दिनांक; रविवार, 15
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
जो
साहिब का लाल
है, सो पावैगा
लाल।।
सो पावैगा
लाल जायके
गोता मारै।
मरजीवा
ह्वै जाय लाल
को तुरत निकारै।।
निसिदिन मारै मौज, मिली अब बस्तु
अपानी।
ऋद्धि
सिद्ध और
मुक्ति भरत
हैं उन घर
पानी।।
वे
साहन के साह, उन्हैं है आस न
दूजा।
ब्रह्मा
बिस्नु महेस करैं
सब उनकी पूजा।
पलटू
गुरु—भक्ती
बिना भेस भया
कंगाल।
जो
साहिब का लाल
है, सो पावैगा
लाल।।
खोजत
हीरा को फिरै, नहीं पोत का
दाम।।
नहीं
पोत का दाम, जोहरि की गांठ खुलावै।
बातन
की बकवाद
जौहरी को बिलमावै।
लंबी
बोलत बात, करै बातन की
लदनी।
कौड़ी
गांठ में नहीं, करत
है बातें
इतनी।।
लिहा
जौहरी ताड़, फिर है गाहक
खाली।
लोकलाज
छूटै
नहीं, पलटू
चाहै
नाम।
खोजत
हीरा को फिरै, नहीं पोत का
दाम।।
माया
की चक्की चलै, पीसि गया संसार।।
पीसि
गया संसार बचै
ना लाख बचावै।
दोऊ
पट की बीच कोऊ
न साबित जावै।।
काम
क्रोध मद लोभ
चक्की के पीसनहारे।
तिरगुन डारै झोंक पकरिकै सबै निकारे।।
तृस्ना
बड़ी छिनारि, जाइ
उन सब घर घाला।
काल
बड़ा बरियार, किया उन एक
निवाला।।
पलटू
हरि के भजन
बिनु, कोउ
न उतरै
पार।
माया
की चक्की चलै, पीसि गया
संसार।।
अहदे—मस्ती
है, लोग कहते
हैं,
मय
परस्ती है, लोग कहते
हैं।
गमे—हस्ती
खरीदने वालो,
मौत
सस्ती है, लोग कहते
हैं।
हम
जहां जी रहे
हैं मर—मर कर,
बज्मे
हस्ती है, लोग कहते
हैं।
जब्तेत्तौबा
पे आ रही है
हंसी,
तंग—दस्ती
है, लोग कहते
हैं।
शायद
इक बार उजड़
के फिर न बसे,
दिल
की बस्ती है, लोग कहते
हैं।
क्या
करें महवशों
से प्यार अदम
बुत—परस्ती
है, लोग कहते
हैं।
अहूदे—मस्ती
है, लोग कहते
हैं,
मय
परस्ती है, लोग कहते
हैं।
प्रभु
के प्रेम में
जो दीवाने हैं, दुनिया तो
उन्हें ऐसा ही
समझेगी
जैसे कि पागल
हैं। दुनिया
के पास उन्हें
तौलने का कोई
उपाय नहीं, कोई तराजू
नहीं, कोई
कसौटी नहीं।
बाउल
कथा है कि एक
सुनार ने बाउल
फकीर से पूछा: किस
प्रभु के गीत
गाते हो, कुछ
हम भी तो
समझें! किस
मस्ती में
मृदंग बजाते
हो, कुछ हम
भी तो समझें!
हमें न तो कोई
प्रभु दिखाई
पड़ता, न
जीवन में कोई
सार, न कोई
अर्थ। हमें तो
सब व्यर्थ
मालूम होता
है।
बाउल
फकीर नाच रहा
था, रुक गया;
मृदंग बजा
रहा था, रुक
गया। और उसने
कहा कि तुमने
मुझे याद दिला
दी। मैंने
सुना है, एक
सुनार एक बार
फूलों की
बगिया में
पहुंच गया था।
माली मस्त था।
वसंत आया था, मधुमास था।
फूल ही फूल
खिले थे—रंग—रंग
के फूल, गंध—गंध
के फूल!...सारी
बगिया दुल्हन
बनी थी। जैसे
आकाश से तारे
उतर आए हों, ऐसे वृक्ष सजे थे।
लेकिन सुनार
कहने लगा, मैं
तो जब तक कसूं
न फूलों को, सोने की
कसौटी पर, तब
तक मानूंगा
नहीं। और उसने
फूलों के कसना
शुरू कर दिया
सोने की कसौटी
पर। अब सोने
की कसौटी पर
फूल कसे नहीं
जाते और कसे
जाएं तो फूल सोना
नहीं हैं।
तोड़ने लगा फूल,
कसने लगा फूल, फेंकने
लगा फूल; क्योंकि
कोई सोना न
था। और सुनार
को समझ में ही
न आए कि सोने
के अतिरिक्त
भी सोना है।
जीवन
एकांगी नहीं
है, बहु—आयामी
है। यहां जो
लोग परमात्मा
के प्रेम में दीवाने
हैं, संसार
तो उन्हें
पागल ही
समझेगा। उसके
पास तो कसौटी
की एक ही चीज
है—कितना धन
है तुम्हारे
पास, कितना
पद है
तुम्हारे पास,
कितनी
प्रतिष्ठा? संसार तो
सिर्फ अहंकार
को तौलने की
तराजू जानता
है; निर—अहंकार
को तौलने की
उसके पास कोई
सुविधा नहीं
है। संसार तो
पदार्थ को देख
सकता है, परमात्मा
के प्रति अंधा
है। लेकिन कौन
अपने को अंधा
माने! और फिर
अंधों की भीड़
हो तो भीड़ कैसे
राजी हो!
होंगे बुद्ध
अंधे, होंगे
कबीर अंधे, होंगे पलटू
अंधे। लेकिन
इतने करोड़ों—करोड़ों
लोग अंधे हो
सकते हैं? ये
पड़ गए होंगे
वहम में, खा
गए होंगे कोई
धोखा, खो
गए होंगे किसी
सपने में, बातें
करने लगे
दीवानगी की, लेकिन इतने करोड़—करोड़
लोग, इन्हीं
न तो कोई
परमात्मा
दिखाई पड़ता, न कोई रोशनी
दिखाई पड़ती, न कोई सत्य
का अनुभव होता
है, ये गलत
कैसे हो सकते
हैं?
हम तो
लोगों के सिर
गिनकर तय करते
हैं कि सत्य क्या
है। जैसे सत्य
भी मत से तय
होता है! तब
स्वभावतः
जिन्होंने
जाना है उनसे
हम कुछ भी
नहीं सीख
पाते।
जिन्होंने
जाना है, सीखना
तो दूर, हम
से जितना बन
सके उतना उनका
तिरस्कार
करते हैं। हम
तो उन्हें
अंधा कहते हैं,
जिनके पास
आंखें हैं। और
जिनके पास
सच्ची बुद्धिमानी
है, वे
हमें दीवाने
मालूम होते
हैं।
यह
सोचने की
प्रक्रिया
बदलनी पड़े।
जरूर
संतों ने कोई
शराब पी ली है, लेकिन वह
शराब अंगूरों
से नहीं ढलती
और बाजारों
में नहीं
बिकती। वह
शराब आत्मा
में ढलती है; भीतर ही
निर्मित होती
है। वह शराब
बेहोशी नहीं
लाती, होश
लाती है। वह
शराब सुलाती
नहीं, जगाती
है। जरूर संत
पागल हैं, लेकिन
उनका पागलपन
तुम्हारी
बुद्धिमानी
से लाख गुना
कीमती है।
जरूर संतों के
पास देखने योग्य
संपदा नहीं है,
लेकिन उनके
पास अदृश्य
संपदा है जिसे
मौत भी न छीन
सकेगी।
पलटू
उसी संपदा की
आज बात कर रहे
हैं। कहते हैं:
जो
साहब का लाल
है सो पावैगा
लाल।।
—जो
परमात्मा के
चरणों में झुक
गया है, जो
परमात्मा में
समर्पित हो
गया है, जो
परमात्मा के
रंग में रंग
गया है, जिसने
अपने अहंकार
को सब भांति
छोड़ दिया है, जो कि बस
परमात्मा का सेवक
हो गया...म्हाने
तो चाकर राखो
जी!...जिसने कहा
कि मुझे तो बस
नौकरी में रख
लो; पैर
दबाता रहूं, पड़ा रहूं? जो साहब का
लाल है, सेवक
है, सो पावैगा
लाल, वही
पाएगा असली
हीरा। कोहिनूरों
के ढेर लग
जाएंगे उसके
जीवन में; हालांकि
वे कोहिनूर
किसी और को
दिखाई नहीं पड़ेंगे।
उनको दिखाई
पड़ेंगे जिनके
जीवन में वैसा
अनुभव हुआ है।
अनुभवी ही परख
पाएंगे।
पलटू
को परखना हो
तो कोई कबीर
चाहिए; कबीर
को परखना हो
तो कोई नानक
चाहिए; नानक
को परखना हो
तो कोई बुद्ध
चाहिए। आंख
वाले ही आंख
वालों को
पहचान सकते
हैं, अंधे
कैसे पहचानेंगे?
अंधे मान
भला लें, पहचान
नहीं पाते। और
उनकी सारी
मान्यता के पीछे
संदेह खड़ा
रहता है।
तुम्हारे
विश्वास दो कौड़ी के
हैं। तुम
ईश्वर को मानो,
तुम मंदिर—मस्जिद
को मानो, तुम
गीता—कुरान को
मानो, लेकिन
तुम्हारी
मान्यताएं दो कौड़ी की
हैं, क्योंकि
हर मान्यता के
पीछे संदेह का
कीड़ा लगा है।
तुम्हारी
मान्यताओं को
संदेह का कीड़ा
खा जाएगा। और
जब मौत द्वार
पर दस्तक देगी,
ये
मान्यताएं
काम न आएंगी।
ये मान्यताएं
ऐसे गिर
जाएंगी जैसे
ताश के घर गिर
जाते हैं। ये
मान्यताएं
ऐसे डूब
जाएंगी और
तुम्हें भी
सुबा लेंगी, जैसे कागज
की नावें डूब
जाती हैं।
मानने से कुछ
भी नहीं होता,
जानने से
कुछ होता है।
क्रांति
जानने से घटित
होती है।
संपदा होनी
चाहिए
उपलब्ध।
मगर
लोग झुकने को
राजी नहीं है।
लोग परमात्मा के
सामने भी
झुकने को राजी
नहीं! कहीं मन
में गहरी
आकांक्षा है
कि परमात्मा
ही झुके। कहो
चाहे तुम या न
कहो, लेकिन
अगर परमात्मा
भी रास्ते पर
मिल जाए तो तुम्हारा
अहंकार यही
चाहेगा कि
पहले नमस्कार वही
करे, तो हम
उत्तर दें।
तुम नमस्कार
करने में भी
कंजूसी कर
जाओगे। तुमने
सदा की है
कंजूसी, यह
कोई नई बात
नहीं है।
नमस्कार दूर,
तुमने जीसस,
मंसूर और
सुकरात जैसे
लोगों को मारा,
हत्या की
उनकी। न करते
नमस्कार, उपेक्षा
करके गुजर तो;
वह भी न हो
सका। तुम उनके
जीवन को भी
बर्दाश्त न कर
सके।
असल
में जब संपदा
लेकर कोई इस
पृथ्वी पर खड़ा
होता है, तो
सारे दीन—दरिद्र
उसके विरोध
में खड़े हो
जाते हैं; सारे
आत्मिक
दृष्टि से हीन
लोग बेचैन हो
जाते हैं—उसे
मिटा देने को
आतुर हो जाते
हैं। क्योंकि
उसकी मौजूदगी
उन्हें उनकी
हीनता का बोध
कराती है।
उसकी रोशनी वे
अंधे हैं और
अंधेरे में
हैं इस बात की
इतनी गहन
प्रतीति बन
जाती है कि अब
दो ही उपाय
हैं: या तो
अपने को बदलें,
या ऐसे
लोगों को हटा
दें जीवन से जिनके
कारण यह संकट
पैदा हो रहा
है; जिनके
कारण जीवन असत—व्यस्त
हुआ जा रहा है;
जिनकी
मौजूदगी के
कारण
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
मालूम होता
है। और यही
आसान है ऐसे
लोगों को हटा
देना। जीसस को
सूली पर चढ़ा
देने से
ज्यादा आसान
और क्या है? लेकिन स्वयं
को रूपांतरित
करना कठिन
प्रक्रिया
है।
जो
साहब का लाल
है...
