सूत्र:
88—प्रत्येक
वस्तु ज्ञान
के द्वारा ही
देखी जाती है।
ज्ञान के
द्वारा ही आत्मा
क्षेत्र
में प्रकाशित
होती है। उस
एक को ज्ञाता
और ज्ञेय की
भांति देखो।
89—है प्रिये,
इस क्षण में
मन, ज्ञान, प्राण,
रूप, सब को
समाविष्ट
होने दो।
मैंने एक
किस्सा सुना
है। अनुदार दल
की एक जन—सभा
में लॉर्ड
मैनक्राफ्ट
को बोलने के
लिए आमंत्रित
किया गया था।
वे ठीक समय पर
आए और मंच पर
चढ़े—वें थोड़े
घबराए हुए लग
रहे थे—उन्होंने
लोगों को कहा. 'अपना
भाषण जल्दी
खतम करने के
लिए मुझे
क्षमा करें, लेकिन तथ्य
यह है कि मेरे
घर में आग लगी
है।’
और
यह तथ्य
प्रत्येक
आदमी का तथ्य
है। तुम्हारे
घर में भी आग
लगी है। लेकिन
तुम जरा भी
घबराए हुए
नहीं मालूम
पड़ते हो।
प्रत्येक
मनुष्य का घर
जल रहा है।
लेकिन
तुम्हें बोध
नहीं है—तुम्हें
मृत्यु का बोध
नहीं है, तुम्हें
बोध नहीं है
कि जीवन हाथ
से निकला जा
रहा है।
प्रत्येक
क्षण तुम मर
रहे हो।
प्रत्येक
क्षण तुम एक
अवसर गंवा रहे
हो जिसे वापस
नहीं लाया जा
सकता। जो समय
गया वह गया; उसे फिर
लौटाने का कोई
उपाय नहीं है।
और प्रत्येक
क्षण
तुम्हारा
जीवन कम होता
जा रहा है।
यही
अभिप्राय है
मेरे यह कहने
का कि
तुम्हारा घर
भी जल रहा है।
लेकिन तुम जरा
भी घबराए हुए
नहीं मालूम
पड़ते हो। तुम
इसके लिए जरा
भी चिंतित
नहीं लगते हो।
तुम्हें इस
तथ्य का बोध
नहीं है कि घर
जल रहा है। घर
जल रहा है, यह
तथ्य है, लेकिन
तुम्हारा
ध्यान उस तरफ
नहीं है। और
प्रत्येक
आदमी सोचता है
कि कुछ करने
के लिए बहुत
समय है। लेकिन
बहुत समय नहीं
है, क्योंकि
जो करना है वह
इतना ज्यादा
है कि कभी भी
समय काफी नहीं
है।
एक
बार ऐसा हुआ
कि शैतान
वर्षों—वर्षों
प्रतीक्षा
करता रहा और
एक आदमी भी
नरक नहीं आया।
वह स्वागत के
लिए तैयार था, लेकिन
संसार इतने
ढंग से चल रहा
था और लोग
इतने नेक थे
कि कोई आदमी
नरक नहीं आया।
स्वभावत:, शैतान
बहुत चिंतित
हो उठा। उसने
एक विशेष सभा
बुलाई; उसके
सर्वश्रेष्ठ
शिष्य इस
स्थिति पर
विचार करने के
लिए इकट्ठे हुए।
नरक बहुत बड़े
संकट से गुजर
रहा था और यह
बात बरदाश्त
नहीं की जा
सकती थी। कुछ
करना जरूरी था।
तो उसने सलाह
मांगी 'हमें
क्या करना
चाहिए?'
एक
शिष्य ने
सुझाव दिया 'मैं
पृथ्वी पर
जाऊंगा और
लोगों से
बातें करूंगा,
उन्हें समझाने
की कोशिश
करूंगा कि कोई
ईश्वर नहीं है
और सभी घर्म झूठे
है और बाइबिल,
कुरान और
वेद जो भी
कहते हैं वह
सब बकवास है।’
शैतान
ने कहा. 'इससे
कुछ हल नहीं
होगा, क्योंकि
यह तो हम शुरू
से ही करते आ
रहे हैं और इससे
लोग बहुत
प्रभावित
नहीं हुए। ऐसी
शिक्षा से तुम
सिर्फ उन्हें
ही समझा सकते
हो जो समझे ही
हुए हैं। यह
उपाय किसी काम
का नहीं है, यह बहुत काम
का नहीं है।’
तब
दूसरे शिष्य
ने,
जो पहले से
ज्यादा कुशल
था, कहा: 'मैं जाऊंगा
और लोगों को
यह सिखाने की,
समझाने की
कोशिश करूंगा
कि बाइबिल, कुरान और
वेद जो भी
कहते हैं वह
सही है।
स्वर्ग है, परमात्मा भी
है। लेकिन कोई
शैतान नहीं है,
इसलिए
तुम्हें डरने
की जरूरत नहीं
है। और अगर हम
उन्हें कम
भयभीत बना सके
तो वे धर्म की
बिलकुल फिक्र
नहीं करेंगे;
क्योंकि
सभी धर्म भय
पर खड़े हैं।’
शैतान
ने कहा. 'तुम्हारा
प्रस्ताव
थोड़ा बेहतर है।
तुम थोड़े से
लोगों को
समझाने में
सफल हो सकते
हो, लेकिन
बहुसंख्यक
लोग तुम्हारी
नहीं सुनेंगे।
वे नरक से
उतने भयभीत
नहीं हैं
जितने वे स्वर्ग
में प्रवेश
पाने की कामना
से भरे हुए
हैं। यदि
तुमने उन्हें
समझा भी लिया
कि नरक नहीं है,
तो भी वे
स्वर्ग की
कामना करेंगे
और उसके लिए वे
नेक बनने की
चेष्टा करेंगे।’
तब
तीसरा शिष्य, जो
सबसे
बुद्धिमान था,
बोला 'मेरा
एक सुझाव है, मुझे उसे
प्रयोग करने
का मौका दें।
मैं जाऊंगा और
कहूंगा कि
धर्म जो भी
कहता है वह
बिलकुल सच है,
ईश्वर भी है
और स्वर्ग भी
है और नरक भी
है, लेकिन
कोई जल्दी
नहीं है।’
और
शैतान ने कहा : 'बिलकुल
ठीक, तुम्हारे
पास सही उपाय
है। तुम जाओ।’
और
कहा जाता है
कि तब से फिर
कभी नरक में
कोई संकट पैदा
नहीं हुआ।
बल्कि वे अति
भीड़— भाड़ की
समस्या से
परेशान हैं।
हमारा
मन भी इसी
भांति काम
करता है। हम
सदा सोचते हैं
कि कोई जल्दी
नहीं है। और
ये विधियां
जिनकी हम
चर्चा कर रहे
हैं,
किसी काम की
न होंगी, यदि
तुम्हारा मन
कहता है कि
कोई जल्दी
नहीं है। तब
तुम स्थगित
करते रहोगे और
मृत्यु पहले
पहुंच जाएगी—और
वह दिन नहीं
आएगा जब तुम
सोचो कि जल्दी
करनी है, कि
अब समय आ गया
है। तुम
निरंतर
स्थगित करते
रह सकते हो।
यही हम अपने
जीवन के साथ
कर रहे हैं।
तुम्हें
कुछ करने की
दिशा में
निर्णायक
होना है। तुम
संकट में हो—घर
जल रहा है।
जीवन सदा जल
रहा है, क्योंकि
मृत्यु सदा
पीछे छिपी है।
किसी भी क्षण
तुम नहीं हो
सकते हो। और
तुम मृत्यु के
साथ तर्क—वितर्क
नहीं कर सकते;
तुम कुछ
नहीं कर सकते।
जब मृत्यु आती
है, आ जाती
है। समय बहुत
कम है। अगर
तुम सत्तर साल
जीओगे, या
सौ साल जीओगे,
तो भी समय
बहुत कम है।
और तुम्हें
रूपांतरित
होने के लिए, आमूल क्रांति
से गुजरने के
लिए अपने ऊपर
जो काम करना
है, वह
बहुत बड़ा है।
इसलिए स्थगित
मत करते रहो।
जब
तक तुम्हें
आपात—स्थिति
का,
गहन संकट का
बोध नहीं होगा,
तुम कुछ
नहीं करोगे।
जब तक धर्म
तुम्हारे लिए
जीवन—मरण का
प्रश्न न बन
जाए, जब तक
तुम्हें ऐसा न
लगने लगे कि
रूपांतरण के
बिना मेरा
सारा जीवन व्यर्थ
है, तब तक
कुछ नहीं होगा,
तुम व्यर्थ ही
जीओगे। जब तुम
इस बात को
बहुत तीव्रता
से, बहुत
गंभीरता से और
बहुत
ईमानदारी से
अनुभव करोगे
तो ही ये
विधियां काम
की हो सकती
हैं। तुम
उन्हें समझ
सकते हो, लेकिन
समझने से क्या
होगा? समझ
किसी काम की
नहीं है;
यदि तुम उसके
संबंध में कुछ
कहते नहीं हो।
दरअसल तुम जब
