दिनांक
4 जून, 1975, प्रातः,
ओशो
कम्यून
इंटरनेशनल, पूना
प्रश्नसार :
1—सबके
इतने सारे
प्रश्न पाकर
क्या आप
धर्म-संकट में
नहीं पड़ते?
2—न
संदेह को बढ़ा
सकता हूं; न श्रद्धा
को शुद्ध कर
सकता हूं; ऐसे
में क्या करूं?
3—भाव
और विचार में
कब और कैसे
सही-सही फर्क
करें। मन में
कई प्रश्न का
उठना किंतु न
पूछने का भाव।
4—जीवन
में गहन पीड़ा
का अनुभव। फिर
भी वैराग्य का
जन्म क्यों
नहीं?
पहला
प्रश्न :
सबके
इतने सारे
प्रश्न पाकर
क्या आप
धर्म-संकट में
नहीं पड़ते कि
इसका जवाब दूं, या उसका, या
किसका?प्रश्न
तीन तरह के
पूछे जाते हैं।एक
तो, तुम्हारी
मूढ़ता से
जन्मते हैं।
उनका
मैं कभी उत्तर
नहीं देता।
क्योंकि
तुम्हारी मूढ़ता
को उतना सहारा
देना भी
नुकसान, तुम्हें
हानि पहुंचाएगा।
तुम्हारी मूढ़ता
को उतनी
स्वीकृति भी
देना--कि मूढ़ता
से उठे प्रश्न
का भी कोई
अर्थ होता है,
घातक है।
मूढ़ता
से उठे प्रश्न
इस भांति पूछे
जाते हैं कि
जैसे पूछने
वाला मुझ पर
कोई पूछ कर
एहसान कर रहा
हो। उसका स्वर
साफ होता है। मूढ़ता से
भरे प्रश्न
असंबंधित
होते हैं। न
कबीर से कोई
नाता, न मुझ
से कोई नाता, न तुमसे कोई
नाता।
जैसे
आज ही एक
प्रश्न है, कि यदि कम्यूनिज्म
आ जाए, तो
आपके
संन्यासी तो
काम कर लेंगे;
आपका क्या
होगा?
अब
इसका न तो
कबीर से कुछ
लेना-देना है, न तुमसे कुछ
लेना-देना है,
न मुझसे कुछ
लेना-देना है।
"यदि" भी कोई
प्रश्न होता
है? "यदि"
से कहीं कोई
प्रश्न शुरू
होता है? फिर
मेरी सारी
शिक्षा यही है,
कि "अभी और
यहां" जीयो।
कल क्या होगा?
कल तुम
रहोगे, कल
मैं रहूंगा।
कल जो होगा, उसे हम
सामना
करेंगे।
फिर कम्यूनिज्म
कल आ जाए, इससे
तुम्हारा
क्या संबंध है?
और मैं किसी
मुसीबत में भी
पड़ूंगा, तो वह
तुम्हारी
समस्या नहीं
है। तुम्हारे
पास अपनी
समस्याएं
काफी हैं, तुम
उन्हें हल कर
लो। या कि
तुम्हारी
समस्याएं चुक
गईं, अब
तुम मेरी
समस्याएं हल
करने की कोशिश
में लगे हो?तुम ऐसे ही
परेशान हो। मूढ़ता का
अर्थ ही यह है,
कि उसे पता
ही नहीं है, कि उसके
जीवन की
समस्याएं हैं,
जो हल करनी
हैं, कि
जीवन उलझन में
है, उसे
सुलझाना है; कि जीवन
अटका है, यात्रा
करनी है। वह
जमाने भर के
प्रश्न पूछेगा,
जिनमें कोई
तुक नहीं है, जिनमें कोई
अर्थ नहीं। वह
दूसरों की
समस्याएं हल
करने चला
जाएगा।
मूढ़ता
से भरा प्रश्न
ऐसा मानकर
चलता है कि
शायद इसका
जवाब दिया
नहीं जा सकता, इसीलिए
पूछता है। उन
प्रश्नों को
मैं छोड़ देता
हूं। वे
निरर्थक हैं।
वे मेरा और
तुम्हारा समय
खराब करेंगे।
उनमें चुनने
जैसा कुछ भी
नहीं है।
जब से
मैंने कहा है, कि लोग
दस्तखत करके
दें, तब से मूढ़ता
पूर्ण
प्रश्नों की
संख्या एकदम
गिर गई है। इसीलिए
मैंने दस्तखत
करवाना शुरू
किया।
क्योंकि
उनकी
संख्या काफी
थी; करीब-करीब
पचास प्रतिशत
थी। जब से
मैंने दस्तखत
करवाने को कहा,
उनकी
संख्या
ज्यादा से
ज्यादा पांच
प्रतिशत रह
गई। पैंतालीस
प्रतिशत एकदम
से गिर गई।
क्योंकि मूढ़
भी इतना तो
सोचता है, कि
यह प्रश्न
अपने साथ
संबंधित करना
ठीक है कि
नहीं।
दूसरा
बड़ा वर्ग है, उसके भी मैं
उत्तर कभी
नहीं देता। वे
तुम्हारे
पांडित्य से
आते हैं। न तो मूढ़ का
उत्तर देता
हूं, न
पंडित का।
पांडित्य
के प्रश्न इस
तरह के होते
हैं, कि वेद
में ऐसा कहा
है, आपने
ऐसा क्यों कहा?
वेद ने
कुछ ठेका लिया
है? मेरे ऊपर
कोई वेद की
जिम्मेवारी
है, कि वेद
ने ऐसा क्यों
कहा है? तुम
वेद के ऋषियों
को कब्रों
से उखाड़ो,
उनसे पूछो।
मैं क्या कह
रहा हूं, उससे
ज्यादा मेरी
किसी के संबंध
में कोई जिम्मेवारी
नहीं है। और
अगर वेद में
कुछ कहा है और मैं उससे
भिन्न कह रहा
हूं, विपरीत
कह रहा हूं, तो मैं कोई
तालमेल
बिठाने को
नहीं हूं। मैं
कोई समझौता
करने को नहीं
हूं। तुम अपने
वेद को सुधार
लो, अगर
मेरी बात ठीक
लगती हो। अगर
मेरी बात ठीक
न लगती हो, मुझे
छोड़ दो; वेद
को पकड़ लो, लेकिन
व्यर्थ के
प्रश्न मत
उठाओ।
पांडित्य
के प्रश्न ऐसे
होते हैं, जैसे कोई
मेरी परीक्षा
ले रहा हो। मूढ़
ऐसे पूछता है,
जैसे इसका
जवाब हो ही
नहीं सकता। वह
मुझ पर एहसान
कर रहा है।
पंडित ऐसे
पूछता है, जैसे
इसका जवाब उसे
पहले से मालूम
है। वह सिर्फ
मुझे एक
परीक्षा का
मौका दे रहा
है। इन दोनों
को मैं छोड़
देता हूं।
तब बच
रहते हैं, मुश्किल से
दस प्रतिशत
प्रश्न, जो
जिज्ञासा से
जन्मते हैं, मुमुक्षा
से। जो
तुम्हारी
जीवन की खोज
से आविर्भूत
होते हैं। जो
तुम्हारी
जीवन की
समस्या से
संबंधित होते
हैं। जो
प्रामाणिक
हैं। जिनको हल
करने पर
तुम्हारे
जीवन का अर्थ
निर्भर होगा।
जो हल होंगे
तो तुम्हारे
जीवन का ढंग
रूपांतरित
होगा। जो
तुम्हारी प्यास
हैं, भूख
हैं; बौद्धिक
नहीं हैं, खोपड़ी
से नहीं आ रहे
हैं।
तुम्हारे
समग्र अस्तित्व
से आविर्भूत
हो रहे हैं।
जिनके ऊपर तुम्हारी
जिंदगी दांव
पर लगी है।
उनके हल होने
पर बहुत कुछ
निर्भर है।
उनके हल होने
पर तुम भी हल
हो जाओगे। वे
प्रश्न नहीं
हैं उन
प्रश्नों में
तुम खुद हो।
वे जीवंत हैं।
न तो
शास्त्रों से
उधार लिए गए
हैं, न
अहंकार की जड़ता
से पैदा हुए
हैं।
जब मैं
देखता हूं कि
प्रश्न
प्रामाणिक
हैं--इसे
देखने में देर
नहीं लगती।
क्योंकि
तुम्हारे
प्रश्न में
तुम्हारे
आंसू छिपे
होते हैं।
तुम्हारे
प्रश्न में
तुम्हारी
प्यास छिपी
होती है।
तुम्हारे
प्रश्न में तुम्हारे
प्राण धड़कते
हैं।
तुम्हारे
प्रश्न में
तुम मेरे पास
आते हो। न तो
तुम्हारे पास
कोई उत्तर है
पांडित्य का; और न तुमने
किसी मूढ़तावश
पूछ लिया है।
तुमने मुमुक्षा
से पूछा है।
तुम खोजी हो।
तुम यात्रा पर
निकले हो।
तुम्हारी
यात्रा पर मैं
तुम्हें थोड़ा
साथ दे सकूं, तुम्हारा
थोड़ा बोझ कम
कर सकूं, तुम्हारे
भटकाव को थोड़ा
कम कर सकूं, तुम्हें
मार्ग पर ले आ
सकूं, उन्हीं
प्रश्नों के
उत्तर देता
हूं।
और ये
जो प्रश्न हैं, इनके रूप ही
भिन्न-भिन्न
होते हैं; इनका
प्राण एक ही
होता है। अगर
बहुत गौर से
देखो, तो
ये जो तीसरी
कोटि के
प्रश्न हैं, जिनके मैं
उत्तर देता
हूं, ये एक
ही प्रश्न के
विभिन्न ढंग
हैं और इनका एक
ही उत्तर है।
जिस दिन तुम
जानोगे, जागोगे,
उस दिन तुम
पाओगे, तुमने
बहुत-बहुत ढंग
से एक ही
प्रश्न पूछा
था; और
मैंने
बहुत-बहुत ढंग
से एक ही
उत्तर दिया था।
जैसे
ही मुझे उस एक
की
प्रतिध्वनि
मिलती है किसी
प्रश्न में, मैं सदा
तत्पर हूं
उत्तर देने
को। इसलिए कोई
धर्म-संकट खड़ा
नहीं होता।
मामला बिलकुल
सीधा-साफ है।
गणित बिलकुल
स्पष्ट है।
मुझे जरा भी
दुविधा नहीं
होती।
तुम्हारे
प्रश्न को हाथ
में लेते ही, तुम्हारी
पंक्तियों को
पढ़ते ही
तुम्हारे प्राण
वहां उपस्थित
हो जाते हैं, कैसे तुमने
पूछा है।
झेन
कहानी है, कि टोकियो
का गवर्नर एक
झेन फकीर को
मिलने गया। तो
उसने अपना नाम
लिखा और साथ
में लिखा कि "टोकियो का
गवर्नर"।
फकीर के पास
चिट पहुंची, उसने चिट
नीचे फेंक दी
और कहा, इस
तरह के आदमी
को मैं जानता
नहीं। और उससे
कह दो, वापस
लौट जाओ। यहां
कोई जगह भी
नहीं है, समय
भी नहीं है।
गवर्नर
तो बहुत चकित
हुआ। इस फकीर
के चरणों में
बहुत बार आया
है। और यह
फकीर उसे
भलीभांति जानता
है। आज क्या
हो गया? लेकिन
तभी उसे समझ आ
गई बात। उसने "टोकियो का
गवर्नर"--जो
कार्ड पर लिखा
था, उसको
काट दिया। फिर
से कार्ड
भेजा।
फकीर
ने कहा, "अरे,
तुम हो? भीतर
आ जाओ।"
जो
शिष्य कार्ड
को लाया था, ले गया था दो
बार, वह
थोड़ा हैरान
हुआ। उसने कहा,
यह आदमी वही
है, यह
कार्ड भी वही
है। लेकिन उस
फकीर ने कहा, सब बदल गया।
इस आदमी का
ढंग बदल गया।
पहले यह आया
था--टोकियो
का गवर्नर। टोकियो के
गवर्नर से
फकीर का क्या
लेना-देना? यह भीतर भी टोकियो के
गवर्नर की तरह
ही आता तो
मुलाकात
व्यर्थ थी, बातचीत असार
थी। यह पूछता,
हम बोलते, वह कहीं मेल
नहीं खा सकता
था। फकीर का
गवर्नर से
क्या
लेना-देना? अब यह शुद्ध
आदमी की तरह
आया है, समझ
कर आया है, गवर्नर
को बाहर छोड़कर
आया है। अब
कुछ मुलाकात हो
सकती है, कोई
संवाद हो सकता
है।
तुम
उसी प्रश्न को
दोबारा पूछ कर
देखना, जो
मैंने
तुम्हारा उत्तर
न दिया हो। और
अगर तुमने टोकियो
के गवर्नर को
छोड़ दिया तो
मैं उत्तर
दूंगा। और तुम
मुझे धोखा
नहीं दे सकते।
तुम किसी भी
तरह प्रश्न को
बनाना, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। अगर टोकियो का
गवर्नर पीछे
है, मैं
उत्तर नहीं
दूंगा।
जिस
दिन तुम सरलता
से, सहजता से,
समस्या को
हल करने की
आकांक्षा से,
सद्भाव से
पूछते हो, उस
दिन मैं सदा
तत्पर हूं।
धर्म-संकट कुछ
भी नहीं है।
चीजें बिलकुल
साफ हैं।
जैसे
तुम्हारे
चेहरे पर मैं
तुम्हारे
क्रोध को पढ़ता
हूं, तुम्हारी
आंखों में
तुम्हारे
अहंकार को; ऐसे
तुम्हारे
हस्ताक्षरों
में, तुम्हारे
शब्दों में, तुम्हारे
वचन के
विन्यास में,
तुम्हारे
प्रश्न के
बनाने में भी
तुम्हें पढ़ता
हूं। वह भी
तुम्हारा है।
तुम उसमें
पूरे-पूरे
मेरे सामने
उपस्थित हो
जाते हो।
मैं
तुम्हारे
प्रश्न नहीं
चुनता, तुमको
चुनता हूं। और
जब तुम्हारे
प्रश्नों के
उत्तर न दूं, तो तुम विचार
करना कि तुम
क्यों नहीं
चुने गए?तुम
जरूर दो में
से कोई एक बात
पाओगे। या तो मूढ़ता से
पूछा था, या
पांडित्य से
पूछा था; मुमुक्षा
नहीं थी। मैं
यहां हूं कि
तुम्हारा मोक्ष
सरल हो जाए।
वह तुम्हारी
मुमुक्षा के बिना
नहीं होगा।
मैं तुम्हें
मोक्ष की तरफ
इशारा तभी कर
सकता हूं, जब
तुम्हारे
प्रश्न ने
मुमुक्षा की
तरफ आकांक्षा
की हो; उससे
अन्यथा होने
का कोई उपाय
नहीं।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
तीसरी कोटि का
व्यक्ति हूं।
मेरी स्थिति है
: खावै अरु रोवै; प्रवचन सुनै
अरु रोवै।
आप कहते हैं, पूरा संदेह
कर लो, तो
वह भी आपको
देख लेने के
बाद होना
असंभव नजर आता
है और श्रद्धा
भी दूषित है।
और आप जैसा
वैद्य भी
विद्यमान है,
लेकिन
बीमारी कुनकुनी
है और आप की
चिकित्सा की कड़वी कुनैन
भी झेल पाने
की स्थिति
नहीं। मैं
असहाय हूं। न
संदेह को बढ़ा
सकता हूं, न
श्रद्धा को
शुद्ध कर सकता
हूं; ऐसे
में क्या करूं?
