दिनांक; गुरुवार, 19 जुलाई 1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
पीवता
नाम सो जुगन
जुग जीवता,
नाहिं
वो मरै जो
नाम पीवै।
काल
ब्यापै
नहीं अमर वह होयगा,
आदि
और अंत वह सदा जीवै।।
संतजन
अमर हैं उसी
हरिनाम से,
उसी
हरिनाम पर
चित्त देवै।
दास
पलटू कहै
सुधारस छोड़िकै,
भया
अज्ञान तू छाछ
लेवै।।
धन्य
हैं संत निज
धाम सुख छाड़िकै,
आन
के काज को देह
धारा।
ज्ञान-समसेर लै
पैठि
संसार में,
सकल
संसार का मोह टारा।।
प्रीति
सब से करैं
मित्र और
दुष्ट से,
भली
और बुरी दोऊ
सीस धारा।
दास
पलटू कहै राम
नहिं जानहूं,
जानहूं
संत, जिन
जक्त
तारा।।
कफन
को बांधिकै
करै तब आसिकी,
आसिक
जब होय तब
नाहिं सोवै।
चिता
बिनु आगि
के जैर दिनराति
जब,
जीवत
ही जान से सती होवै।।
भूख-पीयास, जग-आस को छोड़करि,
आपनी आपु से आपु
खोवै।
दास
पलटू कहै इसक-मैदान
पर,
देइ जब
सीस तब नाहिं रोवै।।
दास
कहाइकै
आस न कीजिए,
आस
जो करै सो
दास नाहीं।
प्रेम
तो एक जो लगा
संसार मेंख
भक्ति
गई दूरि
अब जक्त
माहीं।।
चाहिए
भक्ति को जक्त
से तोरिए,
जोड़िए जक्त से, भक्ति जाही।
दास
पलटू कहै एक
को छोड़ि
दे,
तरवार
दुई म्मान
इक नाहिं
चाही।।
हम
दह्र के
इस वीराने
में जो कुछ भी
नजारा करते
हैं
अश्कों
की जबां
में कहते हैं, आहों में
इशारा करते
हैं।
क्या
तुझको पता, क्या तुझको
खबर, दिन-रात
खयालों
में अपने
ऐ काकुले-गेती!
हम तुझको जिस
तरह संवारा
करते हैं।
ऐ
मौजे-बला!
इनको भी जरा
दो-चार थपेड़े
हल्के से
कुछ
लोग अभी तक
साहिल से तूफां
का नजारा करते
हैं।
क्या
जानिए कब ये
पाप कटे, क्या जानिए
वो दिन कब आए
जिस
दिन के लिए हम
ऐ जज्बी
क्या कुछ न
गवारा करते
हैं।
इस
जीवन में परम
धन्यता का एक
ही दिन है, जिस दिन
हमें पता चलता
है कि यह असली
जीवन नहीं।
असली जीवन और
है; इसके
पार है। यह तो
असली जीवन की
केवल छाया, केवल
प्रतिबिंब।
पहाड़ों में गूंजती
हुई एक
प्रतिध्वनि, यह असली गीत
नहीं। वही दिन
जीवन का सबसे धन्यभाग
का दिन है, जिस
दिन आंख खुलती
है और हम
पदार्थ से
जगते हैं और
परमात्मा का
होश आता है।
परमात्मा
यानी महाजीवन।
इसी
जीवन में कहीं
छिपा है। पर
हम तो परिधि
पर ही भटकते
रहते हैं और
केंद्र तक
पहुंच ही नहीं
पाते। हम तो
व्यर्थ में
उलझ जाते हैं, हम तो कौड़ियां
ही बटोरते रह
जाते हैं—और
हीरे-जवाहरात
थे यहां! और
शाश्वत खजाना
था यहां।
सनातन
साम्राज्य था
हमारा और हम भिखमंगे
ही बने रह
जाते हैं।
संसारी
यानी
भिखमंगा।
जिसके
हाथ में भिक्षापात्र
है। और ऐसा भिक्षापात्र
जो कभी भरता
नहीं। कितना
ही भरो, नहीं
भरता। कितना
ही भरो, खाली
का खाली।
जितना भरो
उतना ज्यादा
खाली। एक ऐसा भिक्षापात्र
जो बड़ा ही
होता चला जाता
है। यह सारा
संसार भी मिल
जाए तो भी
तुम्हारा भिक्षापात्र
भरेगा नहीं।
इच्छा दुष्पूर
है।
बुद्ध
ने कहा:
तृष्णा दुष्पूर
है। ऐसा नहीं
है कि तुम
कमजोर हो, इसलिए नहीं
भरती; ऐसा
नहीं है कि
तुम्हारी
सीमाएं हैं, इसलिए नहीं
भरती; तृष्णा
का स्वभाव है
न भरना।
क्योंकि एक
तृष्णा भर भी
नहीं पाती कि
दस को पैदा कर
जाती है। तृष्णा
ऐसे है जैसे
दूर जमीन को
छूता हुआ
आकाश। कहीं
छूता नहीं, लेकिन लगता
है: यही कोई
दस-पांच कोस
के फासले पर
छू रहा है।
जरा चलूं तो
पहुंच जाऊंगा
क्षितिज पर।
लाख चलो, सारी
पृथ्वी का
चक्कर काट आओ,
कहीं भी
क्षितिज
मिलेगा नहीं—और
चारों तरफ
दिखाई पड़ता
है। बस दिखाई
पड़ता है! आभास
है! कहीं
पृथ्वी आकाश
छूती नहीं।
तुम जितने आगे
बढ़ते हो, उतना
ही क्षितिज और
आगे सरक जाता
है। तुम्हारे
और क्षितिज के
बीच फासला
हमेशा
उतना-का-उतना—इंच-भर
कम नहीं, इंच-भर
ज्यादा नहीं।
ऐसी ही इच्छा
है, ऐसी ही
तृष्णा है।
तृष्णा
एक क्षितिज है
जिस तक हम कभी
पहुंच नहीं
पाते। दौड़ते
बहुत हैं, जितना कर
सकते हैं करते
हैं, अपनी
सारी
सामर्थ्य
लगाते हैं—एक
जन्म की नहीं,
अनंत-अनंत
जन्मों की
शक्ति हमने
समर्पित की है
एक ऐसे व्यर्थ
खेल में जो
कभी पूरा नहीं
होगा।
मैंने
सुना है, क्रिसमस
के दिन थे और
एक अमरीकी
जोड़ा अपने बच्चे
के लिए खिलौना
खरीदने गया
था। पति बड़ा
गणितज्ञ था।
पत्नी भी
विश्वविद्यालय
में अध्यापक थी।
दोनों
सुसंस्कृत, सुशिक्षित।
भांति-भांति
के नए-नए
खिलौने दुकान
में आए थे। सब
खिलौने देखे।
फिर दोनों एक
खिलौने में
उत्सुक हो गए।
एक जिग्सा
पजल।
खंड-खंड टुकड़ों
में, जिसे
जमाना होता
है। उसे दोनों
ने बहुत जमाने
की कोशिश की।
जमे ही न!
आखिरी पत्नी
ने कहा कि अगर
मेरे पति से
नहीं जमती, जो कि
पृथ्वी के
थोड़े-से
इने-गिने
गणितज्ञों में
एक हैं; अगर
यह पहेली मेरा
पति नहीं जमा
सकता, तो
मेरे बच्चे
क्या जमाएंगे?
पहेली तो
प्यारी लगती
है, मगर
बच्चे इसे
कैसे जमाएंगे?
दुकानदार
हंसने लगा, उसने कहा, क्षमा करें,
यह जमने के
लिए बनाई ही
नहीं गई। यह
जम ही नहीं सकती,
बच्चे या
बाप का सवाल
नहीं है।
तो
दोनों हैरान
हुए, उन्होंने
कहा कि फिर यह
कैसी पहेली जो
जम ही नहीं
सकती! तो उस
दुकानदार ने
कहा, जिसने
इसे बनाया है,
उसने इसे इस
खयाल से बनाया
है ताकि जो भी
इसे जमाए उसे
दुनिया का कुछ
खयाल आए कि
दुनिया भी ऐसी
पहेली है जो
जमती नहीं।
लाख जमाओ,
जमती नहीं।
जमने को बनी
ही नहीं है।
जम जाए तो बुद्धों
की जरूरत
नहीं। जम जाए
तो फिर जीसस, कृष्ण और
जरथुस्त्र
व्यर्थ। जिन्होंने
जाना कि यह
संसार की
पहेली न जमने
वाली पहेली है,
जिन्हें यह
बात इतनी प्रगाढ़
हो गई कि उनका
सारा रस इससे
छूट गया, इस
खिलौने से
उनकी नजर हट
गई, उन्होंने
उसे देखा जो
सदा जमा हुआ
है।
एक है
दुनिया, जो
जमाए नहीं
जमती और एक है
परमात्मा, जो
जमा ही हुआ
है। जिसे
जमाने की कोई
जरूरत नहीं
है। दुनिया
में जो उलझा, भटका, तड़पा,
परेशान
हुआ।
परमात्मा की
तरफ जिसकी आंख
उठी, पहुंच
गया, तत्क्षण
पहुंच गया।
फिर परम तोष
है, संतोष
है। फिर जीवन
एक आह्लाद है।
फिर जीवन न जन्म
है न मृत्यु।
न इसका आदि है
न अंत। फिर यह एक
शाश्वत आनंद-यात्रा
है।
क्या
जानिए कब ये
पाप कटे, क्या जानिए
वो दिन कब आए
जिस
दिन के लिए हम
ऐ जज्बी
क्या कुछ न
गवारा करते
हैं।
कितना
सहते हैं हम।
आदमी कुछ कम
नहीं सहता। छोटी
जान है और
पहाड़ ढोता है।
बूंद जैसी
सामर्थ्य है
और आकाश
घसीटता है।
आदमी कम नहीं
सहता। और
इसलिए अगर यह
प्रार्थना
उठती है कि कब
आएगा वह
दिन...अपने से
नहीं आएगा, इतना याद
रखना। अपने-आप
आता होता तो
अब तक आ गया
होता। तुम कुछ
नए नहीं हो।
सब पुराने
यात्री हो।
न-मालूम कितनी
योनियां
और न-मालूम
कितनी देहें
और न-मालूम
कितने रूपों
से चलते हो, चलते रहे
हो। न-मालूम कितने
मार्गों पर
भटके हो, पहुंचे
नहीं। तुम कुछ
नए नहीं हो।
तुमने काफी बोझ
ढोया है।
ढोते-ढोते
ढोने की आदत
पड़ गई है। ऐसी
आदत पड़ गई है
कि ढोए ही चले
जाते हो। अब
तो भूल ही गए
हो कि क्यों
ढो रहे हो? इतने
समय से ढो रहे
हो कि याद भी
कौन रखे?
एक
पति-पत्नी में
झगड़ा हो
रहा था। जैसे
पति-पत्नी के
झगड़े होते हैं, शुरू हो गया
होगा, अकारण;
कारण की कोई
जरूरत भी नहीं
होती। पड़ोसी
सुनते-सुनते
परेशान हो गए।
आखिर पड़ोसी
इकट्ठे हो गए और
उन्होंने कहा
कि तीन घंटे
हो गए, न
खुद सोते हो न
हमें सोने
देते हो, आखिर
बात क्या है? तो पति ने कहा
कि इसी से पूछ
लो, पत्नी
से पूछ लो कि
बात क्या है।
पत्नी ने कहा,
मुझे भी
क्या अब याद
है; तीन
घंटे पहले
शुरू हुई थी!
दो
छोटे बच्चे
आपस में बात
कर रहे थे। एक
बच्चा कह रहा
था कि मेरी
मां गजब की
है। तुम एक
शब्द बोले, बस; फिर
वह घंटों
बकवास करती
है। मेरे पिताजी
उसके डर के
मारने बोलते
ही नहीं! बोले
कि फंसे।
दूसरे बच्चे
ने कहा, यह
कुछ भी नहीं
है। मेरी मां
ऐसी है कि तुम
बोलो कि न
बोलो...बोलना
जरूरी ही नहीं
है। अब कल ही की
बात है, पिताजी
चुप बैठे थे
तो मेरी मां
कहने लगी: तुम चुप
क्यों बैठे हो?
