सूत्र:
73—ग्रीष्म
ऋतु में जब
तुम समस्त
आकाश को
अंतहीन
निर्मलता
में देखो, उस
निर्मलता में
प्रवेश करो।
74—हे
शक्ति, समस्त
तेजोमय
अंतरिक्ष
मेरे सिर में
ही
समाहित
है,
ऐसा भाव करो।
75—जागते
हुए, सोते हुए, स्वप्न
देखते हुए,
अपने को
प्रकाश
समझो।
जब मैं
तुम्हारी आंखों
में झांकता
हूं तो मैं
तुम्हें वहा
कभी नहीं पाता
हूं तुम मानो
अनुपस्थित हो।
तुम
अनुपस्थित
होकर जीते हो।
और तुम्हारी
सारी पीड़ा का
स्रोत यही है।
बिलकुल
उपस्थित न
रहकर भी तुम
जीवित बने रह
सकते हो। और
अगर तुम
उपस्थित नहीं
हो तो
तुम्हारा
जीवन एक ऊब हो
जाएगा। और यही
हुआ है।
तो जब
मैं तुम्हारी आंखों
में झांकता
हूं तुम्हें
वहां नहीं
पाता हूं।
तुम्हें अभी
आना है, तुम्हें अभी
होना है।
स्थिति है, अवसर है, संभावना
है, किसी
भी क्षण तुम
वहां हो सकते
हो। लेकिन अभी
तुम नहीं हो।
इस
अनुपस्थिति
के प्रति
बोधपूर्ण
होना ध्यान की
यात्रा का, अतिक्रमण
की यात्रा का
प्रारंभ है।
तुम्हें
जानना है कि
तुम खोए—खोए
हो, सोए—सोए
हो, तुम
जीते तो हो, लेकिन तुम
नहीं जानते कि
क्यों जीते हो
और कैसे जीते
हो। तुम यह भी
नहीं जानते हो
कि तुम्हारे
भीतर कौन रहता
है। यह अज्ञान
ही सारे दुखों
को पैदा करता
है, क्योंकि
अनजाने तुम जो
कुछ करते हो, उससे दुख
निर्मित होता
है।
तुम
क्या करते हो, यह बात
महत्वपूर्ण
नहीं है।
महत्वपूर्ण
बात यह है कि
तुम जो करते
हो, तुम
उसमें
उपस्थित रहते
हो या
अनुपस्थित।
तुम जो भी
करते हो, अगर
तुम उसमें
समग्रत:
उपस्थित रह कर
करते हो तो
तुम्हारा
जीवन आनंद से
भर जाएगा, समाधि
बन जाएगा। और
अगर तुम कुछ
भी
अनुपस्थिति
में करते हो, उसमें
उपस्थित हुए
बिना करते हो
तो तुम्हारा जीवन
दुख ही दुख
होगा।
तुम्हारी
अनुपस्थिति
ही नरक है।
तो दो
प्रकार के
साधक हैं। एक
प्रकार का
साधक सदा इस
खोज में रहता
है कि क्या
किया जाए। वह
साधक गलत
मार्ग पर है, क्योंकि
प्रश्न करने
का बिलकुल
नहीं है।
प्रश्न है
होने का, प्रश्न
है कि क्या
हुआ जाए। कभी
भी कृत्य की, करने की
भाषा में मत
सोचो। क्योंकि
तुम जो भी
करोगे वह
व्यर्थ होगा—अगर
तुम उसमें
मौजूद नहीं हो।
चाहे तुम
संसार में रहो
या मंदिर में
रही, चाहे
तुम भीड़ में
रहो या हिमालय
के एकांत में
चले जाओ, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ने वाला है।
तुम यहां भी
गैर—मौजूद
रहोगे और वहां
भी गैर—मौजूद
रहोगे। और तब
तुम भीड़ में
या एकांत में
जो भी करोगे, वह दुख
लाएगा। तुम
यदि उपस्थित
नहीं हो तो
तुम जो भी
करोगे वह गलत
होगा।
दूसरे
ढंग का साधक—सही
ढंग का साधक—इस
खोज में नहीं
रहता है कि
क्या किया जाए; उसकी खोज
यह होती है कि
कैसे हुआ जाए।
कैसे हुआ जाए,
यह पहली बात
है। एक बार एक
आदमी गौतम
बुद्ध के पास
आया। उसके
हृदय में बहुत
सहानुभूति, बहुत दया थी।
उसने गौतम
बुद्ध से पूछा
'मैं संसार
की क्या
सहायता कर
सकता हूं?'
कहते
हैं कि बुद्ध
हंसे और
उन्होंने उस
आदमी से कहा. 'तुम कोई
सहायता नहीं
कर सकते, क्योंकि
तुम नहीं हो।
तुम कैसे कुछ
कर सकते हो, जब तुम ही
नहीं हो? अभी
संसार की
फिक्र मत करो।
मत चिंता लो
कि सहायता
कैसे की जाए, दूसरों की
सेवा कैसे की
जाए।’ बुद्ध
ने कहा. 'पहले
होओ। और जब
तुम होगे तो
तुम जो भी
करोगे वह सेवा
हो जाएगी, प्रार्थना
हो जाएगी, करुणा
हो जाएगी।
तुम्हारी
उपस्थिति
तुम्हारे
जीवन में एक
नया मोड़ बन
जाएगी, तुम्हारा
होना एक क्रांति
बन जाएगा।’
तो दो
मार्ग हैं, कर्म का
मार्ग और
ध्यान का
मार्ग। और वे
एक—दूसरे के
विपरीत हैं—सर्वथा
विपरीत। कर्म
का मार्ग
बुनियादी रूप
से तुम्हारे
कर्ता होने से
संबंधित है।
वह तुम्हारे
कर्मों को
बदलने की
कोशिश करेगा,
वह
तुम्हारे
चरित्र को, नीति—नियम
को बदलने की
कोशिश करेगा,
वह
तुम्हारे
संबंधों को
बदलने की
कोशिश करेगा।
लेकिन वह कभी
तुम्हें
बदलने की
कोशिश नहीं करेगा।
ध्यान
का मार्ग
बिलकुल उलटा
है। वह
तुम्हारे
कर्मों की
फिक्र नहीं
करता, वह
सीधे और इसी
क्षण में
तुम्हारी
फिक्र करता है।
तुम क्या करते
हो, यह
अप्रासंगिक
है, प्रासंगिक
यह है कि तुम
क्या हो। और
यही बुनियादी
और प्राथमिक
बात है, क्योंकि
सारे कर्म
तुमसे निकलते
हैं।
स्मरण
रहे, तुम्हारे
कृत्य बदले जा
सकते हैं, सुधारे
जा सकते हैं, उनके स्थान
पर ठीक विपरीत
कृत्य लाए जा
सकते हैं, लेकिन
उनसे_ तुम्हारा
रूपांतरण
नहीं होगा।
कोई भी बाह्य
बदलाहट आंतरिक
क्रांति नहीं
ला सकती; क्योंकि
बाह्य बहुत
ऊपर—ऊपर है और
उससे
तुम्हारा
अंतरस्थ मन
अछूता रह जाता
है। तुम क्या
करते हो, इससे
तुम्हारा
अंतरतम
अस्पर्शित रह
जाता है। क्रांति
ठीक विपरीत
दिशा से आती
है, अगर
अंतरस्थ
केंद्र बदल
जाए तो बाह्य
अपने आप ही
बदल जाता है।
तो
मूलभूत
प्रश्न पर
विचार करो। तो
ही हम ध्यान
की इन विधियों
में प्रवेश कर
सकते हैं। तुम
क्या करते हो, इसकी
चिंता मत लो।
वह असली
समस्या से
बचने की एक
तरकीब हो सकती
है, एक चाल
हो सकती है।
उदाहरण के लिए,
तुम हिंसक
हो और तुम
अहिंसक होने
के सब प्रयत्न
कर सकते हो।
तुम सोच सकते
हो कि अहिंसक
बनकर मैं
धार्मिक हो
जाऊंगा, अहिंसक
बनकर मैं
परमात्मा के
निकट पहुंच
जाऊंगा। तुम
क्रूर हो और
तुम करुणावान
बनने के सब
उपाय कर सकते
हो।
तुम यह
सब कर सकते हो, लेकिन
इससे कुछ भी
नहीं बदलेगा
और तुम वही के वही
रहोगे।
तुम्हारी
क्रूरता
तुम्हारी
करुणा का
हिस्सा बन
जाएगी, और
वह ज्यादा
खतरनाक है। तुम्हारी
हिंसा अहिंसा
में छिप जाएगी,
और वह
ज्यादा
खतरनाक है।
तुम्हारी
हिंसा अहिंसा
के वस्त्र ओढ़
लेगी, और
वह ज्यादा
सूक्ष्म है।
तुम हिंसक रूप
से अहिंसक
होगे।
तुम्हारी
आहिंसा में
तुम्हारी
हिंसा का सारा
पागलपन समाया होगा।
और करुणा के
द्वारा तुम
कूरता जारी
रखोगे। तुम
करूणा की आड़
में हत्या भी
कर सकते हो।
लोगों
ने ऐसी
हत्याएं की
हैं। इतने
धर्म—युद्ध
हुए हैं, वे सब करुणा
की आडू में
लड़े गए हैं।
तुम बहुत
करुणा के साथ,
बहुत अहिंसापूर्वक
हत्या कर सकते
हो। तुम बहुत
प्रेमपूर्वक
किसी की हत्या
कर सकते हो, किसी की
गर्दन काट
सकते हो।
क्योंकि तुम
समझते हो कि
तुम उस आदमी
के हित में
उसकी हत्या कर
रहे हो, तुम
उसका कल्याण
कर रहे हो, तुम
उसकी सेवा कर
रहे हो।
तो तुम
अपने कृत्यों
को बदल सकते
हो, और
कृत्यों को
बदलने की यह
चेष्टा केवल
बुनियादी
बदलाहट से
बचने का उपाय
भी हो सकती है।
बुनियादी
बदलाहट तो यह
है कि पहले
तुम्हें होना
है। तुम्हें
अपने होने के
प्रति ज्यादा
सजग, ज्यादा
सावचेत होना
है, तो ही
तुम्हें एक
प्रेजेंस, एक
आत्मा उपलब्ध
हो सकती है।
तुम
कभी अपने को
अनुभव नहीं
करते हो। और
जब कभी अपने
को अनुभव करते
भी हो तो
दूसरों के
द्वारा करते
हो—किसी
उत्तेजना के