उस
प्रक्रिया का
पहला अंग है—समर्पण।
पहला अंग है—अपने
अहंकार का
विसर्जन।
पहला अंग है—झुक
जाना, बेशर्त।
और झुकते ही
संपदा बरस
जाती है।
सो पावैगा
लाल जायके
गाता मारै।
वही पा
सकता इस संपदा
को जो गहरे
में गोता मारे।
अहंकार तो
उथली से उथली
चीज है। इसलिए
अहंकारी आदमी
से ज्यादा
उथला आदमी
तुम्हें न
मिलेगा। ऊपर
ही ऊपर जीता
है—वस्त्रों
में, आभूषणों
में, शृंगार
में, रंग—रोगन
में, बस
ऊपर ही जीता
है।
जीसस
ने कहा है:
अहंकारी आदमी
ऐसा ही है
जैसे चूने से
पोती गई कब्र।
झकझक होती ऊपर
तो। चूने से
पोती गई नीं—नई
कब्र, शुभ्र
चमकती है, और
भीतर? भीतर
सिर्फ सड़ांध
है। हड्डी—मांस—मज्जा
मिट्टी में
मिल रहे हैं।
जीसस ने कहा
है: ऐसा ही
साधारण आदमी
है—बस चूने से पुती हुई
कब्र! भीतर
सिवाय सड़ांध
के और कुछ भी
नहीं है, ऊपर
से सुगंध छिड़क
ली है। घाव हैं,
फूलों में
छिपा लिए हैं।
भीतर पीड़ा ही
पीड़ा है, ऊपर
झूठी मुस्कुराहटें
थोप ली हैं।
ऐसे
नहीं होगा।...जायके
गोता मारै।
इस परमात्मा
के विराट
अस्तित्व में
डुबकी मारनी
होगी। दर्शक
बनने से नहीं
चलेगा। राह के
किनारे खड़े
होने से नहीं
चलेगा। तट पर
बैठे रहे तो बैठे
ही रह जाओगे, कुछ भी न
पाओगे। खाली
आए, खाली
जाओगे। उतरना
होगा सागर
में। मोती
मिलते हैं, लेकिन
गोताखोरों को
मिले हैं।
मोती गहरे में
होते हैं। हां,
किनारों पर
चाहो तो बीन
लेना शंख, सीपियां, रंग—बिरंगे
पत्थर और
उन्हीं से
खेलते रहना।
और उन्हीं से
लोग खेल रहे
हैं—रंग—बिरंगे
पत्थर, शंख—सीपियां!
रेत के घर बना
रहे हैं। फिर
चाहे तुम उन
घरों को महल
ही क्यों न
कहो। और पत्थर
के महल भी
आखिर रेत के
ही महल हैं, क्योंकि
पत्थर रेत ही
है। सब पत्थर
एक दिन रेत हो
जाते हैं और
सब रेत एक दिन
पत्थर बन जाती
है। पत्थर और
रेत में कोई
भेद नहीं है।
निगाह
की बरछियां
जो सह सके, सीना उसी का
है।
हमारा
आपका जीना
नहीं, जीना
उसी का है
ये बज्मे—मय
है, यां कोताह—दस्ती
में महरूमी
जो
बढ़ कर खुद उठा
ले हाथ में
मीना उसी का
है।
मुकद्दर
या मुसफ्फा
जिसको ये
दोनों ही
यकसां हों
हकीकत
में वही मयख्वार
है, पीना उसी
का है।
उमीदें
जब बढ़ें हद से तिल्स्मिी
सांप हैं जाहिद
जो
तोड़े यह
तिलिस्म, ऐ दोस्त! गंजीना
उसी का है।
कदूरत
से दिल अपना
पाक रख ए शाद
पीरी में
कि
जिसको मुंह
दिखाना है, ये आईना उसी
का है।
यह
सारा
अस्तित्व उसी
का दर्पण है।
जिसे मुंह दिखाना
है यह आईना उसी
का है। यहां
प्रत्येक
व्यक्ति
परमात्मा का ही
छुपा हुआ रूप
है। और यहां
प्रत्येक
संबंध दर्पण
है, जिसमें
तुम्हारी झलक
मिलती है; मगर
तुम आंख खोलो
तो! यहां तो
सभी नजरें उसी
की हैं, मगर
उसके लिए
नजरों को
झेलने की छाती
तो चाहिए!
निगह
की बरछियां
जो सह सके, सीना उसी का
है
हमारा
आपका जीना
नहीं, जीना
उसी का है।
जरा
सोचो, ये
सारी आंखों से
परमात्मा
झांक रहा है।
एक क्षण जरा
इस विचार को
तुम्हें पकड़ने
दो, जैसे
झंझावात पकड़
ले। ये सारी
आंखें उसकी
हैं। घबड़ा
जाओगे, बेचैन
हो जाओगे। वह
तुम्हें
प्रति घड़ी देख
रहा है। ऐसी
कोई जगह नहीं
है जहां तुम
बच कर जा सको।
छिपने का कोई
उपाय नहीं है।
हां, छिपने
का एक ही उपाय
है, वह है
शुतुरमुर्ग
का उपाय कि वह
अपने सिर को रेत
में गड़ा
कर खड़ा हो
जाता है; अपनी
आंख ही बंद कर
लेता है। और
यही हम सब ने
किया है। हम
सब शुतुरमुर्गी
न्याय को
मानते हैं।
अपनी आंख बंद
कर के, रेत
में सिर को गड़ाकर
खड़े हो गए हैं—सोचते
हैं: न दिखाई
पड़ता है, न
होगा। लेकिन
तुम आंख बंद
कर लो, इससे
सूरज नहीं
मिटता, सिर्फ
तुम अंधेरे
में हो जाते
हो।
और
प्रत्येक
व्यक्ति ने
परमात्मा के
प्रति आंख बंद
कर रखी है—और
अकारण नहीं; भय के कारण। घबड़ाए हैं
लोग—हम उसकी
आंख देख
सकेंगे? हम
उसकी आंख सह
सकेंगे? हम
उसके आमने—सामने
हो सकेंगे? और घबड़ा
दिया है
तुम्हारे
पंडित—पुरोहितों
ने तुम्हें।
बुरी तरह घबड़ा
दिया है!
तुम्हारे
पंडित—पुरोहितों
ने तुम्हें एक
ही बात सिखाई
है—भय।
तुम्हें
ईश्वर—भीरु
बनाया है। तुम्हारे
प्राणों को
कंपा दिया है
कि नर्क में
सड़ना पड़ेगा।
और तुम्हारी
आत्मा को बहुत
लोभ से भर
दिया है कि
ऐसा करो तो
स्वर्ग; ऐसा
करो तो स्वर्ग
के सुख; और
ऐसा नहीं किया
तो नर्क के
दुख, नर्क
की पीड़ाएं।
कड़ाहों
में जलाए
जाओगे। उबलते
हुए तेल में उबाले
जाओगे। तुम्हें
बहुत डराया
है। भय और लोभ,
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं—इधर
भय, इधर
लोभ। धर्म को
भय और लोभ की
दुकान बना
दिया है। और
धर्म है अभय।
और धर्म है
अलोभ।
इसलिए
जो भय के कारण
धार्मिक हैं
वे कभी धार्मिक
हो ही नहीं
पाते। वे तो
शुतुरमुर्ग
हैं। वे तो
आंखें बंद किए, सिर रेत में गड़ाए खड़े
हैं! फिर चाहे
उन्हें हिंदू
कहो, चाहे
मुसलमान, चाहे
ईसाई, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। किसी ने
मस्जिद में आंखें
गड़ा ली
हैं, किसी
ने मंदिर में
आंखें गड़ा
ली हैं। कोई
गिरजे में छुप
गया है। ये
तुम्हारे
स्थान हैं
जहां तुम
परमात्मा से
छिप रहे हो, कहते तो तुम
यह हो कि हम
परमात्मा के
दर्शन को जा
रहे हैं—मंदिर,
मस्जिद, गिरजा—लेकिन
असली में तुम
जा रहे हो
परमात्मा से
बचने, छिपने।
अन्यथा
परमात्मा सब
तरफ मौजूद है।
उसे झेलने की
छाती बनाओ।
साहस जुटाओ।
धर्म कायर का
नहीं है, भीरु
का नहीं है।
धर्म सिर्फ साहसियों
का है, हिम्मतवरों का है—जो जोखम
उठा सकते हैं,
उनका है; जो जीवन के
अभियान पर
निकलने को
तत्पर हैं, उनका है।
लेकिन
मामला कुछ बड़ा
अजीब हो गया
है। हालत ठीक
उलटी हो गई
है। धर्म के
नाम पर लोग
शीर्षासन किए
हैं, सिर के बल
खड़े हैं।
मंदिरों और मस्जिदों
में जिनकी
तुम्हें भीड़
मिलेगी, वे
अक्सर भीरु
लोग हैं, डरे
हुए लोग हैं, घबड़ाए हुए लोग
हैं। डर के
कारण
उन्होंने
घुटने टेक दिए
हैं। किसी
प्रेम में वे
नहीं झुके हैं,
किसी
प्रार्थना
में नहीं झुके
हैं, भय के
कारण उनके
घुटने झुक गए
हैं। भय के
कारण उनके
ओंठों से मंत्र
बुदबुदाए
जा रहे हैं।
कल रात
मैं एक कहानी
पढ़ रहा था—
ईश्वर
ने दुनिया
बनाई। अलग—अलग
जातियां
बनाईं।
हिंदुओं से
पूछा: तुम क्या
चाहते हो? उन्होंने
कहा: गायत्री
मंत्र। जैनों
से पूछा: तुम
क्या चाहते हो?
उन्होंने
कहा: नमोकार
मंत्र।
मुसलमानों से
पूछा: तुम
क्या चाहते हो?
उन्होंने
कहा: कुरान।
ईसाइयों से
पूछा: तुम क्या
चाहते हो? ऐसे
वह पूछता गया
अलग—अलग लोगों
से, अलग—अलग
देशों से, अलग—अलग
जातियों से।
और सबसे आखिरी
में बनाया उसने
अमरीकन। पूछा:
तुम क्या
चाहते हो।
उसने कहा: डालर!