शर्म नहीं
आती! चुप बैठे
हो इसका मतलब
क्या; इसका
प्रयोजन क्या?
और झगड़ा
शुरू!
इस
संसार से तुम
इतने लंबे समय
से झगड़
रहे हो कि अब
तुम्हें याद
भी न रहा होगा
कि कब और कैसे
यह कहानी शुरू
हुई थी। बहुत
पीछे छूट गए
सूत्र। अब तो
झगड़े की आदत
हो गई है। अब
तो झगड़ना
जीवन हो गया
है। अब तो तुम
कहते हो, संघर्ष
ही जीवन है।
जो भी कहता है
संघर्ष ही जीवन
है, उसे
जीवन का कुछ
भी पता नहीं, कि जीवन
संघर्ष जरा भी
नहीं है। जीवन
तो समर्पण है।
लेकिन समर्पण
तो केवल संत
जानते हैं। समर्पित
जो है, वही
संत है।
मरने
की दुआएं
क्यों मांगूं, जीने की
तमन्ना कौन
करे
ये
दुनिया हो, या वो
दुनिया, अब
ख्वाहिशे-दुनिया
कौन करे।
जब
कश्ती
साबित-सालिम
थी, साहिल की
तमन्ना किसको
थी
अब
ऐसी शिकस्ता
कश्ती पर
साहिल की
तमन्ना कौन करे।
जो
आग लगाई थी
तुमने, उसको
तो बुझाया अश्कों
ने
जो अश्कों ने भड़काई है, उस आग को
ठंडा कौन करे।
दुनिया
ने हमें छोड़ा जज्बी हम
छोड़ न दें
क्यों दुनिया
को
दुनिया
को समझ कर
बैठे हैं, अब दुनिया दुनिया
कौन करे।
मरने
की दुआएं
क्यों मांगूं, जीने की
तमन्ना कौन
करे
ये
दुनिया हो, या वो
दुनिया, अब
ख्चाहिशे-दुनिया
कौन करे।
जो
समझेगा, जो
जरा जागेगा,
जो जरा
होशपूर्वक अपने
चारों तरफ
देखेगा, बाहर
और भीतर जरा
झांकेगा, वह
इस दुनिया से
ही मुक्त नहीं
हो जाता, वह
उस दुनिया से
भी मुक्त हो
जाता है। यहां
ही आकांक्षाएं
नहीं गिर
जातीं, वह
स्वर्ग की
आकांक्षा भी
नहीं करता।
क्योंकि
आकांक्षा ही
तो संसार है।
तुम चाहे धन
की आकांक्षा
करो और चाहे
स्वर्ग की, इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता,
आकांक्षा
संसार है।
आकांक्षा की
कि संसार शुरू
रहा।
आकांक्षा न
करना
अतिक्रमण है।
आकांक्षा की
व्यर्थता देख
लेना, देख
लेना कि यह
पात्र भरेगा
ही नहीं, यह
पहेली जमेगी
ही नहीं और
तत्क्षण एक
क्रांति घटित
हो जाती है, तत्क्षण तुम
मुक्त हो जाते
हो। मुक्ति
कोई प्रक्रिया
नहीं है, एक
क्षण में घट
गई क्रांति
है। जैसे तपती
आग में बूंद
एक छन्न के
साथ हवा हो
जाती है, वाष्पीभूत
हो जाती है, ऐसे ही होश
की आग में एक
क्षण में
रूपांतरण हो जाता
है। क्रांति
विकास नहीं
है। अध्यात्म
क्रांति है। उत्क्रांति
नहीं, विकास
की प्रक्रिया
नहीं, एक
छलांग है।
और वह
दिन सबसे
ज्यादा
सौभाग्य का
दिन है जब यह
दिखाई पड़ जाता
है कि हम जिस
दौड़ में दौड़
रहे हैं, वह
वर्तुलाकार
है। जैसे
कोल्हू का बैल
चलता है, वैसे
हम चल रहे
हैं। लगता तो
कोल्हू के बैल
को है कि खूब
चल रहा है तो
कहीं
पहुंचेगा, जरूर
पहुंचेगा, जब
इतना चल रहा
है तो
पहुंचेगा; गणित,
तर्क, सब
यही कहता है, लेकिन
कोल्हू का बैल
कहीं पहुंचता
नहीं, वर्तुल
में घूमता
रहता है। हम
भी वर्तुल में
घूम रहे हैं।
संसार
शब्द का अर्थ
होता है:
चक्कर। एक
वर्तुल। जैसे
गाड़ी का चाक घूमता
है, ऐसे ही हम
इस संसार के
चाक में बंधे
घूमते रहते
हैं। और पिसते
हैं बुरी तरह;
क्योंकि
चाक में जो
बंधा है वह पिसेगा
ही। एक क्षण
विराम नहीं, एक क्षण
विश्राम नहीं,
यह गाड़ी
चलती ही रहती
है। और इस
गाड़ी के चाक
से बंधे हुए
तुम पिसते ही
रहते हो।
पश्चिम
का बहुत बड़ा
जादूगर हूदनी
अपने को
रेलगाड़ी के चके में
बांध लेता था
और घंटों तक
रेलगाड़ी चलती
रहती और वह चके
में बंधा
घूमता रहता।
यह उसके बड़े
चमत्कारों में
से एक था। हूदनी
को किसी ने
कहा नहीं कि
यह कोई बड़ा
चमत्कार नहीं, यह सभी लोग
कर रहे हैं।
हालांकि
तुम्हारी रेलगाड़ी
लोहे की है और
दिखाई पड़ती है
और तुमने कला
सीख ली है कि
कैसे चके
में बंधे हुए
अपने को बचाए
रहो, लेकिन
सारी दुनिया चके से
बंधी है। चका
अदृश्य है।
अदृश्य है, इसलिए और भी
दिखाई नहीं
पड़ता। और ऐसी
व्यवस्था
हमने जमा ली
है—हमने खुद—कि
नींद टूटे ही
न, कि होश
आए ही न। हम
पीए चले जाते
हैं बेहोशी पर
नई बेहोशियां,
अफीम पर
अफीम। कभी धन
की अफीम, कभी
पद की अफीम—बस
पीए जाते हैं।
कहां है: पद-मद,
धन-मद।
मदिरा कहा है
इनको।
शराब
पर तो पाबंदी
लगा देते हो—शराब
में कुछ खाक
नशा है! सांझ पीओगे, सुबह उतर
जाएगा! और
शराब पर जो
पाबंदी लगाते
हैं उनको खयाल
ही नहीं है कि
वे ऐसी शराब
पीए हैं जो
उतरती ही नहीं—पद-मद!
पी है अधिकार
की, सत्ता
की शराब, जिसका
उतना बहुत
मुश्किल। लाख
धक्के खाओ तो
भी नहीं
उतरती। लाख
चोटें खाओ तो
और चढ़ती
चली जाती है।
उतरना जानती
ही नहीं।
छोटी-मोटी
शराब की तो
तुम निंदा
करते हो, बड़ी
शराबों की
प्रशंसा करते
हो।
इस
दुनिया में
सभी शराबी
हैं। अलग-अलग
शराबें पी हैं
उन्होंने और
अपने को सुला
रखा है। और किसी
और ने पिलाई
होती तो भी एक
बात थी, हम
खुद ही पी रहे
हैं। हम खुद
ही तैयार करते
हैं ये
विषाक्त
औषधियां। हम
खुद ही श्रम
करते हैं।
एक
दार्शनिक एक
तेली की दुकान
पर तेल लेने
गया था।
दार्शनिक था, सो उसके मन
में एक प्रश्न
उठा। तेली तेल
तौलने लगा और
दार्शनिक ने
कहा, ठहरना
भाई!...नवद्वीप
की कहानी है, बंगाल की। नवद्वीप
कभी
तार्किकों का
सबसे बड़ा
केंद्र था।
नव्य-न्याय
वहां पैदा
हुआ। वहां भारत
के बड़े-से-बड़े
तर्कशास्त्री
पैदा हुए। नवद्वीप
ने कभी भारत
की दार्शनिक
प्रतिभा को
खूब चमकाया
था। यह कहानी नवद्वीप
की ही
है।...दार्शनिक
ने कहा, ठहरना
भाई, तेली
से कहा! पहले
एक सवाल का
जवाब दे दो, मुझे बेचैनी
रहेगी। तेली
ने पूछा, क्या
सवाल है? दार्शनिक
ने कहा कि तुम
तेल तौल रहे
हो, तुम्हारी
पीठ की तरफ
पीछे कोल्हू
का बैल चल रहा
है, उसको
कोई चला नहीं
रहा, ऐसा
धार्मिक बैल
तुम कहां से
पा गए? जिसको
कोई चलाए न, पीछे फटकारे
न, चोट न
करे, डंडा
लिए न खड़ा रहे
और जो चलता
रहे! इस जमाने
में ऐसा
धार्मिक, श्रद्धालु
बैल तुम कहां
पा गए? तेली
हंसने लगा और
उसने कहा, न
श्रद्धा का
सवाल है, न
धर्म का।
मैंने ऐसा
आयोजन किया
है। देखते नहीं
कि बैल के गले
में घंटी बंधी
है? घंटी
बज रही है, सुनते
नहीं? दार्शनिक
ने कहा, घंटी
बंधी है, देखता
भी हूं; घंटी
बजती है, सुनता
भी हूं; मगर
इससे क्या? तेली ने कहा,
बात
सीधी-साफ है।
घंटी जब तक
बजती रहती है,
मैं समझता
हूं बैल चल
रहा है। देखने
की जरूरत नहीं,
घंटी बज रही
है, मुझे
सुनाई पड़ती
रहती है, मैं
समझता हूं बैल
चल रहा है।
जैसे ही घंटी
रुकी कि मैं
तत्क्षण उठ कर
और बैल को
हांक देता हूं।
बैल को यह कभी
पता नहीं चल
पाता कि मैं
मौजूद नहीं
था। देरी नहीं
होने देता।
इधर घंटी रुकी,
इधर मैंने
हांका। सो बैल
को यही भरोसा
है कि मैं
पीछे हूं। और
देखते नहीं
बैल की आंखों
पर पट्टियां
बांधी हुई है।
सौ बैल देख भी
नहीं सकता कि
कोई पीछे है
या नहीं—मुड़
कर देख भी
नहीं सकता।
मुड़ भी नहीं
सकता। बैल
सिर्फ आगे ही
देख सकता है।
दार्शनिक
ने कहा, यह
तो मेरी समझ
में आया कि
आंख पर पट्टी
है सो बैल देख
नहीं सकता कि
तुम क्या कर
रहे हो; घंटी
बंधी है, सो
जैसे ही घंटी
रुकती है तुम
उसे हांक देते
हो, उसे
पता नहीं चल
पाता कि
हांकने वाला
पीछे मौजूद था
कि नहीं; लेकिन
एक सवाल मैं पूछूं? कभी
बैल खड़ा होकर
सिर हिला कर
घंटी नहीं
बजाता? उस
तेली ने कहा, महाराज, आगे
से तेल आप
किसी और दुकान
से ले लेना।
कहीं बैल यह
सुन ले तो
हमारा यह सारा
धंधा मारा
गया! मैं
अकेला आदमी
हूं, मुझे
ही तेल बेचना,
मुझे ही
कोल्हू चलाना,
बड़ी
गृहस्थी है, महाराज, किसी
और जगह से तेल
ले लिया करें,
आपका
आना-जाना यहां
ठीक नहीं।
सत्संग
संक्रामक
होता है!
आदमी
भी ऐसा ही
बंधा है—आंख
पर पट्टियां, गले में घंटियां!
कोई चला नहीं
रहा तुम्हें
और तुम चले जा
रहे हो।
तुम्हें पीछे
से कोई नहीं
हांक रहा है, तुम्हें आगे
से हांका जा
रहा है। आगे
लटका दिए गए
हैं
सुंदर-सुंदर
सपने...सपना यह
संसार! आगे लटके
हैं
सुंदर-सुंदर
सपने, अब
मिले, अब
मिले; वह
रहा क्षितिज,
अब पहुंचे,
अब पहुंचे!
