नेति-नेति-सत्य की खोज
प्रिय आत्मन,
एक रात
आधी रात हो गयी थी और सुकरात घर नहीं लौटा था।
उसके मित्र और उसके शिष्य चिंतित हो गये।
सुबह से ही वह घर के बाहर था और आधी रात तक न गांव में देखा गया था, न गांव में किसी को मिला था!
और अब आधी रात हो गयी है, अब तक
उसका कोई पता नहीं! फिर आधी रात वे उसे ढूंढ़ने निकले। गांव की गलियों-गलियों में खोज डाला। फिर गांव के बाहर। चांदनी की रात थी। वे दूर-दूर गांव के बाहर भी उसे खोजते
फिरे। सुबह होने के करीब थी। वह एक वृक्ष के पास बैठा हुआ मिला। रात के अंतिम तारे डूबने के करीब थे और उसकी आंखें
आकाश की तरफ लगी हुई थीं। वह जैसे पत्थर
हो गया हो,
रात भर
की सर्दी में जैसे जम गया हो!
मित्रों
ने जाकर उसे हिलाया।
वह जैसे इस पृथ्वी पर
नहीं था,
कहीं
और था,
किसी
दूसरे लोक में,
शायद
उन तारों के पास,
जिन्हें
वह रात भर देखता रहा था। उसने आंखें नीचे
कीं। वह हिला। उसने अपने मित्रों को पहचाना और उसने कहा, "कितना समय बीत गया होगा?' मित्रों ने कहा, "पूरी रात बीत गयी है। दूसरी सुबह होने के करीब है। तुम सुबह से निकले हो, कहां थे?'
सुकरात
ने कहा कि,
"मैं
यहीं आ गया। सुबह के उगते सूरज को देखा, दोपहर होती देखी, सांझ का सूरज डूबते
देखा। सूरज के साथ दिनभर यात्रा करता
रहा। फिर रात आ गयी, फिर चांद आ गया, फिर सितारे आ गये, फिर उनने मुझे भटका लिया, फिर मैं उनमें डूब गया और
मुझे पता भी नहीं कि कितना समय बीत गया है!'
उसके
मित्र पूछने लगे,
"क्या
था चांदत्तारों में ऐसा? क्या
था सूरज में ऐसा?
जो
चौबीस घंटे बीत गये और तुम्हें कुछ पता नहीं!'
सुकरात
ने कहा,
"आश्चर्य
तुम्हें होता है,
होना
मुझे चाहिए। क्या नहीं है चांदत्तारों में, क्या नहीं है सूरज में, जो आदमी को मंत्र-मुग्ध न कर
ले, उसे विस्मय से विमुग्ध न कर
दे, उसे अपने पास न बुला ले; अपने गीत में, अपने संगीत में न डुबा ले!
क्या नहीं है?
मुझे
पूछना चाहिए,
उलटा
तुम्हीं मुझसे पूछते हो कि क्या है चांदत्तारों में! जो रात बीत गयी और तुम्हें
पता नहीं! धन्य हैं वे लोग, जो
चांदत्तारों में,
वृक्षों
में, समुद्रों में, पहाड़ों में, मनुष्य की आंखों में कुछ खोज
लेते हैं,
जिन्हें
वहां कुछ दिखायी पड़ जाता है। शायद वे ही
लोग आंखों वाले हैं, बाकी
सारे लोग अंधे हैं। '
हम भी
अंधे हैं। हमें भी कुछ दिखायी नहीं पड़ता
है!
यह
हमारा अंधापन कैसे निर्मित हो गया है, उस संबंध में थोड़ी बात जान लेनी जरूरी है और
इस अंधेपन को हम कैसे तोड़ दें, वह भी
समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि कोई भी
व्यक्ति साधना के जगत में प्रवेश करने में असमर्थ होगा, अगर वह जीवन के प्रति एक
बुनियादी अंधेपन को लेकर चलता है।
हमें
फूल ही दिखायी नहीं पड़ते तो हमें परमात्मा कैसे दिखायी पड़ सकता है?
हमें
सागर का गर्जन भी सुनायी नहीं पड़ता तो हमें प्रभु की वाणी कैसे सुनायी पड़ सकती है?
हमें
चांदत्तारे ही दिखायी नहीं पड़ते तो हमें वह रोशनी कैसे मिल सकती है, जो जीवन का प्राण है?
हमें
कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता है! हम करीब-करीब सोये-सोये गुजर जाते हैं! आंख बंद
किये-किये गुजर जाते हैं! जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन की लहरें कहीं भी हमारे
प्राणों को आंदोलित नहीं करती है, कोई
संवेदना हमें नहीं पकड़ लेती है, कोई
हमें मंत्र-मुग्ध नहीं कर पाता है!
धर्म
का पहला संबंध जीवन के रहस्य के अनुभव से है--वह जो जीवन की मिस्ट्री है। और समग्र जीवन ही रहस्यपूर्ण है--एक छोटे-से
पत्थर से लेकर आकाश के सूरज तक, एक
छोटे बीज से लेकर आकाश को छूते वृक्षों तक--सभी कुछ, जो भी है, अत्यंत रहस्यपूर्ण है।
लेकिन
वह रहस्य हमें दिखायी नहीं पड़ता! क्योंकि रहस्य को देखने के लिए जैसी पात्रता चाहिए, शायद हमने अर्जित नहीं
की। जैसी "रिसेप्टीविटी' चाहिए, जैसी ग्राहकता चाहिए, हृदय के द्वार जैसे खुले
चाहिए--वे शायद हमारे हृदय के द्वार खुले नहीं, बंद हैं।
शायद हम किसी कारागृह के भीतर बैठे हैं, सब खिड़कियों और द्वारों को बंद करके, आंखों को बंद करके! और तब अगर
हमारा जीवन अंधकारपूर्ण और उदासी से भर गया हो, गंदी हवाओं ने और दुर्गंध ने हमें घेर लिया
हो, चिंताओं ने और तनावों ने
हमारे घर में निवास बना लिया हो तो आश्चर्य नहीं हो सकता है। यह स्वाभाविक है, यह होगा।
कैसे
हमने जीवन के प्रति यह जड़ता अंगीकार कर ली है! और फिर हम पूछते हैं ईश्वर है? और हम फिर पूछते हैं, आत्मा अमर है? और फिर हम सारे प्रश्न पूछते
हैं! लेकिन एक प्रश्न हम पूछना भूल जाते हैं--हमारे पास जीवन के रहस्य को देखने की
आंखें हैं या नहीं?
