प्रवचन-तीसरा
प्रिय
आत्मन,
सुबह
जो कुछ मैंने कहा है, उस
संबंध में बहुत-से प्रश्न आये हैं।
एक
मित्र ने पूछा है कि क्या सारा ज्ञान ही आध्यात्मिक जीवन में बाधा है? क्या शास्त्र व्यर्थ हैं? क्या सिद्धांतों, दर्शनों को जो हम जानते हैं, उससे सत्य की दिशा में कोई भी
अनुभव प्राप्त नहीं होता है? ऐसे ही
और भी कुछ मित्रों ने प्रश्न पूछे हैं।
एक
छोटा-सा बच्चा अपने घर के बाहर खेल रहा था। सुबह का सूरज निकला है। सूरज की स्वर्ण
जैसी किरणें घर के बगीचे में बरस रही हैं। सुबह की ताजी हवाएं हैं, तितलियां फूलों पर उड़ रही हैं
और वह बच्चा घास में लेटा हुआ खेल रहा है।
तभी उसे ख्याल आया है कि सूरज की इन नाचती किरणों को काश! वह कैद कर ले, बंद कर ले, अपने पास सुरक्षित कर
ले। वह भीतर गया है और एक पेटी ले आया है।
उसने सूरज की किरणों को बंद कर लिया है उस पेटी में, हवाओं को बंद कर लिया है!
और फिर, खुशी से नाचता हुआ पेटी को
लेकर भीतर अपनी मां के पास पहुंच गया है और उसने कहा है कि तुझे पता भी नहीं है कि
मैं पेटी में क्या बंद कर लाया हूं। सूरज की नाचती हुई किरणें, सुबह की हवाएं, वह सब इसमें बंद कर लाया हूं!
उसे
पता भी नहीं कि जिसे उसने बंद किया है, वह बंद नहीं किया जा सकता। उसे पता भी नहीं
कि वह पेटी को भीतर ले आया है, सूरज
की किरणें बाहर ही रह गयीं हैं।
उसकी
मां हंसने लगी और उसने कहा, खोल, अपनी पेटी को खोल, मैं भी देखूं, तू किन किरणों को पकड़ लाया है; क्योंकि मैंने सुना नहीं है
अब तक कि किरणें कोई पकड़कर ले आता है! और मैंने सुना नहीं है कि कोई सुबह की हवाएं
भी पेटियों में बंद हो जाती हैं!
उसने
खुशी में और मां को चमत्कृत करने के लिए पेटी खोली है और दंग खड़ा रह गया है। उसकी
आंखों में आंसू आ गये हैं। उसकी पेटी में तो घुप्प अंधकार है, वहां तो कोई भी सूरज की किरण
नहीं है। वहां तो सुबह की कोई ताजी हवा नहीं है। और वह रोने लगा है और कहने लगा है
कि क्या! मैंने तो बंद किया था, वे सब
किरणें कहां गयीं?
मनुष्य
भी सत्य के सागर के किनारे जीवन की जिन हवाओं को, प्रभु की जिन किरणों को अनुभव
करता है--सोचता है, शब्दों
की पेटियों में,
शास्त्रों
में बंद कर ले! बड़े श्रम से ये पेटियों बंद की जाती हैं, लेकिन जब भी कोई उन पेटियों
को खोलता है तो वहां कोरे शब्दों के अतिरिक्त, खाली पेटियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
मिलता।
जीवन
में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे
बंद करने का कोई भी उपाय नहीं है।
बंद
करने के रास्ते कोई भी हों--शब्द भी अनुभवों को बंद करने की पेटियों से ज्यादा
नहीं हैं। जीवन जो जानता है, शब्दों
में हम उसे कैद करके प्रकट करना चाहते हैं। कोशिश करते हैं कि उसे पकड़ लें, जो हमने जाना, उसे शब्दों में बांध दें।
लेकिन शब्द ही हाथ में रह जाते हैं। जिसे बांधा था, वह बंधन के हमेशा बाहर है।
परमात्मा
को किसी भी बंधन में बांधने का कोई उपाय नहीं।
मौन
में तो उसे कहा जा सकता है, शब्दों
में कहने का कोई मार्ग नहीं।
शून्य
में तो उसके अनुभव को पाया जा सकता है, लेकिन शास्त्रों से उसे निकाल लेने की कोई
राह नहीं।
लेकिन
हम शास्त्रों से जो कुछ उपलब्ध करते हैं, सोचते हैं, वह ज्ञान है। वे शब्द हैं
कोरे। जिन्होंने उन शब्दों को कहा था, उन्होंने सोचा होगा कि जो वे जान रहे हैं, शायद शब्दों में बांध दिया जा
सके। उनकी करुणा है इसके पीछे, उनका
प्रेम है इसके पीछे। मनुष्य-जाति भी उस सबको जान ले, जो उसको ज्ञात हुआ है।
लेकिन
नहीं, शब्दों में कुछ भी उतरकर नहीं
आता है,
जैसे
खाली कारतूस हों। ऐसे सभी शब्द खाली कारतूसों की तरह हैं, जिनके भीतर कोई अनुभव बंधा
हुआ नहीं आता है।
आपके
पास अपना अनुभव हो तो शब्द भी सार्थक हो जाते हैं, लेकिन आपके पास अपना अनुभव न
हो तो शब्द खाली कारतूस हैं, उनमें
कुछ भी नहीं है। उन शब्दों को इकट्ठा करते रहें, ब्रह्म को, अद्वैत को, आत्मा को, सच्चिदानंद को। इन सब शब्दों
को इकट्ठा करते रहें, इनका
अंबार लगा लें,
इनको
तिजोरी में भर लें और आपको सिर्फ भ्रम पैदा होगा कि आपने कुछ जान लिया है। आप कुछ
जान नहीं सकेंगे। और यह भ्रम बाधा है। इसलिए मैंने कहा, "ज्ञान नहीं ले जाता परमात्मा
के द्वार तक,
बल्कि
यह प्रतीति ले जाती है कि मैं नहीं जानता हूं। '
यह
जानने का भ्रम शब्दों से पैदा हो जाता है। यह जानने का भ्रम शास्त्रों से पैदा हो
जाता है,
सिद्धांतों
से पैदा हो जाता है। जिस व्यक्ति को खोज करनी हो, उसे साहस करना पड़ता है।
सत्य
को पाना हो तो शब्दों को छोड़ने का साहस करना पड़ता है।
हमारा
ज्ञान शब्दों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या है?
और इस
ज्ञान से हमने भीतर अपने क्या कर लिया है? सिवाय इसके कि हमारी अस्मिता, हमारी ईगो, हमारा अहंकार मजबूत हो गया
हो। हमें लगने लगा है कि मैं कुछ हूं, क्योंकि "मैं' जानता हूं। हमारे इस
"मैं'
का
पत्थर और भी भारी और वजनी हो गया है। किसलिए हमने ये शब्द इकट्ठे कर रखे हैं, शायद इसीलिए ताकि मुझे ज्ञात
हो सके,
अनुभव
हो सके कि मैं कुछ हूं, मैं
जानता हूं। मैं अज्ञानी नहीं हूं।
मैं एक
बात इस संबंध में आपको कहूं। जो भी बात आपके अहंकार को मजबूत करती हो, आप भली-भांति जान लेना कि वह
जीवन-सत्य की खोज में दीवाल बन जायेगी, बाधा बन जायेगी, पत्थर बन जायेगी--जो भी चीज
आपके "मैं'
को
मजबूत करती हो,
घनीभूत
करती हो और यह भ्रम पैदा करती हो कि मैं हूं।
एक
समुद्र के तट पर जैसे हम आज यहां बैठे हैं, एक सांझ सूरज डूबता था और एक बाप अपने छोटे
से बेटे के साथ समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। सूरज डूबने लगा। उस बाप ने सूरज की तरफ
उंगली उठायी और सूरज से कहा "गो डाउन, गो डाउन'--नीचे जाओ, नीचे जाओ!
सूरज
तो नीचे जा ही रहा था। सूरज नीचे चला गया और डूब गया। वह बच्चा तो हैरान रह गया
अपने बाप की ताकत देखकर। इतना शक्तिशाली पिता है उसका कि सूरज को भी कहता है, गो डाउन, तो सूरज भी नीचे चला जाता है!
उस
बेटे ने अपने बाप की तरफ आंखें उठायीं, उसके कंधे पकड़ लिए और कहा, मेरे पिता, इतने शक्तिशाली हैं आप, तो एक कृपा और करें। उस बच्चे
ने अपने बाप से कहा, डू इट
डैडी अगेन,
डू इट
अगेन, एक बार और करके दिखायें!