ऐसी
ही अवस्था है; तुम्हारी ही
नहीं, सभी
की। तुम्हें
दिखाई पड़ रही
है, औरों
को दिखाई नहीं
पड़ रही है। और
दिखाई पड़ जाना
बहुत कीमती है,
बहुमूल्य
है।
व्यक्ति
अपने को असहाय
पा ले, हेल्पलेस--कि कुछ भी
किए नहीं
होता। जो भी
करता हूं, वही
अधूरा रह जाता
है। जो भी पैर
उठाता हूं, वह भी कहीं
नहीं पहुंचता
मालूम पड़ता।
सब कर लिया है,
सब व्यर्थ
पाया है।
मंजिल नहीं
आती। अपना किया
हुआ कहीं ले
जाएगा, इसका
भरोसा भी टूट
गया है। ऐसी
असहाय दशा की
तीव्र पीड़ा
तुम्हें
अनुभव हो जाए,
तो यहीं से
भक्त का जन्म
होता है।
असहाय समझ
लेना भक्त
होने की
शुरुआत है।
भक्ति
का अर्थ क्या
है?भक्ति का
अर्थ है, परमात्मा!
तू करेगा तो
ही होगा। मेरे
किए नहीं
होता। मेरी
पूजा भी अधूरी
है, मेरी
प्रार्थना भी
संदिग्ध है, मेरी साधना
भी काम-चलाऊ
है। मैं जीवन
को जुआरी की
तरह दांव पर
नहीं लगा
पाता। मेरी व्यवसायिक
बुद्धि सब जगह
मौजूद है।
मेरा संदेह
मेरी श्रद्धा
को दूषित कर
जाता है।
और
संदेह भी पूरा
नहीं हो पाता।
क्योंकि श्रद्धा
की भी छाया
पड़ती रहती है।
इस असहाय
अवस्था को
जितने गहरे
उतर जाने दो, उतना लाभ
होगा।
तुम
पूछ रहे हो, "मैं क्या
करूं?" मैं
तुमसे कहूंगा,
कुछ भी मत
करो। अब असहाय
अनुभव होना
शुरू हुए हो; ठीक से
असहाय ही हो
जाओ। टोटल हेल्पलेसनेस,
संपूर्ण
असहाय हो जाओ।
कह दो कि अब
मुझसे किए कुछ
भी नहीं होता।
अब तेरी जो
मर्जी। असहाय
अवस्था में ही
कोई कह सकता
है,
"तेरी
जो मर्जी।"
जब तक
तुम्हें लगता
है, मेरे किए
कुछ
हो
सकता है, तब
तक तो तुम किए
ही जाओगे। तब
तक तो
थोड़ा-ना-बहुत
तुम प्रयास
जारी रखोगे।
यत्न जारी
रखोगे।
असहाय
अवस्था का
अर्थ क्या है?इसका
अर्थ है, मेरी
अपने पर
श्रद्धा उठ
गई। अब अहंकार
को खड़े होने
की जगह न रही।
भूमि खिसक गई
नीचे से। अहंकार
का बल टूट गया।
अहंकार
नपुंसक सिद्ध
हुआ। क्योंकि
जो भी किया
व्यर्थ हुआ।
यह बड़ी
उपलब्धि है।
तुम इसे ऐसे
ही मत गंवा देना।
असहाय अवस्था
को पूरी तरह
छा जाने दो।
इसी असहाय
अवस्था से
प्रभु के शरण
जाने का भाव
उठता है। शरण
कोई जाएगा कब? जब तक असहाय
नहीं हुआ तब
तक शरण जाने
का भाव उठता
है। शरण कोई
जाएगा कब? जब
तक असहाय नहीं
हुआ, तब तक
शरण जाएगा
नहीं। जब
असहाय हो गया,
तभी शरण का
बोध उठता है, तब छोड़ने का
मन होता है।
तुमने अपनी
तरफ से काफी
चला ली पतवार,
नाव कहीं
जाती नहीं, बल्कि उलटा
तुम देखते हो,
गोल-गोल
घूमती है।
कभी
तुमने नाव चलाई? एक पतवार से
चला कर देखना।
एक पतवार से
अगर नाव
चलाओगे, गोल-गोल
घूमेगी।
वहीं-वहीं
चक्कर काटेगी,
कहीं जाएगी
नहीं। और आदमी
जैसी नाव चला
रहा है, वह
एक पतवार की
नाव है। उसमें
आदमी अकेला ही
चला रहा है, परमात्मा का
हाथ नहीं है।
परमात्मा को
तुमने काटकर
अलग कर दिया
है। तुम अकेले
ही चला रहे
हो। वह
गोल-गोल घूमती
है। एक दुष्ट
चक्र पैदा हो
जाता है--वहीं-वहीं।
पुनरुक्ति
करती है, कहीं
जाती नहीं, कहीं यात्रा
नहीं होती, कोई मंजिल
नहीं आती।
अब इस
पतवार को भी
रख लो। इससे
कोई सहारा
नहीं है। इसको
भी नाव में रख
लो। अब तो तुम
पाल खोल दो
नाव का। और
परमात्मा को
कहो, जहां
तेरी मर्जी, जहां तेरी हवाएं ले
जाएं, अब
हम वहीं
जाएंगे।
नाव को
चलाने के दो
ढंग हैं : एक तो
पतवार से, और एक पाल से।रामकृष्ण
से कोई पूछता
था, मैं
क्या करूं? तो रामकृष्ण
ने कहा, तुम
कुछ मत करो।
तुम काफी कर
चुके हो। बहुत
उपद्रव हो गया
है। अब तुम
पाल खोल दो और पतवार
रख लो।
रामकृष्ण ने
कहा "पहले
मैंने भी पतवार
चलाकर
देख ली, कहीं नहीं
पहुंचा। फिर
मैंने पाल खोल
दिया और हवाएं
नाव को ले
जाने लगीं।
"वह
सदा तत्पर हैं
तुम्हें ले
जाने को। तुम
ही राजी नहीं
हो। तुम ही
आनाकानी करते
हो। उसका हाथ
बढ़ा हुआ है, तुम थोड़ा
हाथ बढ़ाओ।
अगर हाथ नहीं
बढ़ा सकते हो, तो खड़े रह
जाओ। उससे कह
दो अब तेरी ही
मर्जी। तू ही
हाथ बढ़ा।
तो भी
घटना घटती है।
जिस दिन
व्यक्ति सब
कुछ छोड़ देता
है--समर्पण!
उसी दिन
क्रांति शुरू
हो जाती है।
तो
दुनिया में दो
मार्ग हैं। एक
मार्ग है साधक
का और एक
मार्ग है भक्त
का। साधक के
मार्ग पर तो
संदेह पूर्ण
होना चाहिए, ताकि
श्रद्धा का
जन्म हो जाए।
भक्त के मार्ग
पर संदेह के
पूर्ण होने की
भी जरूरत नहीं
है, किसी
चीज के पूर्ण
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। भक्त के
मार्ग पर तो
असहाय अवस्था की
प्रतीति होनी
चाहिए। उसी
असहाय अवस्था
में से
श्रद्धा का
कमल निकल आता
है।
असहाय
अवस्था तो
बहुत बुरी
लगती है। वह
कीचड़ जैसी है।
लेकिन जब
उसमें से
समर्पण का कमल
निकलता है, तो कीचड़ और
कमल में जमीन
आसमान का फर्क
है। निकलता
कीचड़ से है, कीचड़ जैसा
बिलकुल नहीं
है। कीचड़ से
बिलकुल
विपरीत है, बिलकुल
भिन्न है।
कहां कमल, कहां
कीचड़! अगर
तुम्हें पता न
हो कि कमल
कीचड़ से पैदा
होता है, तो
कमल को देखकर
तुम कल्पना भी
नहीं कर सकते
कि इसका कीचड़
से संबंध हो
सकता है।
समर्पण
असहाय अवस्था
से निकलता है।
असहाय अवस्था
कीचड़ है। जब
तुम कीचड़ में
फंसे हो, तब
तुम सोच भी
नहीं सकते कि
इससे कमल के
पैदा होने की
संभावना है, कि कमल का
बीज यहां छिपा
है। लेकिन जब
कमल निकलता है,
तभी तुम
जानोगे।
असहाय अवस्था
से लोगों ने
समर्पण को पा
लिया।
तो तुम
कुछ करो मत; करना छोड़
दो। तुम बहो; तैर लिए
बहुत।
तैरो
मत। नदी ले
जाएगी। नदी जा
ही रही है
सागर की तरफ।
तुम नाहक ही
शोरगुल मचाते
हो, हाथ पैर तड़फाते
हो। नदी उसी
परमात्मा की
तरफ जा रही
है। जीवन उस
तरफ बह ही रहा
है। अगर तुम
अड़चन न डालो
तो काफी है।
तुम पहुंच
जाओगे।
इसे
थोड़ा समझ लो।
मेरे
देखे
परमात्मा और
तुम्हारे बीच
कोई विधायक
बाधा नहीं है, कोई पाजिटिव
हिंडरेंस
नहीं है। एक
निगेटिव, नकारात्मक
बाधा है।
नकारात्मक
बाधा का अर्थ है
कि तुम अड़चन
खड़ी करते हो, इसीलिए
परमात्मा से
नहीं मिल
पाते। अन्यथा
कोई बाधा
नहीं। तुम
अड़चन खड़ी न
करो, अभी
मिलन हो जाए।
ऐसे ही
है, जैसे
सूरज निकला है
और तुमने
दरवाजे बंद कर
लिए हैं। सूरज
के भीतर आने
में कोई भी
बाधा नहीं है;
तुम ही
दरवाजे बंद
किए खड़े हो।
दरवाजा खोल दो,
सूरज अपने
आप भीतर चला
आता है। सूरज
को भीतर थोड़े
ही लाना पड़ता
है!
