गहन से भी गहन प्रेम है सत्संग—(प्रवचन—सोलहवां)
दिनांक; गुरुवार,
26 जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान, बुद्ध
कहते हैं: अप्प
दीपो भव।
अपने दीए
स्वयं बनो। और
आपकी देशना
है: रसमय होओ, रासमय होओ। क्या
दोनों उपदेश
मात्र
अभिव्यक्ति
के भेद हैं?
2—भगवान, मैं
वर्षों से
संतों की वाणी
के अध्ययन—मनन
में लीन रहा
हूं, पर
अभी तक कहीं
पहुंचा नहीं।
और संत तो
कहते हैं कि
सत्संग क्षण
में पहुंचा
देता है!
3—भगवान, कोई
इंसान इंसान
को भला क्या
देता है
आदमी
सिर्फ बहाना
है, बस खुदा
देता है
वह
जहन्नुम भी दे
तो करूं शुक्र
अदा
कोई
अपना ही समझकर
तो सजा देता
है
पहला
प्रश्न:
भगवान, बुद्ध
कहते हैं: अप्प
दीपो भव।
अपने दीए
स्वयं बनो। और
आपकी देशना
है: रसमय होओ, रासमय होओ। क्या
दोनों उपदेश
मात्र
अभिव्यक्ति
के भेद हैं?
नरेंद्र!
मात्र
अभिव्यक्ति
का भेद नहीं
है। भेद और थोड़ा
गहरा है।
बुद्ध का
वक्तव्य
साध्य के संबंध
में,
मेरा
वक्तव्य साधन
के संबंध में।
मैं बुद्ध से
राजी हूं; अप्प दीपो भव, अपने दीए
बनो। दीए बनने
का और तो कोई
मार्ग भी नहीं।
कोई दूसरा
तुम्हारे लिए
दीया हो सकता
भी नहीं। खुद
की आंख ही
होगी तो देख
सकोगे। खुद के
पैर ही होंगे
तो चल सकोगे।
तुमने
वह कहानी जरूर
सुनी होगी।
जिन्होंने गढ़ी है, शायद
सोचा होगा
गहरी बात कह
रहे हैं।
संसार के
संबंध में तो
शायद सच भी हो,
लेकिन
अध्यात्म के
संबंध में
बिलकुल झूठ
है। तुमने
सुना होगा, एक जंगल में
आग लगी। उस
जंगल में एक
अंधा आदमी और एक
लंगड़ा
आदमी रहते थे।
लंगड़ा
देख सकता था, चल नहीं।
अंधा चल सकता
था, देख
नहीं। बात
सीधी—साफ थी।
दोनों ने
समझौता किया।
दोनों ने सौदा
किया। अंधे ने
लंगड़े को कंधे
पर उठा लिया। लंगड़ा
देखता है, अंधा
चलता है।
दोनों के साथ—सहयोग
से जंगल की आग
से बचकर वे
बाहर निकल आए।
यह बात
संसार के
संबंध में सही
हो सकती है।
यहां अंधों
में लंगड़ों
में बहुत सौदे
होते हैं, बहुत
साझेदारी
होती है। यहां
अंधे और लंगड़े
ही हैं। और
किसको खोजोगे?
दोस्ती
उनसे, दुश्मनी
उनसे! लेकिन
जीवन के परम
सत्य तक जाने
का ऐसा कोई
उपाय नहीं है।
तुम किसी और की
आंख से नहीं
देख सकते हो
वहां। अपनी ही
आंख चाहिए।
वहां उधार
नहीं चलेगा।
धर्म नगद है।
तुम्हारे पास
अपनी संपदा
होगी तो ही
कुछ हो सकेगा।
परमात्मा के
सामने तुम वेद
का उच्चार
करोगे, गीता
गुनगुनाओगे,
कुरान की
आयतें पढ़ोगे,
तो दो कौड़ी
के सिद्ध
होओगे।
परमात्मा के सामने
तो तुम्हें
अपना गीत गाना
होगा। अपना वेद
जन्माना
होगा। अपनी
कुरान जगानी
होगी। वहां तो
केवल
तुम्हारी
अंतरात्मा से
जो स्वर उठेंगे
वे ही स्वीकृत
हो सकते हैं।
वहां किसी और
के बजाए
हुए गीत, किसी
और के नाचे
हुए नृत्य काम
नहीं आएंगे।
वहां तुम हिज
मास्टर्स
वाइस के
रिकार्ड की
तरह मत जाना।
वहां रिकार्डों
का कोई मूल्य
नहीं है। वहां
तो तुम्हारी
परख होगी। वे
आंखें तो
तुम्हारे
अंतस्तल में झांकेंगी।
वे तो
तुम्हारे
अंतरतम को परखेंगी।
वहां तो
तुम्हें नग्न
खड़े होना
होगा। मांगे गए
उधार वस्त्र
द्वार पर ही छुड़ा लिए
जाएंगे।
इसलिए बुद्ध
ने कहा: अप्प
दीपो भव।
अपने दीए बनो।
बुद्धों
के पास यह
खतरा खड़ा होता
है। बुद्धों को
इस बात के लिए
बार—बार
चौंकाना पड़ता
है,
चेताना
पड़ता है।
क्योंकि तुम
हो आलसी।
तुम्हारी आदत
है कि कुछ
मुफ्त मिल जाए
तो क्यों श्रम
करो! तुम्हारे
जीवन—भर का
हिसाब है:
चोरी—चपाटी।
सत्य भी तुम
चुरा लेना
चाहते हो। वह
भी किसी की
जेब काट लो, ऐसी
तुम्हारी
आकांक्षा है।
सत्य तक पहुंच
जाने के लिए
भी कोई सुगम—सस्ता
मार्ग मिल जाए;
मुफ्त मिल
जाए तो बहुत
बेहतर; कुछ
न चुकाना पड़े
तो धन्यभाग;
ऐसी
तुम्हारी
अभीप्सा है।
लेकिन सत्य
मुफ्त नहीं
मिलता। सत्य
को तो प्राणों
से खरीदना होता
है। सत्य
कुर्बानी
मांगता है।
सत्य कहता है:
अपने सिर को
काटो और चढ़ाओ।
अपने अहंकार
को मिटाओ।
इतनी कीमत न
दे सको तो फिर
झूठ में ही
जीना होगा।
रोशनी कहती
है: तुम मिटो
तो मैं होऊं।
अंधेरा कहता
है, तुम
मजे से रहो; तुम्हारे
रहने में ही
मेरा रहना है।
अहंकार और अंधेरे
में सांठ—गांठ
है। प्रकाश के
आते जैसे
अंधकार चला
जाता है, ऐसे
ही अंतरात्मा
में प्रकाश के
उदय होते ही आध्यात्मिक
अंधकार टूट
जाता है, छूट
जाता है।
अप्प दीपो भव
सभी बुद्धों
को कहना पड़ता
है;
क्यों? क्योंकि
बुद्धों का
जलता हुआ दीया
देखकर
तुम्हें लगता
है, अब
हमें क्या
करना? भगवान,
आप तो जानते
हैं, आप
हमें जना दें!
आपको मिल गया,
आप हमें
सुझा दें!
आपने रास्ता
पा लिया, अब
हम क्यों
रास्ते की
तलाश करें? हम तो
अनुसरण
करेंगे। हम तो
आपके पीछे—पीछे
चलेंगे। हम तो
आपकी छाया बनेंगे।
कहने वाले
शायद सोचते
होंगे, बड़ी
श्रद्धा की
बात कह रहे
हैं! कहने
वाले शायद
सोचते होंगे—और
समर्पण क्या
होगा! लेकिन
आदमी का मन
बहुत बेईमान
है। यह समर्पण
नहीं है, न
श्रद्धा है।
यह तो श्रद्धा
से बिलकुल
विपरीत है। यह
तो अहंकार का
ही उपाय है, आयोजन है।
अपने को बचाने
की अंतिम
तरकीब है, अंतिम
व्यवस्था है।
अब तुम बुद्ध
के वस्त्र ओढ़
लो, तो
बुद्ध हो
जाओगे! कि
बुद्ध का
कमंडल उठा लो
तो बुद्ध हो
जाओगे? कि
बुद्ध जैसे
उठो, बैठो,
तो बुद्ध हो
जाओगे!
बुद्ध
का चचेरा भाई
था: देवदत्त।
बचपन से बुद्ध
के साथ खेला, बड़ा
हुआ। लड़े भी
होंगे, झगड़े
भी होंगे, एक—दूसरे
को कभी मारा
भी होगा, एक—दूसरे
को कभी पटका
भी होगा—सब
कुछ हुआ होगा,
दोनों
बराबर उम्र के
थे, साथ—साथ
बड़े...एक ही महल
में बड़े हुए।
फिर बुद्ध तो
तथागत हो गए, परम ज्ञान
को उपलब्ध हुए,
देवदत्त के
मन में बड़ीर्
ईष्या जगी।
उसने कहा: जो
बुद्ध कर सकते
हैं, वह
मैं भी कर
सकता हूं। तो
वह आ कर बुद्ध
से दीक्षित
हुआ। लेकिन
दीक्षित होने
में काइयांपन
था; चालबाजी
थी, दुकानदारी
थी। वह
दीक्षित हुआ
कि जरा ठीक से
देख लूं, आखिर
बुद्ध की
प्रतिष्ठा का
राज क्या है? क्या खाते
हैं, क्या
पीते हैं, क्या
पहनते हैं; कब सोते, कब
उठते; क्या—क्या
करते हैं, ठीक
से जांच कर
लूं, साल—छह
महीने में सब
मेरी समझ में
आ जाएगा; फिर
मैं भी वही
करूंगा। मैं
भी बुद्ध हो जाऊंगा।
और साल—छह
महीने
में...देवदत्त
बुद्धिमान
आदमी था...उसने
बुद्ध की ठीक
से जांच—पड़ताल
कर ली। ठीक से निरीक्षण
कर लिया: ऐसे
उठते, ऐसे
बैठते, ऐसे
चलते। वैसे ही
उठने लगा, वैसे
ही बोलने लगा,
वैसे ही
चलने लगा—बुद्ध
की बिलकुल ही
अनुकृति हो
गया। और तब
कुछ लोग उससे
प्रभावित भी
होने लगे।
अंधों की दुनिया
है! इस अंधों
की दुनिया में
काने भी राजे
हो जाते हैं।
अंधों की
दुनिया में
काना ही राजा
हो सकता है। आंखवालों
को तो अंधे
बर्दाश्त ही
नहीं करते।
अंधा समझौता
कर लेता है
काने से कि
चलो, तुम
आधे—आधे, आधे
हम जैसे। कम—से—कम
आधे तो हम
जैसे!
देवदत्त
का और सब
व्यवहार तो
अज्ञानी का था, मूर्च्छित
का था, लेकिन
उठता था, बैठता
था, चलता
था, बोलता
था...बड़े
सुभाषित
बोलता था। वचन,
परिमार्जित
थे। भाषा, सुगठित
थी, सुडौल
थी। उद्धरण
देता था परम
शास्त्रों
के। व्याख्या,
अनूठी थी!
विश्लेषण, गहरा
था! तर्क, प्रतिष्ठित,
प्रतिभापूर्ण। अंधे साथ
होने लगे!
देवदत्त को भी
पांच सौ शिष्य
मिल गए। और जब
पांच सौ शिष्य
मिल गए, तो
देवदत्त का
असली अहंकार
प्रकट हुआ जो
अब तक छिपा
था। उसने
घोषणा कर दी:
मैं भी बुद्ध
हूं।
बुद्ध
को खबर मिली, बुद्ध
बहुत हंसे।
बुद्ध ने कहा,
मेरे जैसा
चलना, मेरे
जैसा उठना, मेरे जैसा
बोलना—ऐसे कोई
बुद्ध होता
है! दो बुद्ध
कभी एक—जैसे
उठते हैं, एक—जैसे
बैठते हैं, एक—जैसे
चलते हैं! इस
तरह तो पाखंड
पैदा होता है।
और
देवदत्त पागल
है,
ठीक, मगर
ये पांच सौ
लोग जो बुद्ध
को छोड़कर
देवदत्त के
साथ हो लिए, इनके लिए
क्या कहो?