उस बाप
ने बड़ी कठिनाई अनुभव की होगी। फिर सभी समझदार लोग रास्ते निकाल लेते हैं। उसने कहा, यह ऐसा काम है कि दिन में एक
ही बार किया जा सकता है। कल सांझ फिर करके दिखाऊंगा।
बाप
बेटे के सामने ज्ञानी बन जाता है, शक्तिशाली
बन जाता है! पति पत्नी के सामने ज्ञानी बन जाता है, शक्तिशाली बन जाता है। गुरु
विद्यार्थी के सामने शक्तिशाली बन जाता है, ज्ञानी बन जाता है। बूढ़े बच्चों के सामने
ज्ञान दिखाकर अपने अहंकार को भर लेते हैं।
लेकिन
जीवन को तो धोखा नहीं दिया जा सकता इस भांति। हम अपने को जरूर धोखा दे लेते हैं।
हमारा सारा ज्ञान ऐसा है, जिसके
पीछे सिर्फ एक बात की कोशिश है कि मैं यह दिखा सकूं कि मैं कुछ हूं। मैं जानता हूं, मैं शक्तिशाली हूं; मैं अज्ञानी नहीं, मैं कमजोर नहीं।
और
सच्चाई क्या है?
हमारा
ज्ञान और हम रेत पर खींची गयी रेखाओं की तरह विलीन हो जाते हैं। हमारा ज्ञान और हम
सूखे पत्तों की तरह हवाओं में उड़ जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। हमारा ज्ञान और
हम कागज के भवनों की तरह हैं, जरा से
झोंके में गिर जाते हैं।
आदमी
का ज्ञान भी क्या हो सकता है? आदमी
के खुद के होने की भी क्या सामर्थ्य है, और क्या शक्ति है? इस बड़े विराट जगत में आदमी
क्या है,
आदमी
की सामर्थ्य क्या है?
चांदत्तारों
को शायद ही पता हो कि आप हैं। चांदत्तारे बहुत दूर हैं, इन दरख्तों को भी शायद ही पता
हो कि आप हैं। दरख्त दूर, इस रेत
को शायद ही पता हो कि आप हैं। इस विराट अस्तित्व में आपका, मेरा, हमारा मनुष्य का होना क्या है?
लेकिन
मनुष्य ने बहुत से--बहुत से झूठे अहंकार पोषित कर लिए हैं। उनमें एक अहंकार सबसे
गहरा और बुनियादी यह है कि हम जीवन की सच्चाइयों को जानते हैं। जीवन की कोई सच्चाई
हमें ज्ञात नहीं है। जीवन बहुत अज्ञात है।
एक
मित्र ने पूछा है कि यह हो सकता है कि बहुत बड़ी-बड़ी चीजें हमें ज्ञात न हों, लेकिन कुछ चीजें तो मनुष्य को
ज्ञात हैं।
जीवन
में बड़ी और छोटी चीजों का कोई भेद और फासला नहीं है। न तो सूरज बड़ा है और न एक
छोटा-सा दीया छोटा है। एक कंकड़ भी छोटा नहीं है, क्योंकि अस्तित्व की उतनी ही
मिस्ट्री,
उतना
ही रहस्य एक छोटे से कंकड़ में है, जितना
कि बड़े हिमालय में होगा। एक पानी की बूंद भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितना हिंद महासागर है। छोटे
और बड़े का भेद आदमी की कल्पना में है। अस्तित्व में छोटे और बड़े का कोई फासला नहीं
है।
मैंने
सुना है,
एक
सांझ जब सूरज पश्चिम में डूबने लगा तो उसने चिल्लाकर कहा, मैं तो जा रहा हूं और रात
अंधेरी उतरने को है, अब
मेरी जगह अंधेरे से लड़ाई कौन करेगा, संघर्ष कौन करेगा?
चांद
चुप रहा,
तारे
चुप रहे,
लेकिन
एक मिट्टी के छोटे-से दीये ने कहा, मैं--"मैं रात भर लड़ता रहूंगा, जब तक आप वापस न लौट आयें। '
और रात
भर एक छोटे-सा दीया--रात भर अंधेरे से लड़ता रहा! सूरज बड़ा होगा बहुत, लेकिन एक छोटे-से दीये के
अंधेरे में संघर्ष को देखा है आपने? एक छोटे-से दीये की ज्योति को तूफानों में
कांपते देखा है आपने? उस
छोटी-सी ज्योति का अपना रहस्य है, जो
किसी सूरज से कम नहीं। उस छोटी-सी ज्योति में वह सब छिपा है, जो बड़े-से-बड़े सूरज में होगा
या हो सकता है। कौन है छोटा और कौन है बड़ा?
एक कवि
ने कहा है कि अगर हम एक छोटे-से फूल को भी पूरा जान लें तो हम पूरे विश्व को जान
लेंगे,
पूरे
जगत को,
पूरे
जीवन को। एक छोटा-सा फूल, एक घास
का छोटा-सा फूल भी अगर आदमी पूरी तरह जान ले तो जानने को फिर कुछ भी शेष नहीं रह
जाता है। क्या एक बूंद को जान लेने से सागर नहीं जान लिया जाता? क्या एक रेत के एक छोटे-से
टुकड़े को जान लेने से सारे पहाड़ नहीं जान लिए जाते? एक छोटे-से अणु का उदघाटन और
जीवन के सारे अस्तित्व का बोध नहीं हो जाता है?
लेकिन
नहीं, कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है और
जिसे हम ज्ञान समझ रहे हैं, तो वह
ज्ञान नहीं,
केवल
काम-चलाऊ,
युटिलिटेरियन
परिचय है। उस परिचय के कारण यह भ्रम पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं!
मुझे
प्रीतिकर लगा है एक व्यक्ति का उल्लेख। एडीसन एक छोटे-से गांव में गया था। एडीसन
ने अपने जीवन में एक हजार आविष्कार किये हैं। शायद किसी वैज्ञानिक ने इतने
आविष्कार कभी नहीं किये हैं-- एक हजार! विद्युत के लिए, इलेक्ट्रीसिटी के लिए उससे
बड़ा कोई तत्ववेत्ता नहीं था। कोई नहीं था, जो इतना जानता हो विद्युत के संबंध में
जितना एडीसन। वह एक छोटे-से गांव में गया है। गांव के लोगों को पता भी नहीं कि वह
कौन है। गांव के स्कूल में, एक
छोटी-सी एक्जीबीशन, एक
प्रदर्शनी चल रही है। स्कूल के बच्चों ने बहुत-से खेल-खिलौने बनाये हैं। स्कूल के
विज्ञान के विद्यार्थियों ने बिजली के भी खेल-खिलौने बनाये हैं। छोटी नाव बनायी हैं, रेलगाड़ी बनायी है, मोटरगाड़ी बनायी है। और बच्चे
बड़े आनंद से,
प्रदर्शनी
को जो भी लोग देखने आये हैं, उन्हें
समझा रहे हैं एक-एक चीज को। एडीसन भी घूमता हुआ उस प्रदर्शनी में पहुंच गया। वह
विज्ञान के हिस्से में चला गया। छोटे-छोटे बच्चे उसे समझा रहे हैं कि नाव विद्युत
से चलती है। यह गाड़ी विद्युत से चलती है। वह खुशी से देख रहा है--अवाक, विस्मय से भरा हुआ। वे बच्चे
और भी खुश होकर उसे समझा रहे हैं।
तब
अचानक उस बूढ़े ने उन बच्चों से पूछा, यह तो ठीक है कि तुम कहते हो कि ये विद्युत
से चलती हैं--यह मशीन, यह नाव, यह गाड़ी। लेकिन मैं अगर तुमसे
पूछूं तो तुम बता सकोगे क्या? एक
छोटा-सा सवाल मेरे मन में आ गया है, व्हाट इज इलेक्ट्रीसिटी? विद्युत क्या है, बिजली क्या है?'
बच्चे
बोले,
"बिजली!
हम नाव तो चलाना जानते हैं बिजली से, लेकिन बिजली क्या है, यह हमें पता नहीं। हम अपने
शिक्षक को बुला लाते हैं। '
वे
अपने शिक्षक को बुला लाये हैं और एडीसन ने उनसे भी पूछा है, व्हाट इज इलेक्ट्रीसिटी?
शिक्षक
भी हैरान हो गया। वह विज्ञान का स्नातक है, ग्रेज्युएट है। उसने कहा, यह तो हमें पता है कि विद्युत
कैसे काम करती है,
लेकिन
यह हमें कुछ भी पता नहीं कि विद्युत क्या है। लेकिन आप ठहरें, हमारा प्रिंसिपल तो डी. एस
सी. है,
वह तो
विज्ञान का बहुत बड़ा विद्वान है। हम उसे बुला लाते हैं।
वे
अपने प्र्रिंसिपल को बुला लाये हैं। और एडीसन का किसी को पता नहीं कि सामने जो
आदमी खड़ा है,
वह
विद्युत को सबसे ज्यादा जानने वाला आदमी है। वह प्र्रिंसिपल आ गया है, उसने समझाने की कोशिश की है।
लेकिन एडीसन पूछता है, "मैं यह नहीं पूछता कि बिजली कैसे काम करती हैं, मैं यह नहीं पूछता कि बिजली
किन-किन चीजों से मिलकर बनी है, मैं यह
पूछता हूं कि बिजली क्या है?'