तक उस दिशा
में कुछ करते
नहीं, समझना
कि तुमने समझा
ही नहीं।
क्योंकि समझ
को कृत्य
बनाना जरूरी
है; अगर
समझ कृत्य
नहीं बनती है
तो वह परिचय
भर है, वह
समझ नहीं है।
इस
फर्क को समझने
की कोशिश करो।
परिचय समझ
नहीं है।
परिचय
तुम्हें
कृत्य में
उतरने को मजबूर
नहीं करेगा, परिचय
तुम्हें अपने
में बदलाहट
लाने के लिए विवश
नहीं करेगा।
उससे तुम कुछ
करने के लिए
बाध्य नहीं
होगे। तुम उसे
मन में इकट्ठा
कर लोगे और वह
तुम्हारी
जानकारी बन
जाएगा। तुम
ज्यादा पंडित
हो जाओगे, ज्यादा
जानकार हो
जाओगे। लेकिन
मृत्यु के
सामने सब खो
जाता है, समाप्त
हो जाता है।
तुम बहुत सी
चीजें इकट्ठी
करते रहते हो,
लेकिन उनके
संबंध में कुछ
करते नहीं; फिर वे
तुम्हारे ऊपर
बोझ बन कर रह
जाती हैं।
समझ
का अर्थ कृत्य
है,
करना है। जब
तुम किसी चीज
को समझ लेते
हो तो तुम
तुरंत उस दिशा
में कुछ करने
लगते हो। तुम्हें
उसके संबंध
में कुछ करना
ही होगा।
क्योंकि अगर
वह बात ठीक है
और तुम समझते
हो कि वह ठीक
है तो तुम्हें
उसके लिए कुछ
करना ही होगा।
अन्यथा वह
उधार ज्ञान
बनकर रह जाता
है, और
उधार ज्ञान
समझ नहीं बन
सकता।
तुम
भूल सकते हो
कि यह ज्ञान
उधार है—तुम
भूलना चाहोगे कि
यह उधार है—क्योंकि
यह प्रतीति कि
यह उधार है, तुम्हारे
अहंकार को चोट
पहुंचाती है।
इसलिए तुम भूल—
भूल जाते हो
कि यह उधार है।
और धीरे— धीरे
तुम मानने
लगते हो कि यह
मेरा अपना
ज्ञान है। और
यह बात बहुत
खतरनाक है।
मैंने
एक कहानी सुनी
है। एक चर्च
के लोग पादरी
से बहुत ऊब गए
थे। और एक
क्षण आया जब
कि चर्च के
सदस्यों ने
पादरी से सीधे
—सीधे कहा: 'अब
आपको यहां से
जाना होगा।’ पादरी ने
कहा. 'मुझे
एक और मौका
दीजिए, बस
एक मौका और; उसके बाद भी
यदि आप कहेंगे
तो मैं चला
जाऊंगा।’
अगले
रविवार को
सारा शहर चर्च
में जमा हुआ
कि देखें अब
वह पादरी क्या
करता है, जब
उसे सिर्फ एक
और मौका दिया
गया है।
उन्होंने
कल्पना भी
नहीं की थी, उन्हें कभी
खयाल भी नहीं
था कि उस दिन
ऐसा सुंदर
प्रवचन होने
वाला है।
उन्होंने ऐसा
प्रवचन कभी
नहीं सुना था।
आश्चर्यचकित
होकर, मग्न
होकर उन्होंने
प्रवचन का रस
लिया। और जब
प्रवचन
समाप्त हुआ तो
उन्होंने
पादरी को
घेरकर उससे
कहा : 'अब
आपको जाने की
जरूरत नहीं है।
आप यहीं रहें।
हमने ऐसा
प्रवचन पहले
कभी नहीं सुना,
पूरी
जिंदगी में
नहीं सुना। आप
यहीं रहें और
आपकी तनख्वाह
भी बढ़ाई जाती
है।’
लेकिन
तभी एक
व्यक्ति ने, जो
धर्म—मंडली का
प्रमुख सदस्य
था, पादरी
से पूछा. 'मुझे
बस एक बात
बताने की कृपा
करें। जब आपने
व्याख्यान
शुरू किया तो
आपने अपना बायां
हाथ उठाया और
दो उंगलिया
दिखाईं और जब
आपने
व्याख्यान
समाप्त किया
तो फिर आपने दायां
हाथ उठाया और
दो अंगुलियां
दिखाईं। इस
प्रतीक का
क्या अर्थ है?'
पादरी ने
कहा: 'अर्थ
आसान है। वे
उद्धरण—चिह्न
के प्रतीक हैं।
वह प्रवचन
मेरा नहीं था,
वह उधार था।’
उन
उद्धरण—चिह्नों
को सदा स्मरण
रखो। उनको भूल
जाना अच्छा
लगता है।
लेकिन तुम जो
कुछ भी जानते
हो वह सब
उद्धरण—चिह्नों
के भीतर है।
वह तुम्हारा
नहीं है। और
तुम उन उद्धरण—चिह्नों
को तभी छोड़
सकते हो जब
कोई चीज
तुम्हारा
अपना अनुभव बन
जाए। ये
विधियां
जानकारी को
अनुभव में
बदलने की विधियां
हैं।
ये
विधियां
परिचय को समझ
में रूपांतरित
करने के लिए
हैं। वह जो
बुद्ध का
अनुभव है, कृष्ण
का अनुभव है, क्राइस्ट का
अनुभव है, वह
इन विधियों के
द्वारा
तुम्हारा हो
जाएगा, तुम्हारा
अपना ज्ञान हो
जाएगा। और जब
तक यह
तुम्हारा
अनुभव नहीं
बनता, तब
तक कोई सत्य
सत्य नहीं है।
वह एक खूबसूरत
असत्य हो सकता
है, एक
सुंदर झूठ हो
सकता है, लेकिन
कोई सत्य सत्य
नहीं है जब तक
वह तुम्हारा
अनुभव न हो
जाए—तुम्हारा
निजी, प्रामाणिक
अनुभव न हो
जाए।
तो
ये तीन बातें
सदा ध्यान में
रहें। पहली
बात कि सदा
स्मरण रखो कि
मेरा घर जल
रहा है। दूसरी
बात कि शैतान
की मत सुनो।
वह हमेशा
तुम्हें
कहेगा कि
जल्दी क्या
है! और तीसरी
बात स्मरण रहे
कि परिचय बोध
नहीं है, समझ
नहीं है।
मैं
यहां जो कुछ
कह रहा हूं वह
तुम्हें उसका
थोड़ा परिचय
देगा। वह
जरूरी है, लेकिन
पर्याप्त
नहीं है। वह
तुम्हारी
यात्रा का
आरंभ है, अंत
नहीं है। कुछ
करो कि परिचय
परिचय ही न
रहे, स्मृति
ही न रहे, वह
तुम्हारा
अनुभव बन जाए,
तुम्हारा
जीवन बन जाए।
अब पहली
विधि:
प्रत्येक
वस्तु ज्ञान
के द्वारा ही
देखी जाती है।
ज्ञान के
द्वारा ही
आत्मा
क्षेत्र में
प्रकाशित
होती है। उस
एक को ज्ञाता
और ज्ञेय की
भांति देखो।
जब
भी तुम कुछ
जानते हो, तुम
उसे ज्ञान के
द्वारा, जानने
के द्वारा
जानते हो।
ज्ञान की
क्षमता के
द्वारा ही कोई
विषय तुम्हारे
मन में
पहुंचता है।
तुम एक फूल को
देखते हो; तुम
जानते हो कि
यह गुलाब का
फूल है। गुलाब
का फूल बाहर
है और तुम
भीतर हो।
तुमसे कोई चीज
गुलाब के फूल
तक पहुंचती है,
तुमसे कोई
चीज फूल तक
आती है।
तुम्हारे
भीतर से कोई
ऊर्जा गति
करती है, गुलाब
तक आती है, उसका
रूप, रंग
और गंध ग्रहण
करती है और
लौट कर
तुम्हें खबर
देती है कि यह
गुलाब का फूल
है। सब ज्ञान,
तुम जो भी
जानते हो, जानने
की क्षमता के
द्वारा तुम पर
प्रकट होता है।
जानना
तुम्हारी
क्षमता है; सारा ज्ञान
इसी क्षमता के
द्वारा
अर्जित किया
जाता है।
लेकिन
यह जानना दो
चीजों को
प्रकट करता है—ज्ञात
को और ज्ञाता
को। जब भी तुम
गुलाब के फूल
को जानते हो, तब
अगर तुम
ज्ञाता को, जो जानता है
उसको भूल जाते
हो, तो
तुम्हारा
ज्ञान आधा ही
है। तो गुलाब
को जानने में
तीन चीजें
घटित हुईं. ज्ञेय
यानी गुलाब, ज्ञाता यानी
तुम और दोनों
के बीच का
संबंध यानी
ज्ञान।
तो
जानने की घटना
को तीन
बिंदुओं में
बांटा जा सकता
है : ज्ञाता, ज्ञेय
और ज्ञान।
ज्ञान दो
बिंदुओं के
