ओशो
ने प्रारंभ से
एक बात अक्सर
की है वह यह है
कि उनके काम
में जो भी सहभागी
होता है, उस
व्यक्ति का एक
काम पक्का
नहीं रहता है।
हर थोड़े समय
में बदलाव हो
जाता। कभी भी
कोई एक
व्यक्ति किसी
एक जगह पर
अधिक समय तक
काम नहीं करता
था। इससे एक
तो काम से पकड़
नहीं बनती, दूसरा
व्यक्ति नये—नये
काम सीखता है
तो उसका विकास
जारी रहता है।
और फिर सबसे
बड़ी बात मन
पुराने को पकड़ता
है, नया
उसे रास नहीं
आता। और यह भी
कि जब नया
व्यक्ति उसी
काम को करता
है तो वह अपनी
नवीनता उस काम
को देता है इस
प्रकार से
प्रत्येक
कार्य नित—नया
होता जाता है।
मैं
काफी समय से सासवड़ का
काम देख रहा
था। एक दिन
मुझे बुलाकर
कहा गया कि अब
मैं आश्रम के
उपयोग में आने
वाली सभी
वस्तुओं की
शॉपिंग का काम
करूंगा।
अब मैं आश्रम के लिए जिस भी चीज की जरूरत होती वह खरीद कर लाता। आश्रम के किसी भी विभाग या व्यक्ति को किसी चीज की जरूरत होती तो मुझे बताते और मैं शहर से वह चीज मंगवाकर सप्लाय कर देता।
अब मैं आश्रम के लिए जिस भी चीज की जरूरत होती वह खरीद कर लाता। आश्रम के किसी भी विभाग या व्यक्ति को किसी चीज की जरूरत होती तो मुझे बताते और मैं शहर से वह चीज मंगवाकर सप्लाय कर देता।
ओशो
के माता—पिता
भी आश्रम में
ही निवास करते
थे। मैं अक्सर
उनके पास जाता।
दद्दा जी को
कीर्तन— भजन
में बहुत
रुझान था। हर
गुरुवार को
प्रवचन के बाद
उनके निवास पर
कीर्तन होता
था। काफी
मित्र वहां आ
जाते। धीरे—धीरे
मेरा उनसे
स्नेह बढ़ता
गया और वे भी
मुझे बहुत प्यार
करने लगे।
उन्होंने तो
मुझे अपना
ग्यारहवां
बेटा बना लिया
और मेरा नाम
रख दिया
सप्तऋषि।
एक
बार दद्दा जी
की तबीयत खराब
हो गई और
उन्हें
जहांगीर नर्सिग
होम में भर्ती
करवाया गया।
मैं समय निकाल
कर नर्सिग
होम हो आता।
दद्दा जी की
तबियत में
अधिक सुधार
नहीं हो रहा
था। एक दिन
मैं आश्रम की
खरीददारी
करके जब आश्रम
आया तो सब
मुझे ढूंढ रहे
थे। मैंने
पूछा कि ' भाई
क्या बात है?' तो मुझे
बताया गया कि
ओशो अस्पताल
जाना चाहते हैं
और तुम्हारी
कार में
जाएंगे।
अब
ओशो के पास तो
एक से बढ़कर एक
बड़ी गाड़ियां
थीं। और मेरे
पास तो सन् 1968 की एंबेसेडर
का बहुत
पुराना मॉडल
था। और उस पर
हालत यह कि
जिस किसी भी
मित्र को जरूरत
होती वह उस
कार का उपयोग
करता था, तो
दिन भर में
पता नहीं
कितने लोगों
के हाथ में
चलती थी। ओशो
मेरी गाड़ी में
अस्पताल में
जाना चाहते हैं।
अब मेरी गाड़ी
तो बड़ी खस्ता
हालत में रहती
थी। मैं बड़ा पशोपेश
में पड़ गया।
अब क्या करो।
हम सभी
मित्रों ने
मिलकर गाड़ी को
अच्छे से धो— धुआंकर
साफ करके, सीटों
पर अच्छे कपड़े
डाल कर तैयार
कर दी।
समय
पर ओशो आए और
मेरी गाड़ी में
बैठ गए। मैं
बड़ा घबरा रहा
था,
पसीना छूटा
जा रहा था।
घबराहट में
पीछे के दर्पण
को सेट भी न कर
