नेति-नेति
प्रवचन-छठवां
पहले
दिवस की चर्चा में जीवन के प्रति विस्मय-विमुग्ध भाव चाहिए, इस संबंध में थोड़ी-सी बात
मैंने आपसे कही थी। दूसरे दिन की चर्चा में जीवन के प्रति रस-विभोर भाव चाहिए, इस संबंध में थोड़ी-सी बातें
कहीं हैं। और आज तीसरी चर्चा में जीवन के प्रति प्रेम-निमग्न मन चाहिए, इस संबंध में कुछ आपसे
कहूंगा। प्रेम तीसरा सूत्र है।
ज्ञान
से जहां नहीं पहुंचता मनुष्य, वहां
प्रेम से पहुंच जाता है।
लेकिन
प्रेम का हमें कोई पता ही नहीं है। प्रेम के नाम से जो कुछ हम जानते हैं, वे सब झूठे सिक्के हैं। झूठे
सिक्के इतने ज्यादा प्रचलित हैं कि असली सिक्कों को पहचानना ही कठिन हो गया है।
प्रेम
शब्द जितना मिसअंडरस्टुड है, जितना
गलत समझा जाता है,
उतना
शायद मनुष्य की भाषा में कोई दूसरा शब्द नहीं! प्रेम के संबंध में जो गलत-समझी है, उसका ही विराट रूप इस जगत के
सारे उपद्रव,
हिंसा, कलह, द्वंद्व और संघर्ष हैं। प्रेम
की बात इसलिए थोड़ी ठीक से समझ लेनी जरूरी है।
जैसा
हम जीवन जीते हैं,
प्रत्येक
को यह अनुभव होता होगा कि शायद जीवन के केंद्र में प्रेम की आकांक्षा और प्रेम की
प्यास और प्रेम की प्रार्थना है। जीवन का केंद्र अगर खोजना हो, तो प्रेम के अतिरिक्त और कोई
केंद्र नहीं मिल सकता है।
समस्त
जीवन के केंद्र में एक ही प्यास है, एक ही प्रार्थना है, एक ही अभीप्सा है--वह अभीप्सा
प्रेम की है।
और वही
अभीप्सा असफल हो जाती हो तो जीवन व्यर्थ दिखायी पड़ने लगे--अर्थहीन, मीनिंगलेस, फस्ट्रेशन मालूम पड़े, विफलता मालूम पड़े, चिंता मालूम पड़े तो कोई
आश्चर्य नहीं है। जीवन की केंद्रीय प्यास ही सफल नहीं हो पाती है! न तो हम प्रेम
दे पाते हैं और न उपलब्ध कर पाते हैं। और प्रेम जब असफल रह जाता है, प्रेम का बीज जब अंकुरित नहीं
हो पाता,
तो
सारा जीवन व्यर्थ-व्यर्थ, असार-असार
मालूम होने लगता है।
जीवन
की असारता प्रेम की विफलता का फल है।
जब
प्रेम सफल होता है, तो
जीवन सार बन जाता है। प्रेम विफल होता है तो जीवन प्रयोजनहीन मालूम होने लगता है।
प्रेम सफल होता है, जीवन
एक सार्थक,
कृतार्थता
और धन्यता में परिणित हो जाता है।
लेकिन
यह प्रेम है क्या?
यह
प्रेम की अभीप्सा क्या है? यह
प्रेम की पागल प्यास क्या है? कौन-सी
बात है,
जो
प्रेम के नाम से हम चाहते हैं और नहीं उपलब्ध कर पाते हैं?
जीवन
भर प्रयास करते हैं? सारे
प्रयास प्रेम के आसपास ही होते हैं। युद्ध प्रेम के आसपास लड़े जाते हैं। धन प्रेम
के आसपास इकट्ठा किया जाता है। यश की सीढ़ियां प्रेम के लिए पार की जाती हैं।
संन्यास प्रेम के लिए लिया जाता है। घर-द्वार प्रेम के लिए बसाये जाते हैं और
प्रेम के लिए छोड़े जाते हैं।
जीवन
का समस्त क्रम प्रेम की गंगोत्री से निकलता है।
जो लोग
महत्वाकांक्षा की यात्रा करते हैं, पदों की यात्रा करते हैं, यश की कामना करते हैं, क्या आपको पता है, वे सारे लोग यश के माध्यम से
जो प्रेम से नहीं मिला है, उसे पा
लेने की कोशिश करते हैं! जो लोग धन की तिजोरियां भरते चले जाते हैं, अंबार लगाते जाते हैं, क्या आपको पता है, जो प्रेम से नहीं मिला, वह पैसे के संग्रह से पूरा
करना चाहते हैं! जो लोग बड़े युद्ध करते हैं और बड़े राज्य जीतते हैं, क्या आपको पता है, जिसे वे प्रेम में नहीं जीत
सके, उसे भूमि जीतकर पूरा करना
चाहते हैं!
शायद
आपको खयाल में न हो, लेकिन
मनुष्य-जीवन का सारा उपक्रम, सारा
श्रम, सारी दौड़, सारा संघर्ष अंतिम रूप से
प्रेम पर ही केंद्रित है। लेकिन यह प्रेम की अभीप्सा क्या है? पहले इसे हम समझें तो और बात
समझी जा सकेगी।
जैसा
मैंने कल कहा,
मनुष्य
का जन्म होता है,
मां से
टूट जाता है संबंध शरीर का। अलग एक इकाई अपनी यात्रा शुरू कर देती है। अकेली एक
इकाई जीवन के इस विराट जगत में अकेली यात्रा शुरू कर देती है! एक छोटी-सी बूंद
समुद्र से छलांग लगा गयी है और अनंत आकाश में छूट गयी है। एक छोटे-से रेत का कण तट
से उड़ गया है और हवाओं में भटक गया है। मां से व्यक्ति अलग होता है। एक बूंद टूट
गयी सागर से और अनंत आकाश में भटक गयी है। वह बूंद वापस सागर से जुड़ना चाहती है।
वह जो व्यक्ति है,
वह फिर
समष्टि के साथ एक होना चाहता है। वह जो अलग हो जाना है, वह जो पार्थक्य है, वह फिर से समाप्त होना चाहता
है।
प्रेम
की आकांक्षा--एक हो जाने की, समस्त
के साथ एक हो जाने की आकांक्षा है।
प्रेम
की आकांक्षा,
अद्वैत
की आकांक्षा है।
प्रेम
की एक ही प्यास है, एक हो
जाये सबसे;
जो है, समस्त से संयुक्त हो जाये।
जो
पार्थक्य है,
जो
व्यक्ति का अलग होना है, वही
पीड़ा है व्यक्ति की। जो व्यक्ति का सबसे दूर खड़े हो जाना है, वही दुख है, वही चिंता है। वापस बूंद सागर
के साथ एक होना चाहती है।
प्रेम
की आकांक्षा समस्त जीवन के साथ एक हो जाने की प्यास और प्रार्थना है। प्रेम का
मौलिक भाव एकता खोजना है।
लेकिन
जिन-जिन दिशाओं में हम यह एकता खोजते हैं, वहीं-वहीं असफल हो जाते हैं। जहां-जहां यह
एकता खोजी जाती है, वहीं-वहीं
असफल हो जाते हैं। शायद जिन मार्गों से हम एकता खोजते हैं, वे मार्ग ही अलग करने वाले
मार्ग हैं,
एक
करने वाले मार्ग नहीं। इसलिए प्रेम के नाम से झूठे सिक्के प्रचलित हो गये हैं।
मनुष्य
जो एकता खोजता है,
वह
शरीर के तल पर खोजता है। लेकिन शायद आपको पता नहीं, पदार्थ के तल पर जगत में कोई
भी एकता संभव नहीं है। शरीर के तल पर कोई भी एकता संभव नहीं है। पदार्थ अनिवार्य
रूप से एटामिक है,
आणविक
है और एक-एक अणु अलग-अलग है। दो अणु पास तो हो सकते हैं, लेकिन एक नहीं हो सकते। निकट
हो सकते हैं,
लेकिन
एक नहीं हो सकते। दो अणुओं के बीच अनिवार्य रूप से जगह शेष रह जायेगी, फासला, डिस्टेंस शेष रह जायेगा।
पदार्थ
की सत्ता एटामिक है, आणविक
है। प्रत्येक अणु दूसरे अणु से अलग है। हम लाख उपाय करें तो भी दो अणु एक नहीं हो
सकते। उनके बीच में फासला है, उनके
बीच में दूरी शेष रह ही जायेगी। ये हाथ हम कितने ही निकट ले आयें, ये हाथ हमें जुड़े हुए मालूम
पड़ते हैं,
लेकिन
ये हाथ फिर भी दूर हैं। इनके जोड़ में भी फासला है। इन दोनों हाथ में बीच में दूरी
है, वह दूरी समाप्त नहीं हो सकती।
प्रेम
में हम किसी को हृदय से लगा लेते हैं। दो देह पास आ जाती हैं, लेकिन दूरी बरकरार रहती है, दूरी मौजूद रह जाती है। इसलिए
हृदय से लगाकर भी किसी को पता चलता है कि हम अलग-अलग हैं, पास नहीं हो पाये हैं, एक नहीं हो पाये हैं। शरीर को
निकट लेने पर भी,
वह जो
एक होने की कामना थी, अतृप्त
रह जाती है। इसलिए शरीर के तल पर किये गये सारे प्रेम असफल हो जाते हों, तो आश्चर्य नहीं। प्रेमी पाता
है कि असफल हो गये। जिसके साथ एक होना चाहा था, वह पास तो आ गया; लेकिन एक नहीं हो पाये।
लेकिन
उसे यह नहीं दिखायी पड़ता कि यह शरीर की सीमा है कि शरीर के तल पर एक नहीं हुआ जा
सकता, पदार्थ के तल पर एक नहीं हुआ
जा सकता,
मैटर
के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता। यह स्वभाव है पदार्थ का कि वहां पार्थक्य होगा, दूरी होगी, फासला होगा।
लेकिन
प्रेमी को यह नहीं दिखायी पड़ता है! उसे तो यह दिखायी पड़ता है कि शायद जिसे मैंने
प्रेम किया है,
वह
मुझे ठीक से प्रेम नहीं कर पा रहा है, इसलिए दूरी रह गयी है। शरीर के तल पर एकता
खोजना नासमझी है,
यह उसे
नहीं दिखायी पड़ता! लेकिन दूसरा--प्रेमी दूसरी तरफ जो खड़ा है, जिससे उसने प्रेम की आकांक्षा
की थी,
वह
शायद प्रेम नहीं कर रहा है, इसलिए
एकता उपलब्ध नहीं हो पा रही। उसका क्रोध प्रेमी पर पैदा होता है, लेकिन दिशा ही गलत थी प्रेम
की, यह खयाल नहीं आता! इसलिए
दुनिया भर में प्रेमी एक-दूसरे पर क्रुद्ध दिखायी पड़ते हैं। पति-पत्नी एक-दूसरे पर
क्रुद्ध दिखायी पड़ते हैं!
