मासिक—धर्म
शुरू हो गया।
अकल्पनीय घटा
था। इतने भाव से
स्वीकृति दी
थी कि जब छः
महीने बाद सखी—संप्रदाय
की साधना पूरी
हुई और
रामकृष्ण वापिस
लौटे, तो
भी जल्दी घटना
नहीं घटी
बदलाहट की।
कहते हैं कोई
छः महीने लगे
तब उनकी चाल
वापिस पुरुष की
हो पायी; नहीं
तो वह
स्त्रियों
जैसे चलने लगे
थे। कोई छः
महीने में
वापिस उनके
स्तन विदा हुए
और छः महीने
लग गए उनके
मासिक—धर्म को
बंद होने में।
फिर कहा अपने
शिष्यों का:
घाट बहुत हैं,
मगर कहीं से
नाव छोड़ो,
उसी के
किनारे पहुंच
जाती है। उस
तरफ उसका ही किनारा
है।
तो
भक्ति से चलो
कि ध्यान से, बात एक है; यद्यपि
दोनों
मार्गों पर
अलग—अलग चीजों
का अनुभव
होगा। इसलिए
योग प्रीतम, जब ध्यान
लगेगा तो मेरी
याद भी छूट ही
जाएगी। अगर
मेरी याद भी
बनी रहे तो
ध्यान लगा ही
नहीं। इसलिए
मत सोचना, क्षण
भर को भी मत
सोचना कि कोई
अकृतज्ञता हो
रही है। भूलकर
भी कभी खयाल
मत लाना अपराध—भाव
का, कि
मेरे प्रति
कोई अवज्ञा हो
रही है। ध्यान
का तो अर्थ ही
यही है कि
वहां सब छूट जाएगा।
जब सब विचार
छूट जाएंगे, तो मेरी याद
कैसे करोगे? याद भी तो
विचार है। जब
निर्विचार
घटित होगा तो
उस निर्विचार
में तो
परमात्मा का
विचार भी नहीं
रह जाएगा।
गुरु की तो
बात छोड़ो,
प्रभु की भी
स्मृति नहीं
रह जाएगी!
यही तो
कारण है कि
ध्यान के जो
संप्रदाय हैं—जैसे
जैन, जैसे
बौद्ध—उनमें
ईश्वर को कोई
जगह नहीं है।
इसका यह कारण
नहीं है कि
ईश्वर नहीं
है। इसका केवल
इतना ही कारण
है कि ध्यान
के मार्ग पर
ईश्वर के
आलंबन की कोई
आवश्यकता
नहीं है—आलंबन
की ही
आवश्यकता
नहीं है। एक
रास्ते से
जाओगे, पहुंचोगे
पहाड़ की उसी
चोटी पर, लेकिन
दृश्य तो
रास्ते के अलग
होंगे। जैसे
गौरी—शंकर
पर्वत पर अलग—अलग
दिशाओं से चढ़ाइयां
हुई हैं, अलग—अलग
दिशाओं के
दृश्य अलग—अलग
हैं। एक तरफ
बर्फ ही बर्फ
जमी है—अनंतकालीन,
कभी पिघली
नहीं। दूसरी
तरफ पत्थर ही
पत्थर हैं—ऐसे
चिकने कि
जिनसे चढ़ना
मुश्किल; जिनसे
आदमी फिसल—फिसल
जाए। जो आदमी
एक दिशा से चढ़ेगा,
वह खबर
लाएगा
पत्थरों ही
पत्थरों की—चिकने
पत्थरों की।
और जो आदमी
दूसरी दिशा से
चढ़ेगा, वह खबर
लाएगा शाश्वत,
सनातन जमी
हुई बर्फ की—कुंआरी
बर्फ, जिसको
कभी किसी का स्पर्श
नहीं हुआ।
दोनों की
बातें मेल न खाएंगी।
दोनों की
बातें बड़ी
विपरीत
लगेंगी।
लेकिन दोनों
जब शिखर की
बात करेंगे, अगर शिखर तक
पहुंच सके हों,
तो बात एक
हो जाएगी।
इसलिए
सभी
शास्त्रों
में जो शिखर
है, वहां तो
बात एक हो
जाती है।
लेकिन
शास्त्रों में
सिर्फ शिखर ही
नहीं हैं, और
बहुत कुछ कचरा—कूड़ा भी है,
प्राथमिक
बातें भी हैं,
रास्ते का
वर्णन भी है, वह बहुत अलग—अलग
है। अगर गीता
के शिखर को
समझो तो वह
वही है जो
कुरान का, वही
है जो धम्मपद
का, वही है
जो बाइबिल का।
लेकिन रास्ते?