बीच, ज्ञाता
और ज्ञेय के
बीच सेतु की
भांति है।
सामान्यत:
तुम्हारा
ज्ञान सिर्फ
ज्ञेय को, विषय
को प्रकट करता
है; और
ज्ञाता, जानने
वाला अप्रकट
रह जाता है।
सामान्यत:
तुम्हारे
ज्ञान में एक
ही तीर होता
है; वह तीर
गुलाब की तरफ
तो जाता है, लेकिन वह
कभी तुम्हारी
तरफ नहीं जाता।
और जब तक वह
तीर तुम्हारी
तरफ भी न जाने
लगे तब तक
ज्ञान
तुम्हें
संसार के
संबंध में तो
जानने देगा, लेकिन वह
तुम्हें
स्वयं को नहीं
जानने देगा।
ध्यान
की सभी विधियां
जानने वाले को
प्रकट करने की
विधियां हैं।
जार्ज
गुरजिएफ इसी
तरह की एक
विधि का
प्रयोग करता
था। वह इसे
आत्म–स्मरण
कहता था। उसने
कहा है कि जब
तुम किसी चीज
को जान रहे हो
तो सदा जानने
वाले को भी
जानो। उसे
विषय में मत
भुला दो, जानने
वाले को भी
स्मरण रखो।
अभी
तुम मुझे सुन
रहो हो। जब
तुम मुझे सुन
रहे हो तो तुम
दो ढंगों से
सुन सकते हो।
एक कि
तुम्हारा मन
सिर्फ मुझ पर
केंद्रित हो।
तब तुम सुनने
वाले को भूल
जाते हो। तब
बोलने वाला तो
जाना जाता है, लेकिन
सुनने वाला
भुला दिया
जाता है।
गुरजिएफ कहता
था कि सुनते
हुए बोलने
वाले के साथ—साथ
सुनने वाले को
भी जानो।
तुम्हारे
ज्ञान को
द्विमुखी
होना चाहिए; वह
एक साथ दो
बिंदुओं की ओर,
ज्ञाता और
ज्ञेय दोनों
की ओर
प्रवाहित हो।
उसे एक ही
दिशा में, सिर्फ
विषय की दिशा
में नहीं बहना
चाहिए। उसे एक
साथ दो दिशाओं
में, ज्ञेय
और ज्ञाता की
तरफ प्रवाहित
होना चाहिए।
इसे ही आत्मा—स्मरण
कहते हैं। फूल
को देखते हुए
उसे भी स्मरण
रखो जो देख
रहा है।
यह
कठिन है।
क्योंकि अगर
तुम प्रयोग
करोगे, अगर
देखने वाले को
स्मरण रखने की
चेष्टा करोगे
तो तुम गुलाब
को भूल जाओगे।
तुम एक ही
दिशा में
देखने के ऐसे
आदी हो गए हो कि
साथ—साथ दूसरी
दिशा को भी
देखने में
थोड़ा समय लगेगा।
अगर तुम
ज्ञाता के
प्रति सजग
होते हो तो
ज्ञेय
विस्मृत हो
जाएगा। और अगर
तुम ज्ञेय के
प्रति सजग
होते हो तो
ज्ञाता
विस्मृत हो
जाएगा। लेकिन
थोड़े प्रयत्न
से तुम धीरे—
धीरे दोनों के
प्रति सजग
होने में
समर्थ हो जाओगे।
इसे
ही गुरजिएफ
आत्म—स्मरण
कहता है। यह
एक बहुत
प्राचीन विधि
है,
बुद्ध ने
इसका खूब
उपयोग किया है।
फिर गुरजिएफ इस
विधि को
पश्चिमी जगत
में लाया।
बुद्ध इसे
सम्यक स्मृति
कहते थे।
बुद्ध ने कहा
कि तुम्हारा
मन
सम्यकरूपेण
स्मृतिवान
नहीं है, अगर
वह एक ही
बिंदु को
जानता है। उसे
दोनों
बिंदुओं को
जानना चाहिए।
और
तब एक चमत्कार
घटित होता है।
अगर तुम ज्ञेय
और ज्ञाता
दोनों के प्रति
बोधपूर्ण हो
तो अचानक तुम
तीसरे हो जाते
हो—तुम दोनों
से अलग तीसरे
हो जाते हो।
ज्ञेय और
ज्ञाता दोनों
को जानने के
प्रयत्न में
तुम तीसरे हो
जाते हो, साक्षी
हो जाते हो। तत्क्षण
एक तीसरी
संभावना
प्रकट होती है—साक्षी
आत्मा का जन्म
होता है।
क्योंकि तुम
साक्षी हुए
बिना दोनों को
कैसे जान सकते
हो? अगर
तुम ज्ञाता हो
तो तुम एक
बिंदु पर
स्थिर हो जाते
हो, उससे
बंध जाते हो।
आत्म—स्मरण
में तुम
ज्ञाता के
स्थिर बिंदु
से अलग हो
जाते हो। तब
ज्ञाता
तुम्हारा मन
है और ज्ञेय
संसार है और
तुम तीसरा
बिंदु हो जाते
हो—चैतन्य, साक्षी, आत्मा।
इस
तीसरे बिंदु
का अतिक्रमण
नहीं हो सकता
है। और जिसका
अतिक्रमण
नहीं हो सकता, जिसके
पार नहीं जाया
जा सकता, वह
परम है। जिसका
अतिक्रमण हो
सकता है वह
महत्वपूर्ण
नहीं है; क्योंकि
वह तुम्हारा
स्वभाव नहीं
है, तुम
उसका
अतिक्रमण कर
सकते हो।
मैं
इस एक उदाहरण
से समझाने की
कोशिश करूंगा।
रात में तुम
सोते हो और
सपना देखते हो; सुबह
तुम जागते हो
और सपना खो
जाता है। जब
तुम जागे हुए हो,
जब तुम सपना
नहीं देख रहे
हो, तब एक
भिन्न ही जगत
तुम्हारे
सामने होता है।
तुम रास्तों
पर चलते हो; तुम किसी
कारखाने या
कार्यालय में
काम करते हो।
फिर तुम अपने
घर लौट आते हो
और रात में सो
जाते हो। और
वह संसार जिसे
तुमने जागते
हुए जाना था, विदा हो
जाता है। तब
तुम्हें
स्मरण नहीं
रहता कि मैं
कौन हूं। तब
तुम नहीं
जानते कि मैं
काला हूं या
गोरा, गरीब
हूं या अमीर, बुद्धिमान
हूं या बेवकूफ,
तुम कुछ भी
नहीं जानते हो।
तुम नहीं
जानते हो कि
मैं जवान हूं
या का। तुम
नहीं जानते हो
कि मैं स्त्री
हूं या पुरुष।
जाग्रत चेतना
से जो कुछ
संबंधित था वह
सब विलीन हो
जाता है और
तुम फिर स्वप्न
के संसार में
प्रवेश कर
जाते हो। तुम
उस जगत को भूल
जाते हो जो
तुमने जागते
में जाना था; वह बिलकुल
खो जाता है।
और सुबह फिर
सपने का संसार
विदा हो जाता
है, तुम
यथार्थ की
दुनिया में
लौट आते हो।
इनमें
से कौन सच है? क्योंकि
जब तुम सपना
देख रहे हो तब
वह यथार्थ संसार,
जिसे तुम
जागते हुए
जानते हो, खो
जाता है। तुम
तुलना भी नहीं
कर सकते; क्योंकि
जब तुम जागे
हुए हो तो
सपने का संसार
नहीं रहता है।
इसलिए तुलना
असंभव है। कौन
सच है? तुम स्वप्न
जगत को झूठा
कैसे कहते हो?
कसौटी क्या
है?
अगर
तुम यह कहते
हो कि क्योंकि
जब मैं जागता
हूं तो स्वप्न
जगत विलीन हो
जाता है, तो यह
दलील कसौटी
नहीं बन सकती,
क्योंकि जब
तुम सपना
देखते हो तो
तुम्हारा जाग्रत
जगत वैसे ही
विलीन हो जाता
है। और सच तो
यह है कि अगर
तुम इसी को
कसौटी मानो तो
स्वप्न जगत
ज्यादा सच
मालूम पड़ता है।
क्योंकि
जागने पर तुम
स्वप्न को याद
कर सकते हो, लेकिन जब
तुम स्वप्न
देख रहे हो तब
जाग्रत चेतना
को और उसके
चारों ओर के
जगत को बिलकुल
भूल जाते हो।
फिर कौन
ज्यादा सच है?
कौन ज्यादा
गहरा है? स्वप्न
का संसार उस
संसार को
बिलकुल पोंछ
देता है जिसे
तुम असली
संसार कहते हो।
और तुम्हारा
असली संसार
स्वप्न के
संसार को पूरी
तरह से नहीं
पोंछ पाता है।
तब कसौटी क्या
है? कैसे
तय किया जाए? कैसे तुलना
की जाए?
तंत्र
कहता है कि
दोनों झूठ हैं।
तब सत्य क्या
है?