देवदत्त
बुद्ध को छोड़
कर अलग हो
गया। उसने अपने
अलग धर्म की
घोषणा कर दी।
मगर जल्दी ही
वे लोग बिखर
गए। और
देवदत्त जब
मरा तो पछताता
हुआ मरा। बहुत
पीड़ा में मरा।
एक महा अवसर खो
गया। मरते
वक्त उसे समझ
आई बात, बड़ी
देर से समझ
में आई बात, कि मैं ऊपर—ऊपर
का आचरण सीख
लिया, अंतस
का दीया तो
जला ही नहीं।
आचरण
कितना ही तुम
सुव्यवस्थित
कर लो, इससे
अंतस का दीया
नहीं जलेगा।
आचरण को
सुव्यवस्थित
करना ऐसा ही
है जैसे कोई
दीए की तसवीर
बना ले...सुंदर
तसवीर बना ले,
प्यारे—प्यारे
रंग भर दे, फिर
उस तसवीर को
ले जाकर अपने
कमरे में टांग
ले—अंधेरा उस
तसवीर से
प्रभावित
नहीं होगा।
अंधेरा उस
तसवीर से
डरेगा नहीं।
तस्वीरों से
कहीं अंधेरा
भगा है? तसवीर
टंगी रहेगी और
अंधेरा
कुंडली मार कर
बैठा रहेगा।
असली दीया
चाहिए। फिर
चाहे असली दीया
मिट्टी का हो
और तसवीर सोने
की बनी हो।
असली दीया
चाहिए। फिर
चाहे असली
दीया दो कौड़ी
का हो और
तसवीर पर हीरे—जवाहरात
जड़े हों। तो
भी अंधेरा
असली दीए को
पहचानेगा।
असली दीए को
पहचानते ही
बाहर हो
जाएगा। बाहर
हो जाना ही
पड़ेगा। असली
दीए के पास
आने का उपाय
नहीं है।
मनुष्य
ने बहुत से
बुद्धों को
जाना है।
महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट, जरथुस्त्र,
लाओत्सु, नानक, कबीर,
पलटू, फरीद।
सदियों में ये
जलते हुए दीए
हुए। मगर फिर
हम इनसे चूक
क्यों गए? कहां
भूल होती रही?
इतने दीए
जले, अंधेरा
कम क्यों नहीं
होता? अंधेरा
इतना ज्यादा
है कि शक होने
लगता है कि दीए
कभी जले भी कि
नहीं! बुद्ध
कभी हुए भी कि
नहीं! कहीं
महावीर और
कृष्ण और
क्राइस्ट सब
कपोल—कल्पनाएं
तो नहीं हैं!
और जो
लोग ऐसे संदेह
करते हैं, उनके
संदेह में
सत्य का थोड़ा—सा
अंश है।
क्योंकि
अंधेरा इतना
ज्यादा है; हम कैसे
मानें कि दीए
जले और अंधेरा
मिटा नहीं।
पृथ्वी वैसी—की—वैसी
गर्हित, वैसी
की ही वैसी
नर्क में डूबी
है! इतने
उबारने वाले
हुए, उबरे लोग क्यों
नहीं? कहां
चूक होती है? कहां मूल
में भूल होती
है?
चूक
यहां होती है
कि जब भी कोई जाग्रतपुरुष
होता है, कोई
दीया जलता है,
हम बाह्य
आचरण का
अनुकरण करने
लगते हैं। हम
उसी जैसे कपड़े
पहन लेते हैं,
उसी जैसे
उठते—बैठते, वही जो भोजन
करता है करने
लगते हैं। वह
सब सोता है, सोते, सब
उठता, तब
उठते। हम
सोचते हैं, ऐसे बाहर से
जब बुद्धि
जैसे हो
जाएंगे तो
भीतर भी बुद्ध
जैसे हो
जाएंगे। नहीं,
ऐसा नहीं
है। जीवन का
गणित ऐसा नहीं
है। भीतर बुद्ध
जैसे हो जाओ
तो बाहर जरूर
बुद्ध जैसे हो
जाओगे। लेकिन
बाहर बुद्ध
जैसे हो जाओ, इससे भीतर
के बुद्ध का
कोई संबंध
नहीं है।
तुम्हारे
केंद्र को
मानकर चलती है
तुम्हारी
परिधि, लेकिन
तुम्हारी
परिधि को मान
कर तुम्हारा
केंद्र नहीं
चलता है।
इस
मौलिक भूल ने
आदमी को खूब
भटकाया है। और
अब समय है कि
हम जागें—बहुत
देर हो गई!
शायद बहुत समय
भी नहीं बचा
है जागने को।
अगर यह नींद
जारी रही तो
यह आदमियत
जल्दी ही
समाप्त हो
जाएगी। क्योंकि
अंधों के हाथ
में एटम बम, हाइड्रोजन
बम हैं।
मूर्च्छित
लोगों के हाथ
में बड़े
खतरनाक
अस्त्र—शस्त्र
हैं।
निक्सन ने
अपने
संस्मरणों
में कहा है कि
जब आखिरी घड़ी
आ गई और मुझे
ऐसा लगा कि अब
मुझे
राष्ट्रपति का
पद छोड़ ही देना
पड़ेगा, तो
मैं यह बात
छिपा नहीं
सकता, मैं
यह बात कह
देना चाहता
हूं कि एक
क्षण को मेरे
मन में भी यह
विचार आया था
कि क्यों न
अपने साथ सारी
दुनिया को
नष्ट कर दूं! निक्सन के
हाथ में ताकत
तो थी सारी
दुनिया को
नष्ट करने की।
चाभी तो थी।
चाहता तो
तीसरा
महायुद्ध छेड़
देता। सब
भस्मीभूत हो
जाता। निक्सन
का धन्यवाद
करना होगा। निक्सन का
सम्मान करना
होगा। निक्सन
ने अपने पर
काबू रखा।
मेरे लिए तो
हजार वाटरगेट
हुए होते तो
भी दो कौड़ी
के हैं और निक्सन
मूल्यवान है।
क्योंकि निक्सन
ने बड़ा संयम
रखा। ऐसी घड़ियों
में संयम रखना
मुश्किल हो
जाता है। जब
आदमी खुद डूब
रहा हो, तो
क्यों न सबको डुबा ले! और
निक्सन
इस भांति मूढ़ों
की दुनिया में
कम—से—कम थोड़ी—सी
समझ वाला आदमी
साबित होता
है। छोड़ दिया
राष्ट्रपति
का पद। हाथ
में चाभी थी, घड़ी—भर में
सारी दुनिया
आग की लपटों
से डूब जाती!
मूर्च्छित
आदमी के हाथ
में भयंकर
अस्त्र—शस्त्र
हैं। इसलिए अब
ज्यादा देर भी
नहीं है, या तो
आदमी को जागना
पड़ेगा या
मिटना पड़ेगा।
अब हमारे पास
समय खोने को
है भी नहीं।
शायद यह अच्छा
है। शायद समय
के इस दबाव
में, शायद
महाविनाश की
इस संभावना
में एक वरदान
छिपा है। शायद
आदमी ऐसे ही
जाग सकता है।
दुर्दिन में
ही जागरण होता
है। और इससे
बड़े दुर्दिन
कभी भी न थे।
लेकिन
मौलिक भूल से
अब सावधान
रहना।
बुद्ध
कहते हैं: अप्प
दीपो भव।
अपने दीए बनो, मेरा
अनुसरण न करो,
मेरी नकल न
करो, मेरी
कार्बन कापी न
बनो। तुम खुद
चैतन्य से भरपूर
हो, अपने
ही चैतन्य को झकझोरो, धूल से झाड़ो!
तुम्हारे
भीतर दर्पण है,
उसे ही पोंछो,
निखारो,
नहलाओ। तुम
भी वही हो जो
मैं हूं। मुझ
में और तुम
में जरा भी
भेद नहीं। तुम
क्यों मेरे
पीछे चलोगे?
यह
साध्य है, यह
लक्ष्य है कि
प्रत्येक
व्यक्ति अपना
दीया बन जाए।
नरेंद्र!
और जब मैं
कहता हूं:
रसमय होओ, रासमय
होओ, तो
मैं साधन सुझा
रहा हूं। मैं
यह कह रहा हूं,
कैसे अपने
दीए बनोगे?
रोते—रोते
कोई अपना दीया
नहीं बना। जो
भी अपना दीया
बना है, वह
एक अपूर्व नाच
से भर गया है
तब दीया बना
है! मुस्कुराहट,
नाच, आनंदमग्नता,
अस्तित्व
के साथ एक रास—रस—विभोर
हो जाओ तो
अपने दीए बनोगे।
जो रसविभोर है,
लेकिन
जिसने होश का
कोई प्रयास
नहीं किया है,
उस दीए में
तेल तो बहुत
है लेकिन बाती
नहीं है। और न
तो अकेली बाती
काम की है, न
अकेला तेल काम
का है।
फिर
बाती भी हो, तेल
भी हो और
जिसने प्रयास
नहीं किया, चकमक नहीं रगड़ी...चित
चकमक लागै
नहीं...जिसने
ज्योति नहीं
जगाई सोई हुई
तो बाती भी
पड़ी रहे, तेल
भी पड़ा रहे!
तीन
चीजें चाहिए।
दीया
तो तुम हो!
तुम्हारी देह
तुम्हारा
दीया है!...तुमने
एक मजे की बात
देखी? हमारी
भाषा अनूठी
भाषाओं में एक
है। इसमें तेल
का अर्थ तेल
भी होता है और
स्नेह भी होता
है। स्नेह का
अर्थ प्रेम भी
होता है और
तेल भी होता
है। किसी
ज्ञानी ने बात
जोड़ दी, मालूम
होता है। किसी
जानने वाले ने
इस शब्द में
रहस्य भर
दिया। स्नेह
के दो अर्थ:
तेल भी और प्रेम
भी। शरीर तो
तुम्हारे पास
है, यह तो
मिट्टी का
दीया है।
मिट्टी से बना,
मिट्टी में
गिर जाएगा और
मिल जाएगा।
प्यारा है! क्योंकि
बिना दीए के
तेल सम्हालोगे
कहां? मिट्टी
का है, मिट्टी
का धन्यवाद
करो, पृथ्वी
का गुणगान
करो! पृथ्वी
की स्तुति
करो! लेकिन
अकेले दीए का
क्या सार है? अकेले दीए
को लिए अंधेरे
में चलते रहो,
क्या होगा?
एक
अंधा फकीर
विदा हो रहा
था अपने गुरु
से। रात
अंधेरी थी। और
उसने कहा कि
रात अंधेरी है
और जाने में
मुझे डर लगता
है,
जंगल का
रास्ता है।
मैं अंधा आदमी,
रात अंधेरी
है! गुरु ने
कहा, घबड़ाओ न; मैं एक
दीया जला देता
हूं। यह दीया
ले लो और चल पड़ो।
गुरु ने दीया
जला दिया, अंधे
के हाथ में दे
दिया और अंधा
जब सीढ़ियां
उतर रहा था तब
गुरु ने दीया फूंककर
बुझा दिया।
अंधे ने कहा, यह भी खूब
मजाक हुई! फिर
जलाया ही
क्यों था जब बुझाना
था? गुरु
ने कहा, तुम्हें
याद दिलाने
को। मेरा
जलाया हुआ
दीया बाहर के
अंधेरे में तो
काम आ जाएगा, मगर बाहर के
अंधेरे को
तोड़ना—न तोड़ना
सब बराबर है!
भीतर के
अंधेरे को
तोड़ने में
मेरा जलाया
दीया काम नहीं
आएगा। और खतरे
वहां हैं।
बाहर क्या
खतरा है! खतरे
तुम्हारे भीतर
हैं—वासनाओं
का, विचारों
का जंगल
तुम्हारे
भीतर है।
हिंसा के, क्रोध
के, वैमनस्य
के जानवर
तुम्हारे
भीतर हैं। खतरा
उनसे है, मेरे
भाई! बाहर के
जानवर क्या
करेंगे? ज्यादा—से—ज्यादा
देह को छीन
लेंगे। सो देह
फिर मिल जाएगी।
अनंत बार मिली
है, अनंत
बार मिलती
रहेगी। और
भीतर मेरा
जलाया दीया
काम नहीं आ
सकता।
इस सदगुरु
का दीया का
बुझाना और ऐसा
कहना और उस
अंधे फकीर की
भीतर की आंखें
खुल गईं। वह
हंसा, झुका, चरण छुए और
उसने कहा, आपने
भी खूब समय पर
मुझे जगाया!