पाया कि ओशो
को देख सकूं।
खुश भी था कि
इतनी बडी
चेतना को अपनी
गाड़ी में बैठाया
है। अपने
सद्गुरु को
गाड़ी में बैठा
कर ड्राइव कर रहा
हूं और साथ ही
घबराहट भी हो
रही थी। लाउत्सु
गेट से निकलने
तक तो मैं
घबराता रहा
फिर सोचा कि
अब ठीक से
गाड़ी चलाओ। ओशो
पीछे बैठे रहे।
मैं ओशो को
अपनी गाड़ी में
बैठा कर
अस्पताल ले गया।
दद्दा जी का
हाल—चाल पूछ
कर थोड़ी देर
में ओशो फिर आ
गये। आते—जाते
ओशो ने मेरे
से कोई बात ही
ना की। मैं
बड़ा हैरान। जब
हम वापस आ गए
और मैंने
पोर्च में
गाड़ी रोकी तो
गाडी से उतरते
हुए ओशो बोले,
'स्वभाव, तुम दद्दा
जी का खयाल
रखो, अस्पताल
में।’ और
दूसरे दिन से
मैं दद्दा जी
की सेवा में
लग गया।
कोई
बयालिस
दिनों तक रात—दिन
दद्दा जी की
सेवा में लगा
रहा। दद्दा जी
की तबीयत ऊंची—नीची
होती रहती थी।
8 सितंबर का
दिन था। मैं
अस्पताल से
आश्रम आया और
थोड़ी ही देर
में अस्पताल
से फोन आ गया
कि 'दद्दा जी की
तबीयत ठीक
नहीं है, जल्दी
अस्पताल आ जाओ।’
तो मैं
भागकर
अस्पताल
पहुंचा। वहां
जाकर देखा तो
दद्दा तो बड़े
बेचैन थे। मैं
दद्दा जी के
कान के पास
जाकर बोला, 'दद्दा जी, क्या हुआ, ध्यान कर
रहे हैं क्या?'
तो वे बोले,
'सुबह चार
बजे से ध्यान
कर रहा हूं और
अब पता नहीं
क्या हो रहा
है।’ तो
मैंने सोचा कि
इस मर्ज की
दवा डॉक्टरों
के पास नहीं
होगी। यह तो
ओशो ही कुछ
बता सकते हैं।
मैं आश्रम आया
और ओशो से
मिलकर कहा कि 'दद्दा जी की
तबीयत ठीक
नहीं है और
बार—बार कह
रहे हैं कि आज
मैं शरीर छोड
दूंगा, आज
मैं शरीर छोड़
दूंगा।’ तो
ओशो ने कहा कि 'दद्दा जी से
कहना ढाई बजे
मैं मिलने आऊंगा।’
मैं
वापस अस्पताल
गया और दद्दा
को बोला कि 'ओशो
ने कहलवाया है
कि वे ढाई बजे
आपसे मिलने आएंगे।’
जैसे ही
मैंने दद्दा
जी को यह बात
कही, उनकी
तबीयत ठीक
होने लगी।
मैंने दद्दा
जी को कहा, 'आपने
जीवन भर कपड़े
का व्यवसाय
किया और अपने
लिए ठीक कपड़े
नहीं बनवाए।
मैं आपके लिए
एक बडी और
धोती ले आऊं?' इस पर
उन्होंने हां
कर दी। मैं
बाजार गया और
एक जोडी
सफेद व एक
जोड़ी भगवा रंग
की बनवा लाया।
ढाई बजे ओशो
आने वाले थे
तो कुछ मित्र
आश्रम से आ गए
थे। हम सब ने
कमरे को अच्छा
साफ कर दिया।
पर्दे, चादरें
सब बदल दी।
दद्दा जी आज
स्वयं ही बाथरूम
में जाकर नहा—
धोकर आ गये।
मैंने उनसे
पूछा कि 'कौन
से कपड़े पहनने
हैं?' तो वे
बोले, 'भगवा
वस्त्र पहनाओ।’
आज
दद्दा जी बडे
अलग रहे थे।
उनका चेहरा
बहुत ही
प्यारा लग रहा
था। चेहरे पर
नूर ही नूर था।
थोड़ी देर
बातें होती
रही फिर दद्दा
जी बोले, 'स्वभाव,
ओशो को बोल
दो, अब
उन्हें आने की
जरूरत नहीं।’
मैंने मन ही
मन सोचा कि यह
गुरु और शिष्य
का आखरी भाव
भी विदा हो
गया। मैं वापस
आश्रम आया और
ओशो को बोला
कि 'दद्दा
जी कह रहे हैं
कि अब आपको
आने की जरूरत