तंत्र कहता
है कि सत्य वह
है जो स्वप्न
जगत को जानता
है और जो
जाग्रत जगत को
भी जानता है।
वही सत्य है; क्योंकि
उसका कभी अतिक्रमण
नहीं हो सकता।
वह कभी हटाया
नहीं जा सकता।
चाहे तुम सपना
देख रहे हो या
जागे हुए हो, वह है, वह
अमिट है।
तंत्र कहता है
कि वह जो
स्वप्न को
जानता है और स्वप्न
के समाप्त
होने को जानता
है, जो
जाग्रत जगत को
जानता है और
जो जानता है
कि अब जाग्रत
जगत खो गया है,
वह सत्य है—क्योंकि
ऐसा कोई बिंदु
नहीं है जहां
वह नहीं है, वह सदा है।
जिसे किसी भी
अनुभव से अलग
नहीं किया जा
सकता, वही
सत्य है।
वह
जिसका
अतिक्रमण
नहीं हो सकता, जिसके
पार तुम नहीं
जा सकते, वह
तुम हो, वह
तुम्हारी
आत्मा है। और
अगर तुम उसके
पार जा सकते
हो तो वह
तुम्हारी
आत्मा नहीं है।
गुरजिएफ
की यह विधि
जिसे वह आत्म—स्मरण
कहता है, या
बुद्ध की यह
विधि जिसे वे
सम्यक स्मृति
कहते हैं, या
तंत्र की यह
विधि तुम्हें
एक ही जगह
पहुंचा देती
है। वह
तुम्हें भीतर
उस बिंदु पर
पहुंचा देती
है जो न ज्ञेय
है और न
ज्ञाता है, बल्कि जो
साक्षी आत्मा
है, जो
ज्ञेय और
ज्ञाता दोनों
को जानती है।
यह साक्षी परम
है; तुम
उसके पार नहीं
जा सकते।
क्योंकि अब
तुम जो भी
करोगे वह
साक्षी— भाव
ही होगा। तुम
साक्षी— भाव
के आगे नहीं
जा सकते हो।
तो साक्षी—
भाव चैतन्य का
परम आधार है, आत्यंतिक
तत्व है।
यह
सूत्र तुम पर
साक्षी को
प्रकट कर देगा।
'प्रत्येक
वस्तु ज्ञान
के द्वारा ही
देखी जाती है।
ज्ञान के
द्वारा ही
आत्मा
क्षेत्र में
प्रकाशित होती
है। उस एक को
ज्ञाता और
ज्ञय की भांति
देखो।‘
यदि
तुम अपने भीतर
उस बिंदु को
देख सके, जो
ज्ञाता और
ज्ञेय दोनों
है, तो तुम
आब्जेक्ट और
सब्जेक्ट
दोनों के पार
हो गए। तब तुम
पदार्थ और मन
दोनों का
अतिक्रमण कर
गए; तब तुम
बाह्य और आंतरिक
दोनों के पार
हो गए। तब तुम
उस बिंदु पर आ
गए जहां
ज्ञाता और
ज्ञेय एक हैं;
उनमें कोई
विभाजन नहीं
है। मन के साथ
विभाजन है; साक्षी के
साथ विभाजन
समाप्त हो
जाता है।
साक्षी के साथ
तुम यह नहीं
कह सकते कि
कौन ज्ञेय है
और कौन ज्ञाता
है; वह
दोनों है।
लेकिन
इस साक्षी का
अनुभव होना
चाहिए; अन्यथा
वह दार्शनिक
ऊहापोह बन कर
रह जाता है।
इसलिए इसे
प्रयोग करो।
तुम गुलाब के
फूल के पास
बैठे हो, उसे
देखो। पहला
काम ध्यान को
एक जगह
केंद्रित
करना है, गुलाब
के प्रति पूरे
ध्यान को लगा
देना है—जैसे
कि सारी
दुनिया विलीन
हो गई हो और
सिर्फ गुलाब
बचा हो।
तुम्हारी
चेतना गुलाब
के अस्तित्व
के प्रति पूरी
तरह उगख हो।
और
अगर ध्यान
समग्र हो तो
संसार विलीन
हो जाता है, क्योंकि
ध्यान जितना
ही एकाग्र
होगा, केंद्रित
होगा, उतना
ही गुलाब के
बाहर की
दुनिया खो
जाएगी। सारा
संसार विलीन
हो जाता है, केवल गुलाब
रहता है।
गुलाब ही सारा
संसार हो जाता
है।
यह
पहला कदम है।
गुलाब पर
एकाग्र होना
पहला कदम है।
अगर तुम गुलाब
पर एकाग्र
नहीं हो सकते
तो तुम ज्ञाता
की तरफ गति
नहीं कर सकते; क्योंकि
तब तुम्हारा
मन सदा भटक—
भटक जाता है।
इसलिए ध्यान
की तरफ जाने
के लिए
एकाग्रता पहला
कदम है। तब
सिर्फ गुलाब
बचता है और
सारा संसार
विलीन हो जाता
है। अब तुम
भीतर की तरफ
गति कर सकते
हो; अब
गुलाब वह
बिंदु है जहां
से तुम गति कर
सकते हो। अब
गुलाब को देखो
और साथ ही
स्वयं के
प्रति, ज्ञाता
के प्रति
जागरूक होओ।
आरंभ
में तुम चूक—चूक
जाओगे। अगर
तुम ज्ञाता की
ओर गति करोगे
तो गुलाब तुम्हारी
चेतना से ओझल
हो जाएगा। तब
गुलाब धुंधला
जाएगा, खो
जाएगा। जब तुम
फिर गुलाब पर
आओगे तो स्वयं
को भूल जाओगे।
यह लुकाछिपी
का खेल कुछ
समय तक चलता
रहेगा। लेकिन
अगर तुम
प्रयत्न करते
ही रहे, करते
ही रहे, तो
देर—अबेर एक
क्षण आएगा जब
तुम अपने को
दोनों के बीच
में पाओगे।
ज्ञाता होगा,
मन होगा, गुलाब होगा
और तुम ठीक
मध्य में होगे,
दोनों को
देख रहे होंगे।
वह मध्य बिंदु,
वह संतुलन
का बिंदु ही
साक्षी है।
और
एक बार तुम यह
जान गए तो तुम
दोनों हो
जाओगे। तब
गुलाब और मन, ज्ञेय
और ज्ञाता, तुम्हारे दो
पंख हो जाएंगे।
तब आब्जेक्ट
और सब्जेक्ट
दो पंख हैं और
तुम दोनों के
केंद्र हो। तब
वे तुम्हारे
ही विस्तार
हैं। तब संसार
और भगवत्ता
दोनों
तुम्हारे ही
विस्तार हैं।
तुम अपने
अस्तित्व के
केंद्र पर
पहुंच गए। और
यह केंद्र
साक्षी मात्र
है।
'उस एक को
ज्ञाता और
ज्ञेय की
भांति देखो।’
किसी
चीज पर
एकाग्रता
शुरू करो। और
जब एकाग्रता
समग्र हो तो
भीतर की ओर
मुड़ो, स्वयं
के प्रति
जागरूक होओ।
और तब संतुलन
की चेष्टा करो।
इसमें समय
लगेगा; महीनों
लग सकते हैं, वर्षों भी
लग सकते हैं।
यह इस पर
निर्भर है कि
तुम्हारा
प्रयत्न कितना
तीव्र है;
क्योंकि यह
बहुत सूक्ष्म
संतुलन है।
लेकिन यह
संतुलन आता है।
और जब यह आता है
तो तुम
अस्तित्व के
केंद्र पर पहुंच
गए। उस केंद्र
पर तुम
आत्मस्थ हो, अचल हो, शात
हो, आनंदित
हो, समाधिस्थ
हो। वहां
द्वैत नहीं रह
जाता है। इसे
ही हिंदुओं ने
समाधि कहा है।
इसे ही जीसस
ने प्रभु का
राज्य कहा है।
इसे
सिर्फ
शाब्दिक रूप
से,
सिर्फ
शब्दों के तल
पर समझना बहुत
काम का नहीं
है। लेकिन अगर
तुम प्रयोग
करते हो तो
तुम्हें आरंभ
से ही अनुभव
होने लगेगा कि
कुछ घटित हो
रहा है। जब
तुम गुलाब पर
एकाग्रता
करोगे तो सारा
संसार विलीन
हो जाएगा। यह
चमत्कार है कि
सारा संसार
विलीन हो जाता
है। तब
तुम्हें बोध
होता है कि
बुनियादी चीज
मेरा ध्यान है।
तुम जहां भी
अपनी दृष्टि
को ले जाते हो
वहीं एक संसार
निर्मित हो
जाता है, और
जहां से तुम
अपनी दृष्टि
हटा लेते हो
वह संसार खो
जाता है। तो
तुम अपनी
दृष्टि से, अपने ध्यान
से संसार की
रचना कर सकते
हो।
इसे
इस भांति देखो।
तुम यहां बैठे
हो। अगर तुम
किसी व्यक्ति
के प्रेम में
हो तो अचानक
इस हॉल में एक
ही व्यक्ति रह
जाता है, शेष
सब कुछ खो
जाता है—मानो
यहां और कुछ
नहीं है। क्या
हो जाता है? क्यों
तुम्हारे
प्रेम में
होने पर एक ही
व्यक्ति रह
जाता है? सारा
संसार बिलकुल
खो जाता है, जैसे कि धूप—छाया
का खेल हो। और
सिर्फ एक
व्यक्ति
यथार्थ है, सच है।
क्योंकि
तुम्हारा मन
एक व्यक्ति पर
केंद्रित है,
एकाग्र है,
तुम्हारा
मन एक व्यक्ति
पर पूरी तरह
तल्लीन है।
शेष सब कुछ
छायावत हो
जाता है, धूप—छाया
का खेल हो
जाता है।
तुम्हारे लिए
वह यथार्थ न
रहा।
जब
भी तुम एकाग्र
होते हो, यह
एकाग्रता तुम्हारे
अस्तित्व के
पूरे ढंग—ढांचे
को बदल देती
है, तुम्हारे
चित्त की सारी
रूपरेखा बदल
देती है। इसका
प्रयोग करो—किसी
भी चीज पर
प्रयोग करो।
बुद्ध की किसी
प्रतिमा के
साथ प्रयोग
करो, या
किसी फूल या
वृक्ष या किसी
भी चीज के साथ
प्रयोग करो।
या अपनी
प्रेमिका या अपने
मित्र के
चेहरे पर
प्रयोग करो—चेहरे
को सिर्फ देखो।
यह
सरल होगा, क्योंकि
अगर तुम किसी