समझाना-बुझाना
थोड़े ही पड़ता
है किरणों को,
कि आओ भीतर।
फुसलाना थोड़े
ही पड़ता है, कि आ जाओ
भीतर, डरो
मत! सिर्फ
द्वार खुला हो,
सूरज भीतर आ
जाता है।
और यह
भी हो सकता है
कि द्वार भी
खुला है लेकिन
तुम पीठ किए
खड़े हो। यह भी
हो सकता है कि
द्वार भी खुला
है, पीठ भी
तुम नहीं किए
हो, सिर्फ
आंख बंद किए
खड़े हो। जरा
सी पलक खोलने
की बात है।
असहाय
अगर सच में ही
अनुभव कर रहे
हो--मैं कहता हूं, "सच में"
क्योंकि यह भी
हो सकता है, कि तुम
असहाय अनुभव न
कर रहे हो और
अभी भी कुछ करने
की तमन्ना
बाकी बची हो।
जब तक करने की
कोई भी तमन्ना
बाकी बची है, तब तक तुम
असहाय नहीं
हो। तब तक तुम
कहते हो, थोड़ा
और करके देख
लें। लेकिन जब
तक तुम्हारी
अस्मिता पूरी
ही न टूट
जाएगी, जब
तक तुम बिलकुल
ही गिर न
जाओगे, जब
तक तुम्हें यह
न लग जाएगा कि
कुछ होता ही
नहीं मेरे किए,
तब तक असहाय
अवस्था भी
पूरी नहीं है।
तो तुम
थोड़ा असहायता
को समझो और
असहाय अवस्था में
जीयो। और
असहायता से
डरो मत, भागो मत। उसे छिपाओ
भी मत। उसी
असहाय-भाव की
कीचड़ से तुम
पाओगे, कमल
उठने लगा।
अगर
कोई व्यक्ति
पूर्ण असहाय
हो जाए तो कुछ
भी करने को
बाकी नहीं
रहा। पाल खुल
गए, नाव चल
पड़ी।
तो
तुमसे मैं
कहता हूं और मत
पूछो कि क्या
करूं? क्योंकि
मैं तुम्हें
जो भी करने को
कहूंगा, तुम
उसको भी
कुनकुना ही
करोगे। तुमने
कुनकुना ही सब
करने की आदत
बना ली है।
तुम ध्यान भी
करोगे, तो
आधा-आधा ही
करोगे। तुम
प्रार्थना
करोगे तो भी
आधी-आधी होगी।
आधा मन
प्रार्थना
करेगा, आधा
बाजार में
होगा, कहीं
और होगा। तुम
कहीं पूरे न
हो पाओगे।
लेकिन
यह असहाय
अवस्था तो
करने की बात
ही नहीं है, यह तो
तुम्हें खुद
अनुभव हो रही
है। इसे तो तुम
खुद ही जान
रहे हो। यह
कोई मैंने
नहीं कहा है कि
तुम करो। यह
किसी ने
तुम्हें
सिखाया नहीं है,
कि तुम करो।
यह तो तुमने
अपने ही जीवन
की स्थिति को
समझ कर पाया
है, कि
असहाय है
स्थिति; हेल्पलेस हूं। बस, इसमें
ही रम जाओ।
अभी तो
लगेगा कीचड़
में बैठ गए।
लेकिन अगर
कीचड़ में
बैठने की
हिम्मत हो, तो कमल कीचड़
से बहुत दूर
नहीं। जरा सा
फासला है। और
जो भी कीचड़
में बैठने के
लिए हिम्मत
रखता है, उसके
जीवन में कमल
खिल जाता है।
और सब
तुम करके देख
चुके, अब
असहाय होकर ही
देख लो। अब
कुछ मत करो।
अड़चन आएगी; क्योंकि
तुम्हारा
अहंकार कहेगा
कि ऐसे बैठे रहने
से क्या होगा?
तुम्हारा
अहंकार गणित
रखता है। वह
कहेगा, करने
से नहीं हुआ
तो न करने से
कैसे होगा? जब कर-करके
नहीं हुआ तो
न-करने से तो
बिलकुल डूब
जाओगे। कर-करके
कम से कम थोड़े
बचे हो। कहीं
पहुंचे नहीं
यह ठीक; रास्ते
पर तो हो; मंजिल
नहीं आई। यह न
करके तो
रास्ते के
किनारे बैठ
जाओगे।
और मैं
तुमसे कहता
हूं, रास्ते
के किनारे जो
बैठ गया, वही
मंजिल पर
पहुंच जाता
है। बैठ जाने
में मंजिल है।
जापान
में एक
पर्वत-शिखर पर
एक मंदिर है, तीर्थ है।
हजारों
यात्री
प्रतिवर्ष
वहां जाते
हैं। बुद्ध की
बड़ी सुंदर
प्रतिमा वहां
विराजमान है।
पहाड़ चढ़ते
हैं।
एक
फकीर लिंची
गया था
तीर्थयात्रा
को और पहाड़ के
नीचे ही बैठा
रहा, कभी ऊपर
नहीं गया।
लिंची जिस
गांव से आया
था, उस
गांव के लोग
जब यात्रा
करने आए तो
उन्होंने उसे
पहचाना और कहा,
कि तुम यहीं
बैठे हो? आए
थे यात्रा
करने को!
लिंची
ने जो उत्तर
दिया उसे तुम
याद रख लो। लिंची
बूढ़ा था, शरीर
दुर्बल था, पहाड़ चढ़ने
की क्षमता न
थी। हां, चाहता
तो किसी के
ऊपर डोली में
बैठ कर जा
सकता था, लेकिन
वह उसने ठीक न
समझा, कि
तीर्थयात्रा
पर भी डोली
में बैठकर
जाना क्या
शोभा देता है?
अपने पैर से
चलकर
परमात्मा के
मंदिर तक न आ
सके? और
अपने पैर से
चलकर जहां
नहीं पहुंचे,
वहां
पहुंचने में
अर्थ भी क्या
है? पहुंचने
का अर्थ तो
अपना ही
पहुंचना है।
तो
लिंची यह
सोचकर डोली पर
सवार न हुआ।
वहीं पहाड़ के
नीचे बैठ गया
और उसने कहा, मैं तो
असहाय हूं, पैर मेरे
कमजोर हैं, पहाड़ मैं चढ़
नहीं सकता, बूढ़ा हूं, जीवन का भी
भरोसा नहीं।
दूसरे के कंधे
पर बैठकर जाना
भी शोभा नहीं
देता कि यह भी
कोई यात्रा हुई?
और दूसरे के
कंधे पर बैठकर
भी पहुंच गए
तो क्या यह
कोई पहुंचना
हुआ? कम से
कम तेरे मंदिर
तक तो अपने
पैर से चल कर
आते। तो अब तो
एक ही उपाय है,
कि अगर तेरी
मर्जी हो, तो
तू ही आ जा।
अन्यथा हम
यहीं बैठे
रहेंगे।
और
कहते हैं कि
बुद्ध का आगमन
वहीं हुआ।
तो जब
गांव के लोग
आए और
उन्होंने कहा, तुम यहीं
बैठे हो? तो
लिंची ने कहा,
जरा मुझे
गौर से देखो, मैं वही
नहीं हूं, जो
तुम्हारे
गांव से
यात्रा पर
निकला था।
निश्चित
ही उनको भी लग
रहा था, कि
कोई महिमा
प्रकट हुई है,
आभा बदल गई
है, आंखों
में ज्योति
किसी और लोक
की है। चेहरे
पर भाव इस
संसार का नहीं
है। यह शरीर
ही किसी और
महिमा से
मंडित है।
जैसे भीतर कोई
दीया जल रहा
है और शरीर से
उसकी रोशनी
बाहर आ रही
है।
उन्होंने
कहा, वह तो
हमें भी लग
रहा है। लेकिन
तुम ऊपर मंदिर
तक पहुंचे कि
नहीं? उसने
कहा, मैं
असहाय था, चढ़ना
मुश्किल था, दूसरे के
कंधे पर जाना
उचित न था।
मैं यहीं बैठा
रहा। और मैंने
कहा, मैं
तो न चढ़
सकूंगा तेरे
मंदिर तक; लेकिन
अगर मेरी
प्यास सच है
तो तू मेरी
असहाय अवस्था
समझना। और अगर
तेरी मर्जी हो,
तो तू यहां
आ जाना।
और यह
भी है; कि
मैं तेरे
मंदिर तक भी
पहुंच जाऊं, लाखों लोगों
को रोज मैं
जाते-आते
देखता हूं, लेकिन अगर
तेरी मर्जी न
हो तो वे खाली
ही लौट आते
हैं। तेरे मंदिर
तक पहुंचकर
लोगों को खाली
लौटते देखता
हूं, तो यह
भी हो सकता है,
कि मैं यहीं
बैठा रहूं और
भर जाऊं। अब
तुझ पर ही छोड़
देता हूं।
और
लिंची ने न तो
प्रार्थना की, न पूजा की, न कोई
विधि-विधान
किया।
वहीं
नीचे पहाड़ के
बैठे-बैठे वह
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ।
जब वह
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गया
तो लोगों को
कहने लगा, कुछ करना
जरूरी नहीं है,
सिर्फ छोड़
देना जरूरी
है।
उस छोड़
देने का नाम
समर्पण है।
लेकिन छोड़ोगे कब? जब अहंकार
सच में ही समझ
लेगा कि
बिलकुल असहाय
हूं। छोड़ते ही
घटना घट जाती
है। इधर तुम
मिटे नहीं, उधर
परमात्मा आया
नहीं। इस
द्वार से तुम
बाहर निकलो, उस द्वार से
परमात्मा
भीतर आ जाता
है। तुम जरा
जगह खाली करो।
बस, तुम्हीं
अटके हो बीच
में।
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा
नहीं।
असहाय-भाव
बड़ा अदभुत है।
असहाय ही रहो।
सब उसी भाव से फलित
हो जाएगा।
थोड़ा सोचो, असहाय होने
की भावदशा--उससे
ज्यादा
महिमापूर्ण
और क्या तुम
पा सकोगे? असहाय
अवस्था में
कैसे बचाओगे
अपने अहंकार
को? गिर
पड़ेगा, विसर्जित
हो जाएगा।
तीसरा
प्रश्न :
भक्त
भाव से भरा
होता है; लेकिन भाव
और विचार में
हम कब और कैसे सही-सही
फर्क कर सकते
हैं?
