परमात्मा की अनुभूति
मेरे
प्रिय आत्मन्!
एक
मित्र ने पूछा है कि क्या मैंने कभी परमात्मा को देखा है?
परमात्मा
के संबंध में हम इस भांति सोचते हैं, जैसे उसे भी देखा जा सकता हो। जो देखा जा
सकता है,
वह
संसार ही रहेगा। परमात्मा कभी भी देखा नहीं जा सकता; जो देख रहा है वह परमात्मा
है।
इस बात
को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
जो भी
दिखाई पड़ता है उसका नाम ही संसार है और जिसको दिखाई पड़ता है उसका नाम परमात्मा है।
इसलिए परमात्मा कभी दिखाई नहीं पड़ सकता है।
लेकिन
कोई कहता है कि मैंने परमात्मा को देखा। बड़ी भूल कर रहा है। एक तो परमात्मा दिखाई
नहीं पड़ सकता,
वह खुद
परमात्मा है जिसको दिखाई पड़ता है। दूसरी बात, जहां परमात्मा का अनुभव होता है--दिखाई तो
वह पड़ता नहीं,
क्योंकि
मैं वही हूं,
आप वही
हैं--लेकिन जब इस स्वयं का अनुभव होता है, तब मैं भी वहां शेष नहीं रह जाता है, वहां मैं भी गिर जाता है।
तो जो
कहता है,
मैंने
परमात्मा को देखा,
वह
दोहरी भूल कर रहा है। एक तो वह यह कहता है कि परमात्मा कोई चीज है मुझसे अलग, जो दिखाई पड़ गई। यह झूठ है।
दूसरी भूल वह यह कर रहा है कि वह कह रहा है, मैंने देखा। मैं तो बचता नहीं वहां, जहां परमात्मा का अनुभव होता
है। इसलिए इससे ज्यादा असत्य कोई बात नहीं हो सकती कि कोई कहे, मैं परमात्मा को देखा हूं।
लेकिन
राम और कृष्ण देखे जा सकते हैं, बुद्ध
और महावीर देखे जा सकते हैं। सच में ही बुद्ध और महावीर नहीं देखे जाएंगे, न राम और कृष्ण। लेकिन मनुष्य
की कल्पना बहुत समर्थ है। कल्पना इतनी समर्थ है कि जो नहीं है, वह भी देखा जा सकता है। अगर
कोई ठीक से कल्पना करे, तो
प्रतीतियां हो सकती हैं स्वप्नवत, और उसी
को लोग ईश्वर का साक्षात्कार समझ लेते हैं।
अगर
कोई निरंतर धारणा करे, निरंतर
कामना करे,
निरंतर
कल्पना करे,
निरंतर
पुकारे और चिल्लाए और रोए, और
चौबीस घंटा स्मरण करे--कृष्ण का, कृष्ण
का, कृष्ण का, तो चित्त में एक छवि बननी
शुरू हो जाएगी। उस छवि को इतना प्रगाढ़ रूप मिल सकता है कि वह छवि बाहर भी दिखाई
पड़ने लगे। वह प्रोजेक्शन होगा, वह
प्रक्षेपण होगा। वहां कोई होगा नहीं, लेकिन दिखाई पड़ सकता है। और अगर किसी के पास
कवि का हृदय हो,
तब तो
बहुत आसान है।
टाल्सटाय
का नाम सुना होगा आपने। गांधी जी अपने गुरुओं में एक टाल्सटाय की गिनती भी करते
थे। वह बहुत अनूठा आदमी था। कवि हृदय, कल्पनाशील। एक रात उसे मास्को के एक ब्रिज
के ऊपर,
पुल के
ऊपर पकड़ा गया। आधी रात, अंधेरे
में खड़ा था पुल के ऊपर। पुलिसवाला जो वहां पहरे पर था, उसने पूछा कि महाशय ऐसे कैसे
खड़े हैं यहां?
वह
ब्रिज ऐसा था कि वहां अक्सर लोग आत्महत्या करते थे। तो एक सिपाही तैनात था इसीलिए
कि वहां कोई आत्महत्या न कर सके। तो रात दो बजे टाल्सटाय को वहां देख कर उस सिपाही
ने पकड़ा और कहा,
आप
यहां कैसे आए?
टाल्सटाय
की आंखों से आंसू बह रहे हैं। टाल्सटाय ने कहा कि अब तुम देर करके आए, जिसे आत्महत्या करनी थी उसने
कर ली है। मैं तो सिर्फ उसके लिए खड़ा होकर रो रहा हूं। वह सिपाही तो घबड़ा गया, वह था डयूटी पर तैनात। कौन
गिर गया?
कब गिर
गया? उसने टाल्सटाय से पूछा। लेकिन
टाल्सटाय रोए चला जा रहा है। वह टाल्सटाय को पकड़ कर थाने ले गया कि पूरी रिपोर्ट
आप लिखवा दें--कौन था? क्या
था? रास्ते में टाल्सटाय से उसने
पूछा, कौन था? तो टाल्सटाय ने कहा, एक स्त्री थी। नाम बताया, उसकी मां का नाम, उसके पिता का नाम, सब जरूरी सब बताया।
थाने
में पहुंचा। थाने में जो इंसपेक्टर था वह पहचानता था। उसने कहा, टाल्सटाय को ले आए! और
टाल्सटाय शाही घराने के लोगों में से एक था। उसने टाल्सटाय को पूछा कि क्या कहते
हैं आप,
कौन मर
गया?
थाने
में पहुंच कर होश आकर टाल्सटाय ने कहा, क्षमा करना, भूल हो गई। मैं एक उपन्यास
लिख रहा हूं। उस उपन्यास में एक पात्रा है। वह पात्रा, आज की रात कहानी वहां पहुंचती
है कि वह जाकर वोल्गा में कूद कर आत्महत्या कर लेती है। मैं भूल गया, किताब बंद करके मैं वहां
पहुंच गया जहां कहानी में वह आत्महत्या करती है। मैं वहीं खड़ा उसके लिए रोता था कि
इस आदमी ने पकड़ लिया।
पर वह
सिपाही कहने लगा,
तुमने
कहा उसके पिता का नाम, मां का
नाम।
उसने
कहा, वह सब ठीक है, कहानी में वही उसके पिता का
नाम है,
वही
उसकी मां का नाम है।
लेकिन
वे सब कहने लगे कि आप आदमी कैसे हैं, आप इतना धोखा खा गए?
टाल्सटाय
ने कहा,
बहुत
बार ऐसा हो चुका है। कल्पना के चित्र इतने सजीव मालूम पड़ते हैं मुझे कि मैं कई बार
भूल जाता हूं। बल्कि सच तो यह है कि असली आदमी इतने सजीव नहीं मालूम पड़ते, जितनी मेरी कल्पना के।
टाल्सटाय
ने अपना पैर बताया, जिसमें
बड़ी चोट थी,
निशान
था। और उसने कहा कि एक बार मैं लाइब्रेरी की सीढ़ियां चढ़ रहा था। और मेरे साथ एक
स्त्री चढ़ रही थी। वह भी मेरी पात्र थी किसी कहानी की, थी नहीं। लेकिन वह उससे
बातचीत करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था। संकरी जगह थी, और ऊपर से एक सज्जन उतर रहे थे। मैंने सोचा
कहीं स्त्री को धक्का न लग जाए, तो मैं
बचा। बचने की कोशिश में उन सीढ़ियों से नीचे गिर गया। जब सीढ़ियों से नीचे गिर गया, उन सज्जन ने मुझसे आकर कहा, पागल हो गए हो? क्यों बचे तुम? दो के लायक काफी जगह थी!
