जागरण के तीन सूत्र
मेरे
प्रिय आत्मन्!
जो
बाहर है,
वह एक
स्वप्न से ज्यादा नहीं है। और जो सत्य है, वह भीतर है। जो दृश्य है, वह परिवर्तन है। और जो
द्रष्टा है,
वह
सनातन है।
सत्य
की खोज में विज्ञान बाहर देखता है, धर्म भीतर देखता है। विज्ञान परिवर्तन की
खोज है,
धर्म
शाश्वत की। और सत्य शाश्वत ही हो सकता है। इस शाश्वत सत्य की दिशा में तीसरा सूत्र
साक्षीभाव है। द्रष्टा को खोजना है, तो द्रष्टा बने बिना और कोई रास्ता नहीं है।
लेकिन
हम सब हैं सोए हुए लोग। हम सब करीब-करीब सोए-सोए जीते हैं, सोए-सोए ही जागते हैं।
बुद्ध
एक सुबह प्रवचन करते थे। कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे। सामने ही बैठ कर एक भिक्षु
पैर का अंगूठा हिलाता था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया और उस भिक्षु को पूछा कि यह
पैर का अंगूठा तुम्हारा क्यों हिल रहा है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, पैर का अंगूठा हिलना बंद हो
गया। उस भिक्षु ने कहा, आप भी
कहां की फिजूल बातों में पड़ते हैं! आप अपनी बात जारी रखिए। बुद्ध ने कहा, नहीं; मैं यह पूछे बिना आगे नहीं
बढूंगा कि तुम पैर का अंगूठा क्यों हिला रहे थे? उस भिक्षु ने कहा, मैं हिला नहीं रहा था, मुझे याद भी नहीं था, मुझे पता भी नहीं था।
तो
बुद्ध ने कहा,
तुम्हारा
अंगूठा है,
और
हिलता है,
और
तुम्हें पता नहीं;
तो तुम
सोए हो या जागे हुए हो? और
बुद्ध ने कहा,
पैर का
अंगूठा हिलता है,
तुम्हें
पता नहीं;
मन भी
हिलता होगा और तुम्हें पता नहीं होगा। विचार भी चलते होंगे और तुम्हें पता नहीं
होगा। वृत्तियां भी उठती होंगी और तुम्हें पता नहीं होगा। तुम होश में हो या बेहोश
हो? तुम जागे हुए हो या सोए हुए
हो?
यदि हम
गौर से देखें,
तो
आंखें खुली होते हुए भी हम अपने को होश में नहीं कह सकते। हमारा मन क्या कर रहा है
इस क्षण,
वह भी
हमें ठीक-ठीक पता नहीं। अगर कभी दस मिनट एकांत में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें, और मन में जो चलता हो उसे एक
कागज पर लिख लें--जो भी चलता हो, ईमानदारी
से--तो उस कागज को आप अपने प्रियजन को भी बताने के लिए राजी नहीं होंगे। मन में
ऐसी बातें चलती हुई मालूम पड़ेंगी कि लगेगा क्या मैं पागल हूं? ये बातें क्या हैं जो मन में
चलती हैं?
खुद को
भी विश्वास नहीं होगा कि यह मेरा ही मन है जिसमें ये सारी बातें चलती हैं!
लेकिन
हम भीतर देखते ही नहीं, बाहर
देख कर जी लेते हैं। मन में क्या चलता है, पता भी नहीं चलता। और यही मन हमें सारी
क्रियाओं में संलग्न करता है। इसी मन से क्रोध उठता है, इसी मन से लोभ उठता है, इसी मन से काम उठता है। इस मन
के गहरे में न हम कभी झांकते हैं, न कभी
इस मन के गहरे में जागते हैं। जो भी चलता है, चलता है। यंत्रवत, सोए-सोए हम सब कर लेते हैं
अगर
आपने कभी क्रोध किया हो, तो
शायद ही आप यह कह सकें कि मैंने क्रोध किया है। आपको यही कहना पड़ेगा, क्रोध आ गया। आज तक किसी आदमी
ने क्रोध किया नहीं है, क्रोध
सदा आया है। आप क्रोध के कर्ता नहीं हैं, आप सिर्फ क्रोध के विक्टिम हैं, शिकार हैं। आप पूरी जिंदगी
स्मरण करें तो यह नहीं कह सकते कि मैंने एक बार क्रोध किया था। क्रोध में, करने में आप मालिक नहीं थे।
अगर मालिक होते तो आपने किया ही नहीं होता। कोई आदमी जान कर गङ्ढे में नहीं गिरता
है। गिर जाता है,
यह
दूसरी बात है। किसी आदमी ने जान कर क्रोध भी नहीं किया है कभी। क्रोध हो जाता है, यह दूसरी बात है। क्रोध घटता
है, क्रोध हम करते नहीं हैं। तो
हम सोए हुए आदमी हैं या जागे हुए?
और
प्रेम के संबंध में तो लोग कहते ही हैं कि प्रेम हमने किया नहीं, हो गया। लेकिन इसका मतलब क्या
होता है कि प्रेम हो गया? इसका
मतलब यह होता है कि जैसे हवाएं चलती हैं और वृक्ष के पत्ते हिलते हैं अवश-परवश, जैसे आकाश में बादल आते हैं
और हवाएं उन्हें जहां उड़ा कर ले जाती हैं, चले जाते हैं, विवश। क्या वैसे ही हमारे
भीतर भी चित्त में भावनाएं उठती हैं प्रेम की, क्रोध की, घृणा की और हम विवश होकर उनके
साथ हिलते-डुलते रहते हैं? हमारा
कोई वश नहीं है?
हम अपने
मालिक नहीं हैं?
एक
फकीर था यूनान में, गुरजिएफ।
वह तो कहता था,
आदमी
यंत्र है। वह यह मानता ही नहीं था कि सभी लोगों के भीतर आत्मा है। वह कहता था, जो सोए हुए हैं उनके भीतर
आत्मा मानने का कारण क्या है? जाग्रत
कोई हो तो ही उसके भीतर आत्मा मानने का कारण है। अगर आत्मा है भी तो सोई हुई है।
हमारा
सारा व्यक्तित्व ही सोया हुआ है। न हमने कभी क्रोध किया है, न हमने प्रेम किया है। चीजें
घटती रही हैं और हम उनके साथ हिलते रहे हैं, डोलते रहे हैं--यंत्रवत! जैसे किसी ने बटन
दबा दी हो और बिजली जल गई, तो
बिजली यह नहीं कह सकती कि मैं जल गई हूं। वह यही कह सकती है, जलना हो गया।
हमें
भी कोई बटन दबा देता है और क्रोध जल जाता है। हम भूल से कहते हैं कि मैंने क्रोध
किया। क्रोध हो गया है। बटन दबी और क्रोध हो जाता है, पता भी नहीं चलता कब हो गया।
हमारे सारे व्यक्तित्व का पूरा का पूरा आधार ऐसा ही अनकांशस, अचेतन है। इस अचेतन चित्त को
लेकर कोई सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। सत्य के साक्षात्कार के लिए कांशस, चेतन, होश से भरा हुआ होना जरूरी
है।
इस होश
के लिए ही तीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। जीवन की प्रत्येक क्रिया के प्रति
जागरूक होना साधना का एकमात्र मार्ग है। जो भी हम करते हैं, वह निद्रित न हो। जो भी हम
करते हैं,
वह
जाग्रत हो।
बहुत
कठिन है यह बात। अगर रास्ते पर आप चल रहे हैं, और जाग्रत होकर चलने की कोशिश करें, तो आपको पता चलेगा कितना कठिन
है! एक-दो क्षण याद रख पाएंगे कि मैं चल रहा हूं, और फिर यह बात भूल जाएगी और
चलना मैकेनिकल,
यांत्रिक
ढंग से होने लगेगा। मन कहीं और चला जाएगा। पांच मिनट भी चलते हुए यह होश रखना
मुश्किल है कि मैं चल रहा हूं। अपनी ही क्रिया है चलने की, अपना ही मन है, लेकिन चलने की क्रिया को पांच
मिनट तक सतत स्मरण रखना, रिमेंबर
रखना, मुश्किल मामला है। इसे थोड़ा
लौटते वक्त प्रयोग करेंगे तो खयाल में आएगा। और जब चलने की साधारण सी क्रिया के
प्रति हम पांच मिनट नहीं जाग सकते, तो आत्मा की बहुत गहरी क्रियाओं के प्रति हम
कैसे जाग सकते हैं?