द्वारा, किसी प्रभाव
के द्वारा, किसी
प्रतिक्रिया
के द्वारा।
कोई दूसरा
जरूरी होता है,
और उस दूसरे
के द्वारा तुम
अपने को महसूस
करते हो। यह
बेकार है, व्यर्थ
है। अकेले, उत्तेजना के
बिना, दूसरे
के माध्यम के
बिना तुम सो
जाते हो, ऊब
जाते हो। तुम
कभी अपने को
अनुभव नहीं
करते, तुम्हारी
प्रेजेंस
नहीं होती, तुम
मूर्च्छित
जीते हो।
यह
मूर्च्छित
अस्तित्व ही
अधार्मिक मन
है। और अपनी
प्रेजेंस से, अपने
होने के
प्रकाश से
आपूरित हो
जाना, भर
जाना धार्मिक
होना है।
इसे
बुनियादी
बिंदु के रूप
में स्मरण रखो
कि मुझे
तुम्हारे
कृत्यों की
फिक्र नहीं है, तुम क्या
करते हो, मेरे
लिए यह
अप्रासंगिक
है। तुम क्या
हो—उपस्थित या
अनुपस्थित, होशपूर्ण या
बेहोश—मुझे
इसकी ही फिक्र
है। और ये
विधियां, जिनमें
हम प्रवेश
करेंगे, तुम्हें
अधिक
होशपूर्ण
बनाने, तुम्हें
यहां और अभी
में लाने की
विधियां हैं।
तुम्हें
स्वयं को
अनुभव करने
लिए किसी
दूसरे की
जरूरत पड़ती है, या अतीत
की जरूरत पड़ती
है। अतीत के
द्वारा, अतीत
की स्मृतियों
के द्वारा
तुम्हें अपनी
पहचान होती है।
या फिर भविष्य
की जरूरत पड़ती
है, तुम
अपने
स्वप्नों में
प्रक्षेपण कर
सकते हो। तुम
अपने आदर्शों
को, भावी
जन्मों को, मोक्ष को
प्रक्षेपित
कर सकते हो।
अपने को महसूस
करने के लिए
या तो तुम्हें
अतीत की
स्मृतियों की
जरूरत पड़ती है
या भविष्य में
प्रक्षेपण की
या किसी दूसरे
व्यक्ति की, लेकिन तुम
अकेले कभी
पर्याप्त
नहीं हो। यही
तुम्हारा रहा
है।
और जब
तक तुम स्वयं
पर्याप्त
नहीं हो, तब तक
तुम्हारे लिए
कुछ भी
पर्याप्त
नहीं होगा। और
एक बार तुम
अकेले ही अपने
लिए पर्याप्त
हो गए तो तुम
जीत गए, संघर्ष
समाप्त हुआ।
अब कभी कोई
दुख नहीं होगा।
और अब तुम वहा
आ गए जहां से
लौटना नहीं
होता है। अब
आनंद ही आनंद
है, शाश्वत
आनंद है।
और
इसके पहले तुम
दुख और संताप
झेलने को
बाध्य हो।
लेकिन
आश्चर्य की
बात है कि यह
सारा संताप तुम्हारा
ही सृजन है।
यह एक चमत्कार
है कि तुम
स्वयं अपना दुःख
गढ़ते हो; कोई
दूसरा नहीं गढ़ता
है। और अगर
कोई दूसरा
तुम्हारा दुख
पैदा करता
होता तो उसके
पार जाना
असंभव होता।
अगर संसार उसे
निर्मित कर
रहा है, तो
तुम क्या कर
सकते हो? लेकिन
तुम कुछ कर
सकते हो, इसका
अर्थ है कि
कोई दूसरा
तुम्हारा दुख
नहीं निर्मित
कर रहा है, यह
तुम्हारा
अपना ही रचा
हुआ
दुःस्वप्न है।
और इसके
बुनियादी
तत्व ये हैं।
पहली
बात. तुम
सोचते हो कि
मैं हूं; तुम विश्वास
करते हो कि
मैं हूं। यह
सिर्फ एक
विश्वास है, एक धारणा है।
तुमने कभी
अपना साक्षात
नहीं किया है;
तुमने कभी
अपने को सीधे—सीधे
नहीं जाना है।
तुम कभी अपने
से नहीं मिले
हो; तुम्हारी
स्वयं से कभी
कोई मुलाकात
नहीं हुई है।
तुम सिर्फ
मानते हो कि
मैं हूं।
इस
मान्यता को
बिलकुल छोड़ दो
और भलीभांति
जानो कि तुम
नहीं हो, तुम्हें अभी
होना है।
क्योंकि इस
झूठी मान्यता
के रहते तुम
कभी रूपांतरित
नहीं हो सकते,
और इस झूठे
विश्वास पर
खड़ा तुम्हारा
पूरा जीवन
झूठा हो जाएगा।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को कहा करता
था. 'मुझसे
यह मत पूछो कि
हम क्या करें,
तुम कुछ
नहीं कर सकते
हो। कुछ करने
के लिए पहले
तुम्हारा
होना जरूरी है;
और तुम नहीं
हो। फिर कौन
करेगा? तुम
अभी करने के
बारे में केवल
सोच सकते हो; लेकिन तुम
कुछ कर नहीं
सकते।’
ये
विधियां
तुम्हें वापस
लाने में
सहयोगी होंगी; ये
विधियां ऐसी
स्थिति पैदा
करने में
सहयोगी होंगी
जिसमें तुम
स्वयं से मिल
सकते हो, अपना
साक्षात्कार
कर सकते हो।
लेकिन उसके
लिए बहुत कुछ
मिटाना होगा;
जो भी गलत
है, जो भी
झूठ है, उसे
छोड़ना होगा।
सत्य के आगमन
के पहले असत्य
को, झूठ को
विदा देना
होगा; उसे
मिटाना होगा।
और अभी एक
झूठी धारणा है
कि तुम हो।
अभी एक झूठा
खयाल है कि
तुम आत्मा हो,
ब्रह्म हो।
ऐसा नहीं है
कि तुम आत्मा
या ब्रह्म
नहीं हो, लेकिन
ये खयाल झूठे
हैं।
गुरजिएफ
जोर देकर कहता
था कि तुममें
कोई आत्मा
नहीं है। सभी
परंपराओं के
विरुद्ध वह
जोर देकर कहता
था कि मनुष्य
में कोई आत्मा
नहीं है, आत्मा केवल
एक संभावना है
जिसे
वास्तविक बनाया
भी जा सकता है
और नहीं भी
बनाया जा सकता।
आत्मा उपलब्ध
करनी पड़ती है;
तुम केवल एक
बीज हो।
और
गुरजिएफ ठीक
कहता है।
संभावना है, क्षमता
है, लेकिन
वह अभी
वास्तविकता
नहीं बनी है।
हम गीता और
उपनिषद और
बाइबिल पढ़ते
हैं और समझते
हैं कि हम
आत्मा हैं। यह
ऐसा ही है
जैसे बीज सोचे
कि मैं वृक्ष
हूं। वृक्ष
उसमें छिपा है,
लेकिन उसे
आविष्कृत
करना होगा, उघाड़ना होगा।
और यह याद
रखना अच्छा है
कि तुम बीज ही
बने रह सकते
हो और बीज की तरह
ही मर जा सकते
हो। क्योंकि
वृक्ष अपने ही
आप अस्तित्व
में नहीं आ
सकता है, तुम्हें
उसके लिए
सचेतन रूप से
कुछ करना होगा।
क्योंकि केवल
बोध से ही यह
वृक्ष बढ़ता और
विकसित होता
है।
विकास
दो तरह का
होता है। एक
तो अचेतन, नैसर्गिक
विकास है; अगर
परिस्थिति अनुकूल
तो चीज विकसित
होगी। लेकिन
आत्मा, तुम्हारा
अंतरस्थ तत्व,
तुम्हारा
भागवत तत्व
बिलकुल और ही
तरह का विकास
है। वह केवल
बोध से ही
विकसित होता
है। यह
विकास
नैसर्गिक
नहीं, अधिनैसर्गिक
है, आध्यात्मिक
है। निसर्ग पर
छोड़ देने से
उसकी वृद्धि नहीं
होगी; प्रकृति
पर छोड़ देने
से उसका विकास
कभी नहीं होगा।
तुम्हें
सचेतन रूप से
कुछ करना होगा;
उसके लिए
तुम्हें
सचेतन
प्रयत्न करना
होगा।
क्योंकि
सिर्फ चैतन्य
से ही उसका
विकास होता है।
जब चेतना का
प्रकाश उस तक
पहुंचता है तब
विकास घटित
होता है। ये
विधियां
तुम्हें अधिक
सचेतन बनाने
की विधियां
हैं।
अब हम
विधियों में
प्रवेश
करेंगे।
पहली
विधि:
ग्रीष्म
ऋतु में जब
तुम समस्त
आकाश को
अंतहीन निर्मलता
में देखो उस
निर्मलता में
प्रवेश करो।
'ग्रीष्म
ऋतु में जब
तुम समस्त
आकाश को
निर्मलता में
देखो, उस
निर्मलता में
प्रवेश
करो।
मन
विभ्रम है; मन उलझन है।
उसमें
स्पष्टता
नहीं है, निर्मलता
नहीं है। और
मन सदा बादलों
से घिरा रहता
है, वह कभी
निरभ्र, शून्य
आकाश नहीं
होता। मन
निर्मल हो ही
नहीं सकता है।
तुम अपने मन
को शात—निर्मल
नहीं बना सकते,
ऐसा होना मन
के स्वभाव में
ही नहीं है।
मन अस्पष्ट
रहेगा, धुंधला—
धुंधला रहेगा।
अगर तुम मन को
पीछे छोड़ सके,
अगर तुम मन
का अतिक्रमण
कर सके, उसके
पार जा सके, तो एक
स्पष्टता
तुम्हें
उपलब्ध होगी।
तुम
द्वंद्वरहित
हो सकते हो, मन नहीं।
द्वंद्वरहित
मन जैसी कोई
चीज नहीं होती;
न कभी अतीत
में थी और न
भविष्य में
कभी होगी। मन
का अर्थ ही द्वंद्व
है, उलझाव
है।
मन की
संरचना को
समझने की
कोशिश करो और
तब यह विधि
तुम्हें
स्पष्ट हो
जाएगी। मन
क्या है? मन विचारों
की एक
प्रक्रिया है,