टाल्सटाय
ने कहा,
वह तो
अब मुझे भी समझ में आ गया कि दो थे, पैर टूटने से बुद्धि आई। लेकिन जब तक मैं चढ़
रहा था,
मुझे
खयाल था हम तीन हैं, एक औरत
मेरे साथ है। और उसको धक्का न लग जाए, इसलिए मैंने बचने की कोशिश की।
अब ऐसे
व्यक्तियों को भगवान का साक्षात्कार करना कितना सरल हो सकता है। कवि हृदय चाहिए, कल्पनाशील मन चाहिए। और फिर
ऐसी तरकीबें हैं कि कल्पनाशील मन को और कल्पनाशील बनाया जा सकता है। जैसे उपवास
करके! अगर लंबा उपवास किया जाए, तो मन
और भी कल्पना-प्रवीण, इमेजिनेटिव
हो जाता है। कभी आपको अगर बुखार में लंघन करनी पड़ी हो तो आपको पता होगा कि अगर
लंबी लंघन करनी पड़ी हो, भूखा
रहना पड़ा हो बुखार में, कमजोरी
बढ़ गई हो,
भूख से
रहना पड़ा हो--तो कभी खाट आकाश में उड़ती हुई मालूम पड़ेगी, कभी देवी-देवता दिखेंगे, कभी भूत-प्रेत, वे सब साथ दिखाई पड़ेंगे।
वह
कमजोर चित्त को बहुत आसान है। इसीलिए लोग लंबे उपवास करके चित्त को कमजोर करते हैं
कि जो भी कल्पना करना चाहें वे कर सकें। लंबे उपवासों के द्वारा और कुछ भी नहीं
होता, सिवाय इसके कि चित्त कमजोर
होता है। और कमजोर चित्त तर्क करने में असमर्थ हो जाता है। कमजोर चित्त जांचने में
कमजोर हो जाता है कि क्या सही है, क्या
झूठ है। कमजोर चित्त सपना देखने में सरल हो जाता है। और फिर जो भी आपकी कल्पना हो
वह देखा जा सकता है।
उपवास
करिए और एकांत में चले जाइए। एकांत में जाना भी कल्पना के लिए बड़ा सहयोगी है। कभी
खयाल किया है,
अकेले
जंगल में गुजर रहे हों तो पत्ता भी खड़कता है तो लगता है कौन आ गया! अंधेरी रात में
अकेले हों तो जरा सी चोट, आवाज
होती है,
और
लगता है कि कोई आ गया! भूत-प्रेत दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। जिस ढंग से
भूत-प्रेत दिखते हैं, उसी
ढंग से भगवान भी देखे जाते हैं, फर्क
ज्यादा नहीं है। एकांत में चित्त संवेदनशील हो जाता है। भीड़ में चित्त उतना
संवेदनशील नहीं होता, क्योंकि
चारों तरफ लोग हैं और उनकी मौजूदगी आपके चित्त को ज्यादा संवेदनशील नहीं होने
देती। लेकिन एकांत में चले जाइए, जंगल
में चले जाइए,
हिमालय
पर चले जाइए। फिर वहां जो भी कल्पना करनी हो वह आप कर सकते हैं।
और फिर
तीसरी विधि है कि खुद को आत्म-सम्मोहित करिए। रखिए कृष्ण की मूर्ति सामने और उसको
ही देखिए,
उसके
साथ ही जागिए,
उसके
साथ ही सोइए,
उससे
बातें करिए,
हाथ
जोड़िए,
प्रार्थना
करिए। ऐसा वर्षों तक करते रहिए, करते
रहिए। मन उस मूर्ति को पकड़ लेगा। फिर जो मन मूर्ति को पकड़ लेता है, फिर वह उस मूर्ति को बाहर
प्रोजेक्ट भी करता है, वह
उसको बाहर निर्मित भी करता है। उसी का दर्शन हो जाएगा। उसको चाहें तो भगवान का
दर्शन कह लें। लेकिन इसे मैं भगवान का दर्शन नहीं कहता हूं।
मेरी
समझ में भगवान कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसका दर्शन हो सके। भगवान है जीवन की समग्र
शक्ति का नाम। भगवान है अस्तित्व का नाम। भगवान है होने का नाम। जो भी है वही है।
लेकिन उसे जानने का जो मार्ग है वह देखना नहीं है, उसे जानने का मार्ग अनुभव
करना है। देखते हम उसे हैं जो अन्य है, अनुभव हम उसे करते हैं जो हम स्वयं हैं।
अन्य को देखा जा सकता है। लेकिन अन्य के और स्वयं के बीच में सदा फासला है, दूरी है।
मैं
आपको देख रहा हूं,
तो
आपके और मेरे बीच एक दूरी है। देखने में सदा दूरी है। देखने में कभी भी निकटता
नहीं होती। चाहे हम कितने ही निकट खड़े हो जाएं, देखने में दूरी है, दर्शन में फासला है, डिस्टेंस है। और परमात्मा को
दूरी से नहीं जाना जा सकता, परमात्मा
को तो उसके साथ एक होकर ही जाना जा सकता है।
इसलिए
परमात्मा का दर्शन नहीं होता, अनुभूति
होती है। और अनुभूति का मतलब? आपने
कभी दर्द का दर्शन किया है? पैर
में चोट लगी है,
उसका
आपने कभी दर्शन किया है? नहीं; उसकी अनुभूति की है, दर्शन कभी नहीं किया। आपने
कभी प्रेम का दर्शन किया है? प्रेम
की अनुभूति की है,
दर्शन
कभी नहीं किया। जितने गहरे में कोई बात होगी, जितने निकट होगी, उसका हम अनुभव करते हैं। और
परमात्मा सर्वाधिक निकट है, हम
परमात्मा में ही हैं, परमात्मा
ही हैं। इसलिए परमात्मा का कोई दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।
और
अनुभूति तभी होती है जब मेरा यह खयाल मिट जाए कि मैं हूं। क्योंकि यह मैं अनुभूति
में सबसे बड़ी बाधा है। जब यह मैं मिट जाता है और परम शांति होती है भीतर...क्योंकि
जब तक मैं है,
तब तक
शांति नहीं। मैं के अतिरिक्त और कोई अशांति नहीं है, मैं ही अशांति का सूत्र है।
जितने जोर से मैं,
और मैं, और मैं चल रहा है, उतना ही चित्त अशांत है। जिस
दिन मैं शांत हो जाता है, उस दिन
हम उसे जान पाते हैं जो भीतर छिपा है। इस भीतर जो छिपा है, उसे जानना ही परमात्मा का
अनुभव है। निश्चित ही, जो
अपने भीतर इसे जान लेता है, वह यह
भी जान लेता है कि वही फैला है सब में। लेकिन वह भी दर्शन नहीं है, वह भी भीतर से ही अनुभव है।
जैसे
कोई वृक्ष का एक पत्ता हवा में हिल रहा है। शायद वह पत्ता समझता हो कि मैं हूं। और
शायद वह पत्ता यह भी सोचता हो कि उसके निकट के पत्ते अन्य हैं, भिन्न हैं, दूसरे हैं। क्योंकि उस पत्ते
को वे पत्ते दिखाई पड़ रहे हैं। सोचता होगा ये अन्य हैं, दूसरे हैं, इनके और मेरे बीच फासला है।
निश्चित ही एक पत्ते में और उसी वृक्ष के दूसरे पत्ते में फासला है। वह पत्ता कहता
होगा, मैं मैं हूं, तू तू है।
लेकिन
पत्ता अगर अपने भीतर प्रवेश करे थोड़ा, तो अपने भीतर प्रवेश करने से वह शाखा में
प्रवेश कर जाएगा,
जिसमें
सारे पत्ते जुड़े हैं। और तब वह जानेगा, अरे, मैं सोचता था मैं मैं हूं! मैं मैं नहीं हूं, यह पूरी शाखा मैं हूं, ये सारे पत्ते मैं हूं। और
अगर और भीतर प्रवेश करे, तो पता
चलेगा,
नीचे
की जड़ पर सारी शाखाएं भी जुड़ी हैं! तब वह समझेगा कि न केवल मैं, मैं और पत्ते, और शाखा; दूसरी शाखाएं भी मैं हूं। और
अगर वह और नीचे प्रवेश करे, तो
पाएगा कि जड़ें पृथ्वी से जुड़ी हैं। और पृथ्वी के बिना जड़ें नहीं हो सकती हैं। तब
शायद वह समझे कि पृथ्वी भी मैं हूं। और जिस पृथ्वी से मेरा वृक्ष जुड़ा है, उसी से दूसरे वृक्ष भी जुड़े
हैं। तब वह शायद समझे कि सारे वृक्ष मैं हूं। और अगर वह गहरे से गहरा प्रवेश करता
जाए, तो शायद उसे पता चले: सूरज
अगर डूब जाए,
अस्त
हो जाए सदा के लिए, तो
वृक्ष भी नष्ट हो जाएगा। सूरज की किरणों से बंधा है वृक्ष। तब शायद वह जाने कि
सूरज भी मैं हूं। और अगर वह इस तरह प्रवेश करता ही चला जाए, करता ही चला जाए, तो एक पत्ता यह जानेगा कि
ब्रह्मांड मैं हूं। क्योंकि इस पूरे जगत में, उस पत्ते के होने के लिए सारे जगत की जरूरत
है। अगर यह सारे जगत में कुछ भी कमी हो तो वह पत्ता नहीं हो सकेगा। एक पत्ता है, क्योंकि पूरा ब्रह्मांड है।
लेकिन
यह पत्ता जितने भीतर प्रवेश करे, उतना
ही पता चलेगा। बाहर देखे तो यह कभी पता नहीं चलेगा। पता चलेगा: दूसरे पत्ते दूसरे
हैं, दूसरे वृक्ष दूसरे हैं। कहां
चांदत्तारे! कहां सूरज! यह सब फासला है। बाहर से देखने पर फासला है, भीतर से देखने पर फासला मिट
जाता है। क्योंकि भीतर से सब जुड़ा है।
अपने
भीतर उतर कर स्वयं को जान लेने से ही परमात्मा के जानने का द्वार खुलता है। इसलिए
यह मत पूछिए कि मैंने कभी परमात्मा को देखा या नहीं देखा। किसी ने कभी नहीं देखा।
हां, जाना है। और जान कोई भी सकता
है। क्योंकि हम वही हैं। जानने के लिए कहीं दूर नहीं जाना है--किसी तीर्थ नहीं, किसी मंदिर नहीं, किसी हिमालय पर नहीं। जानने
के लिए जाना है अपने ही भीतर।
एक
छोटी सी कहानी,
फिर मैं
दूसरा प्रश्न लूं।
मैंने
सुना है कि जब सृष्टि बनी और ईश्वर ने सारी चीजें बनाईं, बड़ी अदभुत कहानी है। और जब
उसने आदमी बनाया,
तो वह
अपने देवताओं से पूछने लगा कि यह आदमी मुझे बड़ा शिकायती मालूम पड़ता है। यह बन तो
गया, लेकिन यह छोटी-छोटी शिकायत
लेकर मेरे द्वार पर खड़ा हो जाएगा। मैंने वृक्ष बनाए, वृक्ष कभी शिकायत लेकर नहीं
आए, न वृक्षों ने कभी प्रार्थना
की और न शिकायत की। मैंने पशु बनाए, पशु कभी मेरे द्वार पर नहीं आए। पक्षी बनाए, कभी पक्षी मेरे द्वार पर नहीं
आए। चांदत्तारे बनाए। लेकिन यह आदमी मुसीबत का घर है। यह सुबह-शाम चौबीस घंटे
द्वार पर दस्तक देगा, कहेगा
कि यह करो,
यह करो; यह होना चाहिए, वह नहीं होना चाहिए। इस आदमी
से बचने का मुझे कोई उपाय चाहिए। मैं कहां छिप जाऊं?
तो
किसी देवता ने कहा, हिमालय
पर छिप जाइए।
तो
उसने कहा,
तुम्हें
पता नहीं है,
बहुत
जल्द वह वक्त आएगा कि हिलेरी और तेनसिंग हिमालय पर चढ़ जाएंगे।
तो
किसी ने कहा,
पैसिफिक
महासागर में छिप जाइए।
तो
उसने कहा,
वह भी
कुछ काम नहीं चलेगा। जल्दी ही अमेरिकी वैज्ञानिक वहां भी उतर जाएंगे।
किसी
ने कहा,
चांदत्तारे
पर बैठ जाइए।
उसने
कहा, उससे भी कुछ होने वाला नहीं
है। जरा ही समय बीतेगा और चांदत्तारों पर आदमी पहुंच जाएगा।
तब एक
बूढ़े देवता ने उसके कान में कहा, एक ही
रास्ता है,
आप
आदमी के भीतर छिप जाइए। वहां आदमी कभी नहीं जाएगा।
और
ईश्वर ने बात मान ली और आदमी के भीतर छिप गया। और आदमी हिमालय पर भी पहुंच गया, चांदत्तारों पर भी पहुंच
जाएगा,
पैसिफिक
में भी पहुंच गया। एक जगह भर छूट गई है जहां आदमी नहीं पहुंचता, वह खुद के भीतर।
और
धार्मिक आदमी भी कहता है, ईश्वर
कहां है?