ईश्वर थोड़ा
हैरान हुआ।
उसने कहा:
देखो, तुम्हारे
सामने ही किसी
ने गायत्री, किसी ने
गीता, किसी
ने कुरान, किसी
ने बाइबिल, किसी ने तालमुद,
किसी ने नमोकार,
मंत्र, तंत्र,
यंत्र, ध्यान,
प्रार्थना,
पूजा, ये
सब चीजें
मांगी—और तू
मांगता है
डालर! अमरीकन
ने कहा: फिक्र छोड़ो, सिर्फ
डालर मुझे
चाहिए और सब मंत्रत्तंत्र
जानने वाले
लोग अपने—आप
डालर के पीछे
चले आएंगे।
वैसा
ही हुआ भी है।
सारी दुनिया
अमरीका की तरफ
भागी जा रही
है। अब काबा
में काबा नहीं
है और काशी
में काशी नहीं
है। काशी—काबा
के सब पंडित—पुरोहित
तुम्हें कैलिफोर्निया
में मिलेंगे!
भयभीत
आदमी अगर भय
के कारण
गायत्री भी
मांग ले तो
उसकी गायत्री
खरीदी जा सकती
है। भय के
कारण अगर कोई
भगवान का नाम
लेता हो तो
उसका भगवान भी
खरीदा जा सकता
है। क्योंकि
भयभीत मूलतः
लोभी होता है।
लोभी ही भयभीत
होता है।
लोग
प्रार्थनाएं
क्या कर रहे
हैं मांगते
क्या हैं
प्रार्थना
में? यही कि और
धन दे, कि
और पद दे, कि
और प्रतिष्ठा
दे! संसार ही
मांगते हैं।
जाते
परमात्मा के
पास हैं, परमात्मा
को छोड़ कर और
सब मांगते
हैं।
निगह
की बरछियां
जो सह सके, सीना उसी का
है
हमारा
आपका जीना
नहीं, जीना
उसी का है।
ये बज्मे—मय
है...
यह
पीने वालों की
महफिल है...
ये बज्मे—मय
है, यां कोताह—दस्ती
में है महरूमी
यहां
हाथ सिकोड़ कर
भयभीत न बैठे
रह जाना।...यहां
कोताह—दस्ती
में है महरूमी।
जो बढ़
कर खुद उठा ले
हाथ मग, मीना
उसी का है।
यहां
तो सुराही
उसकी है जो
हिम्मत करे और
बढ़ कर सुराही
को उठा ले।
यहां सिकुड़े—सिकुड़ाएं
भयभीत बैठे
रहे तो चूक ही
जाओगे। यहां
डरे—डरे, घबड़े—घबड़ाए
बैठे रहे, तो
तुम्हारी
प्याली रिक्त
ही रह जाएगी।
कोई साकी नहीं
आएगा उसे
भरने। कोई
सुराही अपने
से सरक कर
तुम्हारी
प्याली में ढलेगी
नहीं।
जो
बढ़ कर खुद उठा
ले हाथ में, मीना उसी का
है।
और
पीने वाले की
क्या परिभाषा
है, किसको हम पियक्कड़
कहें? परमात्मा
के जगत में
पीने वाला कौन
है?
मुकद्दर
या मुसफ्फा
जिसको ये
दोनों ही
यकसां हों
सफलता
और असफलता, पुण्य और
पाप, जिसे
दोनों एक से
हों; जिसे
कुछ भेद ही न
रह जाए; जिसे
पृथ्वी और
आकाश एक जैसे
मालूम होने
लगें; जिसके
भीतर दुई मिट
जाए।
मुकद्दर
या मुसफ्फा, जिसको ये
दोनों ही
यकसां हों
हकीकत
में वही मयख्वार
है, पीना उसी
का है।
बस वही
पियक्कड़
है। उसने ही
जाना; उसने
ही पिया; उसने
ही स्वाद
लिया।
उमीदें
जब बढ़ें हल से
तिलिस्मी
सांप हैं जाहिद
तो
तोड़े यह
तिलिस्म, ऐ दोस्त! गंजीना
उसी का है।
यहां
तुम्हारे
त्यागी—विरागी
भी मांग रहे
हैं। और
मांगने वालों
को परमात्मा
की संपदा नहीं
मिलती।
मालकियत चाहिए!
अपने भीतर
भिखमंगापन
मिटना चाहिए।
जीवन
का गणित बहुत
अदभुत है। जो
मांगता है, उसे नहीं
मिलता। जो
नहीं मांगता
उस पर एकदम वर्षा
हो जाती है।
जो
तोड़े यह
तिलिस्म ऐ
दोस्त!...यह भिखमंगेपन
का जो जादू
तुम्हें घेर
लिया है, यह
माया जो
तुम्हें घेर
ली है, जो
तोड़ दे...ऐ
दोस्त! गंजीना
उसी का है।
खजाना उसका ही
है। खजाना दूर
भी नहीं, खजाना
पास ही है।
मगर डुबकी
लगाने का
साहस...। और ऐसा
नहीं है कि
डुबकी लगाने
में तुम्हें
कुछ मीलों
डुबकी लगानी
है—डुबकी
लगाते ही मिल
जाता है।
डुबकी लगाने
की ही बात है।
एक रात
एक यात्री एक
पहाड़ पर भटक
गया। अंधेरा था, राह अनजानी
थी। किसी तरह
टटोल—टटोल कर
बढ़ रहा था कि
पार फिसला और
गिरा। पकड़ कर
एक जड़ वृक्ष
की अटका रहा।
रात ठंडी और
ठंडी होती गई।
हाथ बर्फ जैसे
ठंडे हो गए।
पकड़ छूटने
लगी। मगर सारी
ताकत लगा कर
अटका रहा, अटका
रहा, अटका
रहा। सुबह तक
किसी तरह—प्राणों
का सवाल था, जिंदगी—मरण
की बात थी।
किसी तरह अपने
को सुबह तक
बचाया। और जब
सुबह सूरज की
किरण निकली तो
पता है—वे पहाड़ियां
उस आदमी की
हंसी से गूंज
उठीं! वह ऐसा
खिलखिला कर
हंसा कि सारे
पहाड़ उसके साथ
हंसने लगे।
क्या हो गया, क्यों हंसा?
हंसा इसलिए
कि जब सुबह
सूरज की किरण
निकली तब उसने
देखा कि वह
नाहक रात भर
परेशान रहा।
सिर्फ छह इंच
नीचे जमीन थी।
अंधेरे में
लटका रहा—भय
के कारण कि
पता नहीं किस
खाई—खड्ड में
गिरना पड़े अगर
हाथ से जड़ छूट
जाए! रोशनी
हुई तो पता
चला, केवल
छह इंच नीचे
जमीन थी, कोई
डर न था।
हिम्मत
हो गोता लगाने
की तो दूर
नहीं है उसका खजाना।
उसके लाल बहुत
दूर नहीं हैं।
दूरी उतनी ही
है जितनी तुम
में हिम्मत की
कमी है—उसी
अनुपात में
दूरी है।
सो पावैगा
लाल जायके
गोता मारै।
मरजीवा
ह्वै जाय लाल
को तुरत निकारै।।
तुरत
शब्द को याद
रखना। इसी
क्षण घटना घट
सकती है—तुरंत।
एक क्षण भी
प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन एक शर्त
पूरी करनी पड़े—मरजीवा
ह्वै
जाय...जीते जी
मृतवत हो जाए।
अहंकार हट जाए
तो यह घटना घट
जाती है। तुम
हो भी और नहीं
भी हो। अहंकार
गया, तो तुम
शून्य हो।
मरजीवा ह्वे
जाय। अहंकार
गया कि तुम गए,
परमात्मा
है।
मरजीवा
ह्वै जाय लाल
को तुरत निकारै।।
तुम
शून्य हो जाओ
तो पूर्ण अपने—आप
उतर आता है।
मगर हम अहंकार
की जड़ों को पकड़कर
अटके हैं। और
एकाध रात नहीं, जन्मों—जन्मों
से अटके हैं।
यह रात बड़ी
लंबी हो गई। और
बहुत कष्ट पा
रहे हैं और
बहुत पीड़ा झेल
रहे हैं, मगर
जड़ों को छोड़
नहीं सकते। भय
लगता है कि
अगर अहंकार न
रहा तो फिर
मैं कौन हूं? अहंकार
परिभाषा देता
है, एक
तादात्म्य
देता है, एक
अहसास देता है
कि मैं यह हूं,
मैं वह हूं;
इतना धन
मेरे पास, इतना
पद, इतना
ज्ञान, इतना
त्याग।
अहंकार कुछ
रूप—रेखा देता
है। यह सब छूट
जाए, तो
फिर मैं कौन
हूं? एक
गहन प्रश्न
उठेगा, एक
बवंडर की तरह
प्रश्न उठेगा
कि मैं कौन
हूं? और धन्यभागी
हैं वे, जिनके
भीतर यह
प्रश्न एक
बवंडर की तरह
उठता है कि
मैं कौन हूं।
क्योंकि फिर
देर नहीं है
मिलने में।
जिस
दिन यह प्रश्न
उठता है कि
मैं कौन हूं, एक बात साफ
हो गई कि
तुमने अब तक
अपने को जो—जो
मान रखा था, उस सब से
नाता तोड़
लिया। अब तुम
नहीं कहते कि
मैं शरीर हूं;
नहीं कहते
कि मैं मन हूं;
नहीं कहते
हिंदू, नहीं
मुसलमान; न
भारतीय, न
चीनी, न
पाकिस्तानी।
अब तुमने सब
ऊपर के थोथे
आवरण छोड़ दिए,
तुमने सारे
वस्त्र गिरा
दिए। अब तुम
नग्न खड़े हो, अब तुम्हें
पता नहीं चलता
कि मैं कौन
हूं। आधी घटना
घट गई, आधी
क्रांति हो
गई। झूठा मैं
टूट गया। अब
बस प्रश्न की
गहनता—मैं कौन
हूं—बढ़े। ऐसी
बढ़े कि
प्राणों में
छिद जाए, भिद
जाए!
श्री
रमण कहते थे
कि कोई सिर्फ
अगर एक ही
प्रश्न पूछता
रहे बैठकर कि
मैं कौन हूं, मैं कौन हूं,
और ऊपर से
दिए गए कोई भी
उत्तर
स्वीकार न करे
तो एक दिन
भीतर से उत्तर
आता है। उत्तर
नहीं आता, अनुभव
ही आता है।
अनुभव ही
उत्तर है। एक
दिन
साक्षात्कार
होता है कि
मैं कौन हूं।
अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं! शून्य
हुए कि पूर्ण
उतरा। मिटे कि
पाया। यहां
खोने वाले ही
पा सकते हैं।
बड़ा सीना
चाहिए!
चरागेत्तूर
जलाओ! बड़ा
अंधेरा है
जरा
नकाब उठाओ!
बड़ा अंधेरा
है।
वो, जिनके होते
हैं खुर्शीद
आस्तीनों में
उन्हें
कहीं से बुलाओ!
बड़ा अंधेरा
है।
मुझे
तुम्हारी
निगाहों पे
एतमाद नहीं
मेरे
करबी न आओ! बड़ा
अंधेरा है।
फराजे—अर्श
से टूटा हुआ
कोई तारा
कहीं
से ढूंढ के
लाओ! बड़ा
अंधेरा है।
अभी
तो सुबह के
माथे का रंग
काला है
अभी
फरेब न खाओ! बड़ा
अंधेरा है।
जिसे
जबाने—खिरद में
शराब कहते हैं
वो
रोशनी—सी
पिलाओ! बड़ा
अंधेरा है।
जरा
गौर से तो
देखो! कितने
अंधेरे में
गिरे खड़े हो!