विचारों का
एक सतत प्रवाह
है—चाहे वे
विचार संगत
हों या असंगत
हों, चाहे
वे प्रासंगिक
हों या
अप्रासंगिक
हों। मन सब
जगहों से
संग्रह किए गए
बहुआयामी
प्रभावों का
एक लंबा जुलूस
है। तुम्हारा
सारा जीवन एक
संग्रह है—धूल
का संग्रह। और
यह सिलसिला
अनवरत चलता
रहता है।
एक
बच्चा जन्म
लेता है।
बच्चे की
दृष्टि
निर्मल है, क्योंकि
उसके पास मन
नहीं है।
लेकिन जैसे ही
मन प्रवेश
करता है, उसके
साथ ही
द्वंद्व और
उलझन भी
प्रवेश कर
जाते हैं।
बच्चा निर्मल
है, निर्मलता
ही है; लेकिन
उसे ज्ञान, सूचना, संस्कृति,
धर्म और
संस्कारों का
संग्रह करना
ही पड़ेगा। वे
जरूरी हैं, उपयोगी हैं।
उसे अनेक
जगहों से, अनेक
स्रोतों से, परस्पर
विरोधी
स्रोतों से
अनेक चीजें
जमा करनी
होंगी। वह
हजार—हजार
स्रोतों से
इकट्ठा करेगा।
और तब उसका मन
एक बाजार बन
जाएगा—एक मेला,
एक भीड़। और
क्योंकि उसके
स्रोत अनेक
हैं, उलझन
और भ्रांति और
विभ्रम का
होना
अनिवार्य है।
और तुम कितना
भी इकट्ठा करो,
कुछ भी
निश्चित नहीं
हो पाता है, क्योंकि
ज्ञान सदा
बदलता रहता है
और बढ़ता रहता
है।
मुझे
स्मरण आता है
कि किसी ने
मुझे एक
चुटकुला
सुनाया था। वह
एक बड़ा
शोधकर्ता था
और यह चुटकुला
उसके एक प्रोफेसर
के बाबत था
जिन्होंने
उसे मेडिकल कालेज
में पांच
वर्षों तक
पढाया था। वह
प्रोफेसर
अपने विषय का
भारी विद्वान
था। और उसने
जो अंतिम काम
किया वह यह था
कि उसने अपने
सारे
विद्यार्थियों
को जमा किया
और कहा: 'मुझे
तुम्हें एक और
चीज सिखानी है।
मैंने
तुम्हें जो
कुछ पढ़ाया है
उसका पचास प्रतिशत
ही सही है और
शेष पचास
प्रतिशत
बिलकुल गलत है।
लेकिन कठिनाई
यह है कि मैं
नहीं जानता कि
कौन—सा पचास
प्रतिशत सही
है और कौन—सा
पचास प्रतिशत
गलत है।’
ज्ञान
की सारी इमारत
ऐसे ही खडी है।
कुछ भी
निश्चित नहीं
है। कोई नहीं
जानता है हर
कोई अंधेरे
में टटोल रहा
है। ऐसे ही
टटोल—टटोल कर
हम शास्त्र
निर्मित करते
हैं, विचार—पद्धतियां
बनाते हैं। और
ऐसे ही हजारों
—हजारों
शास्त्र बन गए
हैं। हिंदू
कुछ कहते हैं,
ईसाई कुछ और
कहते हैं, मुसलमान
कुछ और ही
कहते हैं। और
सब एक—दूसरे
का खंडन करते
हैं, उनमें
कोई सहमति
नहीं है। और
कोई भी
निश्चित नहीं
है, असंदिग्ध
नहीं है। और
ये सारे स्रोत
ही तुम्हारे
मन के स्रोत
हैं। तुम इनसे
ही अपना
संग्रह
निर्मित करते
हो। तुम्हारा
मन एक
कबाड़खाना बन
जाता है।
विभ्रम
अनिवार्य है,
उलझन
अनिवार्य है।
केवल
वही आदमी
निश्चित हो
सकता है जो
बहुत नहीं
जानता है। तुम
जितना अधिक
जानोगे, उतने ही
भ्रमित होंगे,
उलझन—ग्रस्त
होगे।
आदिवासी लोग
ज्यादा
निश्चित थे और
उनकी आंखें
ज्यादा
निर्मल मालूम
पड़ती थीं। यह
दृष्टि की
निर्मलता
नहीं थी, यह
सिर्फ परस्पर
विरोधी
तथ्यों के
प्रति उनका
अज्ञान था।
अगर आधुनिक
चित्त ज्यादा
भ्रमित है तो
उसका कारण है
कि आधुनिक
चित्त बहुत
ज्यादा जानता
है। अगर तुम
ज्यादा
जानोगे तो तुम
ज्यादा
भ्रमित होंगे,
क्योंकि अब
तुम बहुत कुछ
जानते हो। और
तुम जितना
ज्यादा
जानोगे, उतने
ही ज्यादा
अनिश्चित
होंगे। केवल
मूढ़ ही
असंदिग्ध
होंगे; केवल
मूढ़ ही मतांध
होंगे; केवल
मूढ़ ही कभी
झिझक में नहीं
पड़ते। तुम
जितना ही
जानोगे उतनी
ही तुम्हारे
पांव के नीचे
से जमीन खिसक
जाएगी, तुम
उतनी ही अधिक
उधेड़बुन में
पड़ोगे।
मैं यह
कहना चाहता
हूं कि मन
जितना ही बड़ा
होगा, तुम
उतना ही
जानोगे कि
भ्रांति मन का
स्वभाव है। और
जब मैं कहता
हूं कि केवल
मूढ़ ही
निश्चित हो
सकते हैं तो
उसका यह अर्थ
नहीं कि बुद्ध
मूढ़ हैं, क्योंकि
वे संदिग्ध
नहीं हैं। इस
भेद को स्मरण
रखो बुद्ध न
निश्चित हैं न
अनिश्चित; बुद्ध
की दृष्टि
स्पष्ट है। मन
के साथ
अनिश्चय है, मूढ़ मन के
साथ निश्चय है,
और अ—मन के
साथ निश्चय—
अनिश्चय
दोनों विदा हो
जाते हैं।
बुद्ध
परम होश हैं, शुद्ध
बोध हैं—खुले
आकाश जैसे हैं।
वे निश्चित
नहीं हैं, निश्चित
होने को क्या
है? वे
अनिश्चित भी
नहीं हैं, अनिश्चित
होने को क्या
है? केवल
वही अनिश्चित
हो सकता है जो
निश्चय की खोज
में है। मन
सदा अनिश्चित
रहता है और
निश्चय की खोज
करता है। मन
सदा कनक्यूज
रहता है और
क्लैरिटी की
तलाश करता है।
बुद्ध ने मन
को ही गिरा दिया
है, और मन
के साथ सारे
विभ्रम को, सारे निश्चय—
अनिश्चय को, सब कुछ को
गिरा दिया है।
इसे इस
तरह देखो।
तुम्हारी
चेतना आकाश
जैसी है और
तुम्हारा मन बादलों
जैसा है। आकाश
बादलों से
अछूता रहता है।
बादल आते —जाते
रहते हैं, लेकिन
आकाश पर उनका
कोई चिह्न
नहीं छूटता।
आकाश कुंआरा
का कुंआरा बना
रहता है, उस
पर बादलों का
कोई पदचिह्न,
कोई निशान
नहीं छूटता है,
बादलों की
कोई स्मृति, कुछ भी नहीं
पीछे रहता है।
बादल आते—जाते
रहते हैं, आकाश
अनुद्विग्न, शात रहता है।
तुम्हारे
साथ भी यही
बात है, तुम्हारी
चेतना
अनुद्विग्न, अक्षुब्ध, शात रहती है।
विचार आते और
जाते हैं, मन
उठते हैं और
खो जाते हैं।
ऐसा मत सोचो
कि तुम्हारे
पास एक ही मन
है, तुम्हारे
पास अनेक मन
हैं, मनों
की एक भीड़ है।
और तुम्हारे मन
बदलते रहते
है।
तुम कम्युनिज्म—विरोधी
बन जा सकते हो, तब
तुम्हारे पास
भिन्न तरह का
मन होगा।
भिन्न ही नहीं
होगा, सर्वथा
विपरीत मन
होगा। तुम
वस्त्रों की
भांति अपने मन
बदलते रह सकते
हो। और तुम
बदलते रहते हो,
तुम्हें
इसका पता हो
या न हो। ये
बादल आते —जाते
रहते हैं।
निर्मलता
तो तब प्राप्त
होती है जब
तुम अपनी दृष्टि
को बादलों से
हटाते हो, जब तुम
आकाश के प्रति
बोधपूर्ण
होते हो। अगर
तुम्हारी
दृष्टि आकाश
पर नहीं है तो
उसका अर्थ है
कि वह बादलों
पर लगी है।
उसे बादलों से
हटाकर आकाश पर
केंद्रित करो।
यह
विधि कहती है. 'ग्रीष्म
ऋतु में जब
तुम समस्त
आकाश को
अंतहीन निर्मलता
में देखो, उस
निर्मलता में
प्रवेश करो।’
आकाश
पर ध्यान करो।
ग्रीष्म ऋतु
का निरभ्र
आकाश, दूर—दूर
तक रिक्त और
निर्मल, निपट
खाली, अस्पर्शित
और कुंआरा। उस
पर मनन करो, ध्यान करो, उस निर्मलता
में प्रवेश
करो। वह
निर्मलता ही
हो जाओ—आकाश
जैसी
निर्मलता।
अगर
तुम निर्मल, निरभ्र
आकाश पर ध्यान
करोगे तो तुम
अचानक महसूस
करोगे कि
तुम्हारा मन
विलीन हो रहा है,
विदा हो रहा
है। ऐसे
अंतराल होंगे,
जिनमें
अचानक
तुम्हें बोध
होगा कि
निर्मल आकाश
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर गया है।
ऐसे अंतराल
होंगे, जिनमें
कुछ देर के
लिए विचार खो
जाएंगे—मानो
चलती सड़क
अचानक सूनी हो
गई और वहा कोई
नहीं चल रहा
है।
आरंभ
में यह अनुभव
कुछ क्षणों के
लिए ही होगा; लेकिन वे
क्षण भी बहुत
रूपांतरकारी
हैं। फिर धीरे—
धीरे मन की
गति धीमी होने
लगेगी और
अंतराल बड़े
होने लगेंगे।
अनेक क्षणों
तक कोई विचार,
कोई बादल
नहीं होगा। और