यह
सवाल ही अधार्मिक है। और धार्मिक आदमी भी कहता है, ईश्वर के दर्शन कैसे करूं? यह सवाल ही नास्तिक का है।
आस्तिक यह पूछता ही नहीं। आस्तिक यह पूछता है, मैं कौन हूं? और जिस दिन जान लेता है, उस दिन जान लेता है कि मैं
नहीं हूं,
परमात्मा
है।
लेकिन
नास्तिक भी आस्तिकों की शक्लों में बैठे हुए हैं। मंदिर में मूर्ति बनाते हैं। ये
सारी मूर्तियां नास्तिकों ने बनाई हैं। कोई आस्तिक कभी परमात्मा की मूर्ति नहीं
बना सकता। क्योंकि आस्तिक जानता है कि उसकी मूर्ति बन ही नहीं सकती। कोई आस्तिक
कभी परमात्मा की न मूर्ति बना सकता है और न कोई आस्तिक परमात्मा की मूर्ति कभी तोड़
सकता है। क्योंकि वे दोनों नासमझियां हैं।
लेकिन
दो तरह के आस्तिक हैं दुनिया में: एक मूर्ति बनाने वाले, एक मूर्ति तोड़ने वाले। लेकिन
दोनों मूर्ति को मानते बहुत हैं। एक पूजने के लिए मानता है, एक तोड़ने के लिए मानता है।
लेकिन दोनों मूर्ति से बेचैन बहुत होते हैं। ये सब नास्तिकों की कतारें हैं, जो भूल से अपने को आस्तिक समझ
रहे हैं।
आस्तिक
वह है जो कहता है,
सभी
मूर्तियां उसकी हैं। इसलिए उसकी मूर्ति बनाने की और क्या जरूरत है? इतनी मूर्तियों में वह नहीं
दिखाई पड़ता,
तुम और
एक बना कर पत्थर की बिठा कर उसको देखोगे। सब कुछ वही है। तो आस्तिक मंदिर नहीं बना
सकता; क्योंकि मंदिर नास्तिकता का
सबूत है। नास्तिक मंदिर बनाएगा, वह
कहेगा,
यहां
भगवान है। यहां भगवान का मतलब होता है, और शेष सब जगह नहीं है। जो आस्तिक है वह
कहता है,
जो भी
है मंदिर है। जो आस्तिक है वह कहता है, कण-कण तीर्थ है। जो आस्तिक है वह कहता है, वही है, उसके सिवाय कुछ भी नहीं है।
और लेकिन
यह कहने वाले का मतलब यह नहीं है कि कहीं अंधेरे में भगवान से उसका मिलना हो गया
है। कहीं नमस्कार,
जोड़ कर
हाथ नमस्कार हो रही है। ऐसा कुछ भी नहीं है। इसका कुल मतलब इतना है कि वह अपने
भीतर उतरा है,
और मैं
मिट गया है,
और वह
द्वार खुल गया है जहां से संपूर्ण अस्तित्व का साक्षात्कार हो जाता है।
परमात्मा
का अर्थ है: अस्तित्व का साक्षात्कार। परमात्मा का साक्षात्कार नहीं; अस्तित्व का! और अस्तित्व का
साक्षात्कार दर्शन नहीं है, अस्तित्व
का साक्षात्कार अनुभूति है।
एक
दूसरे मित्र ने पूछा है कि आजकल समाज नीचे गिरता जा रहा है, अनैतिक होता चला जा रहा है, अनाचार बढ़ रहा है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। तो इस
समाज को ऊंचा उठाने के लिए क्या किया जाए?
इसमें
दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली
तो बात: यह गलत है कहना कि आजकल समाज नीचे गिरता जा रहा है। इससे ऐसा भ्रम पैदा
होता है कि पहले समाज ऊंचा था। समाज ऊंचा कभी नहीं था। कभी नहीं रहा। और यह ध्यान
रहे, ऊंचाई से नीचे की तरफ जाना
होता ही नहीं है। ऊंचाई से नीचे की तरफ जाने जैसी घटना घटती ही नहीं है। हां, धोखे की ऊंचाई हो, तो हो जाता है। कोई मनुष्य
कभी भी ऊंचाई से नीचाई की तरफ नहीं जाता है। हां, धोखे की ऊंचाई हो, तो हो सकता है। और जब कोई
नीचे चला जाए तो समझ लेना चाहिए--जिसे हमने ऊंचाई समझी थी वह ऊंचाई नहीं थी, सिर्फ धोखा था।
तो
पहली तो बात यह कि मनुष्य का समाज कभी भी ऊंचा नहीं रहा। कुछ मनुष्य ऊंचे रहे हैं, समाज कभी ऊंचा नहीं रहा। कुछ
मनुष्यों की ऊंचाई के कारण हमें यह भ्रम पैदा हुआ कि सारा समाज ऊंचा हो गया।
इस
भ्रम का टूट जाना उचित है, तो ही
हम समाज को ऊंचा करने का रास्ता खोज सकते हैं। और अगर हम यह मानते रहें कि पहले
समाज ऊंचा था,
अब
नीचे हो गया,
तो
चूंकि यह मानना ही बुनियादी रूप से गलत है, इसके आधार पर हम जो भी करेंगे, वह गलत होगा।
होता
क्या है,
इतिहास
में बड़ी भूलें हो जाती हैं। और बुनियादी भूलें हो जाती हैं, जिनका फिर पता भी नहीं चलता।
जैसे अभी,
इन
पचास सालों में हिंदुस्तान में जितने लोग पैदा हुए, इनमें से गांधी का नाम हजारों
साल तक याद रहेगा। पांच हजार साल भी गांधी का नाम शेष रहेगा। न मुझे कोई याद करेगा, न आपको, न इन पचास वर्षों में जितने
लोग पैदा हुए किसी की याद रह जाएगी। लेकिन गांधी का नाम टिकेगा, बचेगा। पांच हजार साल बाद लोग
कहेंगे कि गांधी जैसा आदमी जिस जमाने में पैदा हुआ, वह जमाना कितना ऊंचा था!
कितने ऊंचे लोग थे! गांधी के आधार पर हम सब के संबंध में वे सोचेंगे और कहेंगे, कितने ऊंचे लोग थे! हम तो मिट
जाएंगे,
धूल हो
जाएंगे। गांधी का नाम रह जाएगा, गांधी
मापदंड बन जाएंगे।
और
गांधी और हममें कोई भी संबंध नहीं, हम बिलकुल उलटे आदमी हैं। गांधी से हमारा
क्या लेना-देना! लेकिन गांधी हमारे प्रतिनिधि नहीं हैं, वे हमारे रिप्रेजेंटेटिव भी
नहीं हैं। सच तो बात यह है कि गांधी हमारे बिलकुल ही उलटे प्रतिनिधि हैं, जैसे हम नहीं हैं वैसे वे
हैं। लेकिन वे हमारे प्रतिनिधि बन कर इतिहास में याद रह जाएंगे। हम तो भूल जाएंगे, वे याद रह जाएंगे। और पांच
हजार साल बाद लोग कहेंगे, गांधी
का युग कितना अदभुत था! गांधी को देख कर वे सोचेंगे हमारे बाबत। वह सोचना बिलकुल
झूठा होगा।
ऐसे ही
राम की याद रह गई है, बुद्ध
की याद रह गई है,
महावीर
की याद रह गई है। उस जमाने के लोग भूल गए हैं। राम को देख कर हम कहते हैं, आह! कैसे अदभुत लोग थे! राम
का युग,
राम-राज्य!