बुद्ध
एक रास्ते से गुजरते हैं। उनके साथ एक भिक्षु है आनंद। वे आनंद से बात कर रहे हैं।
एक मक्खी आकर उनके गले पर बैठी है, उन्होंने मक्खी उड़ा दी है। फिर रुक कर खड़े
हो गए। फिर आनंद से कहा, भूल हो
गई आनंद,
मक्खी
को मैंने सोए-सोए उड़ा दिया। तुमसे बात करता रहा और हाथ मशीन की तरह गया और मक्खी
को उड़ा दिया। गलती हो गई है। फिर उस जगह हाथ ले गए जहां मक्खी बैठी थी--अब मक्खी
वहां नहीं है,
वह कभी
की उड़ चुकी है--फिर वहां हाथ ले गए, फिर उस मक्खी को उड़ाया जो नहीं थी।
आनंद
ने कहा,
आप यह
क्या कर रहे हैं?
बुद्ध
ने कहा,
अब मैं
जाग कर मक्खी को उड़ा रहा हूं, जैसे
कि मुझे उड़ाना चाहिए था। मैंने नींद में हाथ उठा दिया, वह होश में नहीं था हाथ। वह
यांत्रिक था,
वह
आत्मिक नहीं था। अब मैं उस तरह हाथ ले जा रहा हूं जाग कर, जैसे कि मुझे ले जाना चाहिए
था।
कभी
आपने खयाल किया?
इस हाथ
को नीचे से ऊपर तक उठाएं होश से भर कर, आपको पूरा पता हो कि हाथ उठ रहा है। और आप
हैरान हो जाएंगे। जितनी देर आप जागे रहेंगे कि हाथ उठ रहा है, उतनी देर चित्त शांत हो
जाएगा।
जाग्रत
चित्त शांत होता है, सोया
चित्त अशांत होता है। रास्ते पर चल कर देखें दस मिनट भी जागे हुए। और जितनी देर
होश रहेगा कि मैं चल रहा हूं, उतनी
देर चित्त शांत रहेगा; जैसे
ही होश जाएगा,
चित्त
अशांत हो जाएगा।
हमारी
सामान्य क्रियाओं से शुरू करना जरूरी है साक्षी का भाव--चलते, उठते, खाना खाते, सुनते, बोलते। अभी मैं बोल रहा हूं
और आप सुन रहे हैं। यह सुनना दो तरह से हो सकता है। या तो सोए-सोए आप सुन रहे हैं, सुन रहे हैं एक यंत्र की तरह।
या आप जाग कर सुन रहे हैं; कि
आपको पूरा पता है कि आप सुन रहे हैं; होश है पूरा कि आप सुन रहे हैं। अगर आप
होशपूर्वक सुन रहे हैं, तो
सुनने में ही एक अदभुत शांति आनी शुरू हो जाएगी जिसका आपको कोई पता नहीं।
यहीं
प्रयोग करके देखें। मुझे सुन रहे हैं, इस तरह सुनें कि आपको पूरी तरह पता है कि आप
सुन रहे हैं। सिर्फ कान पर चोट नहीं पड़ रही, पीछे मन पूरी तरह जाग कर सुन रहा है। मन
साक्षी है कि सुनने की क्रिया हो रही है। और मन एकदम शांत होने लगेगा। सुनने में
भी शांत होने लगेगा। भोजन कर रहे हैं, तो भोजन करें जाग कर। और जैसे ही जाग कर
भोजन करेंगे,
भोजन
करने की क्रिया ही रह जाएगी, मन और
कहीं नहीं जाएगा। जाग कर कोई भी काम होगा तो मन इधर-उधर भागना बंद कर देगा। सोया
हुआ मन भागता है,
जागा
हुआ मन नहीं भागता।
जापान
में एक फकीर था बोकोजू। वह लोगों को वृक्षों पर चढ़ने की कला सिखाता था। और वह यह
कहता था कि वृक्षों पर चढ़ने की कला के साथ ही मैं जागने की कला भी सिखाता हूं।
अब
फकीर को वृक्षों पर चढ़ने की कला सिखाने से कोई प्रयोजन भी नहीं है। लेकिन उस फकीर
ने बड़ी समझ की बात खोजी थी कि जागना और वृक्ष पर चढ़ना एक साथ सिखाना आसान था।
जापान
का एक राजकुमार उस फकीर के पास वृक्ष पर चढ़ना सीखने गया। कोई डेढ़ सौ फीट ऊंचे सीधे
वृक्ष पर उस फकीर ने कहा कि तुम चढ़ो। और वह फकीर नीचे बैठ गया। राजकुमार जैसे-जैसे
ऊपर जाने लगा,
उसने
नीचे लौट कर देखा,
वैसे-वैसे
फकीर ने आंख बंद कर ली। राजकुमार डेढ़ सौ फीट ऊपर चढ़ गया, जहां से जरा भी चूक जाए तो
प्राणों का खतरा है। तेज हवाएं हैं, वृक्ष कंपता है, आखिरी शिखर तक जाकर उसे वापस
लौटना है। श्वास लेने तक में डर लगता है। और वह फकीर कुछ भी नहीं बोलता, चुपचाप नीचे बैठा है, न बताता है कैसे चढ़ो, न कहता है कि क्या करो। फिर
वह वापस लौटना शुरू हुआ। जब कोई पंद्रह फीट ऊपर रह गया, तब वह फकीर छलांग लगा कर खड़ा
हो गया और उसने कहा, सावधानी
से उतरना! होश से उतरना!
राजकुमार
बहुत हैरान हुआ कि कैसा पागल है! जब मैं डेढ़ सौ फीट ऊपर था, तब चुपचाप बैठा रहा। और अब जब
मैं पंद्रह फीट कुल ऊंचाई पर रह गया हूं, जहां से गिर भी जाऊं तो अब बहुत खतरा नहीं
है, वहां इन सज्जन को होश आया है, चिल्ला रहे हैं कि सावधान!
होशियारी से उतरना! बोधपूर्वक उतरना! गिर मत जाना!
नीचे
उतरा, और उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! जब मैं
डेढ़ सौ फीट ऊपर था, तब तुमने
सावधानी के लिए नहीं कहा। और जब पंद्रह फीट, नीचे से केवल पंद्रह फीट रह गया, तब तुम चिल्लाने लगे।
उस
फकीर ने कहा,
जब तुम
डेढ़ सौ फीट ऊपर थे, तब तुम
खुद ही सावधान थे। मुझे कुछ कहने की जरूरत न थी। खतरा इतना ज्यादा था कि तुम खुद
ही जागे हुए रहे होगे। लेकिन जैसे-जैसे तुम जमीन के करीब आने लगे, मैंने देखा कि नींद ने पकड़ना
तुम्हें शुरू कर दिया है, तुम्हारा
होश खो रहा है। उस फकीर ने कहा, जिंदगी
भर का मेरा अनुभव है, लोग
जमीन के पास आकर गिर जाते हैं, ऊपर से
कभी कोई नहीं गिरता। ऊपर इतना खतरा होता है कि आदमी जागा होता है। और उस राजकुमार
से उसने कहा कि तुम सोचो: जब तुम डेढ़ सौ फीट ऊपर थे, हवाएं जोर की थीं और वृक्ष
कंपता था,
तब
तुम्हारे मन में कितने विचार चलते थे?
उसने
कहा, विचार? एक विचार नहीं चलता था! बस
एकमात्र होश था कि जरा चूक न जाऊं! मैं उस वक्त पूरी तरह जागा हुआ था।
तो उस
फकीर ने पूछा,
उस
जागरण में तुम्हें कोई विचार नहीं थे! मन अशांत था, दुखी था, परेशान था, स्मृतियां आती थीं, भविष्य की कल्पना आती थी?
उसने
कहा, कुछ भी नहीं आता था! बस मैं
था, डेढ़ सौ फीट की ऊंचाई थी, प्राण खतरे में थे! वहां कुछ
भी न अतीत था,
न
भविष्य था। बस वर्तमान था! वही क्षण था और कंपती हुई हवाएं थीं, और प्राण का खतरा था, और मैं था, और मैं पूरी तरह जागा हुआ था!