उस
प्र्रिंसिपल ने कहा "क्षमा करें। इसका तो हमें कुछ पता नहीं। ' वे सब बड़े पेशोपश, बड़ी चिंता में पड़ गये हैं। तब
वह बूढ़ा हंसने लगा और उसने कहा, "शायद तुम्हें पता नहीं, मैं एडीसन हूं और मैं भी नहीं जानता हूं कि
बिजली क्या है। '
यह
विनम्रता,
यह
ह्युमिलिटी सत्य के शोधक के लिए पहली शर्त है। एडीसन कह सकता है कि मैं भी नहीं
जानता हूं कि विद्युत क्या है। यह धार्मिक चित्त का लक्षण है, "रिलीजस माइंड' का लक्षण है कि वह जीवन के इस
अनंत रहस्य को स्वीकार करता है।
जो
व्यक्ति जीवन के रहस्य को स्वीकार करता है, वह व्यक्ति अपने ज्ञानी होने को स्वीकार नहीं
कर सकता है। क्योंकि ये दोनों बातें आपस में विरोधी हैं। जब कोई कहता है कि मैं
ज्ञानी हूं,
तब वह
यह कहता है कि जीवन में अब कोई रहस्य नहीं, मैंने जान लिया हैं। जिस बात को हम जान लेते
हैं, उसमें फिर कोई रहस्य, कोई मिस्ट्री नहीं रह जाती।
जो
व्यक्ति कहता है,
मैं
नहीं जानता हूं;
वह यह
कह रहा है,
जीवन
एक रहस्य है,
जीवन
एक अनंत रहस्य है।
व्यक्ति
के अज्ञान पर मेरा इतना जोर क्यों है? यह जोर इसलिए है, ताकि जीवन की रहस्यमयता, जीवन का मिस्टीरियस होना आपके
स्मरण में आ सके।
ज्ञानी
के लिए कोई रहस्य नहीं है। जहां हमने जान लिया, वहां रहस्य समाप्त हो जाता है। हजारों
वर्षों से धर्म-शास्त्रियों ने मनुष्य के रहस्य की हत्या की है। वे हर चीज को ऐसा
समझते हुए मालूम पड़ते हैं, जैसे
जानते हों! उनसे अगर पूछो कि दुनिया किसने बनायी तो उनके पास रेडिमेड उत्तर तैयार
है! वे कहते हैं कि ईश्वर ने बनायी है! और वे यहां तक बताते हैं, उनमें से कुछ कि छह दिन तक
उसने दुनिया बनायी, फिर
सातवें दिन विश्राम किया! उनमें से कुछ यह भी कहते हैं--कि तिथि, तारीख भी बताते हैं कि आज से
इतने हजार वर्ष पहले फलां सन में, फलां
तिथि में,
ईसा से
चार हजार वर्ष पहले पृथ्वी बनायी गयी है, जीवन बनाया गया! वे हर चीज का उत्तर देने के
लिए हमेशा तैयार हैं!
मनुष्य
कैसे जान सकता है कि जीवन कब बनाया गया और कैसे बनाया गया? मनुष्य तो जीवन के बीच में
स्वयं आता है,
वह
जीवन के प्रारंभ को कैसे जान सकता है? सागर की एक लहर कैसे जान सकती है कि सागर कब
बना होगा?
सागर
के होने पर ही लहरें उठती हैं। सागर जब नहीं था, तब लहर भी नहीं हो सकती
है--तो लहर कैसे जान सकती है, मनुष्य
कैसे जान सकता है?
कोई भी
कैसे जान सकता है कि जीवन कब और कैसे पैदा हुआ?
लेकिन
नहीं, ज्ञानियों का दंभ बहुत मजबूत
है। वे हर चीज का उत्तर देने को हमेशा तैयार हैं। ऐसा कोई प्रश्न नहीं, जिसके लिए वे इनकार करें। ऐसा
कोई प्रश्न नहीं,
जिसके
लिए वे कहें कि हम नहीं जानते हैं। आप कोई भी प्रश्न लेकर चले जायें, धर्म-शास्त्रियों के पास
हमेशा उत्तर हैं तैयार!
इसलिए
मैं आपसे कहता हूं कि एक वैज्ञानिक तो शायद कभी जीवन के सत्य के करीब पहुंच जाये, क्योंकि वैज्ञानिक के मन में
एक ह्युमिलिटी है,
एक
विनम्रता है। लेकिन धर्मों के पंडित कभी परमात्मा के पास नहीं पहुंच सकते हैं, क्योंकि उनके पास हर बात का
उत्तर है,
हर बात
का ज्ञान है। वे सर्वज्ञ हैं, वे सभी
कुछ जानते हैं! उनकी सर्वज्ञता जीवन के रहस्य को नष्ट कर रही है, इसका उन्हें कोई ख्याल नहीं।
आदमी के जीवन से धर्म इसी तरह धीरे-धीरे क्षीण होता गया है।
अगर
मनुष्य को वापस धर्म की दिशा में ले जाना हो तो उसके रहस्य को फिर से जन्म देने की
जरूरत है। इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा,आदमी को अपने अज्ञान का बोध होना चाहिए। यह
बोध अत्यंत अनिवार्य है। इस बोध के बिना कोई गति नहीं हो सकती।
एक
मित्र ने पूछा है कि ऐसी परिस्थितियां होती हैं कि उसमें हम साधना नहीं कर सकते
हैं।
मुझे
पता नहीं कि उनकी परिस्थितियां कैसी हैं, लेकिन मैं ऐसी एक भी परिस्थिति नहीं जानता
हूं और कल्पना भी नहीं कर पाता हूं, जिसमें कि साधना न की जा सके। परिस्थितियों
की बात हमेशा आदमी का बहाना है और हम बहाने ईजाद करने में बहुत कुशल लोग हैं। जो
हमें नहीं करना होता है, उसके
लिए हम हमेशा बहाना ईजाद कर लेते हैं!
एक
मंदिर बन रहा था,
सारे
आसपास के गांवों के लोग श्रमदान कर रहे थे उस मंदिर में--मंदिर बनाने में। मंदिर
के बनाने वालों ने प्रार्थना की थी गांव-गांव के लोगों से कि सभी आकर थोड़ा-थोड़ा
मंदिर बनायें। कोई एक इट ले आये, कोई एक
इट जोड़ दे;
कोई एक
पत्थर ले आये,
कोई एक
पत्थर रख दे;
कोई
मिट्टी ढो दे,
लेकिन
वह सब लोगों के श्रम से बने मंदिर।
बड़े
समझदार लोग रहे होंगे उस गांव के। क्योंकि जब एक आदमी मंदिर बनाता है तो वह मंदिर
अहंकार का मंदिर हो जाता है। और जब हजारों लोग प्रेम से मिलकर कुछ बनाते है तो वह
प्रेम ही उस स्थान को मंदिर बना देता है। तो गांव में दूर-दूर से लोग उस मंदिर को
बनाने आये हुए थे। वह किसी एक आदमी के पत्थर के आसपास बनने वाला मंदिर नहीं था।
काम शुरू हो गया था।
लेकिन
एक आदमी सुबह से ही आकर खड़ा हो गया है चुपचाप उदास। वह कोई काम नहीं कर रहा है। वह
एक झाड़ के नीचे चुपचाप खड़ा है। मंदिर बनाने वाले दो-चार लोग उसके पास गये और कहां, मित्र, तुम कुछ हाथ नहीं बंटाओगे? तुम कुछ सहयोग नहीं दोगे?
उस
आदमी ने कहा,
"मैं भी
चाहता हूं कि प्रभु के मंदिर में श्रम करूं, मैं भी चाहता हूं कि यह आनंद मुझे भी मिले, लेकिन भूखे पेट आदमी हो तो
क्या कर सकता है?
"मैं
भूखा पेट हूं,
भूखे
पेट कैसे श्रम किया जा सकता है?'
बात तो
ठीक थी। वे लोग उसे अपने घर ले गये। उसे भर पेट भोजन कराया।
फिर वे
सब मंदिर की तरफ वापस लौटे। वे चारों लोग तो मंदिर में काम करने लग गये। वह आदमी
फिर अपने वृक्ष के नीचे जाकर वैसा ही खड़ा हो गया, जैसे सुबह खड़ा था। थोड़ी देर
बाद उन्होंने देखा कि वह फिर उदास, वहीं खड़ा है, उसने न एक पत्थर उठाया है, न एक इट ढोयी है! वे फिर उसके
पास गये और कहा,
"महाशय, फिर कोई तकलीफ आ गयी क्या, आप फिर भी कोई सहायता नहीं कर
रहे हैं?'