झूठी
हैं ये बातें। आदमी नहीं था बड़ा; कुछ
आदमी बड़े हुए हैं इतिहास में, समाज
बड़ा नहीं हो पाया। और कुछ आदमी चमकते हुए सितारों की तरह दिखाई पड़ते हैं पीछे और
हम उनके आधार पर पूरे जमाने को चमकता हुआ मान लेते हैं। यहां बिलकुल भूल हो जाती
है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि अगर समाज बहुत बड़ा हो तो महापुरुष पैदा ही नहीं हो
सकते हैं,
महापुरुष
हमेशा छोटे समाज में पैदा होते हैं।
जैसे
स्कूल का शिक्षक होता है, वह
काले बोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है, सफेद दीवाल पर नहीं लिखता। क्योंकि सफेद
दीवाल पर लिख तो सकते हो, लेकिन
दिखाई नहीं पड़ेगा। सफेद दीवाल है तो सफेद खड़िया का लिखा हुआ दिखाई कैसे पड़ेगा? सफेद खड़िया चमक कर दिखाई पड़ती
है काले बोर्ड पर।
समाज
जितना काला होता है, महापुरुष
उतने ही चमकते हुए दिखाई पड़ते हैं। अगर समाज महान हो तो महापुरुष का पता लगाना
मुश्किल है। असंभव है। बिलकुल असंभव है। अगर गांधी जैसे सौ, दो सौ लोग भी मौजूद हों, तो मोहनदास करमचंद गांधी कहां
पैदा हुए,
कोई
फिकर करेगा पोरबंदर की? खो
जाएंगे। लेकिन नहीं खोते हैं, क्योंकि
पूरा समाज हीन है। और उस हीन काले तख्ते पर जरा सी भी चमकती हुई लकीर हजारों वर्ष
तक दिखाई पड़ती रहेगी।
अगर हम
पीछे लौट कर देखें, दस-बीस
नाम याद आते हैं। वह क्यों? क्योंकि
समाज बिलकुल काले तख्ते की तरह साबित हुआ है। उसमें वे चमकते हुए नाम दिखाई पड़ते
रहते हैं। और फिर उन चमकते हुए नामों के अनुसार हम पूरे समाज का निर्णय लेते हैं, जो कि बिलकुल ही इल्लाजिकल है, बिलकुल तर्कशून्य है।
महापुरुष पैदा हुए हैं, महान
समाज पैदा नहीं हुआ। और यह भी ध्यान रहे, जिस दिन महान समाज पैदा होगा, उस दिन महापुरुष इतनी आसानी
से नहीं पहचाने जा सकेंगे।
दूसरी
बात: अतीत,
बीता
हुआ, जो हो चुका, उसके दुखद स्मरण तो भूल जाते
हैं, सुखद स्मरण शेष रह जाते हैं।
अगर आप अपनी जिंदगी में लौट कर देखें, तो आपको दुखद बातें तो भूल गईं--भूल क्या
गईं, आपने कोशिश करके उनको भुलाया
भी है--सुखद बातें याद रह गईं।
यह
बहुत मजेदार बात है मनुष्य के चित्त की कि जब दुख बीतता है तो दुख बहुत गहरा होकर
दिखाई पड़ता है,
और जब
सुख बीतता है तो सुख का पता भी नहीं चलता। सुख मौजूद जब होता है तो पता नहीं चलता; दुख जब मौजूद होता है तो पता
चलता है। और जब दुख बीत जाता है तो भूल जाता है; और जब सुख बीत जाता है तो याद
रह जाता है। सुख को हम संजो कर रख लेते हैं अपने मन में कि ये-ये सुख की बातें घटी
हैं जिंदगी में। और उन्हीं की याद करते रहते हैं। दुख को विस्मरण कर देते हैं, सुख को याद करते हैं। इसलिए
पीछे लौट कर देखने पर ऐसा लगता है कि जिंदगी बड़ी सुखद थी। जब गुजरे थे उसी वक्त से
तो इतना सुखद नहीं था
एक
छोटे से बच्चे से पूछो कि बचपन कितना सुखद है? बच्चे बहुत जल्दी जवान हो जाना चाहते हैं, बचपन से छुटकारा चाहते हैं।
लेकिन बूढ़े कहते हैं, बचपन
बड़ा सुखद था। बच्चे बहुत जल्दी में रहते हैं कि कब जवान हो जाएं। क्योंकि जवान आदमी
शानदार दिखाई पड़ता है। बच्चों को कोई भी सुख नहीं है। स्कूल में शिक्षक डांटता है, घर में मां पीछे पड़ी है, बाप पीछे पड़ा है, जिंदगी एक मुसीबत है, परीक्षा है, यह है, वह है, सब है। कोई सुख नहीं है बच्चे
को। लेकिन बूढ़े आदमी को बचपन के सुख याद आते हैं। बच्चे को बिलकुल नहीं मालूम पड़ते
कि कोई सुख हैं। कोई बच्चा नहीं कहेगा कि मैं सुखी हूं। लेकिन सब बूढ़े कहते हैं कि
जब मैं बच्चा था तो बहुत सुखी था।
यह
तथ्यगत नहीं है,
यह
फैक्चुअल नहीं है,
यह
सच्चाई नहीं है। जब जिंदगी गुजरती है तो दुखपूर्ण मालूम पड़ती है; जब बीत जाते हैं दिन तो सुख
की सौरभ बाकी रह जाती है, दुख
भूल जाते हैं। बस सुख की कथा याद रह जाती है। और जो व्यक्ति के साथ होता है वही
समाज के साथ होता है। अतीत स्वर्णयुग मालूम पड़ता है। बहुत सुंदर था जो बीत गया, जो है वह दुखद मालूम पड़ता है।
हर पीढ़ी यह कहती है कि अब जमाना बिगड़ गया, पहले जमाना अच्छा था। पिछली पीढ़ी भी यही
कहती थी। उससे पिछली पीढ़ी भी यही कहती थी। लौटते चले जाओ पीछे, हमेशा हर पीढ़ी ने यह कहा है
कि वह जमाना और था जो हमने देखा है, अब सब बिगड़ गया।
और आप
हैरान होंगे,
दुनिया
में एक भी किताब ऐसी नहीं है जिसमें यह लिखा हो कि आजकल का जमाना ठीक है। हर किताब
में यह लिखा है कि पहले का जमाना ठीक था। पुरानी से पुरानी किताब में भी यही लिखा
हुआ है। चीन में छह हजार वर्ष पुरानी किताब मिली है। उस किताब की भूमिका में लिखा
है कि धन्य हैं वे लोग जो पहले हुए, अब तो जमाना बिगड़ गया।
छह
हजार साल पुरानी किताब भी यही कहती है कि पहले सब अच्छा था, अब बिगड़ गया! यह पहले कब था? यह था भी कि यह साइकोलाजिकल
इल्यूजन है?
यह कोई
मानसिक धोखा है कि कभी था पहले का युग? प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ भी और पहले की बात
करते हैं,
कि और
पहले सब ठीक था।
नहीं; इसमें मानसिक भ्रम है।
याददाश्त गुजरते-गुजरते सुखद बाकी रह जाती है, दुखद भूल जाता है। फिर उस सुख को ही संजो कर
हम बैठ जाते हैं,
वह
हमारी धरोहर बन जाती है। बस वह हमारे चित्त की संपत्ति हो जाती है, फिर उसी को हम संजोते रहते
हैं। और फिर यह जो भाव बन जाए भीतर, तो फिर जो भी मौजूद है वह बुरा दिखाई पड़ने
लगता है। वह उतना बुरा नहीं होता जितना दिखाई पड़ता है। वह जो स्मृति का हमने सुख
बना रखा है,
उसकी
तुलना में बुरा दिखाई पड़ने लगता है।
तो
पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि दुनिया कभी अच्छी थी, समाज अच्छा था, यह भ्रम है। और यह समझ लेना
इसलिए जरूरी है कि अगर समाज को अच्छा बनाना है तो पुरानी कोई तरकीबें काम नहीं
करेंगी,
क्योंकि
वे तरकीबें काम में लाई जा चुकीं और समाज अच्छा नहीं हो सका।
जैसा
गांधी जी कहते हैं कि राम-राज्य ले आओ। यह पीछे लौट चलने की दलील है। पीछे लौट
चलने से कोई हित नहीं है। अगर राम-राज्य अच्छा होता तो हम आगे आते ही नहीं, हम वहीं रुक जाते। वह अच्छा
नहीं था,
उसे
छोड़ना पड़ा। वह छूटा, उससे
हम पार हो गए। आगे जा सकते हैं हम, पीछे नहीं लौट सकते। आगे ही जाने का उपाय है, पीछे लौटने का उपाय भी नहीं
है। लेकिन जो लोग यह मान लेते हैं कि पहले अच्छा था, बस फिर वे निश्चिंतता से पहले
के गुणगान करने लगते हैं। और कहते हैं कि पहले जैसा समाज बनाओ, वर्ण बनाओ, आश्रम बनाओ। पहले जैसा
ब्राह्मण को आदर दो, पहले
जैसे मां-बाप की पूजा करो, अतिथि
को देवता समझो,
पहले
जैसा सब करो। तो फिर समाज अच्छा हो जाएगा।
जब वह
सब किया जाता था,
तब भी
समाज अच्छा नहीं था। समाज अच्छा था ही नहीं आज तक! क्योंकि समाज कैसे अच्छा हो, इसके सूत्र ही नहीं खोजे जा
सके। लेकिन आगे समाज अच्छा हो सकता है। मेरी दृष्टि पीछे की तरफ नहीं, आगे की तरफ है। मैं आप से यह
कहता हूं,
आगे
समाज अच्छा हो सकता है। लेकिन उसके लिए हमें बुनियादी चिंतन करना पड़ेगा।
हमारे
चिंतन की प्रक्रिया ही झूठी और असत्य पर खड़ी है।
जैसे:
हम कहते हैं,
चोरी
है; और हम चोरी को गाली देते हैं
और चोरी बढ़ती जा रही है। लेकिन कोई भी यह नहीं कहता कि चोरी समाज में क्यों है? और ऐसा कोई जमाना था जब चोरी
नहीं थी?
कोई
जमाना ऐसा नहीं था। क्योंकि अगर ऐसा कोई जमाना होता तो पुराने से पुराने शिक्षक और
तीर्थंकर और अवतार लोगों को समझाते हैं कि चोरी करना पाप है, चोरी मत करना। किसको समझाते
हैं? बुद्ध यही समझाते हैं, महावीर यही समझाते हैं, जीसस यही समझाते हैं--चोरी मत
करना, चोरी पाप है। क्या उन लोगों
को समझाते हैं जो चोरी करते ही नहीं थे? इनका दिमाग खराब था? यह चोरों को ही समझाने वाली
बात है कि चोरी मत करना। और जब सुबह से शाम तक यही-यही समझाते हैं, तो इसका मतलब साफ है कि चोर
काफी रहे होंगे। नहीं तो एकाध दफे कहते, मामला खतम हो जाता।
अगर
बुद्ध के वचन उठा कर देखें, तो एक
दिन ऐसा नहीं जिस दिन वे न समझाते हों कि चोरी मत करो, हिंसा मत करो, दूसरी स्त्री की तरफ बुरी नजर
से मत देखो। ये सारी की सारी बातें रोज--झूठ मत बोलो, बेईमानी मत करो, भ्रष्टाचार मत करो--ये ही सब
समझा रहे हैं बुद्ध सुबह से लेकर शाम तक। किसको समझा रहे हैं?
ये
उपदेश बताते हैं कि चोरों का समाज था, झूठ बोलने वालों का समाज था, बेईमानों का समाज था। बुद्ध
उसी के बीच भ्रमण कर रहे हैं, उसी को
समझाते फिर रहे हैं। नहीं तो कोई भी कह देता कि महाराज, हम करते ही नहीं, आप यह क्यों बकवास जारी किए
हुए हैं?