नहीं है।’ तो
ओशो बोले, 'दद्दा
जी को बोलो कि
मैं दो बजे आ
रहा हूं।’ मैंने
सोचा यह सब
क्या है, पहले
ढाई बजे आने
वाले थे, अब
दो बजे आने
वाले हैं।
मैं
अस्पताल गया
और दद्दा जी
को बताया कि 'ओशो
दो बजे आ रहे
हैं।’ जैसे
ही ओशो दो बजे
कमरे में आए
मैंने दद्दा
जी का चेहरा
देखा, उनके
चेहरे पर तो
बड़ा नूर, बड़ा
तेज था। और
ओशो को चेहरा
बडा सामान्य
लग रहा था।
जैसे कि एक
पुत्र अपने
पिता को देखने
आया हो। ओशो
दद्दा के पास
कुर्सी पर बैठ
गए। और बातें
करने लग गए।
आपकी तबीयत
ठीक नहीं है।
आपके लिए नई
गाड़ी आ गई है।
गांव की जमीन—
जायदाद का कुछ
काम था तो उस
बारे में बात
हुई। घर—गृहस्थी
की बातें होती
रहीं। ओशो सब
तरह की बातें
करते रहे।
मुझे यूं लगा
कि यह तो गुरु
शिष्य की
परीक्षा चल
रही है। दद्दा
जी सब बातें
सुनते रहे।
बीच—बीच में
बस हूं हूं
ही करते रहे।
फिर वे बोले, ' ये स्वभाव
मेरी बड़ी सेवा
करता है। मुझे
घुमाने ले
जाता है। बड़ा
ध्यान रखता है।’
इतना बोल कर
वे ओशो से
बोले, 'मैं
आपके चरण
स्पर्श करना
चाहता हूं।’ दद्दा उठ कर
बैठने लगे तो
ओशो बोले कि
आप लेटे ही रहीये।
तो दद्दा जी
ने लेटे—लेटे
ही ओशो के
घुटने को छु
लिया और ओशो
ने अपना हाथ
उनके सिर पर
रख दिया।
वो
पल देखकर मैं
बस चकित रह
गया। उस अनुभव
को शब्दों में
कह पाना बहुत
मुश्किल है।
उस कमरे में
ऐसी ऊर्जा का
विस्फोट हुआ।
दो बुद्ध एक
साथ। उनका
अपना—अपना नूर, अपना—अपना
तेज, अपनी—अपनी
ओजस्वी ऊर्जा,
उस समय क्या
घटा था, बस
कह नहीं सकते।
पूरा कमरा एक चत्मकृत
करने वाली
ऊर्जा, नूर
और आभा से भर
गया।
फिर
ओशो उठे हम सब
को नमन किया
और चले गए।
दद्दा जी बड़े
खुश। चार बजे
के करीब उनकी
तबीयत फिर बिगड़ी।
मैंने दद्दा
जी को एक दिन
पहले
कोकाकोला में थोडा सा
सोडा मिलाकर
पिलाया था।
मैंने दद्दा
से पूछा, 'वो कल
वाला पेय पिला
दूं?' तो वे
बोले, 'हां
पिला दे।’ मैंने
उनको वह
पिलाया। जैसे
ही दद्दा जी
ने वो
कोकाकोला और
सोडा पीया
फिर उनकी
तबीयत बिगड़ने
लगी। डाक्टर
आए सब तरह का चेकअप
किया और बोले
कि ' हर चीज
ठीक है, पर
इन्हें हो
क्या हो रहा
है हमें नहीं
पता।’
इसी
बीच दद्दा जी
मुझसे बोले, 'स्वभाव
क्या पिला
दिया रे?' माताजी
भी पूछे 'क्या
पिलाया है, इन्हें?' मैंने
कहा 'बस कल
वाला शर्बत ही
तो पिलाया है।’
इस प्रकार
करीब शाम सात
आठ बजे तक
उनकी तबीयत बिगड़ती
रही। और उसी
समय दद्दा जी
ने देह का
त्याग कर दिया।
आश्रम
में ओशो को
बताया गया तो
ओशो ने बोला
कि '
अभी दद्दा
जी का शरीर
यहां लाओ, उत्सव
मनाओ और दस
मिनट बाद
उन्हें बर्निग
घाट ले जाना।
और यदि कोई
बोले कि इनके
बड़े लड़के को
अग्नि देने के
लिए लाओ तो
स्वभाव तुम
अग्नि दे देना।’
मैं रोता भी
जाऊं, काम
में भी लगा रहूं।
दद्दा जी का
शरीर बुद्धा
हॉल में लाया
गया। ओशो आए, उन्होंने