कितने दिन से
चल रहे हो, कब
सोचोगे कि
नहीं पहुंच
सकते हो? अब
तक नहीं
पहुंचे, आगे
कैसे
पहुंचोगे? अब
तक कोई नहीं
पहुंचा, अकेले
तुम पहुंचोगे?
तुम अपवाद
हो? धन
पाने वाले
पा-पा कर मर गए,
भीतर की
दीनता नहीं
मिटी सो नहीं
मिटी! पद पाने
वाले पा-पाप
कर मर गए, भीतर
की हीनता नहीं
मिटी सो नहीं
मिटी! सिकंदर
और नेपोलियन,
चंगेज और नादिरशाह
इस जमीन पर
हमने बहुत तरह
के पागलों को
देखा है—छोटे
पागल, बड़े
पागल, पागलों
की बड़ी
कोटियां हैं,
सब तरह के
पागल मौजूद
हैं, यह
पृथ्वी बड़ा
पागलखाना है,
लेकिन कोई
नहीं पहुंच
रहा है। तुम
जरा ठिठको!
तुम जरा एक
क्षण को रुक
जाओ! कभी
घड़ी-भर को रोज
बैठ कर सोचने
लगो जीवन पर; एक विमर्श
करो, पुनर्विचार
करो—यह मैं
क्या कर रहा
हूं? मैंने
अपनी आंखों पर
पट्टियां
बांध रखी हैं?
तुम कहोगे
कि नहीं। तो
फिर हिंदू
धर्म क्या है?
फिर इस्लाम
क्या है? फिर
ईसाइयत क्या
है? फिर
जैन धर्म क्या
है? तुम
जानते तो
नहीं। तुमने
उधार यह ज्ञान
अपनी आंखों पर
बांध लिया है।
यही तो पट्टियां
हैं। इन
पट्टियों के
कारण तुम्हें
भ्रांति है कि
तुम जानते हो।
इस
दुनिया में
सबसे बड़ी
भ्रांति
जानने की भ्रांति
है। क्योंकि
जिसे यह
भ्रांति है कि
मैं जानता हूं, वह सत्य की
तलाश नहीं
करता। जब
मालूम ही है
तो तलाश क्यों
करें? वह
चुपचाप ऐसे ही
जिए जाता है, जैसे जीता
रहा है। क्यों
बदले अपने को?
उसके
शास्त्रों
में तो सब
लिखा है।
महावीर कह गए,
बुद्ध सब कह
गए, नानक
सब कह गए, मुहम्मद
सब कह गए, अब
मुझे क्या
करना है! मेरा
काम इतना है
कि सिर पर ढोऊं
कुरान को, बाइबिल
को, वेद
को।
वैसे
ही बोझ कम
नहीं है, इन
शास्त्रों का
बोझ और भारी
कर देता है।
चलना और
मुश्किल हो
जाता है। वैसे
ही घसिटते
थे, वैसे
ही थके-मांदे
थे, छाती
पर और पत्थर
रख लिए। मगर
इससे
तुम्हारी आंखें
नहीं खुलेंगी।
इसके कारण
तुम्हारी
आंखें बंद
हैं।
हिंदू
अंधा है, मुसलमान
अंधा है, जैन
अंधा है। जो
भी बिना जाने
मानता है, वह
अंधा है।
जिसने स्वयं
अनुभव के बिना
कोई बात मान
ली है, वह
आदमी धोखा दे
रहा है, अपने
को दे रहा है, सबको दे रहा
है। और सबको
दो तो ठीक, कम-से-कम
अपने को तो
धोखा मत दो!
तुम्हारे
गले में घंटियां
बंधी हैं जो
बजती रहती हैं
और ऐसी भ्रांति
बनाए रखती हैं
कि कोई
तुम्हें चला
रहा है। आशा
की घंटियां!
उमर खय्याम ने
कहा है कि मैं
गया पंडितों
के बैठकखानों
में, मैंने
आचार्यों का
सत्संग किया,
मैंने
तथाकथित
मौलवियों के
घरों के द्वार
खटखटाए, लेकिन जिस
दरवाजे से
भीतर गया, उसी
दरवाजे से
वापिस लौटा; जैसे खाली
भीतर गया, वैसा
ही खाली वापिस
लौटा। मैंने
बातें तो वहां
सत्य की बहुत सुनीं, लेकिन
बस बात-ही-बात
थी। वे सब
ईश्वर के
संबंध में
चर्चा कर रहे
थे, लेकिन
ईश्वर का किसी
को पता नहीं
था। वे मेरे छोटे-छोटे
प्रश्नों के
भी उतर न दे
सके। मेरा एक
छोटा-सा प्रश्न
जो मैं पूछता
रहा हूं सभी
से, वह यह
कि आदमी इतना
दुख झेलता है,
इतना विषाद,
इतना संताप,
इतनी पीड़ा,
जीवन उसका
एक सिवाय
दुर्धर्ष रोग
के और कुछ भी
नहीं है, फिर
भी आदमी जिए
क्यों चला
जाता है? जीवेषणा
इतनी प्रबल
क्यों है? वे
कोई उत्तर न
दे पाए। तब
मैंने एक दिन
आकाश से पूछा
कि हे आकाश, तूने तो
न-मालूम कितने
लोगों को इस
पृथ्वी पर चलते
देखा है अंधों
की भांति, तुझे
तो राज पता
होगा! हे चांदत्तारो,
तुम्हें तो
पता होगा!
आदमी किस आशा
में चलता जाता
है? यह
कौन-सी बात है
जो इसे चलाए
जाती है? तो
आकाश ने मुझे
कहा कि तेरे
प्रश्न में ही
उत्तर छिपा
है। तू पूछता
है: किस आशा
में आदमी चला
जाता है? उत्तर
है कि आशा में
आदमी चला जाता
है। आशा! आज नहीं
मिला, कल
मिलेगा। आज तो
चूक गया, कोई
फिक्र नहीं, थोड़ी और
मेहनत, कल
मिल जाएगा।
कल कभी
आता नहीं। आता
भी है तो आज की
तरह आता है।
और फिर आशा कल
पर सरक जाती
है। यह घंटी
है गले में
बंधी, जो
बजती रहती है,
जो तुम्हें
चलाए जाती है।
दो
रास्ते हैं
चलाने के।
एक
सूफी फकीर
सुबह-सुबह उठ
कर नदी-स्नान
को जा रहा था।
उसने एक आदमी
को देखा—कमजोर, दुबला-पतला
आदमी था, बूढ़ा
आदमी था, वह
अपनी गाय को
खींचने की
कोशिश कर रहा
था। गाय मजबूत,
जवान; बूढ़े
से खिंच नहीं
रही थी। गाय
पीछे को
खींचती थी, बूढ़ा आगे को
खींचता था। उस
फकीर ने बूढ़े
को कहा, इसे
तुम खींच न
सकोगे।
तुम्हें
खींचने की और
कोई तरकीब
नहीं आती? रस्सी
बांध कर ही
खींच सकते हो?
तो यह तुमसे
घर जाने वाली
नहीं है। अब तुम
बूढ़े हो गए, अब तुम में
बल नहीं। उस
बूढ़े ने पूछा,
क्या और भी
कोई तरकीब है?
जिंदगी-भर
हो गई मुझे
गायों को
पालते और तो
मैंने तरकीब
देखी नहीं! उस
फकीर ने कहा, मैं तुम्हें
तरकीब बताता
हूं। वह पास
से ही, गया,
रास्ते के
किनारे से
थोड़ी-सी घास उखाड़ लाया
और गाय के
सामने घास
किया और चल
पड़ा। बस गाय
ने घास देखा
कि हो ली पीछे!
रस्सी बांधनी
ही न पड़ी।
फकीर घास को
आगे किये चलने
लगा और गाय
फकीर के पीछे
चलने लगी।
उसने उस बूढ़े
को कहा, तुमने
गाय तो जिंदगी
भर पाली, मगर
एक छोटी-सी
बात तुम्हारी
समझ में न आई।
आशा को लटका
दो आगे!
वह
बूढ़ा पूछने
लगा कि
तुम्हें तो
मैंने कभी गायों
को पालते नहीं
देखा, तुमको
यह तरकीब कैसे
समझ में आई? उसने कहा, आदमियों को
देख कर। हर
आदमी ऐसे ही
चल रहा है, गले
में कोई जंजीर
बांधने की
जरूरत नहीं है,
ज्यादा
सूक्ष्म
जंजीरें हैं
जो न तो दिखाई
पड़ती हैं, न
जिनका बोझ
पड़ता, न बांधनी
पड़तीं, न ढालनी पड़तीं।
घास का गट्ठर
आगे कर दो और
आदमी चलता चला
जाता है। हजार
रुपए हैं, दस
हजार हो
जाएंगे—बस घाव
का गट्ठर आगे!
डिप्टी
मिनिस्टर हैं,
मिनिस्टर
हो जाएंगे—घास
का गट्ठर आगे!
बस आदमी को
चलाते रहो, घास आगे से
आगे हटती जाए
और आदमी
पीछे-पीछे
सरकता चला
जाता है।
और एक
दिन मौत आती, आशा कभी
पूरी नहीं
होती। इस जगत
में कभी कोई आशा
न पूरी हुई है,
न हो सकती
है। जगत का यह
स्वभाव नहीं।
पलटू
कहते हैं:
पीवता
नाम सो जुगन
जुग जीवता,
नाहिं
वो मरै जो
नाम पीवै।
तुम तो
मरोगे। बहुत
बार मरे हो और
बहुत बार
मरोगे। रोज
मरते हो—मरते
ही हो, जीते
कहां हो? जन्म
के बाद बस
मरना और मरना।
धीरे-धीरे
मरते-मरते एक
दिन पूरा मर
जाते हो।
सत्तर
साल-अस्सी साल
लगते हैं मरने
में...क्रमशः
मरते हो।
शनैः-शनैः
मरते हो।
लेकिन पलटू
कहते हैं एक
ऐसा राज तुम
से कहता हूं
कि अगर यह अमृत
तुम पी लो तो
फिर तुम नहीं
मरोगे। और जो
नहीं मरेगा, वही जीवन को
जान पाएगा। जो
मरता है, वह
कैसे जीवन को
जान पाएगा? मृत्यु को
जान पाएगा, जीवन को
कैसे जान
पाएगा? जीवन
की कोई मृत्यु
नहीं होती, मृत्यु का
कोई जीवन नहीं
होता।
पीवता
नाम सो जुगन
जुग जीवता,
जो उस
प्रभु के नाम
को पी लेता है, वह फिर सदा
जीता है।
नाहिं
वो मरै जो
नाम पीवै।
जिसने
उसके नाम को पीया, उसके
स्मरण को पीया,
फिर वह नहीं
मरता है। फिर
उसकी कोई
मृत्यु नहीं
है। अमृत से
जुड़ जाने का
नाम ही भक्ति
है। और अमृत
तुम्हारे
चारों तरफ
मौजूद है।
बाहर भी, भीतर
भी। मगर तुम
आशा के जाल
में भटके चले
जा रहे हो।
तुम्हें अपनी
संपदा का तो
होश ही नहीं
है। तुम्हारी
नजर दूसरों की
संपदा पर लगी
है—पड़ोसी के
पास कितना है,
उससे
ज्यादा मेरे
पास होना
चाहिए। पड़ोसी
ने मकान बड़ा
कर लिया, अब
मुझे भी मकान
बड़ा करना
होगा। तुम
अपनी संपदा कब
देखोगे
जो तुम्हें
जन्म के साथ
ही मिली है? जो तुम्हारा
स्वरूप है।
काल
ब्यापै
नहीं अमर वह होयगा,
आदि
और अंत वह सदा जीवै।।
जिसने
एक बार अपने
भीतर अनुभव कर
लिया परमात्मा
की उपस्थिति
को—और
परमात्मा
उपस्थित है
सिर्फ अनुभव
करना है! जरा टटोलो! मगर
यह टटोलना तभी
हो सकता है जब
बाहर से आशा
टूटे।
बुद्ध
न कहा है, बहुत
हैरान करने
वाला वचन, कि
धन्य हैं वे
जो निराश हैं।
तुम तो सुनोगे
तो कहोगे, यह
क्या बात हुई!