उसने
कहा कि मैं भी चाहता हूं कि प्रभु के मंदिर में श्रम करूं, लेकिन भरे पेट कोई श्रम कर
सकता है क्या?
सुबह
वह खाली पेट था,
इसलिए
श्रम नहीं कर सकता था; अब वह
भरे पेट है,
इसलिए
श्रम नहीं कर सकता! अब यह आदमी कब श्रम करेगा?
कोई
इसलिए साधना नहीं कर पाता कि गरीब है, कोई इसलिए साधना नहीं कर पाता कि अमीर है।
कोई इसलिए साधना की तरफ नहीं जा पाता कि पेट खाली है। कोई कहता है कि पेट भरा है, इसलिए हम उस ओर नहीं जा पाते।
मुझे हर परिस्थिति के लोग मिलते हैं और मैंने पाया कि हर परिस्थिति के लोग कहते
हुए पाये जाते हैं कि हमारी परिस्थिति ऐसी है कि हम कुछ करने में समर्थ नहीं है।
अब तक मुझे एक आदमी नहीं मिला, जिसने
यह कहा हो कि मेरी परिस्थिति ऐसी है कि मैं करने में समर्थ हूं!
जरूर
कोई और बात है,
परिस्थितियां
असली कारण नहीं है। असली कारण है, जो हम
नहीं करना चाहते हैं, उसके
लिए हमेशा "जस्टिफिकेशन', उसके लिए हमेशा न्याययुक्त कारण खोज लेते हैं और निश्चिंत हो जाते
हैं!
ऐसी
कौन-सी परिस्थिति है, जिसमें
आदमी शांत न हो सके; ऐसी
कौन सी परिस्थिति है, जिसमें
आदमी प्रेमपूर्ण न हो सके? ऐसी
कौन-सी परिस्थिति है, जिसमें
आदमी थोड़ी देर के लिए मौन और शांति में प्रविष्ट न हो सके?
हर
स्थिति में,
हर
परिस्थिति में--वह होना चाहे तो बिलकुल हो सकता है।
यूनान
में एक वजीर को उसके सम्राट ने फांसी की सजा दे दी थी। सुबह तक सब ठीक था। दोपहर
वजीर के घर सिपाही आये और उन्होंने घर को चारों तरफ से घेर लिया और वजीर को भीतर
जाकर खबर दी,
कि आप
कैद कर लिए गये हैं और सम्राट की आज्ञा है कि आज संध्या आपको फांसी दे दी जायेगी, छह बजे!९वजीर के घर उसके
मित्र आये हुए थे। एक बड़े भोजन का आयोजन था। वजीर का जन्म-दिन था वह। एक बड़े
संगीतज्ञ को बुलाया गया था। वह अभी-अभी अपनी वीणा लेकर हाजिर हुआ था। अब उसका
संगीत शुरू होने को था। संगीतज्ञ के हाथ ढीले पड़ गये। वीणा उसने एक ओर टिका दी।
मित्र उदास हो गये। पत्नी रोने लगी।
लेकिन
उस वजीर ने कहा,
"छह
बजने में अभी बहुत देर है, तब तक
गीत पूरा हो जायेगा! तब तक भोज भी पूरा हो जायेगा! राजा की बड़ी कृपा है कि छह बजे तक
कम-से-कम उसने फांसी नहीं दी।
लेकिन
वीणा बंद क्यों हो गयी? भोज
बंद क्यों हो गया?
मित्र
उदास क्यों हो गये हैं? छह
बजने में अभी बहुत देर है। छह बजे तक कुछ भी बंद करने की कोई जरूरत नहीं।
लेकिन
मित्र कहने लगे,
अब हम
भोजन कैसे करें?
संगीतज्ञ
कहने लगा,
मैं वीणा
कैसे बजाऊं?
परिस्थिति
बिलकुल अनुकूल नहीं रही।
वह
आदमी हंसने लगा,
जिसको
फांसी होने को थी! उसने कहा, "इससे अनुकूल परिस्थिति और क्या होगी। छह बजे मैं मर जाऊंगा। क्या
यह उचित न होगा कि उसके पहले मैं संगीत सुनूं? क्या यह उचित न होगा कि उसके पहले मैं अपने
मित्रों से हंस लूं, बोल
लूं, मिल लूं। क्या यह उचित न होगा
कि मेरा घर एक उत्सव का स्थान बन जाये; क्योंकि सांझ छह बजे मुझे हमेशा को विदा हो
जाना है। '
घर के
लोग कहने लगे,
परिस्थिति
अनुकूल न रही कि अब कोई वीणा बजाये। घर के लोग कहने लगे परिस्थिति अनुकूल न रही कि
अब कोई भोज हो।
लेकिन
वह आदमी कहने लगा कि इससे अनुकूल परिस्थिति और क्या होगी। जब छह बजे मुझे हमेशा के
लिए विदा हो जाना है तो क्या यह उचित न होगा कि विदा होते क्षणों में मैं संगीत
सुनूं?
क्या
यह उचित न होगा कि मित्र उत्सव करें? क्या यह उचित न होगा कि मेरा घर एक उत्सव बन
जाये, कि जाते क्षण मेरी स्मृति में
हमेशा वे थोड़े से पल टिके हुए रह जायें, जो मैंने अंतिम क्षण में, विदाई के क्षण में अनुभव किये
थे।
और उस
घर में वीणा बजती रही और उस घर में भोजन चलता रहा। यद्यपि लोग उदास थे, संगीतज्ञ उदास था, परेशान था। लेकिन वह वजीर खुश
था, वह प्रसन्न था!
राजा
को खबर मिली। राजा देखने आया कि वह वजीर पागल तो नहीं है! और जब वह पहुंचा तो घर
वीणा बजती थी और मेहमान इकट्ठे थे। और राजा जब भीतर गया तो वजीर खुद भी आनंदमग्न
बैठा था! तो उस राजा ने पूछा, तुम
पागल हो गये हो?
खबर
नहीं मिली कि छह बजे सांझ मौत तुम्हारी आ रही है।
उसने
कहा,
"खबर
मिल गयी,
इसलिए
आनंद के उत्सव को हमने तीव्र कर दिया है, उसे शिथिल करने का तो सवाल न था, क्योंकि छह बजे मैं विदा हो
जाऊंगा,
तो छह
बजे तक हमने आनंद के उत्सव को तीव्र कर दिया है; क्योंकि अंतिम विदा के क्षण
स्मरण में रह जायें। '
राजा
ने कहा,
"ऐसे
आदमी को फांसी देना व्यर्थ है। जो आदमी जीना जानता है, उसे मरने की सजा नहीं दी जा
सकती है। उसने कहा, सजा
मैं वापस ले लेता हूं। ऐसे प्यारे आदमी को अपने हाथों से मारूं, यह ठीक नहीं। '
जीवन
में क्या अवसर है,
क्या
परिस्थिति है,
यह इस
बात पर निर्भर नहीं होता है कि क्या है। यह इस बात पर निर्भर होता है कि हम उस
परिस्थिति को किस भांति लेते हैं, किस
"एटीटयूड'
में, किस दृष्टि से।
तो
ज्ञात नहीं होता कि कोई भी ऐसी परिस्थिति हो सकती है, जो आपके जीवन में प्रभु की
तरफ जाने से आपको रोकती हो। आप ही अपने को रोकना चाहते हों तो बात दूसरी है। तब हर
परिस्थिति रोक सकती है। और आप ही अपने को न रोकना चाहते हो, तो कोई ऐसी परिस्थिति न कभी
थी और न कभी हो सकती है।
थोड़ा
ध्यान से अपनी दृष्टि को देखने कि कोशिश आप करना। परिस्थिति पर दोष मत देना। थोड़ा ध्यान
करना इस बात पर,
कि
मेरा दृष्टिकोण,
परिस्थिति
को समझने की मेरी वृत्ति, मेरी
एप्रोच,
मेरी
पहुंच तो कहीं गलत नहीं है। कहीं मैं गलत ढंग से तो चीजों को नहीं ले रहा हूं।
एक
घटना मुझे और स्मरण आती है। कोरिया में एक भिक्षुणी, एक भिक्षुणी स्त्री, एक संन्यासिनी एक रात एक गांव
में भटकी हुई पहुंची। रास्ता भटक गयी है और जिस गांव पहुंचना चाहती थी, वहां न पहुंचकर दूसरे गांव
पहुंच गयी है। उसने जाकर एक द्वार पर दरवाजा खटखटाया। आधी रात है। दरवाजा खुला।
लेकिन उस गांव के लोग दूसरे धर्म को मानते थे, वह भिक्षुणी दूसरे धर्म की थी। उस दरवाजे के
मालिक ने दरवाजा बंद कर लिया और कहा, देवी, यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। हम इस धर्म
को नहीं मानते हैं। तुम कहीं और खोज कर लो और उसने चलते वक्त यह भी कहा कि इस गांव
में शायद ही कोई दरवाजा तुम्हारे लिए खुले, क्योंकि इस गांव के लोग दूसरे ही धर्म को
मानते हैं और हम तुम्हारे धर्म के शत्रु हैं।
आप तो
जानते ही हैं,
धर्म
धर्म आपस में बड़े शत्रु हैं! एक गांव का अलग धर्म हैं, दूसरे गांव का अलग धर्म है!