उस
फकीर ने कहा,
तो तुम
समझ लो,
अगर इस
तरह तुम चौबीस घंटे जागे रहने लगो, तो तुम उसे जान लोगे जो आत्मा है। इसके
अतिरिक्त तुम नहीं जान सकते हो।
यह जान
कर हैरानी होगी कि बहुत बार खतरों में आदमी को आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है।
और यह भी जान कर हैरानी होगी कि खतरे का जो हमारे भीतर आकर्षण है, वह आत्मा को पाने का ही
आकर्षण है। खतरे का भी एक आकर्षण है, डेंजर का भी एक आकर्षण है हर एक के भीतर। और
जब तक आदमी में थोड़ा बल होता है, खतरे
का एक मोह होता है, खतरे
को स्वीकार करने की एक इच्छा होती है।
एक
आदमी था,
अभिनेता, उसने अमेरिका में रह कर लाखों
रुपये कमाए। जापानी था। फिर लौटता था वापस, तो उसने सोचा सारी दुनिया घूमता हुआ चलूं।
सारी संपत्ति,
कोई
अस्सी लाख रुपये लेकर लौटता था। अब उसने खयाल छोड़ दिया था काम करने का, अब रुपये कमा लिए थे, अब चुपचाप एक झोपड़ा बना कर
कहीं जंगल में रहेगा। वह पेरिस रुका आकर अपनी यात्रा में। जिस होटल में ठहरा था, उस होटल में किसी परिचित ने
कहा कि पेरिस आए हो, तो
पेरिस के जुआघर देखना बहुत जरूरी है। उनको बिना देखे व्यर्थ है, पेरिस तुमने देखा ही नहीं। तो
पेरिस का जुआघर जरूर देख लो। उस आदमी ने कहा, मैंने कभी जुआ नहीं खेला, लेकिन तुम कहते हो तो चलो
चलता हूं। वह पेरिस के बड़े जुआघर में गया। और उसने जाकर अस्सी लाख रुपये एक ही साथ
दांव पर लगा दिए,
जितना
लाया था कमा कर।
उसके
मित्र ने कहा,
क्या
पागलपन करते हो! पागल हो गए हो? इतना
बड़ा दांव पेरिस के जुआघर में कभी भी नहीं लगाया गया! एक ही दांव और इकट्ठा! और
उसके पास एक पैसा नहीं बचता है पीछे।
पर उस
अभिनेता ने कहा,
अगर
दांव ही लगाना है तो पूरा लगाना चाहिए, नहीं तो दांव का मजा ही नहीं आएगा।
उसने
वह अस्सी लाख रुपये का दांव लगा दिया और हार गया। उस जुआघर से होटल तक लौटने के
लिए पैसे भी मित्र से उधार लेने पड़े! सन्नाटा छा गया होटल में। और सभी लोगों ने
समझा, कहीं वह आदमी मर न जाए। इतना
बड़ा धक्का होगा उसको! रात जाकर वह अपनी होटल में सो गया।
संयोग
की बात,
किसी
दूसरे जापानी ने उस रात आत्महत्या की पेरिस में। सुबह अखबारों ने खबर छाप दी कि
फलां-फलां अभिनेता ने आत्महत्या कर ली। क्योंकि पक्का ही हो गया कि वही होगा।
दूसरा कौन होगा!
सुबह
जब वह उठा,
उसने
अखबार पढ़ा,
तो उसमें
छपा है कि उसने आत्महत्या कर ली। वह बहुत हैरान हुआ! उसने मैनेजर को बुला कर कहा
कि यह किसने अखबार में खबर छाप दी कि मैं मर गया? मैं मरा नहीं, मैंने कल आत्महत्या नहीं की, जुए के दांव के वक्त मुझे
पहली बार आत्मा का साक्षात्कार हो गया है। जब मैंने सब दांव पर लगा दिया, तो श्वास भी मेरी रुक गई, विचार भी मेरे रुक गए। एक
क्षण को दुनिया मिट गई मेरे लिए, दांव
ही रह गया। मैं उसी पर जागा हुआ रह गया। क्योंकि पूरे जीवन का सवाल था। और उस मौन
में, उस जागृति में मैंने जो जाना
है, वह अस्सी लाख से बहुत ज्यादा
का है। मैंने कुछ खोया नहीं, मरने
का सवाल नहीं है। मैंने कुछ पा लिया, जो जिंदगी भर में मुझे कभी भी जिसकी सुगंध
नहीं मिली थी।
आप जान
कर हैरान होंगे कि जुए का मोह और मजा, खतरे का मोह और मजा भी मनुष्य की आत्मा को
जानने की गहरी प्यास से ही पैदा होता है। पहाड़ों पर चढ़ने की इच्छा, समुद्रों में तैरने की इच्छा, खतरों में उतरने की इच्छा, युद्धों के मैदान पर चले जाने
की इच्छा भी मनुष्य के आत्म-साक्षात्कार की किसी तीव्र कामना से पैदा होती है।
क्योंकि लाखों वर्ष के अनुभव के बाद मनुष्य को यह पता चला है कि कभी-कभी खतरों में
धुआं छूट जाता है,
नींद
टूट जाती है,
और वह
जो भीतर है उसकी झलक मिल जाती है। लेकिन वह खतरे के कारण नहीं मिलती, वह मिलती है जागरण के कारण।
खतरे में जागरण हो जाता है और झलक मिल जाती है।
जैसे
कोई आदमी अचानक आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाए, तो शायद एक सेकेंड को विचार
बंद हो जाएंगे। विचार चलेंगे उस क्षण जब कोई छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो गया हो? विचार बंद हो जाएंगे। नींद
रहेगी उस वक्त?
बेहोशी
रहेगी?
जैसे
छुरे की धार काट देगी सारी नींद को। भीतर कोई चीज जग जाएगी जैसी कभी नहीं जगी थी।
लेकिन खतरा सवाल नहीं है, असली
सवाल जागरण है। अगर हम जागने का प्रयोग कर सकें तो जीवन की सामान्य स्थितियों में
भी वह भीतर की धार, वह
भीतर का द्वार,
वह
भीतर का अंधेरा टूट सकता है, नींद
टूट सकती है।
लेकिन
जागने के लिए क्या किया जा सकता है?
जागने
के लिए तीन सूत्र स्मरण रखने चाहिए। एक तो शरीर की कोई भी क्रिया होशपूर्वक हो, बेहोशीपूर्वक न हो। शरीर की
कोई भी क्रिया--हाथ भी हिले, पैर भी
उठे, तो होशपूर्वक उठे। और अगर
चार-छह महीने निरंतर ध्यान रखा जाए, तो शरीर की सब क्रियाएं होशपूर्वक होनी शुरू
हो जाती हैं।
और जब
शरीर की सारी क्रियाएं होशपूर्वक होती हैं, तो शरीर से सारे तनाव, सारे टेंशंस विदा हो जाते
हैं। शरीर एकदम रिलैक्स्ड हो जाता है। शरीर इतना हलका हो जाता है, वेटलेस, जैसे उड़ जाएगा। ऐसा लगने लगता
है जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर इतना, इतना हलका हो जाता है कि जैसे उड़ सकेगा।
जितना होशपूर्वक होगा शरीर का जीवन, उतना ही शरीर हलका हो जाएगा; उतना ही, शरीर नहीं है, ऐसा मालूम पड़ने लगेगा।
अभी हम
शरीर ही हैं। अभी हमें शरीर ही सब कुछ मालूम पड़ता है। शरीर का बहुत वेट है, बहुत वजन है, शरीर पत्थर की तरह है, वही मालूम पड़ता है, उसके भीतर और कुछ मालूम नहीं
पड़ता। क्योंकि शरीर बिलकुल नींद में चल रहा है, सोया हुआ चल रहा है।
कभी
आपने खयाल किया कि नींद में सोए हुए आदमी को उठाइए तो ज्यादा भारी मालूम पड़ेगा, जागे हुए आदमी को उठाने की
बजाय। कभी आपने सोचा कि क्या बात हो सकती है? वजन तो उतना ही है--चाहे सोओ, चाहे जागो।
लेकिन
सोया हुआ आदमी तमस से घिर गया है, निद्रा
से घिर गया है। निद्रा भार है। जागा हुआ आदमी तमस से छूट गया है, नींद से मुक्त हो गया है।
जागना निर्भार होना है। लेकिन यह तो बहुत साधारण जागना है। अगर कोई व्यक्ति अपनी
शरीर की प्रत्येक क्रिया के प्रति पूरी तरह जागरूक होकर काम करता है, तो शरीर मिट जाता है, जिसको हम विदेह कहते हैं।
विदेह का और कोई मतलब नहीं होता: बॉडीलेसनेस! बॉडी रहेगी, शरीर रहेगा; लेकिन शरीर नहीं है, ऐसा मालूम पड़ने लगेगा। शरीर
के प्रति परिपूर्ण जागृति से विदेह अवस्था की संभावना शुरू होती है।
और
जिसको विदेह होने का अनुभव होता है, उसे ही भीतर जो अशरीरी बैठा हुआ है, आत्मा बैठी हुई है, उसकी झलक मिलती है। जब तक
हमें लगता है हम शरीर हैं, तब तक
हमें उसकी झलक नहीं मिल सकती जो शरीर के भीतर छिपा है और जो शरीर नहीं है। शरीर
जाए तो हमें उसका पता चल सकता है।
जैसे
ही शरीर की क्रियाओं के प्रति हम जागरूक होकर व्यवहार करेंगे, एक नया अनुभव होगा: लगेगा
शरीर अलग है और मैं अलग हूं।
आज ही
लौटते वक्त,
चलते
वक्त, आप खयाल करके चलें कि जाग कर
चल रहे हैं। आप अपने चलने के एक साक्षी हो गए हैं, एक विटनेस हो गए हैं। आप अपने
ही चलने को देख रहे हैं, जान
रहे हैं,
पहचान
रहे हैं। चलने की क्रिया चल रही है और भीतर आप उस क्रिया को देख भी रहे हैं, पहचान भी रहे हैं कि चलना हो
रहा है। बायां कदम उठा, दायां
कदम उठा,
आगे गए, तेजी से जा रहे हैं--चलने की
जो क्रिया है,
जो
मूवमेंट है,
उसको
आप देख भी रहे हैं।
तो
आपको फौरन एक अजीब बात मालूम पड़ेगी। पता चलेगा: शरीर चल रहा है और मैं नहीं चल रहा
हूं। शरीर चल रहा है और मैं नहीं चल रहा हूं। शरीर अलग है और मैं अलग हूं। शरीर और
स्वयं के अलग होने का अनुभव बहुत जरूरी है, पहली सीढ़ी है, जिससे हम आत्मा के ज्ञान को
उपलब्ध होंगे।
इसलिए
पहला सूत्र है: काया-स्मृति; रिमेंबरेंस
ऑफ दि बॉडी,
माइंडफुलनेस
ऑफ दि बॉडी;
शरीर
के प्रति होश,
शरीर
के प्रति स्मृति,
शरीर
के प्रति जागरण। अदभुत है अनुभव शरीर के प्रति जागने का।
दूसरी
सीढ़ी पर: चित्त के प्रति जागरण, मन के
प्रति जागरण। मन में क्या हो रहा है? क्या चल रहा है? हम कभी देखते ही नहीं। हम कभी
घड़ी, दो घड़ी को बैठ कर यह नहीं
देखते कि मन में क्या हो रहा है? कैसे
विचार चल रहे हैं?