इसी को जिंदगी
मान रहे हो? इन्हीं
कांटों को फूल
समझ रहे हो? इसी फांसी
को? सूली
पर लटके हो।
एक नहीं हजार सूलियों
पर लटके हो और
सोच रहे हो
यही जिंदगी
है! ऐसे ही
सूली पर लटके—लटके
टूट जाओगे; श्वास टूट
जाएगी, और
जान भी न
पाओगे कि
जिंदगी क्या
थी। अंधेरे में
ही जिए, अंधेरे
में ही मर
जाओगे।
चरागेत्तूर
जलाओ!...
तूर
नाम के पर्वत
पर मूसा को
परमात्मा की
रोशनी दिखाई
पड़ी थी। उसको
कहते हैं—चरागेत्तूर।
परमात्मा
वहां
प्रज्वलित
अग्नि की
भांति मूसा के
सामने प्रगट
हुआ था। और
ऐसी
प्रज्वलित अग्नि
कि मूसा एक
क्षण को किंकर्तव्यविमूढ़
हो गए थे! कुछ
समझ में न
पड़ता था। बड़ी
रहस्यमय अग्नि, क्योंकि एक
हरी—भरी झाड़ी
के बीच से उठ
रही थी लपट।
आग जल रही थी और
झाड़ी हरी की
हरी थी। न फूल कुम्हलाए
थे, न
पत्ते कुम्हलाए
थे। आग थी, मगर
बहुत ठंडी आग
थी।
परमात्मा
आग है—बहुत
ठंडी आग है!
रोशनी है, लेकिन ताप
नहीं; बड़ी
शीतल आग है।
चरागेत्तूर
जलाओ!...
तुम्हें
भी जलानी होगी
ऐसी रोशनी
अपने भीतर, जिसमें ताप
नहीं।
कामवासना
आग है, जो
जलाती है।
प्रार्थना भी
आग है, जो
जलाती नहीं।
आग के दो
गुणधर्म हैं—एक
जलाना और एक
रोशनी देना।
कामवासना
जलाती है, क्योंकि
उत्तप्त है; बुखार जैसी
है; मारती
है। इसी को
निखारना है, शुद्ध करना
है। इसमें से
वासना चली जाए,
इसमें से
ताप चला जाए, तो यही
प्रार्थना बन
जाए, शीतल
हो जाए। ठंडी
आग!
ऐसी
ठंडी आग को
देख कर तो
कबीर ने उलटबांसियां
कहीं। उलटबांसियों
का अर्थ है कि
जिंदगी के
सत्य तार्किक
नहीं हैं, अतक्र्य
हैं। कबीर
कहते हैं:
नदिया लागी आगि। नदी
में आग लगी है!
नदी में आग
लगती नहीं है।
लेकिन कबीर यह
कह रहे हैं कि
मुझे ऐसे सत्य
दिखाई पड़ रहे
हैं जिन पर
तुम भरोसा न
कर सकोगे; जैसे
कोई कहे आ कर
कि मैंने नदी
में आग लगी
देखी और तुम
कहोगे—रहने भी
दो! इतना झूठ न
बोलो।
दो
अफीमची एक झाड़
के नीचे बैठ
गपशप कर रहे
थे। पीनक में
थे। एक अफीमची
ने कहा, मेरे
दादा का घर
इतना बड़ा था
कि एक बार एक
बच्चा गिर पड़ा
ऊपर की मंजिल
से तो नीचे
आते—अपते
तक जवान हो
गया। दूसरे
अफीमची ने कहा,
यह कुछ भी
नहीं, मेरे
दादा का मकान
इतना बड़ा था
कि एक बार एक
बंदर गिर पड़ा
तो नीचे आते—आते
तक आदमी हो
गया! पहला
अफीमची बोला
कि इतनी न हांको!
चलो मैं भी
थोड़ी बदले
लेता हूं।
बच्चा नहीं था,
बस मूंछ की
रेख निकल ही
रही थी। गिरा
था और जवान हो
गया था। अब
तुम भी अपनी
कहानी में
सुधार कर लो।
दूसरे
अफीमची ने
कहा: अगर तुम
इतना करने को
राजी हो, तो
मैं भी कर
सकता हूं।
मुहर्रम के
दिन थे। वह आदमी
असली में बंदर
नहीं था, बंदर
बना था। नीचे
आते—आते तक घबड़ाहट
में पसीने में
रंग बह गया, सो आदमी हो
गया था।
अफीमचियों
पर हंस लेना
आसान है। मगर
तुम्हारे
पुराण अफीमचियों
की पीनक से
कुछ और ज्यादा
नहीं मालूम
होते। और हरेक
पुराण, हरेक
धर्म अपने
दावे बड़े—बड़े
करता है। ऐसे
दावे जो कि
अफीमची करें
तो क्षमा किए
जा सकें, लेकिन
पंडित—पुरोहित
करते हैं। तुम
दावे जरा गौर
से देखो, जरूर
अंधेरे में
लिखी गई होंगी
ये किताबें और
अंधों ने लिखी
होंगी।
अंधेरे की ही
स्याही से लिखी
होंगी। इनमें
रोशनी कहीं
दिखाई नहीं पड़ती।
महावीर
को मानने वाले
कहते हैं कि
महावीर मल—मूत्र
का विसर्जन
नहीं करते थे।
भोजन करोगे, पानी पीओगे
और मल—मूत्र
का विसर्जन
नहीं करोगे? महावीर को
पसीना नहीं
आता था। एक तो
नंग—धड़ंग,
बिहार की
गरमी, धूप—धाप...और
महावीर को
पसीना नहीं
आता था; तो
किसको पसीना
आएगा? चमड़ी
थी कि
प्लास्टिक था?
जीवित
व्यक्ति की
चमड़ी में रोआं—रोआं
श्वास लेता
है। रोआं—रोआं
शरीर को शीतल
करने का उपाय
करता है, इसीलिए
पसीना आता है।
पसीने की एक
वैज्ञानिक प्रक्रिया
है। उसका अपना
रासायनिक
अर्थ है। अगर
जिस आदमी को
पसीना न आता
हो वह जिंदा
नहीं रह सकता,
वह मर ही
जाएगा। मर ही
चुका! मुर्दे
को ही पसीना
नहीं आता।
पसीना आना
जरूरी है
क्योंकि पसीना
शरीर को एक
सुनिश्चित
तापमान में
रखने की प्रक्रिया
है।
तुमने
देखा, सर्दी
हो कि गर्मी, शरीर के
भीतर का
तापमान समान
रहता है—वही अट्ठानबे
डिग्री के
करीब। कितनी
ही गरमी पड़
रही हो, तुम्हारे
भीतर कोई एक
सौ दस डिग्री
गरमी नहीं हो
जाती। नहीं तो
तुम खतम ही हो
जाओ। और कितनी
ही सर्दी पड़
रही हो, शून्य
डिग्री से
नीचे उतर गया
हो तापमान, तो तुम
शून्य डिग्री
के नीचे नहीं
उतर जाते। नहीं
तो गए, फिर
लौटने का कोई
उपाय नहीं!
तुम तो अट्ठानबे
डिग्री के
करीब ही रहते
हो।
शरीर
बड़ी अदभुत प्रक्रिया
है!
जब
बहुत गरमी
पड़ती है तो रोएं—रोएं से
पसीना बहता
है। पसीना
क्यों बह रहा
है? पसीना
इसलिए बह रहा
है कि शरीर की
गरमी को पसीना
पी लेगा और
भाप बन कर उड़
जाएगा। शरीर
की गरमी पसीने
को भाप बना
देगी। शरीर की
गरमी पसीने को
भाप बनाने के
काम आ जाएगी
और भीतर
इकट्ठी नहीं
होगी। इसलिए
जब तुम सर्दी
में ठिठुरने
लगते हो तो
कंपने लगते हो,
दांत कटकटाने
लगते हो।
क्यों? यह
शरीर की तरकीब
है कंपन पैदा
करने की, गति
पैदा करने की—ताकि
गति के द्वारा
सर्दी
तुम्हें
बिलकुल सर्द न
कर जाए। गति
बनी रहे, हलन—चलन
होता रहे तो
तुम्हारे
भीतर गरमी बनी
रहेगी।
महावीर
को पसीना नहीं
निकलता!
महावीर को ही
नहीं, किसी
तीर्थंकर को
नहीं, चौबीस
तीर्थंकर
जैनों के, पसीना
नहीं निकलता!
वह खास
परिभाषा है।
अगर कोई दावा
करे कि मैं
तीर्थंकर हूं
तो पहली बात सिद्ध
करनी पड़ेगी कि
पसीना निकलता
है कि नहीं? पसीना
निकलता है तो
बात खतम हो
गई। उत्तीर्ण
नहीं हो सकते
फिर तीर्थंकर
की परीक्षा
में!
ईसाई
कहते हैं कि
जीसस क्वांरी
बेटी से पैदा
हुए। अफीमचियों
की तरह पीनक
में बातें कर
रहे हो! कि
जीसस पानी पर
चलते हैं; कि जीसस
मुर्दे को
जिला लेते हैं;
कि जीसस
अंधों को छू
देते हैं, उनको
आंखें आ जाती
हैं। यही जीसस
जब सूली पर लटकाए
जाते हैं और
इन्हें प्यास
लगती है तो
पानी मांगते
हैं। कोई
चमत्कार काम
नहीं आता। इन्हीं
जीसस ने पूरे
समुद्र को
चमत्कार करके
पानी से शराब
बना दिया था।
मुहम्मद
जहां भी जाते
हैं उनके ऊपर
एक बदली छाया
करती हुई चलती
है। खूब छाते
की तरकीब
निकाली! कहां
छाता लिए फिरें
मुहम्मद, तो
एक बदली अटकी
रहती है सिर
पर उनके पर, वे जहां
चलें।...और
रेगिस्तान
में भयंकर
गरमी, जरूरत
भी है छाते
की। अगर क्या
छाता खोजा!
हवा किसी तरफ
जा रही हो, मुहम्मद
किसी तरफ जा
रहे हों, तो
भी बदली मुहम्मद
के साथ जाती
है, हवा के
साथ नहीं
जाती। अब
बदलियां कहीं
ऐसे मुहम्मदों
का पीछा करती
हैं? यह
दूसरी बात है
कि मुहम्मद की
देख—देख कर
चलते हों कि
बदली कहां को
जा रही है। यह दूसरी
बात है कि जिस
तरफ जाएं, बदली
उस तरफ चले।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन अपने
गधे पर बैठा
हुआ तेजी से
चला जा रहा
था। बाजार में
लोगों ने पूछा, नसरुद्दीन,
कहां जा रहे
हो बड़ी तेजी
से? उसने
कहा, मेरे
गधे से पूछो।
क्योंकि वह
मेरी तो सुनता
नहीं और कभी—कभी
बीच बाजार में
फजीहत करवा
देता है, कि
मुझे ले जाना
है बाएं और
उसको जाना
नहीं। अब गधे
तो गधे! और चार
आदमी देख कर
भीड़—भाड़ में
उनकी अकड़ बढ़
जाती है। गधे
भी बड़े राजनीतिज्ञ
होते हैं!
देखे बहुत—से
वोटर, अकड़
गए! कि तुमने
समझा क्या है
मुझको!
मुल्ला
ने कहा कि
अकेले में तो
मैं इसको जहां
चाहता हूं
वहां चला जाता
है; मगर बीच
बाजार में अगर
मैंने इसको
रोका, छेड़ा कि बस लोटने—पोटने
लगता है, उपद्रव
मचा देता है।
चार आदमियों
के सामने भद्द
हो जाती है।
तो मैंने भी
एक तरकीब
निकाल ली है।
गधा है, यह
क्या समझता
है! आखिर मैं
भी होशियार
हूं—आदमी हूं!