सारे
जगत में प्रेमी एक-दूसरे के ऊपर क्रोध से भरे हुए हैं, क्योंकि वह आकांक्षा जो एक
होने की थी,
वह
विफल हो गयी है,
असफल
हो गयी है। और वे सोच रहे हैं कि दूसरे के कारण असफल हो गयी है! प्रत्येक यही सोच
रहा है कि दूसरे के कारण असफल हो गया हूं, इसलिए दूसरे पर क्रोध कर रहा है! लेकिन
मार्ग ही गलत था। प्रेम शरीर के तल पर नहीं खोजा जा सकता था, इसका स्मरण नहीं आता है।
इस
एकता की दौड़ में,
जिसे
हम प्रेम करते हैं, उसे हम
"पजेस'
करना
चाहते हैं,
उसके
हम पूरे मालिक हो जाना चाहते हैं! कहीं ऐसा न हो कि मालकियत कम रह जाये, पजेशन कम रह जाये तो एकता कम
रह जाये। इसलिए प्रेमी एक-दूसरे के मालिक हो जाना चाहते हैं। मुट्ठी पूरी कस लेना
चाहते हैं। दीवाल पूरी बना लेना चाहते हैं कि प्रेमी कहीं दूर न हो जाये, कहीं हट न जाये, कहीं दूसरे मार्ग पर न चला
जाये, किसी और के प्रेम में संलग्न
न हो जाये। तो प्रेमी एक-दूसरे को पजेस करना चाहते हैं, मालकियत करना चाहते हैं।
और
उन्हें पता नहीं कि प्रेम कभी मालिक नहीं होता। जितनी मालकियत की कोशिश होती है, उतना फासला बड़ा होता चला जाता
है, उतनी दूरी बढ़ती चली जाती है; क्योंकि प्रेम हिंसा नहीं है, मालकियत हिंसा है, मालकियत शत्रुता है। मालकियत
किसी की गर्दन को मुट्ठी में बांध लेना है। मालकियत जंजीर है।
लेकिन
प्रेम भयभीत होता है कि कहीं मेरा फासला बड़ा न हो जाये, इसलिए निकट, और निकट, और सब तरफ से सुरक्षित कर लूं
ताकि प्रेम का फासला नष्ट हो जाये, दूरी नष्ट हो जाये। जितनी यह चेष्टा चलती है
दूरी नष्ट करने की, दूरी
उतनी बड़ी होती चली जाती है। विफलता हाथ लगती है, दुख हाथ लगता है, चिंता हाथ लगती है।
फिर
आदमी सोचता है कि यह प्रेम शायद इस व्यक्ति से पूरा नहीं हो पाया है, इसलिए दूसरे व्यक्ति को
खोजूं। शायद यह व्यक्ति ही गलत है। तब आंखें दूसरे प्रेमियों की खोज में भटकती हैं, लेकिन बुनियादी गलती वहीं की
वहीं बनी रहती है। शरीर के तल पर एकता असंभव है, यह ख्याल नहीं आता! यह शरीर
और वह शरीर का सवाल नहीं है। सभी शरीर के तल पर एकता असंभव है।
आज तक
मनुष्य-जाति शरीर के तल पर एकता और प्रेम को खोजती रही है, इसलिए जगत में प्रेम जैसी
घटना घटित नहीं हो पायी।
जैसा
मैंने आपसे कहा,
यह जो
पजेशन और मालकियत की चेष्टा चलती है, स्वभावतः उसके आसपासर् ईष्या का जन्म होगा।
जहां
मालकियत है,
वहांर्
ईष्या है। जहां पजेशन है, वहां
जेलसी है।
इसलिए
प्रेम के फूल के आसपासर् ईष्या के बहुत कांटे, बहुत बागुड़ खड़े हो जाते हैं औरर् ईष्या की
आग के बीच प्रेम कुम्हला जाता हो, तो
आश्चर्य नहीं। वह जन्म भी नहीं पाता है कि जलना शुरू हो जाता है! जन्म भी नहीं हो
पाता कि चिता पर सवारी शुरू हो जाती है!
जैसे
किसी बच्चे को पैदा होते ही हमने चिता पर रख दिया हो, ऐसे ही प्रेमर् ईष्या की चिता
पर रोज चढ़ जाता है।र् ईष्या वहां पैदा होती है, जहां मालकियत हैं। जहां मैंने कहा, "मैं', "मेरा', वहां डर है कि कहीं कोई और
मालिक न हो जाये।र् ईष्या शुरू हो गयी, भय शुरू हो गया, घबराहट शुरू हो गयी, चिंता शुरू हो गयी, पहरेदारी शुरू हो गयी। और ये
सारे के सारे मिलकर प्रेम की हत्या कर देते हैं। प्रेम को किसी पहरे की कोई जरूरत
नहीं। प्रेम का,र् ईष्या से कोई नाता नहीं
है।
जहांर्
ईष्या है,
वहां
प्रेम संभव नहीं है। जहां प्रेम है, वहांर् ईष्या संभव नहीं है।
लेकिन
प्रेम है ही नहीं। प्रेम के किनारे जाकर आदमी की नौका टूट जाती है। जो नौका बननी
चाहिए थी,
जिस पर
हम यात्रा करते,
वह टूट
जाती है;
क्योंकि
हमने प्रेम को बिलकुल ही गलत प्रारंभ से शुरू किया है।
पहली
बात आपसे यह कहना चाहता हूं, पदार्थ
के तल पर कोई प्रेम संभव नहीं है। वह इम्पासीबिलिटी है। वह मेरी और आपकी असफलता
नहीं है,
वह
मनुष्य-जाति,
जीवन
के लिए,
असंभावना
है। पदार्थ के तल पर कोई एकता उपलब्ध नहीं हो सकती।
जब तक
यह एकता उपलब्ध नहीं होती, सब तरफ
चिंता और विफलता दिखायी पड़ती है, तो कुछ
शिक्षक यह कहने लगते हैं कि यह प्रेम ही गलत है, यह प्रेम की बात ही गलत है, प्रेम का विचार ही गलत है!
छोड़ो प्रेम के भाव को, उदासीन
हो जाओ! जीवन को उदासी से भर लो, जीवन
से प्रेम की सब जड़ें काट दो! यह दूसरी गलती है।
प्रेम
गलत दिशा में गया था, इसलिए
असफल हुआ है। प्रेम असफल नहीं हुआ, गलत दिशा असफल हुई है। लेकिन कुछ लोग इसका
अर्थ लेते हैं कि प्रेम असफल हो गया है!
तो
अप्रेम की शिक्षाएं हैं--अपने प्रेम को सिकोड़ लो, बंद कर लो, अपने से बाहर मत जाने दो!