जब कोई विचार,
कोई बादल
नहीं होगा तो
बाहरी आकाश और
भीतरी आकाश एक
हो जाएंगे।
क्योंकि
विचार ही बाधा
हैं, विचार
ही दीवार
निर्मित करते
हैं, विचारों
के कारण ही
बाहर— भीतर का
भेद खड़ा होता
है। जब विचार
नहीं होते तो
बाहरी और
भीतरी दोनों अपनी
सीमाएं खो
देते हैं और
एक हो जाते
हैं। वास्तव
में सीमाएं
वहा कभी नहीं
थीं; सिर्फ
विचार के कारण,
विचार के
अवरोध के कारण
सीमाएं मालूम
पड़ती थीं।
आकाश
पर ध्यान करना
बहुत सुंदर है।
बस लेट जाओ, ताकि
पृथ्वी को भूल
सको। किसी
स्वात सागरतट
पर, या
कहीं भी जमीन
पर पीठ के बल
लेट जाओ और
आकाश को देखो।
लेकिन इसके
लिए निर्मल
आकाश सहयोगी
होगा—निर्मल
और निरभ्र
आकाश। और आकाश
को देखते हुए,
उसे अपलक
देखते हुए
उसकी
निर्मलता को,
उसके
निरभ्र फैलाव
को अनुभव करो।
और फिर उस
निर्मलता में
प्रवेश करो, उसके साथ एक
हो जाओ, अनुभव
करो कि जैसे
तुम आकाश ही
हो गए हो।
आरंभ
में अगर तुम
सिर्फ कुछ और
नहीं करो खुले
आकाश पर ही
ध्यान करो, तो
अंतराल आने
शुरू हो
जाएंगे।
क्योंकि तुम
जो कुछ देखते
हो वह
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर जाता है।
तुम जो कुछ
देखते हो वह
तुम्हें भीतर
से उद्वेलित
कर देता है।
तुम जो कुछ
देखते हो वह तुममें
बिंबित—प्रतिबिंबित
हो जाता है।
तुम एक
मकान देखते हो।
तुम उसे मात्र
देखते नहीं हो; देखते ही
तुम्हारे
भीतर कुछ होने
भी लगता है।
तुम एक पुरुष
को या एक
स्त्री को
देखते हो, एक
कार को देखते
हो, या कुछ
भी देखते हो।
वह अब बाहर ही
नहीं है, तुम्हारे
भीतर भी कुछ
होने लगता है,
कोई
प्रतिबिंब
बनने लगता है;
और तुम
प्रतिक्रिया
करने लगते हो।
तुम जो कुछ
देखते हो वह
तुम्हें
ढालता है, गढ़ता
है, वह
तुम्हें
बदलता है, निर्मित
करता है।
बाह्य सतत
भीतर से जुड़ा
हुआ है।
तो
खुले आकाश को
देखना बढ़िया
है। उसका असीम
विस्तार बहुत
सुंदर है। उस
असीम के
संपर्क में
तुम्हारी
सीमाएं भी विलीन
होने लगती हैं, क्योंकि
वह असीम आकाश
तुम्हारे
भीतर प्रतिबिंबित
होने लगता है।
और तुम
अगर आंखों को
झपके बिना, अपलक ताक
सको तो बहुत
अच्छा है।
अपलक ताकना
बहुत अच्छा है;
क्योंकि
अगर तुम पलक
झपकोगे तो
विचार—प्रक्रिया
चालू रहेगी।
तो बिना पलक
झपकाए अपलक
देखो। शून्य
में देखो, उस
शून्य में डूब
जाओ, भाव
करो कि तुम
उससे एक हो गए
हो। और किसी
भी क्षण आकाश
तुममें उतर
आएगा।
पहले
तुम आकाश में
प्रवेश करते
हो और फिर
आकाश तुममें
प्रवेश करता
है, तब
मिलन घटित
होता है—आंतरिक
आकाश बाह्य
आकाश से मिलता
है। और उस
मिलन में
उपलब्धि है।
उस मिलन में
मन नहीं होता
है, क्योंकि
यह मिलन ही तब
होता है जब मन
नहीं होता। उस
मिलन में तुम
पहली दफा मन
नहीं होते हो।
और इसके साथ
ही सारी
भ्रांति विदा
हो जाती है।
मन के बिना
भ्रांति नहीं
हो सकती है।
सारा दुख
समाप्त हो
जाता है; क्योंकि
दुख भी मन के
बिना नहीं हो
सकता है।
तुमने
क्या कभी इस
बात पर ध्यान
दिया है कि दुख
मन के बिना
नहीं हो सकता? तुम मन के
बिना दुखी
नहीं हो सकते।
उसका स्रोत ही
नहीं रहा। कौन
तुम्हें दुख
देगा? कौन
तुम्हें दुखी
बनाएगा? और
उलटी बात भी
सही है। तुम
मन के बिना
दुखी नहीं हो
सकते हो और तुम
मन के रहते
आनंदित नहीं
हो सकते हो।
मन कभी आनंद
का स्रोत नहीं
हो सकता है।
यदि
भीतरी और
बाहरी आकाश
क्षण भर के
लिए भी मिलते
हैं और मन
विलीन हो जाता
है तो तुम एक
नए जीवन से भर
जाओगे। उस
जीवन की
गुणवत्ता ही
और है। यही
शाश्वत जीवन
है—मृत्यु से
अस्पर्शित, भय से
अस्पर्शित
शाश्वत जीवन।
उस
मिलन में तुम यहां
और अभी होगे, वर्तमान
में होगे।
क्योंकि अतीत
विचार का
हिस्सा है और
भविष्य भी
विचार का
हिस्सा है।
अतीत और
भविष्य मन के
हिस्से हैं; वर्तमान
अस्तित्व है;
वह
तुम्हारे मन
का हिस्सा
नहीं है। जो
क्षण बीत गया
वह मन का है और
जो क्षण आने
वाला है वह भी
मन का है।
लेकिन
वर्तमान क्षण
कभी तुम्हारे
मन का हिस्सा
नहीं है।
बल्कि तुम ही
इस क्षण के
हिस्से हो।
तुम यहीं हो, ठीक अभी और
यहीं हो।
लेकिन
तुम्हारा मन
कहीं और होता
है, सदा
कहीं और होता
है।
तो
अपने को भार—मुक्त
करो। मैं एक
सूफी संत की
कहानी पढ़ रहा
था। वह एक सुनसान
रास्ते से
यात्रा कर रहा
था—रास्ता
निर्जन हो चला
था। तभी उसे
एक किसान अपनी
बैलगाड़ी के
पास दिखाई पडा।
बैलगाड़ी कीचड़
में फंस गई थी।
रास्ता ऊबड़—खाबड़
था। किसान
अपनी गाड़ी में
सेब भर कर ला
रहा था, लेकिन
रास्ते में
कहीं गाड़ी का पिछला
तख्ता खुल गया
था और सेब
गिरते गए थे।
लेकिन उसे
इसकी खबर नहीं
थी, किसान
को इसका पता
नहीं था। जब
गाड़ी कीचड में
फंसी तो पहले
तो उसने उसे
निकालने की
भरसक चेष्टा
की, लेकिन
उसके. सब
प्रयत्न
व्यर्थ गए। तब
उसने सोचा कि
मैं गाडी को
खाली कर लूं
तो निकालना
आसान हो जाएगा।
उसने
जब लौटकर देखा
तो मुश्किल से
दर्जन भर सेब
बचे थे, सब बोझ पहले
ही उतर चुका
था। तुम उसकी
पीडा समझ सकते
हो। उस सूफी
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि थके—हारे
किसान ने एक
आह भरी 'नरक
में गाड़ी फंसी
और उतारने को
कुछ भी नहीं!' यही एक आशा
बची थी कि गाड़ी
खाली हो तो
कीचड़ से निकल
आएगी, पर
अब खाली करने
को भी कुछ न
रहा।
सौभाग्य
से तुम इस तरह
नहीं फंसे हो।
तुम खाली कर
सकते हो, तुम्हारी
गाड़ी बहुत
बोझिल है। तुम
मन को खाली कर
सकते हो। और
जैसे ही मन
गया कि तुम उड़
सकते हो; तुम्हें
पंख लग जाते
हैं।
यह
विधि—आकाश की
निर्मलता में
झांकने और
उसके साथ एक
होने की विधि—उन
विधियों में
से एक है
जिनका बहुत
उपयोग किया
गया है। अनेक
परंपराओं ने
इसका उपयोग
किया है। और
विशेषकर
आधुनिक चित्त
के लिए यह
विधि बहुत
उपयोगी होगी।
क्योंकि
पृथ्वी पर कुछ
भी नहीं बचा
है जिस पर ध्यान
किया जा सके; सिर्फ
आकाश बचा है।
तुम यदि अपने
चारों ओर
देखोगे तो
पाओगे कि प्रत्येक
चीज मनुष्य—निर्मित
है। प्रत्येक
चीज सीमित हो
गई है; प्रत्येक
चीज सीमा में
सिकुड गई है।
सौभाग्य से
आकाश अब भी
बचा है जो
ध्यान करने के
लिए उपलब्ध है।
तो इस
विधि का
प्रयोग करो, यह उपयोगी
होगी। लेकिन
तीन बातें याद
रखने जैसी हैं।
पहली बात कि
पलकें मत
झपकाओ—अपलक
देखो। अगर
तुम्हारी आंखें
दुखने लगें और
आंसू बहने
लगें तो भी
चिंता मत करो।
वे आंसू भी
तुम्हें
निर्भार करने
में सहयोगी
होंगे। वे आंसू
तुम्हारी आंखों
को ज्यादा
निर्दोष और
ताजा बना जाएंगे,
वे उन्हें
नहला देंगे।
तुम अपलक
देखते जाओ।
दूसरी
बात कि आकाश
के बारे में
सोच—विचार मत
करो। इस बात
को खयाल में
रख लो। तुम
आकाश के संबंध
में सोच—विचार
करने लग सकते
हो। तुम्हें
आकाश के संबंध
में अनेक
कविताएं, सुंदर—सुंदर
कविताएं याद आ
सकती हैं, लेकिन
तब तुम चूक
जाओगे।
तुम्हें आकाश