जीवन
के रहस्य को देखने की आंख मनुष्य रोज-रोज खोता चला गया है। जितने हम सभ्य होते गये हैं, उतनी हमने जीवन के रहस्य को
देखने की आंख खो दी है। जितने हम समझदार
होते गये हैं,
जितना
हमारा ज्ञान बढ़ता गया है, उतना
हमने जीवन का जो विस्मय है, जीवन
में जो अबूझ है,
जीवन
में जो पहेली की तरह है; जिसका
कोई सुलझाव नहीं,
उस
सबसे हमने अपने को हटा लिया है, उसकी
तरफ पीठ कर ली है।
जीवन
एक अबूझ पहेली है,
यह हम
भूल गये हैं--हमारे ज्ञान में, हमारी
जानकारी में,
हमारी
समझ में
हम ऐसा
समझने लगे हैं,
आदमी
ने यह निष्कर्ष ले लिया है कि करीब-करीब सब हमें ज्ञात है और जो ज्ञात नहीं है, वह भी ज्ञात हो जायेगा। जीवन में कुछ भी अज्ञेय, कुछ भी "अननोएबल' नहीं है; सब जाना जा सकता है। यह सत्य से बिलकुल ही विपरीत बात है।
जीवन
में सब कुछ अज्ञेय है। और जिसे हम जानना
समझते हैं,
वह भी
जानना नहीं है। जीवन में कुछ भी नहीं जाना
जा सकता है। एक छोटी पत्ती से लेकर जो कुछ
दिखायी पड़ता है,
वह सभी
बहुत, बहुत अज्ञात, बहुत अज्ञेय, बहुत अबूझ, बहुत रहस्यपूर्ण है। यह रहस्य कभी भी नहीं तोड़ा
जा
सकता है,
जो हम
थोड़ा-सा जान लेते हैं, वह
जानना परिचय है,
ज्ञान
नहीं; एक्वेंटैंस है। परिचय को हम ज्ञान समझ लेते है! थोड़े दिन कुछ हम
जान लेते हैं।
इस सरू
के वन में हम बैठे हैं, इस
सागर के तट पर। कल आप आये थे तो इन सरू के
वृक्षों में,
इस
सागर के तट पर थोड़ा-सा अनजाना मालूम पड़ा होगा।
आज आप परिचित हो गये हैं, कल आप
और परिचित हो जायेंगे, परसों
और! जाते-जाते यह सरू का वन आपको दिखायी नहीं पड़ेगा, यह सागर का गर्जन आपको सुनायी
नहीं पड़ेगा;
लगेगा
जानते हैं! जो यहां निकट रहते होंगे, उन्हें यहां कुछ भी नहीं दिखायी पड़ेगा।
काश्मीर
लोग यात्रा करने जाते हैं। जो वहां रहते
हैं, उन्हें वहां कुछ भी दिखायी
नहीं पड़ता! हिमालय की पहाड़ियों को--लोग दूर से पागल की तरह, यात्रा करते हैं। जो वहां रहते हैं, उन्हें कुछ भी दिखायी नहीं
पड़ता है! क्या वे जानते हैं? नहीं, वे परिचित हो गये हैं। निकट रहने से, रोज-रोज देखने से उन्हें यह
भ्रम पैदा हो गया है कि हम जानते हैं।
परिचय
ज्ञान का भ्रम पैदा कर देता है।
मनुष्य
परिचित होता चला जा रहा है जगत से और इसी को वह समझ रहा है कि हम जान रहे हैं! यह
जानने का भ्रम,
यह
नोइंग एटीटयूड कि हमें पता है, जीवन
के सारे रहस्य को खंडित कर रहा है। साधक
को इस जानने के भ्रम को तोड़ देना चाहिए और विस्मय को उपलब्ध कर लेना चाहिए।
क्या
आप इन वृक्षों के पास इस भांति बैठ सकते हैं, जैसे आप पहली बार ही एक अज्ञात लोक में उतर
आये हों,
जहां
कुछ भी परिचित नहीं है? क्या
आप सागर के गर्जन को ऐसा सुन सकते हैं, जैसा पहली बार, प्रथम बार ही आपने सुना और
जाना हो?
पृथ्वी
पर जो पहला आदमी उतरा होगा, उसने
पृथ्वी को जैसा देखा होगा, क्या
वैसा आप देख सकते हैं? पहला
आदमी चांद पर उतरेगा और जैसा चांद को देखेगा विस्मय-विमुग्ध होकर, अवाक होकर, मौन होकर--सब अपरिचित, सब अनजाना, क्या वैसा पृथ्वी पर क्षणभर
को खड़े हो सकते हैं? अगर
खड़े हो सकते हैं,
तो
साधना की पहली सीढ़ी पार कर ली गयी।
इन तीन
दिनों में मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि यहां इस भांति खड़े हों, जैसे आपकी नौका टकरा गयी हो
नारगोल के तट पर और एक अनजान जगह में आप उतर गये हों, जहां कुछ भी परिचित नहीं
है। सब अपरिचित है--रेत भी, वृक्ष भी, तट भी, आकाश भी। सब अपरिचित है।
और
सचाई यही है कि जहां हम जन्म लेते हैं, हम कुछ भी जानते हुए नहीं आते, हम बिलकुल अनजान पैदा होते
हैं, बिलकुल स्ट्रेंजर, बिलकुल अजनबी। जन्म एक अजनबी लोक में खड़ा कर देता है। और जब हम मरते हैं, तब भी हम बिना कुछ जाने बिदा
हो जाते हैं! आदमी क्या जानकर समाप्त होता है? मरते क्षण भी हमारी चेतना वहीं होती है, जहां जन्म के क्षण में
थी। हम कुछ भी नहीं जान पाते हैं और विदा
हो जाते हैं!
यह जो
बीच में जन्म और मृत्यु के बीच में हमें जानने का भ्रम पैदा हो जाता है, वह परिचय का भ्रम है।
बाप
सोचता है,
मैं
बेटे को जानता हूं; पत्नी
सोचती है मैं पति को! मित्र सोचता है, मैं मित्र को जानता हूं! कोई भी किसी को
नहीं जानता है।
इस
अनजानेपन को,
इस
स्ट्रेंजनेस को,
इस
अजनबीपन को पकड़ लेना है, पहचान
लेना है। इस पर ध्यान को ले जाना है, यह हमारे मेडिटेशन का हिस्सा
बन जाये,
यह
हमारे ध्यान और चिंतन और मनन का केंद्र बन जाये कि हम कुछ भी नहीं जानते हैं। क्या यह बन सकता है?
यह बन
सकता है,
अगर
थोड़ा हम साहस करें और अपने उस अहंकार को छोड़ सकें, जो जानने ने पैदा कर दिया
है। मनुष्य के भीतर गहरी-से-गहरी ईगो, गहरा-से-गहरा अहंकार जानने का
अहंकार है।
किसी
से भी पूछिये--ईश्वर है?
वह
कहेगा--हां,
ईश्वर
है। या कहेगा कि नहीं ईश्वर नहीं है। और दोनों हालतों में वह यह कहेगा कि मैं जानता
हूं! शायद ही कोई आदमी खोजे से मिल जाये जो चुप रह जाये और कहे कि मैं नहीं जानता
हूं।
लेकिन
चाहता हूं मैं कि आप वह आदमी बनें, जो कह सके निर्भयता से, निश्चय से--कि मैं नहीं जानता
हूं। पूछें अपने से--हम जानते हैं कुछ? गहराई में अपने से वह प्रश्न
उठायें,
जानता
हूं मैं कुछ?
क्या
जानता हूं?
और तो
जानना दूर है,
स्वयं
को भी नहीं जानता हूं, अपने
को भी नहीं जानता हूं। नहीं जानता हूं उसे, जो कि मैं हूं! फिर मैं और
क्या जान सकूंगा?
जो
मेरे निकटतम है,
जो
मेरे भीतर है,
वह भी
अपरिचित और अनजान है, तो जो
मेरे बाहर है और मुझसे दूर, वह
कैसे परिचित और जाना हुआ हो सकता है? आप अपने को जानते है--शायद न पूछा हो कभी
आपने अपने से?
हम कुछ
चीजें स्वीकार ही कर लेते हैं--कभी पूछते ही नहीं! हर आदमी यह बात स्वीकार ही कर
लेता है कि "मैं जानता हूं अपने को'! और इस भांति चलने और जीने लगता है, जैसे जानता हो! हमने कभी
प्रश्न ही नहीं पूछा, और
जिसने प्रश्न ही नहीं पूछा, उसकी
यात्रा कैसे आगे बढ़ सकती है?
पहला
प्रश्न जो प्रत्येक को अपने से पूछ लेना चाहिए, वह यह कि "क्या मैं अपने को जानता हूं?' मैं कौन हूं, मैं क्या हूं, मैं कहां से हूं, मैं कहां के लिए हूं?
लेकिन
किसी बात का कोई उत्तर नहीं है! न ज्ञात है कि मैं कौन हूं, न ज्ञात है कि मैं क्या हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां से
हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां के
लिए जा रहा हूं। इन चार बुनियादी प्रश्नों
का कोई उत्तर नहीं है, लेकिन
हम स्वीकार कर लिए हैं कि हम अपने को जानते हैं!
शॉपेनहार--एक
सुबह, कोई तीन बजे होंगे, एक छोटे-से बगीचे में गया हुआ
था। रात थी। अभी अंधेरा था। बगीचे का माली हैरान हुआ कि इतनी रात गये कौन आ
गया है। उसने अपनी लालटेन उठायी, अपना भाला उठाया और वह गया
बगीचे के भीतर । शॉपेनहार वहां टहलता है
वृक्षों के पास और कुछ अपने से ही बातें कर रहा है!