कैसी
वासनाएं चल रही हैं? कैसी
वृत्तियां चल रही हैं? मन में
जोर के तूफान प्रतिक्षण चल रहे हैं, चौबीस घंटे चल रहे हैं। एक क्षण भी मन शांत
नहीं है,
मौन
नहीं है। मन काम कर रहा है। शरीर तो रात में सो भी जाता है, मन तब भी नहीं सोता, तब भी उसका काम जारी है। रात
सपने चल रहे हैं। मुश्किल से स्वस्थ आदमी रात में दस मिनट को सोता है पूरी तरह, बाकी समय सपने चलते ही रहते
हैं।
आप
कहेंगे,
हमें
तो सुबह याद नहीं रहता!
याद
नहीं रहेगा। सिर्फ वे ही सपने याद रहते हैं जो सुबह के करीब, जागने के करीब आने शुरू होते
हैं। जब चित्त थोड़ा जागने लगता है तब जो सपने आते हैं वे याद रहते हैं। वे सपने
याद नहीं रहते जो पूरी नींद में आते हैं। लेकिन रात भर सपने चल रहे हैं और मन काम
कर रहा है,
मन
पूरे वक्त काम कर रहा है।
लेकिन
इस मन का हमें कोई होश नहीं है। इस मन को कभी बैठ कर हमने देखा नहीं कि यह क्या कर
रहा है। इस मन को भी देखना जरूरी है। कभी घड़ी, आधा घड़ी को दिन में, रात में, द्वार बंद करके बैठ जाएं, सिर्फ यह देखने के लिए कि मन
क्या कर रहा है। लड़ने के लिए नहीं; मन से लड़ना नहीं है कि यह गलत है, यह नहीं आना चाहिए; यह ठीक है, यह आना चाहिए। ऐसा नहीं; मन में जो भी आ रहा है, उसे मैं देखूंगा। जैसे फिल्म
पर चलती हुई कहानी को कोई देखता है, ऐसे मन के पर्दे पर जो भी चल रहा है, मैं देखूंगा।
देखने
की शर्त है: न तो कंडेमनेशन, निंदा
मत करना मन की;
अन्यथा
देखना बंद हो जाएगा। मन बहुत बारीक है, बहुत डेलिकेट, बहुत सूक्ष्म है। अगर किसी
चीज की निंदा की,
तो वह
पीछे सरक जाएगी चीज, फिर वह
दिखाई नहीं पड़ेगी।
मन के
दो हिस्से हैं: एक चेतन मन है और एक अचेतन मन है। चेतन मन बहुत छोटा सा है, अचेतन मन नौ गुना बड़ा है।
जैसे ही किसी चीज पर आपने कहा, यह
बुरी है,
यह
नहीं होनी चाहिए। वह चेतन से हट कर अचेतन में चली जाती है, अंधेरे में चली जाती है। वह
आपसे डर गई,
वह अब
अंधेरे में चली जाएगी। वह रहेगी, जाएगी
नहीं कहीं। लेकिन अब आपके सामने नहीं आएगी, आपके पीछे चली जाएगी।
मन की
निंदा मत करना।
लेकिन
हमें हजारों साल से यही सिखाया गया है कि मन की निंदा करो। हमें कहा जाता है, मन शत्रु है। हमें कहा जाता
है, मन दुश्मन है, उसका नियंत्रण करो। हमें कहा
जाता है,
मन में
जो बुरा है उसको हटाओ, जो
अच्छा है उसे लाओ। और हमें पता ही नहीं कि अच्छा और बुरा एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। अच्छे और बुरे को अलग नहीं किया जा सकता। अगर कोई आदमी एक ही सिक्के के एक
पहलू से मुक्त होना चाहे और दूसरे को बचाना चाहे, तो पागल हो जाएगा। फेंको तो
दोनों फिंक जाते हैं, बचाओ
तो दोनों बच जाते हैं। एक नहीं बचाया जा सकता। लेकिन हमें सिखाया गया है, अच्छे को बचाओ, बुरे को हटाओ। अच्छा और बुरा
एक ही चीज के दो पहलू हैं। इसलिए जो संत है वह दोनों फेंक देता है--अच्छे और बुरे
दोनों। तब जो शेष रह जाता है, वह बात
ही और है। न वह अच्छा है, न वह
बुरा है।
यह जो
चित्त है हमारा,
यह जो
सतत चित्त की चलती हुई प्रक्रिया है, यह जो प्रोसेस है माइंड की, इसको घड़ी, दो घड़ी कभी एकांत में बैठ कर
सिर्फ देखने की जरूरत है। इस तरह जैसे आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं और हम नीचे बैठ
कर देखते हों;
या समुद्र
की लहरें आकर तट से टकरा रही हैं--हम कोई निर्णय नहीं लेते कि अच्छी हैं कि बुरी
हैं--किनारे पर बैठे हैं और देख रहे हैं। हम यह नहीं कहते कि आकाश में उड़ता हुआ
फलां पक्षी अच्छा है, फलां
बुरा है--बस नीचे बैठे हैं और देखते हैं। ऐसे ही मन के आकाश में जो विचारों के
पक्षी चलते हैं या मन के सागर में जो विचारों की लहरें चलती हैं, चुपचाप बैठ जाएं और देखें कि
क्या चल रहा है। सिर्फ देखना काफी है, कुछ और करना जरूरी नहीं।
अगर
चार-छह महीने निरंतर देखने का एक घंटे भी प्रयोग हो, तो आप चकित हो जाएंगे। जितनी
देखने की क्षमता बढ़ेगी, उतने
ही विचार कम होते चले जाएंगे। जितना आप होश से देखेंगे, उतने ही विचार गिर जाएंगे। और
एक घड़ी ऐसी आएगी कि मन तो होगा, लेकिन
विचार बिलकुल नहीं होंगे। और जिस दिन ऐसी स्थिति आ जाती है, विचारशून्य मन की, उसी दिन--उसी दिन--हम मन से
भी ऊपर उठ जाते हैं। शरीर के जागरण से शरीर के ऊपर उठता है व्यक्ति, मन के प्रति जागरण से मन से
ऊपर उठ जाता है। और तब वहां प्रवेश होता है जो आत्मा है। शरीर और मन से मुक्त हुए
बिना कोई अंदर प्रवेश नहीं पा सकता।
लेकिन
शरीर और मन से मुक्त होने के लिए न तो शरीर को कष्ट देने की जरूरत है, न भूखा मारने की जरूरत है, न धूप में खड़ा करके तपश्चर्या
करने की जरूरत है। शरीर से मुक्त होने के लिए शरीर की क्रियाओं के प्रति जागने की
जरूरत है।
मेरे
एक मित्र सीढ़ियों से गिर पड़े और बहुत चोट खा गए। पैर में बहुत असह्य दर्द, कोई सत्तर साल की उम्र है।
मैं उन्हें देखने गया। डाक्टरों ने कहा कि तीन महीने तक बिस्तर से हिलना भी नहीं
है। और वे मित्र बहुत सक्रिय आदमी हैं। इस सत्तर साल की उम्र में भी भाग-दौड़, चलना-फिरना, काम! एक क्षण खाली, एक क्षण व्यर्थ बैठना मुश्किल
है, आराम करना कठिन है। तीन महीने
उन्हें एक ही,
सीधा
पड़े रहना पड़ेगा! मैं उन्हें देखने गया। वे रोने लगे और कहने लगे, इससे तो अच्छा था कि मैं मर
जाता। तीन महीने मैं कैसे पार होऊंगा? तीन महीने बरदाश्त करना मुश्किल है। अभी तीन
ही दिन बीते हैं और मैं घबड़ा गया हूं। और डाक्टर कहते हैं, तीन महीने हिलना भी नहीं है, करवट भी नहीं लेनी है, सीधे ही पड़े रहें, तो ही पैर ठीक हो सकेंगे। और
पैर में बहुत तकलीफ है, उसे
सहना मुश्किल है। अगर मैं काम में लग जाऊं तो शायद तकलीफ भूल भी जाए। लेकिन कोई
काम नहीं है तो वह तकलीफ ही तकलीफ, तकलीफ ही तकलीफ मालूम हो रही है।