दद्दा जी की
देह पर फूल
अर्पित किये,
तीसरे
नेत्र पर हाथ
रखा। माता जी
चरणों में
बैठी हैं, पूरा
वातावरण बहुत
ही भावात्मक
हो रहा था।
ओशो के जाने
के बाद हम सभी
नाचते—गाते, कीर्तन करते,
बर्निग घाट चले गए।
दद्दा
जी का अंतिम
संस्कार चल
रहा है। संगीत
की मधुर स्वर लहरियां
चारों ओर फैल
रही है, सभी
मित्र उत्सवमग्न
हैं पर मेरे
चित्त की दशा
अजीब हो रखी
थी, मैं
दुखी था, यह
भी मेरे खयाल
में कि यार
मैंने क्या
पिला दिया, ओशो ने मुझे
बोला कि दद्दा
जी का खयाल
रखना, मैंने
बड़ा अच्छा
खयाल रखा।
वहां हर कोई
बात करे कि
स्वभाव ने कुछ
पिलाया और ऐसा
हो गया, हर
व्यक्ति के
मुंह पर यही
बात चलने लगी।
मुझे भी बहुत
दुख होने लगा
कि मैंने कुछ
पिलाया इसलिए
उनकी तबीयत
बिगड़ गई। मैं
बहुत अजीब
स्थिति में आ
गया था। मैं
मैत्रेयी जी
के पास गया और
बोला कि 'मेरा
एक प्रश्न है,
यह मुझे
बहुत तंग कर
रहा है। आप
इसे ओशो तक
पहुंचा दो।’ मैत्रेय जी
ने कहा, 'आज
तो सूत्र का
दिन है, आज
प्रश्न नहीं
लिया जाएगा।
मैं प्रश्न
नहीं ले जाऊंगा।
ओशो नाराज
होते हैं।’ मैंने कहा, 'मेरी आपसे
विनती है, बयालिस
दिन से दद्दा
जी की सेवा कर
रहा था और यह
क्या हो गया, आप मेरा
प्रश्न ले
जाएं।’ मैत्रेय
जी ने कहा, 'स्वभाव,
मैं तो कुछ
नहीं कर सकता।
आप लक्ष्मी के
पास चले जाओ।’
मैं
लक्ष्मी के
पास गया तो
उसने भी झपट
कर पूछ लिया, ' अरे तूने
क्या पिला
दिया दद्दा जी
को?' मैंने
कहा, 'कोकाकोला,
सोडा में
मिला कर
पिलाया था।’ लक्ष्मी ने
कहा, 'अरे
इससे कुछ नहीं
होता। मैं
तेरा प्रश्न
ओशो को दे
देती हूं।’ ओशो हमेशा
की तरह आए, जैसे
कि कुछ नहीं
हुआ हो।
प्रवचन चला, पैंतालिस
मिनट ओशो बोल
लिए, मैं
बैठा उदास, दुखी, कुछ
समझ नहीं आए
कि ओशो कुछ
कहेंगे या
नहीं। तब फिर
ओशो बोले
'स्वभाव ने
कल मुझे एक
पत्र लिखा।
स्वभाव को
मैंने काम
दिया था। मेरे
पिता बीमार थे,
पांच
सप्ताह से
अस्पताल में
थे। तो स्वभाव
को मैंने
जिम्मेवारी
दी थी कि उनकी
सेवा करे। यह
स्वभाव के लिए
एक मौका था, एक अवसर था
विकास का। और स्वभाव
ने उसका पूरा
लाभ लिया, जितना
लिया जा सकता
था। कल स्वभाव
ने मुझे लिखा
कि मैंने पहली
बार, पिता
का अनुभव कैसा
होता है, यह
अनुभव किया।
पिता का प्रेम
कैसा होता है,
यह अनुभव
किया। और
मैंने पहली
बार शैलेंद्र
और अमित की
श्रद्धा और
सेवा अनुभव की।
और मैंने पहली
बार पति—पत्नी
के बीच कैसी
प्रगाढता का
नाता हो सकता
है, यह
अनुभव किया।
'स्वभाव को
रखा ही मैंने
इसलिए था कि
कुछ स्वभाव को
बचपन में मां—बाप
का प्रेम नहीं
मिल सका; एक
कमी थी जो
अटकी थी। वह
अटक गई।
स्वभाव की
आखिरी अटक टूट
गई। स्वभाव, दूसरा ही
व्यक्ति जैसे
जन्मा। एक नया
जन्म हो गया।
'पर प्रेम के
नाते तो इस
दुनिया में
बहुत कम हैं।
इस दुनिया में
नाते तो अर्थ