अपने से बाहर तो बंधन बनेगा, मोह
बनेगा,
आसक्ति
बनेगा! अपने भीतर बंद कर लो! प्रेम को बाहर मत बहने दो! उदासीन जीवन के प्रति हो
जाओ! प्रेम की खोज ही बंद कर दो! एक यह दिशा पैदा होती है। यह विफलता का ही परिणाम
है, यह रिएक्शन है फस्ट्रेशन का।
प्रेम
की तरफ पीठ करके जाने वाले लोग उसी गलती में हैं, जिस गलती में प्रेम को शरीर
के तल पर खोजने वाले लोग थे।
दिशा
गलत थी,
प्रेम
की खोज गलत नहीं थी। लेकिन दिशा गलत है, यह नहीं दिखायी पड़ा! दिखायी पड़ा कि प्रेम की
खोज ही गलत है। तो प्रेम से उदासीन शिक्षकों का जन्म हुआ, जिन्होंने प्रेम की निंदा की, प्रेम को बुरा कहा, प्रेम को बंधन बताया, प्रेम को पाप कहा; ताकि व्यक्ति अपने में बंद हो
जाये। लेकिन उन्हें इस बात का पता न रहा कि व्यक्ति जब प्रेम की संभावना छोड़ देगा, तो उसके पास सिर्फ अहंकार की
संभावना शेष रह जाती है, और कुछ
भी शेष नहीं रह जाता।
प्रेम
अकेला तत्व है,
जो
अहंकार को तोड़ता है और मिटाता है। प्रेम अकेला रसायन है, जिसमें अहंकार गलता है और
पिघलता है और बह जाता है।
जो लोग
प्रेम से वंचित अपने को कर लेंगे, वे
सिर्फ ईगोइस्ट हो सकते हैं, सिर्फ
अहंकारी हो सकते हैं और कुछ भी नहीं। उनके पास अहंकार को गलाने और तोड़ने का कोई
उपाय न रहा,
कोई
मार्ग न रहा।
प्रेम
स्वयं के बाहर ले जाता है। प्रेम अकेला द्वार है, जिससे हम अपने बाहर निकलते
हैं और अनंत की यात्रा पर चरण रखते हैं। प्रेम जो अनन्य है, जो जगत है, जो जीवन है, उससे जोड़ता है।
लेकिन
जो प्रेम की यात्रा बंद कर देते हैं, वे टूटकर सिर्फ अपने "मैं' में, अपने अहंकार में, अपने ईगो में कैद हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं। एक तरफ विफल
प्रेमी हैं,
दूसरी
तरफ अहंकार से भरे हुए साधु और संन्यासी हैं! अहंकार इस बात की स्वीकृति है जैसा
मैंने कहा।
प्रेम
इस बात की खोज है कि मैं सबके साथ एकता खोज लूं, समष्टि के साथ एक हो जाऊं।
अहंकार इस बात का निर्णय है कि मैंने एकता खोजनी बंद कर दी।
"मैं' मैं हूं। मैं अलग ही रहूंगा।
मैं अपनी सत्ता से निश्चिंत हो गया हूं। मैंने मान लिया कि "मैं' मैं हूं। बूंद ने स्वीकार कर
लिया कि सागर से मिलना असंभव है या मिलने की कोई जरूरत नहीं है! यह बूंद जो अपने
में बंद हो गयी,
यह भी
आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकती। यह सिकुड़ गयी, बहुत छोटी हो गयी, बहुत क्षुद्र हो गयी।
अहंकार
क्षुद्र कर देता है, सिकोड़
देता है,
बहुत
छोटा बना देता है।
जहां
सीमा है,
वहां
अंत है,
वहां
मृत्यु है। जहां सीमा नहीं है, वह
अनंत है,
वहां
अमृत है। क्योंकि जहां सीमा नहीं, वहां
अंत नहीं,
वहां
मृत्यु नहीं।
अहंकारी
क्षुद्र के साथ जुड़ जाता है। अपने को अलग मानकर ठहर जाता है; रुक जाता है, पिघलने से, बह जाने से, मिट जाने से; सबके साथ एक हो जाने से अपने
को रोक लेता है!
मैंने
सुना है,
एक नदी
समुद्र की तरफ यात्रा कर रही थी, जैसे
कि सभी नदियां समुद्र की तरफ यात्रा करती हैं। भागी चली जा रही थी नदी समुद्र की
तरफ। कौन खींचे लिए जाता था?
मिलन
की कोई आशा,
एक हो
जाने की,
विराट
के साथ संयुक्त हो जाने की कोई कामना, किनारों को तोड़ देने की, सीमाओं को तोड़ देने की, तटहीन सागर के साथ एक हो जाने
की--कोई प्यास नदी को भगाये ले जा रही थी। नदियां भाग रही हैं। वह नदी भी भाग रही
थी--कोई प्रेम।
जैसे
प्रत्येक मनुष्य की चेतना भाग रही है, भाग रही है, अनंत के सागर के साथ एक होने
को, वैसी वह नदी भी भाग रही थी।
लेकिन बीच में आ गया मरुस्थल। बड़ा था मरुस्थल। नदी उसमें खोने लगी। नदी दौड़ने लगी
तेजी से--संघर्ष करने लगी! तोड़ देगी! उसने पहाड़ तोड़े थे, उसने घाट तोड़े थे, उसने मार्ग बनाये थे। वह इस
मरुस्थल में भी मार्ग बना लेगी। लेकिन महीनों बीत गये, सालों बीतने लगे, मार्ग नहीं बन पाया। नदी
मरुस्थल में खोती चली जाती है, रेत
उसे पीती चली जाती है! राह नहीं बनती। और तब नदी घबरायी और रोने लगी।
उस
मरुस्थल की रेत ने कहा, अगर
हमारी सुनो तो एक बात स्मरण रखो। मरुस्थल को केवल वे ही नदियां पार कर सकती हैं, जो हवाओं के साथ एक हो जाती
हैं, जो अपने को खो देती हैं और
हवाओं के साथ एक हो जाती हैं। जो अपने को मिटा देती हैं। जैसे ही वे अपने को
मिटाती हैं,
हवाएं
उन्हें अपने कंधों पर उठा लेती हैं और फिर मरुस्थल पार हो जाता है। मरुस्थल से
लड़कर कोई कभी पार नहीं होता। मरुस्थल के ऊपर उठकर पार होता है। बहुत नदियां आयी
हैं इस मरुस्थल को पार करने, वे खो
गयीं। केवल वे ही नदियां उठ पायी हैं, जिन्होंने अपने को खो दिया, भाप हो गयीं, हवाओं के कंधों पर उठ गयीं, मरुस्थल को पार गयीं।
लेकिन
वह नदी कहने लगी,
मैं
मिट जाऊंगी?
मैं
मिटना नहीं चाहती हूं। मैं बनी रहना चाहती हूं।
तो
सागर की रेत ने कहा कि अगर बनी रहना चाहोगी तो मिट जाओगी। और अगर मिट जाओगी, तो बनी भी रह सकती हो!
पता
नहीं, उस नदी ने उस सागर की रेत की
बात सुनी या नहीं। जरूर सुन ली होगी, क्योंकि नदियां आदमियों जैसी नासमझ नहीं
होतीं। वह सवार हो गयी होगी हवाओं के ऊपर। पार कर गयी होगी, बादल बन गयी होगी, उठ गयी होगी ऊपर, उसने नयी दिशा में यात्रा कर
ली होगी।
लेकिन
आदमी का अहंकार लड़-लड़ कर टूट जाता है, लेकिन मिटने को राजी नहीं होता। लड़ता है, टूटता है, लेकिन मिटने को राजी नहीं
होता! जितना लड़ता है, उतना
ही टूटता है,
उतना
ही नष्ट होता है। क्योंकि किससे हम लड़ रहे हैं? स्वयं की जड़ों से! किससे हम लड़ रहे हैं? स्वयं के ही विराट रूप से!
किससे हम लड़ रहे हैं? स्वयं
की ही सत्ता से! टूटेंगे, मिटेंगे, नष्ट होंगे--दुखी होंगे, पीड़ित होंगे, प्रेम से जो बचता है।
स्मरण
रहे, प्रेम, मैंने कहा, एक हो जाने की आकांक्षा है।
और एक वही हो सकता है, जो
मिटने को राजी हो।
एक वही
हो सकता है,
जो
मिटने को राजी हो।
जो
मिटने को राजी नहीं होता, उसके
लिए दूसरी दिशा खुल जाती है। वह अहंकार की दिशा है। तब वह अपने को बनाने को, मजबूत करने को, पुष्ट करने को, ज्यादा सख्त अपने आसपास दीवाल
उठाने को,
किला
बनाने को उत्सुक हो जाता है! अपने "मैं' को मजबूत करने की यात्रा में संलग्न हो जाता
है।
प्रेमी
असफल हो गये,
क्योंकि
शरीर के तल पर एकता खोजी। संन्यासी असफल हो जाते हैं, क्योंकि अहंकार के तल पर अलग
होने का निर्णय करते हैं। क्या कोई तीसरा मार्ग नहीं है?
उसी
तीसरे मार्ग की आपसे बात कहना चाहता हूं।
अहंकार
तो कोई मार्ग नहीं है। अहंकार तो दुख की दिशा है, अहंकार तो भ्रांति है।
"मैं'
जैसी
कोई चीज ही नहीं है भीतर, सिवाय
शब्द के। जब सब शब्द छूट जाते हैं और आदमी मौन होता है तो पाता है कि वहां कोई
"मैं'
नहीं
है।
कभी
मौन होकर देखें। कभी चुप होकर देखें, कभी शांत होकर देखें, वहां फिर कोई "मैं' नहीं पाया जाता। वहां कोई
"मैं'
नहीं
है। वहां एक्जिसटेंस है, वहां
सत्ता है,
अस्तित्व
है। लेकिन "मैं' नहीं
है।
"मैं' मनुष्य की ईजाद है। "मैं' मनुष्य का आविष्कार है।
बिलकुल झूठा। उतना ही झूठा, जैसे
हमारे नाम झूठे हैं। क्यों?