रात कट गई, सुबह
हो गई। अब मैं
निश्चिंत
जाता हूं। अब
न मेरी मृत्यु
है, अब न
मेरा अंत है, अब न कोई भय
है, अब न
कोई जंगल है।
एक
शराबी एक रात
लौटा। जब गया
था शराबघर तो
लालटेन लेकर
गया था। इस डर
से कि लौटते—लौटते
देर हो जाएगी
और अंधेरी रात
है। जब लौटा
तो अपनी
लालटेन उठाई
और चल पड़ा।
डगमगाते पैर, रास्ते
पर खड़ी भैंस
से टकरा गया, ट्रक से
टकरा गया, नाली
में गिर
पड़ा...बड़ा
हैरान! बीच—बीच
कभी—कभी झोंका
शराब का उतरे
थोड़ा तो खयाल
आए कि मामला क्या
है, लालटेन
मेरे हाथ में
है, तो मैं
टकराता क्यों
हूं? तो
रोशनी का हुआ
क्या? फिर
रोशनी का सार
क्या है? अपने
घर क्यों नहीं
पहुंच पाता
हूं? सुबह
किसी ने उसे
बेहोश वहां
पड़ा देखा तो
उठाकर घर
पहुंचाया।
दोपहर तक उसे
होश आया।
शराबघर
का मालिक
दोपहर आया
उसकी लालटेन
लेकर और शराबी
को कहा कि भाई, यह
लालटेन तुम
अपनी सम्हालो;
रात तुम भूल
से तोते का पिंजड़ा
उठा कर चल दिए!
अब बेहोश आदमी
को क्या पता—क्या
तोते का पिंजड़ा
है, क्या
लालटेन? तोते
का पिंजड़ा
उठाया होगा, समझ में आया
कि चलो लालटेन
उठा ली; चल
पड़ा। और तोते
के पिंजड़े
से रोशनी नहीं
मिलती।
जब तक
तुम
मूर्च्छित हो, तब
तक तुम्हारे
हाथों में
तोतों के पिंजड़े
हैं! फिर तुम
उन्हें चाहे
वेद कहो, गीता
कहो, धम्मपद
कहो, कुरान
कहो, जो
तुम्हें कहना
हो, मगर वे
तोते के पिंजड़े
हैं।
तुम्हारी
बेहोशी के
कारण
तुम्हारे हाथ में
लालटेन हो ही
नहीं सकती।
लालटेन हो तो
बेहोशी नहीं
हो सकती। और
फिर कोई
तुम्हें दे भी
दे...मैं
तुम्हें दीया दे
भी दूं और
समझो कि उस
गुरु जैसा बुझाऊं
भी न, तो भी
कितनी देर तुम
उस दीए को
सम्हाल सकोगे?
और एक
कहानी है।
एक झेन
फकीर विदा हो
रहा है। चलते
वक्त उसने कहा
कि रात अंधेरी
है,
क्या आप
मुझे लालटेन न
देंगे—अपने
मित्र को कहा।
मित्र ने
लालटेन दे दी,
वह चल पड़ा।
कोई दस कदम ही
गया होगा कि
किसी से टकरा
गया। अंधा है,
उसे दिखाई
नहीं पड़ता।
उसने उस दूसरे
आदमी से कहा
कि मेरे भाई, क्या तुम भी
अंधे हो? यह
मेरे हाथ की
लालटेन
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती? मैं
तो अंधा हूं, मुझे दिखाई
नहीं पड़ता कुछ—इसीलिए
तो लालटेन
लेकर चला कि
कम—से—कम
दूसरे को तो
दिखाई पड़ेगी।
कम—से—कम
दूसरा तो
मुझसे टकराने
से बच जाएगा।
तुम्हें क्या
हुआ? वह
आदमी हंसने
लगा। उसने कहा,
मैं अंधा
नहीं हूं, लेकिन
तुम्हारी
लालटेन बुझ गई
है!
अब
अंधे आदमी को
कैसे पता चले
कि उसकी
लालटेन बुझ गई
है! तुम्हारे
हाथ की गीता
कब की बुझ गई है, तुम्हें
पता है!
तुम्हारे हाथ
की कुरान कब
की बुझ गई है, तुम्हें पता
है! काश, तुम्हें
इतना ही पता
होता तो कुरान
और गीता की
जरूरत क्या
होती? तुम्हारे
भीतर का दीया
ही नहीं जल
रहा है।
मिट्टी
की देह है, यह
दीया है।
इसमें प्रेम
का रस अगर भरा
हो, तो तेल
है। इसलिए मैं
कहता हूं:
रसमय होओ, रासमय
होओ। नाचो, गाओ, उत्सव
मनाओ! क्योंकि
ऐसे ही
तुम्हारे पोर—पोर
से रस झरेगा
और तुम्हारा
दीया तेल से
भर जाएगा। और
फिर तुमसे
कहता हूं कि
ध्यान में
चकमक को रगड़ो।
होश को जगाओ। जागकर
देखो विचारों
को, जागकर देखो
वासनाओं को—छोड़ने
को तो मैं
कहता ही नहीं।
जो तुमसे
छोड़ने को कहे,
समझना कि
तुम जैसा ही
अंधा है।
अंधेरे को कोई
छोड़ने को के, तो समझ लेना
कि अंधा है।
अंधेरा छोड़ा
नहीं जाता, बस दीया जल
जाए, अंधेरा
छूट जाता है।
इसलिए
मैं तुमसे
त्याग करने को
नहीं कहता; त्याग
होना चाहिए।
अपने से होना
चाहिए। होगा ही।
अनिवार्य है।
अपरिहार्य
है। एक बार
तुम्हारे
भीतर बोध जग
जाए, त्याग
तो होगा ही।
बोध जग जाने
पर कौन कंकड़—पत्थरों
को पकड़े
बैठा रहेगा!
बोध जग जाने
पर कौन कचरे
को इकट्ठा
करेगा! बोध जग
जाने पर कौन पकड़ेगा
संसार को!
रहेगा भी
संसार में तो
कमलवत। रहेगा
पानी में और
पानी छुएगा
नहीं।
इसलिए
मैं तुमसे
त्याग करने को
नहीं कहता, छोड़ने
को नहीं कहता।
जो
तुमसे कहते
हैं,
वे तुम जैसे
अंधे हैं। और
तुम्हें उनकी
बात जंचती
है, क्योंकि
अंधों को
अंधों की भाषा
समझ में आती है।
गूंगों
को गूंगों
की भाषा समझ
में आती है।
बहरे एक—दूसरे
को इशारा कर
लेते हैं।
कठिनाई तो तब
होती है जब
आंख वाला
तुम्हारे बीच
होता है, क्योंकि
वह कुछ और
भाषा बोलता
है। किसी और
लोक की भाषा
बोलता है। ऐसे
तो तुम्हारी
ही भाषा बोलता
है, लेकिन
उसके अर्थ
इतने भिन्न
होते हैं कि
तुम चूक—चूक
जाते हो। या
तुम अपने अर्थ
समझ लेते हो
जो कि उसके
अर्थ नहीं
हैं। और
तुम्हारे
अर्थ अनर्थ कर
देते हैं।
दीया
मौजूद है, प्रेम
तुम्हारे रोएं—रोएं में
भरा है, लेकिन
सदियों से
धर्म तुम्हें
प्रेम के
विपरीत सिखा
रहे हैं।
प्रेम का
शत्रु बना रहे
हैं। सदियों
से धर्मों ने
जीवन का विरोध
किया है, निषेध
किया है।
उन्होंने
तुम्हारे
प्रेम के स्रोत
अवरुद्ध कर
दिए हैं।
उन्होंने
तुम्हारे
प्रेम की इतनी
निंदा की है
कि तुम सूख गए
हो। दीया ही
रह गया, झरने
बंद हैं।
मैं
चाहता हूं
तुम्हारे
झरने फिर खुलें।
इसलिए
मैं तुमसे फिर
प्रेम की बात
कर रहा हूं।
प्रेम के बिना
तुम कहीं भी
नहीं पहुंच
सकोगे। प्रेम
के बिना कोई
भक्ति नहीं है
और प्रेम के बिना
कोई भगवान
नहीं है।
प्रेम ही
प्रार्थना बनेगा
और प्रार्थना
ही अंतिम
अवस्था में परमात्मा
का अनुभव बनती
है। इसीलिए
प्रेम को पोर—पोर, रोएं—रोएं से
बहने दो; भरने
दो तुम्हारे
हृदय के दीए
को। प्रेम से
भर जाओ! इसलिए
कहता हूं: समय
होओ, रसमय
होओ। इसलिए
निरंतर
दोहराता हूं: रसो वै सः।
वह परमात्मा रसरूप है, तुम भी रसरूप
होओ। इसलिए
कहता हूं:
जीवन से भागो
मत, जीवन
के अवसर का
उपयोग कर लो।
नहीं
कहता तुमसे:
पत्नी को छोड़ो, बल्कि
कहता हूं:
इतना प्रेम
करो कि पत्नी
में परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगे। नहीं
कहता: पति को छोड़ो; इतना
प्रेम करो कि
पति में
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगे। प्रेम
जैसे गहरा
होता है, वहीं
परमात्मा की
झलक आनी शुरू
हो जाती है।
है ही नहीं
परमात्मा कुछ
और सिवाय
प्रेम की गहरी
झलक के, प्रेम
की गहरी लपट
के। बच्चों को
छोड़ कर मत भागो!
उनकी आंखों
में झांको!
वहां अभी
परमात्मा ज्यादा
ताजा है। अभी
वहां धूल नहीं
जमी। अभी बच्चे
सूख नहीं गए
हैं; अभी
रसपूर्ण हैं।
उनसे कुछ
सीखो!
बच्चों
को सिखाओ
ही
मत...क्योंकि
तुम सिखाओगे
क्या? सिखाओगे धन—पैसा
जोड़ना, पद—प्रतिष्ठा
के लिए लड़ना। सिखाओगेर्
ईष्या, वैमनस्य।
सिखाओगे
गणित, हिसाब,
चालबाजियां। बच्चे को
तुम सिखाओगे
क्या?
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने बच्चे
से कहा कि
बेटा, यह सीढ़ी
रखी है, इस
पर चढ़ जा! उसने
कहा, क्यों
पाप? नसरुद्दीन ने कहा, कुछ
पाठ पढ़ाना
है, बेटा!
किस बात का
पाठ, बेटे
ने पूछा। नसरुद्दीन
ने कहा, राजनीति
का पाठ पढ़ाना
है। मैं
राजनीति हूं,
चाहता हूं
तू भी अपनी
जिंदगी में
राजनीतिक बन।
क्योंकि जो
मजा राजनीति
में है, वह
मजा कहीं भी
नहीं। दिल्ली
पहुंच कर रहना—यह
लक्ष्य! कोई
चीज विघ्न—बाधा
न बने। एक पाठ
तुझे देता
हूं। यह
दिल्ली पहुंचने
में काम आएगा।
बेटा सीढ़ियां
चढ़ गया। कोई
दस फीट ऊपर
पहुंच गया तब नसरुद्दीन
ने कहा, आ, छलांग
लगा ले! दोनों
हाथ नसरुद्दीन
ने फैलाए।
बेटा थोड़ा
डरा! दस फीट
ऊंचाई से
कूदना, कहीं
चूक जाए, इधर—उधर
हो जाए, हाथ
पैर टूट जाएं! नसरुद्दीन
ने कहा, अरे,
डरता क्या?
मैं तेरा
बाप तुझे
सम्हालने को
तत्पर खड़ा हुआ
हूं। कूद जा!
कूद जा, बेटा,
श्रद्धा रख!
और जब
बाप ने बहुत
कहा तो बेटा
कूद गया। और
जैसे ही बेटा
कूदा, नसरुद्दीन दो कदम हट कर
खड़ा हो गया। धड़ाम से
बेटा नीचे
गिरा, घुटने
छिल गए, रोने
लगा; नसरुद्दीन ने कहा, चुप
हो, पहले
पाठ सीख ले!