मैंने
उनसे कहा,
एक
छोटा सा प्रयोग करें, तकलीफ
के प्रति जागने का प्रयोग करें। आंख बंद कर लें, मैं आपके पास बैठा हूं, और तकलीफ को देखें कि कहां है, पिन प्वाइंट करें कि कहां है।
अभी आप कहते हैं पूरे पैर पर तकलीफ है। पूरे पैर पर नहीं हो सकती, कोई खास केंद्र होगा जहां
सर्वाधिक होगी। तो सरकें, धीरे-धीरे
केंद्र पर आएं। आंख बंद करके देखें कि ठीक वह केंद्र कहां है, जहां तकलीफ है, उस केंद्र पर पहुंचें।
उन्होंने
आंख बंद कर ली। और मैंने कहा, हां, खोजें, खोजें, खोजें...। वे आंख बंद करके
खोज करने लगे और उस जगह उनका चित्त पहुंच गया जहां तकलीफ थी। और पंद्रह मिनट बीते, बीस मिनट बीते--मैंने उनसे
पंद्रह मिनट के लिए कहा था--पैंतीस मिनट बीते, पैंतालीस मिनट बीते...और मैं उनका बाहर बैठा
चेहरा देख रहा हूं, उनका
चेहरा शांत होता जा रहा है, जैसे
तकलीफ विलीन हो गई हो।
कोई
पैंसठ मिनट पर उन्होंने आंख खोली और कहा, यह तो बड़ी हैरानी की बात हो गई! जैसे-जैसे
मैंने गौर से देखा तो पता चला, पूरे
पैर पर तकलीफ भ्रम थी, पूरे
पैर पर तकलीफ नहीं थी, वह
सिर्फ खयाल था। तकलीफ बहुत छोटी जगह थी, एक प्वाइंट पर थी। धीरे-धीरे मैं उस प्वाइंट
पर पहुंच गया। और जब मैं ठीक उस प्वाइंट पर पहुंचा जहां तकलीफ थी, दर्द था, तो मैं एकदम हैरान रह गया, मुझे दिखाई पड़ा: दर्द वहां है
और मैं यहां हूं,
और
दर्द और मेरे बीच लंबा फासला है, मैं
दर्द नहीं हूं।
कभी
किसी दर्द के प्रति जाग कर देखें और आपको पता चलेगा, आप दर्द नहीं हैं। मैंने उनसे
कहा, ये तीन महीने भगवान का
आशीर्वाद समझें,
यह
मौका कभी नहीं मिलेगा, तीन
महीने दर्द के प्रति जागें।
कोई
तीन महीने बाद मैं उनसे मिलने गया, वे आदमी दूसरे हो गए थे। उन्होंने मुझसे कहा
कि सच में ही भगवान की कृपा है, अन्यथा
मैं ऐसे ही मर जाता। मैं दर्द के प्रति ही जागने की कोशिश में धीरे-धीरे शरीर के
प्रति जाग गया हूं--क्योंकि दर्द शरीर में था, दर्द के प्रति जागा, शरीर के प्रति जागा। और मुझे
अदभुत अनुभव हुए इन तीन महीनों में, वह आपसे कहना चाहता हूं।
मैंने
कहा, क्या हुआ?
उन्होंने
कहा, पहला तो मुझे यह अनुभव हुआ कि
मैं शरीर नहीं हूं। और तीन महीने में यह प्रतीति इतनी गहरी और स्पष्ट हो गई कि मैं
शरीर नहीं हूं कि अब मुझे मृत्यु का भी कोई भय नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूं, शरीर ही मरेगा, मैं नहीं मर सकता हूं।
लेकिन
शरीर और हमारे बीच फासला नहीं है, डिस्टेंस
नहीं है। हम कभी जागे ही नहीं। ध्यान रहे, जिस चीज के प्रति आप जागेंगे, उसी से फासला हो जाएगा। जाग
ही आप उस चीज के प्रति सकते हैं, जो आप
नहीं हैं। क्योंकि आप जागेंगे, हमेशा
दूसरी चीज के प्रति जागेंगे। शरीर के प्रति जागेंगे और शरीर अलग हो जाएगा।
एक
फकीर था। मुसलमान फकीर था शेख फरीद। शेख फरीद के पास कोई गया और पूछने लगा कि
मैंने सुना है कि जीसस को सूली दी गई। और जीसस सूली पर लटकाए जा रहे थे तो भी हंस
रहे थे। यह कैसे हो सकता है कि आदमी का शरीर लटकाया जा रहा हो सूली पर और आदमी
हंसता हो?
और उस
आदमी ने पूछा,
मैंने
यह भी सुना है कि मंसूर के साथ तो और भी दर्ुव्यवहार किया गया। मंसूर के पहले पैर
काटे गए,
फिर
हाथ काटे गए,
फिर
आंखें फोड़ी गईं और मंसूर हंसता रहा। यह नहीं हो सकता! यह कैसे हो सकता है? जिसके पैर कट गए हों और पैर
से लहू गिर रहा हो, जिसके
हाथ कट गए हों और जिसकी आंखें फोड़ दी गई हों--वह हंस रहा हो, यह नहीं हो सकता! यह कभी नहीं
हो सकता! यह कैसे हो सकता है? मैं
पूछने आया हूं।
शेख
फरीद हंसने लगा। उसके पास एक नारियल पड़ा था, उसने उठा कर उस आदमी को दिया और कहा कि जाओ, इस नारियल को फोड़ लाओ। एक बात
खयाल रखना,
इसकी
खोल टूट जाए लेकिन भीतर की गरी न टूटे।
उस
आदमी ने कहा,
यह
नहीं हो सकेगा। नारियल कच्चा है, खोल और
गरी जुड़े हुए हैं,
यह
नहीं हो सकता। मैं खोल तोडूंगा, गरी भी
टूट जाएगी।
फरीद
ने दूसरा नारियल उठा कर दिया, सूखा
नारियल,
और कहा, इससे हो सकता है? इसकी गरी को बचा कर ले आना, खोल तोड़ देना।
उस आदमी
ने कहा,
यह हो
सकता है।
फरीद
ने पूछा,
क्यों?
उस
आदमी ने कहा,
गरी और
खोल के बीच फासला हो गया। हम खोल को तोड़ देंगे, भीतर की गरी साबुत बच सकती है। लेकिन कच्चे
नारियल में यह नहीं हो सकता।
तो
फरीद ने कहा कि बस तू समझा कि नहीं समझा? जीसस और मंसूर जैसे लोग सूखे नारियल हैं, उनके शरीर और उनके बीच फासला
है। तुम शरीर को चोट पहुंचाओ, वह चोट
शरीर से भीतर नहीं जाती, वह गरी
तक नहीं पहुंचती,
वह
आत्मा तक नहीं पहुंचती। और हम सब कच्चे नारियल हैं। हमारे ऊपर चोट पहुंचती है, वह भीतर तक पहुंच जाती है, क्योंकि बीच के फासले का हमें
कोई भी पता नहीं है।
शरीर
के प्रति जागरण से, स्वयं
और शरीर के बीच डिस्टेंस, फासला
पैदा होता है। और वह फासला इतना है कि आप हैरान हो जाएंगे। वह फासला जमीन और आसमान
के बीच जो फासला है, इससे
ज्यादा है। वह फासला, जमीन
और आसमान के बीच जो फासला है, इससे
ज्यादा है। यह फासला कभी पूरा किया जा सकता है जमीन और आसमान के बीच का; शरीर और आत्मा के बीच का
फासला कभी पूरा नहीं किया जा सकता। वे दिशाएं ही अलग हैं, डायमेंशन अलग हैं। उनके बीच
जो फासला है,
वह दो
बिलकुल विभिन्न चीजों का फासला है, जिनके बीच कभी भी फासला पूरा नहीं किया जा
सकता।
लेकिन
हमें तो लगता है कि मैं शरीर हूं--हमने फासला पूरा कर लिया, नींद में यह फासला पूरा हो
गया। जैसे एक आदमी पोरबंदर में सोए और सपना देखे कि पोरबंदर में नहीं है, पेकिंग में है। सपने में
फासला पूरा हो गया। उसे नींद में पता भी नहीं चल रहा कि वह पोरबंदर में है, वह पेकिंग में समझ रहा है
अपने को। सुबह नींद खुले और वह जाग कर हैरान हो जाए और वह कहे कि मैं पेकिंग से
वापस कैसे आया?