विचार
एक आंशिक घटना
है, जो
तुम्हारे
मस्तिष्क में
चलती है। भाव
एक सर्वांग
घटना है, जो
तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व में
गूंज जाती है;
यही फर्क
है। विचार तो
तुम्हारी
खोपड़ी में चलता
है। वह
तुम्हारे
समग्र
व्यक्तित्व
को ओतप्रोत
नहीं करता। तुम्हारे
मन में एक
विचार चल रहा
है--भगवान का, तो तुम्हारा
रोआं-रोआं उस
भगवान के
विचार से स्नान
नहीं कर
पाएगा। विचार
मन में चलता
रहेगा। हृदय
की धड़कन में
नहीं गूंजेगा।
तुम विचार
भगवान का करते
रहोगे, लेकिन
तुम्हारे
पैरों को उसकी
कोई भी खबर न
मिलेगी।
तुम्हारे हड्डी,
मांस, मज्जा
को उसकी कोई
खबर न मिलेगी।
वह विचार ऊपर-ऊपर
चला जाएगा। वह
ऐसे ही होगा
जैसे सागर पर
तुम एक कागज
की नाव तैरा
दो। वह
ऊपर-ऊपर लहरों
पर डगमगाती
रहेगी। सागर
की गहराइयों
को पता ही
नहीं चलेगा, कि ऊपर कोई
कागज की नाव
भी डांवाडोल
हो रही है।
विचार
कागज की नावें
हैं। वे
तुम्हारी
मस्तिष्क की
सतह पर डोलते
रहते हैं।
वहीं आते हैं, वहीं से
तिरोहित हो
जाते हैं।
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारी
गहराई को उनकी
कोई भी खबर नहीं
मिल पाती। वे
आए, इसका भी
पता नहीं चलता;
कब चले गए, इसका भी पता
नहीं चलता।
भाव
सर्वांग
अवस्था है। जब
तुम परमात्मा
के भाव से
भरते हो तो
तुम्हारा
मस्तिष्क ही
नहीं भरता; मस्तिष्क
भरता ही है, तुम्हारा
रोआं-रोआं, तन-प्राण सब
भर जाता है।परमात्मा
के भाव से भरे
हुए व्यक्ति
को कहना न
पड़ेगा कि वह
परमात्मा का
विचार कर रहा
है। तुम देखोगे,
तुम पाओगे
कि वह परमात्मा
को जी रहा है।
विचार
और जीवन में
जितना फर्क है, उतना ही
फर्क विचार और
भाव में है।
भाव यानी सर्वांगीणता,
भाव यानी
समग्रता।
जब तुम
कभी किसी के
प्रेम में पड़
जाते हो, तब
खोपड़ी में ही
थोड़ी प्रेम
रहता है! वह
तुम्हारे
हृदय में भी धड़कने
लगता है।
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
भी पुलक आ जाती
है। तुम्हारी
चाल बदल जाती
है। कल भी तुम चलते
थे। ऐसे चलते
थे, जैसे
पैरों को घसिटते
हो। आज भी तुम
चलते हो, पैर
वही हैं, आकाश
वही है, कुछ
भी बदला नहीं;
लेकिन आज
तुम्हारे
पैरों में एक
नाच है। तुम किसी
के प्रेम में
पड़ गए हो।
हालैंड
में एक बहुत
बड़ा चित्रकार
हुआ, विन्सेंट
वान गाग। इस
सदी में जैसी
वान गाग की
ख्याति है, वैसी किसी
दूसरे
चित्रकार की
नहीं है। वान
गाग कुरूप था,
बहुत कुरूप
था। और कोई
स्त्री कभी
उसके प्रेम में
न पड़ी। कुरूप
ही नहीं था, विकर्षक था,
रिपल्सिव्ह था; कि
उसके पास जाकर
दूर हटने का
मन पैदा होने
लगे, कि
दोबारा इससे
मिलना न हो।
लेकिन
बड़ा अदभुत
चित्रकार था।
सौंदर्य का बड़ा
पारखी था।
शरीर बड़ा
कुरूप था।
किसी तरह जी रहा
था, काम करता
था। एक
चित्रशाला
में रोज काम
करने जाता था।
काम भी कर
देता था, चित्र
भी बना देता
था, चित्र
बिक भी जाते
थे। लेकिन
चलता था घसिटता
हुआ! जिसके
जीवन में
प्रेम की वीणा
न बजी . . .प्रार्थना
तो बहुत दूर
है, परमात्मा
तो बहुत दूर
है। प्रेम तो
बड़ी फीकी ध्वनि
है प्रार्थना
की, बड़ी
फीकी! जैसे
हजार-हजार पर्दो
के पार से
तुमने
परमात्मा को
देखा हो। बस
एक झलक, छाया
सरक गई हो, बस,
ऐसा प्रेम
है। लेकिन फिर
भी प्रेम बड़ा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
जिनके जीवन
में
प्रार्थना
नहीं, परमात्मा
नहीं, उनके
जीवन में तो
प्रेम ही
एकमात्र घड़ी
है, जब वे
समग्रता को
जानते हैं।
अन्यथा सभी
चीजें खंड-खंड
हैं।
वह घसिटता
हुआ चलता था, जैसे पैर
अलग चलते, हाथ
अलग चलते, सिर
अलग चलता।
जैसे कोई चीज जोड़नेवाली
न थी भीतर।
जैसे भीतर कोई
केंद्र न था।
जैसे वह कोई
एक एकता न था।
जैसे यंत्र सब
ढीला हो गया था
और सब
अस्थिपंजर--किसी
तरह लटके चल
रहे थे।
एक दिन
अचानक
चित्रशाला के
मालिक ने देखा, वान गाग की
चाल बदल गई
है। उसमें
थोड़ी गति है; और गति ही
नहीं है, एक
पुलक है! न
केवल पुलक है
बल्कि उसके
चेहरे पर एक
ताजगी है।
जैसे उसने आज
कई वर्षों के
बाद स्नान
किया है।
स्नान तो वह
रोज करता था, लेकिन आज
कोई भीतरी
स्नान हो गया
है, एक नाच
है।
उसके
मालिक ने कहा, "वान गाग!
तुम्हें
वर्षों से देख
रहा हूं। तुमसे
ज्यादा उदास,
हताश, हारा
हुआ आदमी नहीं
देखा। आज क्या
हो गया है? सीढ़ियां चढ़ते
वक्त तुम सीटी
बजा रहे थे।
क्या मामला है?
क्या किसी
के प्रेम में
पड़ गए?
वान
गाग ने कहा, "हां, एक
स्त्री ने
मेरी तरफ
मुस्कुरा कर
देखा है।"
एक
स्त्री जब
तुम्हारी तरफ
मुस्कुरा कर
देख ले, तो
इतनी बड़ी घटना
घट जाती है; और जब
परमात्मा
तुम्हारी तरफ
मुस्कुरा कर
देखेगा
हजार-हजार
आंखों से, हजार-हजार
रूपों
में--वृक्षों
से, चांदत्तारों से, झरनों
से, पहाड़ों
से, सब तरफ
से तुम पर झुक
आएगा; जैसे
आषाढ़ में मेघ
घिर गए हों, ऐसा सब तरफ
से तुम पर झुक
आएगा और वर्षा
करने लगेगा
प्रेम की, तब
क्या
तुम्हारी
खोपड़ी में ही
ऐसा भाव उठेगा,
कि
परमात्मा देख
रहा है?
नहीं, तब तुम नाच
उठोगे। मीरा
कहती है, "पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची"।
उसी घड़ी में
सोचने से काम
न चलेगा; नाचना
भी कम पड़
जाएगा। नाचने
का अर्थ ही यह
है कि तुम्हारी
समग्रता
ओतप्रोत हो गई,
तुम्हारा
रोआं-रोआं
सम्मिलित हो
गया, तुम्हारी
धड़कन-धड़कन डूब
गई, तुम्हारी
श्वास-श्वास
ने स्पर्श
किया उसका।
भाव-दशा
का अर्थ है
अखंड, पूरे
तुम उसमें हो।
इसलिए प्रेम
विचार नहीं है,
प्रेम भाव
है।
प्रार्थना भी
विचार नहीं है,
प्रार्थना
भाव है। ध्यान
भी विचार नहीं
है, ध्यान
भाव है।
और भाव
को अगर तुम
ठीक से समझ लो, तो वह विचार
से बिलकुल
उलटा है, क्योंकि
उसका गुणधर्म
निर्विचार का
है। जितना ही
भाव तुम्हें
पूरा पकड़ लेता
है, उतने
ही विचार शांत
हो जाते हैं, तरंगें खो
जाती हैं। तुम
इतनी गहरी
अनुभूति से
भरे होते हो, कि विचार
करने की
सुविधा कहां?
जगह कहां? जरूरत कहां?
प्रेम
का विचार तो
वही करता है, जिसने प्रेम
का भाव नहीं
जाना। भोजन का
विचार वही
करता है, जो
भूखा है और
जिसने भोजन
नहीं जाना।
भरा-पेट आदमी
कहीं भोजन का
विचार करता
है! भोजन से
मिल जाती है
तृप्ति, विचार
खो जाते हैं।
भूखा विचार
करता है भोजन
का। भूखा भोजन
ही भोजन का
विचार करता है,
और कोई
विचार आते ही
नहीं।
तो
परमात्मा का
विचार तो तभी
तक आएगा, जब
तक परमात्मा
की भूख ही है।
अभी तृप्ति
नहीं हुई। प्यास
ही है, कंठ
पर जल की धार
नहीं गिरी।
अभी मिलन नहीं
हुआ। एक हलकी
सी फुहार भी
नहीं पड़ी। भाव
है तुम्हारा
पूरा-पूरा
संयुक्त किसी
अवस्था में हो
जाना। इसलिए
सारा जोर
समस्त साधनाओं
का एक ही है, कि तुम
विचार से भाव
की तरफ हटो।
और
सारी
संस्कृति, सारी सभ्यता,
सारा समाज,
सारी
शिक्षा एक ही
बात की है, कि
तुम भाव से
बचो और विचार
में जीयो।
स्कूल, कालेज,
युनिवर्सिटी
विचार सिखाती
है, भाव
नहीं--"सोचो"!
और सोचने का
अर्थ क्या
होता है? सोचने
का अर्थ होता
है, जीने
से बचना।
जितना तुम
सोचोगे, उतना
जीने से बचते
जाओगे। तुम
सोचते ही
रहोगे। आखिर
में तुम पाओगे,
खोपड़ी अपने
भीतर ही सब कर
लेती है। शरीर
की कोई जरूरत
ही नहीं रह
गई।
अभी
पश्चिम में
कुछ प्रयोग
हुए हैं।
मस्तिष्क की
सर्जरी के
प्रयोगों से
एक बात अनुभव
में आई है कि
मस्तिष्क को
शरीर से बाहर
निकाला जा सकता
है और अलग
शरीर के रखा
जा सकता है
यंत्रों के
सहारे; तो
भी मस्तिष्क
सोचता ही चला
जाता है।
तुम्हारी कोई
जरूरत ही नहीं
है मस्तिष्क
को सोचने के
लिए।
मस्तिष्क को
घंटों बाहर रख
कर परीक्षण किए
गए हैं। शरीर
से बिलकुल
बाहर निकाल
लिया है। अब
उसको यंत्रों
के सहारे
चलाते हैं।
यांत्रिक
फेफड़ा खून
देता है।
यांत्रिक
फेफड़े से
आक्सीजन
मिलती है और
मस्तिष्क
सोचना जारी
रखता है।
उस आदमी
को पता भी
नहीं होगा, कि कोई फर्क
पड़ गया है। वह
जो सोच रहा
था--अगर वह पैसे
का पागल था तो
वह पैसे का
सोच-विचार
जारी रखेगा, हिसाब-किताब
लगाता रहेगा
भीतर। धन, रुपए
गिनता रहेगा।
अगर वह
आदमी
राजनीतिज्ञ
था तो पद की
आकांक्षा में
लगा रहेगा।
मिलता रहेगा
अपने वोटर्स
से। चुनाव का
दौरा करता
रहेगा। और
शरीर के बाहर
पड़ा है
मस्तिष्क!