चेहरे को
प्रेम करते हो
तो उस पर
एकाग्र होना
सरल होगा। और
सच बात तो यह
है कि जिन
लोगों ने
बुद्ध या जीसस
या कृष्ण पर
एकाग्र होने
की कोशिश की, वे प्रेमी
थे; वे
बुद्ध को प्रेम
करते थे।
सारिपुत्त, या
मौद्गल्यायन
या अन्य
शिष्यों के
लिए बुद्ध के
चेहरे पर
ध्यान करना
सरल था। जैसे
ही वे बुद्ध
के चेहरे को
देखते थे, वे
सरलता से उसकी
तरफ प्रवाहित
होने लगते थे।
उन्हें उनसे
प्रेम था; वे
उनसे मोहित थे।
तो
कोई चेहरा खोज
लो—और जिस
चेहरे से भी
तुम्हें
प्रेम हो वह
काम देगा—बस आंखों
में झांको, चेहरे
पर एकाग्र होओ।
और अचानक तुम
पाओगे कि सारा
संसार विलीन
हो गया है और
एक नया ही
आयाम खुल गया
है। जब
तुम्हारा
चित्त किसी एक
चीज पर एकाग्र
होता है तब वह
व्यक्ति या वह
चीज तुम्हारे
लिए सारा
संसार बन जाती
है।
मेरे
कहने का मतलब
यह है कि जब
तुम्हारा
ध्यान किसी
चीज पर समग्र
होता है, तब वह
चीज ही सारा
संसार हो जाती
है। तुम अपने
ध्यान के
द्वारा अपना
संसार निर्मित
करते हो। तुम
अपना संसार
अपने ध्यान से
बनाते हो। और
जब तुम पूरी
तरह तल्लीन हो,
तुम्हारी
चेतना जैसे
नदी की धार की
तरह विषय की
तरफ बह रही है,
तो अचानक
तुम उस मूल
स्रोत के
प्रति बोधपूर्ण
हो जाओ जहां
से ध्यान
प्रवाहित हो
रहा है। नदी
बह रही है;
तुम उसके
उद्गम के प्रति,
मूल स्रोत
के प्रति
होशपूर्ण हो
जाओ।
आरंभ
में तुम बार—बार
होश खो दोगे; तुम
यहां से वहां
डोलते रहोगे।
अगर तुम उद्गम
की तरफ ध्यान
दोगे तो तुम
नदी को भूल
जाओगे और उस
विषय को, सागर
को भूल जाओगे
जिसकी ओर नदी
प्रवाहित हो रही
है। यह फिर
बदलेगा—यदि
तुम लक्ष्य पर
ध्यान दोगे तो
मूल स्रोत भूल
जाएगा। यह
स्वाभाविक है,
क्योंकि मन
का
बंधाबंधाया
ढंग है—वह ऑब्जेक्ट
को देखता है
या सब्जेक्ट
को।
यही
कारण है कि
बहुत से लोग
एकांत में चले
जाते हैं। वे
संसार को छोड़
ही देते हैं।
संसार को
छोड़ने का
बुनियादी
कारण है कि वे
विषय को छोड़
रहे हैं, ताकि
वे अपने आप पर
एकाग्र हो
सकें। यह सरल
है। अगर तुम
संसार छोड़ दो
और आंखें बंद
कर लो, इंद्रियों
को बंद कर लो, तो तुम
आसानी से
स्वयं के
प्रति
बोधपूर्ण हो सकते
हो।
लेकिन
वह बोध भी
झूठा है; क्योंकि
तुमने द्वैत
का एक बिंदु
ही चुना है।
यह उसी रोग की
दूसरी अति है।
पहले तुम विषय
के प्रति सजग
थे, ज्ञेय
के प्रति सजग
थे और तुम्हें
स्वयं का, ज्ञाता
का बोध नहीं
था। और अब तुम
ज्ञाता से
बंधे हो और
ज्ञेय को भूल
गए हो। लेकिन
तुम द्वैत में
ही हो। और फिर
यह पुराना ही
मन है जो नए
रूप में प्रकट
हो रहा है।
कुछ भी नहीं
बदला है।
यही
कारण है कि
मैं इस बात पर
जोर देता हूं
कि आब्जेक्ट्स
के संसार को
नहीं छोड़ना है।
आब्जेक्ट्स
के जगत से मत
भागो; बल्कि
आब्जेक्ट और
सब्जेक्ट
दोनों के
प्रति साथ—साथ
बोधपूर्ण
होने की कोशिश
करो, बाह्य
और आंतरिक
दोनों के
प्रति साथ—साथ
सजग बनो। अगर
दोनों मौजूद
हैं तो ही तुम
दोनों के बीच
संतुलित हो
सकते हो। अगर
एक ही है तो
तुम उससे ग्रस्त
हो जाओगे।
जो
लोग हिमालय
चले जाते हैं
और अपने को
बंद कर लेते
हैं,
वे
तुम्हारे ही
जैसे लोग हैं,
सिर्फ
शीर्षासन में
खड़े हैं। तुम
आब्जेक्ट से
बंधे हो; वे
सब्जेक्ट से
बंध गए हैं।
तुम बाहर अटके
हो; वे
भीतर अटक गए
हैं। न तुम
मुक्त हो, न
वे मुक्त हैं।
क्योंकि एक के
साथ तुम मुक्त
नहीं हो सकते;
एक के साथ
तुम
तादात्म्य कर
लेते हो।
मुक्त
तो तुम तभी हो
सकते हो जब
तुम दोनों के
प्रति सजग
होते हो, दोनों
को जानते हो।
तब तुम तीसरे
हो जाते हो।
और यह तीसरा
ही मुक्ति का
बिंदु है। एक
के साथ तुम
तादात्म्य कर
लेते हो। दो
के साथ गति
संभव है, बदलाहट
संभव है, संतुलन
संभव है—और
तुम
मध्यबिंदु पर,
ठीक
मध्यबिंदु पर
पहुंच सकते हो।
बुद्ध
कहते थे कि
मेरा मार्ग
मज्झिम
निकाय है, मध्य
मार्ग है। यह
बात ठीक से
नहीं समझी गई
कि क्यों वे
इसे मध्य
मार्ग कहने पर
इतना जोर देते
थे। कारण यह
है : उनकी पूरी
प्रक्रिया
सजगता की है, सम्यक
स्मृति की है—यह
मध्य मार्ग है।
बुद्ध कहते
हैं : 'इस
संसार को मत
छोड़ो परलोक से
मत बंधो, मध्य
में रहो। एक
अति को छोड्कर
दूसरी अति पर
मत सरक जाओ; ठीक मध्य
में रहो।
क्योंकि मध्य
में लोक और
परलोक दोनों
नहीं हैं। ठीक
मध्य में तुम
मुक्त हो। ठीक
मध्य में
द्वैत नहीं है;
तुम अद्वैत
को उपलब्ध हो
गए और द्वैत तुम्हारा
विस्तार भर
है—जैसे दो पंख
हों।’
बुद्ध
का मज्झिम
निकाय इसी
विधि पर
आधारित है। यह
बहुत सुंदर
विधि है। अनेक
कारणों से यह
सुंदर है। एक
कि यह बहुत
वैज्ञानिक है; क्योंकि
तुम केवल दो
के बीच संतुलन
को उपलब्ध हो
सकते हो। अगर
एक ही बिंदु
हो तो असंतुलन
अनिवार्यत: रहेगा।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं कि
जो संसारी हैं
वे असंतुलित
हैं और जो
त्यागी हैं वे
भी दूसरी अति पर
असंतुलित हैं।
संतुलित आदमी
वह है जो न इस
अति पर है और न
उस अति पर, जो
ठीक मध्य में
है। तुम उसे
संसारी नहीं
कह सकते, तुम
उसे गैर—संसारी
भी नहीं कह
सकते। वह गति
करने के लिए
स्वतंत्र है,
वह किसी से
भी आसक्त नहीं
है, बंधा
नहीं है। वह
मध्य बिंदु पर,
स्वर्णिम
मध्य पर पहुंच
गया है।
दूसरी
बात : दूसरी
अति पर चला
जाना बहुत
आसान है—बहुत
ही आसान। अगर
तुम बहुत भोजन
लेते हो तो
तुम उपवास
आसानी से कर
सकते हो; लेकिन
सम्यक भोजन
लेना कठिन है।
अगर तुम बहुत
बातचीत करते
हो तो तुम मौन
में आसानी से
उतर सकते हो, लेकिन तुम
मितभाषी नहीं
हो सकते। अगर
तुम बहुत खाते
हो तो बिलकुल
न खाना बहुत आसान
है—यह दूसरी
अति है। लेकिन
सम्यक भोजन
लेना, मध्य
बिंदु पर रुक
जाना बहुत
मुश्किल है।
किसी को प्रेम
करना सरल है, किसी को
घृणा करना भी
सरल है, लेकिन
उदासीन रहना
बहुत मुश्किल
है। तुम एक
अति से दूसरी
अति पर जा
सकते हो, लेकिन
मध्य में
ठहरना बहुत
कठिन है।
क्यों?
क्योंकि
मध्य में
तुम्हें अपना
मन गंवाना पड़ेगा।
तुम्हारा मन
अतियों में
जीता है। मन
का मतलब अति
है। मन सदा
अतियों में
डोलता रहता है।
तुम या तो
किसी के पक्ष
में होते हो
या विपक्ष में, तुम
तटस्थ नहीं हो
सकते। मन तटस्थता
में नहीं हो
सकता है, वह
यहां हो सकता
है या वहा हो
सकता है।
क्योंकि मन को
विपरीत की
जरूरत है; उसे
किसी के विरोध
में होना
जरूरी है। अगर
वह किसी के
विरोध में न
हो तो वह
तिरोहित हो
जाता है। तब
उसका कोई
प्रयोजन नहीं
रह जाता है, तब वह काम ही
नहीं कर सकता।
इसे
प्रयोग करो।
किसी भी बात
में तटस्थ हो
जाओ,
उदासीन हो
जाओ, और
तुम पाओगे कि
अचानक मन को
कोई काम न रहा।
अगर तुम पक्ष
में हो तो तुम
सोच—विचार कर
सकते हो। अगर
तुम विपक्ष
में हो तो भी
तुम सोच—विचार
कर सकते हो।
लेकिन अगर तुम
न पक्ष में हो
न विपक्ष में
तो सोच—विचार
के लिए क्या
रह जाता है!