निराश और
धन्य! धन्य
हैं वे जो हताश
हैं। यह क्या
बात हुई? यह
कैसी धन्यता
हुई? लेकिन
बुद्ध ठीक कह
रहे हैं। क्योंकि
जो हताश हो
गया, जो
निराश हो गया,
जिसकी अब
कोई आशा न रही,
कोई पाने की
संभावना
जिसकी न रही, जिसने सारी
तरह से देख
लिया कि बाहर
भ्रम-ही-भ्रम
है, मृगमरीचिका-ही-मृगमरीचिका
है, उसे अनिवार्यरूपेण
भीतर मुड़ना
होता है। मुड़ना
होता है कहना
ठीक नहीं, मुड़
जाता है। अनिवार्यरूपेण।
चेतना जब बाहर
नहीं जाती तो
कहां जाएगी? अपने में ही
बैठ जाती है।
जैसे ही
बहिर्यात्रा
बंद हुई कि
तुम अपने में
ठहरे, थिर
हुए। उसी
स्थिरता में
स्वाद है अमृत
का।
संतजन
अमर हैं उसी
हरिनाम से,
उसी
हरिनाम पर
चित्त देवै।
उसी
परमात्मा को
अनुभव करके
संत अमर हो गए
हैं। वे कभी
मरते नहीं।
तुम भी नहीं मरते
हो, तुम्हारा
भी मरना सिर्फ
भ्रांति है।
तुम गलत से
जुड़े हो, इसलिए
तुम्हें मरने
का झूठा कष्ट
झेलना पड़ता है।
और
बहिर्यात्रा
सिर्फ अहंकार
दे सकती है और
कुछ भी नहीं।
आत्मा
को जानते ही
मृत्यु विदा
हो जाती है, जैसे दीए के
जलते ही
अंधकार विलीन
हो जाए। जैसे सुबह
के होते ही
रात समाप्त हो
जाए।
संतजन
अमर हैं उसी
हरिनाम से,
उसी
हरिनाम पर
चित्त देवै।
इसलिए
और चीजों से
चित्त को हटाओ!
व्यर्थ में
अपने को मत भरमाओ!
अब थोड़ा उसे
देखो जो तुम
हो, जो
तुम्हारी
निजता है। जो
तुम्हारे
भीतर झरना
चैतन्य का बह
रहा है, थोड़ी
उससे पहचान
करो! थोड़ा
उसके साथ डूबो,
एक होओ, एकरस
बनो!
दास
पलटू कहै
सुधारस छोड़िकै,
भया
अज्ञान तू छाछ
लेवै।।
कि
कैसे तुम पागल
हो कि अमृत
भीतर मौजूद है, उसको तो
पीते नहीं और
दूसरों के दरवाजों
पर छाछ मांगने
के लिए खड़े हो भिक्षापात्र
लिए! और इस जगत
में
मांगे-मांगे
भी छाछ भी
कहां मिलती है?
तुम जिन से
मांग रहे हो, वे भी भिखमंगे
हैं। तुम जिन
से मांग रहे
हो, वे तुम
से मांग रहे
हैं। भिखमंगे
भिखमंगों
के सामने हाथ
फैलाए हैं, झोली फैलााए
हैं। यहां सभी
तो इच्छाओं के
वशीभूत हैं।
यहां सभी तो
तृष्णा से भरे
हैं। यहां सभी
तो मांग रहे
हैं—और, और।
जो मांग रहा
है, वही मंगना
है। और मजा
कैसा है कि
तुम्हारे
भीतर अमृत की धार
बह रही है! मगर
तुम पीठ किए
हो। उसकी तरफ
तुम विमुख हो।
संसार
की तरफ आंख और
अपनी तरफ पीठ—यह
गृहस्थ का
लक्षण। और
अपनी तरफ आंख, संसार की
तरफ पीठ, यह
संन्यस्त का
लक्षण। न कहीं
जाना है, न
कहीं भागना है,
यह क्रांति
तुम्हारे
भीतर घटनी है।
यह आंख की बदलाहट
है। दुकान फिर
भी करना, बच्चों
को फिर भी
पालना, पत्नी
की चिंता फिर
भी लेना, मगर
एक आंख में
फर्क हो गया
है, एक
दृष्टि बदल
गई। अब तुम्हारी
नजर भीतर
रहेगी, रस
तुम भीतर का पीओगे, बाहर
का जो काम है
दिया
परमात्मा ने,
उसे पूरा
करते रहोगे, लेकिन अब वह
तुम्हारी दौड़
नहीं है, उसमें
तुम्हारी आशा
का लगाव नहीं
है, उसमें
तुम्हारी
अभीप्सा नहीं
है। हो तो हो, न हो तो न। अब
तुम उस संबंध
में बिलकुल सम्यकत्व
को उपलब्ध
रहोगे। हार हो
तो ठीक, जीत
हो तो ठीक, सब
बराबर। खेल है
शतरंज का।
मगर हम
तो ऐसे मूढ़
हैं कि शतरंज
के खेल में भी
तलवारें खिंच
जाती हैं।
जिंदगी के खेल
को शतरंज का
खेल समझना तो
दूर, शतरंज का
खेल जिसमें
हाथी-घोड़े सब
लकड़ी के—या
समझो कि अगर
बड़े अमीर हुए
तो हाथी-दांत
के—सब
हाथी-घोड़े, झूठे, राजा-वजीर
झूठे...
एक
अदालत में
मुकदमा था दो
आदमियों पर।
एक-दूसरे का
सिर खोल दिया
था। पुलिस पकड़
कर ले गई। मजिस्ट्रेट
ने कहा कि भई, मैं भी इसी
गांव में रहता
हूं, तुम्हें
भलीभांति
जानता हूं, तुम दोनों
दोस्त हो; हो
क्या गया? ऐसी
कौन-सी बात हो
गई कि
तुम्हारी
जिंदगी-भर की
दोस्ती टूट गई
और तुमने
एक-दूसरे का
सिर खोल दिया?
दोनों सिर
झुका कर खड़े
हो गए। एक ने
दूसरे से कहा:
तू ही कह दे।
उसने कहा कि
नहीं, तू
ही कह दे।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, कोई
भी कहो मगर
कहो तो!
उन्होंने कहा,
अब क्या कहें,
कहने योग्य
बात नहीं।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, कहना
तो होगा ही।
तो
मजबूरी में
उन्हें कहना
पड़ा।
उन्होंने
कहा, मामला यह
है—अब आप किसी
से मत कहना—हम
दोनों नदी के
किनारे बैठे
गपशप कर रहे
थे। रेत में
बैठे थे। इसने
कहा—इसी ने
शुरुआत की—इसने
कहा कि मैं एक
भैंस खरीद रहा
हूं। मैंने
कहा, देख
भाई, भैंस
मत खरीद! अपनी
पुरानी
दोस्ती है, अगर कभी
मेरे खेत में
घुस गई तो
मुझसे बुरा कोई
नहीं। अब भैंस
के पीछे क्या
जिंदगी-भर की
दोस्ती गंवानी
है? और
भैंस का क्या
भरोसा! और मैं
बर्दाश्त न कर
सकूंगा! मेरे
खेत में घुस
गई तो मार ही
डालूंगा भैंस
को! सो तू इस
झंझट में पड़
ही मत। भैंस मत
खरीद! और यह
एकदम जोश में
आ गया, तैश
में आ गया, इसने
कहा कि तूने
समझा क्या है?
तेरा खेत है
तो कोई भैंस
ही न खरीदे!
भैंस खरीदूंगा।
और भैंस भैंस
है, अगर
कभी खेत में
भी घुस गई तो
अपनी पुरानी
दोस्ती है, इतनी-सी बात
में खतम हो
जाएगी? और
अगर खतम होनी
है, तो खतम
हो गई। ऐसी
दोस्ती का
क्या मूल्य कि
जरा मेरी भैंस
तेरे खेत में
घुस गई और
दोस्ती खतम!
तो आज ही खतम!
और भैंस तो
भैंस है, अब
मैं कोई चौबीस
घंटे उसके
पीछे नहीं
घूमता रहूंगा,
कभी घुस भी
सकती है। और
याद रख, मेरी
भैंस को अगर
हाथ भी लगाया
तो मुझसे बुरा
कोई नहीं!
बात बढ़
गई।
तो
मैंने वहीं
कहा कि ठीक, तो फिर हो
जाए! मैंने
वहीं रेत पर
अपना खेत खींच
कर बना दिया
कि यह रहा
मेरा खेत, हो
तेरी हिम्मत
तो घुसा दे
भैंस! और इसने
अपनी अंगुली
से एक लकीर
खींच कर कहा
कि यह घुस गई
भैंस, कर
ले क्या करता
है! अब फिर आगे
का सब हाल
पूरे गांव को
मालूम है!
इसलिए हम
संकोच करते
हैं, कहना
भी क्या, न
तो...अभी कुछ था
ही नहीं, मगर
बात बिगड़नी
थी सो बिगड़
गई। सिर खुल
गए। अब हम
पछताते हैं, मगर अब जो हो
गया सो हो
गया।
तुम्हारी
जिंदगी क्या
है? परमात्मा
के सामने खड़े
होओगे तो ऐसे
ही झुक कर
कहोगे पत्नी
से कि अब तू ही
कह दे! पत्नी
कहेगी कि आप
पति परमात्मा
हैं, आप ही
कहिए। आपके
सामने मैं
कैसे बोलूं, आप ही
बोलिए।
तुम्हारे
लड़ाई और झगड़े,
तुम्हारी
मित्रताएं और शत्रुताएं,
सब ताश के
खेल हैं। और
ताशों पर बने
हुए राजा और
रानी बस
मान्यताएं
हैं। मगर हम
बड़े उपद्रवों
में पड़े हुए
हैं।
दास
पलटू कहै
सुधारस छोड़िकै,
भया
अज्ञान तू छाछ
लेवै।।
यह
कैसा अज्ञान
तुझे घेर लिया
है! यह कैसी मूढ़ता, यह कैसी
मूर्च्छा!!
जिनके
पास सहारे
उनके
पांव हवा छूती
है
किस्मत
चांदी की जूती
है।
जिसने
नियम कर दिए
झीने
उसको
छेड़ा
नहीं किसी ने
उन
पांवों में
बड़ी बिवाई
जिनमें
मजबूती है।
दहले
पर बैठे जो
नहले
हंसलें
और सुबह से
पहले
जब
तक किरण नहीं
आती
अंधियारे
की तूती है।
यह जिस
जिंदगी को तुम
जिंदगी समझ
रहे हो—जब तक
किरण नहीं आती, अंधियारे की तूती है—इसमें
जिंदगी जैसा
कुछ भी नहीं
है। बस, जब
तक किरण नहीं
आती, अंधियारे की तूती है।
और
किरण कहां से
आनी है? किन्हीं
दूर सात समंदर
पारों से
नहीं। किरण
तुम्हारे
भीतर सोई पड़ी
है, उसे
जगाना है, उसे
झकझोरना है, उसकी नींद तोड़नी है।
और एक किरण
तुम्हारे
भीतर पैदा हो
जाए—जरा-सी किरण
रोशनी की, अंधेरा
जरा-सा टूटने
लगे कि तुम
चकित होओगे: कैसे
तुम जिए, कैसे
व्यर्थ तुम
जिए! जहां
वसंत हो सकता
था, वहां
केवल पतझड़
ही रहा! जहां
फूल खिल सकते
थे केवल कांटे
लगे!
एक
समय था—
जब
मुझे लगता था
कि
मैं
किसी
पहाड़ पर
खड़ा
हूं
मन
से, तन से
तगड़ा हूं।
लेकिन
अब!
लगता
है
मैं
किसी पहाड़ के
बोझ
से मर रहा हूं
हर
रोज पीले
पत्ते-सा
झर
रहा हूं।
यह अकड़
बस दो दिन की
है। यह जिंदगी
ही चार दिन की
है। इस जिंदगी
की लंबाई
कितनी है? दो आरजू में
कट गए दो
इंतजार
में...बस चार
दिन...उम्रे-दराज
मांग कर लाए
थे चार दिन।
दो मांगने में,
आरजू में; और दो
इंतजार में, प्रतीक्षा
में कि अब आया,
अब आया; अब
मिला, अब
मिला। और एक
दिन मौत आती
है, मिट्टी
मिट्टी
में गिर जाती
है। और मृत्यु
के क्षण में
बहुत पछतावा
होता है कि इस
जिंदगी को
सोना बना सकते
थे, यह
मिट्टी ही रह
गई! इस सोने
में सुगंध भी
ला सकते थे और
यह मिट्टी ही
रह गई! इस कीचड़
में कमल खिल
सकते थे और यह
कीचड़ और भी
कीचड़ होकर
समाप्त हो गई!