उस
माली को शक हुआ कि जरूर कोई पागल घुस आया है, अकेला अपने से बातें कर रहा है! उसने दूर से
ही खड़े होकर आवाज दी और पूछा कि "कौन हो, कहां से आये हो, किसलिए आये हो, क्या चाहते हो?'
शॉपेनहार
जोर से हंसने लगा और उसने कहा, "तुम ऐसे कठिन प्रश्न पूछते हो, जिनका उत्तर आज तक कोई आदमी नहीं दे
पाया। पूछते हो, कौन हो? जिंदगी भर हो गया मुझे
पूछते-पूछते,
अब तक
मुझे उत्तर नहीं मिला कि कौन हूं! पूछते हो कहां से आये हो? आज तक कोई आदमी नहीं बता सका
कि कहां से आया है! मैं भी असमर्थ हूं।
पूछते हो,
किसलिए
आये हो?
उसका
भी मुझे पता नहीं कि किसलिए आया हूं!'
निश्चित
ही उस माली ने समझा होगा कि पागल ही है यह आदमी, जिसे इतना भी पता नहीं। लेकिन माली पागल था या वह आदमी, जिसे पता नहीं था। कौन था पागल?
अगर
आपको पता है या आपको भ्रम है कि आपको पता है तो आप पागल हो सकते हैं। लेकिन अगर आपको पता नहीं है तो यह मनुष्य की
स्थिति है,
यह
हयुमन सिचुएशन है कि आदमी को पता नहीं है।
इसमें पागलपन का कोई सवाल नहीं है।
लेकिन
कहीं हम पागल न मालूम पड़ने लगें, इसलिए
हमने कुछ व्यवस्था कर ली है। कुछ अपने को
पहचानने और जानने का आयोजन कर लिया है।
हमने कुछ उपाय कर लिये हैं, जिससे हमें ऐसा लगे कि हम अपने को जानते
हैं। हमने अपने नाम रख लिए है, अपनी जाति बना ली है, अपना धर्म बना लिया है, अपना देश बना लिया है!
हमें
इंगित किया जा सके कि कौन है यह आदमी--तो हमारा नाम है, हमारी जाति है, हमारा धर्म है, हमारा देश है; हमारे मां-बाप हैं, उनके नाम हैं; हमारी वंश परंपराएं हैं! और
हमने कुछ इंतजाम कर लिया है, जिस
भांति यह पहचाना जा सके कि मैं कौन हूं।
और हमारी सारी व्यवस्था झूठी है, हमारी सारी व्यवस्था कल्पित और सपने जैसी
है। क्या है नाम किसी का? क्या है किसी की जाति? क्या है किसी का धर्म? कौन-सा है देश, किसका?
लेकिन
हमने जमीन पर भी झूठी रेखाएं खींच रखी हैं--भारत की और चीन की, और रूस की और अमरीका की! झूठी
रेखाएं,
जो
जमीन पर कहीं भी नहीं है, लेकिन
ताकि हम कह सकें कि मैं यहां से हूं!
और
हमने आदमी के आसपास भी झूठे नाम और लेबल चिपका रखे हैं। कोई राम है, कोई कृष्ण है, कोई कोई है! वे नाम भी बिलकुल
झूठे हैं। आदमी कोई नाम लेकर पैदा नहीं
होता है।
और
हमने जातियों के नाम भी चिपका रखे हैं! वे नाम भी बिलकुल झूठे हैं। आदमी किसी जाति में पैदा नहीं होता। सब जातियां आदमी के ऊपर थोपी जाती हैं।
और
हमने मां-बाप के नाम भी अपने साथ जोड़ रखे हैं! न उनका कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम
था।
लेकिन
हमने एक छोटा-सा कोना बना लिया है ज्ञान का, और ऐसा भ्रम पैदा कर लिया है कि हम अपने को
जानते हैं। इसी भ्रम में हम जीते हैं और
नष्ट हो जाते हैं।
साधक
को यह भ्रम तोड़ देना चाहिए, यह कोना
उजाड़ देना चाहिए। उसे जान लेना चाहिए
ठीक-ठीक कि मेरा कोई नाम नहीं है, मेरी
कोई जाति नहीं है। मेरा कोई देश नहीं है; मेरा परिचय नहीं, मैं बिलकुल अज्ञात हूं। जैसे ये हवाओं के झोंके अज्ञात हैं, जैसे ये वृक्ष अज्ञात हैं, जैसे ये आकाश के चांदत्तारे
अज्ञात हैं,
जैसे
यह सागर का पानी अनाम और अपरिचित और अज्ञात है, वैसे ही आदमियों के जीवन की लहरें भी अज्ञात
हैं, अनजानी हैं, अपरिचित हैं।
लेकिन
न केवल आदमी ने ऊपर का परिचय बना रखा है, आदमी ने भीतर का परिचय भी बना रखा है! किसी
से पूछें कि आपके भीतर कौन है? वह
कहेगा,
मेरे
भीतर आत्मा है! आत्मा अमर है! मेरे पिछले जन्म थे! कर्मों के फल हैं! आगे जन्म
होंगे! स्वर्ग है,
नर्क
है! वे लोग जो शुद्ध हो जाते हैं, वे
मोक्ष चले जाते हैं!
हमने
अज्ञात में,
अंधेरे
में न मालूम क्या-क्या लिख लिया है! यह ज्ञान भी आदमी का पकड़ा हुआ और कल्पित ज्ञान
है। यह ज्ञान भी हमें पता नहीं--कुछ भी
हमें पता नहीं है। लेकिन इन शब्दों को हम
दोहराये चले जाते हैं। इन शब्दों को हम
पकड़कर बैठ जाते हैं! इन शब्दों पर हम ध्यान करते हैं!
एक
संन्यासी कुछ दिन हुए मेरे पास आये। मैंने
उनसे पूछा कि क्या ध्यान करते हैं, क्या साधना करते हैं? कहने लगे, बैठकर एकांत में यही सोचता
हूं कि मैं सत-चित-आनंद स्वरूप परमात्मा हूं।
मैं शुद्ध-बुद्ध आत्मा हूं। मैं
अमृत जीवन हूं। मेरी कोई मृत्यु नहीं। मैं शरीर नहीं हूं। मैं मन नहीं हूं। मैं आत्मा हूं। यह हम ध्यान करते हैं, यह हम मेडिटेशन करते हैं!
मैंने
उनसे कहा,
ये
बातें आपको पता हैं? ये
बातें आपको ज्ञात हैं? यह
आपका अनुभव है,
यह
आपका ज्ञान है कि आप शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं? या कि सुने हुए शब्द और सीखे हुए शब्द हैं? फिर मैं उनको पूछा, अगर यह आपको ज्ञात ही है कि
आप शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं तो रोज-रोज इसे बैठकर दोहराने की, रिपीट करने की क्या जरूरत है? जो ज्ञात है, उसे कभी कोई नहीं दोहराता है।
जो
ज्ञात नहीं है,
उसे
दोहरा-दोहरा कर हम यह भ्रम पैदा करना चाहते हैं कि वह ज्ञात है!
अगर यह
मालूम है कि मैं परमात्मा हूं, अगर यह
पता है--"अहं ब्रह्मास्मि', कि मैं ब्रह्म हूं तो इसे रोज-रोज दोहराने की क्या जरूरत है? कोई कभी नहीं दोहराता, जिसे जानता है। जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे हम दोहराते हैं। क्योंकि बार-बार दोहरा लेने से यह भ्रम पैदा
होना शुरू हो जाता है, हम
परिचित हो जाते हैं शब्दों से। निरंतर
दोहराये जाने से परिचय पैदा हो जाता है।
हम भूल जाते हैं कि पहली बार जब हमने कहा था तो हमें पता नहीं था। पचास बार कहने के बाद ऐसा लगता है कि हमें
मालूम है। लेकिन पहली बात ही जब हमें
ज्ञात नहीं थी तो पचास बार दोहरा लेने से वह ज्ञात नहीं हो सकती है।
रिपीटीशन
कहीं भी नहीं ले जाता है सिवाय भ्रम के।
अगर
मुझे पहली बार ही पता नहीं था तो मैं हजार बार दोहराऊं, इससे क्या होगा? झूठ हजार बार दोहरा लेने से
सच नहीं हो जाता है। और अज्ञान हजार बार
दोहरा लेने से ज्ञान नहीं बन जाता है।
लेकिन
हम दोहराते हैं। हम दूसरों को भी जब धोखा
देना चाहते हैं तो हम दोहराने का उपाय करते हैं! अपने को भी धोखा देना चाहते हैं
तो दोहराने का उपाय करते हैं!