एक धर्म वाले को दूसरे धर्म वाले के यहां कोई शरण नहीं, कोई आशा नहीं, कोई प्रेम नहीं।
द्वार
बंद हो जाते हैं। द्वार बंद हो गये उस गांव में! उसने दो-चार दरवाजे खटखटाये, लेकिन दरवाजे बंद हो गये।
सर्द रात है,
अंधेरी
रात है,
वह
अकेली स्त्री है,
वह
कहां जायेगी?
लेकिन
धार्मिक लोग इस तरह की बातें कभी नहीं सोचते। धार्मिक लोगों ने मनुष्यता जैसी बात
कभी सोची ही नहीं! वे हमेशा सोचते हैं, हिंदू है या मुसलमान; बौद्ध है या जैन। आदमी का
सीधा कोई मूल्य उनकी दृष्टि में कभी नहीं रहा है!
वह
स्त्री उसको गांव छोड़ देना पड़ा। आधी रात वह जाकर गांव के बाहर एक वृक्ष के नीचे सो
गयी। कोई दो घंटे बाद ठंड के कारण उसकी नींद खुली। उसने आंख खोली। ऊपर आकाश तारों
से भरा है! उस वृक्ष पर फूल खिल गये हैं! रात के खिलने वाले फूल, उनकी सुगंध चारों तरफ फैल गयी
है। वृक्ष के फूल चटक रहे हैं। आवाज आ रही है और फूल खिलते चले जा रहे हैं। वह आधी
घड़ी तक मौन उस फूल को, उन वृक्ष
के फूलों को खिलते देखती रही। आकाश के तारों को देखती रही।
फिर
दौड़ी गांव की तरफ,
फिर
जाकर उसने उन दरवाजों को खटखटाया, जिन
दरवाजों को उनके मालिकों ने बंद कर लिया था। आधी रात फिर कौन आ गया? उन्होंने दरवाजे खोले, वही भिक्षुणी खड़ी है!
उन्होंने कहा हमने मना कर दिया, यह
द्वार तुम्हारे लिए नहीं है, फिर
दुबारा क्यों आ गयी हो?
लेकिन
उस भिक्षुणी की आंखों से कृतज्ञता के आंसू बहे जाते हैं। उसने कहा, नहीं, अब द्वार खुलवाने नहीं आयी, अब ठहरने नहीं आयी, केवल धन्यवाद देने आयी हूं।
काश! तुम आज मुझे अपने घर में ठहरा लेते तो रात आकाश के तारे और फूलों का चटककर
खिल जाना--मैं देखने से वंचित ही रह जाती। मैं सिर्फ धन्यवाद देने आयी हूं कि
तुम्हारी बड़ी कृपा थी कि तुमने द्वार बंद कर लिये और मैं आकाश के नीचे सो सकी।
तुम्हारी बड़ी कृपा थी कि तुमने घर की दीवालों से मुझे बचा लिया और खुले आकाश में
मुझे भेज दिया।
जब
तुमने भेजा था,
तब तो
मेरे मन को लगा था, कैसे
बुरे लोग हैं। अब मैं यह कहने आयी हूं कि कैसे भले लोग हैं इस गांव के। मैं
धन्यवाद देने आयी हूं, परमात्मा
तुम पर कृपा करे। जैसी तुमने मुझे एक अनुभव की रात दे दी, जो आनंद मैंने आज जाना है, जो फूल मैंने आज खिलते देखे
हैं--जैसे मेरे भीतर भी कोई प्राणों की कली चिटक गयी हो, खुल गयी हो। जैसी आज अकेली
रात में मैंने आकाश के तारे देखे हैं, जैसे मेरे भीतर ही कोई आकाश स्पष्ट हो गया
हो और तारे खिल गये हों। मैं उसके लिए धन्यवाद देने आयी हूं। भले लोग हैं तुम्हारे
गांव के।
परिस्थिति
कैसी है,
इस पर
कुछ निर्भर नहीं करता। हम परिस्थिति को कैसे लेते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है।
हरएक
व्यक्ति को परिस्थिति कैसी लेनी है, यह सीख लेना चाहिए। तब तो राह पर पड़े हुए
पत्थर भी सीढ़ियां बन जाते हैं। और जब हम परिस्थितियों को गलत ढंग से लेने के आदी
हो जाते हैं तो सीढ़ियां भी मंदिर की पत्थर मालूम पड़ने लगती हैं, जिनसे रास्ता रुकता है। पत्थर
सीढ़ियां बन सकते हैं, सीढ़ियां
पत्थर मालूम हो सकती हैं। अवसर दुर्भाग्य मालूम हो सकते हैं, दुर्भाग्य अवसर बन सकते हैं।
हम कैसे लेते हैं,
हमारे
देखने की दृष्टि क्या है, हमारी
पकड़ क्या है,
जीवन
का कोण हमारा क्या है, हम
कैसे जीवन को लेते और देखते है?
आशा से
भरकर जीवन को देखें।
साधक
अगर निराशा से जीवन को देखेगा तो गति नहीं कर सकता है। आशा से भरकर जीवन को देखें।
अधैर्य से भरकर जीवन को देखेंगे, अपने
मन को,
तो
साधक एक-कदम आगे नहीं बढ़ सकता है। धैर्य से, अनंत धैर्य से जीवन को देखें। उतावलेपन में
जीवन को देखेंगे,
शीघ्रता
में, भागते हुए, तो साधक एक इंच आगे नहीं बढ़
सकता है।
प्रतीक्षा
से जीवन को देखें--अनंत प्रतीक्षा से जो आज नहीं हुआ, वह कल हो सकेगा; जो कल भी नहीं होगा, वह परसों हो सकेगा।
सकेगा--प्रतीक्षा और आशा! मनुष्य के जीवन में अज्ञात के रास्ते पर, जहां कोई माइल स्टोन नहीं लगे
हुए हैं,
जिनसे
पता चल सके कि हम कितना चल गये। जहां कोई भीड़ साथ नहीं चलती, जिससे आश्वासन मिल सके कि हम
कितना बढ़ गये। एकांत के रास्ते पर, अकेले के रास्ते पर मनुष्य प्रभु की तरफ
जाता है। वहां अनंत प्रतीक्षा उसके साथ न हो, धैर्य साथ न हो, आशा साथ न हो, जीवन को देखने का आनंदपूर्ण
दृष्टिकोण साथ न हो, प्रार्थनापूर्ण
मन साथ न हो तो फिर आगे बढ़ना बहुत कठिन है।
इस
संबंध में दोत्तीन बातें समझ लेनी चाहिए और फिर कुछ प्रश्न बच रहेंगे तो कल हम उन
पर बात करेंगे।
दोत्तीन
बातें समझने के बाद हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
मैंने
कहा, साधक के लिए आशापूर्ण दृष्टि
चाहिए। सामान्यतः हमारी दृष्टि बड़ी निराशापूर्ण है। हम चीजों को हमेशा अंधेरे हिस्से
की तरफ से देखते हैं। हमेशा हम वहां से देखते हैं, जहां चीजें दुखद, कष्टपूर्ण, प्रतिकूल प्रतीत होने लगती
हैं।
एक
आदमी एक अजनबी गांव में गया हुआ था। उसने जाकर गांव के भीतर पूछा कि मैं फलां युवक
को खोजने आया हूं। मैंने सुना है, वह
बहुत अच्छा बांसुरी बजाता है। जिस आदमी से उसने कहा था, उसने कहा, छोड़ो यह ख्याल, वह आदमी क्या बांसुरी बजायेगा? वह आदमी चोर है, बेईमान है, झूठा है। वह क्या बांसुरी
बजायेगा,
उस
जैसा चोर आदमी नहीं हैं हमारी बस्ती में!