नहीं ऐसा विषाद
तुम्हें पकड़ेगा
अगर हरिनाम से
अपनी नाव को
जोड़ लो।
धन्य
हैं संत निज
धाम सुख छाड़िकै
आन
के काज को देह
धारा।
पलटू
कहते हैं कि
चकित होता हूं
मैं—चकित होने
की बात है, यह इस जगत का
सबसे बड़ा
चमत्कार है—कि
बुद्धपुरुष
अपने अंतर्लोक
को छोड़कर
तुम्हें
समझाने की
चेष्टा में
संलग्न होते
हैं, अपने
भीतर के आनंद
को छोड़कर
तुम्हारे साथ
सिर मारते हैं,
और तुम से
पाते क्या हैं—सिवाय
गालियों के, सिवाय अपमान
के। तुम्हारे
पास और देने
को कुछ है भी
नहीं।
तुम्हारे पास
गीता तो हैं
ही नहीं, गालियां
ही हैं।
तुम्हारे
भीतर फूल तो
खिले ही नहीं,
कांटे ही
हैं। और जो
तुम्हारे पास
है, वही
तुम दे सकते
हो। आखिर
बुद्धों को
तुमने दिया
क्या है? जीसस
को तुमने क्या
दिया—कांटों
का ताज! मंसूर
को तुमने क्या
दिया? हाथ-पैर
काट लिए, जबान
काट ली, गर्दन
काट ली।
सुकरात को
तुमने क्या
दिया? जहर!
तुम खुद जहर
पीते हो और
अगर तुम्हें
कोई जगाने आ
जाए, तो
तुम बर्दाश्त
नहीं करते। इस
जगत में
बड़े-से-बड़े
चमत्कारों
में यह
चमत्कार है।
धन्य
हैं संत निज
धाम सुख छाड़िकै,
आन
के काज को देह
धारा।
कोशिश
करते हैं सोए
हुए लोगों को
जगाने की। उनका
काम पूरा हो
गया है, चाहें
तो इसी क्षण
देह से उड़
जाएं—उनका पिंजड़ा
खुल गया है, दरवाजा खुला
है—मगर रुके
हैं। जितनी
देर तक बनता
है, रुकते
हैं। जितनी
देर संभव होता
है, रुकते
हैं, कि
शायद दो-चार
पंछी उनके साथ
उड़ने को
राजी हो जाएं।
उन्हें तो
मानसरोवर का
मार्ग मिल गया
है लेकिन शायद
दो-चार और
मानसरोवर के
यात्री हो
जाएं।
ज्ञान-समसेर लै
पैठि
संसार में,
सकल
संसार का मोह टारा।।
लेकिन
तलवार लेकर
कूद पड़ते हैं
संसार में कि लोगों
का मोह काट
दें।
जीसस
से किसी ने
कहा है: आप
शांति के
अवतार हैं; आप जगत में
शांति लेकर
अवतरित हुए
हैं। जीसस ने
कहा कि नहीं, मैं तलवार
लेकर आया हूं।
ईसाइयों को
बड़ी कठिनाई
होती है इस
वक्तव्य का
अर्थ करने
में। क्योंकि
जीसस और कहें
कि नहीं, मैं
तलवार लेकर आया
हूं! इसकी
क्या
व्याख्या
करें? क्योंकि
जीसस तो परम
शांति के
संदेशवाहक और
कहें कि मैं
तलवार लेकर
आया हूं!
पलटू
के वचन में
अर्थ है। यह
साधारण तलवार
की बात नहीं
हो रही है।
जीसस उस तलवार
की बात कर रहे
हैं जो
तुम्हारे मोह
को काट देगी, जो तुम्हारे
अंधकार को काट
देगी, जो
तुम्हारी
मूर्च्छा को
काट देगी।
ज्ञान-समसेर लै
पैठि
संसार में,
सकल
संसार का मोह टारा।।
प्रीति
सब से करैं
मित्र और
दुष्ट से,
भली
औ बुरी दोउ
सीस धारा।
संतों
के जीवन में
भीतर तो अमृत
की रसधार बहती, लेकिन बाहर
कुछ थोड़े-से
लोग जिनमें
बोध है, जिनमें
होश है, वे
तो उनके चरणों
में सिर भी
रखते हैं, लेकिन
अधिक लोग, भीड़-भाड़,
वह तो
गालियों की
बौछार करती
है। पागलों की
एक जमात है यह
पृथ्वी! इसमें
अजीब-अजीब
पागल हैं! जहां
अहंकार है
वहां पागलपन
है। और जहां
अहंकार है
वहां सिर्फ
भूलें ही हो
सकती हैं।
वहां सत्य खो
जाता है—सत्य
तो दूर, वहां
साधारण
सज्जनता भी खो
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
स्टेशन जाने
की जल्दी में
था और कोई
टैक्सी नहीं
मिल रही थी।
अंततः उसने
सोचा कि किसी
कार से ही
लिफ्ट मांगी
जाए वरना गाड़ी
पकड़ना
मुश्किल है।
सो पहली ही जो
कार निकली, वह देश के एक
महान नेता की
थी; मुल्ला
को कुछ पता
नहीं, वह
तो स्टेशन
जाने की जल्दी
में था, घंटाघर
की घड़ी घंटे
बजा रही थी, बस मिनटों
में अगर नहीं
पहुंचा तो चूक
जाएगा और जाना
जरूरी है, पहुंचना
जरूरी है, सो
उसने हाथ दिया,
कार रुकी, बिना कुछ
पूछे ही
मुल्ला झट से
पीछे का
दरवाजा खोल कर
भीतर घुस गया।
महान नेता को
महान क्रोध
आया। महान
नेताओं को
महान ही चीजें
होती हैं। वे
गुस्से में
बोले: उल्लू
के पट्ठे!
नीचे उतरो!
क्या अपने बाप
की गाड़ी समझ
रखी है? जानते
नहीं मैं कौन
हूं? हाथ
देकर गाड़ी
क्यों रोकी? तुम कौन हो
गाड़ी रोकने
वाले? मुल्ला
नसरुद्दीन
ने हाथ जोड़े
और कहा:
अरे-अरे, क्षमा
करें नेता जी!
आपकी गाड़ी है,
मुझे क्या
पता! मैं तो
स्टेशन जाने
की जल्दी में
था, मैं तो
समझा कि किसी
सज्जन पुरुष
की कार होगी।
जहां
अहंकार है, वहां
सज्जनता खो
जाती है। और
जहां अहंकार
है, वहां
विक्षिप्तता
का वास हो
जाता है।
अहंकार एक तरह
का पागलपन है।
सरकारी
कार्यालय में
इंटरव्यू था। चंदूलाल
भी उसमें
उम्मीदवार
थे।
प्रश्नकर्ता
ने पूछा, चंदूलाल,
टाइपिंग
किस स्पीड से
कर लेते हो? जरा
प्रश्नकर्ता
और इंटरव्यू
लेने वाला शंकित
था, चंदूलाल के ढंग कुछ
झक्की-से
मालूम होते
थे। टोपी उलटी
लगा रखी थी, कोट की बटनें
भी ऊपर-नीचे
लगी थीं। चंदूलाल
ने कहा, सौ
शब्द प्रति
मिनट की दर
से। अधिकारी
को विश्वास तो
न आया। यह ढंग
और सौ शब्द
प्रति मिनट की
दर से टाइप
करने की
क्षमता! बात
कुछ जंची तो
नहीं, लेकिन
उसने कहा, कोई
बात नहीं, आओ
करके बताओ! चंदूलाल
बेधड़क
आगे बढ़े। टाइप
करने बैठ गए।
करीब आधा घंटा
बाद अधिकारी
आया, देखा
कि अभी तक चंदूलाल
ने केवल
तीन-चार शब्द
ही टाइप किए
हैं। जवाब में
चंदूलाल
ने कहा कि माफ
करिए, मुझे
हिंदी
टाइपिंग नहीं,
अंग्रेजी
टाइपिंग का
ज्ञान है।
अधिकारी ने उसे
अंग्रेजी
टाइपिंग की
मशीन दी। फिर
आधे घंटे बाद
आया तो देखा चंदूलाल
ने एक शब्द भी
टाइप नहीं
किया है।
क्यों जी, तुम
तो कहते थे
अंग्रेजी
टाइपिंग बहुत
तेजी से कर
लेते हो अभी
तक खाली क्यों
बैठे हो? जी
हां, चंदूलाल बोले, हिंदी
टाइपिंग
यद्यपि मैं
तेजी से नहीं
कर पाता, लेकिन
हिंदी पढ़ते बन
जाती है।
अंग्रेजी में
हालत बिलकुल
उलटी है। टाइपिंग
तो अपोलो यान
की गति से
करता हूं, मगर
अंग्रेजी
पढ़ते नहीं
बनती।
अहंकार
में उलझे हुए
आदमी की बड़ी
दुविधा है, द्वंद्व है।
सब
अधूरा-अधूरा
है, कुछ
पूरा नहीं। सब
खंड-खंड है, कुछ अखंड
नहीं। ज्ञान
बासा है, उधार
है, अपना
नहीं। अज्ञान
अपना है और
ज्ञान बासा है,
उधार है। और
ज्ञान पर
भरोसा है। और
अपने अज्ञान
को तो देखता
भी नहीं। देखे
तो तोड़ने की
चेष्टा हो
सकती है।
सोचना, जो
भी तुम जानते
हो जानते हो? और चकित हो
जाओगे: जो भी
मूल्यवान है,
कुछ नहीं
जानते। ईश्वर,
आत्मा, स्वर्ग-नर्क,
पाप-पुण्य,
कर्म-अकर्म—यह
सब तुम बकवास
की तरह करते
हो, इसमें
से किसी भी
चीज का
तुम्हें कोई स्वानुभव
नहीं है। मगर
लोग ब्रह्मचर्चा
कर रहे हैं!
इस देश
में तो यह
दुर्भाग्य और
भी घना हो गया
है। इस देश
में तो सभी
ज्ञानी हैं।
यहां अज्ञानी
तो कोई है ही
नहीं। यह तो
पुण्यभूमि है, धर्मभूमि है। जिसने
गीता पढ़ ली, जिसने
रामायण
कंठस्थ कर ली,
वह ज्ञानी
हो गया। जो
उपनिषद के चार
वचन दोहरा
लेता है, वह
सोचता है कि
सब आ गया, अब
क्या करना है?
इतना
सस्ता नहीं है
ज्ञान। ऐसे
नहीं मिलता ज्ञान।
ज्ञान के लिए
ध्यान चाहिए।
इसलिए
पलटू कहते
हैं:
संतजन
अमर हैं उसी
हरिनाम से,
उसी
हरिनाम पर
चित्त देवै।
उसी
हरिनाम पर
चित्त को
लगाने का नाम
ध्यान है।
अपने भीतर
उसकी तलाश, खोज, अपने
भीतर उसे
खोदना है।
जैसे मिट्टी
को खोदते जाओ
तो जलस्रोत
मिल जाएंगे, मिल ही
जाएंगे
देर-अबेर, वैसे
ही स्वयं के
भीतर खोदते
चले जाओ तो
हरिनाम मिल
जाएगा, हरि
की किरण मिल
जाएगी। और तब
तुम्हारे
जीवन में एक
क्रांति होती
है। तब
तुम्हारे पास
देने को कुछ
होता है। और
इतना होता है
कि तुम दिए चले
जाओ, चुकता
नहीं। और
ध्यान रखना, तुम दोगे
लोगों को अमृत
और गालियां
पड़ेंगी और पत्थर
गिरेंगे
तुम्हारे ऊपर
और फांसी लगाई
जा सकती है।
यह लोग
करेंगे। जो
लोग कर सकते
हैं, वह
लोग करेंगे।
लेकिन इससे
संतों को कुछ
भेद नहीं
पड़ता।
भली
और बुरी दोउ
सीध धारा।
प्रीति
सब से करैं
मित्र औ दुष्ट
से,
दास
पलटू कहै राम
नाहिं जानहूं,
यह
शब्द बड़ा
अदभुत है!