एडोल्फ
हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ऐसा कोई भी असत्य नहीं है, जिसे बार-बार दोहरा देने से
सत्य न बनाया जा सके। ठीक ही लिखा है।
कोई भी
असत्य बार-बार दोहरा देने से सत्य प्रतीत होने लगता है।
जितने
सत्य हम जानते हैं, वे इसी
तरह दोहराये गये असत्य हैं, जिनको
दोहरा-दोहरा कर हमने सत्य मान लिया है। हम
कुछ भी मान सकते हैं। उसे बार-बार दोहरा
लेने से,
निरंतर
दोहरा लेने से भ्रम पैदा हो जाता है।
हमने
शरीर का भी परिचय बना लिया है, हमने
भीतर का भी परिचय बना लिया है! न हमें शरीर का कोई पता है, न भीतर का हमें कोई पता
है। अगर सत्य की दिशा में कोई भी कदम
उठाना है तो प्राथमिक रूप से हमारा यह अज्ञान स्पष्ट हो जाना चाहिए। इस अज्ञान के स्पष्ट बोध से तो यात्रा हो सकती
है, क्योंकि यह अज्ञान सत्य है।
यह
हमारा न जानना एक तथ्य है, एक
फेक्चुअलटि है। यह मैं आपको सिखा नहीं रहा
हूं कि आप नहीं जानते। न जानना हमारी
वस्तुस्थिति है। लेकिन दुनिया में निरंतर
यह सिखाया जा रहा है कि आप अपने को इस भांति जानें! ये बातें दोहरायें और इनको
दोहराते रहें,
दोहराते
रहें! और दोहराने से आपको ज्ञान पैदा हो जायेगा!
हजारों
वर्षों से आदमी को कुछ बातें दोहराने के लिए सिखाया जा रहा है। बैठकर दोहराओ कि मैं ईश्वर हूं, मैं परमात्मा हूं, मैं आत्मा हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। एक आदमी जीवन भर दोहराता रहे तो भ्रम पैदा हो
जाता है कि "मैं यह हूं'। लेकिन जो बात पहले चरण में असत्य थी, वह अंतिम चरण में सत्य नहीं
हो सकती।
मैं
आपसे क्या कहना चाहता हूं?
भूलकर
भी इस तरह की बातें आप मत दोहराना। इनसे
ज्ञान का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान
पैदा नहीं हो सकता। पहले मनुष्य की
वास्तविक स्थिति क्या है? चित्त
की वास्तविक दशा क्या है? स्टेट
आफ माइंड क्या है हमारा?
सीधी
और साफ बात इतनी है कि हम नहीं जानते, हमें कुछ भी पता नहीं है। लेकिन आदमी अज्ञान को स्वीकार नहीं करना
चाहता। आदमी का गहरे से गहरा जो अस्वीकार
है, वह यह कि वह अज्ञान को
अस्वीकार करता है। हम लड़ने को तैयार हो
जाते हैं,
कोई
अगर हमसे कह दे कि आप नहीं जानते हैं। कोई
किसी बात में कह दे कि आप नहीं जानते, हम लड़ने को तैयार हो जाते हैं! सबसे बड़ी चोट
हमारे अहंकार को तब लगती है, जब कोई
यह कह देता है कि आप नहीं जानते हैं या कोई कह देता है कि आप गलत जानते हैं।
क्यों
लगती है यह चोट?
यह चोट
भी शायद इसीलिए लगती है कि वह हमारी सचाई उघाड़ देता है, जो हम छिपाये हुए हैं भीतर, जिसे हमने बहुत से पद ढांक कर
भीतर छिपा रखा है। कोई जरा-सा पर्दा उघाड़
देता है तो हम मुश्किल में पड़ जाते हैं।
हम लड़ने को उतारू हो जाते हैं, हम विवाद करने को तैयार हो जाते हैं।
दुनिया
भर के धर्म आज तक कौन-सी लड़ाई करते रहे हैं?
एक ही
लड़ाई। हर धर्म यह दावा करता रहा है कि हम
जानते हैं और अगर किसी ने कह दिया कि नहीं, तुम नहीं जानते हो और गलत जानते हो तो
तलवारें चलती हैं। जैसे कि तलवार कोई
प्रमाण हैं जानने का! जैसे कि किसी की हत्या कर देना कोई तर्क है, कोई आर्ग्यूमेंट है! जैसे कि
मंदिरों और मस्जिदों में आग लगा देना, कोई साक्षी है, कोई विटनेस है, कोई गवाही है!
आदमी
का अज्ञान गहरा है, अज्ञान
बुनियादी है और उस अज्ञान के ऊपर ज्ञान की सारी बातें उसने चिपका रखी हैं। जरा-सा हवा का झोंका और लेबल उड़ने लगता
है। तो वह क्रोध से भर जाता है। जरा-सा कोई इनकार कर देता है और गुस्सा भर आता
है।
लेकिन
मैं आपसे कहना चाहता हूं, अगर
आपको जीवन के सत्य की तरफ कोई भी कदम उठाना है तो अपने अज्ञान की बुनियादी स्थिति
का पहला स्वीकार--पहली स्वीकृति कि हम नहीं जानते हैं। हम कुछ भी नहीं जानते हैं।
क्यों
इस पर मेरा इतना आग्रह है?
क्योंकि
तथ्य से सत्य तक जाया जा सकता है।
सिद्धांतों से सत्य तक कोई कभी नहीं जा सकता है। जो वास्तविक स्थिति है, जो एक्चुअलटि है, जो मनुष्य की वास्तविकता है, उससे तो हम कहीं आगे बढ़ सकते
हैं।
और भी
अगर यह स्मरण आ जाये कि हमारा अज्ञान है, हम नहीं जानते हैं । तो फिर न आप हिंदू रह जाते हैं, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई। वे सब ज्ञानियों के दंभ हैं। अज्ञानी का कौन-सा धर्म हो सकता है, कौन-सी फिलासफी हो सकती
है। अज्ञानी का कौन-सा शास्त्र हो सकता है?
ज्ञानियों
के शास्त्र हो सकते हैं, सिद्धांत
हो सकते हैं,
संप्रदाय
हो सकते हैं।
अज्ञानी
का तो कुछ भी संप्रदाय नहीं हो सकता, कोई शास्त्र नहीं हो सकता। उसकी कोई गीता नहीं, उसका कोई कुरान नहीं, उसके कोई कृष्ण नहीं, उसके कोई महावीर नहीं। उसका तो एक ही कहना है कि मैं नहीं जानता
हूं। इसलिए वह दावेदार नहीं, उसका दावा नहीं, उसका कोई विरोध नहीं, उसका कोई विवाद नहीं। ऐसा निर्विवाद में खड़ा हुआ व्यक्ति और स्मरण
रहे, जब तक ज्ञान का दावा है, तब तक विवाद से मुक्त कोई भी
नहीं हो सकता है। कोई कितना ही कहे कि मैं
विवाद नहीं करता,
अगर
उसको यह ख्याल है कि मैं जानता हूं, वह विवाद में है।
हर
ज्ञानी विवाद में है। विवाद में रहेगा, विवाद में मरेगा।
निर्विवाद
वही हो सकता है,
जिसे
ज्ञान का भ्रम न हो। जैसे ही यह भ्रम टूट
जाता है कि मैं जानता हूं; एक
ह्युमिलिटी,
एक
विनम्रता पैदा होनी शुरू होती है, जो
अभूतपूर्व है,
जिसका
आपको कोई परिचय नहीं। आप बिलकुल एक छोटे
बच्चे की भांति हो जाते हैं।
बूढ़े
और बच्चे में क्या फर्क है? एक ही
फर्क है,
बच्चे
नहीं जानते हैं;
बूढ़े
जानते हैं। लेकिन बूढ़ों का जानना झूठ है; और बच्चों का न-जानना सच है।
साधक
फिर से बचपन को उपलब्ध हो जाता है। पोंछ
देता है स्मृति को, फिर
वहां खड़ा हो जाता है, जहां
बच्चे खड़े हैं। छोटे-छोटे बच्चों को
साधारण से चमकदार पत्थर ऐसे विस्मय से भर देते हैं, एक छोटे से पक्षी का गीत, किन्हीं ऐसे लोकों में ले
जाता है! एक छोटी-सी हिलती हुई पत्ती उन्हें किसी दूसरे जीवन में, किसी दूसरी अवस्था में
प्रविष्ट करा देती है! बच्चों के लिए जगत बहुत रंग से भरा हुआ, बहुत गीत से, बहुत ध्वनि से भरा हुआ मालूम
पड़ता है। यह धूप बहुत स्वर्णिम मालूम पड़ती
है। यह चांदनी बहुत चांदी जैसी मालूम पड़ती
है। यह सब कुछ, जो हमें अति साधारण दिखायी
पड़ता है,
अति
असाधारण प्रतीत होता है। क्यों?