यह बंद
करिए! चालीस साल बुद्ध सुबह से सांझ तक यही समझा रहे हैं। उपदेश बताते हैं कि समाज
कैसा था। उपदेश बताते हैं कि समाज कैसा था।
अगर
किसी गांव में बहुत डाक्टर हों, तो वे
बताते हैं कि उस गांव में उसी अनुपात में मरीज होंगे। डाक्टरों का पता लगा कर गांव
की बीमारी का पता चल सकता है, बीमारों
को नापने की कोई जरूरत नहीं। जिस गांव में कोई भी डाक्टर न हो, शक होता है कि उस गांव में
लोग स्वस्थ होंगे। नहीं तो डाक्टर पैदा हो जाता, बीमार डाक्टर को पैदा कर ही
लेते।
पापी
हमेशा उपदेशक को पैदा कर लेते हैं। उपदेशक उपदेश नहीं देता, पापी उपदेश करवाते हैं। जब
चोरी बढ़ती है तो कोई न कोई कहने लगता है, चोरी बुरी है। समाज हमेशा ऐसा ही रहा है। और
ऐसा ही रहेगा,
अगर हम
बुनियादी बातों को नहीं समझते।
लाओत्से
चीन में हुआ एक अदभुत आदमी, कोई
ढाई हजार साल पहले। वह एक राज्य का कानून मंत्री बना दिया गया। पहले ही दिन मुकदमा
आया, एक आदमी ने चोरी की थी। चोरी
पकड़ गई थी और आदमी ने स्वीकार कर लिया कि मैंने चोरी की है, अब लाओत्से को फैसला देना था
सजा का। उसने छह महीने की सजा चोर को दे दी और छह महीने की उस साहूकार को जिसके घर
चोरी हुई थी।
साहूकार
ने कहा,
आपका
दिमाग दुरुस्त है! कभी सुना है किसी कानून में कि जिसके घर चोरी हो उसको ही सजा
मिले। तब तो हद हो गई!
लाओत्से
ने कहा कि जब तक साहूकार को भी सजा नहीं मिलती, तब तक दुनिया से चोरी बंद नहीं हो सकती। एक
आदमी के पास गांव की सारी संपत्ति इकट्ठी हो गई है, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा?
अगर एक
आदमी के पास गांव की सारी संपत्ति इकट्ठी हो जाए--ऐसा समाज हो कि एक तरफ संपत्ति
इकट्ठी हो जाए,
एक तरफ
भूख इकट्ठी हो जाए--तो चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? लेकिन हम कहते हैं, चोरी नहीं होनी चाहिए। और
संपत्ति एक तरफ इकट्ठी होती चली जाए, इसकी कोई फिकर नहीं है। चोरी होगी, चोरी होती रहेगी, चोरी नहीं रुक सकती। अदालत
बनाओ, कानून बनाओ, नरक बनाओ, भगवान को कांस्टेबल बना कर
बिठाल दो,
चोरी
जारी रहेगी,
चोरी
नहीं मिटने वाली। और चोरी रोज बढ़ती जाएगी, क्योंकि संपत्ति एक तरफ इकट्ठी होती चली
जाएगी।
चोरी
व्यक्तिगत संपत्ति के साथ जुड़ी है। इसलिए अगर चोरी को कम करना है, तो संपत्ति उस वर्ग तक भी
पहुंचनी चाहिए जहां भूख है, जहां
दीनता है,
जहां
दरिद्रता है। जब तक वहां भी संपत्ति नहीं पहुंच जाती, तब तक चोरी नहीं रुकेगी। अगर
चोरी रोकनी है तो धन बढ़ाओ और निर्धन को कम करो। जब तक निर्धनता है, चोरी रहेगी। कितना ही समझाओ, कितना ही सुझाओ, इससे कुछ होने वाला नहीं है।
लेकिन
हम बुनियादों को पकड़ना नहीं चाहते। हम एक-एक चोर को सुधारने की कोशिश करते हैं, और पूरे समाज की व्यवस्था
चोरी करवाने वाली है। वह पूरी समाज की व्यवस्था नहीं बदलती; तो कुछ लोग हिम्मत करके चोरी
न करें,
यह हो
सकता है। लेकिन कितने लोग हिम्मत जुटाएंगे? कितनी देर तक हिम्मत जुटाएंगे? चोरी जारी हो जाएगी। एक नहीं
करेगा,
दूसरा
करेगा;
दूसरा
नहीं, तीसरा करेगा।
चोरी
खत्म होनी चाहिए,
जरूर
खत्म होनी चाहिए। लेकिन चोरी है क्यों? चोरी इसलिए है कि संपत्ति कम है। और कम
संपत्ति भी कुछ हाथों में केंद्रित हो जाती है और शेष लोग निर्धन छूट जाते हैं।
जीवन
के सारे उपद्रव इसी तरह विकसित होते हैं। लेकिन किसी उपद्रव को मिटाने में समाज आज
तक समर्थ नहीं हो सका। और नहीं होने का कारण यह है कि हमने उनकी मूल भित्ति को ही चोट नहीं पहुंचाई। हम ऊपर-ऊपर
टीम-टाम करते रहे।
लाओत्से
को कानून मंत्री का पद छोड़ देना पड़ा। क्योंकि सम्राट ने कहा, तुम्हारा दिमाग खराब है। सारे
गांव में चर्चा हुई कि यह आदमी पागल है।
लेकिन
मैं आपसे कहता हूं, लाओत्से
पागल नहीं था,
पूरा
गांव पागल था। लाओत्से ने जो कहा था, बुनियादी रूप से सच था। और जिस दिन दुनिया
में लाओत्से की बात स्वीकृत हो जाएगी, उसी दिन चोरी खतम हो जाएगी। उसके पहले चोरी खतम
नहीं हो सकती।
हां, एक चोर बदला जा सकता है कि
दूसरा पैदा हो जाए, इससे
कोई अंतर नहीं होता। व्यक्तिगत रूप से एक आदमी इस समाज में भी चोरी से बच सकता है।
लेकिन समाज चोरी से नहीं बच सकता।
तो
हमें बुनियादी चिंतन करना जरूरी है कि जीवन के ढांचे को हम फिर से सोच लें कि
हजारों साल से यह ढांचा चल रहा है, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा है। हम आदमी को जो
भी समझाते हैं,
उस
समझाने के पीछे यह ढांचा बदलता है या ढांचा जारी रहता है?
गरीब
को हम हजारों साल से समझा रहे हैं कि तुम्हारे पिछले जन्मों के पापों के कारण तुम
गरीब हो।
यह सरासर
झूठी बात है। कोई आदमी किसी पिछले जन्म के पाप के कारण गरीब नहीं है। गरीब समाज की
व्यवस्था के कारण है। और कोई आदमी अमीर नहीं है पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण।
समाज की व्यवस्था के कारण अमीर है।
लेकिन
हम यह समझा रहे हैं हजारों साल से। और इसकी वजह से न गरीबी मिटती है, न धन पैदा होता है। क्योंकि
निर्धन अपनी निर्धनता में तृप्त हो जाता है, संतुष्ट हो जाता है कि ठीक है। अब पिछले
जन्मों के कर्मों को तो बदला नहीं जा सकता; अब अगले जन्म में जो कुछ कर सकेंगे, कर रहे हैं, वह अगले जन्म में मिलेगा; इस जन्म में मिलने वाला नहीं।
निर्धन अपनी निर्धनता को स्वीकार कर लेता है, धनी अपने धन को स्वीकार कर लेता है। समाज के
ढांचे में कोई रूपांतरण नहीं होता, चोरी जारी रहती है, झूठ जारी रहता है, बेईमानी जारी रहती है।
दूसरी
बात, हमने मनुष्य के सहज स्वभाव को
आज तक स्वीकार नहीं किया। और जब तक मनुष्य का सहज स्वभाव स्वीकार नहीं होता, तब तक दुनिया अच्छी नहीं हो
सकती। हम उलटी बातें आदमी को सिखाते हैं। उसमें आदमी बेईमान होता है, ईमानदार नहीं होता। हम आदमी
को क्या सिखा रहे हैं? हम उसे
उलटी बातें सिखा रहे हैं, जो
स्वभाव के प्रतिकूल हैं, जो स्वभाव
के अनुकूल नहीं हैं।
जैसे
हम कहते हैं कि कितनी कामुकता बढ़ गई! संयम होना चाहिए! एक मित्र ने प्रश्न भी पूछा
है इस संबंध में। वह भी इस संदर्भ में आपको याद दिला दूं।
किसी
मित्र ने पूछा है कि गांधी जी संयम पर जोर देते हैं, ब्रह्मचर्य पर जोर देते हैं।
वे कहते हैं,
संयम
ही जीवन है। आप क्या कहते हैं?