अगर वह
कामी था, तो
कामवासना से
भरा रहेगा। अब
कामवासना के
तृप्त करने का
कोई उपाय भी
नहीं, क्योंकि
शरीर से अलग
है मस्तिष्क।
अगर वह
किसी मंत्र का
पागल था, कि
"ओम्, ओम्,
ओम्, ओम्"
जपना है, तो
वह जपता
रहेगा।
विचार
अकेले
मस्तिष्क से
चल सकते हैं, उनके लिए
तुम्हारे
पूरे होने की
जरूरत नहीं है।
इसलिए जितना
विचारक विचार
में डूबता चला
जाता है, उतना
ही उसका जीवन
संकीर्ण होता
चला जाता है, छोटा होता
चला जाता है।
पश्चिम
में एक विचारक
बहुत विचार
करने के बाद परेशान
होकर इस नतीजे
पर पहुंचा, कि अगर किसी
तरह विचार से
मुक्ति हो जाए
तो ही शांति
मिल सकती है।
तो उसने एक
छोटा-सा
प्रयोग किया
है, वह बड़ा
कीमती प्रयोग
है। शायद
तुम्हें भी काम
का हो जाए।
फिर तो वह
बहुत
प्रसिद्ध हो
गया। फिर तो
उसने एक
छोटी-सी किताब
लिखी अपने प्रयोग
के बाबत।
उसने
एक प्रयोग
किया, कि
विचार से बहुत
परेशान होने
के कारण
मानसिक चिकित्सा,
मनो-विश्लेषण
सब करवा लिया,
कोई हल न
पाया। और मन
था कि पगलाए
चला जाता है।
मन की आंधी
बढ़ती चली जाती,
वहां धुआं
इकट्ठा होता
चला जाता और
विक्षिप्तता
करीब है।
तो
उसने एक छोटा
सा प्रयोग
किया। वह कैसे
प्रयोग पर
पहुंचा, कहना
मुश्किल है, लेकिन वह
बहुत पुराना
तांत्रिक
प्रयोग है। वह
प्रयोग यह है,
कि वह अपने
को इस तरह
अनुभव करने
लगा, जैसे
सिर है ही
नहीं। राह फर
चलता है, लेकिन
एक खयाल रखता
है, कि सिर
कटा हुआ है।
बस, गर्दन
तक हूं, उसके पार
नहीं। बैठता
है, सोता
है, लेकिन
एक खयाल बनाए
रखता है, कि
गर्दन है ही
नहीं।
धीरे-धीरे वह
चकित
हुआ, कि गर्दन न
होने का खयाल;
गर्दन कट गई,
सिर के न
होने का खयाल मन
के विचारों को
शांत करने
लगा।
उसे तो
कुंजी मिल गई।
फिर तो उसने
इसका गहन प्रयोग
किया। उठते, बैठते, चलते,
सोते वह एक
ही मंत्र बना
लिया उसने कि
खोपड़ी नहीं
है। बस, नीचे
का धड़ है, सिर नहीं
है। और कोई
साल भर के
प्रयोग के बाद
सारे विचार
शून्य हो गए।
तो अब
तो वह गुरु हो
गया। तो वह
लोगों को
समझाता है। और
उसने एक छोटी
सी तरकीब
निकाली है। वह
साथ में, अपने
झोले में कागज
की थैलियां
रखे रहता है।
थैलियां, जो
दोनों तरफ से
खुली हैं; लंबी
थैलियां कागज
की। वह लोगों
को कहता है, इस में सिर
डाल लो। वहां
कुछ है ही
नहीं, खाली
थैली है। और
वहां देखते
रहो और सोचते
रहो, कि
सिर है ही
नहीं। न तो
कुछ देखने को
है, न कोई
देखनेवाला
है।
और
अनेक लोगों को
ध्यान की
थोड़ी-थोड़ी
झलकें उसकी थैलियों
से मिलना शुरू
हो गईं। वह
थैली काम की
है, कारगर है,
तुम भी
प्रयोग करके
देखना। बस, थोड़ी सी
कागज की थैली,
उसमें
खोपड़ी डाल ली।
और वहां कुछ
है नहीं, खाली
थैली है; वहां
देखते रहे, देखते रहे।
न कुछ देखने
को है, न
कोई
देखनेवाला
है।
बस, इतना ही तो
सारा ध्यान का
शास्त्र है, न कुछ देखने
को है, न
कोई
देखनेवाला
है। न दृश्य
है, न
दर्शन है। फिर
विचार कहां
उठता है? फिर
विचार खो जाता
है।
लेकिन
विचार का खो
जाना
पर्याप्त
नहीं है। यही
भक्तों में और
ध्यानियों
में फर्क है।
ध्यानी कहता
है, विचार खो
गया, सब हो
गया। भक्त
कहता है, विचार
खो गया, यह
तो केवल
प्राथमिक चरण
है। अभी भाव
कहां जन्मा है?
तो विचार खो
जाने के बाद
तुम पाओगे विचार
तो नहीं रहा।
मन शांत हो
गया, लेकिन
आनंद तुम न
पाओगे।
इसलिए
ध्यान
करनेवाला
व्यक्ति शांत
हो जाएगा, शून्य हो
जाएगा। आनंद
की स्फुरणा न
पाएगा। यही
फर्क है बुद्ध
के विचार और
वेदांत का।
बुद्ध का
विचार शून्य
तक पहुंचा
देता है। बड़ी
गहरी बात है
शून्य तक
पहुंचा देना;
आधी मंजिल
पूरी हो गई।
लेकिन
वेदांत कहता
है, यह काफी
नहीं है।
शून्य तो हो
गया, लेकिन
अभी परमात्मा
से भरा नहीं।
जहर से तो खाली
हो गया पात्र,
लेकिन
अमृत
अभी भरा नहीं।
अच्छा हुआ कि
जहर से खाली
हो गया, काफी
है यह भी। यह
कितना
मुश्किल है, लेकिन अधूरा
है।
यही
वेदांत का और
बुद्ध के
चिंतन का फर्क
है। वेदांत
कहता है, जब
तक शून्य
पात्र ब्रह्म
से न भर जाए, तब तक तुम
शांत तो हो
जाओगे, लेकिन
आनंदित कैसे
होओगे?इसलिए
बुद्ध को तुम
वृक्ष के नीचे
शांत बैठा देखते
हो। महावीर को
तुम पहाड़ों
में शांत खड़ा
हुआ देखते हो;
पर मीरा का
नाच, चैतन्य
का अहोभाव वह
दिखाई नहीं
पड़ता। कुछ कमी
है। कुछ चूक
रहा है। सब
है--बैंड-बाजे
बज गए, बराती
आ गए, मेहमान
इकट्ठे हो गए,
दूल्हा खो
रहा है। सब है,
लेकिन कुछ
फीका-फीका है।
दरबार भरा है,
दरबारी
बैठे हैं, सिंहासन
खाली है, सम्राट
नहीं है।
सन्नाटा है, प्रतीक्षा
है, लेकिन
कुछ चूक रहा
है--कोई एक कड़ी!
वेदांत
परम शास्त्र
है। उससे ऊपर
कोई शास्त्र
कभी नहीं गया।
वेदांत परम
दृष्टि है, क्योंकि वह
शून्य में
पूर्ण को उतार
लेती है।
मैं भी
तुमसे कहता
हूं, कि ध्यान
जरूरी है, एकदम
जरूरी है।
उसके बिना तो
कुछ भी न होगा।
वह तो
प्राथमिक है।
उससे तो भवन
निर्मित होगा।
लेकिन फिर भी
अतिथि के आने
की जरूरत पड़ेगी।
भूमि
तैयार कर ली, बीज भी
डालने
पड़ेंगे। भूमि
तैयार कर लेना
बगीचे का
लग जाना नहीं
है। जब भाव
उमगेगा, तभी
बगीचा लगा।
इसलिए जब तक
तुम नाच न सको,
तब तक समझना
मंजिल नहीं आई।
शांत हो जाओगे;
खूब! बहुत
खूब! अच्छा
हुआ। लेकिन जब
तक नाच न पाओ, तब तक समझना
अभी थोड़ा-सा
फासला बाकी
है।
बुद्ध
खूब हैं, लेकिन
कृष्ण के
ओंठों पर रखी
बांसुरी की
कमी है। थोड़ा
सा चूक रहा
है। हो सकता
है बुद्ध के
भीतर वह पूरा
भी है गया हो; लेकिन बुद्ध
नाच नहीं
सकते। उनकी
सारी
प्रक्रिया
शून्यता की है,
अहोभाव की
नहीं। हो सकता
है, भीतर
वे आनंद को भी
उपलब्ध हो गए
हों, लेकिन
वह आनंद उनके
रोएं-रोएं से
बहता नहीं। उसमें
भी एक संयम
मालूम पड़ता
है। उसमें वे
पागल होकर नाच
नहीं उठते, बावले नहीं
हो जाते।
खयाल
रखना--विचार, निर्विचार,
फिर भाव।
विचार से
मुक्त होना है,
निर्विचार
को लाना है, ताकि भाव आ
सके। और जब
भाव आ
जाए तो संकोच
मत करना और
डरना मत; और
भयभीत न होना
और संयम मत
रखना। फिर
नाचना अबाध!
तभी जीवन परम
उत्सव को
उपलब्ध होना
है। और जीवन
की आखिरी घड़ी
अगर उत्सव न
हो सके, तो
कहीं कुछ कमी
रह गई। थोड़ी
सी रह गई हो, लेकिन कमी
रह गई।
नाचते
हुए तुम
मृत्यु में जा
सको तो ही
आवागमन से
छुटकारा है।
तुम्हारा
मंदिर
तुम्हारा नृत्यगृह
बन जाए और
तुम्हारा
ध्यान
तुम्हारे भीतर
अनाहत नाद को
जगा दे।
तुम्हारी
विचार-शून्यता
में ओंकार का
विस्फोट हो।
तुम शून्य बनो
और पूर्ण का
अतिथि
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक दे।
इससे कम पर
राजी मत होना।
धर्म
अगर अंततः
नृत्य और
उत्सव न बन
जाए तो धर्म
पूरा नहीं है।
चौथा
प्रश्न :
मन
में कई प्रश्न
उठते हैं, किंतु जी
चाहता है, कुछ
न पूछूं; केवल
चरण-कमलों के
पास बैठा रहूं।
मन
में प्रश्न
ऐसे ही लगते
हैं जैसे
वृक्षों में
पत्ते लगते
हैं। वे लगते
ही चले
जाएंगे। तुम
कितना ही पूछो
और मैं कितना
ही जवाब दूं!