भीतर
विस्मय की आंख है,
जानने
वाले का दंभ नहीं। जानने का दंभ ही मनुष्य
के आसपास दीवाल खड़ी कर देता है, खोल
खड़ी कर देता है,
लोहे
की मजबूत दीवाल खड़ी कर देता है। आदमी उसके
भीतर बंद हो जाता है। फिर जगत से उसके
संबंध टूट जाते हैं। जीवन से उसका लेन-देन
बंद हो जाता है। संवाद बंद हो जाता
है। साधक को यह संवाद वापस उपलब्ध कर लेना
है। जीवन से कम्युनिकेशन चाहिए। और जीवन से संवाद तभी हो सकता है, जब यह जानने की खोल टूट जाये।
मैं तो
मित्रों से कहता हूं कि मैं अज्ञान सिखाता हूं।
ज्ञान बहुत सिखाया जा चुका है।
ज्ञान मनुष्य को कहीं भी नहीं ले गया है, सिवाय उपद्रवों के। ज्ञान की शिक्षा मनुष्य को बहुत दी जा चुकी
है। और मनुष्य उस शिक्षा से पतित हुआ है
और कहीं भी नहीं पहुंचा है। परमात्मा और
मनुष्य के बीच बाधाएं खड़ी हुई हैं।
परमात्मा और मनुष्य के बीच सीढ़ियां नहीं बन सका ज्ञान।
ज्ञानी
शायद ही कभी जीवन को जानने में समर्थ हो पाया है।
नहीं जान सकते हैं। क्योंकि जानने
का ख्याल इतने अहंकार से भर देता है, सारी विनम्रता नष्ट हो जाती है। हृदय कठोर और सख्त हो जाता है।
ज्ञानियों
से ज्यादा कठोर आदमी खोजने कठिन हैं।
ज्ञानियों
से ज्यादा कठोर आदमी मिल ही नहीं सकते।
ज्ञानियों ने इतनी हत्याएं कीं और इतनी हत्याएं करवायीं! ज्ञानी अति कठोर
है। ज्ञान कठोर करता है।
एक
घटना मुझे बहुत प्रीतिकर है। एक बहुत बड़ा
मेला लगा हुआ है। और उस मेले के पास ही एक
कुएं में एक आदमी गिर पड़ा है और वह चिल्ला रहा है--कि मुझे निकाल लो, मुझे बाहर निकाल लो। मैं डूब रहा हूं, मैं डूबा जा रहा हूं।
वह
किसी तरह ईंटों को पकड़े हुए है, किसी
तरह संभले हुए है। कुंआ गहरा है, और वह आदमी तैरना नहीं जानता
है। लेकिन मेले में बहुत शोरगुल है, किसको सुनायी पड़े। लेकिन एक बौद्ध भिक्षु उस कुएं के पास से निकला
है, पानी पीने को झुका है। नीचे से आवाज आ रही है। उसके झुककर नीचे देखा। वह आदमी चिल्लाने लगा, कि भिक्षुजी मुझे बाहर निकाल
लें। मैं मरा जा रहा हूं। कोई उपाय करें। अब मेरे हाथ भी छूटे जा रहे हैं।
उस
भिक्षु ने कहा,
क्यों
व्यर्थ परेशान हो रहे हो निकलने के लिए।
जीवन एक दुख है। भगवान ने कहा है, जीवन दुख है। बुद्ध ने कहा है, जीवन दुख है। जीवन तो एक पीड़ा है। निकलकर भी क्या करोगे? सब तरफ दुख ही दुख है। फिर भगवान ने यह भी कहा है कि जीवन में जो भी
होता है,
वह
पिछले जन्मों के कर्म-फल के कारण होता है।
तुमने किसी को किसी जन्म में गिराया होगा कुएं में। इसलिए तुम भी गिरे हो। अपना फल भोगना ही पड़ता है। फल को भोग लो तो कर्म के जाल से मुक्त हो
जाओगे। अब व्यर्थ निकलने की कोशिश मत
करो। वह भिक्षु तो पानी पीकर आगे बढ़ गया!
उस
भिक्षु ने गलत बातें नहीं कहीं। जो
शास्त्रों में लिखा है, वही
कहा। वह जानता था। वह सामने मरता हुआ आदमी उसे दिखायी नहीं पड़ा, क्योंकि बीच में उसके जाने
हुए शास्त्र आ गये! वह आदमी डूब रहा है, वह उसे दिखायी नहीं पड़ रहा है। उसे कर्म का सिद्धांत दिखायी पड़ रहा है! उसे
जीवन की असारता दिखायी पड़ रही है! वह उस आदमी को उपदेश देकर आगे बढ़ गया! उपदेशक से
ज्यादा कठोर कोई भी नहीं होता।
वह आगे
जा भी नहीं पाया है कि पीछे से एक कनफ्यूशियन मांक, एक कनफ्यूशियस को मानने वाला
संन्यासी आ गया। उसने भी आवाज सुनी। उसने भी झांककर देखा है।
उसने
कहा,
"मेरे
मित्र,
कनफ्यूशियस
ने अपनी किताब में लिखा हुआ है कि हर कुएं के ऊपर घाट होना चाहिए, पाट होना चाहिए; दीवाल होनी चाहिए, ताकि कोई गिर न सके। इस कुएं पर दीवाल नहीं है, इसलिए तुम गिर गये। हम तो कितने दिन से समझाते फिरते हैं गांव-गांव
कि जो कनफ्यूशियस ने कहा है, वही
होना चाहिए। तुम घबराओ मत, मैं जाकर आंदोलन करूंगा। मैं लोगों को समझाऊंगा। हम राजा के पास जायेंगे। हम कहेंगे कि
कनफ्यूशियस ने कहा है कि हर कुएं पर दीवाल होनी चाहिए, ताकि कोई गिर न सके। तुम्हारे राज्य में दीवालें नहीं हैं, लोग गिर रहे हैं। '
उसने
कहा कि "वह सब ठीक है। लेकिन तब तक
मैं मर जाऊंगा। पहले मुझे निकाल लो। '
उस
आदमी ने कहा,
"तुम्हारा
सवाल नहीं है। यह तो जनता-जनार्दन का सवाल
है। एक आदमी के मरने-जीने से कोई फर्क
नहीं पड़ता। सबके लिए सवाल है। तुम अपने को धन्य समझो कि तुमने आंदोलन की
शुरुआत करवा दी! तुम शहीद हो!'