के बारे में
सोच—विचार
नहीं करना है,
तुम्हें
उसमें डूबना
है, तुम्हें
उसके साथ एक
होना है। अगर
तुम उसके
संबंध में सोच—विचार
करने लगे तो
फिर अवरोध
निर्मित हो
जाएगा। तब तुम
आकाश को चूक
जाओगे और अपने
ही मन में बंद
हो जाओगे।
आकाश
के संबंध में
सोच—विचार मत
करो; आकाश
ही हो जाओ। बस
उसमें झांकों
और उसमें
प्रवेश करो और
उसे भी अपने
में प्रवेश
करने दो। अगर
तुम आकाश में
डूबोगे तो
आकाश भी
तुममें डूबने
लगेगा।
यह
आकाश में
प्रवेश कैसे
होगा? यह
कैसे संभव
होगा कि तुम
आकाश में गति
करो? आकाश
में गहरे, और
गहरे अपलक
देखते जाओ, मानो तुम
उसकी सीमा
खोजने की कोशिश
कर रहे हो।
उसकी गहराई
में झांकते
जाओ, जहां
तक संभव हो।
यह गहराई ही अवरोध
को तोड़ देगी।
और इस विधि का
अभ्यास कम से कम
चालीस मिनट तक
करना चाहिए, उससे कम से
काम नहीं
चलेगा। उससे
कम समय करना
बहुत उपयोगी
नहीं होगा।
जब
तुम्हें
वास्तव में
लगे कि तुम
आकाश के साथ
एक हो गए हो तो
तुम आंखें बंद
कर सकते हो।
जब आकाश
तुममें
प्रवेश कर जाए
तो तुम आंखें
बंद कर सकते
हो। तब तुम
उसे अपने भीतर
देखने में भी
समर्थ होगे।
तब बाहर देखना
जरूरी न रहा।
तो चालीस मिनट
के बाद जब तुम्हें
लगे कि एकता
सध गई, संवाद
सध गया, तुम
उसके हिस्से
हो गए हो और अब
मन नहीं है, तो तुम आंखें
बंद कर सकते
हो और भीतरी
आकाश को अनुभव
कर सकते हो।
निर्मलता
तीसरी बात में
सहयोगी होगी 'उस
निर्मलता में
प्रवेश करो।’
निर्मलता
सहयोगी होगी—निरभ्र
आकाश की
निर्मलता। बस
अपने चारों ओर
फैली
निर्मलता के
प्रति सजग होओ।
उसके बारे में
विचार मत करो,
उस
निर्मलता, शुद्धता
और निर्दोषता
के प्रति सजग
बनो। इन
शब्दों को
नहीं दोहराना
है, सोचने—विचारने
की बजाय
इन्हें अनुभव
करना है। और
जब तुम आकाश
को अपलक
देखोगे तो
अपने आप ही अनुभव
घटित होगा, क्योंकि ये
चीजें
तुम्हारी
कल्पना की
नहीं हैं, ये
हैं। अगर तुम
गहरे झांकोगे
तो ये घटित
होने लगेंगी।
आकाश
निर्मल है, शुद्ध है,
अस्तित्व
की शुद्धतम
चीज है। कुछ
भी उसे अशुद्ध
नहीं करता।
संसार आते हैं
और चले जाते
हैं, पृथ्वियां
बनती हैं और
खो जाती हैं, लेकिन आकाश
निर्मल का
निर्मल बना
रहता है। तो
शुद्धता है, तुम्हें उसे
प्रक्षेपित
नहीं करना है।
तुम्हें
सिर्फ उसे
अनुभव करना है,
उसके प्रति
संवेदनशील
होना है, ताकि
उसका अनुभव हो
सके।
निर्मलता तो
मौजूद ही है।
तुम आकाश को
राह दो। तुम
उसे जबरदस्ती
नहीं ला सकते,
तुम्हें
उसे सिर्फ
प्रेमपूर्वक
राह देनी है।
सभी
ध्यान सिर्फ
प्रेमपूर्वक
राह देने की
बात है। कभी
आक्रमण की
भाषा में मत
सोचो; कभी
जबरदस्ती मत
करो। तुम
जबरदस्ती कुछ
भी नहीं कर
सकते हो। सच
तो यह है कि
तुम्हारी
जबरदस्ती
करने की चेष्टा
से ही
तुम्हारे सभी
दुख निर्मित
हुए हैं।
जबरदस्ती कुछ
भी नहीं हो
सकता; लेकिन
तुम चीजों को
घटित होने दे
सकते हो।
स्त्रैण बनो;
चीजों को
घटित होने दो।
निष्क्रिय
बनो। आकाश
पूर्णत: निष्क्रिय
है, कुछ भी
तो नहीं करता
है; बस है।
तुम भी निष्क्रिय
होकर आकाश को
देखते रही—खुले,
ग्रहणशील, स्त्रैण, अपनी ओर से
किसी तरह की
भी जल्दबाजी
किए बिना। और
तब आकाश
तुममें
उतरेगा।
'ग्रीष्म
ऋतु में जब
तुम समस्त
आकाश को
अंतहीन निर्मलता
में देखो, उस
निर्मलता में
प्रवेश करो।’
लेकिन
अगर ग्रीष्म
ऋतु न हो तो
तुम क्या
करोगे? अगर आकाश
में बादल हों,
आकाश साफ न
हो, तो अपनी
आंखें बंद कर
लो और आंतरिक
आकाश को देखो।
आंखें बंद कर
लो और अगर कुछ
विचार दिखाई
पड़े तो उन्हें
वैसे ही देखो
जैसे कि आकाश
में तिरते
बादल हों।
पृष्ठभुमि के
प्रति, आकाश
के प्रति सजग
होओ और बादलों
के प्रति उदासीन
रहो।
हम
विचारों से
इतने जुडे
रहते हैं कि
बीच के
अंतरालों के
प्रति कभी
ध्यान नहीं दे
पाते। एक
विचार गुजरता
है, और
इसके पहले कि
दूसरा विचार
प्रवेश करे, बढ़ा एक
अंतराल होता
है। उस अंतराल
में ही आकाश
की झलक है। जब
विचार नहीं
होता है तो
क्या होता है?
एक
शून्यता होती
है, एक
खालीपन होता
है। अगर आकाश
बादलों से
आच्छादित है—ग्रीष्म
ऋतु नहीं है
और आकाश साफ
नहीं है—तो
अपनी आंखें
बंद कर लो और
पृष्ठभूमि पर
मन को एकाग्र
करो; उस आंतरिक
आकाश पर ध्यान
करो जिस पर
विचार आते—जाते
हैं। विचारों
पर बहुत ध्यान
मत दो; उस
आकाश पर ध्यान
दो जिस पर
विचारों की
भाग—दौड़ होती
है।
उदाहरण
के लिए, हम लोग इस
कमरे में बैठे
हैं। मैं इस
कमरे को दो
ढंगों से देख
सकता हूं। एक
कि मैं
तुम्हें
देखूं और उस
स्थान के प्रति
उदासीन रहूं
जिसमें तुम
बैठे हो, उस
कमरे के प्रति
तटस्थ रहूं
जिसमें तुम
बैठे हो। मैं
तुम्हें
देखता हूं
मेरा ध्यान
तुम पर है, उस
खाली स्थान पर
नहीं जिसमें
तुम बैठे हो।
अथवा मैं अपना
दृष्टिकोण
बदल लेता हूं
और कमरे को, उसके खाली
स्थान को
देखता हूं और
तुम्हारे प्रति
उदासीन हो
जाता हूं। तुम
यहीं हो, लेकिन
मेरा ध्यान, मेरा फोकस
कमरे पर चला
गया है। तब
सारा
परिप्रेक्ष्य
बदल जाता है।
यही आंतरिक
जगत में करो, आकाश पर
ध्यान दो।
विचार वहां चल
रहे हैं, उनके
प्रति उदासीन
हो जाओ, उन
पर कोई ध्यान
मत दो। वे हैं,
चल रहे हैं,
देख लो कि
ठीक है, विचार
चल रहे हैं।
सड़क पर लोग चल
रहे हैं, देख
लो और उदासीन
रहो। यह मत
देखो कि कौन
जा रहा है, इतना
भर जानो कि
कुछ गुजर रहा
है और उस
स्थान के
प्रति सजग होओ
जिसमें गति हो
रही है। तब
ग्रीष्म ऋतु
का आकाश भीतर
घटित होता है।
ग्रीष्म
ऋतु की
प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं है।
अन्यथा हमारा
मन ऐसा है कि
वह कोई भी
बहाना पकड़ ले
सकता है। वह
कहेगा कि अभी
ग्रीष्म ऋतु
नहीं है। और
यदि ग्रीष्म
ऋतु भी हो तो
वह कहेगा कि
आकाश निर्मल नहीं
है।
दूसरी
विधि :
हे
शक्ति समस्त
तेजोमय
अंतरिक्ष
मेरे सिर में
ही समाहित है
ऐसा भाव करो।
'समस्त
तेजोमय
अंतरिक्ष
मेरे सिर में
ही समाहित है,
ऐसा भाव करो।’
अपनी आंखें
बंद कर लो। जब
इस प्रयोग को
करो तो आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
सारा
अंतरिक्ष
मेरे सिर में
ही समाहित है।
आरंभ
में यह कठिन
होगा। यह विधि
उच्चतर
विधियों में
से एक है।
इसलिए इसे एक—एक
कदम समझना
अच्छा होगा।
तो एक काम करो।
यदि इस विधि
को प्रयोग में
लाना चाहते हो
तो एक—एक कदम
चलो, कम
से चलो।
पहला
चरण : सोते समय, जब तुम
सोने जाओ तो
बिस्तर पर लेट
जाओ, आंखें
बंद कर लो और
महसूस करो कि
तुम्हारे
पांव कहा हैं।
अगर तुम छह
फीट लंबे हो
या पांच फीट
हो, बस यह
महसूस करो कि
तुम्हारे
पांव कहा हैं,
उनकी सीमा
क्या है। और
फिर भाव करो
कि मेरी लंबाई
छह इंच बढ़ गई
है, मैं छह
इंच और लंबा
हो गया हूं। आंखें
बंद किए बस यह
भाव करो।
कल्पना में
महसूस करो कि
मेरी लंबाई छह
इंच बढ़ गई है।
फिर