बुद्ध
कहते हैं कि
उपेक्षा मज्झिम
निकाय का आधार
है। उपेक्षा—अतियों
की उपेक्षा
करो। बस इतना
ही करो कि
अतियों के
प्रति उदासीन
रहो,
और संतुलन
घटित हो जाएगा।
यह
संतुलन
तुम्हें
अनुभव का एक
नया आयाम देगा, जहां
तुम ज्ञाता और
ज्ञेय दोनों
हो, लोक और
परलोक, यह
और वह, शरीर
और मन दोनों
हो; जहां
तुम दोनों हो
और साथ ही साथ
दोनों नहीं हो,
दोनों के
पार हो। एक
त्रिकोण
निर्मित हो
गया।
तुमने
देखा होगा कि
अनेक
रहस्यवादी, गुह्य
संप्रदायों
ने त्रिकोण को
अपना प्रतीक
चुना है।
त्रिकोण
गुह्य—विद्या
का एक अति
प्राचीन
प्रतीक रहा, उसका यही
कारण है।
त्रिकोण में
तीन कोण हैं।
सामान्यत:
तुम्हारे दो
कोण ही हैं, तीसरा कोण
गायब है; तीसरा
कोण अभी नहीं
है, वह अभी
विकसित नहीं
हुआ है। तीसरा
कोण दोनों के
पार है। दोनों
कोण इस तीसरे
कोण के अंग
हैं और फिर भी
यह कोण उनके पार
है और दोनों
से ऊंचा है।
होगा।
तीसरा कोण
धीरे— धीरे
ऊपर उठेगा। और
जब वह अनुभव
में आता है तो
तुम दुख में
नहीं रह सकते।
एक बार तुम
साक्षी हुए कि
दुख नहीं रह
सकता है। दुख
का अर्थ है
किसी चीज के
साथ
तादात्म्य बना
लेना।
लेकिन
एक सूक्ष्म
बात याद रखने
जैसी है—तब
तुम आनंद के
साथ भी
तादात्म्य
नहीं जोड़ोगे।
यही कारण है
कि बुद्ध कहते
हैं. 'मैं इतना ही
कह सकता हूं
कि दुख नहीं
होगा, समाधि
में दुख नहीं
होगा; मैं
यह नहीं कह
सकता कि आनंद
होगा।’ बुद्ध
कहते हैं: 'मैं
यह बात नहीं
कह सकता; मैं
यही कह सकता
हूं कि दुख
नहीं होगा।’
और
बुद्ध ठीक
कहते हैं।
क्योंकि आनंद
का अर्थ है कि
किसी भी तरह
का तादात्म्य
नहीं रहां, आनंद
के साथ भी
तादात्मय
नहीं रहा। यह
बहुत बारीक
बात है, सूक्ष्म
बात है। अगर
तुम्हें खयाल
है कि मैं
आनंदित हूं तो
देर—अबेर तुम
फिर दुखी होने
की तैयारी में
हो। तुम अब भी
किसी मनोदशा
से तादात्म्य
कर रहे हो।
तुम
सुखी अनुभव
करते हो; अब
तुम सुख के
साथ
तादात्म्य कर
रहे हो। और
जिस क्षण
तुम्हारा सुख
से तादात्म्य
होता है उसी
क्षण दुख शुरू
हो जाता है।
अब तुम सुख से
चिपकोगे, अब
तुम उसके
विपरीत से, दुख से
भयभीत होगे और
चाहोगे कि सुख
सदा तुम्हारे
साथ रहे। अब
तुमने वे सब
उपाय कर लिए
जो दुख के
होने के लिए
जरूरी हैं। और
फिर दुख आएगा।
और जब तुम सुख
से तादात्म्य
करते हो तो
तुम दुख से भी
तादात्म्य कर
लोगे।
तादात्म्य ही
रोग है।
इस
तीसरे बिंदु
पर तुम किसी
के साथ भी
तादात्म्य
नहीं करते हो।
जो भी आता—जाता
है,
बस आता—जाता
है; तुम
मात्र साक्षी
रहते हो, देखते
रहते हो—तटस्थ,
उदासीन और
तादात्म्य रहित।
सुबह आती है, सूरज उगता
है और तुम उसे
देखते हो, तुम
उसके साक्षी
रहते हो। तुम
यह नहीं कहते
कि मैं सुबह
हूं। फिर जब
दोपहर आती है
तो तुम यह
नहीं कहते कि
मैं दोपहर हो
गया हूं। और
जब सूरज डूबता
है, अंधेरा
उतरता है और
रात आती है, तब तुम यह
नहीं कहते कि
मैं अंधेरा
हूं कि मैं रात
हूं। तुम उनके
साक्षी रहते
हो। तुम कहते
हो कि सुबह थी,
फिर दोपहर
हुई, फिर
शाम हुई, अब
रात है; और
फिर सुबह होगी
और यह चक्र
चलता रहेगा; और मैं केवल
द्रष्टा हूं
देखने वाला
हूं मैं द्रेखता
रहता हूं।
और
अगर यही बात
तुम्हारी
मनोदशाओं के
साथ लागू हो
जाए—सुबह की
मनोदशा, दोपहर
की मनोदशा, शाम की, रात
की मनोदशा, और उनके
अपने वर्तुल
हैं, वे
घूमते रहते
हैं —तो तुम
साक्षी हो
जाते हो। तुम
कहते हो. अब
सुख आया है—ठीक
सुबह की भांति,
और अब रात
आएगी—दुख की
रात। मेरे
चारों ओर
मनःस्थितिया
बदलती रहेंगी
और मैं स्वयं
में केंद्रित,
स्थिर बना
रहूंगा। मैं
किसी भी
मनःस्थिति से
आसक्त नहीं
होऊंगा; मैं
किसी भी
मनःस्थिति से
चिपकूगा नहीं,
वक्त नहीं।
मैं किसी चीज
की आशा नहीं
करूंगा और न
मैं निराशा ही
अनुभव करूंगा।
मैं केवल
साक्षी
रहूंगा; जो
भी होगा मैं
उसको देखूंगा।
जब वह।’' आएगा,
मैं उसका
आना देखूंगा;
जब वह जाएगा,
मैं उसका
जाना देखूंगा।
बुद्ध
इसका बहुत
प्रयोग करते
हैं। वे बार—बार
कहते हैं कि
जब कोई विचार उठे
तो उसे देखो।
दुख का विचार
उठे,
सुख का
विचार उठे, उसे देखते
रहो। जब वह
शिखर पर आए तब
उसे देखो, उसके
साक्षी रहो।
और जब वह
उतरने लगे तब
भी उसके
द्रष्टा बने
रहो। विचार अब
पैदा हो रहा
है, वह अब
है, और अब
वह विदा हो
रहा है—सभी
अवस्थाओं में
तुम उसे देखते
रहो, उसके
साक्षी बने
रहो।
यह
तीसरा बिंदु
तुम्हें
साक्षी बना
देता है। और
साक्षी होना
चैतन्य की परम
संभावना है।
दूसरी
विधि:
हे प्रिये
इस क्षण में
मन ज्ञान
प्राण रूप सब को
समाविष्ट
होने दो।
यह
विधि थोड़ी
कठिन है।
लेकिन अगर तुम
इसे प्रयोग कर
सको तो यह
विधि बहुत
अदभुत और
सुंदर है।
ध्यान में
बैठो तो कोई
विभाजन मत करो; ध्यान
में बैठे हुए
सब को—तुम्ह’रे
शरीर, तुम्हारे
मन, तुम्हारे
प्राण, तुम्हारे
विचार, तुम्हारे
ज्ञान—सब को
समाविष्ट कर
लो। सब को
समेट लो, सब
को सम्मिलित
कर लो। कोई
विभाजन मत करो,
उन्हें
खंडों में मत
बांटो।
साधारणत:
हम खंडों में
बांटते रहते
हैं,
तोड़ते रहते
हैं। हम कहते
हैं. 'यह
शरीर मैं नहीं
हूं।’ ऐसी
विधियां भी
हैं जो इसका
प्रयोग करती
हैं। लेकिन यह
विधि सर्वथा
भिन्न है, बल्कि
ठीक विपरीत है।
तो कोई विभाजन
मत करो। मत
कहो कि मैं
शरीर नहीं हूं।
मत कहो कि मैं
श्वास नहीं
हूं। मत कहो
कि मैं मन
नहीं हूं। कहो
कि मैं सब हूं
और सब हो जाओ।
अपने भीतर कोई
विभाजन, कोई
बंटाव मत
निर्मित करो।
यह एक भावदशा
है। आंखें बंद
कर लो और
तुम्हारे
भीतर जो भी है
सब को सम्मिलित
कर लो। अपने
को कहीं एक
जगह केंद्रित
मत करो—अकेंद्रित
रहो।
श्वास
आती है और
जाती है।
विचार आता है
और चला जाता
है। शरीर का
रूप बदलता
रहता है। इस
पर तुमने कभी
ध्यान नहीं
दिया है। अगर
तुम आंखें बंद
करके बैठो तो
तुम्हें कभी
लगेगा कि मेरा
शरीर बहुत बड़ा
है और कभी
लगेगा कि मेरा
शरीर बिलकुल
छोटा है। कभी
शरीर बहुत
भारी मालूम
पड़ता है और
कभी इतना हलका
कि तुम्हें
लगेगा कि मैं
उड़ सकता हूं।
इस रूप के
घटने—बढ़ने को
तुम अनुभव कर
सकते हो। आंखों
को बंद कर लो
और बैठ जाओ।
और तुम अनुभव
करोगे कि कभी
शरीर बहुत बड़ा
है,
इतना बडा कि
सारा कमरा भर
जाए और कभी
इतना छोटा लगेगा
जैसे कि अणु
हो। यह रूप
क्यों बदलता
है?
जैसे
—जैसे
तुम्हारा
ध्यान बदलता
है वैसे—वैसे
तुम्हारे
शरीर का रूप
भी बदलता है।
अगर तुम्हारा
ध्यान
सर्वग्राही
है तो रूप बहुत
बड़ा हो जाएगा।
और अगर तुम
तोड़ते हो करते
हो,
विभाजन
करते हो, कहते
हो कि मैं यह
नहीं, यह
नहीं, तो
रूप बहुत छोटा,
बहुत
सूक्ष्म और
आणविक हो जाता
है।
यह
सूत्र कहता
है. 'हे प्रिये, इस क्षण में
मन, ज्ञान,
रूप, सब
को समाविष्ट
होने दो।’ अपने
अस्तित्व में
सब को
सम्मिलित करो,
किसी को भी
अलग मत करो, बाहर मत करो।
मत कहो कि मैं
यह नहीं हूं
कहो कि मैं यह
हूं और सब को
सम्मिलित कर
लो। अगर तुम
इतना ही कर
सको तो
तुम्हें
बिलकुल नए अनुभव,
अदभुत
अनुभव घटित
होंगे।
तुम्हें अनुभव
होगा कि कोई
केंद्र नहीं
है, मेरा
कोई केंद्र
नहीं है।
और
केंद्र के
जाते ही
अहंभाव नहीं
रहता, अहंकार नहीं
रहता। केंद्र
के जाते ही
केवल चैतन्य
रहता है—आकाश
जैसा चैतन्य
जो सब को घेरे
हुए है। और जब
यह प्रतीति
बढ़ती है तो
तुममें न
सिर्फ
तुम्हारी
श्वास समाहित
होगी, न
केवल
तुम्हारा रूप
समाहित होगा,
बल्कि अंतत:
तुम में सारा
ब्रह्मांड
समाहित हो
जाएगा।
स्वामी
रामतीर्थ ने
अपनी साधना
में इस विधि
का प्रयोग किया
था। और एक
क्षण आया जब
उन्होंने
कहना शुरू कर
दिया कि सारा
जगत मुझमें है
और ग्रह—नक्षत्र
मेरे भीतर घूम
रहे हैं। कोई
उनसे बात कर
रहा था और
उसने कहा कि
यहां हिमालय
में सब कुछ
कितना सुंदर
है! रामतीर्थ
हिमालय में थे
और उस व्यक्ति
ने उनसे कहा. 'यह
हिमालय कितना
सुंदर है!' और
कहते हैं कि
रामतीर्थ ने
उससे कहा 'हिमालय?