रास्ते के
दृश्य? बड़े
अलग—अलग हैं, बड़े भिन्न—भिन्न
हैं।
ध्यान
के मार्ग पर
सब छूट जाता
है। बुद्ध ने
तो यहां तक
कहा है: अगर
तुम्हारे
मार्ग में कभी
मैं आ जाऊं, तो उठाकर
तलवार दो
टुकड़े कर
देना।
योग
प्रीतम, जरा
भी न सोचना कि
अकृतज्ञता हो
रही है। सच तो यह
है, ध्यान
के मार्ग पर
मुझे भूलकर
तुम मेरी बात
को पूरा कर
रहे हो, मेरे
उपदेश को पूरा
कर रहे हो।
यही तो मैं कह
रहा हूं—यही
कि तुम्हारे
मार्ग पर अगर
मैं आ जाऊं तो
तलवार उठाकर
दो टुकड़े कर
देना। वहां तो
कोई नहीं बचना
चाहिए! वहां
तो बस केवल
शून्य चैतन्य
बचे—निर्विकार,
निर्विकल्प,
निर्विचार,
निर्बीज।
उस शून्य में
ही पूर्ण का
अवतरण होगा; मगर विचार
नहीं, अनुभव
की तरह; विचार
की तरह नहीं, भाव की तरह।
और वही
तुम्हारी
मेरे प्रति
कृतज्ञता
होगी। जिस दिन
तुम उस ध्यान
की समाधि को पा
लोगे, वही
तुम्हारा
धन्यवाद
होगा। मैं याद
आऊं न आऊं, यह
सवाल नहीं है;
तुमने
ध्यान पा लिया,
अब और
धन्यवाद क्या
देना है? धन्यवाद
हो गया!
लेकिन
भक्ति के
मार्ग पर जब
कीर्तन करोगे, नाचोगे,
तो मुझे
नहीं भूलोगे;
मैं
तुम्हारे साथ नाचूंगा।
साथ—साथ होगा
नाच। हाथ में
हाथ होगा।
क्योंकि भक्ति
के मार्ग पर
दुई का
अंगीकार है।
इसलिए तो भक्ति
के मार्ग पर
रस का आविर्भाव
होता है।
प्रेम है
भक्ति। और
प्रेम तो दो
चाहता है।
ध्यान है
शून्य। शून्य
में एक। भक्ति
है प्रेम।
प्रेम में दो।
तो भक्ति जब करोगे
तब तो मेरी
याद बनी
रहेगी। वह
स्वाभाविक है।
इन
दोनों में
तुलना मत करना; ये दोनों
घाट अलग हैं।
और अगर दोनों
घाटों में रस
आता है तो कभी
नौका—विहार इस
घाट से, कभी
नौका—विहार उस
घाट से; फिक्र
न करो, दूसरा
किनारा एक ही
है। दोनों के
लिए मेरा आशीर्वाद
है। भक्ति के
मार्ग पर मुझे
याद करना; ध्यान
के मार्ग पर
मुझे बिलकुल
भूल जाना। जरा
भी भेद नहीं
है दोनों
बातों में।
दोनों ही अर्थों
में तुम मेरी
दृष्टि को, मेरे दर्शन
को पूरा कर
रहे हो।
और अब
रुकना नहीं है, अब रस आने
लगा हो तो अब
ठहरना नहीं
है। अभी ऊर्जा
है। अभी उमंग
है। अभी
उत्साह है।
अभी युवा हो।
अभी छोड़ दो यह
नौका सागर
में।
मैं न रुकूंगा
आज
संयम
चुका मत्त है
यौवन मैं न चुकूंगा
आज
धारा में
लहरें उठ आईं, लहर लहर
तूफानी
तट के
बंधन तोड़ पिया
से मिलने चली
दीवानी
मन
मझधार बीच मगन
है साज असंवृत
साज
हृदय उमड़कर ही
सार्थक है वह
बंधन क्या
जाने
कूलों
को ढंक लेते
हैं लहरों के
ताने—बाने
कूल न
मिले भले, लहरों से
मैं न लुकूंगा
आज
कल
अकूल हृदय की
गति है सोच न