दुनिया
के नेता लोगों को ऐसे ही मूर्ख बनाते हैं कि तुम शहीद हो, तुम मर जाओ! इससे बड़ा आंदोलन
आयेगा--समाजवाद आयेगा, साम्यवाद
आयेगा! दुनिया में लोकतंत्र आयेगा। तुम
मरो।
एक-एक
आदमी की कोई कीमत नहीं है। कीमत तो आदमियत
की है और आदमियत कहीं भी नहीं है सिवाय शब्दों के! जहां भी मिलता है, आदमी मिलता है। आदमियत कहीं नहीं मिलती, ह्युमिनिटि जैसी चीज कहीं भी
नहीं है सिवाय शब्द के। शास्त्रों में
लिखी है मनुष्यता। खोजने से हमेशा मनुष्य
मिलता है। लेकिन वे शास्त्रों को मानने
वाले कहते हैं कि मनुष्यता बचनी चाहिए! मनुष्य के बलिदान की कोई फिक्र नहीं! एक-एक
मनुष्य का बलिदान हो जाये, लेकिन
मनुष्यता बचनी चाहिए!
वह
आदमी डूबता रहा,
वह
आदमी चिल्लाता रहा और वह कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु जाकर मंच पर खड़ा हो
गया। उसने मेले में हजारों लोग इकट्ठे कर
लिए और उसने कहा कि देखो, जब तक
कुओं पर पाट नहीं बनता, तब तक
मनुष्य-जाति को बहुत दुख झेलने पड़ेंगे। हर
कुएं पर पाट होना चाहिए। अच्छे राज्य का
यह लक्षण है। कनफ्यूशियस ने किताब में
लिखा हुआ है। वह अपनी किताब खोलकर लोगों
को दिखा रहा है!
वह
आदमी चिल्ला ही रहा है। लेकिन उस मेले में
कौन सुने?
एक
ईसाई पादरी वहां से गुजरा है। नीचे से
आवाज उसने सुनी है, उसने
जल्दी से अपने कपड़े उतारे! अपनी झोले में से रस्सी निकाली! वह अपने झोले में रस्सी
रखे हुए था! उसने रस्सी नीचे फेंकी, वह कूदा कुएं में, उस आदमी को निकालकर बाहर
लाया।
उस
आदमी ने कहा,
"तुम ही
एक आदमी मुझे दिखायी पड़े। एक बौद्ध भिक्षु
निकल गया उपदेश देता हुआ, एक
कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु निकल गया! "आंदोलन चलाने चला गया है! वह
देखो मंच पर खड़ा हुआ, आंदोलन
चला रहा है! तुम्हारी बड़ी कृपा है, तुमने बहुत अच्छा किया। '
वह
ईसाई मिशनरी हंसने लगा। उसने कहा, "कृपा मेरी तुम पर नहीं, तुम्हारी मुझ पर है। तुम कुएं में न गिरते तो मैं पुण्य से वंचित
रहता। जीसस क्राइस्ट ने कहा है पता नहीं? सर्विस--सेवा ही परमात्मा तक
पहुंचने का मार्ग है, मैं
परमात्मा को खोज रहा हूं। मैं इसी तलाश
में रहता हूं कि कहीं कोई कुएं में गिर पड़े तो मैं कूद जाऊं। कहीं कोई बीमार हो जाये तो मैं सेवा करूं, कहीं किसी की आंखें फूट जायें
तो मैं दवा ले आऊं, कहीं
कोई कोढ़ी हो जायें तो मैं इलाज करूं। मैं
तो इसी कोशिश में घूमता-फिरता हूं, इसलिए रस्सी हमेशा अपने पास रखता हूं कि
कहीं कोई कुएं में गिर जाये! तुमने मुझ पर कृपा की है, क्योंकि बिना सेवा के मोक्ष
पाने का कोई उपाय नहीं है। हमेशा ऐसी ही
कृपा बनाये रखना,
ताकि
हम मोक्ष जा सकें। हमारी किताब में लिखा
हुआ है। '
उस
आदमी ने सोचा होगा कि शायद इसने मुझ पर दया की है तो वह गलती में था। इस आदमी से किसी को भी मतलब नहीं है! यह आदमी
किसी को दिखायी नहीं पड़ता! सबकी अपनी किताबें हैं, अपने सिद्धांत हैं। सबका अपना ज्ञान है।
मनुष्य
और मनुष्य के बीच ज्ञान की दीवालें हैं! मनुष्य और वृक्षों के बीच ज्ञान की
दीवालें हैं! मनुष्य और समुद्रों के बीच ज्ञान की दीवालें हैं! मनुष्य और परमात्मा
के बीच ज्ञान की दीवालें हैं!
साधक
को ज्ञान की दीवाल बड़ी बेरहमी से तोड़ देनी चाहिए, गिरा देनी चाहिए। एक-एक इट गिरा देनी चाहिए जानने की और ऐसे खड़े
हो जाना चाहिए,
जैसे
मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। तो तो जीवन से
संबंध हो सकता है,
अन्यथा
नहीं। तो तो हम जुड़ सकते हैं, तो तो इसी क्षण संवाद हो सकता
है। इसी क्षण संबंध हो सकता है--इसी
क्षण। कौन रोकता है फिर, फिर कौन बाधा देने को है?
कबीर
का लड़का था--कमाल। एक सुबह कबीर ने कहा कि
कमाल,
"जा
जंगल से थोड़ी घास काट ला। '
कमाल
जंगल गया। सुबह गया था, दोपहर हो आयी। कबीर रास्ता देख रहा है, रास्ता देख रहा है। फिर सांझ होने लगी। फिर उसने कहा कि कमाल क्या करने लगा है! घास
काटने भेजा था,
जरूरत
थी, गाय को खिलानी थी।
वह
कहां है?
फिर
कबीर खोजते हुए जंगल में गये। वहां कमाल
गले-गले घास के बीच में खड़ा है! हवाओं के झोंके घास को हिला रहे हैं। कमाल भी उसके साथ हिल रहा है! कबीर ने जाकर उसे
पकड़ा और कहा,
"पागल, यह क्या कर रहा है!'
उसने
आंखें खोली। उसकी आंखें बंद थी। उसने आंख खोली, उसने कहा कि मैं काटने में
असमर्थ हो गया। मैं जब आया यहां, इतने आनंद में घास झूमती
थी। सूरज की ऐसी स्वर्णिम वर्षा हो रही थी, हवाएं इतनी ताजी थीं और घास
इतने आनंद में झूमती थी कि मैं भी झूमने लगा।
मेरा भी संबंध हो गया घास से। तुम
आये और तुमने मुझे हिलाया तो मुझे पता चला कि मैं कमाल हूं। मैं तो सोच रहा था कि मैं भी घास का एक हिस्सा
हूं, मैं भी घास हूं! फिर कौन
किसको काटता--मैं तो घास हो गया! कबीर की समझ में शायद आया या नहीं आया, लेकिन कमाल ने कहा, मैं तो घास हो गया!