उसके बेटे ने
कहा, यह
किस तरह का
पाठ है? आपने
मुझे धोखा
दिया। कहा सम्हालेंगे,
सम्हाला
नहीं। नसरुद्दीन
ने कहा, यही
पाठ दे रहा
हूं, बेटा,
कि राजनीति
में अपने बाप
का भी भरोसा
मत करना। इसको
गांठ बांध ले।
अगर दिल्ली
पहुंचना है, तो खयाल
रखना, राजनीति
में अपने बाप
का भी भरोसा
मत करना। भरोसा
ही मत करना!
संदेह को सजग
रखना।
तुम सिखाओगे
क्या बच्चों
को?
वही सिखाओगे
जो तुम जानते
हो। तुम जानते
क्या हो? तुम्हारे
अनुभव की सार—संपदा
क्या है? कुछ
भी तो नहीं! एक
रिक्तता हो
तुम। एक
अर्थहीनता हो
तुम। विषाद से
भरी हैं
तुम्हारी
आंखें। थोथेपन
से भरा है
तुम्हारा
हृदय। न जीवन
में कुछ महान
जाना, न
विराट
पहचाना।
क्षुद्र ही
तुम्हारा
जीवन रहा है।
समुद्र के
किनारे शंख—सीप
बीनते रहे।
डुबकी तो मारी
नहीं समुद्र
में भय के कारण।
मोती तो तलाशे
नहीं। अपने को
भरमाए
रखा किनारे पर
ही, नाव
कभी छोड़ी
नहीं।
क्योंकि
तूफान के भय
थे और दूसरे
किनारे का कोई
भरोसा न था।
इसी कीचड़ में
रहे; सिखाओगे क्या? बच्चे
से कुछ सीखो!
अच्छी
दुनिया होगी
तो हम बच्चे
को सिखाएंगे
कम,
उससे
सीखेंगे
ज्यादा। और जो
सिखाएंगे,
वे उसे सजग
करके सिखाएंगे
कि ये दो कौड़ी
की बातें हैं—कामचलाऊ
हैं, उपयोगी
हैं तेरी
जिंदगी में, रोटी—रोजी
कमाने में
सहयोगी होंगी,
इनसे
आजीविका मिल
जाएगी, इनसे
जीवन नहीं
मिलता। और हम
बच्चे से
सीखेंगे जीवन।
उसकी आंखों
में झलकता हुआ
प्रेम, आश्चर्यचकित
विमुग्ध भाव।
बच्चे की अवाक
हो जाने की
क्षमता। छोटी—छोटी
चीजों से
ध्यानमग्न हो
जाने की कला।
एक तितली के
पीछे ही दौड़
पड़ा तो सारा
जगत भूल जाता है,
ऐसा उसका
चित्त एकाग्र
हो जाता है।
एक फूल को ही
देखता है तो
ठिठका रह जाता
है। भरोसा
नहीं आता।
इतना सौंदर्य
भी इस जगत में
हो सकता है!
इसीलिए तो
बच्चे पूछे जाते
हैं, प्रश्नों
पर प्रश्न
पूछे जाते हैं;
थका देंगे
तुम्हें, इतने
प्रश्न पूछते
हैं। उनके
प्रश्नों का
कोई अंत नहीं।
क्योंकि उनकी
जिज्ञासा का
कोई अंत नहीं।
उनकी मुमुक्षा
का कोई अंत
नहीं। जानने
की कैसी
अभीप्सा है! अगर
हम में समझ हो,
तो हम
बच्चों से
उनकी सरलता
सीखेंगे, उनका
प्रेम
सीखेंगे, उनका
निर्दोष—भाव
सीखेंगे, उनकी
आश्चर्यविमुग्ध
होने की
क्षमता और
पात्रता
सीखेंगे। तब
शायद तुम्हारा
हृदय भरने लगे
एक नए रस से।
तुम भी शायद
नाच सको छोटे
बच्चों के
साथ। तुम भी
शायद खेल सको
छोटे बच्चों
की भांति।
तुम्हारे
जीवन में भी
एक लीला प्रकट
हो। परमेश्वर
लीलामय है, तुम भी थोड़े
लीलामय हो जाओ
तो उसकी भाषा
समझ में आए, उससे सेतु
बने, उससे
थोड़ा संबंध
जुड़े, उससे
थोड़ी गांठ
बंधे।
इसलिए
कहता हूं, रसमय
होओ। रसमय होओ
अर्थात
प्रेममय होओ;
प्रीतिमय
होओ। इसलिए
कहता हूं, रासमय
होओ। चांदत्तारे
नाच रहे हैं, पशु—पक्षी
नाच रहे हैं, पृथ्वी, ग्रह—उपग्रह
नाच रहे हैं, सारा
अस्तित्व नाच
रहा है। एक
तुम क्यों खड़े
हो उदास? क्यों
अलग—थलग? क्यों
अपने को अजनबी
बना रखा है? क्यों तोड़
लिया है अपने
को इस विराट
अस्तित्व से?
किस अहंकार
में अकड़े
हो? कैसी जड़ता? झुको!
अर्पित होओ!
अस्तित्व से गलबहियां
लो! अस्तित्व
को आलिंगन
करो! नाचो
इसके साथ!
जब मेघ घिरें और
मोर नाचने लगे, तब
बैठ कर अखबार
मत पढ़ते रहो!
और जब दूर
जंगल में कोई
चरवाहा अलगोजा
बजाने लगे, तो तुम्हारे
भीतर कुछ नहीं
बजता? कुछ
बजता ही नहीं!
तुम जीवित हो
या मर गए हो! यह
कैसा जीवन है?
जब कोई तार छेड़ देता
है सितार के, तुम्हारी हृदयतंत्री
में कुछ नहीं छिड़ता? तुम
वैसे ही खड़े
रह जाते हो? रूखे—सूखे; दूर—दूर।
थोड़े
काव्यमय होओ, थोड़े
संगीतमय होओ,
थोड़े उत्सवमय
होओ। इसे मैं
धर्म कहता
हूं। धर्म की
मेरी परिभाषा
है: उत्सव।
धर्म की मेरी
परिभाषा है:
आनंद की
क्षमता। मैं
नहीं कहता कि
धर्म की परिभाषा
में ईश्वर की
मान्यता
जरूरी है।
नहीं है, बिलकुल
जरूरी नहीं
है। ईश्वर तो
धर्म का अंतिम
अनुभव है; उसको
हम प्राथमिक
जरूरत कैसे
बना सकते हैं?
वह तो
निष्कर्ष है।
और लोग ऐसे
अजीब हैं कि
निष्कर्ष को
पहले ही कहते
हैं मानो।
कहते हैं, ईश्वर
को मान कर चलो
तो तुम
धार्मिक हो।
मैं कता हूं; तुम धार्मिक
हो। मैं कहता
हूं: तुम
धार्मिक होओ
तो एक दिन
ईश्वर प्रकट
होगा और तुम्हें
उसे मानना ही
होगा। मैं
कहता हूं, नास्तिक
हो, चलेगा।
चल पड़ो!
आस्तिक
आएं,
नास्तिक
आएं; मानने
वाले आएं, न
मानने वाले
आएं; मानने
न मानने से
कोई भेद नहीं
पड़ता, अप्रासांगिक है यह बात यह
तो अंतिम
निष्कर्ष में
जब प्रकट होता
है विराट, तो
क्या करोगे? उस वक्त
अपनी
आस्तिकता बचाओगे?
उस वक्त
अपने क्षुद्र
कोने—कांतर
में छिपे हुए
व्यर्थ के
सिद्धांत बचाओगे?
जब आकाश तुम
पर टूट पड़ेगा,
तो
तुम्हारे
आंगन को कहां बचाओगे? जब सागर
तुम्हें
खोजता चला
आएगा, तो
अपनी बूंद को
बचकर भागोगे
कहां! नहीं
कोई भाग सकता
है फिर।
लेकिन
लोग कहते हैं:
पहले ईश्वर को
मानो!
धर्म
की परिभाषा
में मैं ईश्वर
की कोई जगह ही नहीं
मानता। ईश्वर
हो या न हो, इससे
कुछ लेना—देना
नहीं है, रस
हो! रस हो तो
ईश्वर एक दिन
होकर रहेगा।
रस की धारा एक
दिन उसके सागर
तक पहुंच ही
जाती है। खूब
रस हो।
इसलिए
मैं एक जीवन—विधायक
धर्म तुम्हें
दे रहा हूं।
यह जीवन—निषेधक
धर्म नहीं है।
इसमें उपवास
पर जोर नहीं
है,
इसमें
उत्सव पर जोर
है। हां, अगर
तुम्हें
उपवास में भी
आनंद आता हो, तो मुझे कोई
एतराज नहीं।
अगर उपवास भी
तुम्हारा
उत्सव बन सकता
है, अगर
उपवास
तुम्हें नाच
देता हो, तो
मुझे स्वीकार
है।
समग्ररूपेण
स्वीकार है।
लेकिन उपवास
अगर तुम्हें
सताता हो और सताने को
तुम धर्म
समझते होओ तो
तुम बड़ी भूल
में हो। परमात्मा
पागल नहीं है
और परमात्मा
कोई दुष्ट
नहीं है और
परमात्मा को
आततायी नहीं
है कि तुम
अपने को सताओगे
तो वह प्रसन्न
होगा।
तुम्हारी
प्रसन्नता
में प्रसन्न
होगा।
तुम्हारे
अहोभाव में
आह्लादित
होगा। यह
अस्तित्व जब
तुम रस से भरते
हो तो खूब
आह्लादित
होता है।
अभी तो
वैज्ञानिक इन
निष्कर्षों
पर पहुंचे हैं
कि अगर कोई
आनंदमग्न
होकर वृक्षों
के पास बांसुरी
बजाए या
सितार छेड़
दे,
तो वृक्ष
में ज्यादा
फूल आ जाते
हैं। ज्यादा
फूल! फल जल्दी
लग जाते हैं—समय
के पहले—और
जल्दी पक जाते
हैं और ज्यादा
सुस्वादु होते
हैं। अब यह
वैज्ञानिक
शोध है। यह
मैं कोई कविता
की और कवियों
की बात नहीं
कर रहा हूं।
अब तो
वैज्ञानिक
समर्थन बड़े
प्रमाण में
मिल रहा है।
जब तुम गाय को
दुह रहे हो, अगर उसके
आसपास मधुर
संगीत बजाया
जाए, ज्यादा
दूध दे देती
है। दुनिया के
अलग—अलग कोनों
में प्रयोग
किए जा रहे
हैं।
एक साथ
बीज बोए गए।
आधे खेत को
संगीत सुनाया
गया,
आधे खेत को
संगीत नहीं
सुनाया गया।
दोनों को बराबर
खाद दी गई, बराबर
पानी, बराबर
धूप, सब
तरह से सब
बराबर। सिर्फ
एक भेद—आधे को
संगीत सुनाया
गया, आधे
को संगीत
नहीं। जिस
हिस्से को
संगीत सुनाया
गया, उसके
पौधे दुगुने
बड़े हुए और
उसके फल
दुगुने बड़े
हुए। और जल्दी
पौधे बढ़े और
जल्दी फल आए।
ज्यादा फल आए।
और ज्यादा
रसपूर्ण थे।
पौधे भी संगीत
की भाषा समझते
हैं। तो
परमात्मा न
समझेगा! पत्थर
समझते हैं। तो
परमात्मा न
समझेगा!