हिम्मत हारूं
सांसों
का अदम्य
उत्तेजन कैसे
उसे बिसारूं
प्रलय
तने जितना
तनना हो, मैं
न झुकूंगा
आज
मैं न रुकूंगा
आज
बढ़े
चलो, बढ़े चलो!
भक्ति से, ध्यान
से, प्रेम
से, ज्ञान
से—बढ़े चलो, जगे
चलो!
बैठ
जाता हूं, जहां छांव
घनी होती है
हाय
क्या चीज गरीबुल—वतनी
होती है!
दिन को
इक नूर बरसता
है मेरी तुरबत
पर
रात को
चादरे—महताब
तनी होती है।
लुट
गया वो तेरे
कूचे में रखा
जिसने कदम
इस तरह
की भी कहीं
राहजनी होती
है।
हिज्र
में जह्र
है सागर का
लगाना मुंह से
मय की
जो बूंद है
हीरे की कनी
होती है।
मयकशों
को न कभी फिक्रे—कमो—बेश
हुई
ऐसे
लोगों की
तबीअत भी गनी
होती है।
हूक
उठती है, अगर
जब्ते—फुगां
करता
सांस
रुकती है तो
बरछी की अनी
होती है;
पी लो
दो घूंट कि
साकी की रहे
बात हफीज
साफ
इनकार में
खातिर—शिकनी
होती है।
योग
प्रीतम, ऐसी
गली में आ गए
जहां लुटना ही
पड़ेगा।
लुट
गया वो तेरे
कूचे में रखा
जिसने कदम
इस तरह
की भी कहीं
राहजनी होती
है।
भारत
अकेला देश है, जिसने भगवान
को एक नाम
दिया—हरि। हरि
का अर्थ होता
है, लुटेरा।
लूट ले जो, हर
ले जो—हरि!
दुनिया की
भाषाओं में
भगवान के बहुत
नाम हैं।
सूफियों के
पास सौ नाम
हैं। मगर नहीं
कोई मुकाबला
इस एक हरि का।
सब नाम फीके
पड़ जाते हैं।
कहो रहमान, कहो रहीम, दो बहुत नाम;
लेकिन हरि
जैसा कोई नाम
नहीं।
क्योंकि
भगवान अगर
वस्तुतः कुछ
है तो लुटेरा
है। लूट लेता
है।
लुट
गया वो तेरे
कूचे में रखा
जिसने कदम
इस तरह
की भी नहीं
राहजनी होती
है।
और लूट
भी कोई लूट, ऐसी लूट! धन
कोई छीन ले तो
समझ में आता
है, लेकिन
प्राण ही कोई
ले जाए! और एक
बार ले गया सो ले
गया, फिर
लौटता नहीं
प्राण। लेकिन
फिक्र नहीं
करते दीवाने।
मयकशों
को न कभी फिक्रे—कमो—बेश
हुई। उन्हें
चिंता ही नहीं
होती। उन्हें कमो—बेश
की भी चिंता
नहीं होती। कितना
मिला, कितना
लुटा, कितना
बचा—यह सब
हिसाब—किताब
वे करते भी
नहीं
मयकशों
को न कभी फिक्रे—कमो—बेश
हुई
ऐसे
लोगों की
तबीअत भी गनी
होती है।
ऐसे
लोगों की
तबियत भी बड़ी
उदार होती है, पियक्कड़ों की तबियत
बड़ी उदार होती
है। अगर
परमात्मा लूटना
जानता है तो पियक्कड़ लुटना
भी जानते हैं।
जीसस
ने कहा: जो
तुम्हारा कोट
छीने, कमीज
भी उसे दे
देना। और जो
तुम्हारे एक
गाल पर चांटा
मारे, दूसरा
गाल भी उसके
सामने कर
देना। और जो
तुमसे कहे एक
मील तक मेरा
बोझ ले चलो, दो मील उसके
साथ चले जाना।
ऐसे लोगों की
तबीअत भी गनी
होती है! बड़ी
उदार होती है,
बड़ी छाती
होती है, बड़ा
दिल होता है।
लुट गए, योग प्रीतम!