मैं इस आशा
में जवाब नहीं
देता हूं कि
मेरे जवाबों से
तुम्हारे
प्रश्न उठने
बंद हो
जाएंगे। वह भूल
मैं नहीं कर
सकता। मुझे भलीभांति
पता है कि
मेरा हर जवाब
तुम्हारे भीतर
और दस नए सवाल
उठाएगा।
इसलिए
अगर मैं
तुम्हारे
प्रश्नों के
उत्तर देता
हूं, तो इस
खयाल से नहीं
कि तुम्हारे
प्रश्न हल हो जाएंगे।
सिर्फ इसी
खयाल से कि
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कि इतने प्रश्नों
के उत्तर मिल
जाते हैं, फिर
भी प्रश्नों
की भीड़ तो
उतनी की उतनी
बनी है। उसमें
तो रत्ती भर
कमी नहीं हुई।
शायद थोड़ी बढ़
गई हो; नए
प्रश्न उठ आए
हों क्योंकि
नए उत्तर मिले,
जो तुम ने
कभी सुने न
थे। मन ने नए
प्रश्न उठा दिए।
अगर यह
तुम्हें
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए--
वही मेरी
चेष्टा है; इसलिए
तुम्हारे
प्रश्नों के
उत्तर देता
हूं, उत्तरों
को हल करने को
नहीं। कोई
उत्तर किसी प्रश्न
को कभी हल
नहीं कर पाता।
सिर्फ
तुम्हें यह
बोध देने को, कि कोई
उत्तर किसी
प्रश्न को कभी
हल नहीं कर पाता;
उलटे हर
उत्तर नए
प्रश्न को खड़ा
कर जाता है।
तो इस
मार्ग से हल
होनेवाला
नहीं है।
पूछ-पूछ
कर कभी
कोई ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हुआ है।
जानकारी को
उपलब्ध हो जाए
भला; खूब जान
ले, लेकिन
खूब जानने से
कुछ ज्ञान का
संबंध नहीं है।
जागेगा
नहीं, अनुभव
नहीं होगा।
शब्दों से
चित्त भर
जाएगा। और हर
शब्द बीज की
तरह नए शब्द
पैदा करेगा।
और इसकी कोई शृंखला
का अंत नहीं
है।
अगर यह
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे कि प्रश्न
तो बहुत उठते
हैं, लेकिन
पूछने का जी
नहीं होता, तो तुम एक
बहुत
महत्वपूर्ण
घड़ी के करीब आ
गए। यही तो
मेरी सारी
चेष्टा है, कि तुम्हारे
मन में प्रश्न
उठें और
पूछने का जी न
हो। क्योंकि
तुम्हें यह
समझ भी आ जाए, कि पूछने से
क्या होगा।
सभी
शास्त्रों
में सभी
प्रश्नों के
उत्तर भरे पड़े
हैं। तुम खरीद
ला सकते हो सब
शास्त्र, पढ़
भी ले सकते हो,
कुछ हल न
होगा। लेकिन
अगर तुम्हें
यह समझ आ जाए, कि उठने दो
प्रश्नों को,
हम
प्रश्नों में
पड़ते ही नहीं।
हम तो बैठेंगे
सत्संग में।
हम तो शांत, चुप--अगर
किसी ने जाना
है तो उसकी
मौजूदगी का रस
लेंगे। हम
बुद्धि से
बुद्धि के
संवाद में न पड़ेंगे,
हम तो
अस्तित्व को
अस्तित्व से
जोड़ेंगे।
जब तुम
मुझसे कुछ
पूछते हो, मैं तुम्हें
कुछ उत्तर
देता हूं, तब
दो बुद्धियों
का संवाद होता
है। संवाद भी
कठिन है। सौ में
निन्यानबे
मौके पर तो
विवाद होता
है।
इधर
मैं कह रहा
हूं, उधर तुम
सोच रहे हो, ठीक नहीं
है। पता नहीं
ठीक है या
नहीं, या
उत्तर दे रहे
हो, जवाब
खोज रहे हो, तुम्हारी
मान्यता के
अनुकूल नहीं
है, तुम्हारे
शास्त्र के विरोध
में है--हजार
तरह का विवाद
चल रहा है।
अगर
तुम बहुत शांत
चित्त के
व्यक्ति हो, और
शास्त्रीय
नहीं हो, और
शास्त्रों का
बोझ नहीं ढो
रहे हो अपने
सिर पर, तो
शायद संवाद हो
जाए--तुम अगर
प्रेमी हो।
तुम्हारा
मेरे पास होना
एक प्रेमी का
सान्निध्य है,
तो शायद
संवाद हो जाए।
तो शायद तुम
वही सुन लो, जो मैं कहने
की कोशिश कर
रहा हूं। तो
शायद मेरे
शब्दों में
तुम्हें
निःशब्द की
थोड़ी झनकार आ
जाए। तो शायद
मेरे शब्दों
के पार तुम
मुझे देखने
में थोड़े से
सफल हो जाओ।
तो शायद
शब्दों के बीच
जो खाली जगह
है, वह
तुम्हें
सुनाई पड़ सके।
वही ज्यादा
मूल्यवान है।
तो जब
मैं रुक जाता
हूं क्षण भर
को और तुम्हारी
तरफ देखता हूं, वही असली
उत्तर है।
यह अगर
दिखाई पड़ जाए
तो स्वाभाविक
फिर तुम पूछना
न चाहोगे।
प्रश्न तो
उठते
ही
रहेंगे। जब तक
मन है, उठते
ही रहेंगे। वह
मन का स्वभाव
है। जैसे सड़क
पर लोग चलते
रहेंगे, नदियां
बहती रहेंगी,
आकाश में
बादल सरकते
रहेंगे, ऐसे
ही तुम्हारे
मन में विचार
लगते रहेंगे।
इससे कुछ अड़चन
नहीं है।
अगर
तुम मेरे पास
होने की
उत्सुकता से
भर जाओ तो उसी
उत्सुकता में
तुम अपने मन
से दूर होने लगोगे।
और या तो तुम
मेरे पास हो
सकते हो, या अपने
मन के पास हो
सकते हो।
दोनों के पास
तुम नहीं हो
सकते।
मत
पूछो। अगर समझ
आ गई है तो मत
पूछो। चुप
रहो। उठने दो, उपेक्षा
करो। समझो, कि
जन्मों-जन्मों
का उपद्रव है,
चल रहा है, थोड़े दिन
चलेगा। चलने
दो; उसमें
बहुत रस भी मत
लो, ध्यान
भी मत दो। तुम
थोड़े दूर हटने
लगो। तुम मेरे
पास होने लगो।
सत्संग का यही
अर्थ है। गुरु
के पास होना।
अपने से दूर
होना, गुरु
के पास होना, सत्संग का
अर्थ है।
क्योंकि दो
में से एक ही बात
हो सकती है।
या तो तुम
अपने पास हो
सकते हो, या
गुरु के पास
हो सकते हो।
अपने पास रहे,
सत्संग
नहीं हुआ। गुरु
के पास रहे, सत्संग हो
गया।
तब तो
इसका यह भी
अर्थ हुआ कि
तुम हजारों
मील से भी तुम
गुरु के पास
हो सकते हो और
गुरु के पास बैठकर
भी दूर हो
सकते हो।
इसलिए सत्संग
का कोई संबंध
भूगोल से नहीं
है। सत्संग का
कोई संबंध न
तो स्थान से
है, न काल से
है। क्योंकि
अगर प्रेम गहन
हो, तो तुम
आज इसी क्षण
बुद्ध के पास
हो सकते हो; तो स्थान की
दूरी भी कुछ
दूरी नहीं है।
समय की दूरी
भी कुछ दूरी
नहीं है। और
अन्यथा तुम
मेरे पास बैठे
हो सकते हो और
करोड़ों
वर्षों का फासला
है, और
करोड़ों मीलों
का फासला है।
तुम जितने
अपने निकट, उतने ही तुम
मुझसे दूर हो।
यह एक सदभाव का
जन्म हुआ है।
इस सदभाव
को जीयो।
पूछने की
फिक्र छोड़ो।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
दूसरे, जिनकी
अभी पूछने की
आकांक्षा है,
वे पूछना
बंद कर दें।
उधार काम नहीं
चलता। जिसके
भीतर यह
आकांक्षा उदय
हुई है, कि
अब पूछने में
रस नहीं है, सिर्फ पास
होने में रस
है, उसके
लिए ठीक।
जिसको अभी
थोड़ी और
खुजलाहट मन की
बाकी हो, उसे
खुजा
लेना चाहिए।
मस्तिष्क
तो खुजली जैसा
है। खुजाने
में रस आता
है। आखिर में
खून ही निकलता
है, तकलीफ ही
होती है। पर
जिसका निकल
आता है खून, वही रुकता
है। वह भी
नहीं रुक पाता,
क्योंकि
पुरानी आदत
कहती है, थोड़ा
और खुजला
लो। खुजलाने
में बड़ी मिठास
मालूम पड़ती
है। खुजली हुई
हो कभी, तो
तुम्हें पता
होगा। न हुई
हो, तो
खुजली करवा कर
देखने जैसी
है। उसमें बड़े
जीवन का सार
छिपा है।
क्योंकि सारी
खोपड़ी खुजली है।
खुजलाने
में थोड़ा सा
रस आता है। जानते
हुए भी, कि
खून निकलेगा,
पीड़ा होगी,
तकलीफ होगी;
फिर भी
खुजलाते वक्त
रस आता है। तो
अभी रस आ रहा
हो, तो
जारी रखो, क्योंकि
तुम दूसरे का
ज्ञान उधार
नहीं ले सकते।
यह तो
तुम्हारा ही
अनुभव जब
तुम्हें इस
जगह ले आएगा
कि व्यर्थ है
पूछना।
क्योंकि
कितने उत्तर
मिले, कुछ
भी तो पाया
नहीं जाता।
सुन लेते हैं।
उलटे घड़े
पर गिरे पानी
की तरह सब बह
जाता है। तुम
वही के वही रह
जाते हो।
तो कब
तक ऐसा करते
रहोगे? तब
चुप पास बैठ
जाने की कला
का धीरे-धीरे
सूत्रपात
होता है। और
पास बैठने की
कला गहनतम
बात है।
हमने
अपने इस देश
की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
ज्ञान की
परंपरा को
उपनिषद कहा
है। उपनिषद
शब्द के दो
अर्थ होते
हैं। एक अर्थ
होता है, गुरु
के पास बैठने
की कला।
उपनिषद का
अर्थ होता है,
पास बैठना।
और
दूसरा अर्थ
होता है, गुह्य
ज्ञान, गुप्त-ज्ञान।
दो
अर्थ हैं
उपनिषद शब्द
के : समीप होना, सत्संग; और
गुप्त-ज्ञान।
मगर दोनों
अर्थ संयुक्त
हैं। दोनों
अर्थ एक ही
तरफ इशारा
करते हैं।
मतलब यह है कि
गुप्त ज्ञान
तभी मिलता है,
जब तुम समीप
होने की कला
सीख लेते हो।
जब तुम गुरु
के पास बैठ
जाते हो, बैठना
आ जाता है।
बड़ा
मुश्किल है
गुरु के पास
बैठना आना।
क्योंकि उसका
मतलब यह है कि
चुप बैठना, मौन बैठना, बिना विचार
के बैठना, भाव
से बैठना। तब
गुरु तुममें
प्रवाहित
होना शुरू हो
जाता है। तब
गुरु और
तुम्हारे बीच
जीवन की सरिता
डोलने लगती
है। तब गुरु
एक किनारा हो
जाता है, शिष्य
एक किनारा हो
जाता है।
दोनों के बीच
जीवन की धारा बहने
लगती है।
उस
गंगा को बहाना
हो--और उस
गंगा के
अतिरिक्त
बाकी कोई गंगा,
गंगा नहीं
है। अगर उस रसधारा
को बहाना हो, तो उपनिषद
की कला सीखनी
पड़े : चुप बैठ
जाना।
क्या
पूछना है? पूछकर क्या
पाना है? पूछकर
कुछ मिल भी
जाएगा तो शब्द
ही मिलेंगे। तुम्हें
लगी है भूख, और तुम
पूछते
हो भोजन
के संबंध में।
और मैं भोजन
के संबंध में
समझाता हूं, मैं तुम्हें
पूरा
पाकशास्त्र
समझा देता हूं;
भूख कैसी
मिटेगी? तुम
कहोगे, भोजन
चाहिए।
तुम
प्यासे हो, तुम पूछते
हो जल के
संबंध में और
मैं तुम्हें समझाता
हूं कि जल
कैसे निर्मित
होता है। एच०टू०ओ०
उसका
फार्मूला है।
आक्सीजन उदजन
दोनों से
मिलकर बनता
है। उद्जन
के दो परमाणु,
आक्सीजन का
एक परमाणु, तीनों से
मिलकर बनता
है। तुम कहोगे,
इससे मेरी
प्यास नहीं
बुझती। समझ
में आ गया, लेकिन
इस एच.टू.ओ.
से प्यास नहीं
बुझती। किसी
वेद से नहीं
बुझ सकती, क्योंकि
वेद यानी एच.टू.ओ.