तुम
अगर रसमय हो
तो परमात्मा
तुम्हारी तरफ
बहने लगता है।
तुम में असमय
आने शुरू हो
जाएंगे, तुम्हारे
जीवन में नए—नए
पत्ते ऊग
आएंगे, खूब
हरियाली हो
जाएगी। फल
लगेंगे, फूल
लगेंगे। एक तृप्ती
तुम्हें घेर लेगी।
एक परितोष
तुम्हारे
चारों तरफ छा
जाएगा। तुम
पहली दफा
जानोगे संतोष
का अर्थ। सुना
तो तुमने बहुत
है, मगर वह
सब बकवास है
जो तुमने सुना
है। जिसको तुम
संतोष कहते हो,
वह संतोष
नहीं है; वह
तो मन को समझा
लेना है। वह
तो वैसे ही है
जैसे लोमड़ी
नहीं पहुंच
सकी अंगूरों
तक तो कहती
हुई चली गई कि
अंगूर खट्टे
हैं। तुम्हारा
संतोष बस ऐसा
ही है जैसे, अंगूर खट्टे
हैं! यह कोई
संतोष नहीं
है।
चाहते
तो तुम भी हो
कि धन बहुत
होना, मगर
नहीं है।
चेष्टा भी की
थी, मगर
नहीं पा सके।
अकेले ही थोड़े
धन पाने चले हो,
और करोड़ों
लोग लगे हैं
इस धन की दौड़
में। यह कोई
सामान्य झंझट
नहीं है। बड़ी
स्पर्धा है। गलाघोंट
प्रतियोगिता
है। तुम हार
गए, धक्के
दे निकाल दिए
गए, चारों
खाने चित कर
दिए गए। चारों—खाने
चित पड़े हो और
कह रहे हो:
संतोष है!
हमें चाहिए ही
नहीं। हमें
कुछ नहीं
चाहिए। हम तो
अपनी धूल में
बड़े मस्त हैं।
हमें सिंहासन
चाहिए ही
नहीं। यह
सिर्फ अपने को
सांत्वना देना
है, यह
संतोष नहीं
है।
तुम
मुर्दा हो, तुम्हारे
साथ बड़े—बड़े
सिद्धांत तक
मुर्दा हो गए।
तुम्हारे हाथ में
सोना पड़ जाए
तो मिट्टी हो
जाता है। तुम
भी गजब के
जादूगर हो!
संतोष तो तब
है जब
तुम्हारे
भीतर फूल लगें,
फल लगें; तुम्हारा
जीवन
अभिव्यक्त हो,
अपनी समग्र
संभावनाओं को
प्रकट करने
में समर्थ हो।
तुम जो गीत
गाने आए थे, गा सको; तुम
जो नृत्य
नाचने आए थे, नाच सको। तब
एक संतोष
उपजता है।
लाना नहीं पड़ता,
थोपना नहीं
पड़ता, आरोपण
नहीं करना
होता। उठना है
तुम्हारे
भीतर। जागता
है तुम्हारे
भीतर। घेर
लेता है
तुम्हें। बह
उठता है
तुम्हारे
चारों तरफ।
तुम उसमें डूब
जाते हो। उस
संतोष को पाने
के लिए जीवन
को रसमय बनाना
होगा, रासमय बनाना
होगा। छोड़ो
न कोई भी अवसर
नृत्य का, गीत
का, रस का, आनंद का। इसलिए
कहता हूं:
रसमय होओ, रासमय
होओ। यह दूसरा
कदम हुआ।
तुम्हारे
भीतर प्रीति
भर जाए, तो
तुम तेल से भर
गए।
फिर
तीसरा उपाय, ध्यान।
तीसरा चरण।
देह तो मिली
प्रकृति से। प्रेम
को तुम्हें
सीखना होगा
कला की तरह।
और फिर ध्यान
का विज्ञान
है। कैसे चकमक
को रगड़ो? कैसे चकमक
की रगड़ से
ज्योति पैदा
हो जाए, दीया
जल उठे?
साक्षी
उसकी
प्रक्रिया
है। विचार को
देखो, वासना
को देखो, कामना
को देखो—लड़ो
मत, सिर्फ
देखो! शांत
भाव से बैठकर
देखते रहो।
देखते—देखते—सिर्फ
देखते—देखते
सिर्फ साक्षी
बनते—बनते—ऐसी
अग्नि
प्रज्वलित
होती है कि
भभक उठता है
दीया।
बुद्ध
ने कहा साध्य, मैं
तुमसे कह रहा
हूं साधन। और
बिना साधन के
साध्य की बात
का कोई अर्थ
नहीं है।
दोहराते रहो: अप्प दीपो
भव, अपने
दीए खुद बनो, दोहराते रहो;
लिख लो छाती
पर: अपने दीए
खुद बनो, एक
दीया भी बना
लो, छपवा लो, गुदवा लो, मगर
उस दीए से
रोशनी नहीं
होगी। अप्प
दीपो भव
दोहराते रहो,
दोहराने से
कुछ हल नहीं
होने वाला है।
कल
की बातें भूल
भी जाओ आज का
जश्न मनाओ
कल
की बातें दुख
का कारण, कल
की बातें जहर
का प्याला
कल
की बातों के
चक्कर ने
अनहोनी के फेर
में डाला
अनहोनी
के फेर से
निकलो गए समय
पर मत पछताओ
कल
की बातें भूल
भी जाओ आज का
जश्न मनाओ
कल
जो रात था
सपना देखा उसे
न समझो जीवन
मती
आज
के सुंदर
सपनों से तुम करियो
निसदिन प्रीत
कल
के झूठे सपनों
में मत खोकर
उम्र गंवाओ
कल
की बातें भूल
भी जाओ आज का
जश्न मनाओ
आज
की माया आज की
बातें जीवन
बगिया की
सौगात
आज
के दुखड़े
आज रहेंगे कल
को खो जाएंगे
मात
आज
अटल है आज के
काम को आज ही
तुम निबटाओ
कल
की बातें भूल
भी जाओ, आज
का जश्न मनाओ
चित्त, मन
कल में जीता
है। बीत गया
कल, उसमें
और आने वाला
कल, उसमें।
ये दो
तुम्हारे
भीतर साक्षी
को जगने नहीं
देते, ये
दो कल, इन दो कलों
के पाट में।
तुम पिसते हो।
न तो पीछे के
कल को बहुत मूल्य
दो, न आने
वाले कल को
बहुत मूल्य दो,
यह वर्तमान
का क्षण अभी
और यहीं, झकझोर
कर अपने को
जगा लो।
एक
सूफी फकीर
अपने शिष्यों
को कहा करता
था: चटकाओ
हाथ,
मारो चांटा
चेहरे पर और जागो अभी!
जैसे सोते से
उठता हुआ आदमी
अंगड़ाई लेता
है, अंगुलियां चटकाता...वह
फकीर ठीक कहता
था: चटकाओ
हाथ, लो
अंगड़ाई, न
चले इतने से
काम तो मारो
एक चांटा भी
अपने चेहरे पर,
झकझोरो और जागो!
तो फिर न
कहोगे कि चित
चकमक लागै
नहीं। लग ही
जाएगी; फिर
कैसे कहोगे? फिर चकमक
रगड़ खा गई!
जो दो चक्कियां
तुम्हें
पीसती थीं, वे
ही दो चक्कियां
चकमक बन जाती
हैं।
तुम्हारे
साक्षी बनते
ही यह क्रांति
घटती है। जिन चक्कियों
में लोग पिस
रहे हैं, उन्हें
चक्कियों
को रगड़ कर लोग
बुद्ध हो गए
हैं। चक्कियां
तो वही हैं, अवसर तो वही
है, जीवन
वही है, सिर्फ
उनके उपयोग
करने के ढंग
अलग—अलग।
जाओ
नया सवेरा लाओ
अंधियारे
में कब तक
बैठे मन बहलाओगे
कब
तक सूखे
पत्तों से ये
महल सजाओगे
पतझड़
आखिर बीतेगी
सावन रुत आएगी
जीवन
की शाखों पर
कोयल झूम के गाएगी
तुम
भी अपने सोग मिटाओ
चुप
के सब बंधन बिसराओ
गाओ
गीत मिलन के
गाओ
जाओ
नया सवेरा लाओ
पतझड़ की रूखी
रूत्त ने
बेदर्द किया
है तुमको
सूखे
पत्ते के संग
इसने जर्द
किया है तुमको
ये
जर्दी मिट
जाएगी जब फूल
खिलेंगे हर सू
फुलवारी
में नाचेगी
फिर मस्त
मनोहर खुश्बू
छोड़ो भी
वो रात की
बातें
भूल
भी जाओ जलती
रातें
प्रेम
अमर की जोत
जगाओ
जाओ
नया सवेरा लाओ
आत्मा
को दीया तो
बनाना है
लेकिन प्रेम
का दीया बनाना
है।
प्रेम
अमर की जोत
जगाओ
जाओ
नया सवेरा लाओ
और
जाना कहां है? तुम
प्रेम की
ज्योति जगाओ,
सवेरा अपने—आप
चला जाता है, तुम्हें
तलाशता चला
आता है।
नरेंद्र, बुद्ध
साध्य की बात
कर रहे हैं, मैं साधन
की। दोनों में
एक ही सत्य की
अभिव्यक्ति
है। लेकिन
भिन्न—भिन्न
आयामों से। और
बिना साधन के
साध्य का कोई
अर्थ नहीं है।
साधन है तो
साध्य तक तो
पहुंच जाओगे।
मार्ग है तो
मंजिल तक
पहुंच जाओगे।
मंजिल की बात
चलती रहे और
मार्ग का कुछ
पता न हो, तो
बस बात—ही—बात
हाथ में रह
जाएगी, पहुंचोगे
नहीं। इसलिए
मंजिल को भूल
भी जाओ तो
चलेगा, मार्ग
को मत भूलना।
साध्य
विस्मृत करो,
क्षमा हो
सकता है। साधन
को विस्मृत मत
करना!
इसलिए
धर्म की मौलिक
आधारशिला
साधन है। इसलिए
तो धर्म को
साधना कहते
हैं। साधना
यानी साधन।
यदि साधन सम्यकरूपेण
हमारे हाथ में
है,
तो साध्य तो
फलेगा—फलेगा
ही! उसके फलने—न
फलने की
तुम्हें
चिंता करने की
जरूरत ही नहीं
है। अगर तुमने
खाद ठीक दिया
और पानी समय
पर दिया और
धूप पहुंचने
दी और बीज ऋतु
आने पर बोए, तो ठीक समय
पर अंकुर निकल
ही आएंगे। फिर
बागुड़
लगा देना, ताकि
कोई कोमल
अंकुरों को
नष्ट न कर दे।
और बागुड़
भी थोड़े दिन
के लिए। जैसे
ही वृक्ष बड़े
हो जाएंगे, अपनी रक्षा
करने में खुद
समर्थ हो
जाएंगे, फिर
बागुड़ भी
हटा लेना।
साधन सम्यक हो,
नए—नए अंकुर
जब जीवन में
तुम्हारे
चेतना के उठें,
तो सुरक्षा
करना।
संन्यास
दोनों ही काम
करने में
समर्थ है। संन्यास
तुम्हें साधन
देता है कि
क्या करो और
संन्यास
तुम्हें उपाय
देता कि कैसे
जब नए अंकुर
आएं तो उन्हें
बचाओ। फिर एक
घड़ी आती है जब
न बचाने की
कोई जरूरत रह
जाती है, न खाद—पानी
की कोई चिंता
लेनी पड़ती है,
वृक्ष बड़ा
हो गया, उसकी
जड़ें दूर
पाताल तक
पहुंच गई, उसकी
शाखाएं चांदत्तारों
से बात करने
लगीं, अब
वह अपने ही बल
पर काफी है।
अब तुम्हें
उसकी कोई
चिंता नहीं
लेनी पड़ती। अब
तुम निश्चिंत
बैठ सकते हो।
इस अवस्था का
नाम ही
बुद्धत्व है।
जब साधना की
कोई जरूरत न
रही और तुम सिद्धावस्था
को उपलब्ध हो
गए।
बनना
है,
अपने दीए
जरूर बनना है।
लेकिन कैसे बनोगे? प्रीति
का जितना
संग्रह कर सको,
उतना शुभ!
और ध्यान की
चकमक को जितना
रगड़ सको, उतना
कल्याणकारी!
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, मैं
वर्षों से
संतों की वाणी
के अध्ययन—मनन
में लीन रहा
हूं, पर
अभी तक कहीं
पहुंचा नहीं।
और संत तो
कहते हैं कि
सत्संग क्षण
में पहुंचा
देता है।
हरिदेव, सत्संग
क्षण में
पहुंचा देता
है, संत
ठीक कहते हैं।
मगर अध्ययन—मनन
सत्संग है, यह किस संत
ने तुमसे कहा
है? अध्ययन—मनन
तो सत्संग से
बचने का उपाय
है। अध्ययन—मनन
का अर्थ है, किताब से ही
काम चला लेंगे,
जीवित गुरु
के पास क्यों
जाएं?