और दोहरी तरफ
से लुट रहे हो—ध्यान
में भी और
भक्ति में भी।
अब जरा तबियत
को गनी करो।
अब जरा उदार
बनो। अब दिल
खोलकर लुटो।
लुटते—लुटते
बात बन जाएगी।
मिटते—मिटते
बात बन जाएगी।
यह बात मिटते—मिटते
ही बनती है, लुटते—लुटते
ही बनती है।
दर्दे—दिल
में कमी न हो
जाए
दोस्ती, दुश्मनी न
हो जाए।
तुम
मेरी दोस्ती
का दम न भरो
आसमां
मुद्दई न हो
जाए।
बैठता
है हमेशा रिंदों
में
कहीं
जाहिर वली न
हो जाए।
ताला—ए—बद
वहां भी साथ न
दे
मौत भी
जिंदगी न हो
जाए!
अपनी खू—ए—वफा से
डरता हूं
आशिकी, बंदगी न हो
जाए।
कहीं
बेखुद
तुम्हारी
खुद्दारी
दुश्मने—बेखुदी
न हो जाए।
बैठता
है हमेशा रिंदों
में
कहीं जाहिद वली
न हो जाए।
पियक्कड़ों
में आ गए!...योग
प्रीतम जैन—परिवार
से हैं—तेरापंथी
जैन—परिवार
से। सोचा भी न
होगा सपने में
कि कभी किसी
मधुशाला के
हिस्से हो
जाएंगे।
बैठता
है हमेशा रिंदों
में
कहीं जाहिद वली
न हो जाए।
संयमी
भी अगर पियक्कड़ों
के साथ बैठता
रहे तो ऋषि हो
जाता है, वली
हो जाता है।
तुम्हारे
मुनियों को जो
नहीं मिल रहा
है, तुम
सौभाग्यशाली
हो कि तुम्हें
मिल रहा है। आचार्य
तुलसी जिससे
वंचित हैं, वह तुम पर
बरस रहा है।
तुमने हिम्मत
ही रिंदों
में बैठने की!
हिम्मत का
परिणाम तो
होता ही है, उसका
पुरस्कार तो
मिलता ही है।
बैठता
है हमेशा रिंदों
में
कहीं जाहिद वली
न हो जाए।
अनी खू—ए—वहा से
डरता हूं
आशिकी, बंदगी न हो
जाए।
आए और
मेरे प्रेम
में पड़ गए—आशिकी!
और फिर
तुम्हें पता
ही न चला, कब
आशिकी बंदगी
होने लगी!
प्रेम कब
प्रार्थना बन
जाता है, यह
पता ही कहां
चलता है!
प्रेम चुपचाप
प्रार्थना बन
जाता है; न
कहीं शोरगुल
होता, न
कहीं आवाज
होती, न
कहीं कोई डुंडी
पिटती! जैसे
चुपचाप ओस की
बूंद सरक जाती
है कमल के
पत्तों से!