तो
उसने कहा कि फिर मैं क्या पूछूं? मुझे
उसकी खोज करनी है। क्या मैं यह पूछूं कि तुम्हारी बस्ती में जो सबसे ज्यादा चोर है, वह कहां रहता है? उसने कहा, इसी तरह पूछोगे तो पता भी चल
सकता है।
उसने
दूसरे आदमी से जाकर पूछा कि इस गांव में फलां आदमी को खोजने आया हूं, जो बहुत बड़ा चोर है, बेईमान है, झूठ बोलने वाला है।
उस
आदमी ने कहा,
मैं
विश्वास भी नहीं कर सकता कि वह झूठ बोलता होगा, चोरी करता होगा। वह इतनी अच्छी बांसुरी
बजाता है!
एक
आदमी है,
जो
बांसुरी बजाता है। कोई देखता है कि बांसुरी इतनी अच्छी बजाता है तो कैसे चोरी कर
सकता होगा। कोई दूसरा देखता है कि चोर है, ऐसा बुरा चोर है तो कैसे बांसुरी बजाता
होगा।
हम
कैसे देखते हैं,
हम
कहां से देखते हैं? हम
जीवन में,
मनुष्य
में, परिस्थितियों में, घटनाओं में क्या खोजते हैं? हम कोई प्रकाश, उज्जवल पक्ष खोजते हैं या कोई
अंधकारपूर्ण बात?
हम
क्या खोजते है?
हम कोई
प्रकाश की किरण खोजते हैं या अंधकार की कोई धारा? हम जब फूलों के पास जाते हैं
तो कांटों की गिनती करते हैं या फूलों की? हम जब किसी मनुष्य के पास बैठते हैं तो हम
उसके भीतर क्या देखते हैं, कोई
प्रशंसा का द्वार या निंदा की कोई गंदी गली? हम क्या खोजते हैं? हमारी दृष्टि क्या है? और जो दृष्टि हमारी होगी, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हमारे भीतर उसी तरह
का भाव घनीभूत होता चला जाता है।
साधक
के लिए स्पष्ट रूप से बहुत आशावादी दृष्टि चाहिए। बहुत प्रकाशपूर्ण पक्ष को देखने
की सामर्थ्य चाहिए। प्रत्येक स्थिति में वह खोज सके कि शुभ क्या है। और घने से घने
कांटों के जंगल में वह एक फूल भी खोज सके कि यह फूल है तो उसका रास्ता निरंतर
कांटों से मुक्त होता चला जाता है। रोज-रोज उसे फूलों के और गहरे से गहरे मार्ग
मिलते जाते हैं।
हम जो
खोजते हैं,
वही
हमें मिल जाये तो आश्चर्य नहीं है। वही हमें मिल जाता है। हम क्या खोजने निकल पड़े
हैं, वही हमें मिल जाता है।
तो
थोड़ी अपनी परिस्थितियों पर विचार करना है। क्या उन परिस्थितियों में कोई भी
संभावना नहीं है शुभ की? क्या
उन परिस्थितियों में कोई भी अनुकूलता नहीं? उन परिस्थितियों में कोई भी मैत्री की
संभावना नहीं?
क्या
उन परिस्थितियों में कुछ भी नहीं है, जहां से द्वार खोला जा सके, दीवाल तोड़ी जा सके, रास्ता बनाया जा सके, दीया जलाया जा सके?
खोजेंगे
तो पायेंगे,
बहुत
कुछ है,
बहुत
कुछ है। नहीं खोजेंगे या गलत को खोजते रहेंगे, तो पायेंगे, कुछ भी नहीं है।
एक
आदमी के पैर में चोट लग गयी है। वह बहुत बेचैन, बहुत दुखी, परमात्मा की निंदा करता हुआ
है। एक मकान की एक बड़ी मंजिल में, न्यूयार्क
की एक लिफ्ट में सवारी कर रहा है, ऊपर जा
रहा है। जैसे ही लिफ्ट उठने लगी है, उसने देखा है कि लिफट पर एक और आदमी भी सवार
है। उसके दोनों पैर कटे हुए हैं, वह
कुर्सी पर बैठा हुआ है, हंस
रहा है और गीत गुनगुना रहा है। उसके पैर में जरा-सी चोट थी, वह परमात्मा के प्रति क्रोध
से भरा हुआ था। उसने उस आदमी से पूछा, मेरे दोस्त, तुम्हारे पास क्या है? तुम्हारे दोनों पैर कटे हुए
हैं और तुम गीत गुनगुना रहे हो और हंस रहे हो!
उस
आदमी ने कहा,
मेरी दोनों
आंखें शेष हैं,
मेरे
दोनों हाथ अभी शेष हैं। मैंने ऐसा आदमी भी देखा है, जिसके दोनों हाथ भी कट गये
थे। मैंने ऐसा आदमी भी देखा है,जिसकी
दोनों आंखें भी नहीं थीं। दोनों पैर ही गये तो क्या हुआ? अभी मेरे दोनों हाथ शेष हैं, मेरी दोनों आंखें शेष हैं, अभी और सब कुछ तो शेष हैं।
मैं दो पैर जो चले गये हैं, उनके
लिए भगवान के प्रति क्रोध प्रकट करूं या जो मेरे पास शेष है, उसके लिए धन्यवाद दूं? मैं क्या करूं?
जो
हमारे पास है,
उसके
लिए हम धन्यवाद दें या जो हमारे पास नहीं है, उसके लिए हम शिकायत करें?
मर्जी
है आदमी की,
जो चाहे
करे--चाहे शिकायत करे, चाहे
प्रशंसा करे,
कोई
कुछ कहने नहीं आयेगा। लेकिन दोनों हालतों में जमीन और आसमान का फर्क पड़ जायेगा और
उस फर्क से खुद को पीड़ा झेलनी पड़ेगी। शिकायत करने वाला मन धीरे-धीरे उदास हो जाता
है और निराश हो जाता है।
धन्यवाद
देने वाला मन धीरे-धीरे आनंद से भर जाता है, प्रफुल्लता से, आशा से।
जो आशा
से भर जाता है,
वह आगे
कदम उठा सकता है। जो निराशा से भर जाता है, उसके उठे हुए कदम भी पीछे लौटने लगते हैं।
तो मैं
आपको कहूंगा,
कि
परिस्थितियों में खोजें कि क्या वहां आशापूर्ण कोई भी संभावना नहीं है?
दूसरी
बात, क्या चौबीस घंटे में थोड़े से
क्षणों के लिए अपनी परिस्थितियों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता?