मैं
कहता हूं,
संयम
पाप है,
जीवन
नहीं। और मैं कहता हूं कि ब्रह्मचर्य की बातें करना इतना खतरनाक है जिसका कोई
हिसाब नहीं। लेकिन इसको समझ लेना पूरा, तब कोई निर्णय लेना।
संयम
बिलकुल नहीं चाहिए; चाहिए
समझ, संयम नहीं। जितनी समझ होगी, संयम अपने आप आएगा, लाना नहीं पड़ेगा। जो संयम
अपने आप आता है,
वह तो
हितकर है। और जो लाना पड़ता है, वह
बिलकुल जहर है और खतरनाक है।
लेकिन
अब तक यही सिखाया गया है कि संयम साधो! साधा हुआ संयम पाप है। साधे हुए संयम का
क्या मतलब होता है? साधे
हुए संयम का मतलब होता है: भीतर कुछ है, ऊपर से कुछ पकड़ लो। भीतर कामवासना है, ऊपर से ब्रह्मचर्य का पाठ
रखो। भीतर काम चलेगा, सेक्स
चलेगा,
ऊपर
ब्रह्मचर्य की बातें चलेंगी। ब्रह्मचर्य ऊपर रहेगा, भीतर ब्रह्मचर्य से बिलकुल
उलटी आत्मा रहेगी। अगर ब्रह्मचारियों की खोपड़ी खोली जा सके, तो उनके अंदर ब्रह्मचर्य
बिलकुल नहीं मिलेगा। मिल ही नहीं सकता। वहां भीतर वही मिलेगा जो उन्होंने सप्रेस
किया है,
दबाया
है। अगर ब्रह्मचारियों के सपने जाने जा सकें...।
और अब
जानने का उपाय हो गया है, इसलिए
ब्रह्मचारियों को अब सावधान हो जाना चाहिए। अब उन्होंने व्यवस्था कर ली है कि सपने
पकड़े जा सकते हैं। अब रात मशीन लगा कर सपने टेप किए जा सकते हैं कि सपने में क्या
हो रहा है! उसके सब सिंबल्स पकड़े जा सकते हैं। क्योंकि मस्तिष्क पूरे वक्त चलता
है। और चलने से पता चल गया है कि जब सेक्स का मन में विचार चलता है, तो धमनियां किस तरह धड़कती
हैं। वह धमनियों की धड़कन कागज पर आ जाती है और पता चल जाता है कि भीतर क्या चल रहा
है। अब बहुत दिन यह धोखा नहीं चल सकता कि भीतर कुछ चलता रहे और ऊपर आप कुछ चलाते
रहें।
ब्रह्मचर्य
आता है। वह बात दूसरी है। उसके लिए कभी नहीं कोई संयम साधना पड़ता। वह आता है सेक्स
की अंडरस्टैंडिंग से, दमन से
नहीं। जो आदमी अपनी कामवासना को जितना समझ लेता है, उतना ही मुक्त हो जाता है।
लेकिन ब्रह्मचर्य लाना नहीं पड़ता; लानी
पड़ती है सेक्स की समझ। जितनी सेक्स की वृत्ति की समझ बढ़ती है, बोध बढ़ता है, ज्ञान बढ़ता है, उतना ही ब्रह्मचर्य फलित होता
है। ब्रह्मचर्य लाना नहीं पड़ता; आता
है। जैसे आदमी चलता है और पीछे छाया आती है; ऐसे ही जितना आंतरिक जीवन का ज्ञान और बोध
बढ़ता है,
उतना
ही ब्रह्मचर्य आता है।
लेकिन
वह बात अलग है,
आया
हुआ संयम बात अलग है। हमें जो सिखाया गया है हजारों साल से वह लाया हुआ संयम है।
वे कहते हैं कि दबाओ हिंसा को, और
अहिंसक बनो। वे कहते हैं, दबाओ
वासना को,
वासना
पाप है। इच्छा को दबाओ, परिग्रह
को दबाओ,
धन को
दबाओ, लोभ को दबाओ, क्रोध को दबाओ, सबको दबा लो।
जिसको
दबाओगे वह भीतर बैठ जाएगा। ऊपर कपड़े सफेद होंगे, भीतर आदमी काला बैठ जाएगा। और
वह काला आदमी प्राण लेगा, वह
पूरे वक्त सताएगा। और इसीलिए अक्सर यह होता है--आपने देखा होगा, धार्मिक आदमी को अगर गौर से
देखें तो उसके व्यक्तित्व में पाखंड दिखाई पड़ेगा, उसके व्यक्तित्व में
हिपोक्रेसी दिखाई पड़ेगी। ऊपर से कुछ होगा, भीतर से बिलकुल दूसरा आदमी होगा। उसके
व्यक्तित्व में द्वैत मालूम पड़ेगा। एक उसका व्यक्तित्व होगा, जैसा वह दिखाई पड़ता है; एक उसका व्यक्तित्व होगा, जैसा वह है। और वह भी जानता
है। लेकिन फिर वह उलटे रास्ते अख्तियार करेगा। वह पीछे के रास्ते अख्तियार करेगा।
और उन पीछे के रास्तों पर उसकी गति चलेगी।
यहां
वह कहेगा कि लोभ?
लोभ
पाप है,
लोभ
ठीक नहीं है। लेकिन अगर उसके चित्त की दशा समझें, तो लोभी की होगी। वह दिन-रात
चिंता करेगा कि स्वर्ग कैसे मिल जाए? मोक्ष कैसे मिल जाए? ये भी लोभ के ही रूप हैं।
क्या चाहते हो स्वर्ग में? क्या
जरूरत है स्वर्ग के पाने की? यह
ग्रीड यहां दबा ली, वहां
निकलनी शुरू हो गई। यहां वह कहेगा कि स्त्रियों से दूर रहना! और स्वर्ग में इंतजाम
करेगा अप्सराओं का। ये स्वर्ग की अप्सराओं की जरूरत क्या है? ये किस दिमाग से निकलती हैं
स्वर्ग की अप्सराएं?
और
आपको पता नहीं होगा शायद, यहां
जमीन पर जो स्त्रियां हैं, वे तो
बेचारी जवान भी होती हैं और बूढ़ी भी हो जाती हैं। स्वर्ग की अप्सराएं कभी बूढ़ी
नहीं होतीं,
सोलह
साल पर उनकी उम्र रुक जाती है, उसके
आगे नहीं जाती। सोलह के ऊपर अगर किसी स्त्री की चाहना-वाहना हो, स्वर्ग मत जाना। वहां सोलह के
ऊपर कोई स्त्री होती नहीं, बस
सोलह पर ठहर जाती है।
ये कौन
लोग शास्त्र लिख रहे हैं स्वर्गों का? इनके दिमाग में क्या है? ये किस बात की सबूत हैं इनकी
कल्पनाएं?
वहां
कल्पवृक्ष बनाए हैं, जिनके
नीचे बैठ जाइए और जो भी कामना करिए पूरी हो जाती है। और यहां वे कहते हैं, कामना छोड़िए, कामना छोड़ने से स्वर्ग
मिलेगा। स्वर्ग में कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे बैठने से सब कामनाएं पूरी हो
जाती हैं। यह क्या सर्किल है? यह
क्या चक्कर है?
यह
दिमाग कैसा है?
यह
धोखा किसको दिया जा रहा है?
दिमाग
यहां जिसको दबाता है, आगे पाने
का इंतजाम कर रहा है। जो-जो यहां छोड़ता है, वहां पाने का इंतजाम कर रहा है। लेकिन उसी
पाने के लिए छोड़ रहा है। और हम समझते हैं कि बहुत त्याग किया जा रहा है। लोभ छोड़ा
जा रहा है।
कोई
लोभ नहीं छोड़ा जा रहा है। जिस आदमी का लोभ छूट जाता है, उसके मन में स्वर्ग की कामना
भी उसी क्षण छूट जाती है। क्योंकि जब लोभ नहीं है, स्वर्ग की जरूरत क्या है? स्वर्ग लोभ का ही विस्तार है।
जिस आदमी का लोभ छूट जाता है, उसे
मोक्ष की कामना भी छूट जाती है। क्योंकि मोक्ष भी लोभ का विस्तार है। परम आनंद की
आकांक्षा भी तो लोभ का विस्तार है।
लेकिन
नहीं, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
क्योंकि हमने एक डिसेप्टिव पर्सनैलिटी, एक धोखा देने वाला व्यक्तित्व विकसित किया
है। और उसने ही सारे समाज को रुग्ण किया है, बीमार किया है, भ्रष्ट किया है। सबसे बड़ी
भ्रष्टता एक है कि एक-एक आदमी दो-दो हिस्सों में खंडित हो जाए। हम कहते कुछ और हैं, जीते कुछ और हैं, कामना कुछ और करते हैं।
मेरी
अपनी समझ यह है कि अगर मनुष्य को ऊंचा उठाना है, तो पहली तो बात यह है, मनुष्य को पाखंडी मत बनने
देना। क्योंकि पाखंडी मनुष्य से गिरा हुआ कोई आदमी नहीं होता। और अगर मनुष्य को
पाखंडी नहीं बनने देना है, तो
पहली बात है,
मनुष्य
के जीवन में जो भी हो उसकी निंदा मत करना, क्योंकि निंदा से पाखंड शुरू होता है। जो भी
मनुष्य के जीवन में है, उसको
स्वीकार करना और समझना, और
उसको रूपांतरित करना, दमन मत
करना।
अब
जैसे क्रोध है। मनुष्य के भीतर क्रोध है। और प्रकृति ने बहुत जान कर क्रोध रखा है।
और अगर किसी बच्चे में क्रोध न हो, तो वह बच्चा विकसित ही नहीं हो सकेगा। आप
जरा सोचें कि एक बच्चा पैदा हो जिसमें क्रोध है ही नहीं; आप उस बच्चे की कल्पना करें
जिसमें क्रोध है नहीं। वह बच्चा विकसित नहीं हो सकेगा। क्योंकि शिक्षक उसको चांटा
मारेगा,
वह
बैठा हुआ देखता रहेगा। उसे क्रोध ही नहीं आएगा कि वह शिक्षक के चांटे से सोचे कि
मैं जो आज नहीं करके लाया हूं, वह
करके लाऊं। उसको क्रोध ही नहीं आता। उसका बाप कहेगा, स्कूल जाओ, डंडा उठा लेगा। वह बैठा रहेगा, क्योंकि उसे क्रोध नहीं आता।
क्रोध
तो गति है,
ताकत
है। वह जरूरी है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह सदा बना रहे। इसका यह मतलब है
कि वह एक तल पर जरूरी है और एक तल पर वह सारी की सारी शक्ति रूपांतरित होनी चाहिए।
जैसे कोई आदमी सीढ़ी पर चढ़ता है। तो पहले सीढ़ी पर चढ़ना जरूरी है, अगर ऊपर जाना है। लेकिन फिर
ऊपर जाकर सीढ़ी छोड़नी भी पड़ेगी। और नहीं तो वह कहे कि जब हम सीढ़ी पर चढ़ गए, तो अब हम छोड़ नहीं सकते।
क्योंकि हम चढ़े क्यों? और अगर
उतरना था तो हम चढ़ते ही नहीं, पहले
आप बता देते।
ऊपर
जाने के लिए सीढ़ी पर चढ़ना भी जरूरी है और ऊपर जाने के लिए सीढ़ी को छोड़ना भी जरूरी
है। नहीं तो सीढ़ी पर ही अटक जाइएगा।
क्रोध
से गुजरना जरूरी है। क्रोध होना भी जरूरी है और एक सीमा पर जाकर क्रोध से मुक्त हो
जाना भी जरूरी है।
लेकिन
क्रोध की निंदा यह सिखाती है कि नहीं, क्रोध पाप है, छोड़ो! और छोड़ेंगे कैसे आप
क्रोध को?