दास
पलटू कहै राम
नहिं जानहूं,
जानहूं
संत, जिन
जक्त
तारा।।
कहते
हैं कि राम को
तो मैं
सीधा-सीधा
नहीं जानता
था। कैसे
जानता? जाना
पहले उन्हें
जिन्होंने
राम को जान
लिया था।
संतों को
जाना।
इस
पृथ्वी पर
परमात्मा का
और कोई प्रमाण
नहीं है। कोई
तर्क उसे
सिद्ध नहीं कर
सकता। तर्क से
तो परमात्मा
असिद्ध ही
होता है। तर्क
तो नास्तिक के
पक्ष में है, आस्तिक के
पक्ष में नहीं
है। आस्तिकता
तर्क से संबंध
भी नहीं रखती।
तर्क तो निषेध
का व्यापार है
और आस्तिकता
विधेय है।
नहीं कहना हो
तो तर्क की
जरूरत होती है,
हां कहना हो
तो तर्क की
कोई जरूरत
नहीं होती।
तर्क
परमात्मा को
सिद्ध नहीं करता,
कोई प्रमाण
नहीं देता। जो
तर्क से ही
जीते हैं वे
अधार्मिक ही
रह जाते हैं।
जो तर्क से ही
जीते हैं, उनके
जीवन में न
कोई गंध होती
है, न कोई
गीत होता, न
कोई संगीत
होता। जो तर्क
से ही जीते
हैं, वे
मिट्टी की तरह
ही जीते हैं
और मिट्टी की
तरह ही नष्ट
हो जाते हैं।
उनके जीवन में
वह परम
सौभाग्य की
घड़ी आ ही नहीं
पाती जब
महोत्सव फले,
जब दीपावली
हो, जब हम
शाश्वत के साथ
होली खेल
सकें।
दास
पलटू कहै राम
नहिं जानहूं,
कहते
हैं कि राम को
तो मैं जानता
भी नहीं, जान
भी नहीं सकता
था। लेकिन
मेरा सौभाग्य
यह था कि—
जानहूं
संत, जिन
जक्त
तारा।।
उन
संतों को
जानने का अवसर
मिल गया, जो
तलवार लेकर
टूट पड़े थे
जगत में कि हो
जिसकी भी
हिम्मत उसका
मोह काट दें, उसका भ्रम
तोड़ दें; हो
जिसमें भी
साहस, उसका
अहंकार, उसकी
गर्दन काट
दें। लेकिन
जिसने संत को जान
लिया, उसके
लिए परमात्मा
के प्रमाण
मिलने शुरू हो
जाते हैं। संत
के सान्निध्य
में प्रमाण
है। संत की
तरंगों में
प्रमाण हैं।
संत के आसपास बरसते
प्रसाद में
प्रमाण हैं।
लेकिन इस
प्रसाद को, इस तरंग को, इन फूलों की
वर्षा को वही
झेल पाएगा जो
हृदय खोलकर
बैठे। अगर
तर्क में अकड़े,
अहंकार में जकड़े, ज्ञान
से भरे, पक्षपात
की आंखों पर पट्टियां
बांधे, कानों
में घंटे
लटकाए कि कुछ
और सुनाई न
पड़े, अगर
इस तरह आ कर
संत के पास भी
बैठे तो नदी
के पास भी आए
और प्यासे ही
लौट जाओगे।
संत के
पास तो बैठने
की कला है: मिट
कर बैठना; खाली होकर
बैठना; शून्य
होकर बैठना।
संत को सुनने
का एक और ही ढंग
है। स्कूल में,
विद्यालय
में, विश्वविद्यालय
में सुनने का
एक ढंग है।
संत के पास
सुनने का
दूसरा ही ढंग
है।
विश्वविद्यालय
में सुनते हो
बुद्धि से, संत को
सुनना होता है
हृदय से।
विश्वविद्यालय
में सुनते हो
विचार से, संत
को सुनना होता
है प्रेम से।
जो अपनी प्रीति
की झोली फैला
कर संत के पास
बैठ जाता है, उसकी झोली
भर जाती है।
दास
पलटू कहै राम
नहिं जानहूं,
जानहूं
संत, जिन
जक्त
तारा।।
उम्रे-अबद
से खिज्र
को बेजार देख
कर
खुश
हूं फुसूने-नरगिसे-बीमार
देख कर।
अब
जुस्तजू-ए-दोस्त
की मंजिल कहीं
भी हो
हम
चल पड़े हैं
राह को दुशवार
देख कर।
अब
इससे क्या गरज
कि हरम है कि
दैर है
बैठे
हैं हम तो
साया-ए-दीवार
देख कर।
राजे
फरोगे-आखिरे-शब
कुछ न खुल सका
क्यों
खुश है शम्अ
सुब्ह के
आसार देख कर।
साजे
गजल उठा ही
लिया हमने ऐ
रविश
उस चश्मे-नीम-बाज
का इसरार देख
कर।
संतों
के पास बैठोगे
तो गीत उठने
ही लगेंगे। क्योंकि
संत के भीतर
वह परम प्यारा
प्रकट हो रहा
है—या कहो, वह परम
प्रेयसी
प्रकट हो रही
है। जो मर्जी
हो! सूफी कहते
हैं उसे: परम
प्रेयसी।
पलटू कहेंगे उसे:
परम प्यारा।
दोनों ठीक
हैं। क्योंकि
वहां न तो
स्त्री बचती
है न पुरुष।
परमात्मा न तो
स्त्री है न
पुरुष। पर हम
तो बोलेंगे तो
कोई-न-कोई
शब्द उपयोग
करना पड़ेगा।
यह
सूफियों का
वचन है:
साजे-गजल
उठा ही लिया
हमने ऐ रविश
उठाना
ही पड़ा। आज
उठाना पड़ा।
वीणा बजानी
पड़ी, कि
बांसुरी
बजानी पड़ी, कि मृदंग पर
थाप देनी पड़ी,
कि गजल गानी
पड़ी।
साजे-गजल
उठा ही लिया
हमने ऐ रविश
उस
चश्मे-नीम-बाज
का इसरार
देखकर।
उसका
इशारा देखा।
उस प्रियतमा
का इशारा देखा।
उस प्रियतमा
की आधी आंखें
खुलीं, आधी
बंद, उन अधखुली
आंखों का
इशारा समझ में
आ गया।
तुमने
बुद्ध की
प्रतिमा देखी? बुद्ध की
प्रतिमा, आधी
आंख खुली होती
है, आधी
बंद। नीम-बाज,
अधखुली आंख होती
है। क्यों? सदियों से
यह सवाल बौद्ध
जिज्ञासु
पूछते रहे हैं:
क्यों? जवाब
दिया है जापान
के एक झेन
फकीर रिंझाई
ने। उसने कहा,
बुद्ध
मध्यमार्गी
हैं। इसलिए वे
कहते हैं, बाहर
भी देखो आधा, आधा भीतर भी
देखो।
क्योंकि वही
बाहर है, वही
भीतर है।
इसलिए आधी
खुली आंख।
महावीर
की आंख पूरी
बंद है ध्यान
में। वे भीतर
डुबकी मार रहे
हैं, पूरी-पूरी
डुबकी मार रहे
हैं।
तुम्हारी आंख
पूरी खुली है।
तुम बाहर भटक
रहे हो।
रिंझाई की बात
में सचाई है।
बुद्ध ने आधी
आंख बंद की, आधी खुली
रखी। क्योंकि
बाहर भी वही, भीतर भी
वही। बुद्ध का
सारसूत्र
है: मध्य। ठीक
बीच में रुक
जाना। जैसे
तराजू को
तौलते वक्त जब
कांटा ठीक बीच
में रुक जाता
है, तो समतुलता
आ जाती है, समता
आ जाती है, सम्यकत्व आ जाता है। न
तो बहुत भीतर
झुक जाना है—नहीं
तो अंतर्मुखता
घेर लेगी; न
बहुत बाहर झुक
जाना—नहीं तो
बहिर्मुखता
घेर लेगी।
दोनों स्थितियों
में आदमी आधा
रह जाता है।
और परमात्मा
को जानना है
उसकी समग्रता
में।
साजे-गजल
उठा ही लिया
हमने ए रविश
उस पश्मे-नीम-बाज
का इसरार देख
कर।
और जब
उसका इशारा हो
गया हो, तो
हम करते भी
क्या! फिर
हमने गीत छेड़
ही दिया।
अब
जुस्तजू-ए-दोस्त
की मंजिल कहीं
भी हो
अब उस
प्यारे की
मंजिल कहीं भी
हो, कोई
फिक्र नहीं, एक बार सदगुरु
से मिलना हो
गया तो इतना
भरोसा आ जाता
है कि मंजिल
है। और इसके
अतिरिक्त
भरोसा आता
नहीं। सदगुरु
की आंखों में
झांक कर ही
भरोसा आता है।
उसके हृदय के
साथ जब
तुम्हारा हृदय
भी धड़कता
है—साथ-साथ, लयबद्ध होकर,
तब भरोसा
आता है। तब
श्रद्धा उमगती
है।
अब
जुस्तजू-ए-दोस्त
की मंजिल कहीं
भी हो
अब उस
प्यारे की
मंजिल कहीं भी
हो, कोई
फिक्र नहीं।
हम चल
पड़े हैं राह
को दुशवार
देखकर।
और यह
भी हमें मालूम
है कि रास्ता
कठिन है, और
यह भी हमें
मालूम है कि चढ़ाई है और
पहाड़ की
यात्रा है, मगर कोई
फिक्र नहीं, एक बार
जिसने सदगुरु
की आंख में
झांक लिया, उसे यह बात
पक्की हो जाती
है—
अब
जुस्तजू-ए-दोस्त
की मंजिल कहीं
भी हो
हम
चल पड़े हैं
राह को दुशवार
देखकर।
अब इससे
क्या गरज कि
हरम है कि दैर
है
बैठे
हैं हम तो
साया-ए-दीवार
देख कर।
और
सच्चा प्रेमी
परमात्मा का
यह फिक्र नहीं
करता कि
मस्जिद है कि
मंदिर है, कि
गुरुद्वारा
है कि गिरजा
है। इसकी भी
फिक्र नहीं
करता कि सदगुरु
हिंदू है कि
मुसलमान है, कि ईसाई।
अब
इससे क्या गरज
कि हरम है कि
दैर है
बैठे
हैं हम तो
साया-ए-दीवार
देख कर।
अब
मंदिर की
दीवाल हो कि
मस्जिद की, क्या फर्क
पड़ता है? हमें
तो छाया मिल
रही है। हम तो
छाया देख कर
बैठ गए हैं।
मस्जिद की
दीवाल भी छाया
दे देती है, मंदिर की
दीवाल भी छाया
दे देती है।
और धूप से जो तड़प रहा है,
उसे छाया
चाहिए। वह यह
फिक्र नहीं
करता कि मंदिर,
मस्जिद...।
राजे-फरोगे-आखिरे-शब
कुछ न खुल सका
क्यों
खुश है शम्अ
सुबह के आसार
देखकर।
बड़ा
प्यारा वचन
है! कि इस बात
का राज पहले
नहीं खुल सका
था कि सुबह
होती देख कर
शमा खुश क्यों
है! शमा को खुश
नहीं होना चाहिए।
क्योंकि सुबह
होते ही शाम
बुझा दी
जाएगी। शमा को
तो खुश होना
चाहिए रात देख
कर क्योंकि रात
में शमा जलेगी, दिया जलेगा।
सुबह हुई कि
दीया बुझा।
सुबह को देख
कर शमा इतनी
खुश क्यों है?
यह राज तो
खुलता है जब
तुम किसी संत
के साथ जुड़ोगे।
तब तुम जानोगे
कि अहंकार की
शमा बुझ जाए
तो आत्मा की
शमा
प्रज्वलित
होती है। तब
तुम जानोगे कि
संत क्यों
अपने को मिटा देने
को उत्सुक है?