दूसरा चरण :
अपने सिर को
अनुभव करो कि
वह कहां है, भीतर—
भीतर अनुभव
करो कि वह कहां
है। और फिर
भाव करो कि
सिर भी छह इंच
बड़ा हो गया है।
अगर तुम इतना
कर सके तो बात
बहुत आसान हो
जाएगी। फिर
उसे और भी बड़ा
करो, भाव
करो कि तुम
बारह फीट लंबे
हो गए हो और
तुम पूरे कमरे
में फैल गए हो।
अब तुम अपनी
कल्पना में दीवारों
को छू रहे हो, तुमने पूरे
कमरे को भर
दिया है। और
तब क्रमश: भाव
करो कि तुम
इतने फैल गए
हो कि पूरा
मकान तुम्हारे
अंदर आ गया है।
और एक बार
तुमने भाव
करना जान लिया
तो यह बहुत आसान
है। अगर तुम
छह इंच बढ़
सकते हो तो
कितना भी बढ
सकते हो। अगर
तुम भाव कर
सके कि मैं
पांच फीट नहीं,
छह फीट लंबा
हूं तो फिर
कुछ भी कठिन
नहीं है। तब
यह विधि बहुत
ही आसान है।
पहले
तीन दिन लंबे
होने का भाव
करो और फिर
तीन दिन भाव
करो कि मैं
इतना बड़ा हो
गया हूं कि
कमरे को भर
दिया है। यह
केवल कल्पना
का प्रशिक्षण
है। फिर और
तीन दिन यह
भाव करो कि
मैंने फैल कर
पूरे घर को
घेर लिया है, फिर तीन
दिन भाव करो
कि मैं आकाश
हो गया हूं।
तब यह विधि
बहुत ही आसान
हो जाएगी
'हे
शक्ति, समस्त
तेजोमय
अंतरिक्ष
मेरे सिर में
ही समाहित है,
ऐसा भाव करो।’
तब तुम आंखें
बंद करके
अनुभव कर सकते
हो कि सारा
आकाश, सारा
अंतरिक्ष
तुम्हारे सिर
में समाहित है।
और जिस क्षण
तुम्हें यह
अनुभव होता है,
मन विलीन
होने लगता है।
क्योंकि मन
बहुत
क्षुद्रता
में जीता है।
आकाश जैसे
विस्तार में
मन नहीं टिक
सकता, वह
खो जाता है।
इस
महाविस्तार
में मन असंभव
है। मन
क्षुद्र और
सीमित में ही
हो सकता है, इतने विराट
आकाश में मन
को जीने के
लिए जगह ही नहीं
मिलती है।
यह
विधि सुंदरतम
विधियों में
से एक है। मन
अचानक बिखर
जाता है और
आकाश प्रकट हो
जाता है। तीन
महीने के भीतर
यह अनुभव संभव
है और तुम्हारा
संपूर्ण जीवन
रूपांतरित हो
जाएगा।
लेकिन
एक—एक कदम
चलना होगा।
क्योंकि कभी—कभी
इस विधि से
लोग
विक्षिप्त हो
जाते हैं, अपना
संतुलन खो
देते हैं। यह
प्रयोग और
इसका प्रभाव
बहुत विराट है।
अगर अचानक यह
विराट आकाश
तुम पर टूट
पड़े और तुम्हें
बोध हो कि
तुम्हारे सिर
में समस्त
अंतरिक्ष
समाहित हो गया
है और
तुम्हारे सिर
में चांद—तारे
और पूरा
ब्रह्मांड
घूम रहा है, तो तुम्हारा
सिर चकराने
लगेगा। इसलिए
अनेक
परंपराओं में
इस विधि के
प्रयोग में बहुत
सावधानी बरती
जाती है।
इस सदी
के एक संत, रामतीर्थ
ने इस विधि का
प्रयोग किया
था। और अनेक
लोगों को, जो
जानते हैं, संदेह है कि
इसी विधि के
कारण
उन्होंने
आत्मघात कर
लिया।
रामतीर्थ के
लिए यह
आत्मघात नहीं
था, क्योंकि
जिसने जान
लिया कि सारा
अंतरिक्ष उसमें
समाहित है, उसके लिए
आत्मघात
असंभव है—वह
आत्मघात नहीं
कर सकता। वहां
कोई आत्मघात
करने वाला ही
नहीं बचा।
लेकिन दूसरों
के लिए, जो
बाहर से देख
रहे थे, यह
आत्मघात था।
रामतीर्थ
को ऐसा अनुभव
होने लगा कि
सारा ब्रह्मांड
उनके भीतर, उनके सिर
के भीतर घूम
रहा है। उनके
शिष्यों ने
पहले तो सोचा
कि वे काव्य
की भाषा में
बोल रहे हैं।
लेकिन फिर
उन्हें लगने
लगा कि वे
पागल हो गए हैं,
क्योंकि
उन्होंने
दावा करना
शुरू कर दिया
कि .मैं
ब्रह्मांड
हूं और सब कुछ
मेरे भीतर है।
और फिर एक दिन
वे एक पहाड़
की चोटी से
नदी में कूद
गए।
रामतीर्थ
ने नदी में
कूदने के पहले
एक सुंदर
कविता लिखी, जिसमें
उन्होंने कहा
है 'मैं
ब्रह्मांड हो
गया हूं। अब
मेरा शरीर भार
हो गया है, इस
शरीर को मैं
अब अनावश्यक
मानता हूं; इसलिए मैं
इसे वापस करता
हूं। अब मुझे
किसी सीमा की
जरूरत नहीं है,
मैं
निस्सीम
ब्रह्म 'हो
गया हूं।’
मनोचिकित्सक
तो सोचेंगे कि
वे विक्षिप्त
हो गए! यह
पागलपन का
लक्षण है।
लेकिन जिन्हें
मनुष्य
चेतना के गहन
आयामों का पता
है, वे
कहेंगे कि वे
मुक्त हो गए, बुद्ध हो
गए। लेकिन
सामान्य
चित्त के लिए
यह आत्मघात है।
तो ऐसी
विधियों से
खतरा हो सकता
है। इस कारण
मैं कहता हूं
कि उनकी तरफ
क्रमश: बढ़ो, धीरे—
धीरे चलो।
तुम्हें इसका
पता नहीं है, अत: कुछ भी
संभव है।
तुम्हें अपनी
संभावनाओं का
ज्ञान नहीं है;
तुम्हारी
कितनी तैयारी
है, इसकी
भी तुम्हें
प्रत्यभिज्ञा
नहीं है। और
कुछ भी संभव
है। अत:
सावधानीपूर्वक
इस प्रयोग को
करने की जरूरत
है।
पहले
छोटी—छोटी
चीजों पर अपनी
कल्पना का
प्रयोग करो, भाव करो
कि शरीर बडा
हो रहा है या
छोटा हो रहा है।
तुम दोनों तरफ
जा सकते हो, तुम यदि
पांच फीट छह
इंच के हो तो
भाव करो कि मैं
चार फीट का हो
गया हूं तीन
फीट का हो गया
हूं दो फीट का
हो गया हूं? एक फुट का हो
गया हू बिंदु
मात्र रह गया
हूं।
यह
तैयारी भर है, इस बात की
तैयारी है कि
धीरे— धीरे
तुम जो भी भाव
करना चाहो वह
कर सको।
तुम्हारा आंतरिक
चित्त भाव
करने के लिए
बिलकुल
स्वतंत्र है,
उसे कुछ भी
भाव करने में
कोई बाधा नहीं
है। यह
तुम्हारा भाव
है, तुम
चाहो तो फैल
कर बड़े हो
सकते हो और
चाहो तो
सिकुड़कर छोटे
भी हो सकते हो।
और तुम्हें
वैसा ही बोध
भी होने लगता
है।
और अगर
तुम इस प्रयोग
को ठीक से करो
तो तुम बहुत
आसानी से अपने
शरीर से बाहर
आ सकते हो।
अगर तुम
कल्पना से
शरीर को बड़ा—छोटा
कर सकते हो तो
तुम शरीर से
बाहर आने में
भी समर्थ हो।
तुम सिर्फ
कल्पना करो कि
मैं अपने शरीर
के बाहर खड़ा
हूं और तुम
बाहर खड़े हो
जाओगे।
लेकिन
यह इतनी जल्दी
नहीं होगा।
पहले छोटे—छोटे
चरणों में
प्रयोग करो।
और जब तुम्हें
लगे कि तुम
शात रहते हो, घबराते
नहीं, तब
भाव करो कि
तुमने पूरे
कमरे को भर
दिया है। और
तुम वास्तव
में दीवारों
का स्पर्श
अनुभव करने
लगोगे। और तब
भाव करो कि
पूरा मकान
तुम्हारे
भीतर समा गया
है। और तुम
उसे अपने भीतर
अनुभव करोगे।
इस भांति एक—एक
कदम आगे बढो।
और तब, धीरे—
धीरे, आकाश
को अपने सिर
के भीतर अनुभव
करो। और जब
तुम आकाश को
अपने सिर में
अनुभव करते हो,
जब तुम आकाश
के साथ एक हो
जाते हो, तो
मन एकदम विदा
हो जाता है।
अब वहा उसका
कोई काम न रहा।
इस
विधि के लिए
किसी गुरु या
मित्र के साथ
रहकर प्रयोग
करना अच्छा
होगा। अकेले
में प्रयोग
करना खतरनाक
भी हो सकता है।
तुम्हारे पास
कोई होना
चाहिए जो तुम्हारी
देखभाल कर सके।
यह समूह—विधि
है, गुरुकुल
या आश्रम में
प्रयोग करने
की विधि है।
किसी आश्रम
में जहां अनेक
लोग मिलकर काम
करते हों, वहां
इस विधि का
प्रयोग आसान
है, कम
खतरनाक और कम
हानिकारक है।
क्योंकि जब
भीतर का आकाश
विस्फोटित
होता है तो
संभव है कि कई
दिनों तक
तुम्हें अपने
शरीर की सुध
ही न रहे। तुम
भाव में इतने
आविष्ट हो
सकते हो कि
तुम्हारा
बाहर आना ही
संभव न हो, क्योंकि
उस विस्फोट के
साथ समय विलीन
हो जाता है, तो तुम्हें
पता ही नहीं
चलेगा कि
कितना समय व्यतीत
हो गया। शरीर
का पता ही