नींद
रोज मुक्त कर देती है, आपकी
सारी परिस्थितियां बाहर पड़ी रह जाती हैं। न आप गरीब रह जाते हैं, न अमीर रह जाते हैं। न आप
दुखी रह जाते हैं,
न आप
सुखी रह जाते हैं। नींद आपको कहीं ले जाती है, जहां आप परिस्थितियों के बाहर हो जाते हैं।
क्या
थोड़ी देर के लिए जानते-बूझते परिस्थितियों के बाहर नहीं हुआ जा सकता? और स्मरण रहे, जो आदमी अपनी परिस्थितियों के
बाहर थोड़े से क्षणों को भी सचेत रूप से हो जाता है, उसे यह पता चल जाता है कि वह
तो हमेशा--परिस्थितियां उसके आसपास आती हैं और गुजर जाती हैं--वह हमेशा
परिस्थितियों के बाहर है। वह परिस्थितियों के बाहर है।
एक
क्षण को भी परिस्थितियों का अतिक्रमण कर जाने पर पता चलता है कि मनुष्य की चेतना
हमेशा परिस्थितियों के बाहर है। सांझ आती है, सुबह आती है, सूरज निकलता है, रात आ जाती है। आदमी के आसपास
से सब गुजर जाता है और आदमी हमेशा अलग खड़ा रह जाता है।
जिस
दिन इस पृथकता का बोध होगा, जिस
दिन जीवन के बीच इस साक्षी का भाव उदय होगा कि मैं तो दूर खड़ा रह जाता हूं, धाराएं आती हैं और बह जाती
हैं, हवाएं आती हैं और गुजर जाती
हैं। धूप आती है,
शीत
आती है,
वर्षा
आती है,
गरमी
आती है,
और मैं
दूर खड़ा रह जाता हूं, मैं
पृथक, अलग खड़ा रह जाता हूं। कुछ भी
मुझे छूता नहीं,
कुछ भी
मेरे प्राणों को अतिक्रांत नहीं करता, कुछ भी मेरे भीतर जाकर बदलाहट नहीं करता।
मैं तो वहीं रह जाता हूं। चीजें आती हैं और बदल जाती हैं। जिस दिन यह एक क्षण को
भी खयाल होगा,
उसी
दिन जीवन भर के लिए स्थिति बन जाती है।
तो
थोड़ी देर परिस्थितियों के बाहर होने की क्षमता जुटानी चाहिए। परिस्थितियों के लिए
रोते रहने से कोई भी फल नहीं है।
ध्यान
का अर्थ इतना ही है कि हम परिस्थिति के बाहर जा रहे हैं थोड़ी देर को
ध्यान
का यही अर्थ हैं--परिस्थितियों के बाहर उठ जाना, दूर हट जाना, ऊपर उठ जाना, परिस्थितियों के पार खड़े हो
जाना।
जैसे
कोई हवाई जहाज पर ऊपर उड़ रहा हो। वृक्ष नीचे छूट जाते हैं, पहाड़ नीचे छूट जाते हैं, बादल नीचे छूट जाते हैं। ठीक
जैसे ही कोई ध्यान के शून्य में प्रवेश करता है, वैसे ही परिस्थितियां, घर-द्वार, पत्नी-बच्चे अर्थ-जीवन सब
पीछे छूट जाते हैं। चेतना एक नयी दिशा में उड़ान लेना शुरू कर देती है। और तब पता
चलता है कि जिन परिस्थितियों से हम घिरे थे, उनमें घिरे तो जरूर थे, लेकिन घिरे होकर भी हमेशा
बाहर थे। जैसे सूरज बादलों में घिर जाये, ठीक वैसे मनुष्य की चेतना परिस्थितियों में
घिरी है,
लेकिन
हमेशा बाहर है। हमेशा बाहर है। यह बाहर होने का अनुभव ध्यान से उपलब्ध होता है।
परिस्थितियों
को दोष न दें,
रास्ता
निकालें,
रास्ता
जरूर मिल जाता है। ऐसी कोई भी जगह नहीं है, जहां से प्रभु तक रास्ता न जाता हो। हो सकता
है थोड़ा पथरीला रास्ता हो; हो
सकता है थोड़ा ऊबड़-खाबड़ रास्ता हो। हो सकता है, थोड़ा टकराना पड़े, तोड़ना पड़े, दौड़ना पड़े, जीतना पड़े, लड़ना पड़े। लेकिन ऐसी कोई भी
जगह नहीं,
जहां
से उस तक रास्ता नहीं जाता है।
और मैं
अंत में यह भी कह देना चाहता हूं कि वे लोग जो थोड़े कठिन रास्तों से गुजरकर आते
हैं, उनकी उपलब्धियों का मजा ही और
है, उनके पा लेने का आनंद ही और
है। उनके जीत लेने की, उनके
विजय की कथा और गौरव की कथा ही और है। इसलिए घबरायें न। हो सकता है कठिन रास्तों
से गुजरकर आप और भी मधुमय स्रोतों तक पहुंच जायें।
जो
चलता ही चला जाता है, आशा और
प्रतीक्षा से भरा हुआ है, वह
अवश्य पहुंच जाता है।
अब
रात्रि के ध्यान के संबंध में थोड़ी-सी बात समझ लें। फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए
बैठेंगे।
रात्रि
के ध्यान के संबंध में दो बातें समझ लें। सुबह का ध्यान जागने के बाद करने के लिए
है। रात्रि का ध्यान सोने के पहले करने के लिए है।
रात
बहुत अदभुत अवसर और मौका है। अगर ठीक से ध्यान में प्रवेश होकर सो जाया जाये तो
पूरी रात धीरे-धीरे कुछ ही समय में ध्यान में परिवर्तित हो जाती है। अगर सोते
क्षणों में ध्यान में प्रविष्ट हो जाये चेतना तो फिर धीरे-धीरे पूरी रात, पूरी निद्रा ध्यान का हिस्सा
बन जाती है। यह शायद आपको खयाल न हो।
नींद
के अंतिम क्षण,
जब आप
सोते हैं,
तो
आखिरी क्षण हैं,
जब आप
नींद के दरवाजे में प्रविष्ट होते हैं, उस अंतिम क्षण में वह जो संक्रमण का क्षण है, वह जो बीच का द्वार है, जहां से जागना समाप्त होता है
और नींद शुरू होती हैं, उस
क्षण में आपके मन की जो दशा होती है, रात भर चेतना उसी दशा के आसपास घूमती रहती
है। अगर आप चिंता में सो गये हैं तो रात चिंता में व्यतीत हो जाती है। अगर आप
क्रोध में सो गये हैं तो रात के सपने क्रोध के आसपास घूमते रहते हैं। विद्यार्थी
जानते हैं कि पढ़ते-पढ़ते रात जब वे सो जाते हैं तो रात भर परीक्षा के आसपास घूमते
रहते हैं।
चित्त
जहां होता है नींद के पहले क्षण में, रात भर उसके आसपास न्युक्लियस बन जाता है, केंद्र बन जाता है, चित्त वहीं घूमता है।
और
सुबह भी जब आप उठते हैं तो आपने शायद कभी खयाल न किया हो, निरीक्षण न किया हो; करेंगे तो पता चल जायेगा कि
सुबह जो पहला क्षण होता है नींद के टूटने का, तो चित्त सबसे पहले उसी भाव को उपलब्ध हो
जाता है,
जो
सोते समय अंतिम भाव था, अंतिम
विचार था। उसी जगह आप फिर सुबह खड़े हो जाते हैं, जहां रात आप सोये थे।
इसलिए
रात्रि ध्यान में सो जाने का बहुत मूल्य है। अगर यह संभव हो जाये कि आप रोज रात्रि
में ध्यान में प्रवेश होकर सो जायें तो आपके पूरे जीवन में एक आमूल क्रांति होनी
शुरू हो जायेगी। सुबह आप बिलकुल नये आदमी की तरह उठेंगे और उठते ही ध्यान पहली बात
होगी, जो आपके स्मरण में आयेगी। और
रात के छह घंटे,
सात
घंटे, अगर शांत निद्रा में बीत
जायें,
आपके
चौबीस घंटे शांत हो जायेंगे, ताजे
हो जायेंगे,
नये हो
जायेंगे।
जो लोग
ध्यान के साथ निद्रा में गये हैं, जो लोग
जाते हैं,
वे
मुझे कहते हैं फिर कि ऐसी नींद हमने जीवन में कभी भी नहीं जानी। ध्यान के साथ नींद
संयुक्त हो जाये तो एक अभूतपूर्व घटना घट जाती है। यह रात्रि का ध्यान नींद के
पहले करने का है। अंतिम, बिस्तर
पर जब सो जायें,
सब काम
से निपट जायें,
अब कुछ
भी करने को शेष नहीं रहा, तब
पंद्रह मिनट के लिए इस ध्यान को करें। और ध्यान करने के बाद चुपचाप सो जायें, फिर उठें नहीं, फिर कुछ भी न करें। ध्यान के
बाद चुपचाप सो जायें, ताकि
ध्यान में जो धारा शुरू हो, वह
नींद में प्रविष्ट हो जाये, उसकी
अंडर करेंट पूरी नींद में प्रविष्ट हो जाये। इस प्रयोग को लेटकर ही करना है।
बिस्तर पर लेट जायें और इसको करें। प्रयोग करने में दोत्तीन बातें खयाल में लेनी
जरूरी हैं।
एक बात, सारे शरीर को शिथिल छोड़ देना
जरूरी है,
रिलेक्स
छोड़ देना जरूरी है। शरीर पर कोई तनाव न हो, बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर में कोई प्राण ही न
रहे हों। एक-एक अंग ढीला छोड़ दें, कोई
तनाव न रखें,
कोई
तनाव-खिंचाव शरीर पर न हो, बिलकुल
ढीला छोड़ दें,
और
आराम से लेट जायें। फिर आहिस्ता से आंख बंद कर लें। फिर शरीर की शिथिलता के लिए थोड़े
से सुझाव,
थोड़े-से
सजेशंस शरीर को दें। सिर्फ यह भाव थोड़ी देर करते रहें, एक-दो मिनट कि शरीर शिथिल हो
रहा है। यह भाव कि शरीर शिथिल हो रहा है। दोत्तीन मिनट करने से दस-पांच दिन में, यह आप पायेंगे, शरीर बिलकुल शिथिल हो जायेगा।
और जब
शरीर शिथिल होता है तो बाडीलेसनेस पैदा हो जाती है। जब शरीर बिलकुल शिथिल हो जाता
है तो अशरीरी भाव का अनुभव होता है। पता चलता है, शरीर है ही नहीं। शरीर का पता
तनाव के कारण चलता है, स्ट्रेन
के कारण चलता है। शिथिल शरीर का कोई पता नहीं चलता है।
आपको
पता होगा,
पैर
में कांटा गड़ जाये तो पैर का पता चलता है, सिर में दर्द हो तो सिर का पता चलता है। अगर
पैर में कांटा नहीं तो पैर का कोई पता नहीं चलता कि पैर है भी या नहीं। सिर में
दर्द न हो तो सिर का भी कोई पता नहीं चलता है कि सिर है या नहीं। जहां शरीर में
तनाव होता है,
वहीं
शरीर का बोध होता है।
स्वस्थ
आदमी का एक ही लक्षण है कि उसे शरीर का कहीं भी पता न चलता हो। हेल्थ का और कोई
लक्षण नहीं होता। बीमारी का पता चलता है, स्वास्थ्य का कोई पता नहीं चलता है।
ध्यान
के पहले शरीर को इतना शिथिल छोड़ देना कि उसका पता ही न चले। और एक पंद्रह दिन के
प्रयोग में,
और जो
लोग ठीक ईमानदारी से, सिंसियरिटी
से प्रयोग करें,
आज ही
हो सकता है। कि आज ही जब हम यहां प्रयोग करें तो आपको पता चले, जैसे शरीर समाप्त हो गया है, शरीर है ही नहीं। तो दो तीन
मिनट तक यह सुझाव देना है, शरीर
शिथिल हो रहा है।
फिर
श्वास को ढीला छोड़ देना है। रोकना नहीं है, शिथिल छोड़ देना हैं; जितनी जाये जाये, आये आये। और दोत्तीन मिनट तक
यह भाव करना है कि श्वास भी शांत हो रही है--शांत हो रही है, शांत हो रही है। भाव
करते-करते ही श्वास शांत हो जायेगी, बहुत अल्प आती-जाती मालूम पड़ेगी। थोड़े दिन
प्रयोग करने पर पता भी नहीं चलता है कि श्वास आ रही है कि नहीं आ रही है, इतनी शांत हो जाती है!