कोई
आदमी किसी नाम को लेकर पैदा नहीं होता। लेकिन जन्म के बाद हम नाम दे देते हैं, ताकि दूसरे लोग उसे पुकार
सकें, बुला सकें। नाम की उपयोगिता
है, युटिलिटी है, लेकिन नाम की कोई सत्ता नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। दूसरे लोग
नाम लेकर बुलाते हैं, मैं
खुद क्या कहकर अपने को बुलाऊं? मैं
अपने को "मैं' कहकर
बुलाता हूं। "मैं' खुद के
लिए, खुद को पुकारने के लिए दिया
गया नाम है। और नाम दूसरों को पुकारने के लिए दिये गये नाम हैं।
नाम भी
उतना ही असत्य है,
जितना
"मैं'
का भाव
असत्य है।
लेकिन
इसी "मैं'
को
हम--इसी "मैं' को
मजबूत करते चले जाते हैं! "मैं' को मोक्ष चाहिए, "मैं' को परमात्मा चाहिए --इसी
"मैं'
को सुख
चाहिए! लेकिन "मैं' को कुछ
भी नहीं मिल सकता है, क्योंकि
"मैं'
बिलकुल
झूठ है,
"मैं' असत्य है। जो असत्य है, उसे कुछ भी नहीं मिल सकता है।
"मैं' भी असफल हो जाता है और प्रेम
भी असफल हो जाता है। और दो ही दिशाएं है--एक प्रेम की दिशा है और एक अहंकार की
दिशा है। मनुष्य के जगत में दो मार्गों के अतिरिक्त कोई तीसरा मार्ग नहीं है--एक
"मैं'
का, एक प्रेम का।
प्रेम
असफल होता है,
क्योंकि
हम शरीर के तल पर खोजते हैं।
"मैं' असफल होता हैं, क्योंकि असत्य है।
तीसरा
क्या हो सकता है?
तीसरा
यह हो सकता है कि हम "मैं' की
सम्यक दिशा खोजें,
प्रेम
की सम्यक दिशा खोजें, और
"मैं'
की
असम्यक दिशा से बचें।
प्रेम
शरीर के तल पर नहीं, चेतना
के तल पर घटने वाली घटना है।
शरीर
के तल पर जब प्रेम को हम घटाने की कोशिश करते हैं, तो प्रेम आब्जेक्टिव हो जाता
है। कोई पात्र होता है प्रेम का, उसकी
तरफ हम प्रेम को बहाने की कोशिश करते हैं। वहां से प्रेम वापस लौट आता है, क्योंकि पात्र शरीर होता है, जो दिखायी पड़ता है, जो स्पर्श में आता है।
लेकिन
प्रेम को अगर आत्मिक घटना बनानी है, अगर प्रेम की कांशसनेस बनाना है, चेतना बनाना है तो प्रेम
आब्जेक्टिव नहीं रह जाता, सब्जेक्टिव
हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं, चित्त की एक दशा है, स्टेट आफ माइंड है।
बुद्ध
एक सुबह बैठे हैं और एक आदमी आ गया है। वह बहुत क्रोध में है। उसने बुद्ध को बहुत
गालियां दी हैं और फिर इतने क्रोध से भर गया है कि उसने बुद्ध के मुंह के ऊपर थूक
दिया है! बुद्ध ने अपने चादर से वह थूक पोंछ लिया और उससे कहा, मित्र, कुछ और कहना है?
भिक्षु
आनंद बुद्ध के पास बैठा है। वह क्रोध से भर गया है। और बुद्ध की यह बात सुनकर कि
वे कहते हैं कि कुछ और कहना है, वह और
हैरान हो गया है। और उसने कहा, "आप क्या कहते हैं? यह
आदमी थूक रहा है और आप पूछते हैं, कुछ और
कहना है!'
बुद्ध
ने कहा,
"मैं
समझ रहा हूं,
शायद
क्रोध इतना भारी हो गया है कि शब्द कहने में असमर्थ मालूम होते होंगे, इसलिए उसने थूककर कोई बात कही
है। मैं समझ गया हूं, उसने
कुछ कहा है। अब मैं पूछता हूं, और कुछ
कहना है?
वह
आदमी उठ गया है,
लौट
गया है। पछताया है, रात भर
सो नहीं सका है। दूसरे दिन सुबह क्षमा मांगने आया है। बुद्ध के चरणों में उसने सिर
रख दिया। सिर उठाया, बुद्ध
ने कहा,
और कुछ
कहना है?
वह
आदमी कहने लगा,
कल भी
आप यही कहते थे!
बुद्ध
ने कहा,
आज भी
वही कहता हूं। शायद कुछ कहना चाहते हो। शब्द कहने में असमर्थ थे, इसलिए सिर पैरों पर रखकर कह
दिया है। कल थूक कर कहा था। पूछता हूं, कुछ और कहना है?
वह
आदमी बोला,
कुछ और
नहीं, क्षमा मांगने आया हूं। रात भर
सो नहीं सका। मन में यह ख्याल हुआ, आज तक आपका प्रेम मिला मुझे, आज थूक आया हूं आपके ऊपर, अब शायद वह प्रेम मुझे नहीं
मिल सकेगा।
बुद्ध
खूब हंसने लगे और उन्होंने कहा, सुनते
हो आनंद,
यह
आदमी कैसी पागलपन की बातें कहता है! यह कहता है कि कल तक मुझे आपका प्रेम मिला और
कल मैंने थूक दिया तो अब प्रेम नहीं मिलेगा! तो शायद यह सोचता है कि यह मेरे ऊपर
नहीं थूकता था,
इसलिए
मैं इसे प्रेम करता था, जो
थूकने से प्रेम बंद हो जायेगा!
पागल
है तू! मैं प्रेम इसलिए करता हूं कि मैं प्रेम ही कर सकता हूं और कुछ नहीं कर सकता
हूं। तू थूके,
तू गाली
दे, तू पैरों पर सिर रखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।
मैं प्रेम ही कर सकता हूं। मेरे भीतर प्रेम का दीया जल गया। अब मेरे पास से जो भी
निकले,
उस पर
प्रेम पड़ेगा। कोई न निकले तो एकांत में प्रेम का दीया जलता रहेगा। अब इसका किसी से
कोई संबंध न रहा। अब यह कोई संबंध न रहा, यह मेरा स्वभाव हो गया है।
प्रेम
जब तक किसी से संबंध है, तब तक, आप शरीर के तल पर प्रेम खोज
रहे हैं,
जो
असफल हो जायेगा।
प्रेम
जब जीवन के भीतर,
स्वयं
के भीतर जला हुआ एक दीया बनता है--रिलेशनशिप नहीं, स्टेट आफ माइंड--जब किसी से
प्रेम एक संबंध नहीं है, बल्कि
मेरा प्रेम स्वभाव बनता है, तब, तब जीवन में प्रेम की घटना
घटती है।
तब
प्रेम का असली सिक्का हाथ में आता है। तब यह सवाल नहीं है कि किससे प्रेम, तब यह सवाल नहीं है कि किस
कारण प्रेम। तब प्रेम अकारण है, तब
प्रेम इससे-उससे नहीं है, तब
प्रेम है। कोई भी हो तो प्रेम के दीये का प्रकाश उस पर पड़ेगा। आदमी हो तो आदमी, वृक्ष हो तो वृक्ष, सागर हो तो सागर, चांद हो तो चांद, कोई न हो तो फिर एकांत में
प्रेम का दीया जलता रहेगा।
प्रेम
परमात्मा तक ले जाने का द्वार है। लेकिन जिस प्रेम को हम जानते हैं, वह सिर्फ नर्क तक ले जाने का
द्वार बनता है। जिस प्रेम को हम जानते हैं, वह पागलखानों तक ले जाने का द्वार बनता है।
जिस प्रेम को हम जानते हैं, वह कलह, द्वंद्व, संघर्ष, हिंसा, क्रोध, घृणा, इन सबका द्वार बनता है। वह
प्रेम झूठा है।
जिस
प्रेम की मैं बात कर रहा हूं, वह
प्रभु तक ले जाने का मार्ग बनता है, लेकिन वह प्रेम संबंध नहीं है। वह प्रेम
स्वयं के चित्त की दशा है, उसका
किसी से कोई नाता नहीं, आपसे
नाता है। इस प्रेम के संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी, और इस प्रेम को जगाने की दिशा
में कुछ स्मरणीय बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली
बात, जब तक आप प्रेम को एक संबंध
समझते रहेंगे,
एक
रिलेशनशिप,
तब तक
आप असली प्रेम को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। वह बात ही गलत है। वह प्रेम की परिभाषा
ही भ्रांति है।
जब तक
मां सोचती है कि बेटे से प्रेम, मित्र
सोचता है मित्र से प्रेम, पत्नी
सोचती है पति से प्रेम, भाई
सोचता है बहन से प्रेम, जब तक
संबंध की भाषा में कोई प्रेम को सोचता है, तब तक उसके जीवन में प्रेम का जन्म नहीं हो
सकता है।
संबंध
की भाषा में नहीं,
किससे
प्रेम नहीं;
मेरा
प्रेमपूर्ण होना है। मेरा प्रेमपूर्ण होना अकारण, असंबंधित, चौबीस घंटे मेरा प्रेमपूर्ण
होना है। किसी से बंधकर नहीं, किसी
से जुड़कर नहीं,
मेरा
अपने आपमें प्रेमपूर्ण होना हैं। यह प्रेम मेरा स्वभाव, मेरी श्वास बने। श्वास आये, जाये, ऐसा मेरा प्रेम--चौबीस घंटे
सोते, जागते, उठते हर हालत में। मेरा जीवन
प्रेम की भाव-दशा,
एक
लविंग एटिटयूड,
एक
सुगंध,
जैसे
फूल से सुगंध गिरती है।
किसके
लिए गिरती है?