नहीं चलता; शरीर का बोध
ही नहीं रहता।
तुम तो आकाश
हो जाते हो।
तो कोई
चाहिए जो
तुम्हारे
शरीर की
देखभाल करे।
बहुत ही
प्रेमपूर्ण
देखभाल की
जरूरत होगी।
इसीलिए किसी
गुरु या समूह
के साथ प्रयोग
करने से यह
विधि कम
हानिकर, कम खतरनाक
रह जाती है।
और समूह भी
ऐसा होना
चाहिए, जो
जानता हो कि
इस में क्या—क्या
संभव है, क्या—क्या
घटित हो सकता
है और तब क्या
किया जाना चाहिए।
क्योंकि मन की
इस अवस्था में
अगर तुम्हें
अचानक जगा
दिया जाए तो
तुम
विक्षिप्त भी
हो सकते हो।
क्योंकि मन को
वापस आने के
लिए समय की
जरूरत होती है।
अगर झटके से
तुम्हें शरीर
में वापस आना
पड़े तो संभव
है कि
तुम्हारा
स्नायु—संस्थान
उसे बर्दाश्त
न कर सके। उसे
कोई अभ्यास
नहीं है। उसे
प्रशिक्षित
करना होगा।
तो
अकेले प्रयोग
न करें; समूह में या
मित्रों के
साथ स्यात जगह
में यह प्रयोग
कर सकते हैं।
और धीरे— धीरे,
एक—एक कदम
बढ़े; जल्दबाजी
न करें।
तीसरी
विधि:
जागते
हुए सोते हुए
स्वप्न देखते
हुए अपने को प्रकाश
समझो।
'जागते
हुए, सोते
हुए, स्वप्न
देखते हुए, अपने को
प्रकाश समझो।’
पहले जागरण
से शुरू करो।
योग और तंत्र
मनुष्य के मन
के जीवन को
तीन भागों में
बांटते हैं—स्मरण
रहे, मन
के जीवन को—वे
मन को तीन भागों
में बांटते
हैं : जाग्रत, सुषुप्ति और
स्वप्न। ये
तुम्हारी
चेतना के नहीं,
तुम्हारे
मन के भाग हैं।
चेतना
चौथी है—तुरीय।
पूर्व में इसे
कोई नाम नहीं
दिया गया है, सिर्फ
तुरीय या
चतुर्थ कहा
गया। तीन के
नाम हैं। वे
बादल हैं
जिनके नाम हो
सकते हैं। कोई
जागता हुआ बादल
है, कोई
सोया हुआ बादल
है और कोई स्वप्न
देखता हुआ
बादल है। वे
सब बादल हैं; और जिस आकाश
में वे घूमते
हैं, वह
अनाम है, उसे
मात्र तुरीय
कहा गया है।
पश्चिम
का
मनोविज्ञान
हाल में ही
स्वप्न के आयाम
से परिचित हुआ
है। असल में
फ्रायड के साथ
स्वप्न
महत्वपूर्ण
हुआ। लेकिन
हिंदुओं के
लिए यह एक
अत्यंत
प्राचीन धारणा
है कि तुम तब
तक किसी
मनुष्य को सच
में नहीं जान
सकते जब तक
तुम यह नहीं
जानते कि वह
अपने स्वप्नों
में क्या करता
है। क्योंकि
वह जागते समय
में जो भी
करता है वह अभिनय
ही होगा, झूठ ही होगा।
क्योंकि मन की
जाग्रत
अवस्था में वह
बहुत कुछ
मजबूरी में
करता है। वह
स्वतंत्र
नहीं है, समाज
है, नियम—निषेध
हैं, नैतिक
व्यवस्था है।
वह निरंतर
अपनी कामनाओं
के साथ संघर्ष
करता है, उनका
दमन करता है, उनमें हेर—फेर
करता है, समाज
के ढांचे के
अनुरूप
उन्हें बदलता
है। और समाज
तुम्हें कभी
तुम्हारी
समग्रता में
स्वीकार नहीं
करता है; वह
चुनाव करता है,
काट—छांट
करता है।
संस्कृति
का यही अर्थ
है; संस्कृति
चुनाव है।
प्रत्येक
संस्कृति एक
संस्कार है, कुछ चीजें
स्वीकृत हैं
और कुछ चीजें
अस्वीकृत हैं।
कहीं भी
तुम्हारे
समग्र
अस्तित्व को,
तुम्हारी निजता
को स्वीकृति
नहीं दी जाती
है—कहीं भी
नहीं। कहीं
कुछ पहलू
स्वीकृत हैं;
कहीं कुछ और
पहलू स्वीकृत
हैं। कहीं भी
समग्र मनुष्य
स्वीकृत नहीं
है।
तो
जाग्रत
अवस्था में
तुम झूठे, नकली, कृत्रिम
और दमित होने
के लिए मजबूर
हो। तुम जागते
हुए
प्रामाणिक
नहीं हो सकते,
अभिनेता भर
हो सकते हो।
तुम सहज नहीं
हो सकते। तुम
अंतःप्रेरणा से
नहीं चलते, बाहर से
धकाए जीते हो।
केवल
अपने स्वप्नों
में तुम
स्वतंत्र हो, केवल
स्वप्नों में
तुम
प्रामाणिक हो
सकते हो। तुम
अपने स्वप्नों
में जो चाहे
कर सकते हो।
उससे किसी को
लेना—देना
नहीं है, वहा
तुम अकेले हो।
तुम्हारे
सिवाय कोई भी
उसमें प्रवेश
नहीं कर सकता
है, कोई भी
तुम्हारे
स्वप्नों में
नहीं झांक सकता
है। और किसी
को इसकी चिंता
भी नहीं है।
तुम अपने स्वप्नों
में क्या करते
हो, इससे
किसी को क्या
लेना—देना है!
सपने
तुम्हारे
बिलकुल निजी
हैं। क्योंकि
वे बिलकुल
निजी हैं और
उनका किसी से कोई
लेना—देना
नहीं है, इसलिए
तुम स्वतंत्र
हो सकते हो।
तो जब
तक तुम्हारे
सपनों को नहीं
जाना जाता, तुम्हारे
असली चेहरे से
भी परिचित
नहीं हुआ जा
सकता है।
हिंदुओं को
इसका बोध रहा
है। सपनों में
प्रवेश करना
अनिवार्य है।
लेकिन सपने भी
बादल ही हैं।
यद्यपि ये
बादल निजी हैं,
कुछ
स्वतंत्र हैं;
फिर भी बादल
ही हैं। उनके
भी पार जाना
है।
ये तीन
अवस्थाएं हैं
: जाग्रत, सुषुप्ति और
स्वप्न।
फ्रायड के साथ
सपनों पर काम
शुरू हुआ। अब
सुषुप्ति पर,
गहरी नींद
पर काम होने
लगा है।
पश्चिम में
अनेक
प्रयोगशालाओं
में यह जानने
के लिए काम हो
रहा है कि
नींद क्या है?
क्योंकि यह
बहुत आश्चर्य
की बात लगती
है कि हमें यह
भी पता नहीं
कि नींद क्या
है! नींद में
क्या यथार्थत:
घटित होता है,
यह अभी
वैज्ञानिक
ढंग से नहीं
जाना गया है।
और अगर
हम नींद को
नहीं जान सकते
तो मनुष्य को
जानना बहुत
कठिन होगा।
क्योंकि
मनुष्य अपनी
जिंदगी का एक
तिहाई हिस्सा
नींद में
गुजारता है।
जीवन का एक
तिहाई हिस्सा, अगर तुम
साठ साल जीने
वाले हो तो
बीस साल तुम सोकर
गुजारोगे।
इतना बड़ा
हिस्सा है यह।
जब तुम सोए हो
तो तुम क्या
कर रहे हो?
नींद में
कुछ
रहस्यपूर्ण
घटित होता है।
और यह इतना
मूलभूत है कि
उसके बिना
जीवन संभव नहीं
है। नींद में
कोई गहरी चीज
घटित होती है, लेकिन
तुम्हें उसका
बोध नहीं है।
जागते हुए तुम
भिन्न
व्यक्ति हो, स्वप्न
देखते हुए तुम
भिन्न
व्यक्ति हो और
गहरी नींद में
तुम भिन्न
व्यक्ति हो।
गहरी नींद में
तुम्हें अपना
नाम भी याद
नहीं रहता है।
तुम्हें यह भी
पता नहीं रहता
कि तुम
मुसलमान हो, कि ईसाई हो, कि हिंदू हो।
गहरी नींद में
तुम इसका जवाब
नहीं दे सकते
कि तुम कौन हो—अमीर
हो कि गरीब।
कोई पहचान
नहीं रहती है।
जागरण
की अवस्था में
तुम समाज के
साथ होते हो।
स्वप्न की
अवस्था में
तुम अपनी
कामनाओं और इच्छाओं
के साथ होते
हो। और गहरी
नींद में तुम
प्रकृति के
साथ जीते हो, प्रकृति
के गहन गर्भ
में होते हो।
योग और तंत्र
का कहना है कि
इन तीनों के
पार जाने पर
ही तुम ब्रह्म
में प्रवेश
करते हो। इन
तीनों से
गुजरना होगा,
इनके पार
जाना होगा, इनका
अतिक्रमण
करना होगा।
एक
फर्क है। अभी
पश्चिम का
मनोविज्ञान
इन अवस्थाओं
के अध्ययन में
उत्सुक हो रहा
है, पूर्व
के साधक इन
अवस्थाओं में
उत्सुक थे, इनके अध्ययन
में नहीं। वे
इसमें उत्सुक
थे कि कैसे
इनका
अतिक्रमण
किया जाए।
यह
विधि
अतिक्रमण की
विधि है।
’जागते
हुए, सोते
हुए, स्वप्न
देखते हुए, अपने को
प्रकाश समझो।’
बहुत
कठिन है।
तुम्हें
जागरण से शुरू
करना होगा।
तुम स्वप्नों
में कैसे
स्मरण रख सकते
हो? क्या
तुम सचेतन रूप
से कोई स्वप्न
पैदा कर सकते हो? क्या तुम स्वप्न
को व्यवस्था दे
सकते हो, उसमें
हेर—फेर कर
सकते हो? क्या
तुम अपनी पसंद
के सपने
निर्मित कर
सकते हो? तुम
नहीं कर सकते।
आदमी कितना
नपुंसक है!