जैसे चुपचाप
रात बेला या
जुही का फूल
खिल जाता है
और गंध बिखर
जाती है! जरा—सी
भी आहट नहीं
होती चरण—चिह्नों
की, ऐसे
चुपचाप यह
क्रांति घट
जाती है। बस
कोई आ जाए, बैठ
जाए, थोड़ा
खुला हो, थोड़ा
पक्षपातों से
मुक्त हो; थोड़ी
चेतना हो, बिलकुल
जड़ न हो; थोड़ी
बुद्धिमत्ता
हो, थोड़ा
बोध हो—तो देर
नहीं लगती।
ऋषि हो जाना
कठिन नहीं है,
हमारा
स्वभाव है।
अब
दोनों ही सधने
दो। ध्यान भी
चले, भक्ति भी
चले। रहे
तलवार दुधारी,
दोनों तरफ
धार रहे। ये
दोनों
तुम्हें मिटा
डालेंगे। तुम
तो खो जाओगे, लेकिन फिर
जो बचता है, वही परमात्मा
है।
आखिरी
प्रश्न:
भगवान, मैं आपका
संन्यासी
क्या हुआ, बड़ा
उपद्रव हो गया
है। पराए तो
पराए, अपने
भी पराए हो
गए। मेरी
मस्ती ही उनके
क्रोध का कारण
बन रही है। अब
मैं क्या करूं?
चिन्मयानंद, अब और मस्त
होओ! और क्या
करोगे? अब
करने को और
बचा क्या? लौट
सकते नहीं।
लौटने का उपाय
ही नहीं। कोई
मस्त कभी लौटा
नहीं। कोई
रास्ता ही
नहीं है लौटने
का। जो लौट
जाए वह मस्त
था ही नहीं।
मस्ती से कोई
कैसे लौटेगा?
अब तो मस्ती
बढ़ेगी; इसमें नए—नए
अंकुर
निकलेंगे, नए—नए
पत्ते
निकलेंगे, नए—नए
फूल
निकलेंगे।
जलने
दो जलने वालों
को! शुरू—शुरू
में जलेंगे।
सदा से यहां
ऐसा ही होता
रहा है। निंदा
भी करेंगे, विरोध भी
करेंगे, पत्थर
भी फेंकेंगे,
मगर तुम
अपनी मस्ती मत
छोड़ो, किसी
कीमत पर मत छोड़ो।
मस्ती के लिए
कभी भी भूलकर
समझौता मत
करना। सब गंवा
देना, मस्ती
मत गंवाना।
क्योंकि
मस्ती ही तो
एकमात्र किरण
है जिसके
सहारे
परमात्मा तक
पहुंचा जा सकता
है।
और अभी
तो यह शुरुआत
है, आगे
देखिए होता है
क्या—क्या!
अभी तो बहुत
कुछ होगा। अभी
तो उन्होंने पत्थर
नहीं मारे, अभी तो कोई
सूली नहीं लगा
दी। करते
होंगे निंदा,
हंसते
होंगे पीठ
पीछे कि पागल
हो गया—इसे
क्या हो गया, भला—चंगा
आदमी, कभी
सोचा भी न था
कि ऐसी
दुर्घटना और
इसके जीवन में
घटेगी! लेकिन
तुम्हारी
मस्ती अगर
बढ़ती ही रही, बढ़ती ही रही,
तो जो निंदा
कर रहे हैं वे
ही कल प्रशंसा
करने लगेंगे।
एस धम्मो
सनंतनो। ऐसा
ही सनातन धर्म
है। पहले
निंदा करते
हैं, फिर
प्रशंसा करते
हैं।
और
मस्ती बढ़ती ही
रहे। खयाल
करना, कुछ
लोग तो निंदा
में ही डर
जाते हैं और
सिकुड़ जाते
हैं और घबड़ा
जाते हैं। तो
बस निंदा ही
बनी रह जाती
है। जो निंदा
की चिंता नहीं
करते, जो
बेपरवाही से
नाचते और गाते
बढ़ते ही चले
जाते हैं, जितनी
गालियां पड़ती
हैं उतनी ही वे
मृदंग बजाते
हैं, उतनी
ही वीणा छेड़
देते हैं—तो
प्रशंसा
सुनिश्चित
है। वे ही लोग
जो निंदा करते
थे, वे ही
प्रशंसा करने
लगते हैं। लोग
बड़े अजीब हैं!