अब मैं बाजार
में इसको
चलाने की कोशिश
ही नहीं करता;
जहां जाता
है शान से उसी
तरफ जाता हूं।
गांव के बाहर
निकाल कर फिर
जहां ले जाना
है। ले जाऊंगा,
मगर गांव के
भीतर, जहां
यह जाता है...।
इससे इज्जत भी
बनी रहती है, गांव के लोग
समझते हैं कि
क्या प्यारा
गधा है!
इसी
प्यारे गधे को
मुल्ला नसरुद्दीन
एक दफे बेचने
ले गया। थक
गया, परेशान
हो गया इस गधे
से। खूब
नहलाया—धुलाया।
लक्स साबुन
लगाई। कंघी
की। लेकिन
चला। एक आदमी
ने देखा—एक
रईस ने देखा।
इतना शानदार,
साफ—सुथरा
गधा, सुगंधित,
कभी देखा
नहीं था। और
मुल्ला नीचे
चल रहा था, उस
पर बैठा भी
नहीं था। उस
अमीर ने कहा
कि इतना अच्छा
गधा, और इस
पर बैठते क्यों
नहीं? मुल्ला
ने कहा कि
नहीं, बड़ा
प्यारा गधा
है! इस को बैठ
कर मैं कष्ट
नहीं देना
चाहता। तभी तो
इसकी यह शान
है। गधों में यह
पहुंचा हुआ
गधा है। सिद्धपुरुष
समझो। अमीर का
दिल आ गया।
उसने कहा कि
ठीक है, मैं
खरीद लेता
हूं। जितने
रुपए मुल्ला
ने मांगे...जितने
ज्यादा से
ज्यादा
मांगने की
कल्पना कर
सकता था, मांगे...अमीर
ने दे दिए।
दूसरे दिन
अमीर गधे को लेकर
मुल्ला के घर
आया और कहा कि
यह तो धोखा किया
तुमने। यह गधा
तो बड़ा अजीब
है! बैठो तो
बैठने ही नहीं
देता। दुलत्ती
मारता है।
जमीन पर लोट
जाता है। खाने
में भी इसको
श्रेष्ठतम
भोजन चाहिए, दूसरी कोई
चीज खाता
नहीं। यह कहां
की झंझट दे दी!
मुल्ला
ने कहा, इस
में और कोई
खराबी नहीं है,
बस एक बात
का खयाल रखना,
कभी इस पर
बैठने की
कोशिश मत
करना। और सब
बातों में यह
सुंदर है, बस
इस पर बैठना
भर मत।
गधे पर
अगर बैठो न तो
प्रयोजन क्या
रहा?
ये
शास्त्रों
में तुम्हारी
जो कहानियां
हैं, इनको तुम
जीवन में तो
उतार ही नहीं
सकते। न तुम
पानी पर चल
सकते हो, न
आकाश में उड़
सकते हो, न
पसीना बहने से
रोक सकते हो, न बदलियों
को अपने सिर
पर चला सकते
हो, न मरतों
को उठा सकते
हो, न
अंधों को आंख
दे सकते हो—इन सारी
कहानियों का
कोई अर्थ ही न
रहा। ये फिजूल
हैं। ये पीनक
में कही गई
हैं। और यह
सिर्फ दूसरे
से अपने को
बड़ा सिद्ध
करने की कोशिश
में चेष्टा चल
रही है। अगर
तुम्हारा
तीर्थंकर ऐसा
करता है, तो
हमारा अवतार
इससे बड़ा करके
दिखलाएगा!
और जब
कहानियां ही
लिखनी हैं तो
फिर अपना दिल,
जो चाहे
करो! जैसी
कहानी बनाना
चाहो, बनाओ!
इन
कहानियों को
तुम धर्म मत
समझ लेना। और
इन कहानियों
के कारण बड़ा
अंधेरा है।
धर्म तो चरागेत्तूर
है, कहानी
किस्से नहीं
है; पुराण—कथाएं
नहीं है। धर्म
तो चरागेत्तूर
है। यह तो
ठंडी रोशनी
है। यह तो
रोशनी का एक
रूपांतरण है।
यह तो अग्नि
के भीतर हो गई
एक क्रांति
है। और जब
तुम्हारे
भीतर यह चरागेत्तूर
जलता है...।
यहूदी
खोजते हैं कि
तूर नाम का
पर्वत कहां
है। कोई कहता
है, यहां, कोई
कहता है वहां।
मैं कहना
चाहता हूं: यह
तूर नाम का
पर्वत बाहर
नहीं है, यह
तूर नाम का
पर्वत भीतर
है। और जिस
झाड़ी में मूसा
ने आग लगी
देखी थी, वह
तुम हो। झाड़ी
को कहीं और
खोजने मत
जाना। वे फूल
तुम्हारे हैं,
वे पत्ते
तुम्हारे।
चरागेत्तूर
जलाओ! बड़ा
अंधेरा है।
जरा
नकाब उठाओ!
बड़ा अंधेरा
है।
थोड़ा
घूंघट हटाओ!
घूंघट के पट
खोल, तोहे पिया
मिलेंगे!
मगर
साहस ही नहीं
रहा हम में।
हमारी जिंदगी
में साहस एकदम
विदा ही हो
गया है।
सो पावैगा
लाल जायके
गोता मारै।
मरजीवा
ह्वै जाए लाल
को तुरत निकारै।।
निसिदिन मारै मौज, मिली अब बस्तु
अपानी।
फिर तो
मौज ही मौज
है। अप्राप्य
मिल गया। जो नहीं
मिल सकता है
वह मिल गया।
असंभव संभव हुआ।
निसिदिन मारै मौज
मिली अब बस्तु
अपानी।
ऋद्धि
सिद्धि और
मुक्ति भरत
हैं उन घर
पानी।।
जिन्होंने
भीतर की इस
रोशनी को जान
लिया; यह
चिराग जिनका
जल उठा; जिन्होंने
घूंघट हटा
दिया; जिन्होंने
अपने सब परदे
गिरा दिए; जिन्होंने
अपने स्वभाव
को उसकी समग्र
नग्नता में पहचान
लिया—अब
उन्हें न ऋद्धियों
की फिक्र है, न सिद्धियों
की फिक्र है, न मुक्ति की
चिंता है—ये
सब उनके घर
पानी भरती
हैं।
वे
साहन के साह, उन्हैं है आस न
दूजा।
ब्रह्मा
बिस्नु महेस करैं
सब उनकी
पूजा।।
जिसने
भीतर का दीया
जला लिया है, जिसके भीतर
ध्यान का दीया
जला, या
भक्ति का दीया
जला, प्रेम
का दीया जला, अब उसे किसी
मंदिर—मस्जिद
में नहीं जाना
पड़ता। उलटी
घटना घटती है:
ब्रह्मा बिस्नु
महेस करैं
सब उनकी पूजा!
वे साहन के
साह...वे
शहंशाह हैं। और
उनकी संपदा और
साम्राज्य
ऐसा है, जो
कोई छीन नहीं
सकता।
पलटू
गुरु—भक्ती
बिना भेस भया
कंगाल।
जो
साहिब का लाल
है, सो पावैगा
लाल।।
अब
दुनिया में
बहुत
संन्यासी
दिखाई पड़ते
हैं—साधु, महात्मा, मुनि, त्यागी,
व्रती—मगर
पलटू कहते हैं,
चूंकि एक
चीज चूक रही
है, सब
कंगाल हैं।
पलटू गुरु—भक्ति
बिना भेस भया
कंगाल। अब ये
सिर्फ कंगालियों
के अलग—अलग
रूप हैं—कोई
मुनि, कोई
महात्मा, कोई
साधु—ये सब
भिखमंगी के ही
रूप हैं। इन
सब में भिखारी
ही छिपा हुआ
है। जिनसे कुछ
करते नहीं
बनता, वे
साधु हो गए
हैं। जो
जिंदगी में
कहीं सफल न हो
सके, वे
साधु हो गए
हैं। जो सब
जगह असहल
हो गए, उन्होंने
सोचा, चलो,
साधु हो जाएं;
कम से कम
सम्मान तो
मिलेगा—मुफ्त
सम्मान। उलटे—सीधे
कामों के कारण
सम्मान मिल
रहा है। कोई
कांटों पर
सोया है, सम्मानित
हो रहा है।
किसी ने मुंह
में भाला भोंक
लिया है, वह
सम्मानित हो
रहा है। कोई
उपवास कर रहा
है, वह
महाव्रती
समझा जा रहा
है। भूखे मर
रहा है सिर्फ।
यह सिर्फ
कंगाल है।
असली
संन्यासी शाहों
का शाह होता
है, बादशाह
होता है। उसके
पास लाल होता
है। उसके पास
परमात्मा का
हीरा होता है।
खोजत
हीरा को फिरै, नहीं पोत का
दाम।।
लोग
खोजते तो हैं
हीरे को, मगर
पास में पोत
खरीदने के भी
दाम नहीं; कांच
के गुरिए
खरीदने के भी
दाम नहीं और
हीरे खरीदने
चल पड़ते हैं।
लोग
पूछते हैं:
ईश्वर कहां है? ईश्वर को
कैसे पाएं? ईश्वर का
प्रमाण क्या?
ईश्वर को
सिद्ध करें। खोजत हीरा
को फिरै, नहीं पोत का
दाम। और यह
कोई भी नहीं
पूछता कि मेरी
सामर्थ्य
क्या है कि
ईश्वर को
जानूं; मेरा
अधिकार क्या
है कि ईश्वर
को जानूं; मेरी
पात्रता क्या
है कि ईश्वर
को जानूं? सम्यक
खोजी ईश्वर के
संबंध में
नहीं पूछता, पूछता है कि
मैं कैसी
पात्रता
निर्मित करूं
कि ईश्वर का
अनुभव हो सके!
मुझे पाठ दें
कि मैं अपनी
आंखों को कैसे
धोऊं कि
सारी धूल झड़
जाए और मैं
देख सकूं उसे,
जो है! मेरे
हृदय को निखारने
की कोई कीमिया
दें, ताकि
मेरे भीतर भी
प्रेम
प्रार्थना बन
सके।
सच्चा
खोजी
परमात्मा की
बात नहीं
पूछता, अपनी
पूछता है।
दुर्दशा को
अपनी कैसे
रूपांतरित
करूं, इस
संबंध में
पूछता है। यह
नहीं पूछता कि
परमात्मा है
या नहीं; यह
पूछता है कि
यह मेरा
अंधेरा कैसे
कटे? या यह
मेरा अंधापन
कैसे मिटे?
खोजत
हीरा को फिरै, नहीं पोत का
दाम।।
नहीं
पोत का दाम, जोहरि की गांठ खुलावै।
पैसे
नहीं हैं कांच
के गुरिए
खरीदने को और
पहुंच जाते
हैं जौहरियों
के पास और
चाहते हैं कि
जौहरी खोल दें
अपनी गांठ, दिखाएं अपने
बहुमूल्य
हीरे। शायद
साधारण
दुनिया में तुम
जौहरी को धोखा
दे भी दो, क्योंकि
जौहरी कैसे
समझेगा कि
तुम्हारे पास दाम
हैं या नहीं? तुम अगर जा
कर पूछोगे कि
भई, हीरों
का क्या भाव
है, तो
जौहरी बेचारा
बताने लगे।
मगर परमात्मा
के जगत के जो
जौहरी हैं—तुम
किसी गुरु को
धोखा न दे
पाओगे; तुम
किसी बुद्ध को
धोखा न दे
पाओगे।
बुद्ध
के पास जाकर
लोग पूछते
हैं: ईश्वर है? बुद्ध बात
ही टाल जाते
हैं। बुद्ध
बात ही कुछ और
करते हैं।
अनेक बार
लोगों ने
बुद्ध को कहा है
कि हम कुछ
पूछते हैं, आप कुछ कहते
हैं! आप हमारे
प्रश्न का
सीधा—सीधा उत्तर
क्यों नहीं
देते?