वे
कहते हैं,
क्षमा
का भाव धारण करो।
लेकिन
जिस आदमी में क्रोध है, वह
क्षमा का भाव धारण कैसे कर सकता है? वह अगर किसी से यह भी कहेगा कि जाओ, मैंने क्षमा कर दिया। तो
उसमें भी क्रोध होगा। क्रोधी आदमी की क्षमा भी क्रोध ही होगी। और वह उसमें भी मजा
लेगा कि देखो मैंने क्षमा कर दिया, मैं कोई साधारण आदमी नहीं! क्रोध से भरा हुआ
व्यक्ति,
जो भी
करेगा,
उसमें
क्रोध होगा।
इसलिए
मैं कहता हूं,
क्रोध
को दबाना मत,
समझना।
हां, क्रोध जितना समझ लिया जाएगा, उतना ही विलीन हो जाता है। और
जहां क्रोध नहीं है, वहां
क्षमा का जन्म होता है। इस बात को समझ लें ठीक से! क्षमा क्रोध की उलटी नहीं है, कि आप क्षमा को ले आएं और
क्रोध खत्म हो जाए। क्षमा क्रोध का अभाव है, एब्सेंस है। क्रोध चला जाए तो जो रह जाता है
उसका नाम क्षमा है।
हिंसा
का अभाव है अहिंसा, हिंसा
का विरोध नहीं।
वासना
का अभाव है ब्रह्मचर्य, वासना का
दमन नहीं।
लेकिन
हमें जो समझाया गया है, वह यह
है कि वासना का दमन है ब्रह्मचर्य, आत्मदमन है ब्रह्मचर्य, संयम है ब्रह्मचर्य।
नहीं, संयम ब्रह्मचर्य नहीं है।
संयम का मतलब ही यह होता है कि वासना मौजूद है और तुम सम्हाल रहे हो। संयम का क्या
मतलब होता है?
संयम का
मतलब होता है कि जिसका हम संयम कर रहे हैं वह मौजूद है, और हम उसको सम्हाले हुए हैं।
लेकिन जिसको आप सम्हाले हुए हैं वह मौजूद है, और सारे प्राणों में भटक रहा है और घूम रहा
है।
ब्रह्मचर्य
संयम नहीं है। ब्रह्मचर्य कामवासना की समझ से आया छुटकारा है। समझ से! सिर्फ ज्ञान
के अतिरिक्त और किसी चीज से छुटकारा नहीं होता।
इसलिए
मैं गांधी जी से सहमत नहीं हूं। मैं उन किन्हीं भी लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते
हैं कि हमें संयम साधना चाहिए। और वही दिक्कत गांधी जी को अंतिम क्षण तक रही। जीवन
भर उन्होंने संयम और ब्रह्मचर्य साधा, लेकिन आखिरी क्षणों में उन्हें खुद शक आ गया
कि पता नहीं यह संयम सध पाया कि नहीं? क्योंकि संयम कितना ही साधो, पीछे वह मौजूद रहता है जिसको
आपने दबाया है। और जीवन अंत होने से पहले एक स्त्री को नग्न लेकर बिस्तर पर सोना
शुरू किया,
यह
जांच के लिए कि संयम पूरा हुआ है कि नहीं। जीवन भर के ब्रह्मचर्य की साधना के बाद
भी भीतर यह खयाल है, यह
डाउट है,
यह
संदेह है कि जो मैंने साधा है वह सध पाया है कि नहीं सध पाया!
लेकिन
ऐसा संदेह महावीर और बुद्ध को नहीं है। तो मेरा मानना है कि गांधी और महावीर और
बुद्ध के बीच बुनियादी अंतर है। गांधी संयम साध रहे हैं, बुद्ध असंयम को समझ रहे हैं।
महावीर हिंसा को समझ कर हिंसा से मुक्त हो गए हैं, तो जो शेष रह गया है वह
अहिंसा है। गांधी जी हिंसा को दबा कर अहिंसक होने की चेष्टा कर रहे हैं। यह चेष्टा
नैतिक चेष्टा है।
इसलिए
मैं गांधी जी को एक नैतिक महापुरुष कहता हूं, धार्मिक व्यक्ति नहीं। बुद्ध और महावीर को
धार्मिक कहता हूं। और धार्मिक और नैतिक व्यक्ति में फर्क करता हूं। नैतिक व्यक्ति
वह है,
जो
क्रोध को बुरा मान कर क्षमा की साधना करता है, जो सेक्स को बुरा मान कर ब्रह्मचर्य की
साधना करता है,
जो परिग्रह
को बुरा मान कर अपरिग्रह की साधना करता है। और धार्मिक व्यक्ति वह है, जो परिग्रह को समझ कर
अपरिग्रह को उपलब्ध होता है, जो
वासना को समझ कर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, जो हिंसा को जान कर, हिंसा को पहचान कर हिंसा से
छुटकारा पा जाता है और व्यक्तित्व में अहिंसा शेष रह जाती है।
धार्मिक
और नैतिक व्यक्ति में बुनियादी अंतर है।
मुझे
क्रोध आता है। मैं दो काम कर सकता हूं। क्रोध को दबा लूं, और रोज दबाता चला जाऊं। और
इतना दबा लूं कि अंततः मुझे भी पता न चले कि मुझमें क्रोध रह गया है। लेकिन फिर भी
क्रोध होगा। बहुत गहरे में सरक गया होगा। आदमी के मन में बहुत गहराइयां हैं। जिस
मन को हम जानते हैं, वह
बहुत थोड़ा है। उससे दस गुना बड़ा मन नीचे छिपा है, अंधेरे में, अनकांशस, अचेतन। वहां सरक जाएगा क्रोध।
और वहां सरक कर नये-नये अनूठे रास्तों से प्रयोग शुरू करेगा। हमें पता भी नहीं चलेगा
कि यह क्रोध क्या करवा रहा है।
वहां
हिंसा सरक जाएगी,
और नये
रूपों में शुरू हो जाएगी। हिंसा का मतलब होता है, दूसरे को दबाना। अगर मैं अपने
भीतर हिंसा को दबा कर अहिंसक हो जाऊं, तो मैं दूसरों को दबाने की नई-नई तरकीबें
निकालूंगा। मैं उनसे कहूंगा कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। जो मैं कह रहा हूं
वह भगवान की आवाज है। उसे मानना पड़ेगा। और उसे अगर नहीं मानते हो तो मैं अनशन करके
मर जाऊंगा।
यह भी
हिंसा है। अगर दूसरे आदमी को मैं धमकी देता हूं कि मैं अनशन करके मर जाऊंगा, तो मैं हिंसा कर रहा हूं।
हिंसा का मतलब क्या है? हिंसा
का मतलब है दूसरे पर दबाव, प्रेशर।
हिंसा का मतलब है दबाना।
मैं एक
छुरा लेकर आपके घर पर आ जाऊं और कहूं कि मैं छुरा मार दूंगा, अगर मेरी बात नहीं मानते, इसमें और मैं आपके घर आ जाऊं
और लेट जाऊं और कहूं कि मैं भूखा अनशन करता हूं आमरण, मर जाऊंगा, अगर मेरी बात नहीं मानते--इन
दोनों बातों में बुनियादी भेद नहीं है। एक में हिंसा प्रकट है, दूसरे में हिंसा अप्रकट है।
एक में हिंसा ऊपर है, दूसरे
में हिंसा भीतर चली गई। दूसरे में अहिंसा ऊपर है, हिंसा भीतर।
अहिंसक
आदमी अनशन भी नहीं कर सकता किसी को दबाने के लिए। क्योंकि अहिंसक व्यक्ति का कहना
यह है,
मानना
यह है कि मैं कौन हूं जो दूसरे को दबाऊं? मेरा हक क्या है? मेरा दबाव क्या है? मैं हूं कौन जो दूसरे को
दबाऊं?
लेकिन
अगर हमने हिंसा को भीतर दबा लिया, तो
हिंसा नये मार्ग खोजेगी अपना कार्य जारी रखने के लिए। और वे अहिंसक मार्ग हो
जाएंगे। और हिंसा जब अहिंसा की शक्ल में आती है तो और खतरनाक हो जाती है। क्योंकि
हम उसे पहचान भी नहीं पाते कि उसने कौन से रास्ते ले लिए हैं।
मेरी
दृष्टि में,
संयम
थोपना नहीं है,
ब्रह्मचर्य
साधना नहीं है,
ऊपर से
आरोपण नहीं करना है; भीतर
चित्त की जो स्वाभाविक दशा है, उसको
समझना है। लेकिन अब तक संस्कृति ने, सभ्यता ने मनुष्य के स्वाभाविक चित्त को
स्वीकार नहीं किया है। वह उसकी निंदा करती है। निंदा करने के कारण प्रत्येक
व्यक्ति पाखंडी हो जाता है।
मनुष्य
की निंदा बंद करो,
अगर
मनुष्य को बदलना हो। मनुष्य जैसा है, उसे स्वीकार करो। और वह जैसा है उसकी खोज
करो कि वह वैसा क्यों है? और
उसके चित्त को,
उसकी
चेतना को,
उसके
ध्यान को विकसित करो कि वह अपने क्रोध को समझ सके।
कभी आप
एक छोटा प्रयोग करके देखें, और
आपको समझ में आ जाएगा कि मैं क्या कह रहा हूं। कभी आप जानते हुए क्रोध करने की
कोशिश करें। जब क्रोध आ जाए, तब आप
पूरी तरह होश से भर जाएं कि मुझे क्रोध आ गया है, अब मैं क्रोध करता हूं। और
अगर आप क्रोध कर लें, तो
आपने एक चमत्कार कर दिया दुनिया में, जो अब तक नहीं हो सका है। जानते हुए कोई
आदमी क्रोध नहीं कर सकता। जैसे ही आपने जाना कि मैं क्रोध से भर गया हूं, क्रोध विलीन हो जाएगा। क्रोध
सिर्फ मूर्च्छा में होता है, अज्ञान
में होता है,
बेहोशी
में होता है।
एक
मेरे मित्र थे। भारी क्रोध की आदत थी। उन्हें बहुत कहा। उन्होंने कहा, मेरी कुछ समझ में नहीं पड़ता; जब क्रोध मुझे पकड़ता है तो मुझे
याद ही कहां रहता है कि मैं होश रखूं। वह तो हो ही जाता है, जब मैं गाली-वाली बक चुकता
हूं, तब मुझे खयाल आता है। जब मैं
मार-पीट कर चुकता हूं, तब
मुझे पता चलता है कि हो गया, फिर हो
गया। मुझे याद ही नहीं रहता, मैं
याद कैसे करूं?