वे ही लोग
कहने लगते हैं
कि हमने तो
पहले ही कहा
था!...वे ही
लोग!...कि यह
आदमी पहुंच
गया!
लेकिन
प्रशंसा पर भी
रुक मत जाना।
निंदा भी रोक सकती है, निंदा से भी
ज्यादा
प्रशंसा रोक
सकती है; क्योंकि
प्रशंसा
अहंकार को भर
देती है। अगर
तुम प्रशंसा
पर भी न रुको
तो वे ही लोग
तुम्हारे रंग
में भी रंगने
लगेंगे। न
निंदा पर
रुकना, न
प्रशंसा पर, तो तुम उनके
जीवन में
क्रांति का एक
उदघोष बन
जाओगे।
हंगामा
है क्यों बरपा
थोड़ी—सी जो पी
ली है
डाका
तो नहीं डाला, चोरी तो
नहीं की है।
नात्तजरबा—कारी
से वाइज की ये
बातें हैं
इस रंग
को क्या जाने, पूछो तो कभी
पी है?
उस मय
से नहीं मतलब, दिल जिससे
है बेगाना
मकसूद
है उस मय से
दिल ही मैं जो
खिंचती है।
वां
दिल में कि
सदमे दो, यां जी में कि सब
सह लो
उनका
भी अजब दिल है, मेरा भी अजब
जी है।
हर
जर्रा चमकता
है, अनवारे—इलाही से
हर से
कहती है, हम
हैं तो खुदा
भी है।
सूरज
में लगे धब्बा, फितरत के
हैं
बुत
हमको कहें
काफिर अल्लाह
की मर्जी है।
घबड़ाओ
मत! हंगामा तो मचेगा—थोड़े—से
पीने से मच
जाता है। और
अभी तो बहुत
पीना है!
हंगामा
है क्यों बरपा
थोड़ी—सी जो पी
ली है
डाका
तो नहीं डाला, चोरी तो
नहीं की है।
अपने
दरवाजे पर
तख्ती लगाकर
टांग देना—
हंगामा
है क्यों बरपा
थोड़ी—सी जो पी
ली है
डाका
तो नहीं डाला, चोरी तो
नहीं की है।
और जो
कर रहे हैं
निंदा, उनकी
निंदा का
मूल्य क्या?
नात्तजरबा—कारी
से वाइज की ये
बातें हैं
ये बड़े
बुद्धिमान जो
बने बैठे हैं—पंडित—पुरोहित, त्यागीत्तपस्वी—इनको कोई
तजुर्बा है, इनको कोई
अनुभव है? नात्तजरबा—कारी से
वाइज की ये
बातें हैं!
माफ करो इनको,
क्षमा करो
इनको, ध्यान
भी न दो इन पर।
बेचारे नातजुर्बाकार
हैं, इन्हें
कोई अनुभव
नहीं।
नात्तजरबा—कारी
से वाइज की ये
बातें हैं
इस रंग
को क्या जाने, पूछो तो कभी
पी है?
कभी
नाचे हैं मस्त
होकर? कभी
प्रार्थना
में डूबे हैं?
कभी किसी सदगुरु के
सत्संग में
डूबे हैं, डुबकी
मारी है? इनकी
बातों का क्या
मूल्य?
और फिर
यहां कौन अपना
है, चिन्मयानंद,
और कौन
पराया है!