राह से
जो निकलते हैं,
उनके
लिए? फूल को शायद पता भी न हो कि
कोई राह से निकलेगा। किसके लिए, जो फूल
को तोड़कर माला बना लेंगे और भगवान के चरणों में चढ़ा देंगे, उनके लिए? किसके लिए--फूल की सुगंध
किसके लिए गिरती है?
किसी के
लिए नहीं। फूल के अपने आनंद से गिरती है। फूल के अपने खिलने से गिरती है। फूल
खिलता है,
यह
उसका आनंद है। सुगंध बिखर जाती है।
दीये
से रोशनी बरसती है, किसके
लिए? कोई अंधेरे रास्ते पर न भटक
जाये इसलिए?
किसी
को रास्ते के गङ्ढे दिखायी पड़ जायें इसलिए?
दिखायी
पड़ जाते होंगे,
यह
दूसरी बात है;
लेकिन
दीये की रोशनी अपने लिए, अपने
आनंद से,
अपने
स्वभाव से,
गिरती
और बरसती है।
प्रेम
भी आपका स्वभाव बने--उठते, बैठते, सोते, जागते; अकेले में, भीड़ में, वह बरसता रहे फूल की सुगंध की
तरह, दीये की रोशनी की तरह, तो प्रेम प्रार्थना बन जाता
है, तो प्रेम प्रभु तक ले जाने का
मार्ग बन जाता है,
तो
प्रेम जोड़ देता है समस्त से, सबसे, अनंत से।
इसका
यह अर्थ नहीं है कि प्रेम तब संबंध नहीं बनेगा। वैसा प्रेम चौबीस घंटे संबंध बनेगा, लेकिन संबंधों पर सीमित नहीं
होगा। उसके प्राण संबंधों के ऊपर से आते होंगे। गहरे से आते होंगे। तब भी पत्नी
पत्नी होगी,
पति
पति होगा,
पिता
पिता होगा,
मां
मां होगी। तब भी बेटे पर प्रेम गिरेगा। लेकिन बेटे के कारण नहीं, मां के अपने प्रेम के कारण।
तब भी पत्नी का प्रेम चलेगा, बहेगा; लेकिन पति के कारण नहीं, अपने कारण। क्वालिटी भीतर
होगी, भीतर से आयेगी और बहेगा। बाहर
से कोई खींचेगा और बहेगा नहीं, भीतर
से आयेगा और बहेगा। वह अंतरभाव होगा, बाहर से खींचा गया नहीं।
अभी हम
सब बाहर से खींचे गये प्रेम पर जी रहे हैं, इसलिए वह प्रेम कलह बन जाता है। जो भी चीज
जबरदस्ती खींची गयी है, वह दुख
और पीड़ा बन जाती है। जो भीतर से स्पॉनटेनियस, सहज प्रकट हुई है, वह बात और हो जाती है। वह बात
ही और हो जाती है। तब जीवन बहुत प्रेमपूर्ण होगा, लेकिन प्रेम एक संबंध नहीं
होगा। साधक को स्मरण रखना है कि प्रेम उसकी चित्त दशा बने तो ही प्रभु के मार्ग पर, सत्य के मार्ग पर यात्रा की
जा सकती है,
तो ही
उसके मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
पहली
बात, संबंध में प्रेम के भाव को
भूल जायें। वह परिभाषा गलत है, वह
प्रेम को देखने का ढंग गलत है। जब कोई गलत ढंग गलत दिखायी पड़ जाये, तो फिर ठीक ढंग देखा जा सकता
है। तो पहली बात है, जो
"फाल्स लव'
है, वह जो झूठा प्रेम है, जो संबंध को प्रेम समझता है, उसकी व्यर्थता को समझ लें। वह
सिवाय असफलता के और चिंता के कहीं भी नहीं ले जायेगा।
फिर
दूसरी बात है। वह दूसरी बात यह है कि क्या आपके भीतर से प्रेम का जन्म हो सकता है? भीतर से! बाहर कोई भी न हो तो
भी? हो सकता है। जब भी प्रेम का
जन्म हुआ है तो वैसे ही हुआ है।
हमारे
भीतर वह छिपा है बीज, जो फूट
सकता है,
लेकिन
हमने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया! हम संबंध वाले प्रेम पर ही जीवन भर संघर्ष करते
रहे हैं। हमने कभी ध्यान नहीं दिया उसके--उसके पार भी कोई प्रेम की संभावना है, कोई रूप है। हम हमेशा रेत से
तेल निकालने की कोशिश करते रहे हैं। रेत से तो तेल नहीं निकला, निकल नहीं सकता था, लेकिन रेत से तेल निकालने में
हम भूल ही गये कि ऐसे बीज भी थे, जिनसे
तेल निकल सकता था।
हम सब
संबंध वाले प्रेम से जीवन को निकालने की कोशिश कर रहे हैं! वहां से नहीं निकला है, नहीं निकलेगा, लेकिन समय खोता है, शक्ति खोती है। और जहां से
निकल सकता था,
उस तरफ
ध्यान भी नहीं जाता है!
प्रेम
चित्त की एक दशा की तरह पैदा होता है। बस वैसा ही पैदा होता है। जब भी होता है, वैसा ही पैदा होता है। उसे
कैसे पैदा करें,
वह
कैसे जन्म ले ले,
वह बीज
कैसे टूट जाये और अंकुरित हो जाये? तीन बातें, तीन सूत्र इस संबंध में स्मरण
रख लेने चाहिए।
पहली
बात, जब अकेले में हों तब--तब भीतर
खोज करें,
क्या
मैं प्रेमपूर्ण हो सकता हूं? जब कोई
न हो, तब खोज करें, क्या मैं प्रेमपूर्ण हो सकता
हूं? क्या अकेले में लविंग--क्या
अकेले में,
एकांत
में भी आंखें ऐसी हो सकती हैं, जैसे
प्रेम-पात्र मौजूद हो? क्या
अकेले में,
शून्य
में, एकांत में, खाली में भी मेरे प्राणों से
प्रेम की धाराएं उस रिक्त स्थान को भर सकती हैं, जहां कोई नहीं, कोई पात्र नहीं, कोई आब्जेक्ट नहीं? क्या वहां भी प्रेम मुझसे बह
सकता है?
इसको
ही मैं प्रार्थना कहता हूं। उसको नहीं प्रार्थना कहता कि हाथ जोड़े मंदिरों में
बैठे हैं!
एकांत
में जो प्रेम को बहाने में सफल हो रहा है, कोशिश कर रहा है, वह प्रार्थना में है, वह प्रेयरफुल मूड में है।
तो
अकेले में बैठकर देखें कि क्या मैं प्रेमपूर्ण हो सकता हूं? लोगों के साथ प्रेमपूर्ण होकर
बहुत देख लिया होगा आपने। अब अकेले में थोड़ी खोज करें, क्या मैं प्रेमपूर्ण हो सकता
हूं?