मैंने
एक कागज पर लिख कर उनको एक चिट दे दी, उसमें लिख दिया कि अब मुझे क्रोध आ रहा है।
मैंने कहा,
इसे
सदा खीसे में रखो। जब भी क्रोध आए, कृपा करके इसे एक दफे निकाल कर अंदर रख
लेना।
उन्होंने
कहा, देखें यह हो सकता है, इसकी कोशिश करें।
पंद्रह
दिन बाद मेरे पास आए और उन्होंने कहा, यह तो बड़ी अदभुत बात हो गई। हाथ ले जाने की
जरूरत नहीं पड़ती,
यहां
हाथ खीसे पर गया और जैसे कोई चीज भीतर टूट जाती है खटके के साथ। और लगता है, फिर वही! और इतना होश, कि वह गया जो पकड़ रहा था।
सिर्फ
बेहोशी में पकड़ती हैं वासनाएं मनुष्य को, होश में नहीं। इसलिए दमन करने की जरूरत नहीं
है, जागने की जरूरत है। जो वासना
पीड़ित कर रही है,
उसके
प्रति जागिए;
घबड़ाइए
मत। सेक्स पकड़ता है? सेक्स
के प्रति जागिए। और देखिए कि जाग कर क्या होता है। जाग कर हैरान हो जाएंगे, जिस वासना के प्रति जागेंगे, वही क्षीण होने लगेगी। और अगर
निरंतर जागने का प्रयोग जारी रहे, अवेयरनेस
का, तो सारी वासनाओं से छुटकारा
हो जाता है।
लेकिन
यह छुटकारा बहुत दूसरा है, यह
संयम नहीं है। क्योंकि इसके बाद संयम करने को कुछ भी नहीं बचता।
महावीर
को लोग कहते हैं कि महाक्षमावान थे। मैं कहता हूं, झूठ कहते हैं। महावीर ने कभी
किसी को क्षमा नहीं किया। क्योंकि क्षमा वही आदमी कर सकता है जो क्रोध करता हो।
महावीर ने क्रोध ही नहीं किया, तो
क्षमा करने का क्या सवाल है! क्रोध हो भीतर तो क्षमा करने की जरूरत पड़ती है। लेकिन
जो आदमी क्रोधित ही नहीं हुआ, वह
क्षमा कैसे करेगा?
महावीर
की क्षमा बिलकुल झूठी बात है। क्षमा के लिए पहले क्रोध करना जरूरी है।
अहिंसक
होने के लिए पहले हिंसा होनी जरूरी है। लेकिन जिसकी हिंसा विदा हो गई है, उसे यह भी पता नहीं होता कि
मैं अहिंसक हूं। उसकी जिंदगी एक सहज जीवन बन जाती है--एक स्पांटेनिटी, एक सहजता।
मनुष्य
को अब तक गलत उसूलों पर ढाला गया है, इसीलिए समाज ऊंचा नहीं उठ पाया। समाज ऊंचा
उठेगा उसी दिन,
जिस
दिन हम मनुष्य की सहजता को स्वीकार लेंगे; सरलता को, उसके व्यक्तित्व में जो भी है
उसको स्वीकार कर लेंगे, उसको
समझेंगे,
उस पर
मेडिटेट करेंगे,
उस पर
ध्यान को विकसित करेंगे।
दुनिया
में संयम की नहीं,
ध्यान
की जरूरत है। दुनिया में कंट्रोल की नहीं, मेडिटेशन की जरूरत है। आदमी को नियंत्रण
करना नहीं सिखाना है, आदमी
को जागना सिखाना है। और अगर हम जागना सिखा सके, तो एक दूसरी मनुष्यता पैदा हो जाएगी, ऐसी मनुष्यता जमीन पर कभी भी
नहीं थी। लेकिन आज तक जो मनुष्यता है, वह गलत सिद्धांतों के कारण गलत है।
एक
छोटी सी कहानी,
और
अपनी बात मैं पूरी करूं।
एक
राजमहल के पास से एक पंखा बेचने वाला गुजरता था। वह बहुत जोर से चिल्ला रहा था--कि
ऐसे अनूठे पंखे कभी भी नहीं बने दुनिया में!
सम्राट
के पास दुनिया के कोने-कोने के पंखे थे। उसने झांक कर नीचे देखा कि ऐसे अनूठे पंखे
कौन ले आया! नीचे देखा एक साधारण गरीब आदमी, रोज पंखे बेचता था वही, साधारण पंखे, दो-दो पैसे के पंखे बेच रहा
है। सम्राट ने गौर से सुना। वह फिर से चिल्ला रहा है कि अनूठे पंखे हैं! ऐसे न कभी
देखे गए और न कभी बने!
सम्राट
ने उस पंखेवाले को ऊपर बुला लिया। और उससे पूछा कि इन पंखों की खूबी क्या है? दिखते तो बिलकुल साधारण हैं।
उस
पंखेवाले ने कहा,
महाराज, असाधारण दिखने वाले अक्सर
साधारण होते हैं। यह पंखा बहुत असाधारण है; दिखाई नहीं पड़ता, है।
क्या
खूबी है इसकी?
उसने
कहा, यह सौ साल चलता है। इसकी सौ
साल की गारंटी है।
सम्राट
ने कहा,
हैरान
कर रहे हो! यह पंखा इतना कमजोर दिखता है कि दो घंटे चल जाए तो मुश्किल है।
उस
आदमी ने कहा,
मैं तो
गारंटी देता हूं।
सम्राट
ने कहा,
इसके
दाम कितने हैं?
उस
आदमी ने कहा,
सौ
रुपये दाम हैं,
ज्यादा
दाम भी नहीं हैं।
उस
सम्राट ने कहा,
मैंने
बहुत पंखे देखे,
लेकिन
दो पैसे के पंखे के दाम सौ रुपये! तुम कहते क्या हो? धोखा देना चाहते हो? फांसी लगवा दूंगा!
उस
आदमी ने कहा,
उसकी
चिंता मत करिए। रोज आपके महल के नीचे से गुजरता हूं। जिस दिन पंखा टूट जाए, मुझे बुला लीजिए। और रुपये
चाहें तो अभी मत दें, पीछे
भी दे सकते हैं। लेकिन मैं गरीब आदमी हूं, और मेरा कोई भरोसा नहीं कि कब मर जाऊं। आपका
भी कोई भरोसा नहीं कब मर जाएं। पंखा सौ साल की गारंटी का है। इसलिए रुपये मैं अभी
ले लेता हूं।
(वह पंखा खरीद लिया गया। दो-चार
दिन में ही पंखे की डंडी बाहर निकल गई। सातवें दिन तो वह बिलकुल मुर्दा हो गया।
सम्राट ने सातवें दिन उस पंखेवाले को बुलवाया। सम्राट ने कहा, यह पंखा पड़ा है टूटा हुआ। सात
दिन में ही यह गति हो गई, तुम
कहते थे सौ वर्ष चलेगा! उस आदमी ने कहा कि मालूम होता है आपको पंखा झलना नहीं आता
है। पंखा तो सौ वर्ष चलता ही। पंखा तो गारंटीड है। सम्राट ने कहा, और भी सुनो! पंखा कैसे झला
जाता है,
यह मैं
नहीं जानता हूं!)
उस
आदमी ने कहा,
कृपा
करके झल कर बताइए,
उससे
मैं समझ जाऊंगा। महाराज ने पंखा झल कर बताया। वह आदमी हंसा और उसने कहा, बस गड़बड़ हो गई। यह पंखा झलने
का ढंग नहीं है। यह पंखा तो सौ साल चलता, लेकिन आपने गलत ढंग से झला, इसलिए टूट गया। (मैं आपसे
कहता हूं कि पंखा पकड़िए सामने और सिर को हिलाइए। पंखा सौ वर्ष चलेगा। आप समाप्त हो
जाएंगे,
लेकिन
पंखा बचेगा। पंखा गलत नहीं है, आपके
झलने का ढंग गलत है।)
(यह आदमी पैदा हुआ है--पांच-छह
हजार या दस हजार वर्ष की संस्कृति का यह आदमी फल है। लेकिन संस्कृति गलत नहीं है, यह आदमी गलत है।) हमारी फिर
आपको गारंटी भी सही है, आदमी
गलत है,
आदमी
अपना ढंग बदले।
बहुत
हो चुकी यह बात। पांच-छह हजार साल से सुनते-सुनते हम परेशान हैं, सारी दुनिया परेशान है। अब
हमें बदलाहट करनी पड़ेगी। आदमी को करना पड़ेगा स्वीकार और सिद्धांत बदलने पड़ेंगे।
यह
दुनिया बदल सकती है, यह
समाज बदल सकता है। आदमी गलत नहीं है, सिद्धांत गलत हैं। आदमी के लिए सिद्धांत हैं, सिद्धांतों के लिए आदमी नहीं
है। अगर सिद्धांत काम नहीं करते, तो हम
सिद्धांत बदलेंगे। और बहुत समय हो गया प्रयोग करते हुए। अब एक नया प्रयोग करना
चाहिए--आदमी की स्वीकृति का प्रयोग। आदमी की स्वीकृति का प्रयोग, आदमी जैसा भी है, वह स्वीकृत है हमें। इस
स्वीकृत आदमी को हम मानेंगे। इस स्वीकृति के भीतर आदमी को जगाएंगे और कहेंगे, अपने प्रति जागो--क्या-क्या
तुम्हारे भीतर है!
और मजे
की बात है,
जितना
ही जागिए,
जो
श्रेष्ठ है वह शेष रह जाता है जागने पर, जो अश्रेष्ठ है वह विलीन हो जाता है। संयम
की कोई जरूरत नहीं पड़ती। संयम धोखा है। संयमी आदमी बेईमान आदमी है। संयमी आदमी
अपने साथ लड़ाई कर रहा है। और जो अपने साथ लड़ाई कर रहा है, वह हमेशा पाखंड में गिर
जाएगा।
नहीं; आदमी को आदमी के भीतर लड़ाना
नहीं है,
जगाना
है। और इस जगाने के सूत्र पर, कल
तीसरे सूत्र पर सुबह मैं बात करूंगा, वह अंतिम सूत्र होगा। दो सूत्रों पर हमने
बात की है,
कल
तीसरे सूत्र पर सुबह बात करूंगा--आदमी कैसे जागे?
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर
बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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