ओशो ने हमें
बहुत निर्भीक
बनाया है।
हमें कभी किसी
बात से भयभीत
नहीं किया, डराया
नहीं। हमें
अपने को
अभिव्यक्त
करने को, अपनी
बात कहने को, उनसे किसी
भी प्रकार का
प्रश्न पूछने
को, हमेशा
ही उन्होंने
प्रोत्साहित
किया। किसी को
भी कुछ भी
पूछते जरा भी
डरने की जरूरत
नहीं थी। ओशो
हमेशा प्रयास
करते रहे कि
हम अपनी बात
को दिल खोल कर
उनके सामने रख
दें।
एक बार
की बात है
उपनिषद पर
बोलते हुए ओशो
बता रहे थे कि
उपनिषद के ऋषि
किसी भी जगह
अपना नाम नहीं
लिखते थे। ओशो
ने यह बोलना
शुरू ही किया
था और मैंने
खड़ा होकर कहा, 'इस
उपनिषद के ऋषि
तो आप हैं।’ अब जरा सोचिये
कि किसी और
सभा में क्या
यह संभव हो
पाता? क्या
इस तरह की
हरकत करने
वाले को रोका
नहीं जाता? यहां पर
रोकने की जगह
हमें इतनी
हिम्मत दी थी कि
उनके सामने
खड़े होकर
उन्हीं से बात
पूछ ली जाए।
स्वयं
ओशो अपनी बात
को निर्भीक
होकर दुनिया के
सामने रखते
रहे और इसी के
साथ उन्होंने
सभी की
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता
का पूरा
सम्मान किया।
जब कभी किसी
भी कलाकार, सृजनकार या लेखक की
किसी बात को
रोकने के
प्रयास हुए या
उन्हें बोलने
से रोका गया
तो ओशो उनके
समर्थन में
हमेशा खड़े हो
गए। यह बात और
है कि ओशो स्वयं
उस व्यक्ति से
या उसकी
अभिव्यक्ति
से सहमत होते
या नहीं होते,
लेकिन किसी
को अपनी बात
कहने से रोकना
यह बात ओशो को
कभी पसंद नहीं
रही।
आज इति।
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