तुम अपने स्वप्न
भी नहीं
निर्मित कर
सकते। वे भी
अपने आप आते
हैं, तुम
बिलकुल असहाय
हो।
लेकिन
कुछ विधियां
हैं जिनके
द्वारा स्वप्न
निर्मित किए
जा सकते हैं।
और ये विधियां
अतिक्रमण
करने में बहुत
सहयोगी हैं।
क्योंकि अगर
तुम स्वप्न
निर्मित कर
सकते हो तो
तुम उसका
अतिक्रमण भी
कर सकते हो।
लेकिन आरंभ तो
जाग्रत
अवस्था से ही
करना होगा।
जागते
समय—चलते हुए, खाते हुए,
काम करते
हुए—अपने को
प्रकाश रूप
में स्मरण रखो।
मानो
तुम्हारे
हृदय में एक
ज्योति जल रही
है और
तुम्हारा
शरीर उस
ज्योति का
प्रभामंडल भर है।
कल्पना करो कि
तुम्हारे
हृदय में एक
लपट जल रही है,
और
तुम्हारा
शरीर उस लपट
के चारों ओर
प्रभामंडल के
अतिरिक्त कुछ
नहीं है, तुम्हारा
शरीर उस लपट
के चारों ओर
फैला प्रकाश
है। इस कल्पना
को?, इस भाव
को अपने मन और
चेतना की
गहराई में
उतरने दो। इसे
आत्मसात करो।
थोड़ा
समय लगेगा।
लेकिन यदि तुम
यह स्मरण करते
रहे, कल्पना
करते रहे, तो
धीरे— धीरे
तुम इसे पूरे
दिन स्मरण
रखने में
समर्थ हो
जाओगे। जागते
हुए, सड़क
पर चलते हुए
तुम एक चलती—फिरती
ज्योति हो
जाओगे। शुरू—शुरू
में किसी
दूसरे को इसका
बोध नहीं होगा,
लेकिन अगर
तुमने यह
स्मरण जारी
रखा तो तीन
महीनों में
दूसरों को भी
इसका बोध होने
लगेगा।
और जब
दूसरों को
आभास होने लगे
तो तुम
निश्चित हो
सकते हो। किसी
से कहना नहीं
है, सिर्फ
ज्योति का भाव
करना है और
भाव करना है
कि तुम्हारा
शरीर उसके
चारों ओर फैला
प्रभामंडल है।
यह स्थूल शरीर
नहीं है, विद्युत—शरीर
है, प्रकाश—शरीर
है। अगर तुम
धैर्यपूर्वक
लगे रहे तो
तीन महीनों में,
करीब—करीब
तीन महीनों
में दूसरों को
बोध होने लगेगा
कि तुम्हें
कुछ घटित हो रहा
है। वे
तुम्हारे
चारों ओर एक
सूक्ष्म
प्रकाश महसूस
करेंगे। जब
तुम निकट
जाओगे, उन्हें
एक अलग तरह की
ऊष्मा महसूस
होगी। तुम यदि
उन्हें
स्पर्श करोगे
तो उन्हें
ऊष्ण स्पर्श
का अनुभव होगा।
उन्हें पता चल
जाएगा कि
तुम्हें कुछ
अदभुत घट रहा
है। पर किसी
से कहो मत। और
जब दूसरों को
पता चलने लगे
तो तुम
आश्वस्त हो
सकते हो। और
तब तुम दूसरे
चरण में
प्रवेश कर
सकते हो, उसके
पहले नहीं।
दूसरे
चरण में इस
विधि को
स्वप्नावस्था
में ले चलना
है। अब तुम स्वप्न
जगत में इसका
प्रयोग शुरू
कर सकते हो।
यह अब यथार्थ
है, अब
यह कल्पना ही
नहीं है।
कल्पना के
द्वारा तुमने
सत्य को उघाडू
लिया है। यही
सत्य है। सब
कुछ प्रकाश से
बना है, सब
कुछ प्रकाशमय
है। तुम
प्रकाश हो, हालाकि
तुम्हें इसका
बोध नहीं है।
क्योंकि
पदार्थ का कण—कण
प्रकाश है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पदार्थ
इलेक्ट्रान से
बना है। यह
वही बात है।
प्रकाश ही सब
का स्रोत है।
तुम भी घनीभूत
प्रकाश हो, कल्पना के
जरिए तुम
सिर्फ सत्य को
फिर से उघाड़ रहे
हो, प्रकट
कर रहे हो। इस
सत्य को
आत्मसात करो।
और जब तुम
उससे आपूर हो
जाओ तो उसे
दूसरे चरण में,
स्वप्न
में ले जा सकते
हो। उसके पहले
नहीं।
तो नींद
में उतरते हुए
ज्योति को
स्मरण करते
रहो, देखते
रहो, भाव
करते रहो कि
मैं प्रकाश
हूं। और इसी
स्मरण के साथ
नींद में उतर
जाओ। और नींद
में भी यह
स्मरण जारी रहता
है। आरंभ में
कुछ ही स्वप्न
ऐसे होंगे
जिनमें तुम्हें
भाव होगा कि
तुम्हारे
भीतर ज्योति है, कि तुम प्रकाश
हो। पर धीरे—धीरे
स्वप्न में भी
तुम्हें यह भाव
बना रहने लगेगा।
और जब यह भाव स्वप्न
में प्रवेश कर
जाएगा, सपने
विलीन होने
लगेंगे। सपने
खोने लगेंगे,
सपने कम से
कम होने
लगेंगे और
गहरी नींद की
मात्रा बढ़ने
लगेगी। और जब
तुम्हारी
स्वन्नावस्था
में यह सत्य
प्रकट होगा कि
तुम प्रकाश हो,
ज्योति हो,
प्रज्वलित
ज्योति हो, तब सभी
स्वप्न विदा
हो जाएंगे।
और जब
सपने विदा हो
जाते हैं, तभी इस
भाव को
सुषुप्ति में,
गहन नींद
में ले जाया
जा सकता है, उसके पहले
नहीं। अब तुम
द्वार पर हो।
जब सपने विदा
हो गए हैं और
तुम अपने को
ज्योति की
भांति स्मरण
रखते हो तो
तुम नींद के
द्वार पर हो। अब
तुम इस भाव के
साथ नींद में
प्रवेश कर
सकते हो। और
यदि तुम एक
बार नींद में
इस भाव के साथ
उतर गए कि मैं
ज्योति हूं तो
तुम्हें नींद
में भी बोध
बना रहेगा। और
अब नींद केवल
तुम्हारे
शरीर को घटित
होगी, तुम्हें
नहीं।
यह
विधि तुम्हें
इन तीन
अवस्थाओं—जागृति, स्वप्न
और सुषुप्ति—के
पार जाने में
सहयोगी होगी।
अगर तुम सजग
रह सको कि मैं
ज्योति हूं, प्रकाश हूं
कि नींद मुझे
नहीं घटित हो
रही है, तो
तुम जागरूक हो।
तुम एक सचेतन
प्रयत्न कर
रहे हो। अब
तुम वह ज्योति
हो। अब शरीर
ही सोया है, तुम नहीं।
कृष्ण
गीता में यही
कहते हैं कि
योगी कभी नहीं
सोते, जब
दूसरे सोते
हैं, तब भी
वे जागते हैं।
ऐसा नहीं है
कि उनके शरीर
नहीं सोते, उनके शरीर
तो सोते हैं, लेकिन शरीर
ही। शरीर को
विश्राम की
जरूरत है।
चेतना को
विश्राम की
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि शरीर
यंत्र है, चेतना
यंत्र नहीं है।
शरीर को ईंधन
चाहिए; उसे
विश्राम
चाहिए। यही
कारण है कि
शरीर जन्म
लेता है, युवा
होता है, वृद्ध
होता है और मर
जाता है।
चेतना न कभी
जन्म लेती है,
न कभी की
होती है और न
कभी मरती है।
उसे न ईंधन की
जरूरत है और न
विश्राम की।
वह शुद्ध
ऊर्जा है, नित्य—शाश्वत
ऊर्जा।
अगर
तुम इस ज्योति
के, प्रकाश
के बिंब को
नींद के भीतर
ले जा सके तो तुम
फिर कभी नहीं
सोओगे, सिर्फ
तुम्हारा
शरीर विश्राम
करेगा। और जब
शरीर सोया है
तो तुम यह
जानते रहोगे।
और जैसे ही यह
घटित होता है—तुम
तुरीय हो, चतुर्थ
हो। जागृति, स्वप्न और
सुषुप्ति मन
के अंश हैं।
वे अंश हैं और
तुम तुरीय हो
गए, चतुर्थ
हो गए। तुरीय
वह है जो
उनमें से
गुजरता है, लेकिन उनमें
से कोई भी
नहीं है।
वस्तुत:
यह बिलकुल सरल
है। अगर तुम
जाग्रत हो और
फिर तुम
स्वप्न देखने
लगते हो तो
तुम दोनों
नहीं हो सकते।
अगर तुम
जागृति हो तो
तुम स्वप्न
कैसे देख सकते
हो? और
अगर तुम
स्वप्न हो तो
तुम सुषुप्ति
में कैसे उतर
सकते हो, जहां
कोई सपने नहीं
होते?
तुम एक
यात्री हो और
ये अवस्थाएं
पड़ाव हैं—तभी
तुम यहां से
वहां जा सकते
हो और फिर
वापस आ सकते
हो। सुबह तुम
फिर जाग्रत
अवस्था में
वापस आ जाओगे।
ये अवस्थाएं
हैं, और
जो इन
अवस्थाओं से
गुजरता है, वह तुम हो।
लेकिन वह तुम
चतुर्थ हो, और इसी
चतुर्थ को
आत्मा कहते
हैं; इसी
चतुर्थ को
भगवत्ता कहते
हैं, इसी
चतुर्थ को
अमृत तत्व
कहते हैं, शाश्वत
जीवन कहते हैं।
'जागते
हुए, सोते
हुए, स्वप्न
देखते हुए, अपने को
प्रकाश समझो।’
यह बहुत
सुंदर विधि है।
लेकिन जाग्रत
अवस्था से
आरंभ करो। और
स्मरण रहे कि
जब दूसरों को
इसका बोध होने
लगे तभी तुम
सफल हुए।
उन्हें बोध
होगा। और तब
तुम स्वप्न
में और फिर
निद्रा में
प्रवेश कर
सकते हो। और
अंत में तुम
उसके प्रति
जागोगे जो तुम
हो—तुरीय।
आज
इतना ही।
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