ओशो कब क्या
करेंगे, क्या कहेंगे,
आने वाले पल
में क्या हो
सकता है यह
किसी को कुछ
पता नहीं चलता
है। हर पल एक
अशात की तरफ
चलती यात्रा।
एक दिन अचानक
लक्ष्मी ने
मुझे फोन किया
और बोला, 'ओशो
ने प्रवचन
देने से मना
कर दिया है और
जो पुस्तकें
वे पढ़ते थे, उन्हें भी
कमरे से
निकलवा दिया,
कहते हैं कि
न तो मुझे अब
प्रवचन देना
है और न ही
पुस्तकें पढ़नी
हैं। मैं सारे
काम छोड़ कर
उसी समय भागा—
भागा ओशो के
पास पहुंचा।
ओशो को प्रेम
से निवेदन
किया कि 'अभी
तो हमारे दिन
खेलने के हैं,
आपने हमारे
खिलौने ही छीन
लिए?'
तो
ओशो बोले, ' मैं
क्या बोलूं जो
लोग यहां
सुनने आ रहे
हैं, उनके
सिर के ऊपर से
बात निकल जाती
है। मेरा वह
ग्रुप कहां है
जो मुझे समझ
सके।’ तब
मैंने कहा कि 'हम उन सभी
लोगों को बुला
लेंगे।’ तब
मैंने और
लक्ष्मी ने
सभी लोगों से
बात की, फोन
पर फोन किए और
बोला कि भाई प्रचवन
में आओ वर्ना
प्रवचन बंद हो
जाएंगे। इस
बात का प्रभाव
हुआ और मित्र
लोग आने लगे।
और ओशो फिर
बोलने लगे।
फिर सिलसिला
चल निकला। एक
बार मित्रों
का आना शुरू
हुआ तो बस यूं
समझो की
दुनिया की सभी
दिशाओं से
प्रेमी
मित्रों की
बाढ़ सी आ गई।
विदेशी
मित्रों का भी
आना शुरू हो
गया। पूरी
दुनिया से एक
से बढ़ कर एक
प्रतिभावान, समझदार, सृजनात्मक
मित्र आने लगे।
बहुत सारे
प्यारे—प्यारे
मित्रों का
जमघट होने लगा।
ओशो के
कार्य को
सुचारु रूप से
चारों दिशाओं
में फैलाने व
आश्रम का
विस्तार करने
के लिए ओशो
प्रेमियों ने
मिल कर रजनीश फाउंडेशन
की स्थापना की।
जिसका एक
मात्र
उद्देश्य ओशो
के कार्य को
विस्तार देना
था। ओशो के
आसपास
मस्तमौला
साधक इकट्ठे
होने लगे, आश्रम का
विकास होने
लगा, निर्माण
कार्य होने
लगे, अब कोरेगाँव
पार्क के
बंगले के राधा
हॉल में ध्यान
होने लगे। ओशो
का संदेश
चारों तरफ तेज
गति से फैलने
लगा। ओशो
हमेशा ही
चर्चा में
रहने लगे, हजारों—लाखों
मित्र ओशो के
पास खिंचे
चले आ रहे थे।
पूरा कोरेगांव
पार्क भगवा वस्त्रधारियो
से चहक गया।
जिधर देखो उधर
ही भगवा
वस्त्र में
देशी—विदेशी
मित्र घूमते
नजर आते। कोई
गिटार लिए तो
कोई बांसुरी
लिए, किसी
के पास कुछ तो
किसी के पास
कुछ। स्थानीय
निवासी बड़े
आश्चर्य से सब
कुछ देखते कि
यह हो क्या
रहा है।
पत्रकार आते
तो खूब खबरें
बनाते। ओशो
संदेश की आग
प्रज्वलित हो
रही थी।
आज इति।
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