हिमालय
मेरे भीतर है।’
उस
आदमी ने सोचा
होगा कि
रामतीर्थ
पागल हैं।
हिमालय कैसे
उनमें हो सकता
है?
लेकिन यदि
तुम इस विधि
का प्रयोग करो
तो तुम यह
अनुभव कर सकते
हो कि हिमालय
तुममें है।
मैं तुम्हें
थोड़ा स्पष्ट
करूं कि यह
कैसे संभव है।
सच
तो यह है कि जब
तुम मुझे
देखते हो तो
उसे नहीं
देखते जो
कुर्सी पर
बैठा हुआ है; तुम
दरअसल मेरी
तस्वीर को
देखते हो जो
तुम्हारे
भीतर है, जो
तुम्हारे मन
में बनती है।
तुम इस कुर्सी
में बैठे हुए
मुझको कैसे
जान सकते हो? तुम्हारी आंखें
केवल मेरी
तस्वीर ले
सकती हैं।
तस्वीर भी
नहीं, सिर्फ
प्रकाश की
किरणें
तुम्हारी आंखों
में प्रवेश
करती हैं। फिर
तुम्हारी आंखें
खुद मन के पास
नहीं पहुंचती
हैं, सिर्फ
आंखों से होकर
गुजरने वाली किरणें
भीतर जाती हैं।
फिर तुम्हारा
स्नायु—तंत्र,
जो उन
किरणों को ले
जाता है, उन्हें
किरणों की
भांति नहीं ले
जा सकता, वह
उन किरणों को
रासायनिक
पदार्थों में
रूपांतरित कर
देता है। तो
केवल
रासायनिक
पदार्थ
यात्रा करते
हैं। वहां इन
रासायनिक
पदार्थों को
पढ़ा जाता है, उन्हें
डिकोड किया
जाता है, उन्हें
उनके मूल
चित्र में फिर
बदला जाता है—और
तब तुम अपने
मन में मुझे
देखते हो।
तुम
कभी अपने मन
के बाहर नहीं
गए हो।
संपूर्ण जगत
को,
जिसे तुम
जानते हो, तुम
अपने मन में
देखते हो, मन
में ही उघाडते
हो, मन में
ही जानते हो।
सारे हिमालय,
समस्त
सूर्य और चांद—तारे
तुम्हारे मन
के भीतर
अत्यंत
सूक्ष्म अस्तित्व
में मौजूद हैं।
अगर तुम अपनी आंखें
बंद करो और
अनुभव करो कि
सब कुछ
सम्मिलित है तो
तुम जानोगे कि
सारा जगत
तुम्हारे
भीतर घूम रहा
है।
और
जब तुम यह
अनुभव करते हो
कि सारा जगत
मेरे भीतर घूम
रहा है तो
तुम्हारे सभी
व्यक्तिगत
दुख विसर्जित
हो गए, विदा हो
गए। अब तुम
व्यक्ति न रहे,
अव्यक्ति
हो गए, परम
हो गए। अब तुम
समस्त
अस्तित्व हो
गए।'
यह
विधि
तुम्हारी
चेतना को
विस्तृत करती
है,
उसे फैलाव
देती है।
अब
पश्चिम में
चेतना को
विस्तृत करने
के लिए अनेक नशीली
चीजों का
प्रयोग हो रहा
है। एल एस डी
है,
मारिजुआना
है, दूसरे
मादक द्रव्य
हैं। भारत में
भी पुराने
दिनों में
उनका प्रयोग
होता रहा है; क्योंकि ये
मादक द्रव्य
चेतना के
विस्तार का एक
झूठा भाव देते
हैं। और जो
लोग मादक
द्रव्य लेते
है, उनके
लिए ये
विधियां बहुत
सुंदर हैं, बहुत काम की
हैं। क्योंकि
वे लोग चेतना
के विस्तार के
लिए लालायित
हैं।
जब
तुम एल एस डी
लेते हो तो
तुम अपने में
ही सीमित नहीं
रहते, तब तुम
सब को अपने
में समेट लेते
हो। इसके
प्रयोग के
अनेक उदाहरण
है। एक लड़की
सात मंजिल के मकान
से कूद पड़ी, क्योंकि उसे
लगा कि मैं
नहीं मर सकती,
कि मृत्यु
असंभव है। उसे
लगा कि मैं उड़
सकती हूं और
उसे लगा कि
इसमें कोई
बाधा नहीं है,
कोई भय नहीं
है। वह लड़की
सात मंजिल
मकान से कूद
पड़ी और मर गई।
उसकी देह टूट—फूट
कर बिखर गई, लेकिन उसके
मन में—नशे के
प्रभाव में—कोई
सीमा का भाव नहीं
था, मृत्यु
का खयाल नहीं
था।
चेतना
का विस्तार एक
सनक का रूप ले
चुकी है।
क्योंकि जब
तुम्हारी
चेतना फैलती
है तो तुम अपने
को बहुत ऊंचाई
पर अनुभव करते
हो,
सारा संसार
धीरे— धीरे
तुममें समा
जाता है। तुम
विराट हो जाते
हो, अति
विराट हो जाते
हो, और
तुम्हारे व्यक्तिगत
दुख विदा हो
जाते हैं।
लेकिन एल एस
डी या अन्य
ऐसी चीजों से
पैदा होने
वाला यह भाव
भ्रामक है, झूठा है।
तंत्र की इस
विधि से यह
भाव वास्तविक
हो जाता है।
यथार्थत: सारा
संसार
तुम्हारे
भीतर आ जाता
है।
इसके
दो कारण हैं।
एक,
हमारी
व्यक्तिगत
चेतना दरअसल
व्यक्तिगत
नहीं है; बहुत
गहराई में वह
समूहिक है।
ऊपर—ऊपर हम
द्वीपों जैसे
अलग—अलग दिखते
हैं, लेकिन
गहरे में सभी
द्वीप पृथ्वी
से जुड़े हैं।
हम द्वीपों
जैसे दिखते
हैं—मैं चेतन
हूं तुम चेतन
हों—लेकिन
तुम्हारी
चेतना और मेरी
चेतना किसी गहराई
में एक ही हैं।
वे धरती से
मूल आधार से
संबद्ध हैं।
यही
कारण है कि
ऐसी बहुत सी
बातें घटती
हैं जो बेबूझ
लगती हैं। अगर
तुम अकेले
ध्यान करते हो
तो ध्यान में
प्रवेश बहुत
कठिन होगा, लेकिन
अगर तुम समूह
में ध्यान
करते हो तो
प्रवेश बहुत
ही आसान है।
कारण यह है कि
समूचा समूह एक
इकाई की तरह
काम करता है।
ध्यान—शिविरों
में मैंने
देखा है, अनुभव
किया है कि दो
या तीन दिन के
बाद तुम्हारी
वैयक्तिकता
जाती रहती है,
तुम एक वृहत
चेतना के
हिस्से बन
जाते हो। और
तब बहुत
सूक्ष्म
तरंगें अनुभव
होने लगती हैं,
बहुत
सूक्ष्म
तरंगें गति
करने लगती हैं
और एक समूह—चेतना
विकसित होती
है।
तो
जब तुम नाचते
हो तो असल में
तुम नहीं नाच
रहे होते हो, वरन
समूह—चेतना
नाच रही होती
है और तुम
उसके अंग भर
होते हो।
नृत्य
तुम्हारे
भीतर ही नहीं
है, तुम्हारे
बाहर भी है।
तुम्हारे
चारों तरफ एक
तरंग है। समूह
में तुम नहीं
होते हो, समूह
ही होता है।
द्वीप होने की
सतही घटना भूल
जाती है और एक
होने की गहरी
घटना घटती है।
समूह में तुम
भगवत्ता के
निकटतर होते
हो; अकेले
में तुम उससे
बहुत दूर होते
हो। क्योंकि
अकेले में तुम
फिर अपने
अहंकार पर, सतही भेद पर,
सतही अलगाव
पर केंद्रित
हो जाते हो।
यह
विधि सहयोगी
है,
क्योंकि
सचाई यही है
कि तुम
ब्रह्मांड के
साथ एक हो।
प्रश्न इतना
ही है कि कैसे
इसे आविष्कृत
किया जाए, कैसे
इसमें उतरा
जाए और इसे
उपलब्ध हुआ
जाए।
किसी
मैत्रीपूर्ण
समूह के साथ
होना तुम्हें सदा
ऊर्जा से भरता
है। किसी ऐसे
व्यक्ति के
साथ होने में, जो
शत्रुतापूर्ण
है, तुम्हें
सदा अनुभव
होता है कि
मेरी ऊर्जा
चूसी जा रही
है। क्यों? अगर तुम
मित्रों के
साथ हो, परिवार
के साथ हो और
आनंदित हो और
सुख ले रहे हो,
तो तुम
ऊर्जस्वी
अनुभव करते हो,
शक्तिशाली
अनुभव करते हो।
किसी मित्र से
मिलने पर तुम
ज्यादा जीवंत
मालूम पड़ते
हो—उससे ज्यादा
जितना मिलने
के पहले जीवंत
थे। और किसी दुश्मन
के पास से
गुजरने पर
तुम्हें
लगता
है कि तुम्हारी
थोड़ी ऊर्जा
कम हो गई है,
तुम थके—थके
लगते हो। क्या
होता है?