पहला
सूत्र,
एकांत
में प्रेमपूर्ण होने का प्रयोग करें, खोजें, टटोलें अपने भीतर। हो जायेगा, होता है, हो सकता है। जरा भी कठिनाई
नहीं है। कभी प्रयोग ही नहीं किया उस दिशा में, इसलिए ख्याल में बात नहीं आ पायी है।
निर्जन
में भी फूल खिलते हैं और सुगंध फैला देते हैं।
निर्जन
में, एकांत में प्रेम की सुगंध को
पकड़ें। जब एक बार एकांत में प्रेम की सुगंध पकड़ जायेगी तो आपको खयाल आ जायेगा कि
प्रेम कोई रिलेशनशिप नहीं, कोई
संबंध नहीं।
प्रेम
स्टेट आफ माइंड है, स्टेट
आफ कांशसनेस है,
चेतना
की एक अवस्था है।
दूसरी
बात, दूसरा सूत्र, मनुष्य इतर जगत में प्रेम का
प्रयोग करें। एक पत्थर को भी हाथ में उठायें तो ऐसे, जैसे किसी को प्रेम कर रहे
हों। एक पहाड़ को भी देखें तो ऐसे, जैसे
अपने प्रेमी को देख रहे हों। मनुष्य इतर जगत में दूसरा। पहला एकांत में, दूसरा मनुष्य जगत में। पत्थर
को, रेत को, सागर को देखें तो ऐसे, जैसे प्रेमी को। प्रेम बहा
चला जाये,
आंखें
खो जायें। कुर्सी को भी छुएं, भोजन
की थाली को भी उठाएं तो ऐसे जैसे प्रेमी को स्पर्श कर रहे हों।
मनुष्य
इतर जगत में क्यों? क्योंकि
मनुष्य को जब भी आप प्रेम करते हैं, तो वहां से उत्तर आता है। उत्तर आया कि
रिलेशनशिप खड़ी हो जाती है, संबंध
खड़ा हो जाता है। पत्थर को छुएंगे तो कोई उत्तर नहीं आयेगा। सागर को देखेंगे प्रेम
से तो सागर कोई उत्तर नहीं देगा, आपके
गले में बांहें नहीं डाल देगा और कहेगा, मैं भी आपको प्रेम करता हूं। कोई उत्तर नहीं
आयेगा,
प्रेम
निरुत्तर छूट जायेगा। उस तरफ से कोई जवाब नहीं आने वाला है। आप प्रेम करेंगे और प्रेम
छूट जायेगा।
जवाब
की आकांक्षा के कारण प्रेम मुक्त नहीं हो पाता, संबंध बना रहता है। एक व्यक्ति को मैं प्रेम
करता हूं,
फिर
मैं अपेक्षा करता हूं, उत्तर
आना चाहिए। जब उत्तर नहीं आता है तो फ्रस्ट्रेशन आता है, दुख आता है, पीड़ा आती है, चिंता आती है।
निरुत्तर
प्रेम की संभावना बढ़नी चाहिए। लेकिन निरुत्तर प्रेम की पहली संभावना मनुष्य को
छोड़कर ही हो सकती है। मनुष्य के साथ एकदम प्रयोग करना आसान नहीं है। वृक्षों के
साथ हो सकती है,
पत्थरों
के साथ हो सकती है। सागरों के साथ हो सकती है। इसलिए प्रकृति में जो कुछ भी है, उस पर प्रेम को भेजें। वहां
अपेक्षा नहीं,
वहां
एक्सपेक्टेशन नहीं हो सकता है कि आप राह देखेंगे, उत्तर आयेगा। उत्तर न आयेगा, आपका प्रेम ही जायेगा। और
आपको पहली दफा पता चलेगा, उत्तर
के लिए नहीं है प्रेम।
प्रेम
दान है,
मांग
नहीं। प्रेम देना है, लौटाना
नहीं।
प्रेम
का आनंद दे देने में है, प्रेम
का आनंद पा लेने में नहीं।
यह
दूसरा सूत्र जब स्पष्ट हो जायेगा कि प्रेम दान है, मांग नहीं। कोई उत्तर की
अपेक्षा नहीं है,
कोई
रिस्पांस की जरूरत नहीं है। हमने दे दिया और सागर ने स्वीकार कर लिया तो धन्यवाद
है सागर का। और पत्थर ने स्वीकार कर लिया है तो धन्यवाद है पत्थर का। लौटते उत्तर
का कोई सवाल नहीं है। तो यह दूसरा सूत्र स्पष्ट करेगा आपके भीतर उस संभावना को कि
प्रेम एक चित्त की दशा है, उत्तर
नहीं है। तो कोई संबंध नहीं बनता है।
फिर
तीसरी बात--पहला एकांत, दूसरा
मनुष्य इतर जगत,
तीसरा
असंबंधित मनुष्यता।
जिनसे
आप संबंधित हैं,
उन पर
नहीं; जिनसे आप बिलकुल असंबंधित हैं, जिनसे कुछ लेना-देना
नहीं--राह चलते लोग, ट्रेन
में बैठे हुए लोग,
बस में
बैठे हुए लोग,
जिनसे
कोई संबंध नहीं है, जिनसे
कोई नाता नहीं है,
उनके
प्रति प्रेम। पड़ोस में कोई आपके बैठ गया है बस में आकर, उसके प्रति प्रेम--अपरिचित के, अनजान के, स्ट्रेंजर के प्रति।
तीसरे
सूत्र में,
अजनबी
के प्रति प्रेम। क्योंकि अजनबी के प्रति प्रेम, एक बात ही और है। परिचित के प्रति प्रेम बात
और है।
परिचित
के प्रति प्रेम अपेक्षाओं से भरा है, संबंधों से भरा है। उसने कल कुछ किया था, उसके कारण प्रेम है, वह कल कुछ करेगा, इस कारण प्रेम है। उनका--उस
प्रेम के पीछे लाभ-हानियां जुड़ी हैं, उस प्रेम के पीछे याददाश्तें जुड़ी हैं, अतीत जुड़ा है, भविष्य जुड़ा है। अजनबी से कोई
संबंध नहीं है कल का, आने
वाले कल का भी कोई संबंध नहीं है। उससे प्रेम निपट प्रेम है। उसके आगे-पीछे कोई
लाभ-हानि नहीं है,
कोई
उपाय नहीं है,
कोई
मार्ग नहीं है। उसे हम जानते भी नहीं हैं, वह कहां विराट जगत में कल खो जायेगा, कुछ पता नहीं है।
अजनबी
के प्रति प्रेम,
असंबंधित
मनुष्यता के प्रति प्रेम, तीसरा
सूत्र है। अगर आपको अपने भीतर उस प्रेम को पैदा कर लेना है, जिसे मैं स्टेट आफ माइंड कह
रहा हूं,
जिसे
मैं चित्त की दशा कह रहा हूं। तो ये तीन सूत्र हैं।
और जब
आप पत्थरों को प्रेम कर पायेंगे, सागर
को प्रेम कर पायेंगे, एकांत
को प्रेम कर पायेंगे, अजनबी
को प्रेम कर पायेंगे, तो जो
निकट है,
जो
संबंधित है,
उसे
प्रेम नहीं कर पायेंगे? उसे तो
प्रेम कर ही पायेंगे, वह तो
सहज बह जायेगा। ये तीन की तैयारी हो तो उसे तो प्रेम कर ही पायेंगे, उसे तो बहुत प्रेम उपलब्ध हो
जायेगा।
लेकिन
उसके प्रेम में भी क्रांतिकारी फर्क हो जायेगा, क्योंकि जिसने पत्थरों को प्रेम किया, जिसने एकांत को प्रेम किया, जिसने अजनबियों को प्रेम किया, उसके प्रेम की क्वालिटी, उसके प्रेम का गुण बदल
जायेगा। वह संबंधित को-- मां बेटे को प्रेम करेगी तो भी ऐसे जैसे एकांत को करती हो, ऐसे जैसे पत्थर को करती हो, उत्तर की कोई अपेक्षा नहीं।
ऐसे जैसे अजनबी को करती हो, जो कल
भटक जायेगा तो कोई पीड़ा नहीं छोड़ जायेगा। तब पत्नी पति को प्रेम करेगी, पति पत्नी को प्रेम करेगा, लेकिन उस प्रेम की क्वालिटी, उस प्रेम का गुण-धर्म बदल
जायेगा। उस प्रेम में कोई अपेक्षा नहीं, कोई मांग नहीं, कोईर् ईष्या नहीं, कोई द्वेष नहीं,कोई कलह नहीं, कोई छीना-झपटी नहीं। वह प्रेम
तब एक सहज दान हो जाता है, और यह
सहज दान जितना बढ़ता चला जाये, जितना
बढ़ता चला जाये,
उतना
ही व्यक्ति का अहंकार नष्ट हो जाता है, विलीन हो जाता है।
प्रेम
अहंकार की मृत्यु है।
प्रेम
अहंकार की मृत्यु है--और जहां अहंकार नहीं, वहां हम हो गये एक समस्त से, वहां हम जुड़ गये विराट से, वहां परमात्मा से मिलन हो
गया। उस मिलन की प्यास है, उस
मिलन की दौड़ है,
उस
मिलन की आकांक्षा है। बूंद सागर से टूट गयी--सागर होना चाहती है। रेत का एक कण
हवाओं में उड़ गया--अपने तट पर वापस लौट आना चाहता है। ऐसे ही एक-एक मनुष्य का
व्यक्तित्व वापस लौट आना चाहता है प्रभु के सागर में।
हमने
अब तक जो उपाय किये हैं, वे सब
उपाय गलत साबित हुए हैं। या तो हमने झूठे प्रेम का उपाय किया है, या हमने अहंकार का उपाय किया
है। वे दोनों उपाय व्यर्थ हैं।
सम्यक
प्रेम,
राइट
लव, क्या होगा--उस दिशा में मैंने
तीन सूत्र कहे हैं। इनका प्रयोग करें, ताकि आपके भीतर वह प्रेम जन्म पा सके, जो आपका है, जो आपका स्वभाव है, जो आपकी श्वास-श्वास है। तब
आप जो भी छुयेंगे,
तब आप
जो भी देखेंगे,
तब आप
जो भी सुनेंगे,
वह सभी
प्रेम-पात्र,
वह सभी
प्रीतम बन जायेगा,
वह सभी
बिलवेड बन जायेगा। और जिस दिन सारा जीवन प्रीतम बन जाता है, उस दिन मनुष्य प्रभु के मंदिर
में प्रविष्ट होता है, उसके
पहले नहीं। उसके पहले नहीं, उसके
पहले कभी नहीं। जिस दिन सारा जीवन प्रीतम बन जाता है, उस दिन सारी खबरें उसकी ही
खबरें हो जाती हैं।
लेकिन
यह कोई आसमान से नहीं घट जायेगी घटना। यह प्रत्येक को अपने भीतर पात्रता, प्रत्येक को अपने भीतर द्वार, प्रत्येक को अपने भीतर एक
ओपनिंग,
प्रत्येक
को अपने भीतर के फूल को खिला लेना है, तो यह घटना घट सकती है। यह तीसरा सूत्र है।
चित्त
को विस्मय से भरें, जीवन
के रस में तल्लीन हों और आत्मा को प्रेमपूर्ण करें। फिर इन तीन सीढ़ियों को पार
करें और देखें कि क्या हो जाता है? अनंत संपदा है मनुष्य को पाने के लिए। अनंत
आनंद उसे उपलब्ध हो सकता है। लेकिन हम व्यर्थ ही जीते और नष्ट हो जाते हैं!