यहां न कोई
अपना है, न
कोई पराया है।
सब मन को समझा
लेने की बातें
हैं। सब खेल
है। सपना। बस
सपना है सब।
तुम तो अपनी
मस्ती की आंख
को अब आकाश की
तरफ उठाओ, चांदत्तारों की तरफ उठाओ,
फिक्र छोड़ो
इनकी। भौंकते
हैं, भौंकने
दो। तुम अपनी
चाल थोड़े ही
खराब करोगे! हाथी
कहीं पीछे दौड़ता
है कुत्तों के,
कि चले एक—एक
कुत्ते का
पीछा करने
लगे! ऐसे में
नाहक हाथी की
भद्द हो जाए।
कुत्ते भी हंसें
कि हाथी बहुत
देखे, मगर
ऐसा हाथी नहीं
देखा।
हर
जर्रा चमकता
है, अनवारे—इलाही से
जरा
मस्ती की आंख
अब ऊपर उठाओ
तो दिखाई
पड़ेगा कि हर
कण, जीवन का
कण—कण...हर
जर्रा चमकता
है, अनवारे—इलाही
से!...ईश्वरीय
ज्योति से
जगमग हो रहा
है।
हर
जर्रा चमकता
है, अनवारे—इलाही से
हर
सांस ये कहती
है, हम हैं तो
खुदा भी है।
डुबकी
मारो भीतर!
डुबकी मारो चांदत्तारों
में—बाहर—और
डुबकी मारो
भीतर—भीतर के
आकाश में। और
तुम्हारे
भीतर ही यह
ध्वनि उठनी
शुरू होगी: हर
सांस ये कहती
है, हम हैं तो
खुदा भी है।
अब क्या फिक्र
लोगों की? अब
अगर फिक्र है
किसी की तो
खुदा की करनी
है। लोगों को
पता क्या है, बेचारों को
पता क्या है? खुद भटके
हैं और अगर
कोई कभी ठीक
रास्ते पर लग जाए,
तो सोचते
हैं भटक गया।
लेकिन
भीड़ उनकी है।
इसलिए अगर वोट
से तय करना हो
तो वे ही जीते
जाएंगे।
कितने लोग
गौतम बुद्ध को
वोट देते? और कितने
लोग जीसस को
वोट देते? सौ—दो
सौ भी देने देने
वाले नहीं
मिलते वोट
जीसस को।
लाखों मिल
जाते खिलाफ
वोट देने
वाले। क्यों?
भीड़ अंधों
की है। आंख
वाले यहां
कितने हैं? और आंख वाले
को आंख वाले
ही पहचान सकते
हैं।
सूरज
में लगे धब्बा, फितरत के
करिश्मे हैं
हंसने
दो। लोग तो
सूरज पर भी
धब्बे डालते
हैं। लोगों की
तो आदत ही
धब्बे डालने
की है।
सूरज
में लगे धब्बा, फितरत के
करिश्मे हैं
समझना
कि बड़ा
चमत्कार, बड़ा
करिश्मा।
सूरज
में लगे धब्बा, फितरत के करिशमे
हैं
बुत
हमको कहें
काफिर अल्लाह
की मर्जी है।
खुद जो
काफिर हैं, खुद जो
कुफ्र से भरे
हैं, जिन्हें
धर्म का कुछ
भी पता नहीं
है, वे, जो
जानते हैं, जो जानने
लगे हैं या
जानने के
मार्ग पर चल
पड़े हैं, जिन्होंने
थोड़ी—थोड़ी
पीनी शुरू कर
दी है, वे
उनकी निंदा कर
रहे हैं।
चमत्कार है!
चिंता
न लेना। हंसना
और आगे बढ़
जाना।
धन्यवाद देना
और आगे बढ़
जाना।
संन्यासी को
इतनी तैयारी
तो चाहिए।
संन्यास एक
अग्नि—परीक्षा
है।
आज
इतना ही।
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