। किसी
शास्त्र से
नहीं बुझ
सकती। कोई
कुरान, कोई
बाइबिल नहीं
बुझा सकती।
किसी गुरु का
कोई वचन नहीं
बुझा सकता।
प्यास
तो बुझेगी, पानी
तुम्हारे कंठ
से गुजरे तब।
मेरे पास बैठो,
पानी गुजर
सकता है।
सिर्फ तुम
खुले द्वार
रखो। पास
बैठने का इतना
ही अर्थ है, कि तुम रोकोगे
न, रुकावट
न डालोगे, दीवाल
खड़ी न करोगे।
तुम नग्न, निर्वस्त्र,
शांत, चुप
बैठे रहोगे।इसका
यह मतलब नहीं
है, कि
तुम्हारे
भीतर आज एकदम
से विचार उठने
बंद हो
जाएंगे। वे तो
चलते रहेंगे।
उनको तुम चलने
दो, तुम
उनसे दूर होते
जाओ। एक
डिस्टेंस, एक
फासला बनाओ; वे चल रहे
हैं, ठीक
है।
श्री
अरविंद ने
लिखा है, कि
जिस व्यक्ति
से उन्होंने
ध्यान सीखा, उसने एक
छोटी सी बात
उन्हें समझाई
थी। कहा था, कि तुम
ध्यान करने
बैठ जाओ, शांत
हो जाओ, निर्विचार
हो जाओ। तो
अरविंद ने कहा,
लेकिन
निर्विचार हो
जाओ, यह
क्या कहने से
हो सकता है? हम बैठ
जाएंगे; बैठना
हो सकता है, निर्विचार
कैसे होंगे? विचार तो
चलते ही
रहेंगे।
तो उस
व्यक्ति ने
कहा, तुम ऐसा
समझना कि जैसे
तुम शांत बैठे
हो और मक्खियां
तुम्हारे
चारों तरफ घूम
रही हैं।
विचार मक्खियों
की तरह हैं।
तुम उनको
घूमने देना।
तुम उनकी
फिक्र न लेना।
मक्खियों से
क्या
लेना-देना है?
घूमने दो।
तुम शांत रहना,
विचारों को
घूमने देना।
कोलाहल चलता
रहेगा तुम्हारे
चारों तरफ, लेकिन तुम
डांवाडोल मत
होना।
श्री
अरविंद तीन
दिन तक बैठे
रहे वैसी
अवस्था में।
रस लग गया।
जिसको कबीर
कहते हैं, तारी लग गई।
तीन दिन तक
उठे ही नहीं, सोए भी नहीं,
भोजन भी
नहीं किया।
ऐसा रस भीतर
आने लगा, कि
उठने का मन ही
न रहा। यह
असली
उपवास
है। खयाल ही न
आया भूख का, प्यास का, नींद का।
ऐसा मजा आने
लगा, ऐसा
भीतर अमृत
झरने लगा।
और
धीरे-धीरे मक्खियां
दूर होने
लगीं। अब भी
थीं, मगर बड़े
फासले पर।
मीलों लंबा
फासला था।
फासला बड़ा
होता चला गया;
जैसे चांदत्तारों
के पास अब मक्खियां
गूंज रही थीं,
और तुम इतने
दूर थे, क्या
लेना-देना?विचार
के साथ
तादात्म्य
तोड़ लो, बस!
तुम उनसे अलग
हो, तुम
उनसे भिन्न
हो। तुम विचार
नहीं हो, तुम
विचार के
द्रष्टा और
साक्षी हो; बस, इस साक्षीभाव
से मेरे पास
रह जाओ। तो
तुमने जो
प्रश्न नहीं भी
पूछे हैं, उनका
भी उत्तर मिल
जाएगा।
पूछ-पूछ कर तो
तुम जो पूछते
हो, उसका
भी कहां मिलने
वाला है? और
जो मैं
तुम्हें
उत्तर देता
हूं, वह तो
बच्चों को
खिलौने देने
जैसा है। ताकि
रस लगा रहे, बच्चे खेलने
आते रहें; कभी
उलझ जाएंगे।
कभी खिलौना
फेंक देंगे और
असली चीज लेने
को राजी हो
जाएंगे।
देना
चाहता हूं
तुम्हें
शून्य; क्योंकि
उसी से पूर्ण
का मार्ग
खुलता है। लेकिन
तुम शब्द
मांगते हो
इसलिए शब्द
देता हूं, कि
ठीक, आते
रहे तो किसी न
किसी दिन रोग
पकड़ ही जाएगा।
यह रोग बड़ा
संक्रामक है।
गुरु
से ज्यादा
संक्रामक
दुनिया में
कोई और दूसरी
चीज नहीं है।
बस, आते रहो।
उतनी हिम्मत
अगर रखी आते
रहने की, तो
किसी न किसी
दिन रोग पकड़ ही
जाएगा। और यह
रोग बिना मारे
नहीं छोड़ता।
यह बिलकुल
मिटा ही डालता
है। इसका कोई
इलाज भी नहीं
है; ला-इलाज
है, इनक्योरेबल है। एक दफा
लग गया, फिर
छूटता नहीं।
पांचवां
प्रश्न :
कभी-कभी
जीवन में दुख
और पीड़ा का
इतना अनुभव होता
है, कि लगता
है इससे
ज्यादा दुख नरक
में भी नहीं
होगा। फिर भी
जीवन के प्रति
वैराग्य पैदा
क्यों नहीं
होता?
दुख
से कभी
वैराग्य पैदा
होता ही नहीं, सुख से पैदा
होता है। दुखी
की आशा तो
जिंदा रहती है;
सिर्फ सुखी
की आशा टूटती
है। क्योंकि
दुख में ऐसा
लगता ही रहता
है, कि आज
दुख है, कल
ठीक हो जाएगा।
अभी दुख है, सदा थोड़े ही
रहेगा! और दुख
में ऐसा भी
लगता है, कि
कुछ न कुछ
रास्ता है
इसके पार जाने
का।
गरीब
कितना ही गरीब
हो, उसको
लगता ही रहता
है, अमीर
होने का कोई न
कोई उपाय
है।
आखिर दूसरे हो
गए हैं। इसलिए
भिखमंगा कभी
विरागी नहीं
हो सकता। बड़ा
मुश्किल है। भिखमंगे
की आशा लगी
रहती है।
जिसके पास है
ही नहीं, वह
छोड़ेगा कैसे?
जिसके पास
है, वही
छोड़ सकता है।
सुख से असली
वैराग्य पैदा
होता है, दुख
से नकली
वैराग्य।
इसलिए दुख से
मैं तुम से
कहता भी नहीं
कि तुम दुख से
वैराग्य की
तरफ जाना; नहीं।
वह कोई ठीक
रास्ता नहीं है।
अगर
तुम दुख से
वैराग्य की
तरफ गए तो तुम
कभी मोक्ष के
आकांक्षी न बनोगे; ज्यादा से
ज्यादा
स्वर्ग के।
क्योंकि दुखी
आदमी सुख
मांगता है, आनंद नहीं।
आनंद का उसे
पता ही नहीं।
सुख का ही पता
नहीं, आनंद
तो बड़ी दूर की
बात है। और
दुखी आदमी को
जो यहां नहीं
मिला है, वह
परलोक में
मांगता है। और
दुखी आदमी को
जो अपनी कोशिश
से नहीं मिला
है, वह
परमात्मा से
मांगता है।
लेकिन दुखी
आदमी विरागी
नहीं हो सकता।
मैंने किसी
दुखी आदमी को कभी
विरागी होते
नहीं देखा। और
अगर हो जाए, तो वह झूठा
वैराग्य
होगा।
तुम्हें
अपने
संन्यासियों
में, अगर तुम
इस मुल्क में
भ्रमण करो तो
तुम्हें सौ
में से
निन्यानबे
प्रतिशत ऐसे
संन्यासी मिलेंगे,
जो दुख के
कारण
संन्यासी हो
गए हैं। दुख
के कारण जो
संन्यास आता
है, उस
संन्यास में
भी दुख की
छाया पड़ी रहती
है और सुख की
आकांक्षा बनी
रहती है।
इसीलिए दुख से
तुम मुक्त न
हो पाओगे और
वैराग्य का
कोई जन्म दुख
से न होगा।
सुख से
वैराग्य का
जन्म होता है।
क्यों?क्योंकि
जब सुख मिल
जाता है, तब
भी तुम पाते
हो कि दुख तो
मिटा ही नहीं।
सुख भी मिल
गया और दुख तो
बरकरार है। जो
मिलना था, वह
मिल गया; मिला
तो कुछ भी
नहीं। भीतर तो
सब खाली है।
धन मिल गया और
भीतर की
निर्धनता न
मिटी। जैसी
सुंदर पत्नी
चाहिए थी मिल
गई, लेकिन
कोई तृप्ति न
मिली। जैसा
पति चाहिए था,
मिल गया, लेकिन सब
सपने टूट गए।
कोई सपना पूरा
न हुआ।
दुखी
आदमी तो आशा
कर सकता है, सुखी आदमी
कैसे आशा
करेगा? और
आशा है राग।
दुखी आदमी की
तो आशा बनी
रहती है कि यह
पत्नी मिल गई
दुष्ट। दुनिया
में इतनी
स्त्रियां
हैं, एक
अभागे हम इससे
उलझ गए! कोई
दूसरी स्त्री
मिल जाती। और
स्त्रियां
दिखती हैं
सड़कों पर हंसते,
मुस्कुराते।
और लोग दिखते
हैं। और लगता
है, कि लोग
बड़े सुखी हैं,
हम ही दुखी
हैं।
वह जो
प्रतीति है, वह प्रतीति
आशा बंधाती
है, कि कोई
न कोई रास्ता
निकल आए, कोई
सुंदर स्त्री
मिल जाए। हम
गरीब हैं, इसलिए
दुखी हैं। अगर
महल होता तो
दुखी न होते।
और ऐसा लगता
है, महलों
में जो लोग
हैं, वे
दुखी नहीं
हैं। क्योंकि
अपनी असली
शक्ल कोई भी
नहीं दिखाता।
बाहर लोग शक्लें
ओढ़ कर आते
हैं। भीतर
दुखी होते हैं,
बाहर हंसते
हुए निकलते
हैं।
पति-पत्नी लड़
रहे हों और
मेहमान घर में
आ जाए, दोनों
मुस्कुरा कर
बात करने लगते
हैं। क्यों इस
मेहमान को
धोखा दे रहे
हो? इसके
वैराग्य होने
की थोड़ी
संभावना थी, वह भी मिटा
दी। यह सोचेगा,
कैसे सुख
में जी रहे
हैं। स्वर्ग
उतरा है इस घर
में। एक हम ही
दुखी हैं कि
कलह चलती है।
और यही दशा तुम्हारे
मित्र की है।
जब वह
तुम्हारे घर
पहुंचता है, तुम भी
मुस्कुराने
लगते हो। बाहर
बड़ा धोखा है।
धनी यहां सुखी
होने का धोखा
दे रहा है। तो
गरीब की आशा
बंधी है।
पढ़ा-लिखा, गैर-पढ़े-लिखे
को धोखा दे
रहा है, कि
हम बड़े सुखी
हैं।
कोई
सुखी नहीं है।
यहां दो तरह
के दुखी लोग
हैं। एक वे
लोग हैं दुखी, जिनके पास
कुछ नहीं
है--गरीब
दुखी। और एक
यहां वे लोग
हैं जिनके पास
सब है और दुखी
हैं--अमीर दुखी।
दो तरह के
दुखी लोग हैं।
लेकिन
गरीब के दुख
से छुटकारा
बहुत कठिन है।
कठिन इसलिए है
कि तुम आशा को
कैसे मिटाओगे? गरीबों के
कारण ही तो
तुम्हारे
स्वर्ग पैदा हुए
हैं--झूठे! वे
आशाएं हैं
गरीबों की।
वहां कल्पवृक्ष
हैं जिनके
नीचे बैठकर सब
कामनाएं पूरी
हो जाती हैं।
ये कामी
पुरुषों ने ही
बनाए होंगे
कल्पवृक्ष।
विरागी का
कल्पवृक्ष से
क्या संबंध है?तीन शब्द
हैं हमारे पास
: नरक, स्वर्ग
और मोक्ष। नरक
का सभी अनुभव
करते हैं। नरक
कहीं है नहीं;
तुम जहां हो,
वहीं है।
जिस दिन तुम
यह समझ लोगे, तुम उससे
भागना छोड़
दोगे।
क्योंकि वह
तुम्हारे
होने में छिपा
है। वह
तुम्हारे
होने का ढंग
है। वह कोई
ऐसा स्थान
नहीं कि इधर से