जब कोई
व्यक्ति सागर के पास ऐसे बैठ जाये कि उसका कोई ज्ञान नहीं है तो वह थोड़ी देर में
पायेगा कि वह सागर हो गया है। संवाद शुरू
हो जायेगा। वह वृक्ष के पास बैठ जाये, उसका कोई ज्ञान न हो, कोई दंभ न हो, कोई अहंकार न हो, कोई ईगो न हो, वह थोड़ी देर में पायेगा कि वह
वृक्ष हो गया है। वह फूल के पास बैठ जाये, वह थोड़ी देर में पायेगा कि वह
फूल हो गया है। एक संबंध है, जो ज्ञान तोड़ता है, जो ज्ञान के कारण नहीं बन
पाता। वह संबंध बन जाये तो जीवन चारों तरफ
से वह खबर भेजने लगता है, जिसे
हम प्रभु की खबर कहें।
पक्षियों
के गीत से वह ध्वनि आने लगती है, जो
वेदों से नहीं आती। वृक्षों की कंपती
टहनियों से वह आवाज आने लगती है, जो
कुरान में नहीं है, जो
महावीर नहीं कह सकते, जो
बुद्ध नहीं कह सकते। जो कोई वाणी नहीं कह
सकती। वह मौन में प्रकट होनी शुरू हो जाती
है।
लेकिन
उसके लिए पात्रता चाहिए। अज्ञानी का सरल, विनम्र हृदय चाहिए। ज्ञानी का दंभ और कठोर मजबूत मन नहीं।
इसलिए
पहली सीढ़ी पर आपसे यह कहना चाहता हूं, अज्ञानी हो जायें। अज्ञानी हैं, इसे जान लें, इसे पहचान लें।
और यह
बड़े रहस्य की बात है कि जो अपने अज्ञान को पहचानता है, उसने ज्ञान की तरफ पहला कदम
उठा लिया। वे लोग जो जान लेते हैं कि नहीं
जानते हैं,
जानने
की तरफ उनकी गति शुरू हो गयी। वे किसी दिन
जान भी सकेंगे,
किसी
दिन जानना भी हो जायेगा। लेकिन विनम्रता
चाहिए जानने के लिए और विनम्रता अज्ञान के अतिरिक्त कहीं भी नहीं है, कहीं भी नहीं हो सकती।
साधक
के लिए पहला सूत्र है अज्ञान का बोध।
अज्ञान का बोध! इस बोध के लिए न तो शास्त्रों को पढ़ने की जरूरत है, क्योंकि जो शास्त्रों में पढ़
लेते हैं,
उन्हें
यह बोध पाने में सिवाय कठिनाई के और कुछ भी नहीं होता। न इस बोध को प्राप्त करने के लिए किन्हीं
गुरुओं के पास जाने की कोई जरूरत है, क्योंकि गुरुओं के पास ज्ञान मिल सकता
है। अज्ञान का बोध कैसे मिलेगा? न इस अज्ञान के बोध के लिए
सत्संगों की जरूरत है, क्योंकि
वहां सब शब्द और सिद्धांत मिल सकते हैं।
यह बोध
कैसे मिलेगा?
इस बोध
के लिए तो एकांत में, अकेले
में, अपनी वस्तुस्थिति समझने की
जरूरत है। "क्या मैं जानता हूं?' यह अपने से बार-बार पूछ लेने
की जरूरत है--क्या मैं जानता हूं? भीतर
से उत्तर आयेगा कि नहीं, नहीं
जानते हैं। हो सकता है, जाने हुए सिद्धांत बीच में
खड़े हो जायें और कहें कि हां, जानते
हैं। तो थोड़ा उन सिद्धांतों को परख
लेना--ये मैंने सुन कर सीखे हैं, पढ़ कर
सीखे हैं या मैं जानता हूं? ये
मैंने शास्त्र से सीखे हैं। ये शब्द हैं, सिद्धांत हैं या मेरी
अनुभूतियां हैं?
इतना
उनसे पूछ लेना तो वे तत्क्षण गिर जायेंगे, खड़े नहीं रह सकेंगे।
ज्ञान
एकदम बेबुनियाद है।
एक जरा
से धक्के की जरूरत है कि जैसे ताश के पत्तों का महल गिर जाता है, ऐसे ही गिर जायेगा।
ज्ञान
बिलकुल कागज की नाव है। छोड़ो इसे पानी में
और डूब जायेगी।
ज्ञान
हमारा है ही नहीं,
सिर्फ
हम बनाये हुए बैठे हैं और माने हुए बैठे हैं कि है। जब तक हम माने हुए बैठे हैं, तब तक वह है। जिस दिन हम आंख खोलकर पहचानेंगे, उसी दिन वह नहीं हो जाता
है। और जिस दिन ज्ञान "नहीं' हो जाता है, उस दिन फिर जीवन में प्रवेश
का द्वार खुलता है।
तो आज
की सुबह की चर्चा में एक ही बात आपसे कहना चाहता हूं, अज्ञान को उपलब्ध कर लें।
अज्ञान
का भाव बड़ी धन्यता है, बड़ी
कृतार्थता है।
छोड़
दें कचरे को जो जान लिया है। अज्ञान की
अपनी गहराई है,
जो
किसी ज्ञान में नहीं। क्योंकि ज्ञान कितना
भी होगा,
सीमित
होगा। अज्ञान असीम हो सकता है, अज्ञान असीम है। ज्ञान कितना ही होगा, और आगे बढ़ाया जा सकता है।
अज्ञान
अनंत है। उसमें और कुछ नहीं जोड़ा जा
सकता। आप जानते हैं तो कुछ और जान सकते
हैं, कुछ और जान सकते हैं, कुछ और जान सकते हैं। आप नहीं जानते हैं तो नहीं जानते हैं। उसमें कुछ जोड़ने-घटाने का उपाय नहीं। ऐसा जो अज्ञान का बोध है, उसे अगस्टीन ने एक शब्द दिया
था। उसने कहा था, "डिवाइन इग्नोरेंस'-- दिव्य अज्ञान। सच में ही अज्ञान की बड़ी दिव्यता है, क्योंकि अज्ञान में अहंकार के
खड़े होने का कोई उपाय नहीं है और जहां अहंकार नहीं है, वहीं दिव्यता शुरू हो जाती
है। और जहां अहंकार के खड़े होने का उपाय है, वहीं दिव्यता खंडित हो जाती है।
यह तो
सुबह की थोड़ी-सी बात मैंने आपसे कही। इसे
सोचें,
परखें, पहचानें और अगर दिखायी पड़ता
तो गिरा दें;
ज्ञान
के मकान को गिरा दें, ताकि
अज्ञान का मंदिर खड़ा हो सके।
ज्ञान
के सब मकान हैं,
अज्ञान
का अपना मंदिर है।
इस बात
के बाद सुबह के ध्यान के लिए हम बैठेंगे।
तो मैं सुबह के ध्यान के संबंध में दोत्तीन बातें आपको कह दूं, फिर हम ध्यान के प्रयोग के
लिए बैठेंगे।
ध्यान
तो बड़ी सरल-सी बात है। जो भी महत्वपूर्ण
है, वह सरल ही हो सकता है। कठिनाई हमेशा असत्य के साथ होती है, सत्य के साथ कोई कठिनाई नहीं।
ध्यान
बड़ी सरल-सी बात है, एकदम
सरल-सी बात है। कुछ भी करना नहीं है, थोड़ी देर को न-करने की अवस्था
में अपने को छोड़ देना है। न-करने की अवस्था
में,
"स्टेट
आफ नाट डूइंग'। कुछ भी नहीं करना है, थोड़ी देर को छोड़ देना
है। यह तो इतना अच्छा अवसर है यहां। यह इतनी सुंदर जगह है कि न-करने में छोड़ना एकदम
आसान है।
न-करने
के क्या सूत्र होंगे?
न-करने
का पहला सूत्र यह है कि मन में करने का कोई भाव न हो। हम ध्यान करने बैठते हैं तो एक भाव होता है कि
मैं ध्यान कर रहा हूं, पूजा
कर रहा हूं,
प्रार्थना
कर रहा हूं,
मैं
कुछ कर रहा हूं। करने का भाव तनाव पैदा
करता है,
टैंशन
पैदा करता है। जहां करने का भाव आया, तनाव आया। करने के भाव के पीछे अशांति आयेगी ही। न-करने के भाव के पीछे शांति आ सकती है, विश्राम आ सकता है।
तो
पहली बात,
अभी जब
हम ध्यान के लिए बैठेंगे, हमारी
सारी भाषा करने की भाषा है। ध्यान करने
बैठेंगे,
ऐसा
कहेंगे तो गलत है कहना, क्योंकि
ध्यान में करने जैसी कोई संभावना नहीं है।
लेकिन हमारी सारी भाषा, मनुष्य
की सारी भाषा करने की भाषा है, न-करने
की हमारे पास कोई भाषा नहीं है।
जापान
में कोई डेढ़ सौ वर्ष पहले एक बहुत बड़ी मॉनेस्ट्री थी, एक बड़ा आश्रम था। वहां कोई पांच सौ भिक्षु साधना करते थे। सम्राट उत्सुक हो गया उस आश्रम को देखने और
गया। दूर-दूर जंगल में फैला हुआ वह आश्रम
था, दूर-दूर फैली हुई कुटिया
थीं। एक-एक कुटी को दिखाने लगा भिक्षु, जो प्रधान था और बताने लगा, इस कुटी में हमारे भिक्षु
भोजन बनाते हैं,
इस
कुटी में हमारे भिक्षु अध्ययन करते हैं, इस कुटी में गीत गाते हैं; यहां यह करते हैं, वहां वह करते हैं; वहां स्नान करते हैं।
बीच
में बड़ा भवन है आश्रम का, वह
भिक्षु उस भवन के बाबत कुछ भी नहीं कहता है! राजा बार-बार पूछने लगा, कि ठीक है, ठीक है, लेकिन इस बड़े भवन में क्या
करते हैं?