क्योंकि
उसे एक रहस्य
पता चल गया है
कि मिटने में
ही असली होना
है। खोने में
ही असली पाना
है। जीसस का
वचन है: जो
बचाएंगे अपने
को, खो
जाएंगे। और जो
अपने को खो
देंगे, वे
बचा लिए गए।
कफन
को बांधिकै
करै तब आसिकी,
पलटू
कहते हैं, कफन बांध
लेना सिर में,
तब चलना इस
प्रेम के
रास्ते पर।
कफन
को बांधिकै
करै तब आसिकी,
आसिक
जब होय तब
नाहिं सोवै।
ध्यान
रहे, रास्ता
दुश्वार है, कठिन है।
लेकिन अगर कभी
किसी सदगुरु
का जरा-सा
स्वाद लग गया
तो चुनौती मिल
जाती है। तब
असंभव संभव
मालूम होने
लगता है। तब
रात कितनी ही
अंधेरी हो, सुबह होकर
रहेगी, इसकी
ऐसी आस्था उमगती
है कि चल पड़ता
है आदमी; कितने
ही पहाड़
लांघने हों, कितने ही
समंदर लांघने
हों, सब की
तैयारी दिखा
देता है। पाना
ही होगा। एक बार
बूंद भी मिल
जाए स्वाद की,
जरा-सा बूंद
का स्वाद कि
फिर रुका नहीं
जा सकता। फिर
अपरिहार्य है
यात्रा।
कफन
को बांधिकै
करै तब आसिकी,
आसिक
जब होय तब
नाहिं सोवै।
और
प्रेम की शर्त
यही है कि फिर
दुबारा न सोए।
फिर दोबारा
संसार में
मूर्च्छित न
हो।
नश्या-ए-मय
के सिवा कितने
नशे और भी हैं,
कुछ
बहाने मेरे
जीने के लिए
और भी हैं।
ठंडी-ठंडी-सी
मगर गम से है
भरपूर हवा,
कई
बादल मेरी
आंखों से परे
और भी हैं।
इश्के-रुसवा, तेरे हर
दागे-फरोजां
की कसम,
मेरे
सीने में कई
जख्म हरे और
भी हैं।
हिज्र
तो हिज्र
था, अब देखिए
क्या होता है,
उसकी
कुर्बत
में कई दर्द
नए और भी हैं।
रात
तो खैर किसी
तरह से कट
जाएगी,
रात
के बाद कई कोस कड़े और भी
हैं।
वादी-ए-गम
में मुझे देर
तक आवाज न दे
वादी-ए-गम
के सिवा मेरे
पते और भी
हैं।
यात्रा
तो कठिन है।
यात्रा तो
लंबी है।
यात्रा तो
करीब-करीब
असंभव है।
लेकिन असंभव
की चुनौती न
लोगे तो
तुम्हारे
भीतर आत्मा भी
पैदा न होगी।
असंभव की
चुनौती के
स्वीकार में
ही आत्मा का
जन्म है।
जितनी बड़ी
यात्रा पर तुम
निकलते हो, उतने ही बड़े
तुम हो जाते
हो। जितने
विराट की तुम
तलाश करते हो,
उतने ही
विराट तुम हो
जाते हो।
क्षुद्र से
दोस्ती न
बांधना, नहीं
तो क्षुद्र हो
जाओगे।
दास
पलटू कहै राम
नहिं जानहूं,
जानहूं
संत, जिन
जक्त
तारा।।
कुछ
मैत्री बनाओ
किसी सदगुरु
से। उसके हाथ
की तलवार देख
कर भाग मत खड़े
होना। काटेगा
तुम्हें, जरूर
काटेगा, मारेगा
तुम्हें, क्योंकि
तुम जैसे हो
अभी झूठे हो।
तुम्हें मिटाएगा,
क्योंकि
तभी तुम्हारा
वास्तविक
जन्म हो सकता
है, तुम
द्विज हो सकते
हो। और
तुम्हारा
दूसरा जन्म
होना चाहिए—देह
का नहीं, आत्मा
का।
हिज्र
तो हिज्र
था, अब देखिए
क्या होता है,
उसकी
कुर्बत
में कई दर्द
नए और भी हैं।
संसार
के दुख हैं, लेकिन जब
तुम परमात्मा के
समीप आने
लगोगे तो
तुम्हें नई पीड़ाओं का
अनुभव होगा—पीड़ाएं जो
बड़ी मीठी हैं;
पीड़ाएं जो बड़ी मधुर
हैं; पीड़ाएं जो आरपार
भेद जाती हैं,
छेद जाती
हैं।
हिज्र
तो हिज्र
था, अब देखिए
क्या होता है,
उसकी
कुर्बत
में कई दर्द
नए और भी हैं।
रात
तो खैर किसी
तरह से कट
जाएगी,
रात
के बाद कई कोस कड़े और भी
हैं।
धर्म
कायरों के लिए
नहीं है, साहसियों के लिए है, दुस्साहसियों के लिए है।
कायरों ने तो
अपने मतलब के
धर्म बना लिए
हैं। यज्ञ कर
लिया, हवन
कर लिया, घंटी
बजा ली पत्थर
की मूर्ति के
सामने और सोचा
कि धर्म हो
गया। कि चर्च
हो आए हर
रविवार को कि
सोचा कि धर्म
हो गया। कि
जाकर दो फूल
चढ़ा दिए और
सोचा कि धर्म
हो गया। अपने
को कब चढ़ाओगे?
जब तक अपने
को न चढ़ाओगे
तब तक धर्म
नहीं होगा।
कबीर
कहते हैं: जो
घर बारै आपना, चलै हमारे साथ।
सब जला कर राख
करने की
तैयारी हो, वह हमारे
साथ आए।
मंदिरों
और मस्जिदों
में तम कायरों
को झुका देखोगे।
सदगुरुओं
के पास
दुस्साहसी
इकट्ठे होते
हैं। क्योंकि वहां
चुनौती है। और
ऐसी चुनौती, जिसे
स्वीकार करना
बस थोड़े-से
लोगों की
सामर्थ्य में
है। मगर यही
थोड़े-से लोग
इस जमीन के नमक
हैं। इनके
कारण ही इस
जमीन में
थोड़ा-सा रस है,
स्वाद है।
इन्हीं के
कारण इस जमीन
में थोड़े-से दीए
जलते हैं, थोड़ी
रोशनी होती
है। इन्हीं के
कारण मनुष्य मनुष्य
है। ये
थोड़े-से आदमी
खो जाएं कि
फिर आदमी और
पशु में कोई
भेद नहीं रह
जाता। ये
थोड़े-से बुद्ध,
कृष्ण
क्राइस्ट; ये
थोड़े-से
मुहम्मद, महावीर,
मूसा, बस
इन थोड़े-से
लोगों के कारण
तुम आदमी हो।
तुम्हारे कारण
नहीं।
तुम्हारे
कारण तो तुम
पशु ही हो। इन
थोड़े-से लोगों
ने खींचा है, खूब खींचा
है; तुम्हें
जितनी
ऊंचाइयों तक
ले जा सकते थे,
ले गए हैं।
तुम गिर-गिर
जाओ, यह
तुम्हारा
कसूर; तुम
उठो ही न, यह
तुम्हारा
कसूर; मगर
जगाने वालों
को तुम दोष न
दे सकोगे।
उन्होंने
पहाड़ों की
चोटियों पर
खड़े होकर आवाज
दी है।
उन्होंने
आवाज देने के
लिए हर कीमत
चुकाई है।
उन्होंने
तुम्हारी
गालियां, कांटे,
पत्थर फांसियां,
जहर, सब
सहे हैं।
कफन
को बांधिकै
करै तब आसिकी,
आसिक
जब होय तब
नाहिं सोवै।
चिता
बिनु आगि
के जरै दिनराति
जब,
और फिर
एक ऐसी आग
लगती है भीतर
कि चिता कहीं
दिखाई नहीं
पड़ती, आग
कहीं दिखाई
नहीं पड़ती और
फिर भी भक्त
जलता है। मगर
यह जलना
सौभाग्य है।
क्योंकि
इसमें केवल
कचरा जलता है,
सोना तो निखर
आता है।
जीवत
ही जान से सती होवै।।
मृत्यु
तो नहीं होती, मगर जीते-जी
भक्त सती हो
जाता है।
क्योंकि परमात्मा
से उसका जो
प्रेम है, अब
उसके सिवाय
उसका कोई और
प्रेम नहीं।
उसका सारा
प्रेम संग्रहीभूत
होकर
परमात्मा की
तरफ प्रवाहित
होता है। वह बहुत
धाराओं में
नहीं बहता, वह बहुत
दिशाओं में
नहीं बहता।
उसका प्रेम एकाग्र
हो जाता है।
जीवत
ही जान से सती होवै।।
और
भीतर धू-धू कर
कुछ जलता है।
आग तो नहीं है—आग
से भी बड़ी आग:
धुआं भी नहीं
उठता, चिता
भी नहीं और
फिर भी भक्त
जल जाता है और
राख हो जाता
है। मगर जो जल
जाता है वह
झूठ था, मिथ्या
था। फिर जो बच
रहता है, वही
सोना है—निखरा
हुआ, कुंदन!