जब
तुम किसी
मैत्रीपूर्ण,
सहानुभूतिपूर्ण
समहु से मिलते
हो तो तुम
अपनी वैयक्तिकता
को भूल जाते
हो। तुम उस
मूल आधार पर
उतर आते हो
जहां तुम मिल
सकते हो। जब
किसी शत्रुता
पूर्ण व्यक्ति
से मिलते हो
तो तुम ज्यादा
वैयक्तिक,ज्यादा
अहंकारी हो
जाते हो,
तुम अपने
अहंकार से
चिपक जाते हो।
और इसी अहंकार
से चिपकने के
कारण तुम थके—थके
लगते हो। सब
ऊर्जा मूल
स्त्रोत से
आती है। सब
उर्जा सामूहिक
जीवन के भाव
से आती है।
यह
ध्यान करते
समय प्रारंभ
में तुम्हें सामूहिक
जीवन के भाव
का अनुभव होगा
और अंत में
जागतिक चेतना
का अनुभव
होगा। जब सब
भेद गिर जाते
हो, सारी
सिमाएं विलिन
हो जाती है।
और अस्तित्व
एक इकाई हो जाता
है। पूर्ण
होता है। तब
सब सम्मिलित
हो जाता है।
समाहित हो
जाता है। यह
सब को समाविष्ट
करने का
प्रयत्न
अपने निजी आस्तित्व
से शुरू होता है।
सब कुछ को
समाविष्ट
करो।
‘हे प्रिय, इस क्षण में
मन, ज्ञान, प्राण,
रूप को
समाविष्ट
होने दो।’
याद
रखने की
बुनियादी बात
है समावेश—सब
को अपने में
समाविष्ट
करो। किसी को
अलग मत करो।
बात मत रखो।
इस सूत्र की कुंजी
है: सब का
समावेश। सब को
समाविष्ट
करो। सब को
अपने भीतर
समेट लो।
समाविष्ट
करो और बढ़ते
जाओ; समाविष्ट
करो और विस्तृत
होओ। पहले
अपने शरीर से
यह प्रयोग
शुरू करो और
फिर बाहरी
संसार के साथ
भी यही प्रयोग
करो।
किसी
वृक्ष के नीचे
बैठकर वृक्ष
को देखो, और
फिर आंखें बंद
कर लो ओर
अनुभव करो कि
वृक्ष मेरे
भीतर है,
आकाश को देखो, और फिर आंखें
बंद कर के
महसूस करो कि
आकाश मेरे
भीतर है। उगते
हुए सूरज को
देखो;फिर
आंखें बंद
करके भाव करो
कि सूरज मेरे
भीतर उग रहा
है। और—और
फैलते जाओ,
विराट होते
जाओ।
एक
अद्भुत अनुभव
तुम्हें
होगा। जब तुम
अनुभव करते हो
कि वृक्ष मेरे
भीतर है तो
तुम तत्क्षण
ज्यादा युवा,
ज्यादा ताजा
अनुभव करते
हो। और यह कल्पना
नहीं है। क्योंकि
वृक्ष और तुम
दोनों पृथ्वी
के
अंग
हो, पृथ्वी से
आए हो। तुम
दोनों की
जड़ें एक ही
धरती में गड़ी
है। और अंतत:
तुम्हारी
जड़ें एक ही
अस्तित्व
में समाई है।
तो जब तुम भाव
करते हो कि
वृक्ष मेरे
भीतर है तो
वृक्ष
तुम्हारे
भीतर है—यह
कल्पना नहीं
है, और तत्क्षण
तुम्हें
उसका प्रभाव
अनुभव होगा।
वृक्ष की
जीवंतता,
उसकी हरियाली,उसकी ताजगी, उससे
गुजरती हुई
हवा, सब
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
ह्रदय में
अनुभव होगा।
तो
अस्तित्व
को और—और अपने
भीतर समाविष्ट
करो; कुछ भी बाहर
मत छोड़ो।
अनेक
ढंगों से अनेक
जगत—गुरु इसकी
शिक्षा देते
रहे है। जीसस
कहते है: ‘अपने
शत्रु को वैसे
ही प्रेम करो
जैसे अपने को
करते हो।’
यह समावेश का
प्रयोग है।
फ्रायड
कहता करता था: ‘मैं
क्यों अपने
शत्रु को अपने
समान प्रेम
करूं?’ यह
मेरा शत्रु है; फिर क्यों
में उसे स्वयं
की भांति प्रेम
करूं? और
मैं उसे प्रेम
कैसे कर सकता
हूं?
उसका
प्रश्न संगत
मालूम होता
है। लेकिन
फ्रायड को पता
नहीं है कि क्यों
जीसास कहते थे
कि अपने शत्रु
को वैसे ही
प्रेम करो जैसे
अपने को करते
हो। यह किसी
सामाजिक
राजनीति की
बात नहीं है, यह
कोई समाज—सुधार
की, एक
बेहतर समाज
बनाने की बात
नहीं है, यह
तो सिर्फ
तुम्हारे
जीवन और
तुम्हारे
चैतन्य को
विस्तार देने
की बात है।
अगर
तुम शत्रु को
अपने में
समाविष्ट कर
सको तो वह
तुम्हें चोट
नहीं पहुंचा
सकता है। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि वह
तुम्हारी
हत्या नहीं कर
सकता, वह
तुम्हारी
हत्या कर सकता
है, लेकिन
वह तुम्हें
चोट नहीं
पहुंचा सकता
है। चोट तो तब
लगती है जब
तुम उसे अपने
से बाहर रखते
हो। जब तुम
उसे अपने से
बाहर रखते हो,
तुम अहंकार
हो जाते हो, पृथक और
अकेले हो जाते
हो, तुम
अस्तित्व से
विच्छिन्न हो
जाते हो, कट
जाते हो। अगर
तुम शत्रु को
अपने भीतर
समाविष्ट कर
सको तो सब
समाविष्ट हो
जाता है। जब
शत्रु
समाविष्ट हो
सकता है तो
फिर वृक्ष और
आकाश क्यों
समाविष्ट
नहीं हो सकते?
शत्रु
पर जोर इसलिए
है कि अगर तुम
शत्रु को सम्मिलित
कर सकते हो तो
तुम सब को
सम्मिलित कर
सकते हो। तब
किसी को बाहर
छोड़ने की
जरूरत न रही।
और अगर तुम
अनुभव कर सको
कि तुम्हारा
शत्रु भी
तुममें
समाविष्ट है
तो तुम्हारा
शत्रु भी तुम्हें
शक्ति देगा, ऊर्जा
देगा। वह अब
तुम्हारे लिए
हानिकारक
नहीं हो सकता।
वह तुम्हारी
हत्या कर सकता
है, लेकिन
तुम्हारी
हत्या करते
हुए भी वह
तुम्हें हानि
नहीं पहुंचा
सकता। हानि तो
तुम्हारे मन
से आती है, जब
तुम किसी को
पृथक मानते हो,
अपने से
बाहर मानते हो।
लेकिन
हमारे साथ तो
बात पूरी तरह
विपरीत है, बिलकुल
उलटी है। हम
तो मित्रों को
भी अपने में
सम्मिलित
नहीं करते।
शत्रु तो बाहर
होते ही हैं; मित्र भी
बाहर ही होते
हैं। तुम अपने
प्रेमी—प्रेमिकाओं
को भी बाहर ही
रखते हो। अपने
प्रेमी के साथ
होकर भी तुम
उसमें डूबते नहीं,
एक नहीं
होते, तुम
पृथक बने रहते
हो, तुम
अपने को नियंत्रण
में रखते हो।
तुम अपनी अलग
पहचान गंवाना
नहीं चाहते हो।
और
यही कारण है
कि प्रेम
असंभव हो गया
है। जब तक तुम
अपनी अलग
पहचान नहीं
छोड़ते हो, अहंकार
को विदा नहीं
देते हो, तब
तक तुम प्रेम
कैसे कर सकते
हो? तुम
तुम बने रहना
चाहते हो और
तुम्हारा
प्रेमी भी अपने
को बचाए रखना
चाहता है। तुम
दोनों में कोई
भी एक—दूसरे
में डूबने को,
समाविष्ट
होने को राजी
नहीं है। तुम
दोनों एक—दूसरे
को बाहर रखते
हो, तुम
दोनों अपने—अपने
घेरे में बंद
रहते हो।
परिणाम यह
होता है कि
कोई मिलन नहीं
होता है, कोई
संवाद नहीं
होता है। और
जब प्रेमी भी
समाविष्ट
नहीं हैं तो
यह सुनिश्चित
हैं कि
तुम्हारा
जीवन
दरिद्रतम
जीवन हो। तब
तुम अकेले हो,
दीन—हीन हो,
भिखारी हो।
और जब सारा
अस्तित्व
तुममें
समाविष्ट
होता है तो
तुम सम्राट हो।
इसे
स्मरण रखो।
समाविष्ट
करने को अपनी
जीवन—शैली बना
लो। उसे ध्यान
ही नहीं, जीवन—शैली,
जीने का ढंग
बना लो। अधिक
से अधिक को
सम्मिलित
करने की
चेष्टा करो।
तुम जितना
ज्यादा
सम्मिलित
करोगे
तुम्हारा उतना
ही ज्यादा
विस्तार होगा।
तब तुम्हारी
सीमाएं
अस्तित्व के
ओर—छोर को
छूने लगेंगी।
और एक दिन
केवल तुम होगे,
समस्त
अस्तित्व
तुममें
समाविष्ट होगा।
यही सभी
धार्मिक
अनुभवों का
सार—सूत्र है।
'हे प्रिये, इस क्षण में
मन, ज्ञान,
प्राण, रूप,
सबको
समाविष्ट
होने दो।'
आज
इतना ही।
thank you guruji
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