क्योंकि
मैं सपने में पेकिंग में था! मैं लौटा कैसे? मैं गया कैसे? तो हम उससे कहेंगे, न तुम गए, न तुम लौटे; तुम्हें सिर्फ खयाल पैदा हुआ
कि तुम गए और तुम लौटे। तुम सदा यहीं थे, रात भी तुम यहीं थे, तुम पोरबंदर में ही थे, पेकिंग में तुम गए ही नहीं, पेकिंग तुम पहुंचे ही नहीं, लौटे भी तुम नहीं; पेकिंग में होने का सिर्फ
खयाल था,
सिर्फ
इल्यूजन था।
आदमी
की आत्मा शरीर तक कभी पहुंची ही नहीं है और न लौटने का सवाल है, सिर्फ खयाल है कि हम शरीर में
हैं, कि मैं शरीर हूं। यह शरीर में
होना सिर्फ एक सपना है। शरीर से लौटना नहीं है, सिर्फ जागना है और सपना टूट जाएगा। और
पेकिंग से लौटना नहीं पड़ेगा, आप
पाएंगे कि आप पोरबंदर में हैं।
आदमी
आत्मा में ही है,
शरीर
वह हो नहीं गया है; बस
शरीर में होने का खयाल पैदा हो गया है कि मैं शरीर में हूं। और खयाल अगर पैदा हो
जाए, और खयाल अगर मजबूत हो जाए, और अगर हम उसी खयाल को मजबूत
करते चले जाएं,
तो
आत्मा भूल जाती है और शरीर ही रह जाता है।
अमेरिका
में सौ वर्ष पहले ऐसा हुआ। लिंकन की शताब्दी मनाई जा रही थी। एक आदमी की खोज की गई
जो लिंकन जैसा दिखाई पड़ता था। बहुत मुश्किल से वह आदमी मिला। और एक आदमी मिल गया
जिसकी शक्ल ठीक लिंकन जैसी थी। उसको लिंकन का पार्ट अदा करने के लिए पूरे अमेरिका
में घुमाया गया। जगह-जगह लिंकन के जीवन-चरित्र का नाटक हुआ और उस आदमी ने अब्राहम
लिंकन का पार्ट किया। एक साल तक वह आदमी एक कोने से दूसरे कोने तक लिंकन का पार्ट
करता रहा।
लेकिन
साल भर बाद एक बड़ी गड़बड़ हो गई। नाटक खतम हो गया, शताब्दी समाप्त हो गई, समारोह बंद हो गया और उस आदमी
को यह भ्रम पैदा हो गया कि वह अब्राहम लिंकन है। वह भूल गया, पागल हो गया! घर लौट आया, लेकिन अपना नाम बताने लगा
अब्राहम लिंकन! पहले तो लोगों ने समझा कि वह मजाक कर रहा है। लेकिन मजाक नहीं थी।
उसने जो कपड़े नाटक में पहने थे वह उतारने से इनकार कर दिए। उसने कहा, यही तो मेरे कपड़े हैं। वह उन्हीं
कपड़ों को पहन कर सड़कों पर निकलने लगा। वह बिलकुल लिंकन तो मालूम होता था, कपड़े भी लिंकन के पहनता था, वही लिबास पुराना जो लिंकन का
था, उसी तरह छड़ी रखता था, उसी चाल से चलता था। पहले तो
लोगों ने समझा कि वह मजाक कर रहा है, लेकिन जब महीने, दो महीने बीत गए और घर के लोग, पत्नी, बेटे, वह किसी को मानता ही नहीं था, वह कहता था, मैं अब्राहम लिंकन हूं।
तब तो
परेशानी हुई। उसे बहुत समझाया गया, लेकिन वह मानने को राजी नहीं हुआ। उसे बहुत
डराया-धमकाया गया,
लेकिन
वह मानने को राजी नहीं हुआ। फिर लोगों को शक हुआ कि यह खुद अपने भीतर तो जानता ही
होगा कम से कम कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। बहुत भीतर तो जानता होगा।
तो एक
मशीन होती है लाई-डिटेक्टर, जिस पर
झूठ पकड़ी जा सकती है। उस मशीन पर उसको खड़ा किया गया।
उस
मशीन पर खड़ा करके अगर आपसे पूछा जाए, तो जो सत्य है वह आप बोलेंगे तो आपके हृदय
की गति दूसरी रहती है और आप असत्य बोलेंगे तो हृदय की गति में फर्क पड़ जाता है।
इसलिए वह मशीन नीचे हृदय की गति आंक लेती है कि फर्क कब पड़ा। जैसे आपसे पूछा कि आप
स्त्री हो कि पुरुष? आपने
कहा, मैं पुरुष हूं। तो झूठ बोलने
का कोई कारण नहीं है, मशीन
नीचे आपकी गति अंकित करेगी। आपसे पूछा कि इस समय कितना बजा है घड़ी में? आपने कहा, नौ। तो झूठ बोलने का कोई कारण
नहीं है,
मशीन
नीचे अंकित करेगी। आप से आठ-दस ऐसे प्रश्न पूछे जाएंगे, जिनमें झूठ बोलने का कोई कारण
ही नहीं है। फिर आपसे असली सवाल पूछा जाएगा।
यही
उसके साथ किया गया। दस सवाल पूछे गए, उसने सबका ठीक जवाब दिया। फिर उससे पूछा गया, तुम अब्राहम लिंकन हो? वह घबड़ा गया था, वह परेशान हो गया था इस बात
से, लोग पूछ-पूछ कर हैरान कर दिए
थे। उसने कहा,
मैं
अब्राहम लिंकन नहीं हूं। लेकिन मशीन ने नीचे से बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है!
वह तो भीतर से जानता था कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। मशीन ने बताया कि यह आदमी इस
वक्त झूठ बोल रहा है। तब तो बड़ी मुश्किल हो गई।
कैसे
यह खयाल इसे पैदा हो गया? यह
खयाल पैदा हो सकता है। हमें लगेगा वह आदमी पागल था। लेकिन जो जानते हैं वे कहेंगे, हम सब भी पागल हैं! हम को भी
यह खयाल पैदा हो गया है कि हम शरीर हैं।
और ये
खयाल बहुत लोगों को पैदा होते हैं। जब स्टैलिन रूस में हुकूमत में था, तो रूस के कई पागलों को यह
खयाल था कि वे स्टैलिन हैं। जब चर्चिल हुकूमत में था, तो कई पागलों को इंग्लैंड में
खयाल था कि वे चर्चिल हैं। नेहरू जब हुकूमत में थे, तो हिंदुस्तान में कम से कम
दस आदमी थे जिनको यह खयाल था कि वे नेहरू हैं। एक ऐसे आदमी से नेहरू का मिलना भी
हो गया।
एक
पागलखाने में नेहरू गए। और उस पागलखाने में एक पागल था जो ठीक हो गया था। पागलखाने
के अधिकारियों ने उसे रोक रखा था कि कल नेहरू आने वाले हैं, उन्हीं के हाथ से इसको मुक्ति
दिलवा देंगे तो यह भी खुश होगा, जलसा
भी हो जाएगा। नेहरू उससे मिल कर बहुत खुश हुए और उन्होंने कहा, मैं बहुत खुश हूं कि तुम ठीक
हो गए। तुम बिलकुल ठीक हो गए हो?
उस
आदमी ने कहा,
मैं
बिलकुल ठीक हो गया हूं। लेकिन महाशय मैं भूल गया पूछना आपसे कि आप हैं कौन?