एक
छोटी-सी घटना अपनी बात मैं पूरी करूं। फिर हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक
राजधानी में एक भिखारी एक सड़क के किनारे बैठकर बीस-पच्चीस वर्षों तक भीख मांगता
रहा। फिर मौत आ गयी, फिर मर
गया। जीवन भर यही कामना की कि मैं भी सम्राट हो जाऊं। कौन भिखारी ऐसा है, जो सम्राट होने की कामना नहीं
करता? जीवन भर हाथ फैलाये खड़ा रहा
रास्तों पर।
लेकिन
हाथ फैलाकर,
एक-एक
पैसा मांगकर कभी कोई सम्राट हुआ है? मांगने वाला कभी सम्राट हुआ है? मांगते की आदत जितनी बढ़ती है, उतना ही बड़ा भिखारी हो जाता
है। सम्राट कैसे हो जायेगा? तो
पच्चीस वर्ष पहले छोटा भिखारी था, पच्चीस
वर्ष बाद पूरे नगर में प्रसिद्ध भिखारी हो गया था, लेकिन सम्राट नहीं हुआ था।
फिर मौत आ गयी। मौत कोई फिक्र नहीं करती। सम्राटों को भी आ जाती है, भिखारियों को भी आ जाती है।
और सच्चाई शायद यही है कि सम्राट थोड़े बड़े भिखारी होते हैं, भिखारी जरा छोटे सम्राट होते
हैं। और क्या फर्क होता होगा!
वह मर
गया भिखारी तो गांव के लोगों ने उसकी लाश को उठाकर फिंकवा दिया। फिर उन्हें लगा कि
पच्चीस वर्ष एक ही जगह बैठकर भीख मांगता रहा। सब जगह गंदी हो गयी। गंदे चीथड़े फैला
दिये हैं। टीन-टप्पर, बर्तन-भांडे
फैला दिये हैं। सब फिंकवा दिया। फिर किसी को ख्याल आया कि पच्चीस वर्ष में जमीन भी
गंदी कर दी होगी। थोड़ी जमीन भी उखाड़कर थोड़ी मिट्टी भी साफ कर दें। ऐसा ही सब
व्यवहार करते हैं,
मर गये
आदमी के साथ। भिखारियों के साथ ही करते हों, ऐसा नहीं। जिनको प्रेमी कहते हैं, उनके साथ भी यही व्यवहार होता
है। उखाड़ दी,
थोड़ी
मिट्टी भी खोद डाली।
मिट्टी
खोदी तो नगर दंग रह गया। भीड़ लग गयी। सारा नगर वहां इकट्ठा हो गया। वह भिखारी जिस
जगह बैठा था,
वहां
बड़े खजाने गड़े हुए थे। सब कहने लगे, कैसा पागल था! मर गया पागल, भीख मांगते-मांगते! जिस जमीन
पर बैठा था,
वहां
बड़े हंडे गड़े हुए थे, जिनमें
बहुमूल्य हीरे-जवाहरात थे, स्वर्ण
अशर्फियां थीं! वह सम्राट हो सकता था, लेकिन उसने वह जमीन न खोदी, जिस पर वह बैठा हुआ था! वह उन
लोगों की तरफ हाथ पसारे रहा, जो खुद
ही भिखारी थे,
जो खुद
ही दूसरों से मांग-मांगकर ला रहे थे! वे भी अपनी जमीन नहीं खोदे होंगे। उसने भी
अपनी जमीन नहीं खोदी! फिर गांव के लोग कहने लगे, बड़ा अभागा था!
मैं भी
उस गांव में गया था। मैं भी उस भीड़ में खड़ा था। मैंने लोगों से कहा, उस अभागे की फिक्र छोड़ो। दौड़ो
अपने घर,
अपनी
जमीन तुम खोदो। कहीं वहां कोई खजाना तो नहीं? पता नहीं, उस गांव के लोगों ने सुना कि
नहीं! आपसे भी यही कहता हूं--अपनी जमीन खोदो, जहां खड़े हैं, वहीं खोद लें। कहता हूं, वहां खजाना हमेशा है!
लेकिन
हम सब भिखारी हैं और कहीं मांग रहे हैं! प्रेम के बड़े खजाने भीतर हैं, लेकिन हम दूसरों से मांग रहे
हैं कि हमें प्रेम दो! पत्नी पति से मांग रही है, मित्र-मित्र से मांग रहा है
कि हमें प्रेम दो! जिनके पास खुद ही नहीं है, वे खुद दूसरों से मांग रहे हैं, कि हमें प्रेम दो! हम उनसे
मांग रहे हैं! भिखारी भिखारियों से मांग रहे हैं! इसलिए दुनिया बड़ी बुरी हो गयी
है। लेकिन अपनी जमीन पर, जहां
हम खड़े हैं,
कोई
खोदने की फिक्र नहीं करता!
वह
कैसे खोदा जा सकता है, वह
थोड़ी-सी बात मैंने कही हैं। वहां खोदें, वहां बहुत खजाना है और प्रेम का खजाना
खोदते-खोदते ही एक दिन आदमी परमात्मा के खजाने तक पहुंच जाता है। और कोई रास्ता न
कभी था,
न है, और न हो सकता है। यह तीसरे
सूत्र की बात पूरी हुई।
अब हम
सब सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। सुबह के ध्यान में बैठने के पहले एक बात और आपसे
कह देनी है। दोपहर साढ़े तीन से साढ़े चार तीन दिन तक हमने बातचीत की शब्दों से।
मैंने आपसे कुछ कहा; किसी
ने सुना होगा,
किसी
ने नहीं सुना होगा; किसी
ने सुनकर भी समझ लिया होगा, किसी
ने सुनकर भी नहीं समझा होगा। शब्दों की अपनी सीमा है, अपना सामर्थ्य है। शब्द उसे
कहने में असमर्थ हैं, जो
दिखायी पड़ता है,
जो
अनुभव होता है। इशारे भर किये जा सकते हैं। इशारे चूक भी सकते हैं।
तो
दोपहर आज बिना शब्द के थोड़ी देर बात करेंगे। दोपहर आज थोड़ा "साइलेंट
कम्युनिकेशन'
के लिए, थोड़ा मौन-संभाषण के लिए
बैठेंगे। साढ़े तीन बजे आकर मैं यहां बैठ जाऊंगा। आप भी चुपचाप आकर बैठ जायेंगे।
घंटे भर कोई बात नहीं होगी। बस चुपचाप बैठेंगे। कोई बातचीत नहीं होगी।
ऐसे
बातचीत मैं करूंगा, अगर आप
तैयार रहें तो शायद कुछ आपको सुनायी पड़े, कुछ पता चले। लेकिन शब्दों से कोई बात न
होगी। एक घंटा चुपचाप यहां बैठे रहना है। जैसी आपकी मौज हो--बैठ जाना है। किसी को
लेटना हो,
लेट
जाना; किसी को वृक्ष से टिकना हो, टिक जाना। आंख बंद रखनी हो, बंद रख लेना; खुली रखनी हो, खुली रखना। बस, एक भी बात नहीं होगी। आपस में
भी नहीं कोई बात होगी। मुझसे भी कोई बात नहीं होगी। चुपचाप यहां आपके पास बैठूंगा।
घंटे भर देखें। शायद चुपचाप होने में कुछ आपको सुनायी पड़े, कोई संबंध हो जाये।
जीवन
के सब संबंध मौन में होते हैं।
शब्द
तोड़ते हैं,
मौन
जोड़ता है।
तो इस
प्रयोग को यहां आज आखिरी दिन है, फिर आप
विदा हो जायेंगे,
इसलिए
घंटे भर मौन में बैठेंगे, एक मौन
संभाषण के लिए।
तैयारी
चाहिए मौन के लिए थोड़ी। तो साढ़े तीन बजे यहां आयेंगे। ढाई बजे से आप थोड़ी वहां
तैयारी करना। ढाई बजे से ही थोड़ा चुपचाप हो जाना शुरू कर देना, क्योंकि विचार का मूमेंटम
होता है। एक चका को हम चला दें, फिर
छोड़ दें तो भी पंद्रह-बीस मिनिट तक वह चका चलता चला जाता है, चलता चला जाता है। ढाई बजे से
आप शिथिल छोड़ देना बात करने को, तो
शायद साढ़े तीन बजे तक थोड़ी चुप्पी आ पाये। तो उसकी थोड़ी तैयारी करना।
अच्छा
हो कि स्नान करके आयें, साढ़े
तीन बजे जब यहां आयें, ताजे
वस्त्र पहनकर आयें, ताकि
एक बिलकुल नयी दिशा में गति हो सके। फिर वहां से आयें तो रास्ते में भी बात करते
हुए न आयें। यहां भी कोई बात न करे। ऐसा ही समझें कि आप अकेले आ गये हैं। किसी की
फिक्र न करें कि कौन है, कौन
नहीं है। चुपचाप बैठते चले जायें।
एक