किताब
के साथ एक
सुविधा है, जब
दिल हो खोलो,
जब दिल हो
बंद कर दो।
कभी गुस्सा आ
जाए, फेंक
दो। कभी पूजा
आ जाए, फूल
चढ़ा दो। कभी
मन न हो तो
महीनों न खोलों—धूल
जमने दो। कभी
मन हो जाए तो
रोज—रोज खोलकर
बैठो। किताब
तुम्हारे हाथ
में है, तुम
किताब के हाथ
में नहीं। तुम
जो चाहो किताब
के साथ कर
सकते हो, किताब
तुम्हारे साथ
क्या कर सकती
है?
फिर
जैसे अर्थ
तुम्हें
लगाने हों
किताब के वैसे
अर्थ लगाओ।
कौन रोक सकता
है?
किताब यह तो
नहीं कह सकती
कि ठहरो भाई, यह मेरा
अर्थ नहीं।
किताब तो कुछ
बोल नहीं सकती।
किताब है क्या?
कागज पर
खींची गई स्याही
की लकीरें।
अर्थ कौन देगा?
अर्थ तो तुम
दोगे न!
समझो।
तुम्हारी
गीता रखी है
और एक चींटा
गीता पर चल रहा
है। उसको तो
कुछ गीता का
पता नहीं
चलेगा कि
कृष्ण भगवान
अर्जुन से
क्या कह रहे
हैं! वहीं—वहीं
चल रहा है। और
तुम उसे फेंक
दो वहां से, हटा
दो, तो
चींटे बड़े जिद्दी
होते हैं, हठयोगी
होते हैं, जहां
से भगाओ वहीं
लौटकर वापस
आते हैं, तो
तुम यह मत
समझना कि इसका
बड़ा लगाव, बड़ी
आसक्ति है
गीता से। कि
देखो मैं फेंक
देता हूं, यह
वापस वहीं लौट
आता है।...वहीं
भगवान उवाच के
आसपास चक्कर
मारता है। मगर
चींटे को कुछ
पता नहीं कि
यहां क्या है।
उसे तो यह भी
पता नहीं कि
यह किताब है।
मगर चींटे पर
मत हंसो।
अगर तुम अरबी
नहीं जानते तो
कुरान
तुम्हारे लिए
क्या है? और
अगर तुम
संस्कृत नहीं
जानते तो
उपनिषद तुम्हारे
लिए क्या हैं?
कुछ अर्थ
उनमें नहीं रह
गया! अर्थ तो
हम डालते हैं।
फिर
तुम जब पढ़ते हो
कोई किताब, तो
क्या पढ़ते हो?
क्या तुम
वही पढ़ सकते
हो जो कहा गया
है? असंभव!
गीता कही गई
पांच हजार साल
पहले। पांच हजार
साल में सब
कुछ बदल गया।
सब कुछ बदल
गया! कुछ भी
वही नहीं है।
पांच हजार साल
पहले जिनको गीता
कही गई थी, वे
लोग और थे, उनके
सोचने—समझने
के, जानने—मानने
के ढंग और थे, उनके जीवन
की शैली और
थी। तुम्हारी
जीवन—शैली से
उस जीवनशैली
का कोई नाता
नहीं है।
क्या
तुम सोचते हो, आज
तुम्हें
कृष्ण मिल
जाएं तो फिर
वही गीता कहेंगे,
कि हे
अर्जुन! तूने
गांडीव क्यों
छोड़ दिया? पहले
तो वह भी चौंकेंगे
कि गांडीव है
कहां, छोड़ोगे कहां से!
थोड़ा चौंकेंगे
कृष्ण भी कि
रथ कहां है? हाथी—घोड़े
कहां हैं? कौरव—पांडव
कहां हैं? और
अर्जुन, कान
में कलम लगाए
स्टेशन पर
टिकटें बांट
रहे हैं! कि
किसी दफ्तर
में फाइलों
में आंखें गड़ाए
बार—बार नाक
पर चश्मा सरका
रहे हैं! ऐसे
अर्जुन को देख
कर कृष्ण भी
थोड़े हैरान
होंगे कि हे
अर्जुन! तुझे
क्या हो गया? नाक पर
चश्मा! अरे, क्षत्रिय
होकर! स्वधर्मे
निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः! यह
तू क्या कर
रहा है? परधर्म?
नाक पर
चश्मा सरका
रहा है? कान
में कलम लगाए
बैठा है? तेरे
स्वधर्म का
क्या हुआ? और
अर्जुन भी
कहेंगे, महाराज,
होश में आओ!
कहां की बातें
कर रहे हो! किन
दिनों की
बातें कर रहे
हो!
पांच
हजार साल में
भाषा के भी
अर्थ बदल गए।
शब्द भी बड़ी
यात्रा करते
हैं।
सम्मानित
शब्द अपमानित
हो जाते हैं, अपमानित
शब्द
सम्मानित हो
जाते हैं।
घूरों के भी
दिन फिरते
हैं! शब्दों
में नए—नए
अर्थ लगते
जाते हैं जैसे
समय बढ़ता है।
पुराने अर्थ
धीरे—धीरे खो
जाते हैं।
शब्दों का कोई
अपना अर्थ तो
होता नहीं, समय के
अनुकूल
शब्दों को
अर्थ लेने
पड़ते हैं।
तुम
क्या अर्थ
लगाओगे गीता
जब तुम पढ़ोगे? हरिदेव,
अध्ययन—मनन
में क्या
करोगे? तुम
अपने अर्थ बिठाओगे,
जो वहां
नहीं हैं। और
तुम दूसरे
अर्थ बिठा भी
नहीं सकते, क्योंकि वे
दूसरे अर्थ
तुम में नहीं
हैं। कृष्ण को
समझना हो तो
कृष्ण जैसी
चेतना चाहिए।
उससे कम में
काम नहीं
चलेगा। बुद्ध
को समझना हो तो
बुद्ध जैसी
चेतना चाहिए।
उससे कम में
काम नहीं
चलेगा। बुद्ध
के वचनों में
बुद्ध नहीं
हैं, बुद्ध
के चैतन्य में
बुद्ध हैं। उस
चैतन्य से शब्द
निकले, तो
उनमें बुद्ध
की ध्वनि है।
लेकिन तुम तक
जब पहुंचेंगे
तो उनकी बुद्ध—ध्वनि
तो खो जाएगी, तुम्हारी
ध्वनि
समाविष्ट हो
जाएगी। बुद्ध
ने जो कहा था, वह तुम नहीं सुनोगे।
तुम जो सुन
सकते हो, वही
सुनोगे।
तुम जो अर्थ
पकड़ सकते हो, वही पकड़ोगे।
अध्ययन—मनन
से सत्य तक
नहीं पहुंचा
जाता। हां, पंडित
हो सकते हो।
प्रज्ञावान
नहीं। बौद्धिकता
आ जाएगी, बुद्धत्व
नहीं। खूब
जानकारी बढ़
जाएगी, मगर
ज्ञान की तो
बूंद भी न
आएगी।
किताबें तो ऐसी
हैं जैसे सूखे
हुए फूल। न अब
उनमें गंध है,
न उनमें रस
है। सूखे फूल
शायद आदमियों
को धोखा दे
दें, लेकिन
सूखे फूल रख
दो तो मधुमक्खियां
उनके ऊपर भिन—भिन करके नाचेंगी
नहीं। भंवरे
आकर गीत न गाएंगे।
तुम भंवरों
को धोखा नहीं
दे सकते।
सम्राट
सोलोमन के
जीवन में यह
कहानी है।
सोलोमन
दुनिया के थोड़े
से ज्ञानियों
में एक ज्ञानी
हुआ। जनक जैसा
आदमी रहा
होगा।
सिंहासन पर
बैठे—बैठे परम
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ।
उसकी बड़ी ख्याति
फैल गई थी—आज
भी मिटी नहीं
है। और ऐसा ही
नहीं है
कि...सोलोमन तो
यहूदी
था...यहूदियों
में ही उसकी
ख्याति रही हो, उसकी
ख्याति दूर—दिगंत
तक फैल गई है।
दुनिया के
कोने—कोने में
हर जाति में
इस तरह की
कहावतें हैं—भारत
में भी। लोग, अगर कोई
बहुत
बुद्धिमानी
बताता हो तो
उससे कहते
हैं: बड़े
सुलेमान बने
हैं! वह
सुलेमान जो कह
रहा है, वह
सोलोमन की तरफ
इशारा कर रहा
है। उसे पता
भी न हो कि
उसकी भाषा में
आते—आते
सोलोमन
सुलेमान हो
गए। मगर वह भी
कहता है कि
बड़े सुलेमान
के बच्चे! न—मालूम
क्या समझ रखा
है अपने को?
सोलोमन
की बड़ी ख्याति
थी,
उसकी
बुद्धिमत्ता
की। इथोपिया
की रानी उसकी परीक्षा
लेने गई। उसने
अपने दोनों
हाथों में फूल
ले रखे थे।
उसने बड़े—बड़े
कलाकार बुलाकर
नकली फूल
बनवाए थे—नकली
गुलाब के फूल।
एक हाथ में
नकली फूल, एक
हाथ में असली
फूल, वह
सोलोमन के
दरबार में
उपस्थित हुई
और उसने सोलोमन
से कहा कि हे
सम्राट, मैंने
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
की बहुत खबरें
सुनी हैं, क्या
तुम बता सकते
हो मेरे किस
हाथ में असली
फूल हैं और
किस हाथ में
नकली? सोलोमन
ने एक क्षण
गौर से देखा
और समझ गया कि
झंझट की बात
है। दोनों फूल
एक—जैसे मालूम
होते थे। सच
तो यह था कि
नकली असली से
भी अच्छा
मालूम हो रहा
था। खूब सजाया
गया था।
सोलोमन ने
कहा: मैं जरा
बूढ़ा हो गया, मेरी आंखें
भी कमजोर हो
गईं, जरा
द्वार—दरवाजे
खोल दो, ताकि
रोशनी आए, मैं
ठीक से देख
सकूं।
द्वार—दरवाजे
खोल दिए गए और
वह गौर से
देखता रहा और
फिर उसने कहा:
तेरे बाएं हाथ
में असली फूल
हैं। सारा
दरबार हैरान
हुआ! इथोपिया
की रानी भी
बहुत हैरान
हुई! उसने कहा, कैसे
पहचाना? सोलोमन
ने कहा, छिपाना
क्या? खिड़कियां मैंने
इसलिए नहीं खुलवाईं
कि रोशनी
चाहिए, रोशनी
तो काफी थी, खिड़कियां मैंने
इसलिए खुलवाईं
कि बगीचे
से कोई
मधुमक्खी
भीतर आ जाए।
क्योंकि जो
मैं नहीं परख
सकता, वह
मधुमक्खी परख
सकती है। और
एक मधुमक्खी
भीतर आ गई। और
जिस फूल पर
बैठी, वह
असली है। जिस
फूल पर नहीं
बैठी, वह
नकली है।
तुमने ध्यान
नहीं दिया।
गौर करो, असली
फूल के बीच
में आकर एक
मधुमक्खी
बैठी है। एक
मधुमक्खी
बैठी पाई गई।
मधुमक्खी
को तो धोखा
नहीं दे सकते
तुम झूठे फूल
से,
मगर आदमी को
धोखा दिया जा
सकता। आदमी
खुद इतना झूठा
हो गया है कि
सब तरफ के झूठ
उसको जकड़ लेते
हैं।
हरिदेव, तुम
संतों की वाणी
का अध्ययन—मनन
करते रहे।
क्या अध्ययन—मनन
करोगे! तोतारटंत
की तरह सीख
लिए होंगे।
कबीर के वचन
दोहराने लगोगे,
रहीम के वचन
दोहराने
लगोगे।
तुम्हें
पक्का भी कहां
है कि कबीर
पहुंचे! पक्का
होगा भी कैसे?