तो
नेहरू ने कहा,
मैं? तुम्हें पता नहीं! मैं
जवाहरलाल नेहरू हूं।
वह
आदमी खूब हंसने लगा और उसने कहा, महाशय, आप भी तीन साल यहां रह जाइए
तो ठीक हो जाएंगे। तीन साल पहले मुझे भी यही खयाल था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं।
लेकिन तीन साल में मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं।
आदमी
के भ्रमों की कोई सीमा नहीं है। भ्रम तोड़ने का एक ही उपाय है--जागरण। और पहला
बुनियादी भ्रम है आदमी को कि मैं शरीर हूं। और जब तक यह भ्रम बना हुआ है, तब तक मैं आत्मा हूं यह नहीं
जाना जा सकता।
लेकिन
कुछ साधु-संत सिखाते हैं कि बैठ कर यह विचार करो कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं...। इससे
कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि जितनी बार आप कहते हो, मैं शरीर नहीं हूं, उतनी बार ही आप यह बात सिद्ध
कर रहो हो कि आप जानते हो कि आप शरीर हो। साधु-संत सिखाते हैं कि बैठ कर यह जप करो
कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं
शरीर नहीं हूं...। लेकिन इस जप का मतलब क्या है? इस जप का मतलब यह है कि आप
मानते हो कि आप शरीर हो और उस मान्यता को तोड़ने के लिए उलटी मान्यता पैदा कर रहे
हो।
अगर एक
पुरुष बैठ कर एक कोने में कहे कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, तो हमें शक होगा कि इस आदमी
के दिमाग में कुछ गड़बड़ है। क्योंकि अगर यह पुरुष है, तो दोहराता क्यों है? अगर आपको पता चल गया है कि आप
शरीर नहीं हैं,
तो
आपको दोहराने की जरूरत नहीं है। दोहराने से पता नहीं चल जाएगा, दोहराने से सिर्फ आप एक नया
भ्रम पैदा कर रहे हो। पुराना भ्रम कायम है और नया भ्रम पैदा कर रहे हो।
नहीं; दोहराना नहीं है, शरीर के प्रति जागना है।
जागने से यह पता चल जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं। इसको दोहराना नहीं पड़ेगा। जैसे
मैंने कहा कि एक आदमी पोरबंदर में सोया है और सपना देखता है कि मैं पेकिंग में
हूं। और वह सपने में कहे कि नहीं, मैं
पेकिंग में नहीं हूं; नहीं, मैं पेकिंग में नहीं हूं; नहीं, मैं पेकिंग में नहीं हूं; तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्योंकि यह कहना कि मैं पेकिंग में नहीं हूं, इस बात को मान लेने से शुरू होता है कि मैं
पेकिंग में हूं। इसके कहने की कोई जरूरत नहीं है।
हम
सिर्फ उसी को निगेट करते हैं, विरोध
करते हैं,
जिसको
हम स्वीकार कर लेते हैं। स्वीकृति को ही विदा करना है, अस्वीकृति नहीं पैदा करनी है।
और स्वीकृति कैसे विदा होगी? स्वीकृति
जागने से विदा होगी, क्योंकि
स्वीकृति निद्रा से पैदा हुई है। हम सोए हुए हैं, इसलिए लगता है कि हम शरीर
हैं। हम जाग जाएंगे, लगेगा
कि हम शरीर नहीं हैं।
इसलिए
पहला स्मरण है शरीर की क्रियाओं के प्रति। दूसरा स्मरण है मन के विचारों के प्रति।
और जैसे ही मन के विचारों के प्रति हम जागेंगे, वैसे ही विचार खो जाएंगे। विचार भी निद्रा
से पैदा होते हैं। और जितनी गहरी निद्रा हो, विचार उतने ही सत्य मालूम होते हैं।
इसीलिए
तो नींद में सपना सच मालूम होता है। दिन में आपको उतना सच नहीं मालूम होता, क्योंकि दिन में आप थोड़े जाग
गए हैं। आप शराब पी लें, और दिन
में ही सपना सच मालूम होने लगेगा। क्योंकि शराब में फिर आप सो गए हैं।
अभी
अमेरिका में दो नई चीजें चलती हैं--लिसर्जिक एसिड और मैस्कलीन। इन दोनों चीजों को
लेने से आदमी दिन में ही जागते ही ऐसे सपने देखने लगता है जिनका कोई हिसाब नहीं।
जैसा भांग और गांजे से होता है, वैसे
ही ये नये सिंथेटिक ड्रग, नई
बनाई गई दवाएं हैं, जिनको
लेने से आदमी अदभुत आनंद में पहुंच जाता है, जो देखना चाहे वही दिखाई पड़ने लगता है।
स्वर्ग देखिए,
नरक
देखिए,
भगवान
देखिए--जो भी देखना चाहें देखिए--बस एक ड्रग ले लीजिए और छह घंटे के लिए खो जाइए।
छह घंटे फिर आप दूसरी दुनिया में हैं। प्रत्येक विचार सत्य मालूम होगा।
जिस
मात्रा में नींद गहरी होगी, बेहोशी
होगी, विचार उतने ही सत्य मालूम
होंगे। जिस मात्रा में जागरण होगा, विचार असत्य होते चले जाएंगे। जागरण पूर्ण
होगा, विचार शून्य हो जाएंगे। जागे
हुए चित्त में कोई विचार नहीं होता।
तो
दूसरी प्रक्रिया है साक्षी की: मन के प्रति जागना। यह घंटे भर कभी एकांत में बैठ
कर करना जरूरी है। और बन सके तो दिन में जब भी खयाल आ जाए, तब मन के विचारों के प्रति
होश रखना जरूरी है, अवेयरनेस
रखना जरूरी है। एक छह महीने का प्रयोग और चित्त को रूपांतरित कर देता है।
ये दो
जागरण आपको करने हैं, तीसरा
जागरण अपने आप आता है। जो आदमी शरीर के प्रति और मन के प्रति जाग जाता है और जिस
आदमी को यह अनुभव हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं और जिसको यह अनुभव हो जाता है
कि मन के विचार शांत हो गए, उसको
तीसरा जागरण अपने आप आता है--वह है आत्म-जागरण। शरीर के प्रति जागना पड़ता है, मन के प्रति जागना पड़ता है; आत्म-जागरण अपने आप आता है।
दो जागरण हमें करने पड़ते हैं, तीसरा
जागरण अपने से उपलब्ध होता है। ये दो जागरण जहां पूरे हो जाते हैं, तीसरा जागरण प्रकट हो जाता
है।
जैसे
कोई आदमी छत पर खड़ा हो और कूदना चाहे छत से, तो कूदेगा। कूदने के बाद अगर वह हम से पूछे
कि अब मैं जमीन पर पहुंचने के लिए और क्या करूं?
तो हम
उससे कहेंगे,
अब
तुम्हें कुछ भी नहीं करना, अब
जमीन तुम्हें खींच लेगी। तुम कूद गए, इतना काफी है। अब बाकी काम जमीन करेगी। जमीन
में ग्रेविटेशन है, वह
तुम्हें खींच लेगा। छत से कूदो मत, तो जमीन का ग्रेविटेशन काम नहीं करेगा, गुरुत्वाकर्षण काम नहीं
करेगा। छत से कूद जाओ, फिर
तुम्हें कुछ भी नहीं करना है, फिर
जमीन खींच लेगी।
हम
शरीर और मन पर रुके हुए हैं, अटके
हुए हैं। वहां से हम कूद जाएं, फिर
आत्मा का ग्रेविटेशन है, आत्मा
की कशिश है,
आत्मा
का गुरुत्वाकर्षण है, वह
जमीन के गुरुत्वाकर्षण से भी ज्यादा है। बस एक बार हम कूद जाएं शरीर की छत से, फिर आत्मा खींच लेती है।
एक
बहुत प्राचीन इजिप्त की किताब में एक वचन है कि तुम एक कदम चलो परमात्मा की तरफ और
परमात्मा तुम्हारी तरफ हजार कदम चलता है। एक कदम तुम उठाओ, हजार कदम परमात्मा की शक्ति
उठाती है। उसे उठाना नहीं पड़ता, बस
तुम्हारा एक कदम छलांग बन जाती है और फिर खींच लिया जाता है आदमी।
शरीर
और मन से कूद जाना है, फिर हम
वहां पहुंच जाते हैं जहां आत्मा है। वह तीसरा जागरण अपने आप आता है। दो साक्षीभाव
स्वयं साधने हैं,
तीसरा
अपने आप आता है। यह कहना भी शायद गलत है कि अपने आप आता है। वह तीसरा साक्षीभाव
मौजूद है हमेशा से, उसका
हमें पता नहीं चल रहा, क्योंकि
हम दो तलों पर नींद में खो गए हैं। वह सदा से मौजूद है, वह है! हम यहां से जागे और वह
दिखाई पड़ जाएगा।
जैसे
कि हम अभी आंख बंद करके बैठ जाएं, तो
सूरज है बाहर,
लेकिन
हमें पता नहीं चलेगा। हम आंख खोलें और हम कहेंगे सूरज आ गया। सूरज आ नहीं गया, सूरज तब भी था जब हम आंख बंद
किए बैठे थे। लेकिन आंख बंद हो तो सूरज दिखाई कैसे पड़े?