घंटे के लिए हम बैठेंगे। उसकी तैयारी करके आयें। किसी को आंसू आ जायें तो रो ले, किसी को हंसी आ जाये तो हंस
ले। कोई भी भाव उठ जाये तो बह जाने दें; जरा भी बाधा न डालें, जरा भी रोकें नहीं। किसी को
मन हो जाये तो दो क्षण मेरे पास आकर बैठ जाये और फिर चुपचाप उठकर चला जाये। किसी
को मन हो तो निश्चित उठकर आ जाये, उसे
रोकें नहीं। लेकिन दो मिनिट मेरे पास बैठे, ज्यादा नहीं, ताकि फिर कोई और आना चाहे, तो आ जाये। फिर चुपचाप ही
बैठे और चला जाये। एक घंटे। किसी का मन बीच में ऊब जाये, तो चुपचाप उठे और चला जाये।
जबरदस्ती न बैठा रहे। एक घंटे बाद मैं उठ जाऊंगा। फिर धीरे-धीरे जब जिसकी मौज हो, वह उठता हुआ चला जाये। वह एक
घंटे के लिए हम बैठेंगे, उसकी
तैयारी करके आयें।
शब्दों
को समझने के लिए उतनी तैयारी की जरूरत नहीं होती। मौन को समझने के लिए बहुत तैयारी
की जरूरत है। लेकिन मेरी कोशिश है कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जो लोग मेरे निकट
आते हैं,
वे
केवल शब्द ही न समझें, वे मौन
को भी समझना शुरू करें। क्योंकि आज नहीं कल, जो और जरूरी बातें मुझे आपसे कहनी हैं, वे शब्दों से नहीं कही जा
सकती हैं,
वे तो
फिर सिर्फ मौन से ही कही जायेंगी। तो जो मौन को समझने में समर्थ होने लगेंगे, फिर जो और गहरी बातें हैं, उनके कहने का द्वार उनसे खुल
जायेगा।
तो वह
ढाई बजे से आप तैयारी करेंगे, साढ़े
तीन बजे जैसे कोई मंदिर में जाता हो--और मौन से बड़ा कोई मंदिर नहीं है। उतनी
पवित्रता से,
स्नान
करके, ताजे कपड़े पहनकर, चुपचाप ढाई बजे से ही तैयारी
में--कि उसकी धुन भीतर घुस जाये। फिर यहां आकर चुपचाप बैठ जाना है। फिर यहां जैसा
भी मन हो।
इंडोनेशिया
में ध्यान का एक प्रयोग होता है, उसका
नाम है लातिहान। आज नहीं कल इस मुल्क में भी इस प्रयोग को मैं लाना चाहता हूं कि
वह यहां आ जाये।
लातिहान
में दो-चार दस लोग चुपचाप बैठ जाते हैं। चुपचाप बैठ जाते हैं। फिर किसी को रोने का
हो आता है,
तो रो
लेता है। किसी को नाचने का हो आता है, तो नाच लेता है। और एक घंटे के लातिहान की
बैठक के बाद जो अनुभव उन्हें होते हैं, उनका कोई हिसाब नहीं! छोड़ देते हैं, बिलकुल रिलेक्स, जो होना है, होता है। हाथ-पैर हिलते हैं
तो हिलते हैं। उठने का मन होता है, तो उठते हैं। बैठने का मन होता है, बैठते हैं। लेटने का मन होता
है, लेटते हैं। छोड़ देते हैं पूरा
परमात्मा के चरणों में। प्रभु के चरणों में समर्पण कर देते हैं, जो कराना होगा, करायेगा। नहीं कराना होगा, नहीं करायेगा। उसके अदभुत
परिणाम हैं,
गहरे
परिणाम हैं,
जीवन-क्रांति
के लिए।
तो एक
घंटे को दोपहर जो हम प्रयोग कर रहे हैं, उसमें बिलकुल छोड़ देना है, एक समर्पण का भाव कि अब मैं
हूं ही नहीं। अब एक घंटे जो होगा, होगा।
आंसू आ जायेंगे तो रोकना नहीं है। बहेंगे, बह जायेंगे। जो होगा, होगा। और किसी को भी लगे कि
दो क्षण मेरे पास आना है, तो
मेरे पास आकर बैठ जायेगा। समझेगा कि उसे मैंने बुलाया है। चुपचाप फिर उठकर चला
जायेगा। कोई बात नहीं होगी। वह साढ़े तीन बजे यहां आ जाना है।
अब हम
सुबह के ध्यान के लिए बैठें। अभी मेरी जो बात इतनी सुनी है, उसने जरूर भाव बना दिया होगा।
थोड़े दूर-दूर हो जायें। कोई किसी को छूता हुआ न हो।
चुपचाप
बिना बात किये हुए थोड़े फासले पर हट जायें।
ठीक है, हट जायें अलग-अलग। मौन बैठ
जायें। आज सुबह की तो यह अब अंतिम बैठक होगी।
फिर यह
सागर की आवाज सुनायी पड़े, न पड़े।
फिर इन वृक्षों से मिलना हो, न हो।
फिर यह दिन आये,
न आये।
यह सुबह आये,
न आये।
इसलिए जो मौजूद है, उसमें
पूरी तल्लीनता को,
पूरे
आनंद को,
पूरे
प्रेम को उपलब्ध हो जाना चाहिए।
शरीर
को ढीला छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें। आंख धीमे से बंद कर लें। शरीर को
शिथिल छोड़ दें। अब हम ध्यान में प्रविष्ट होते हैं। मौन सुनते रहना है हवाओं की
आवाज, पक्षियों के गीत, सागर का गर्जन
सुनते
रहें। मौन सुनते रहना है। बस चुपचाप सुनते रहें, सुनते रहें। यह धूप, ये किरणें, ये हवायें; ये सब मिलकर कोई एक अदभुत
अवसर पैदा कर रहीं हैं। उसमें सम्मिलित हो जायें। इस धूप के साथ, इन हवाओं के साथ एक हो जायें।
चुपचाप
सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन शांत और मौन होता जायेगा। सुनते ही सुनते मन शांत
और मौन होता जायेगा। सुने. देखें पक्षी भी बोलने को आ जाते हैं। सुनें. दस मिनिट
के लिए सिर्फ सुनते रह जायें। सुनें सुनते ही सुनते मन शांत होता जाता है। सुनते
ही सुनते मन शांत होता जाता है। मन बिलकुल शांत हो जायेगा। १सुनते रहें हवाओं को, पक्षियों को, सागर को। मन शांत होता जा रहा
है। मन शांत होता जा रहा है। मन बिलकुल शांत हो जायेगा। सूरज की किरणें रह
जायेंगी। वृक्षों की डोलती छाया रह जायेगी। हवायें रह जायेंगी, सागर का गर्जन रह जायेगा।
लेकिन आप--आप बिलकुल मिट जायेंगे।
सुनते
रहें, सुनते ही सुनते भीतर कुछ पिघल
जायेगा,
मिट
जायेगा। सब शांत हो जायेगा।
शांत
सुनते रहें मन शांत होता जा रहा है। मन शांत होता जा रहा है। मन शांत होता जा रहा
है। मन शांत होता जा रहा है। हवायें रह गयीं, आप--आप नहीं रहे। मिट गये, बह गये। खो गयी बूंद सागर
में। मन शांत हो गया है। सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें।
छोड़
दें अपने को,
बिलकुल
छोड़ दें। मन शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। मन बिलकुल शांत हो गया है।
हवायें
रह गयी हैं। सूरज की किरणें रह गयी हैं। सागर का गर्जन रह गया है। आप मिट गये हैं।
छोड़ दें अपने को,
मिट
जायें।
मन
बिलकुल शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। मन शांत हो गया है।
मन
बिलकुल शांत हो गया है।
अब
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत
आहिस्ता से आंख खोल लें। जैसी शांति भीतर है, वैसी ही बाहर भी है। धीरे-धीरे आंख खोलें।
जो भीतर है,
वही
बाहर भी है।
धीरे-धीरे
आंख खोलें,
देखें
वृक्षों को। देखें सूरज की किरणों को। जो भीतर है, वही बाहर भी है।
सुबह
की बैठक समाप्त हुई।
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