भूख-पीयास, जग-आस को छोड़करि,
आपनी आपु से आपु
खोवै।
सब
फिक्र भूल
जाती है उसे।
भूख याद नहीं
रहती, प्यास
याद नहीं रहती,
जग की आस
याद नहीं
रहती। उसे तो
बस एक ही धुन, श्वास-श्वास
में एक ही धुन,
एक ही मस्ती,
एक ही नशा।
बात करता है
तो वही, चुप
रहता है तो वही।
कबीर ने कहा
है: बोलता हूं,
तो हरिनाम;
खाता हूं, तो हरिनाम; सोता हूं, तो हरिनाम; ओढ़ता हूं, तो
हरिनाम। उसका
उठना, बैठना,
जागना, सोना,
सब हरि में
डूब जाते हैं।
आपनी आपु से आपु
खोवै।
वह
अपने ही भीतर
डूबता, उतरता,
गहराइयों
में विलीन
होता जाता है।
जैसे नमक की
डली को कोई
सागर में डाल
दे। जैसे-जैसे
गहरे जाने लगे,
वैसे-वैसे
खोने लगे। और
एक घड़ी आएगी, नमक की डली
खो जाएगी, सागर
के साथ एक हो
जाएगी।
दास
पलटू कहै इसक-मैदान
पर,
देइ
जब सीस तब
नाहिं रोवै।।
और तुम
तब तक रोते ही
रहोगे, जब
तक तुमने एक
हिम्मत न
जुटाई...दास पलटू
कहै इसक-मैदान
पर...प्रेम की
कसौटी पर जब
तक तुम अपनी
गर्दन न चढ़ा
दोगे, तुम्हारी
जिंदगी रुदन
है, आंसू-ही-आंसू
है; तुम्हारी
जिंदगी में
आनंद नहीं हो
सकता। आनंद
सिर्फ उनके
लिए है—
देइ
जब सीस तब
नाहिं रोवै।।
फिर
कोई दुख नहीं।
फिर
सच्चिदानंद
है।
युवावस्था
में, यौवन के
प्रेम में
कभी-कभी तुमने
ऐसी आग को थोड़ा-सा
जाना है—जो आग
नहीं, फिर
भी जलाती है।
भक्त उसी आग
को बड़े विराट
रूप में पाता
है। जैसे
जंगल-का-जंगल
आग लग जाए। प्रेम
में, साधारण
सांसारिक
प्रेम में जो
आग है, वह
तो यूं समझो
कि छोटी-सी
चिनगारी—बुझी-बुझी,
राख दबी—मगर
थोड़ा अनुभव
समझने में
सुविधा होती
है। जिन्होंने
प्रेम का कोई
अनुभव ही नहीं
किया, उन्हें
भक्ति को
समझना बहुत
कठिन हो जाता
है।
यौवन
सुरा जगी है
मेरे
भरे भरे
मन में यह
कैसी आग लगी
है
अंतर
की रस तरल तरंगिन
क्या आंधी
पानी बन आई
या
आंधी पानी के
स्वर में नए
प्रणय ने बीन बजाई
दो तूफानों
में विवेक मति
ठिठकी
ठगी ठगी
है
शाख
पात को मत्त
प्रभंजन
ज्यों झकझोर
रहा है
मन
के बीच मदन शर
बैठा कसक मरोर
रहा है
लहरों
चढ़ी
चेतना चंचल
फिरती भगी भगी
है
यह
उन्मद मौजों
का मेला मन
क्यों बांध
सकेगा
इस
अस्थिरता में
क्यों अपनी तरनी साध
सकेगा
रूप
चाहती हुई
भावना रस में पगी पगी
है
मेरे
भरे भरे
मन में यह
कैसी आग लगी
है
दो तूफानों
में विवेक मति
ठिठकी
ठगी ठगी
है
लहरों
चढ़ी
चेतना चंचल
फिरती भगी भगी
है
रूप
चाहती हुई
भावना रस में पगी पगी
है
यह तो
साधारण प्रेम
का वर्णन है।
मगर इसको ही अनंत
गुना कर लो, अनंत अनंत
गुना कर
लो...महावीर ने
कहा है: अनंतानंत;
अनंत को भी
अनंत से गुणित
कर दो...तब तुम
जान पाओगे जो
आग ध्यानी को
या भक्त को
लगती है। एक
क्षण में सारा
संसार
भस्मीभूत हो
जाता है। फिर
जो शेष रह
जाता है, वही
हरि, वही
राम। फिर उसे
तुम जो नाम
देना चाहो—निर्वाण,
मोक्ष, कैवल्य,
आत्मा, परमात्मा;
सब नाम का
भेद है।
दास
कहाइकै
आस न कीजिए,
आस
जो करै सो
दास नाहीं।
और जब
एक बार किसी
गुरु के चरणों
में दास हो जाओ, एक बार जब
किसी गुरु के
चरणों में कह
दो—बुद्धं
शरणं गच्छामि;
संघं शरणं गच्छामि; धम्मं शरणं गच्छामि; तो फिर एक
बात याद रखना:
फिर अपनी कोई
आस मत रखना।
दास
कहाइकै
आस न कीजिए,
आस
जो करै सो
दास नाहीं।
छोटे-छोटे
शब्दों में
गहरे सत्य भर
दिए पलटू ने।
सीधे-सादे
आदमी हैं, लेकिन पते
की बात कह दी।
समझें, उनके
लिए इशारे
काफी हैं।
आस
जो करै सो
दास नाहीं।
अगर
गुरु के पास
बैठकर भी आशा
जारी रखी कि
यह मिल जाए, वह मिल जाए; सिद्धि मिल
जो, ऋद्धि
मिल जाए, तो
भटकते रहोगे।
तो गुरु के
पास भी बैठे
और बैठे भी
नहीं।
तुम्हारे और
गुरु के बीच
हजारों कोस का
फासला रहा।
जितनी आस उतना
फासला। अगर आस
बिलकुल नहीं
तो फासला
बिलकुल नहीं।
तब गुरु धड़केगा
तुम्हारे
हृदय में और
गुरु बोलेगा
तुम्हारी वाणी
में। और
तुम्हारी
श्वासें उसकी
श्वासें
होंगी। और तुम
उसकी आंखों से
देख सकोगे। और
यही अनुभव
सत्संग है: जब
गुरु की आंखों
से देख सको, उसके हाथों
से छू सको, उसके
हृदय से अनुभव
कर सको। जब सब
फासले गिर जाएं।
प्रेम
तो एक जो लगा
संसार में,
भक्ति
गई दूरि
अब जक्त
माहीं।।
एक तो
प्रेम है जो
संसार में लगा
हुआ है, बाहर,
भटक रहा है।
जब प्रेम
संसार में लगा
होता है—धन
में, पद
में, प्रतिष्ठा
में, तब
भक्ति बहुत
दूर चली जाती
है। तब
तुम्हें भक्ति
का कुछ पता
नहीं रह जाता।
प्रेम
तो एक लगा
संसार में,
भक्ति
गइ दूरि
अब जक्त
माहीं।।
चाहिए
भक्ति को जक्त
से तोरिए,
जोड़िए जक्त से, भक्ति जाही।
ध्यान
रखो, प्रेम को
वस्तुओं से
जोड़ दो तो
संसार बन जाता
है और प्रेम
को स्वयं से
जोड़ लो तो
संसार विलीन
हो जाता है।
प्रेम को
संसार से जोड़ने
का अर्थ:
वस्तुओं से
आशा रखो सुख
की, पर से
आशा रखो सुख
की; तो तुम
भगवान से टूट
जाते हो। और
जिस दिन तुम भगवान
से जुड़े, उस
दिन तुम
वस्तुओं से
टूट जाते हो।
ये दोनों बातें
साथ-साथ नहीं
हो सकती हैं।
दास
पलटू कहै एक
को छोड़िदे,
तरवार
दुई म्यान इक
नाहिं चाही।।
एक
म्यान में दो
तलवारें नहीं
चाहिए। दो में
से एक छोड़ देना
होगा।
वस्तुओं की
महत्वाकांक्षा—और
मिले धन, और
मिले पद, और
मिले
प्रतिष्ठा, अगर इसमें
तुम खोए हो तो
तुम परमात्मा
को न जान
सकोगे। और अगर
तुम परमात्मा
को जानना
चाहते हो तो
इन क्षुद्रताओं
से अपना मोह
भंग करना होगा।
जिसको सपने
देखने हैं, वह जाग नहीं
सकता। और
जिसको जागना
है, उसे
सपनों से मोह
छोड़ना होगा।
लेकिन
हमारे मोह
हैं। बड़े अजीब
मोह हैं।
मरते-मरते तक
नहीं छूटते।
एक
नेता जी अपने
जीवन की आखिरी
सांसें गिन
रहे थे। यह
पहला ही अवसर
नहीं था, वे
महापुरुष
पहले भी कई
बार मर चुके
थे, मगर
बार-बार जिंदा
हो गए थे।
आखिर नेता लोग
इतनी आसानी से
मर भी तो नहीं
जाते। इस बार
जब वे मरने
लगे तो बोले, मेरे मरने
के बाद इस बात
का खयाल रखा
जाए कि अमुक
संगीतकार का आर्केस्ट्रा
ही शोक-धुन बजाए।...मर
रहे हैं! मरने
के बाद भी
कौन-सा आर्केस्ट्रा
शोक-धुन बजाएगा,
इसका
इंतजाम किए जा
रहे हैं! नेता
जी के वकील ने
तुरंत इस बात
को एक कागज पर
नोट करते हुए
पूछा, कृपया
यह भी बताने
की कृपा करें
कि अमुक संगीतकार
की कौन-सी धुन
आप सुनना पसंद
करेंगे?
मर कर
भी लोग संसार
को छोड़ते
नहीं। इसीलिए
तो दुबारा आना
पड़ता है।
जीते-जी भी पकड़े
रहते हैं।
मरकर भी पकड़े
रहते हैं। मौत
भी आ जाती है
तो भी
तुम्हारी मुट्ठी
नहीं खुलती।
मौत भी आती
रहती है फिर
भी तुम जागते
नहीं। इतनी
चोट-पर-चोट
खोते हो, मगर
होश नहीं आता।
संसार से अगर
इतना प्रेम लगा
रखा है, तो
फिर भक्ति
बहुत दूर।
इस
सारे प्रेम को
इकट्ठा करो।
इस सारे प्रेम
को इकट्ठी एक
धारा बनाओ। और
इस सारे प्रेम
को परमात्मा
की तरफ बहाओ।
उसके ही सागर
की तरफ बहने
दो यह गंगा, इसको
हजार-हजार
नहरों में मत
तोड़ो! अन्यथा
सागर तक यह न
पहुंच पाएगी।
और सागर तक
पहुंचे बिना न
शांति है, न
सुख है।
मिल
जाए मय तो
सजदा-ए-शुक्राना
चाहिए
पीते
ही एक लग्जिशे-मस्ताना
चाहिए।
हां, एहतरामे-मसजिद-को-बुतखाना
चाहिए
मजहब
की पूछिए, तो जुदागाना
चाहिए।
रिंदाने-मय-परस्त, सियह-मस्त
ही सही
ए
शेख! गुफ्तगू
तो शरीफाना
चाहिए।
दीवानगी
है, अक्ल
नहीं है कि
खाम हो
दीवाना
हर लिहाज से
दीवाना
चाहिए।
इस
जिंदगी को
चाहिए सामाने
जिंदगी
कुछ
भी न हो तो
शीशा-ओ-पैमाना
चाहिए।
दीवानगी
है, अक्ल
नहीं है कि
खाम हो...
यह जो
भक्ति है, दीवानगी है,
यह कोई अक्ल
नहीं है कि
कच्ची चीज हो।
अक्ल तो हमेशा
कच्ची होती
है। अक्ल कभी
पक्की होती ही
नहीं। अक्ल तो
हमेशा बचकानी
होती है।
कितना ही बड़ा
पंडित हो, अक्ल
तो बचकानी ही
होती है। अक्ल
प्रौढ़ता
जानती नहीं। प्रौढ़ता
तो प्रेम की
होती है।
परिपक्वता तो
प्रेम की होती
है। प्रेम
जिन्होंने
नहीं जाना, वे कच्चे ही
रह जाते हैं।
और प्रेम एक
मस्ती है, एक
दीवानापन है।
दीवानगी
है, अक्ल
नहीं है कि
खाम हो
दीवाना
हर लिहाज से
दीवाना
चाहिए।
और जो
प्रेम के इस
रास्ते पर चला
है, उसको
शर्तें नहीं
लगानी होंगी।
बेशर्त दीवाना
होना होगा।
परमात्मा को
पीने चले हो
तो बेशर्त
पीओ।
घूंट-घूंट
क्या पीना, पूरा सागर
पीओ। लेकिन
सागर पीना हो
तो भीतर शून्य
चाहिए। जो
भीतर शून्य
हैं, उनमें
ही सागर समा
सकता है। जो
शून्य हैं, उनमें ही
पूर्ण समा
सकता है।
शून्य होना
पात्रता है।
शून्य होना
निमंत्रण है
पूर्ण का। इसलिए
तलवार सदगुरु
की चाहिए कि
काट दे
तुम्हारी
गर्दन, मिटा
दे तुम्हें!
दीवानगी
है, अक्ल
नहीं है कि
खाम हो
दीवाना
हर लिहाज से
दीवाना चाहिए
मिल
जाए मय तो
सजदा-ए-शुक्राना
चाहिए...
और अगर
कभी किसी सदगुरु
के पास ऐसी
शराब मिल जाए, ऐसी दीवानगी
मिल जाए, तो
फिर धन्यवाद
में झुक
जाना...सजदा-ए-शुक्राना
चाहिए...तो फिर
भगवान के
प्रति
धन्यवाद में झुक
जाना।
मिल
जाए मय तो सजदा-ए-शुक्राना
चाहिए
पीते
ही एक लग्जिशे-मस्ताना
चाहिए।
और
जैसे ही सदगुरु
को पीओ कि फिर
तुम्हारे पैर
डोलने लगने
चाहिए। फिर
कहीं रखो पैर, कहीं पड़ें
पैर!
दीवानगी
है अक्ल नहीं
है कि खाम हो
दीवाना
हर लिहाज से
दीवाना
चाहिए।
ये पाठ
परम दीवानगी
के हैं। ये
पाठ परम मस्ती
के हैं।
कायरों के लिए
नहीं, साहसियों के लिए, दुस्साहसियों के लिए। जुटाओ
साहस! क्योंकि
जो साहस
जुटाता है, वही उस परम
धन्यता को
उपलब्ध होता
है। उस परम धन्यता
को, जिसके
बिना जीवन
सिर्फ राख है!
उस परम धन्यता
को, जिसको
पाकर सब पा
लिया जाता है।
जीसस ने कहा
है: पहले खोज
लो परमात्मा
को, शेष सब
अपने-से आ
जाएगा। जिसे
परमात्मा मिल
गया, उसे
सब मिल गया।
तुम सब पा लो
और अगर
परमात्मा को न
पाया, तो
याद रखना, बार-बार
कहता हूं याद
रखना, मरते
वक्त बहुत
पछताओगे!
लेकिन फिर पछताए
होत का, जब
चिड़ियां चुग
गईं खेत!
आज
इतना ही।
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