के हैं, पैसे
के हैं। बाप
से भी उतनी
देर तक नाता
है जितनी देर
तक पैसे का
नाता है, जितनी
देर तक उससे
कुछ मिलता है।
जैसे ही मिलना
बंद होता है, नाते शिथिल
हो जाने लगते
हैं। पर कभी—कभार
इस पृथ्वी पर
भी प्रेम
उतरता है। ऐसे
ही एक प्रेम
का अनुभव
स्वभाव को हुआ।
और प्रेम का
अनुभव
परमात्मा का
प्रमाण है।
कहीं भी प्रेम
की झलक मिल
जाए तो
निश्चित हो जाता
है कि
परमात्मा है।
परमात्मा के
लिए और कोई
तर्क काम नहीं
देते, सिर्फ
प्रेम ही काम
देता है।
स्वभाव—मौलिक
रूप से
नास्तिक। जब
पहली—पहली बार
स्वभाव मेरे
पास आया था, वर्षों
पहले, तो
शुद्ध
नास्तिक। जो
पहला प्रश्न
स्वभाव ने
मुझसे पूछा था,
वह यही था—कि
ईश्वर है, इसका
आप कोई प्रमाण
दे सकते हैं? स्वभाव शायद
अब भूल भी गया
होगा कि उसने
यह पहला
प्रश्न मुझसे
पूछा था। इसके
लिए मैं बहुत
प्रमाण
स्वभाव को
देता रहा हूं।
यह आखिरी
प्रमाण था। अब
स्वभाव नहीं
पूछ सकता—कि
ईश्वर है? क्योंकि
स्वभाव ने
मेरे पिता के
पास रह कर प्रेम
को पहचाना। और
स्वभाव ने
मेरे पिता को
अंधेरे से
रोशनी की तरफ
उठते हुए देखा।
बुद्धत्व का
कैसे
आविर्भाव
होता है, इसका
साक्षात्कार
किया। यह
साक्षात्कार
उसके लिए सीडी
बन जाएगा। यह
उसके
बुद्धत्व के
लिए अनिवार्य
था, यह
जरूरी था। और
मैं खुश हूं
कि स्वभाव ने
समग्रता से, सौ प्रतिशत,
रत्ती भर भी
कमी नहीं की।
'जहां कहीं
भी प्रेम का
प्रमाण मिल
जाएगा वहीं
परमात्मा का
प्रमाण मिल
जाता है। मगर
प्रेम के
प्रमाण इस
दुनिया से उजड़
गए हैं। इस
दुनिया के सब
नाते—रिश्ते
बस कामचलाऊ
हैं।
'स्वभाव
बहुत चिंतित
है—कि कहीं
हमसे कोई भूल
तो नहीं हो गई? स्वभाव
ने ठीक उनके
विदा होने के
थोड़े ही क्षण
पहले उन्हें कुछ
पीने को दिया
होगा। अब उसका
प्राण जल रहा
है कि कहीं
मैंने जो पीने
को उन्हें
दिया उसमें तो
कुछ भूल नहीं
हो गई? देना
था, नहीं
देना था?
'नहीं
स्वभाव, चिंता
नहीं लेना।
तुम्हारे
पीने—पिलाने,
कुछ लेने—देने
से कुछ फर्क
नहीं पड़ने
वाला था। वह
जो सुबह घटना
घटी थी, इतनी
बड़ी थी, इतनी
जीर्ण—जर्जर
देह में वह
नहीं सम्हाली
जा सकती। उसे
तो पिंजड़ा
छोटा पड़ गया, पक्षी बड़ा
हो गया। पक्षी
को उड़ना
ही होगा, पिंजड़े
को छोडना ही
होगा। अंडा एक
दिन टूट जाता
है जब पक्षी
बडा हो जाता है।
जब मां के
गर्भ में
बच्चा परिपक
हो जाता है तो
गर्भ से बाहर
हो जाता है।
यह मृत्यु
नहीं, यह महाजीवन
का प्रारंभ था।
इसलिए स्वभाव,
मन में कोई
पीड़ा न लेना।
किसी भूल—चूक
के कारण जरा
भी कुछ नहीं
हुआ है।’
काहे
होत अधीर
मैं
प्रवचन के बाद
माता जी के
पास गया।
उन्होंने
मुझे बहुत
प्यार दिया, दुलार
दिया और कहा
कि तुम्हारा
कोई कसूर है
ही नहीं। मैं
बहुत निर्भार
हो गया।
आज
इति।
🌺🙏🙏🙏🌺
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