हम
शरीर की तरफ खोए हुए हैं, इसलिए
वह हमें नहीं दिखाई पड़ता जो शरीर के पीछे है। हम शरीर से उठ जाएं और वह हमें दिखाई
पड़ जाएगा जो पीछे है।
जिस
दिन बुद्ध को सत्य की उपलब्धि हुई, लोगों ने उनसे पूछा कि तुम्हें क्या मिल गया
है? तुम क्यों नाचते हो? क्यों इतने खुश हो रहे हो? तुम्हें मिला क्या है?
बुद्ध
ने कहा,
मिला
कुछ नहीं;
जो सदा
से मिला हुआ था,
उसका
ही पता चल गया है। जो सदा से ही मिला हुआ था, उसका ही पता चल गया है।
बुद्ध
ने कहा,
मिला
कुछ भी नहीं;
कुछ खो
जरूर गया है--नींद खो गई है, अज्ञान
खो गया है। ज्ञान मिला है, ऐसा
मैं नहीं कहूंगा। क्योंकि ज्ञान था! मैं नींद में था, इसलिए उसका पता नहीं चलता था।
सत्य
है हमारे पास,
उसे
खोजने कहीं जाना नहीं है, सिर्फ
जागना है।
एक
छोटी सी कहानी,
और
अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
एक
छोटी सी पहाड़ी के पास एक संन्यासी खड़ा हुआ है। और तीन व्यक्ति गांव के पहाड़ी के पास
घूमते हुए निकल रहे हैं। उन तीनों को खयाल उठा कि सूरज की चमकती रोशनी में यह
संन्यासी वहां क्या कर रहा है? एक ने
कहा कि कभी-कभी ऐसा होता है, उसकी
गाय खो जाती है। और वह अपनी गाय को खोजने पहाड़ पर जाता है, वहां से ऊंचाई पर खड़े होकर
देखता है कि गाय कहां है।
लेकिन
दूसरे व्यक्ति ने कहा, मित्र, जो आदमी कुछ खोजता है वह आंख
खोल कर खड़ा होता है। वह संन्यासी आंख बंद किए हुए खड़ा है, वह खोज नहीं रहा है। दूसरे
मित्र ने कहा कि मैं समझता हूं, कभी-कभी
उसके साथी कुछ और लोग भी घूमने आते हैं। वे पीछे रह जाते हैं तो वह खड़े होकर उनकी
प्रतीक्षा करता है, जब वे
आ जाते हैं तब पहाड़ से नीचे उतर आता है।
लेकिन
तीसरे मित्र ने कहा, यह भी
ठीक मालूम नहीं पड़ता; क्योंकि
जो आदमी किसी की प्रतीक्षा करता है वह कभी-कभी पीछे लौट कर भी देखता है। वह पीछे
लौट कर ही नहीं देख रहा, वह एक
ही तरफ सिर किए हुए है। तो तीसरे ने कहा, मैं यह नहीं मानता कि वह किसी की प्रतीक्षा
कर रहा है,
न मैं
यह मानता हूं कि वह गाय की खोज कर रहा है। मेरी समझ है कि वह परमात्मा का स्मरण कर
रहा है।
विवाद
तेज हो गया और उन तीनों ने कहा, अब
इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं कि हम चलें और उससे ही पूछ लें कि तुम क्या कर रहे हो?
वे
तीनों पहाड़ चढ़ कर गए। और पहले आदमी ने जाकर उस संन्यासी को पूछा कि भिक्षुजी, क्या आप अपनी गाय खोज रहे हैं?
उस
भिक्षु ने आंख खोली और कहा, गाय? मेरा कुछ भी नहीं है, तो मैं खोजूंगा क्या! मैं
खाली हाथ आया और खाली हाथ चला जाऊंगा। और मैं जानता हूं कि मेरे हाथ अभी भी खाली
हैं। मैं उस भ्रम में नहीं पड़ता कि मेरा कुछ है। इसलिए खोजने का सवाल ही नहीं।
अपने को ही खोज लूं वही बहुत, बस वही
मैं हूं। अपने को ही नहीं खोज पाया, गाय को क्या खोजूंगा? समय खराब करने को मेरे पास
नहीं है। मैं कुछ खोज नहीं रहा।
वह
आदमी हार कर पीछे हट गया। दूसरे आदमी ने कहा, तब तो निश्चय ही कोई मित्र पीछे छूट गया, आप उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?
उस
संन्यासी ने कहा,
भाई, मेरा कोई शत्रु नहीं, इसलिए मित्र का भी कोई सवाल
नहीं! जिनके शत्रु होते हैं, उनके
ही मित्र होते हैं! मेरा न कोई शत्रु है, न मेरा कोई मित्र है! मैं किसी की प्रतीक्षा
नहीं कर रहा। प्रतीक्षा किसकी करनी है? और कितनी ही प्रतीक्षा करो, कभी कोई मिल सकता है? अपने से ही मिलना मुश्किल है, दूसरे से मिलना कहां संभव है!
मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूं।
वह
आदमी भी हार गया। तीसरे आदमी ने कहा, तब तो निश्चित ही जीत मेरी है। मैं आपसे
पूछता हूं,
क्या
आप भगवान का स्मरण कर रहे हैं?
वह
फकीर कहने लगा,
भगवान? भगवान का मुझे कुछ पता नहीं।
जिसका पता नहीं उसका स्मरण कैसे करूं? और पता चल जाएगा तो फिर स्मरण क्यों करूंगा? पता नहीं है तब भी स्मरण नहीं
किया जा सकता और पता हो जाए तब स्मरण की जरूरत नहीं रह जाती। मैं किसी का स्मरण
नहीं कर रहा हूं।
तो उन
तीनों ने पूछा कि फिर महाशय, आप कर
क्या रहे हैं यहां खड़े होकर?
तो उस
भिक्षु ने बड़ी अदभुत बात कही। उसने कहा, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं; मैं सिर्फ जागा हुआ खड़ा हूं।
उस भिक्षु ने कहा,
मैं
कुछ भी नहीं कर रहा हूं; मैं
सिर्फ जागा हुआ खड़ा हूं। जस्ट स्टैंडिंग इन अवेयरनेस। बस मैं होश में खड़ा हुआ हूं।
मैं कुछ कर ही नहीं रहा, बस मैं
साक्षी की तरह खड़ा हुआ हूं। आकाश का साक्षी हूं, सूरज का साक्षी हूं, वृक्षों का साक्षी हूं, तुम्हारा साक्षी हूं, अपना साक्षी हूं--बस साक्षी
होकर खड़ा हूं।
लेकिन
वे मित्र पूछने लगे कि किसलिए साक्षी होकर खड़े हो?
तो उस
भिक्षु ने कहा,
यह तुम
साक्षी होकर खड़े हो जाओ तो ही जान सकते हो। यह तुम भी इसी तरह जब किसी दिन खड़े
होओगे तो जान सकोगे। क्योंकि, उस
भिक्षु ने कहा,
जब तक
मैं सोया था,
मैंने
सब खोया;
और जब
से मैं जागना शुरू हो गया हूं, मैंने
सब पा लिया। सोया हुआ व्यक्ति सब खो देता है--जीवन, सत्य, अमृत, सब! जागा हुआ व्यक्ति सब पा
लेता है--जीवन,
आत्मा, सत्य, अमृत। अगर पाना है कुछ तो जागना
जरूरी है। अगर खोना है तो सोना पर्याप्त है।
हम सब
खो रहे हैं,
क्योंकि
सोए हैं। हम सब भी पा सकते हैं, अगर हम
जाग जाएं। और पाने की जो अंतिम अनुभूति है उसका नाम ही परमात्मा है। उसके आगे पाने
को कुछ शेष नहीं रह जाता। उसे पाकर सब पाने की दौड़ समाप्त हो जाती है। क्योंकि वही
जीवन है,
वही
आनंद है,
वही
अमृत है।
इस
अमृत की दिशा में,
इस
जीवन की दिशा में,
इन तीन
सूत्रों में मैंने कुछ बातें कही हैं। मेरी बातें मुझे समझ लेने से कुछ परिणाम
नहीं लाने वाली हैं। वह तो जो उस भिक्षु ने कहा, आप भी जाग कर खड़े हो जाएं, तो कुछ हो सकता है।
थोड़ी
कोशिश करें। सोने की तो हम चौबीस घंटे कोशिश करते हैं, कभी घड़ी, दो घड़ी जागने की कोशिश करें।
और इतना मैं कहता हूं कि जीवन के अंत में वही हाथ आएगा जो जागने में पाया है, जो सोने में कमाया है वह सब
व्यर्थ हो जाता है।
मेरी
बातों को इतनी शांति और इतने प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके
भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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