बुद्ध
कहते हैं:
तुम्हारा
प्रश्न अभी
पूछने का क्षण
नहीं आया।
उसके लिए
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
मैं वह उत्तर
दे रहा हूं,जो
तुम अभी समझ
सकते हो। तुम
वह पूछ रहे हो,
जो कभी शायद
तुम समझ सको।
आज उत्तर देने
का समय नहीं
है। आज तुम
पके नहीं हो। आज
तुम्हारी कोई
पात्रता नहीं,
कोई अधिकार
नहीं।
इसलिए
बुद्ध ने
ईश्वर है या
नहीं, इस
संबंध में
चुप्पी रखी।
लोगों ने मनगढ़ंत
सिद्धांत बना
लिए, किसी
ने मान लिया
कि ईश्वर है, लेकिन चूंकि
गूंगे का गुड़
है, कहा
नहीं जा सकता,
इसलिए
बुद्ध चुप
हैं। तो कम से
कम इतना तो कह
सकते थे कि
गूंगे का गुड़
है! इतना तो कह
सकते थे कि
कहा नहीं जा
सकता है, इसलिए
चुप हूं! यह भी
नहीं कहा। कुछ
मानते हैं, ईश्वर है ही
नहीं, इसलिए
बुद्ध चुप हैं,
कि कौन झूठ
ले कहने की कि
ईश्वर नहीं
है! क्योंकि
नाहक लोगों को
दुख पहुंचाओ
कि ईश्वर नहीं
है! इसलिए चुप
ही रहे। यह
बात भी सच
नहीं है।
बुद्ध
लोगों को चोट
पहुंचाने से
नहीं डरते। क्योंकि
बिना चोट के
कहीं कोई
पत्थर मूर्ति
बना है! बुद्ध
लोगों को
झकझोरने से
नहीं डरते। क्योंकि
बिना झकझोरे
तुम्हारी धूल
कैसे झरेगी? बुद्ध तुम
पर प्रहार
करने में जरा
भी कृपणता नहीं
करते हैं; बेरहमी
से प्रहार
करते हैं, क्योंकि
तुम पर प्रहार
की जरूरत है; तुम्हारी
गर्दन काटनी
है; तुम्हारा
अहंकार
गिराना है; तुम्हारे घर
में आग लगा
देनी है—तो ही
तुम जागोगे।
छोटे—मोटे
उपाय से काम
होने वाला
नहीं है।
तुम्हारा
आलस्य ऐसा है
कि घर में आग
लग जाए तो ही
शायद तुम दो—चार
कदम चलो। लगी
आग देख कर
शायद तुम दौड़
कर बाहर
निकलो। बुद्ध
बेरहमी से चोट
करते हैं।
इसलिए
यह बात ठीक
नहीं है कि
लोगों को चोट
लगेगी इसलिए
वे चुप रह गए।
उनके चुप रह
जाने का कारण
कुछ और है।
उनके चुप रह
जाने का कारण
मैं तुमसे
कहता:
तुम पात्र
नहीं थे पूछने
के। तुम ऐसा
प्रश्न पूछ रहे
थे, जिसके
दाम तुम्हारे
पास नहीं थे।
इसलिए बुद्ध
की अब तक
जितनी
व्याख्याएं
की गई हैं, उनसे
मैं किसी से
राजी नहीं
हूं। एक तरफ
लोग हैं जो
कहते हैं:
ईश्वर है, ऐसा
बुद्ध जानते
हैं, लेकिन
चूंकि कहा
नहीं जा सकता,
अव्याख्य
है, अनिर्वचनीय
है, इसलिए
चुप हैं। कुछ
कहते हैं कि
बुद्ध जानते हैं
कि ईश्वर नहीं
है, लोगों
को चोट नहीं
पहुंचाना
चाहते, इसलिए
चुप हैं। और
कुछ लोग कहते
हैं कि बुद्ध को
पता ही नहीं
है, अपना
अज्ञान
छिपाने के लिए
चुपचाप बैठे
हैं। न बोलना
ही अच्छा; क्योंकि
बोले, फंसे।
ये
सारी
व्याख्याएं
गलत हैं। अगर
बुद्ध को पता
नहीं है तो
किसी को पता
नहीं है। अगर
बुद्ध को पता
नहीं है तो
फिर किसी को
कभी पता नहीं
होगा।
क्योंकि कौन
इतना गहरा गया
है? न बुद्ध
इसलिए चुप हैं
कि
अनिर्वचनीय
है। न बुद्ध
इसलिए चुप हैं
कि चोट नहीं
करना चाहते।
बुद्ध के चुप
रहने का कारण—
खोजत
हीरा को फिरै, नहीं पोत का
दाम।।
नहीं
पोत का दाम, जोहरि की गांठ खुलावै।
तुम
बुद्ध की गांठ
नहीं खुला
सकते। ये
बुद्ध कोई
साधारण जौहरी
नहीं हैं कि
ग्राहक धोखा
दे जाए। यह तो
बुद्ध जब परख
लेंगे ठीक से
कि हां, अब
ग्राहक की लेने
की क्षमता है,
तो कहेंगे।
बुद्ध ने कहा
है, सब कहा
है; लेकिन
उनसे कहा है
जिनकी लेने की
क्षमता थी। वह
अत्यंत
समीपता में, निकटता में,
मौन में दिए
गए संदेश हैं।
उनका कोई
उल्लेख शास्त्रों
में नहीं है, क्योंकि वे
कोई
सार्वजनिक
वक्तव्य नहीं
थे। शास्त्रों
में तो
सार्वजनिक
वक्तव्य लिखे
गए हैं। लेकिन
जो बुद्ध ने
निजता में, एकांत में
अपने निकटतम
शिष्यों को
कहा है, वह
तो नहीं लिखा
गया। उसे तो
शिष्य लिख भी
नहीं सकते, क्योंकि फिर
वह बात उसी को
कही जा सकती
है, जिसकी
गांठ में दाम
हो।
इसलिए
धर्म के दो
रूप हैं। एक
रूप है जो
सार्वजनिक है—जो
सब से कहा जा
सकता है। वह
धर्म का
अत्यंत साधारण
रूप है। और एक
धर्म का असली
गुह्य रूप है, जो केवल
उनसे कहा जा
सकता है जो
सुनने की पात्रता
रखते हैं। वह
तो कानों—कान
कहा जाता है।
तुम
सुनते न कि
गुरु कान फूंकता
है! अब तो गांव—गांव
गुरु कान फूंकते
हैं। बात
ही...हम हर चीज
को बिगाड़ देते
हैं। कान फूंकने
का मतलब क्या
है अब? अब यह
है कि उसकी
कुछ फीस होती
है—तीन रुपया,
ढाई
रुपया...और कान
फूंक देता है
गुरु। फूंक कर
क्या कहता है?
कि यह राह
तेरा मंत्र—राम—राम,
राम—राम, राम—राम
जपना; और
किसी को बताना
मत। क्योंकि
बता दे तो
मामला ही खुल
जाए, पोल
ही खुल जाए।
अगर सब को कह
दे कि यह गुरु
ने कान में
कुल इत्ती
बात कही...ढाई
रुपए ले लिए
बेकार; राम—राम
जपना, यह
तो हमें ही
मालूम था।
इसमें कौन—सी
बात बता दी? तो कहना मत
किसी को—यह
शर्त है। पाप
लगेगा अगर
इसको बताओगे
किसी को। यह
कान फूंकना!
कान फूंकने का
अर्थ कुछ और
था। कान फूंकने
का अर्थ था—कुछ
बातें हैं जो
कान में ही
कही जा सकती
हैं; जिनकी
गुफ्तगू ही हो
सकती है—गुपचुप,
चुपचाप, फुसफुसा
कर ही कही जा
सकती हैं। वे
बातें इतनी
कीमती हैं कि
उन्हें
सार्वजनिक
नहीं किया जा
सकता; उनका
गुप्त दान ही
होता है। वे
तो निकटतम
शिष्यों को ही
कही जा सकती
है। उनको
संग्रहीत भी नहीं
किया जाता है।
नहीं
पोत का दाम, जोहरि की गांठ खुलावै।
बातन
की बकवाद
जौहरी को बिलमावै।।
लंबी
बोलत बात, करै बातन की
लदनी।
ग्राहक
लंबी—चौड़ी
बातें कर रहा
है, जौहरी को बिलमा रहा
है। ईश्वर है
या नहीं? तत्वमसि का क्या
अर्थ? अहं
ब्रह्मास्मि
की व्याख्या
करिए। उपनिषद क्या
कहते हैं, वेद
क्या—क्या
कहते हैं, कुरान—बाइबिल
क्या कहती है?—बड़े—बड़े
सिद्धांत लोग
पूछ रहे हैं।
सिर्फ पंडितों
को तुम बिलमा
सकते हो, बुद्धों
को नहीं। उनकी
आंख तो
तुम्हें फौरन
पहचान लेगी कि
तुम कहां हो, और तुम जहां
हो बस वहीं से
उत्तर दिया
जाएगा। उतना
ही उत्तर दिया
जाएगा जितना
तुम झेल सकते हो।
और यही उचित
भी है।
कौड़ी
गांठ में नहीं, करत
है बातैं
इतनी।।
लिहा
जौहरी ताड़, फिरा है
ग्राहक खाली।
थैली
लई समेटि, दिहा गाहक को
टाली।।
साधारण
जौहरी भी आखिर
तो समझ ही
जाते हैं! कितनी
देर बातचीत
करोगे! थोड़ी—बहुत
देर में ही
समझ में आ
जाता है।
साधारण जौहरी
भी कांच के
टुकड़े बता कर
देख लेते हैं
कि पहचानते हो
कि नहीं
पहचानते? रंगीन
कांच के टुकड़े;
लेकिन लग
सकता है कि
बड़े कीमती हैं!
मैं पहलगांव
में था। कुछ
मित्र मेरे
साथ पहलगांव
में रुके थे।
महावीर पर एक
अंतरंग
सत्संग चल रहा
था। एक दिन
सुबह ही सुबह
एक आदमी आया, उसने अपनी
झोली खोली—बड़े
प्यारे पत्थर
थे! कश्मीर
में बड़े
प्यारे पत्थर
होते हैं।
हीरों का धोखा
दे जाएं, ऐसे
पत्थर होते
हैं। दाम उनके
कुछ भी नहीं।
माणिक बाबू भी
मेरे साथ थे।
उनको बहुत जंचे।
और सस्ते मिल
रहे थे! चार
रुपए, पांच
रुपए, छह
रुपए, सात
रुपए। सात
रुपए में
हीरा! माणिक
बाबू ने सोचा
कि खरीद लें
दस—पच्चीस, कम से कम
मित्रों को
बांट देंगे चल
कर पूना में।
पर दुकानदार
आदमी हैं, तो
ठहराए, दाम
कम करवाने की
कोशिश की। ऐसे
तो लग रहा था कि
वैसे ही दाम
कम हैं, तीन
रुपए तो यह
खुद ही कह रहा
है, अब और
क्या काम
करना! लेकिन
फिर भी हिम्मत
करके कहा कि
भई, नहीं, डेढ़
से ज्यादा
नहीं। वह डेढ़
में ही राजी
हो गया! तब
थोड़े डरे भी, थोड़े चिंतित
भी हुए; मगर
लगा भी कि डेढ़
रुपए में हर्ज
ही क्या है—इतनी
सुंदर चीज, ऐसी चमक! कहा
कि नहीं—नहीं,
हम तो बारह
आने से ज्यादा
नहीं देंगे।
वह बारह आने
में भी राजी!