यह बात
सुनते ही वह भिक्षु चुप हो जाता, जैसे
बहरा हो गया हो,
जैसे
उसे सुनायी नहीं पड़ता हो! फिर दूसरी कुटिया के बाबत बताने लगता है। फिर पूरा आश्रम घूम लिया गया। उस बड़े भवन के आसपास चक्कर लग गया, लेकिन उस बड़े भवन के संबंध
में एक शब्द नहीं कहा! फिर वे द्वार पर आ गये और राजा विदा होने लगा और राजा ने
कहा, मैं समझता हूं, या तो मैं पागल हूं या
तुम। जो भवन मैं देखने आया था उसके संबंध
में तुमने एक शब्द भी नहीं कहा! मैंने बार-बार पूछा, तुम बहरे हो जाते हो! इस बड़े
भवन में क्या करते हो?
वह
भिक्षु कहने लगा,
बड़ी
मुश्किल में डाल देते हैं आप। आप बार-बार
पूछते हैं कि इस बड़े भवन में क्या करते हो।
तो मैं समझ गया कि आप करने की भाषा समझ सकते हैं; इसलिए मैंने बताया कि यहां हम
स्नान करते हैं,
यहां
हम भोजन बनाते हैं, यहां
हम भोजन करते हैं,
यहां
हम किताब पढ़ते हैं।
तो
मैंने करने की भाषा में बताया, मैंने
एक्शन की भाषा में बताया। अब रह गया बीच
का भवन। बड़ी मुश्किल है। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं, वहां तो जब कोई भिक्षु कुछ भी
नहीं करना चाहता तो चला जाता है। वह हमारे
ध्यान का भवन है। वह मेडिटेशन हाल
है। और आप पूछते हैं, वहां क्या करते हो? तो आप मुझे मुश्किल में डालते
हैं। अगर मैं कहूं कि हम वहां ध्यान करते हैं
तो गलती होगी,
क्योंकि
ध्यान का करने से कोई संबंध नहीं है। वहां
हम कुछ भी नहीं करते हैं।
यह जो
ध्यान की बात मैं कर रहा हूं, यह कुछ
भी न-करने की बात है।
आपने
राम राम जपा होगा,
उसको
ध्यान कहा होगा। आपने माला फेरी होगी, उसको ध्यान कहा होगा। आपने गायत्री पढ़ी होगी, उसको ध्यान कहा होगा। आपने नमोकार जपा होगा, उसको ध्यान कहा होगा। वह कोई भी ध्यान नहीं है। जब तक आप कुछ कर रहे हैं, तब तक आप ध्यान में नहीं जा
सकते, चाहे माला फेरते हों, चाहे राम राम जपते हों, चाहे गायत्री, चाहे नमोकार, चाहे कुछ और। जब तक आप कुछ कर रहे हैं, तब तक आप ध्यान के बाहर
हैं। जब आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं, सब मौन, सब शांत हो गया, सब शिथिल हो गया, करने का सारा यंत्र चुप हो
गया, तब आप ध्यान में प्रविष्ट
होते हैं।
ध्यान
एक अक्रिया है।
ध्यान
एक अक्रिया है तो यहां हम ध्यान में अभी जायेंगे तो कैसे जायेंगे? अक्रिया में कैसे जायेंगे?
अक्रिया
में जाने का पहला सूत्र तो यह जान लेना है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। भाव में यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि मैं
कुछ कर नहीं रहा हूं, मैं
न-करने में डूबने वाला हूं। भाव के तल पर
यह बोध कि मैं न-करने में बैठ रहा हूं--मैं चुपचाप, सिर्फ शिथिल होकर बैठ जाऊंगा, कुछ भी नहीं करूंगा। पहली बात।
दूसरी
बात, आप शिथिल होकर बैठ जायेंगे तो
भी हवाएं तो बहती रहेंगी, हवाएं
तो शिथिल नहीं हो जायेंगी। पक्षी तो बोलते
रहेंगे। वह कौआ बोल रहा है, वह आवाज देता रहेगा। सागर गर्जन करता रहेगा, वृक्षों के पत्ते हिलेंगे और
आवाज होती रहेगी। यह सब तो होता
रहेगा। आप निष्क्रिय हो जायेंगे, लेकिन यह सारा जगत तो अपनी
पूरी क्रिया में गतिमान होगा। इस सारी
क्रिया के प्रति आप क्या करेंगे?
इस
सारी क्रिया के प्रति आप सिर्फ जागरूक बने रहना।
होश से भरे रहना, अवेअर
बने रहना। यह कौआ बोले तो यह आपको सुनायी
पड़ता रहे। ये सागर गर्जन करे तो आपको
सुनायी पड़ता रहे। ये हवाएं आयें और
वृक्षों को हिलायें तो आपको सुनायी पड़ता रहे।
यह जो चारों तरफ जो कुछ भी हो रहा है, वह आपके बोध में, आपके जागरण में, आपको अनुभव होता रहे। बस आप कुछ मत करना, सिर्फ जागे रहना। सिर्फ सुनते रहना।
और
स्मरण रहे,
जागना
कोई क्रिया नहीं है। जब आप किसी क्रिया
में होते हैं,
तब
भीतर आपका जागरण सो जाता है। जब आप बिलकुल
अक्रिया में होते हैं, तब
जागरण पूरा प्रकट हो जाता है।
जागरण कोई
क्रिया नहीं है,
मनुष्य
का स्वभाव है। कोई एक्ट नहीं है, कोई कर्म नहीं है, मनुष्य की चित्त दशा है। मनुष्य की चेतना है।
तो
सिर्फ सचेत,
होश से
भरे हुए,
कांशस, चुपचाप, मौन इन वृक्षों के पास बैठे
रहना है। श्वास चलती रहेगी तो श्वास को
चुपचाप अनुभव करते रहें। और सुनते
रहें--चारों तरफ जो भी सुनायी पड़ रहा है, उसे सुनते रहें। सुनते ही सुनते आप हैरान हो जायेंगे। एक-दो क्षण मौन से सुनते ही भीतर गहरी शांति
उतरनी शुरू हो जायेगी। थोड़ी देर में सब
विलीन हो जायेगा,
एक
सन्नाटा भर भीतर रह जायेगा। उस सन्नाटे
में कोई पक्षी बोलेगा तो उसकी गूंज सुनायी पड़ेगी।
गूंज विलीन हो जायेगी, सन्नाटा
और भी ज्यादा गहरा हो जायेगा। कोई चीज
बाधा नहीं डालेगी। हर चीज जो चारों तरफ हो
रही है,
सहयोगी
बन जायेगी,
मित्र
बन जायेगी।
एक बार
आप शिथिल और मौन होकर रह जायें, विचार
अपने आप शांत हो जायेंगे, विलीन
हो जायेंगे। उन्हें शांत करना नहीं पड़ता
है, उन्हें हटाना भी नहीं पड़ता
है। जो मौन में बैठकर चारों तरफ के जगत के
प्रति जागरूक हो जाता है, धीरे-धीरे
उसके विचार अपने आप समाप्त हो जाते हैं।
यह अभी और यहीं हो सकेगा। इसके
पहले कि हम बैठें थोड़े दूर-दूर हम बैठ जायेंगे, ताकि कोई किसी को छूता हुआ न हो। और यहां तो इतनी फैली जगह है, इतने वृक्ष हैं, अपना-अपना वृक्ष चुन
लें। थोड़े फासले पर हो जायें, ताकि आप बिलकुल अकेले में
निष्क्रिय हो सकें। थोड़े हट जायें, कोई किसी को छूता हुआ न हो।
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