बिना
पहुंचे किसी
को कभी पक्का
नहीं हो सकता।
कल ही
किसी मित्र ने
पूछा था कि
भगवान, आप भी
खूब हैं! पहले
भी बुद्धपुरुष
हुए हैं, लेकिन
किसी ने किसी
के कंधे पर
बंदूक रख कर
नहीं चलाई। आप
दूसरों के
कंधों पर रख
कर बंदूक चलाते
हैं। जैसे कि
आप पलटू के
कंधे पर बंदूक
रख कर चला रहे
हैं। तुम जाने
कैसे कि पलटू
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गए
हैं? मैं
अगर पलटू के
कंधे पर रख कर
बंदूक न चलाऊं,
तो शायद
पलटू की
तुम्हें कभी
याद भी न आती।
पलटू कहीं
रास्ते में
मिल जाते तो
तुम शायद जय रामजी भी न
करते। तुम
सोचते हो कि
पलटू बुद्ध
हैं इसलिए मैं
उनके कंधे पर
रख कर बंदूक
चला रहा हूं, हालत उलटी
है। मैं बंदूक
उनके कंधे पर
रख कर चला रहा
हूं, इसलिए
वे तुम्हें
बुद्ध मालूम
हो रहे हैं।
मैं जानता हूं
कि वे बुद्ध
हैं।
और कौन
बंदूक का बोझ
अपने कंधे पर
ढोए! जब इतने बुद्ध
मिल रहे हों, उपलब्ध
हों, और
राजी हों, और
अपनी राजी से
कहते हों आ—आ
कर कि महाराज,
मेरा कंधा
कब चुनिएगा?...पलटू कई दिन
से पीछे पड़े
थे। कि कबीर
पर बोले, दादू
पर बोले, फरीद
पर बोले, नानक
पर बोले, मुझ
गरीब को क्यों
छोड़ रहे हो?
पलटू
के कंधे पर
बंदूक रख कर
इसलिए चला रहा
हूं कि होंगे
कुछ तुम में
जो पलटू के
पास से गुजरे
होंगे और चूक
गए होंगे।
लेकिन कुछ
अनुस्मृति तो
रह गई होगी
कहीं डोलती!
किसी अंतस्तल में
कुछ गंध तो
छूटी रह गई
होगी। उस याद
को पुनरुज्जीवित
कर दूं तो
शायद उसी
बहाने तुम
मेरे करीब आ
जाओगे। नानक
पर बोलता हूं; बुद्ध
पर, महावीर
पर, कृष्ण
पर, क्राइस्ट
पर, लाओत्सू पर; सिर्फ
इस कारण कि
तुम अनंत
यात्री हो और
तुम न—मालूम
कब किसके
सत्संग में
रहे होओ, तो
कुछ—न—कुछ
गूंज जरूर रह
गई होगी—जन्मों—जन्मों
के बाद भी—उसे
फिर पुकार दे
रहा हूं।
आसान
हो जाएगी बात।
शायद तुम मुझे
एकदम से समझ
भी न पाओ।
पलटू के बहाने
समझ लो। शायद
तुम सीधा—सीधा
मुझे समझ न
पाओ,
लेकिन
महावीर के
बहाने समझ लो।
मेरे लिए तो
ये सब बहाने
हैं। मैं सीधा
ही कह सकता
हूं, मुझे
जो कहना है
वही कह रहा
हूं।...कोई
पलटू की मैं
फिक्र करता
हूं! जहां
मुझे लगता है
वहां उनको
पलटा देता
हूं। वे लाख
चिल्लाएं, शोरगुल
मचाएं, मैं कहा हूं:
पलटू ही हो, चुप रहो! अगर
मैंने थोड़ा
पलट दिया तो
ऐसा क्या...! समय
बदल गया, लोग
बदल गए, मुझे
बहुत—से पलटे
देने ही
होंगे।
तुम पढ़ोगे
क्या? लेकिन
चूंकि अध्ययन—मनन
की तुम्हारी
बड़ी आकांक्षा
रहती है, इसलिए
बुद्धपुरुषों
पर बोल रहा
हूं, ताकि
तुम्हारे
अध्ययन—मनन की
खुजलाहट भी कम
हो जाए। वह
खुजलाहट भी पूरी
हो जाए। फिर
तुम्हें असली
काम में लगा
दूं, वह है
सत्संग।
सत्संग का
अर्थ शास्त्र
नहीं होता, सत्संग का
अर्थ होता है:
जीवित सत्य के
साथ जुड़ जाना;
सत्य का
संग। शब्द का
नहीं, सिद्धांत
का नहीं।
जिसने जाना हो,
उसके साथ
जुड़ जाना।
लेकिन जुड़ने
की हिम्मत तो
जुटाते—जुटाते
जुटती है। यह
तो बात बनते—बनते
बनती है। एकदम
से नहीं हो
जाती।
तुम्हें धीरे—धीरे
फुसलाना होता
है। तुम्हें
बड़ी कुशलता से
फुसलाना होता
है। तुम्हारे
अहंकार को
गलाना कोई
साधारण खेल
नहीं है। और
बिना अहंकार
गले सत्संग
नहीं होता।
तुम मिटो
तो सत्संग हो।
मैं मिट गया
हूं, तुम
भी मिट जाओ, तो अभी
हमारे दोनों
के शून्य एक
हो जाएं।
शून्य
दो नहीं होते।
दो शून्यों
को पास लाओ तो
दो शून्य नहीं
होते, एक
शून्य बन जाता
है। बस एकदम
एक शून्य हो
जाता है। दो
शून्य जोड़ो,
कि तीन शून्य
जोड़ो, कि
हजार शून्य जोड़ो, एक
ही शून्य बनता
है। वहां गणित
के नियम लागू नहीं
होते। शून्य
गणित के नियम
के बाहर है।
इधर
मैं शून्य हुआ
बैठा हूं। यह
जो नाद है; शून्य
का नाद है। इस
नाद के साथ
तुम जुड़ सकते
हो, अगर
शून्य हो जाओ।
सत्संग होगा,
हरिदेव!
संतों की वाणी
पढ़ते—पढ़ते चलो
इतना तो हुआ
कि तुम यहां आ
गए। यहां भी
तुम इसलिए आ
गए होओगे कि
सोचा होगा कि
संतों पर
चर्चा हो रही
है। फंस गए!
संतों पर
चर्चा तो हो
रही है, मगर
पीछे मामला और
है। ऐसे जैसे
कि मछली को फांसते
हैं न तो
कांटे में आटा
लगा देते हैं।
मछली कांटे
में तो फंसने
आती नहीं।
कांटा देख कर
तो दूर—दूर
भागती है मगर
आटे को देख कर
चली आती है।
इधर अटका गले
में आटा, तब
पता चलता है
कि फंस गई, कांटे
में उलझ गई।
मगर तब तक
बहुत देर हो
चुकी। अब
लौटने का कोई
उपाय न रहा।
ये
पलटू, ये कबीर,
ये दादू, ये मलूक, ये
सब आटे हैं।
कांटा तो
सत्संग का है।
चलो
इसी बहाने आ
गए। पलटू में
रस रहा होगा, तो
सोचा हरिदेव
ने कि चले
चलें! पलटू को
इतना पढ़ा, अध्ययन
किया, मनन
किया, अब
जरा पलटू पर
सुनें कि पलटू
पर कोई जाग्रतपुरुष
क्या कहता है?
मगर अब
लौटने के बाहर
है मामला!
हरिदेव, कांटा
तो फंस गया!
संन्यास ले
बैठे! यह तो
तुम सोचकर भी
न आए थे। तुम्हारे
सोचे थोड़े ही
कुछ चीजें
होती हैं।
बहुत—सी चीजें
हैं तुम्हारे
बिना सोचे
होती हैं, वे
ही बहुमूल्य
हैं।
तुम्हारे
सोचे तो क्षुद्र
होता है।
शास्त्रों के
सहारे कहीं
पहुंचोगे
नहीं—न कहीं
कोई कभी
पहुंचा है।
वैतरणी
करोगे पार
दूसरों
के कंधों पर
अंधों
की जमात में
अपंगों
का अभिनय?
कटवा लो
अपनी टांगें
टांग
दो दरख्तों
पर
नंगापन
पतझर का
कुछ
तो ढक जाएगा।
नए
फूल—पत्ते तो
खून
से सींचे
बिना
झेल
नहीं पाते
लू—लपटों
का उच्छवास।
प्लास्टिक
के फूलों से
बाग
को सजाने का
शौक
नया चर्राया
पानी
मर गया है
शायद
मालियों
की पीढ़ियों का
कोई तय्यार
नहीं
खाद
बन जाने को।
और जब
लोग खाद बन
जाने को तैयार
नहीं होते, तो
सत्संग कहां?
और जब लोग
खाद बन जाने
को तैयार नहीं
होते, तो
फिर
प्लास्टिक के
फूलों से ही
काम चलाना पड़ता
है। शास्त्र
तो प्लास्टिक
के फूल हैं।
सत्संग तो पास
आने की कला है,
गुरु के पास
आने की कला
है।
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो जाए—किसी
स्त्री से, किसी
पुरुष से, तो
तुम उसकी
तसवीर से काम
चला लोगे? तसवीर
को छाती से
लगा कर मन भर
जाएगा? नहीं,
तुम जीवित
व्यक्ति के
करीब होना
चाहोगे, उसका
हाथ हाथ
में लेना
चाहोगे, उसका
आलिंगन करना
चाहोगे, उसके
जीवन में अपने
को डुबोना
चाहोगे। उसके
जीवन को अपने
में डुबोना
चाहोगे।
सत्संग भी वैसा
ही है, एक
और ऊंचे आयाम
में यह भी एक
गहन प्रेम है।
प्रेम से भी
गहन प्रेम है।
इतना
मत दूर रहो
गंध
कहीं खो जाए
आने
दो आंच
रोशनी
न मंद हो जाए
देखा
तुमको मैंने
कितने जन्मों
के बाद
चम्पे की
बदली—सी धूप छांह आस
पास
घूम
सी गई दुनिया
यह भी न रहा
याद
बह
गया है वक्त
लिए सारे मेरे
पलाश
ले
लो ये शब्द
गीत
भी न कहीं सो
जाए
आने
दो आंच
रोशनी
न मंद हो जाए
उत्सव
से तन पर सजा
ललचाती मेहराबें
खींच
लीं मिठास पर
क्यों शीशे की
दीवारें
टकरा
कर डूब गईं
इच्छाओं की
नावें
लौट लौट आई हैं
मेरी सब
झनकारें
नेह
फूल नाजुक
न
खिलना बंद हो
जाए
आने
दो आंच
रोशनी
न मंद हो जाए
क्या
कुछ कमी थी
मेरे भरपूर
दान में
या
कुछ तुम्हारी
नजर चूकी
पहिचान में
या
सब कुछ लीला
थी तुम्हारे
अनुमान में
या
मैंने भूल की
तुम्हारी
मुस्कान में
खोलो
देह—बंध
मन
समाधि—सिंधु
हो जाए
आने
दो आंच
रोशनी
न मंद हो जाए।
इतना
मत दूर रहो
गंध
कहीं खो जाए।
प्रेमी
प्रेयसी के
करीब होना
चाहता है।
प्रेयसी
प्रेमी के
करीब होना
चाहती है।
इतना
मत दूर रहो
गंध
कहीं खो जाए
आने
दो आंच
रोशनी
न मंद हो जाए
ऐसी ही
घटना एक और
महत्तर तल पर
शिष्य और गुरु
के बीच घटती
है। उसका नाम
सत्संग है। जब
गुरु की आंच
शिष्य के
अहंकार तक
पहुंचने लगती
और उसे
पिघलाने लगती
है। जब गुरु
की प्रज्वलित
अग्नि शिष्य
को राख करने
लगती है।
पास आओ, हरिदेव!
और—और पास आओ!
दूर—दूर न खड़े
हो।
शास्त्रों
में बहुत दिन
डूबे रहने के
कारण दूर—दूर
रहने की आदत
हो जाती है।
शास्त्र और
आदमी के बीच
पास होना होता
ही नहीं।
शास्त्र में
कोई आंच ही
नहीं होती, तो डर क्या? शास्त्र तो
ठंडा है, मुर्दा
लाश है!
तुम
सौभाग्यशाली
हो,
एक ऐसी जगह
आ गए हो, जहां
शास्त्र अभी
जीवित है, जहां
शास्त्र अभी
जन्म ले रहा
है। लेकिन पास
आओ! आंच को
झेलो! जलो!