तब तो खरीदना
ही पड़ा। और
दूसरे दिन पता
चला कि वह लूट
कर ले गया। वे
तो बाजार में
दो—दो आने में
मिल रहे हैं।
माणिक बाबू ने
काफी खरीद लिए
थे! पूना में
कई लोगों को
बांटे होंगे।
जौहरी
तो ज्यादा देर
न लगेगी, पहचान
लेगा। साधारण
जौहरी भी
पहचान लेगा, कि आप जानते
हैं पत्थरों
के बाबत कि
नहीं। लेकिन
जिन असाधारण जौहरियों
की बात यहां
चल रही है, वह
तो एक दफा
आपकी तरफ देखा
कि बस काफी, आपकी आंख
में झांका
कि काफी।
लोकलाज
छूटै
नहीं, पलटू
चाहै
नाम।
अभी
तुम लोकलाज
में पड़े हो और
परमात्मा को
पाना चाहते
हो! नाम—परमात्मा
का नाम पाना
चाहते हो!
परमात्मा का दर्शन
पाना चाहते
हो! लोकलाज छूटै
नहीं...अहंकार
छूटता नहीं है, पद—प्रतिष्ठा
छूटती नहीं है—और
नाम पाना
चाहते हो
परमात्मा का! खोजत हीरा
को फिर, नहीं
पोत का दाम।।
ऐसे
नहीं होगा।
कीमत चुकाने
की तैयारी
चाहिए। बिना—कीमत
चुकाए इस जगत
में कुछ भी
नहीं है।
परमात्मा तो
चूंकि सबसे
बड़ी संपदा है, इसलिए सबसे
बड़ी कीमत
चुकानी
पड़ेगी। स्वयं
को ही समर्पित
करना होगा। और
फिर बहुत आनंद
है! फिर आनंद
ही आनंद है!
फिर रस की
अजस्र धारा
बहती है!
जब
वो मसरूर
नजर आता है,
हर
तरफ नूर नजर
आता है।
एक बार
उसकी झलक मिल
जो, फिर तो यह
सारा जगत रोशन
है।
जब
वो मसरूर
नजर आता है,
हर
तरफ नूर नजर
आता है।
मैं
तो मयख्वार
हूं तू क्यों
साकी,
नश्शे
में चूर नजर
आता है।
और ऐसा
ही नहीं कि
तुम पिए हुए
मालूम पड़ते हो, परमात्मा और
भी ज्यादा
पिया हुआ
मालूम पड़ता है।
पीए ही हुए
है। मस्त है।
इसलिए तो
ज्ञानियों ने
उसे
सच्चिदानंद
कहा। आनंद
उसकी आखिरी परिभाषा
बनी।
मैं
तो मयख्वार
हूं तू क्यों
साकी
नश्शे
में चूर नजर
आता है।
कुर्ब
से हाथ उठाया
मैंने,
तू
बड़ी दूर नजर
आता है।
मैं
ही तनहा नहीं
दिल के हाथों,
तू
भी मजबूर नजर
आता है।
खाकसारी
को छुपाने के
लिए,
वज्द
मगरूर नजर आता
है।
जब
वो मसरूर
नजर आता है,
हर
तरफ नूर नजर
आता है।
आंख खोलो, अपने
को देखो! आंख खोलो, अपने
को पहचानो!
तुम्हारी
पहचान ही
तुम्हारे लिए
द्वार बनेगी
परमात्मा का।
कोई और सहारा
नहीं है, कोई
और संबल नहीं
है, कोई और
आलंबन नहीं
है।
कौन
हमारा दर्द बटाए कौन
हमारा थामे
हात,
उनके
नगर में जगमग जगमग, अपने देश
में रात ही
रात।
नीले—नीले
अंबर पर वो
चांद, वो
किरनों की
बरसात,
हम
दोनों खोए—खोए
से, हाय वो
मस्त मनोहर
रात।
तू
गुलशन—गुलशन इठलाए, मैं सहरा—सहरा
भटकूं,
दिल
का यह सौदा है
वरना तेरा और
मेरा क्या सात।
सब
दुनियादारी
की बातें दिल
पर और, जबां पर और,
तुझसे
प्यार बढ़ा कर
आखिर जान गए
तेरी औकात।
चाहे
अब इसको अपनाओ, चाहे नाज से ठुकराओ,
आज
से अपना दख्ल
नहीं है दिल
की डारे
तुम्हारे
हात।
दुनिया
की मंशा है
प्यारे, हम
घुट—घुट कर मर
जाएं,
दिल
की धड़कन ये
कहती है इक
दिन बदलेंगे
हालात।
एक
अनोखी लय से
मैंने सब के
दिल पिघलाए
हैं,
दुनिया
को ये वहूम
कि मेरे
होंठों पर है
अपनी बात।
चाहे
अब इसको अपनाओ, चाहे नाज से ठुकराओ,
आज
से अपना दख्ल
नहीं है दिल
की डोर
तुम्हारे
हात।
जिस
दिन कह सकोगे
परमात्मा को
कि अब सब
छोड़ता तुम्हारे
हाथ में, यह
दिल की डोर
तुम्हारे हाथ
में सौंपता
हूं, अब
जैसी
तुम्हारी
मर्जी, अब
जो करना हो
करो, बनाना
हो बनाओ, मिटाना
हो मिटाओ!
न मेरी तरफ से
कोई इशारा है,
न मेरी तरफ
से कोई
आकांक्षा है,
जिस दिन तुम
ऐसी सरलता से
छोड़ सकोगे, उस दिन कीमत
चुकाने को
तैयार हुए।
फिर जिंदगी बदलनी
है—कुछ नया
रंग लेती है, नया ढंग
लेती है, नई
गंध लेती है।
माथे
पर टीका संदल
का अब दिल के कारन रहता
है,
मंदिर
में मसजिद
बनती है, मसजिद में ब्रह्मन
रहता है।
जर्रे
में सूरज और
सूरज में
जर्रा रोशन
रहता है,
अब
मन में साजन
रहते हैं और
साजन में मन
रहता है।
माथे
पर टीका संदल
का अब दिल के कारन रहता
है
एक तो
टीका है बाहर
से लगाया गया; उसका कोई
मूल्य नहीं।
और एक है भीतर
की गंध, भीतर
की संदल से
लगा हुआ टीका;
उसका मूल्य
है।
मंदिर
में मसजिद
बनती है, मसजिद में ब्रह्मन
रहता है।
क्रांति
हो जाती है।
मंदिर में
मसजिद बन जाता
है, मसजिद
में मंदिर बन
जाता है। फिर
मंदिर और मसजिद
के भेद मिट
जाते हैं।
क्योंकि वही
एक है वासी सब
जगह। वही
निवास कर रहा
है सब जगह।
रुत
बीत चुकी है
बरखा की और
पीत के मारै
बैठे हैं,
रोते
हैं, रोने
वालों की
आंखों में
सावन रहता है।
इक
आह निशानी
जीने की रहती
थी, मगर अब वो
भी नहीं,
क्यों
दुख की माला
जपने को ये
तिनका सा तन
रहता है।
दिल
तोड़ के जाने
वाले सुन! दो
और भी रिश्ते
बाकी हैं
इक
सांस की डोरी
अटकी है, इक प्रेम का
बंधन रहता है।
जब
सब टूट जाता
है तब भी...
दिल
तोड़ के जाने
वाले सुन! दो
और भी रिश्ते
बाकी हैं
इक
सांस की डोरी
अटकी है, इक प्रेम का
बंधन रहता है।
जिन्होंने
अपने को
समर्पित किया, उन्हें दो
चीजों का पता
चलता है। एक—अस्तित्व
की डोर, सांस
की डोर। वह तो
कभी टूट नहीं
सकती। हम शाश्वत
हैं, हम
शाश्वत के अंग
हैं। हम सदा
से हैं और सदा
रहेंगे।
अहंकार पानी
का बबूला है, हम नहीं
हैं। अहंकार
बनता है, मिटता
है, हम
नहीं। न हम
बनते, न हम
मिटते। और
दूसरी—हमारे
अस्तित्व से
उठती हुई
प्रेम की
सुगंध है। वह
सदा रहती है।
माया
की चक्की चलै, पीसि गया
संसार।।
पीसि
गया संसार, बचै
न लाख बचावै।
पलटू
कहते हैं: सजग
हो जाओ, होशियार
हो जाओ। जल्दी
दांव पर लगाओ।
जल्दी उस
परमात्मा को
खोज लो। डुबकी
मारो गहरे में,
मोती ले आओ।
क्योंकि देर
की, पता
नहीं समय बचे
हाथ में न बचे!
माया
की चक्की चले, पीसि गया
संसार।।
यह
माया की चक्की
चल रही है। यह
सारे संसार को
पीस रही है।
पीसि
गया संसार, बचै
न लाख बचावै।
इसमें
कोई कभी बचा
नहीं है, इतना
खयाल रखना।
मौत
सुनिश्चित
है। आश्चर्य की
बात है कि जीवन
में जीवन
सुनिश्चित
नहीं है, मौत
सुनिश्चित
है। जीवन में
और कुछ
निश्चित नहीं
है सिवाय मौत
के। लेकिन जो
इतना निश्चित
है, उसको
हम देखते ही
नहीं, टाले रहते हैं, टाले चले जाते
हैं! रोज
लाखों लोग
जमीन पर मरते
हैं, फिर
भी बाकी रहने
वाले यही
सोचते हैं कि
हमें नहीं
मरना है। कल
ये जो आज मर गए
हैं वे भी यही
सोचते थे कि
हमें नहीं
मरना है।
किसकी मौत कब
आ जाएगी, कुछ
कहा नहीं जा
सकता।
पीसि
गया संसार, बचै
न लाख बचावै।
दोऊ
पट की बीच कोऊ
न साबित जावै।।
काम
क्रोध मद लोभ
चक्की के पीसनहारे।
काम का
अर्थ है: यह
मिले, वह
मिले, मिलता
ही रहे। जो
नहीं है, उसके
पीछे दौड़।
क्रोध का अर्थ
है: तुम्हारी
दौड़ में जो भी
बाधा पैदा
करके, उसके
प्रति रोष, उसे मिटा
डालने की
आकांक्षा। मद
का अर्थ है: तुम
जो चाहते हो
मिल जाए, तो
अहंकार, अकड़।
और लोभ का
अर्थ है: जो
मिल गया है, वह और मिले, और मिले। ये सब
काम के ही
भिन्न—भिन्न
रूप हैं। काम
में ही बाधा
पड़े तो क्रोध,
काम पूरा हो
जाए तो मद। और
पूरे हो जाने
पर भी कुछ
पूरा नहीं
होता। वासना
कोई भरती
नहीं।
एक
सूफी फकीर के
पास एक युवक
आया और उस
युवक ने कहा
कि कैसे
परमात्मा को
पा सकता हूं? सूफी फकीर
ने कहा कि अभी
तो मैं जा रहा
हूं कुएं पर
पानी भरने, तुम मेरे
साथ आओ। हो
सका तो वहीं
उत्तर भी हो जाएगा।
मगर एक शर्त
खयाल रखना।
कसम खाओ। यह
पहली कसौटी है
कि तुम
विद्यार्थी
होने के योग्य
हो भी या
नहीं। मैं
कुएं पर कुछ
भी करूं, तुम
प्रश्न मत
उठाना; तुम
चुपचाप देखते
रहना। तुम्हारा
काम निरीक्षण
का है, तुम्हारा
काम साक्षी
का।
साक्षी
की शिक्षा!