शरीर
शिथिल होता है तो श्वास अपने आप शांत होती हैं, श्वास शांत होती है तो विचार क्षीण हो जाते
हैं। फिर तीसरा सुझाव मन पर देना है कि विचार भी शांत हो रहे हैं।
ये तीन
सुझाव देने हैं। और सुबह जो हमने ध्यान किया था--चौथी बात वही है कि फिर चुपचाप
पड़े रह जाना है,
सुनते
रहना है--हवाओं को, दरख्तों
को, समुद्र को; कोई आवाज आती हो, आवाजों को। रास्ते पर लोग
निकलते होंगे,
वाहन
निकलते होंगे,
टैक्सी
चलती होगी,
ठेला
चलता होगा--सब चुपचाप सुनते रहना है।
तीन
बातें--शरीर,
श्वास
और विचार--इनको शांत छोड़ देना है। और फिर चुपचाप, जो सुबह हमने प्रयोग किया था, वही लेटकर करते रहना है। एक
दस मिनिट। फिर इसके बाद चुपचाप करवट लेकर सो जाना है।
यहां
तो हम प्रयोग को करेंगे, ताकि
आप समझ लें। फिर प्रयोग को जाकर अपने स्थान पर सोते समय करें और सो जायें। यहां तो
प्रयोग आप समझ लें, इसलिए
करना जरूरी है। और यहां परिणाम भी उसका बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है, वह उतना ही महत्वपूर्ण हो
सकता है,
जितनी
हमारी तैयारी,
जिज्ञासा, खोज, आकांक्षा हो।
तो अब
हम प्रयोग करेंगे। तो सब लोग इतने फासले पर हो जायें कि आप लेट सकें, फिर प्रकाश अलग कर दिया
जायेगा। और आपको मैं आज तो सुझाव दूंगा, ताकि आपको खयाल में आ जाये कि क्या सुझाव
देने हैं,
फिर
अपने कमरे पर जाकर आप प्रयोग को करें और सो जायें।
तो
अपने-अपने लिये जगह बना लें, थोड़े
फासले पर हट जायें। कोई किसी को छूता हुआ नहीं रहेगा और सब लोग लेट सकें, ऐसी अपनी जगह बना लें, चुपचाप बिना बातचीत किये।
हां
थोड़े हट जाये,
क्योंकि
लेटना पडेगा,
इसलिए
हट जायें।
बातचीत
बिलकुल भी न करें,
क्योंकि
बातचीत से कोई संबंध नहीं है। जरा भी बातचीत नहीं, किसी को भी बाधा न हो।
अपनी-अपनी जगह बना लें, कहीं
भी हट जायें।
हां, मैं मान लेता हूं कि आप जल्दी
जगह बना लें। बिलकुल अकेले में हो जायें और वहां आराम से लेट जायें, ताकि आप पूरा प्रयोग कर सकें
और गहरे जा सकें।
ठीक है, अपनी-अपनी जगह लेट जायें।
अपनी-अपनी जगह लेट जायें। १इस मौके का पूरा फायदा लें,
इस
अवसर का पूरा प्रयोग करें। इतनी अदभुत रात मिले, न मिले। इतना एकांत, ऐसा स्वर्ण अवसर आये, न आये।
बिलकुल
लेट जायें। आंख बंद कर लें, शरीर
ढीला छोड़ दें।
आंख
बंद कर लें,
शरीर
ढीला छोड़ दें
फिर
मैं सुझाव देता हूं, मेरे
साथ अनुभव करें। भाव के साथ ही परिणाम होने शुरू हो जायेंगे।
ठीक है
अनुभव करें,
शरीर
शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है। बिलकुल ढीला छोड़
दें, जैसे शरीर में कोई प्राण ही
नहीं है। शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा
रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है।
भाव
करें, शरीर शिथिल हो गया है। शरीर
बिलकुल शांत और शिथिल हो गया है। जैसे हो ही नहीं, जैसे शरीर का कोई अस्तित्व ही
न हो। हवायें हैं,
आकाश
है, वृक्ष है, लेकिन शरीर नहीं है। शरीर
बिलकुल शिथिल और शांत हो गया है।
श्वास
को भी धीमा छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है। श्वास भी बिलकुल धीमी छोड़ दें। श्वास
शांत हो रही है। श्वास शांत हो रही है। श्वास शांत हो रही है। श्वास शांत हो रही
है। श्वास शांत हो रही है। श्वास शांत हो रही है। श्वास शांत हो रही है
विचार
भी शांत हो रहे हैं। विचार शांत हो रहे हैं। विचार शांत हो रहे हैं। विचार शांत हो
रहे हैं। विचार शांत हो रहे हैं। विचार भी शांत हो गये हैं।
सब मौन
हो गया है। अब चुपचाप सुनते रहें--हवाओं को, आवाजों को, चुपचाप सुनते रहें
भीतर
धीरे-धीरे बिलकुल सन्नाटा हो जायेगा। रात जैसी बाहर शांत है, ठीक वैसा ही सब कुछ भीतर भी
शांत हो जायेगा। सुनें--शांत हवाओं को सुनते रहें। दस मिनिट तक चुपचाप सुनते रहें।
मन
शांत होता जा रहा है। धीरे-धीरे मन शांत होता जा रहा है। सब शांत होता जा रहा है।
भीतर एक सन्नाटा और शून्य आ जायेगा।
मन
शांत होता जा रहा है। सुनते रहें, चुपचाप
सुनते रहें। मन शांत होता जा रहा है। हवाएं रह जायेंगी, आप मिट जायेंगे। बिलकुल मिट
जायें,
सब
शांत होता जा रहा है
मन
शांत हो गया है। मन बिलकुल शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। हवाएं ही रह गयी
हैं, रात रह गयी है। आप बिलकुल
शांत हो गये हैं,
बिलकुल
मिट गये हैं। सुनते रहें, सुनते
रहें।
मन
शांत हो गया है। एक अपूर्व शांति भीतर उतर आयी है। सब शांत हो गया है। सब मौन हो
गया है। आप बिलकुल मिट गये हैं। आप हैं ही नहीं।
मन
बिलकुल शांत हो गया है। इस शांति को पहचाने। इस शांति को समझें। सब शांत हो गया
है।
इसी
शांति में रोज-रोज प्रवेश करना है। रोज और गहरे, और गहरे प्रवेश होना है। यही
शांति अंततः परमात्मा के मंदिर तक पहुंचायेगी।
अब
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। दो-चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत धीरे से आंख
खोलें। जैसी शांति भीतर है, वैसी
ही बाहर भी मालूम होगी। लेटे ही लेटे धीरे से आंख खोलें। बाहर भी सब शांत है।
बहुत
आहिस्ता से उठकर अपनी जगह बैठ जायें। किसी को बाधा न हो। आवाज न करें, चुपचाप उठकर बैठ जायें। जिससे
उठते न बने,
वह
दो-चार गहरी श्वास और ले। फिर धीरे-धीरे उठें और बैठ जायें।
एकदम
से उठते न बने तो थोड़ी देर लेटे रहें। आहिस्ता से उठें। उठकर चुपचाप बैठ जायें।
किसी को पड़ोस में बाधा न हो। धीरे से उठ आयें।
इस
प्रयोग को जाकर रात अभी बिस्तर पर करें, ताकि ताजा वह आपके खयाल में रहे। और फिर
प्रयोग को करने के बाद चुपचाप सो जायें। बैठक समाप्त हुई।
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