आंच को
पिघलाने दो
तुम्हारी
बर्फ जैसी
स्थिति को।
अहंकार के ठंडेपन
को। वह जाने
दो! पिघल जाए
यह बर्फ
तुम्हारी, बह
जाओ तुम
बिलकुल, रह
जाए भीतर
रिक्त शून्य,
तो पूर्ण
उतरेगा। तब
तुम जानोगे।
उसके पहले कोई
जाना नहीं है।
आखिरी
प्रश्न:
भगवान,
कोई
इंसान इंसान
को भला क्या
देता है
आदमी
सिर्फ बहाना
है,
बस खुदा
देता है
वह
जहन्नुम भी दे
तो करूं शुक्र
अदा
कोई
अपना ही समझकर
तो सजा देता
है
हरि
भारती! बात तो
पते की कही है, मगर
तुम्हारी
अपनी नहीं है!
पते की है।
जिसने कही
होगी, जानी
होगी। उसके
लिए पते की।
तुम्हारे लिए
तो खतरनाक भी
हो सकती है।
तुम
कहते हो:
कोई
इंसान इंसान
को भला क्या
देता है
आदमी
सिर्फ बहाना
है, बस खुदा
देता है
जिसने
जान कर कहा, ठीक
कहा। लेकिन
अनजान के हाथ
में इसका अर्थ
बिलकुल उलटा
हो जाएगा।
जिसने जानकर
कहा, उसका
तो अर्थ यह है
कि खुदा ही है,
आदमी है
कहां! इसलिए
आदमी क्या
देगा। और क्या
लेगा! देने
वाला भी वही
है, लेने
वाला भी वही
है।
लेकिन
जब न जानने
वाला इस शब्द
को पकड़ेगा, तो
उसका अर्थ यह
होता है कि
आदमी में क्या
रखा है! आदमी
क्या ले—दे
सकता है! जब
देने वाला तो
खुदा है। तो
तुम आदमी के
प्रति
कृतज्ञता छोड़
दोगे, प्रेम
छोड़ दोगे, अनुग्रह
का भाव छोड़
दोगे। यह
तुम्हारी
आदमी के प्रति
निंदा बन
जाएगी। कोई
इंसान इंसान
को भला क्या
देता है!
इसलिए किसी
इंसान के चरणों
में क्यों
झुकना? और
किसी इंसान को
धन्यवाद
क्यों देना? देने वाला
तो खुदा है! यह
खुदा सिर्फ
तुम्हारा
बहाना है। यह
आदमी को
धन्यवाद न
देना पड़े, इसलिए
अच्छी आड़
हो गई; सुंदर
आड़ हो गई, बड़ी प्यारी आड़ खोज ली!
लोग बहुत
जालसाज है इस
मामले में।
अनजाने होता
है यह, मूर्च्छा
में होता है।
लेकिन
आदमी से अगर
खुदा ही देता
है,
अगर आदमी के
भीतर भी खुदा
ही है, तब
तो फिर आदमी—आदमी
के चरण में
झुको। फिर तो
जो मिल जाए
उसके चरण में
झुको।
क्योंकि
परमात्मा ही
है और तो कोई
है नहीं!
ये दो
अर्थ हो सकते
हैं। एक अर्थ
कि सब में परमात्मा
है। इसलिए पत्थर
के सामने भी
झुक जाओ।
इसलिए बुरे—से—बुरे
आदमी में भी
परमात्मा है।
कैसे ही गंदे
वस्त्र उसने
पहन रखे हों, परमात्मा
है। किसी शक्ल
में आए, परमात्मा
है।
शिरडी के
साईं बाबा के
पास एक
ब्राह्मण रोज
भोजन लेकर आता
था। वे रहते
मस्जिद में
थे। किसी को
पता नहीं वे हिंदू
थे कि
मुसलमान। ऐसे
लोगों के बाबत
पता लगाना
मुश्किल भी
होता है। अब
तुम मेरे बाबत
कभी पता लगा
पाओगे कि मैं
हिंदू हूं कि
मुसलमान; कि
ईसाई, कि
बौद्ध, कि
यहूदी, कि
पारसी! तुम
कभी पता न लगा
पाओगे। क्यों?
क्योंकि
ऐसे व्यक्ति
तो किसी सीमा
में आबद्ध होते
ही नहीं।...रहते
थे मस्जिद में
और यह
ब्राह्मण रोज भोजन
लाता। इसका
नियम था: जब तक
साईं बाबा को
भोजन न करा ले,
तब तक खुद
भोजन न करे।
कभी देर भी हो
जाती। कभी साईं
बाबा मस्त हैं
भजन में! और
कभी मस्त हैं
लोगों को
पत्थर मारने
में, डंडे
लेकर दौड़ने
में! कभी मस्त
हैं लोगों को
गालियां देने
में! भीड़—भाड़
मच गई है! तो
देर—अबेर हो
जाती।
एक दिन
साईं बाबा ने
कहा कि तू
नाहक पांच मील
चल कर आता है।
पहुंचते—पहुंचते
सांझ हो जाती
है,
तब तू भोजन
कर पाता है।
कल से मैं ही आ जाऊंगा।
तू कल मत आना।
बड़ा खुश हुआ
ब्राह्मण! कल
तो उसने खूब
सुस्वादु
भोजन बनाए, मिष्ठान्न
बनाए। सुबह से
ही जल्दी—जल्दी
उठ कर सब
तैयारी कर
डाली कि पता
नहीं कब आ
जाएं। नौ बजे,
दस बजे, ग्यारह
बजे, बारह
बजे, एक
बजे...कोई पता
नहीं! दो बज गए,
कोई पता
नहीं। चार बज
गए, कोई
पता नहीं भागा
थाली लेकर!
सांझ होते—होते
पहुंचा। साईं
बाबा से कहा:
आप भूल गए
क्या? साईं
बाबा ने कहा:
मैं और भूल
जाऊं! तू
सोचता है, मैं
कुछ भूल सकता
हूं! मैं आया
था, मगर
नासमझ, तूने
मुझे बाहर से
ही दुतकार
दिया! दुतकारा
ही नहीं, तू
डंडा लेकर
मुझे मारने दौड़ा! उस
ब्राह्मण ने
कहा, हद हो
गई, क्या
बातें कर रहे
हैं आप! होश
में हैं? बैठा
हूं सुबह से
थाली सजाए, एक आदमी
नहीं फटका!
साईं बाबा ने
कहा, मैंने
कब कहा कि मैं
आदमी की शकल
में आऊंगा?
एक कुत्ता
नहीं आया था? वह तो भूल ही
गया था
ब्राह्मण; उसे
याद आया कि
हां, एक
कुत्ता आया
था। न केवल
आया था बल्कि
कई बार आने की
कोशिश की...और
एकदम थाली की
तरफ ही जाता
था! उसने कहा, हां एक
कुत्ता आया था
और एकदम थाली
की तरफ ही जाता
था। साईं बाबा
ने कहा, मैंने
सोचा कि थाली
तूने मेरे लिए
सजाई तो मैं
थाली की तरफ
जाता था। और
तू एकदम डंडा
मारता था!
तूने घुसने ही
न दिया घर में,
तो मैं लौट
आया।
ब्राह्मण
ने कहा: मुझे
माफ करें।
मुझसे भूल हो
गई। मुझे क्या
पता,
कि आपने
मुझे एक अदभुत
संदेश दिया, कि वही, एक
ही सब में
विराजमान है!
कल, कल आ
आएं! ऐसा नहीं
होगा।
कल
बैठा
ब्राह्मण
थाली
लगाए...कुत्ते
का आगमन कब हो? मगर
कुत्ते का कोई
पता नहीं।
मुहल्ले में
जाकर चक्कर भी
मार आया कि
कहीं कुत्ता
भटक न गया हो।
एक—दो कुत्ते
मिले भी ऐसे
आवारा, उनको
लाने की भी
कोशिश की, मगर
वे आएं न!
धमकाया, डंडा
भी बताया, मगर
वे और भाग गए!
बड़ा हैरान...!
फिर वही सांझ
होने लगी, फिर
आया और कहा कि
महाराज, दिन—भर
हो गया, परेशान
हो गया, गांव
के आवारा
कुत्तों को खदेड़ता
फिर रहा हूं, यह मैंने
कभी सोचा नहीं
था कि गांव के
आवारा कुत्ते
और सुस्वादु
भोज लेने से
इनकार कर देंगे!
मैं उनको
बुलाते जाता
हूं, वे
भागते हैं।
जैसे कि किसी
जाल में फंसा
रहा हूं।
साईं
बाबा ने कहा:
मैं तो आया था, मगर
तूने मुझे
दुतकार दिया।
मैं एक भिखमंगे
की तरह आया
था। अरे, उसने
कहा, तो कल
ही क्यों नहीं
कहा! आज मैं
कुत्ते की राह
देखता रहा और
आपको भिखमंगे
की तरह आने की
सूझी! एक
भिखमंगा जरूर दोत्तीन
बार आया, मैं
तो उस पर इतना
नाराज हुआ कि
तू रास्ता पकड़ता
है कि नहीं? यह भोजन
तेरे लिए नहीं
बनाया है। तो
आप भिखमंगे
की शक्ल में
आए थे? कल!
साईं
बाबा ने कहा:
तुझे नहीं
चलेगा। कल तू भिखमंगे
की राह
देखेगा। मेरा
क्या भरोसा कल
मैं किस शक्ल
में आऊं! तू ही
ले आया कर! वही
आसान है। इसमें
तू और झंझट
में पड़ गया, और
उलझन में पड़
गया।
विराट
है अस्तित्व।
जो जानते
हैं,
उनके लिए, उनके ओंठों
पर यही शब्द, हरि भारती, और अर्थ
रखेंगे—
कोई
इंसान इंसान
को भला क्या
देता है
आदमी
सिर्फ बहाना
है, बस खुदा
देता है।
इसमें
इंसान का
विरोध नहीं
है। इसमें
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर
परमात्मा की
स्वीकृति है।
मगर बिना जाने, अनजान
में, अज्ञान
में, मूर्च्छा
में अर्थ
बिलकुल बदल
जाएगा। इसमें खुदा
सिर्फ बहाना
है। तुम्हें
खुदा का कुछ
पता है? खुदा
कभी मिला है? कहीं आदमी
मिला, कहीं
कुत्ता मिला,
कहीं
बिल्ली मिली,
कहीं हाथी
मिला, कहीं
घोड़ा मिला, कहीं झाड़
मिला—खुदा
तुम्हें कहीं
मिला है? खुदा
की आड़ में
तुम सब से
इनकार कर
दोगे। और ऐसा
खुदा कहीं भी
नहीं है, जिसकी
तुम आड़ ले
रहे हो। खुद
तो सब में
छिपा है। जहां
भी खुदी का
भाव है, वहीं
खुदा है।
देख
कहीं पाछे तू पछताए
घर—घर
वही गीत
सतरंगा जिसका
ध्यान सताए
देख
कहीं पाछे तू पछताए
दर्पण
में मुंह देख
साए के पीछे
हाथ पसार
दीवारों
के बीच बैठकर
ढूंढ अपना
संसार
घर—घर
वही हंसे जब
कोई नई कली शरमाए
देख
कहीं पाछे तू पछताए
कलाबाजियां
खाते नन्हें
मुन्ने करें
कुलेल
घर
में नया देवता
उतरे जब हल
लाए बेल
रात
पड़े नीली
आंखों में वही
हंसे
मुस्कुराए
देख
कहीं पाछे तू पछताए
सुन, दुख
उसकी टेढ़ी
चितवन सुख
उसकी मुस्कान
अपने
में अपना
कहलाए बैरी
में भगवान
इस
सराय में भेस
बदल कर वही आए
वही जाए
देख
कहीं पाछे तू पछताए
हरि
भारती, स्मरण
रखो, वही
है! आदमी से भी
देता है, तो
वही देता है।
लेकिन इस कारण
आदमी का
अनुग्रह मत
भूल जाना।
वृक्षों से
देता है तो
वही देता है।
लेकिन इस कारण
वृक्षों का
अनुग्रह मत
भूल जाना।
क्योंकि जो
जितने अनुग्रह
से भर जाए, उतना
ही परमात्मा
के निकट आ
जाता है।
अनुगृहीत
होना ही
प्रार्थना की
परम
परिष्कृति
है।
आज
इतना ही।
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