विद्यार्थी
भी बड़ा उत्सुक
हुआ, क्योंकि
साक्षी ही तो
सार है। सुना
है शास्त्रों
में, पढ़ा
है शास्त्रों
में, ज्ञानियों
से जाना है—साक्षी
ही तो सार है!
यह भी अदभुत
गुरु है। पहले
ही मौके पर बस आखिरी
कुंजी देने
लगा! चल पड़ा
जल्दी
उत्सुकता में,
आतुर, मस्त—कि
कुछ हाथ लगने
को है। कुएं
पर पहुंच कर
लेकिन बड़ी
निराशा लगी
हाथ, क्योंकि
वह फकीर पागल
मालूम पड़ा।
उसने एक बाल्टी
निकाली अपने
झोले में से, जिसमें
पेंदी थी ही
नहीं। जब उस
विद्यार्थी ने
देखा कि बिना
पेंदी की
बाल्टी...मारे
गए! और जब उसने
डोरी बांधी और
बिना पेंदी की
बाल्टी उसने
कुएं में डाली,
तो बार—बार
उसके सामने
सवाल उठने लगा
कि पूछूं
कि यह आप क्या
कर रहे हैं? लेकिन याद
था उसे, कसम
खा ली थी—कि
पूछना मत, सिर्फ
साक्षी रहना।
यह भी बड़ी
झंझट हो गई।
जबान पर आ—आ
जाए सवाल।
घोंट दे गर्दन
में सवाल को।
और वह फकीर
पानी भरने लगा
बिना पेंदी की
बाल्टी से। खूब
खड़खड़ाएं
कुएं में।
जितना वह खड़खड़ाए,
उसकी छाती
भी खड़खड़ाए
विद्यार्थी
की, कि
मारा! यह कब
पानी भरेगा? जब कुएं में
पानी में
बाल्टी रहे, तब तो भरी
हुई मालूम पड़े,
जब डूबी रहे
पानी में; और
जैसे ही वह
खींचे कि
खाली। ऊपर आ
जाए, देखे
कि खाली, तो
फिर डाले। एक
बार, दो
बार, दस
बार...आखिर भूल
गया
विद्यार्थी
अपनी कसम। उसने
कहा कि रुको
जी! होश है? यह
तो जिंदगी
खराब हो जाएगी
तुम्हारी और
मेरी भी! मैं
भी सिके
चक्कर में पड़
गया! इस बाल्टी
में कभी पानी
नहीं भर सकता।
उस
गुरु ने कहा:
बात खतम हो गई!
अब तुम अपने
रास्ते लगो।
तुम पहला वचन
पूरा न कर
पाए। बस एक
बार और मैं
डालने वाला था, बस एक बार
और। तुम बस
पहुंचते—पहुंचते
चूक गए, मैं
क्या करूं? मैंने तय
किया था:
ग्यारह बार।
दस बर तो हो
चुका था। जरा
और धीरज रख
लेते, बस
जरा और! मुझे
मालूम है कि
बड़ी तकलीफ
तुम्हें हो
रही थी। पसीना—पसीना
तुम हो रहे
थे। तुम्हारा
सब हाल मुझे
मालूम है।
बाल्टी खड़खड़ा
रही, तुम
भी खड़खड़ा
रहे थे...सब
मुझे मालूम
है। बाल्टी से
ज्यादा परेशान
तुम थे। लेकिन
अगर एक बार और
धीरज रख लिया
होता तो मैं
तुम्हें
शिष्य
स्वीकार कर लेता।
अब रास्ता नापो!
उसने
बाल्टी रखी
अपने झोले में
और घर वापस
लौट गया।
विद्यार्थी
ने भी सोचा कि
हो तो गई गलती...पता
नहीं यह क्या
देने वाला था!
एक ही बार
और...खूब चूके!
मगर यह आदमी
भरोसे का नहीं
है। हो सकता है
हम और एक बार
रहते, और तब
भी यह यही
कहता: इस आदमी
का क्या
पक्का! हम बीस
बार भी चुप
रहते, यह
कहता, इक्कीसवीं बार...। इसने
कुछ पहले से
बताया तो था
नहीं कि ग्यारह
बार चुप रहना।
हजार बार भी
अगर हमने धीरज
रखा होता तो
यह कहता, बस
एक...। यह आदमी
बड़ा चालबाज
है। पागल भी
है और चालबाज
भी है।
लौट तो
गया घर, लेकिन
बीच—बीच में
खयाल आने लगा
कि चालबाज
कितना ही हो, पागल कितना
ही हो, आंखों
में उसकी एक
मस्ती तो थी
ही, जो
कहीं और नहीं
देखी! उसके
चारों तरफ एक
आभा—मंडल तो
था, एक
शीतलता तो थी!
मैं चूक गया।
मुझसे भूल हो
गई।
रुक न
सका, आधी रात
वापस पहुंच
गया। एकदम पैर
पर गिर पड़ा और
कहा: मुझे
क्षमा कर दो, मुझसे भूल
हो गई। उस
फकीर ने कहा:
अगर तुम समझ गए
हो, समझकर
क्षमा मांग
रहे हो, समझकर
कह रहे हो कि
तुम से भूल हो
गई, तो पाठ
पूरा हो गया।
यही
तुम्हारी अब
तक कि जिंदगी
है। वासना
बिना पेंदी की
बाल्टी है।
इसको संसार के
कुएं में
डालते रहे, डालते रहो, खड़खड़ाते रहो, हर
बार भरी हुई
मालूम होगी और
जब खींच कर
लाओगे घाट तक,
खाली हो
जाएगी। यह कभी
भरने वाली
नहीं। यह पहला
पाठ। जो मैंने
बाल्टी के साथ
किया और तुम
समझ गए, अब
वही अपने साथ
करो और समझो।
जिस दिन यह
बात तुम्हारी
समझ में आ जाए,
फिर आना, फिर दूसरा
पाठ दूंगा। अब
अपनी वासना की
बाल्टी को रोज—रोज
देखो—डालते हो
कुएं में और
खाली की खाली
लौट आती है।
काम का
अर्थ है: अंधी
वासना। क्रोध
का अर्थ है: तुम्हारी
वासना में जो
भी बाधा डाले।
मद का अर्थ है:
अगर कभी भूल—चूक
से किसी
संयोगवशात
तुम्हारी
बाल्टी भर जाए, तो अहंकार पकड़ता है।
और लोभ का
अर्थ है:
बाल्टी कितनी
ही भर जाए, मन
कहता है, और।
मन कभी और की
आवाज बंद करता
ही नहीं। मन
तो ऐसा समझो
जैसे
ग्रामोफोन का
रिकार्ड है, जिस पर सुई
एक ही जगह अटक
गई है और वही, और वही, और
वही दोहराए
चली जाती है।
मैंने
सुना है, एक
नया हवाई जहाज
बना। वह बिना
पायलट के उड़ने
वाला था। पूरा
आटोमैटिक! न
उसमें पायलट,
न उसमें
होस्टेस, न
कोई स्टीवर्ट...कोई
भी नहीं। बस
यात्री। और
मशीन ही सब
करेगी। सब
आटोमैटिक! एक
बटन दबाओ, भोजन
आए; दूसरी
बटन दबाओ, चाय
आए। एक बटन
दबाओ, फौरन
इंटरकाम पर
आवाज आए कि
कितनी ऊंचाई
पर उड़ रहे हो, मंजिल कितनी
दूर है, कितनी
देर में पहुंच
जाओगे।
यात्री
बड़े खुश थे।
लोगों ने बड़ी
मुश्किल—मुश्किल
से टिकटें पाई
थीं। बड़ी भीड़
मची थी—कौन
सबसे पहले उड़ता
है बिना पायलट
के हवाई जहाज
में! हवाई
जहाज उड़ा।
हजारों फीट
ऊपर उठ गया।
तब इंटरकाम पर
आवाज आई कि
निश्चिंत हो
जाइए। अपनी—अपनी
बेल्ट खोल
लीजिए।
विश्राम
करिए। जरा भी चिंता
मत रखिए कि
पायलट नहीं
है। कोई भूल
कभी नहीं हो
सकती, कोई
भूल कभी नहीं
हो सकती, कोई
भूल कभी नहीं
हो सकती, कोई
भूल कभी नहीं
हो सकती...!
बस, छाती बैठे
गई यात्रियों
की कि मारे गए!
भूल तो यहीं
हो गई। अब आगे
क्या होगा, अब कुछ कहा
नहीं जा सकता।
ऐसा ही
मन है। वह
कहता है: और, और, और...।
उसकी और की
मांग कभी
समाप्त ही
नहीं होती। दस
हजार हैं, तो
कहता है, दस
लाख। दस लाख
हैं, तो
कहता है, दस
करोड़। वह
मांग बढ़ाए
जाता है, फैलाए
चला जाता है।
इन्हीं में
पिस रहा है
आदमी। ये हैं पीसनहारे!
काम
क्रोध मद लोभ
चक्की के पीसनहारे।
तिरगुन डारै झोंक पकरिकै सबै निकारे।।
तृस्ना
बड़ी छिनारि, जाइ
उन सब घर घाला।
और यह
जो तृष्णा है, यह तो
वेश्या है।
इसका कुछ
भरोसा नहीं।
यह कहां—कहां
भटकाती है, कहां—कहां
ले जाती है!
कितने जन्मों
में, कितनी
योनियों में
इसने भटकाया
है!
काल
बड़ा बरियार, किया उन एक
निवाला।।
और मौत
आती है और एक
ही निवाले में, बस एक ही कौर
बनाती है
तुम्हारा, दो
कौर भी नहीं
बनाती कि
सोचने का मौका
मिल जाए।
पलटू
हरि के भजन
बिनु, कोऊ न उतरै
पार।
माया
की चक्की चलै, पीसि गया
संसार।।
इस
माया की चक्की
में अगर कोई
भी उपाय है
उतर जाने का
पार, अगर इस
भवसागर के पार
उतरने के लिए
कोई नाव है—तो
हरिभजन, तो
हरि से
प्रीति!
मगर
हरि से प्रीति
कैसे हो? दाम
चुकाने
होंगे।
पात्रता पैदा
करनी होगी।
गहरे में गोता
लगाना होगा।
यह
संन्यास इसी
बात का शिक्षण
है—साहस का, दुस्साहस का,
गहरे में
गोते लगाने
का। मोती
तुम्हारे हैं,
मगर गहरे
में गोता लगाए
बिना नहीं
मिलेंगे। किनारे
पर बैठे—बैठे
तो तुम सिर्फ गंवाओगे
जीवन, कमा
नहीं पाओगे।
डुबकी मारो!
जो
साहिब का लाल
है, सो पावैगा
लाल।।
सो पावैगा
लाल जायके
गोता मारै।
मरजीवा
ह्वै जाय लाल
को तुरत निकारै।।
बस एक
कला सीख लो—जीते—जी
ऐसे हो जाओ
जैसे नहीं हो!
यही संन्यास
है। यही
संन्यास का
सार—सूत्र है।
आज
इतना ही।
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