दूसरी जगह चले
गए ट्रेन में
बैठ कर। उससे
कोई फर्क न
पड़ेगा। वह
तुम्हारे
होने का ढंग
है। तुम जहां
हो, वहीं
नरक में
रहोगे। गरीब
हो, तो
गरीब का नरक
होगा। अमीर हो
तो अमीर का
नरक होगा; मगर
नरक होगा।
क्योंकि
तुम्हारे
होने की
व्यवस्था
नारकीय है।
तुम्हारे पास कला
है नरक बनाने
की। जब तक वह
कला न छूट
जाएगी, तब
तक नरक होगा।
इसलिए
जो भी आदमी
जहां है, वहीं
नरक अनुभव
करता है।
मैंने अपने
जीवन में लाखों
लोगों को
निकटता से
देखा है। उनके
जीवन
की उलझन
को समझने की
कोशिश की है। मैंने
किसी आदमी को
सुखी नहीं
देखा। सुखी
आदमी मिला ही
नहीं। जैसे
सुखी आदमी है
ही नहीं! क्या
मामला है? सब तरह के
लोग मैंने
देखे।
एक
आदमी आता है, वह कहता है, बच्चा नहीं
है इसलिए मैं
दुखी हूं। और
दूसरा आदमी, वह गया नहीं
और आता है और
कहता है, बच्चों
की वजह से बड़ा
दुखी हूं।
एक
आदमी कहता है
कि बड़ी चिंता
है धन की, व्यवस्था
की; सो ही
नहीं पाता।
इससे तो गरीब
बेहतर। और
दूसरा आदमी
कहता है, हम
मरे जा रहे
हैं, गरीबी
में।
सब
दुखी हैं। हर
तरह के लोग।
तो नरक कुछ
होने का ढंग
है। एक कला है, जो तुमको
अगर आती है तो
तुम जहां भी रहोगे,
वहीं नरक
बना लोगे। और
नरक में सभी
लोग हों, तो
स्वर्ग की
आकांक्षा
पैदा होती है।
नरक
स्थिति है, स्वर्ग
कल्पना है।
नरक
वास्तविकता
है--तुम जहां
हो वहीं। कहीं
पाताल में नरक
नहीं है। पाताल
में तो अमरीका
है। और अमरीका
में भी लोग
सोचते हैं, पाताल में
नरक है। तुम
पाताल में हो।
जमीन गोल है।
स्वर्ग
आकांक्षा है
और मोक्ष
क्रांति है।
जिस
दिन तुम अपने
भीतर नरक की
व्यवस्था को
तोड़ दोगे, उस दिन
स्वर्ग नहीं
मिलेगा।
स्वर्ग तो नरक
का ही
प्रक्षेपण
था। वह तो नरक
में ही जीनेवाले
आदमी की
आकांक्षा थी।
जिस दिन भीतर
का नरक टूट
जाता है, उस
दिन स्वर्ग भी
खो जाता है।
उस दिन मोक्ष
बचता है। उस
दिन तुम मुक्त
हो।
मैंने
सुना है खुरूश्चेव
मरा, तो वह
सीधा स्वर्ग
पहुंच गया।
सेंट पीटर, जो ईसाइयों
के स्वर्ग के
द्वार पर पहरा
देते हैं, वे
जरा चिंतित
हुए कि इस खुरूश्चेव
को भीतर लेना
कि नहीं! तो
उन्होंने कहा,
आप जरा
प्रतीक्षालय
में बैठें;
मैं पूछकर
आऊं। भगवान को
उन्होंने
पूछा कि ख्रुरूश्चेव
आ गया है।
कम्युनिस्ट
को भीतर लेना
कि नहीं? नास्तिक
है।
भगवान
ने कहा, अब
जो भी आ गया है;
आए हुए को
लौटाना ठीक
नहीं। सिर्फ
एक शर्त उससे
कर लेना कि
यहां कम्यूनिज्म
का प्रचार न
करे। और किसी
को समझाए-बुझाए
न। और यहां
कोई जरूरत भी
नहीं है।
क्योंकि स्वर्ग
में तो सभी
कुछ है। यहां
तो सभी अमीर
हैं। सभी
एक-दूसरे से
ज्यादा
अमीर
हैं।
कल्पवृक्ष ही
कल्पवृक्ष लगे
हैं। किसी की
कोई कामना
अतृप्त नहीं
है। तो यहां
कोई सर्वहारा
है ही नहीं, कोई गरीब है
ही नहीं। यहां
तो सभी सुखी
हैं और अभिजात
हैं। इसलिए
यहां कोई
जरूरत भी नहीं
है। उसको कहना,
यहां कोई
जरूरत भी नहीं
है। और तुम यह
भर न करना; तो
हम इस शर्त पर
तुम्हें भीतर
ले लेते हैं।
और एक वर्ष के
बाद हम जांच
करेंगे। अगर
सब ठीक पाया तो
रुक सकते हो, अन्यथा जाना
पड़ेगा।
ख्रुरूश्चेव
राजी हो गया।
एक साल के बाद
सेंट पीटर को
बुलाया भगवान
ने और कहा कि
क्या खबर है ख्रुरूश्चेव
के संबंध में? तो सेंट
पीटर ने भगवान
से कहा, "कामरेड,
सब ठीक है।"
उसने भड़का दिया
सेंट पीटर तक
को!
अब ख्रुरूश्चेव
यानी होने का
एक ढंग। कम्यूनिस्ट
यानी होने का
एक ढंग। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता; कम्यूनिस्ट अगर स्वर्ग
में जाएगा तो
वहां भी
क्रांति की चर्चा
चलाएगा।
और अगर
कोई संन्यस्त
नरक में जाएगा
तो वहां भी
संतोष अनुभव
करेगा। भक्त
नरक में भी
अहोभाव पाएगा, क्रांतिकारी
स्वर्ग में भी
क्रांति के
उपाय खोज
लेगा।
तुम
वही देखते हो, जो तुम हो।
तुम अगर दुखी
हो, तो तुम
स्वर्ग से
मुक्त नहीं हो
सकते। स्वर्ग तुम्हारा
पीछा करेगा।
इसलिए मैं
तुमसे कहता हूं,
दुःख के
कारण तुम यह
मत सोचना कि
संन्यास पैदा
होगा, वैराग्य
पैदा होगा।
नहीं, वह
अपेक्षा मत करो।
दुख को समझने
की कोशिश करो।
सिर्फ दुख से
कोई संन्यास
पैदा नहीं हो
जाएगा। उससे
तो केवल
आकांक्षा
पैदा होगी।
दुख को समझने
की कोशिश करो,
दुख क्यों
है।
और सभी
धर्मगुरुओं
ने तुम्हें
व्यर्थ की
बहुत सी बातें
सिखा दी हैं।
वे कहते हैं, दुख इसलिए
है कि संसार
है। संसार का
स्वरूप दुख
है।
यह सब
व्यर्थ की बात
है। तुम्हारे
होने के ढंग
में दुख है।
संसार से कुछ
दुख का कोई
लेना-देना
नहीं है। यहीं
इसी पृथ्वी पर
सुखी होने की
संभावना है।
यहीं बुद्ध
शांत हो जाते
हैं, यहीं
मीरा नाचती है
अहोभाव से।
यहीं तुम बैठे
दुखी हो!दूसरे
पर दोष डालने
की मन की
बड़ी
वृति है। और
उसी वृति का
यह सिद्धांत
है, जो कहता
है, संसार
दुख-स्वरूप
है। यहां तो, माया में
दुखी होना ही
पड़ेगा।
मैं
तुमसे कहता
हूं कोई जरूरत
नहीं।
तुम्हारे
होने के ढंग
बदलते ही यहीं
सुख शुरू हो
जाता है। सुख
ही नहीं, आनंद
की वर्षा शुरू
हो जाती है।
दुख को
समझो; दुख
से भागो
मत। वह जो तुम
पूछते हो कि
दुख से
वैराग्य नहीं
पैदा हो रहा; तुम यही पूछ
रहे हो कि दुख
से हम भाग
क्यों नहीं
रहे?दुख से
भागकर जाओगे
कहां? तुम
जहां जाओगे, तुम्हारा
दुख तुम्हारे
भीतर है, तुम्हारे
साथ है। जैसे मकड़ी जाला
बुनती है; वह
उसके भीतर से
निकलता है।
चारों तरफ
फैला देती है,
फिर अगर
उसको डेरा
बदलना हो तो
वह अपने जाले
को फिर से लील
जाती है। और
दूसरी जगह
पहुंच जाती
है। वहां जाकर
फिर जाले को
फैला देती है।
तुम
अगर जहां हो, वहां से
भागोगे तो तुम
अपने जाले को
लील जाओगे। फिर
तुम हिमालय
चले जाओ, वहां
तुम जाकर अपने
जाले को फिर
फैला दोगे।
तुम ही
हो, जिससे
उठना है।
भागना नहीं है
कहीं।
परिस्थिति
में नहीं है
दुख; तुम्हारे
होने के ढंग, तुम्हारे
जीवन के
दृष्टिकोण, तुम्हारे
दर्शन में, तुम्हारी
आधारशिला में
दुख है। इसलिए
मैं दुख से भागने
को नहीं कहता,
दुख से
जागने को कहता
हूं। जागकर
समझो दुख को
कि दुख क्यों
है?
तब तुम
बड़े चकित
होओगे। जितनी
तुम्हारी सुख
की मांग है, उतना ही
ज्यादा दुख
है। जितनी सुख
की मांग कम हो
जाती है, उतना
दुख कम हो
जाता है।
जिसकी कोई सुख
की मांग नहीं,
उसका सारा
दुख समाप्त हो
जाता है। उसी
क्षण एक
विस्फोट होता
है। नरक, स्वर्ग
दोनों खो जाते
हैं। तुम
अचानक पाते हो
कि तुम मुक्त
हो : जंजीरें
गिर गईं। न तो
लोहे की
जंजीरें हाथ पर
रहीं, न
सोने की
जंजीरें हाथ
पर रहीं।
इसलिए
यह मत सोचो कि
दुख से अपने
आप कोई वैराग्य
पैदा हो जाएगा।
दुख के प्रति जागो; दुख
क्यों है? और
दूसरे को
जिम्मेवार मत
ठहराना। वही
भूल तुम
जन्मों-जन्मों
से कर रहे हो।
उसी भूल के
कारण तुम अब
तक जाग नहीं
सके। जब दूसरा
जिम्मेवार है,
जागने की
जरूरत ही नहीं
है।
जिम्मेवार
तुम हो, सदा
तुम हो। कोई
तुम्हें
गाली दे और क्रोध
तुम्हें आए, तो भी
जिम्मेवार
तुम हो, गाली
देनेवाला
नहीं।
क्योंकि ऐसे
लोग हैं, जिनको
गाली दो और
क्रोध न आए।
तो गाली में
कुछ रस न रहा, अर्थ न रहा।
तुम भी अगर
थोड़ी समझ से
भर जाओगे तो
कोई तुम्हें
गाली देगा और
तुम्हें
क्रोध न आएगा।
और यह भी हो
सकता है कि कोई
तुम्हें गाली
दे और तुम्हें
हंसी आए कि
कैसा पागल है!
तुम्हारी
दृष्टि पर सब
निर्भर है।
तुमसे छीना
जाए और
तुम्हें पीड़ा
न हो।
तुम्हारे हाथ
से खो जाए और
तुम्हें अभाव
न खले। यह
शरीर मरने के
किनारे आ जाए
और तुम्हारे भीतर
की
जीवन-ज्योति
में जरा सा
कंपन न उठे, यह संभव है।
कोई
बाहर दुख नहीं
है, भीतर है।
तुम अपने दुख
को, अपने
नरक को अपने
साथ लिए चल
रहे हो। उसके
प्रति जागो।
दुख से
भागकर जो
वैराग्य लेगा, वह स्वर्ग
के लिए
वैराग्य लेगा,
सुख के लिए
वैराग्य
लेगा। जो उसे
यहां नहीं मिला,
वह मंदिर
में बैठकर
प्रार्थना
करेगा।
परमात्मा, परलोक
में मिल जाए!
इसलिए
तुम्हारा
परलोक बड़ा काम
से भरा है, वासना
से भरा है।
वहां
अप्सराएं हैं
सुंदर। जिन
अभिनेत्रियों
को तुम यहां
नहीं पा सके, उनसे बहुत
ज्यादा सुंदर अभिनेत्रियां
वहां हैं।
अप्सराएं
यानी
वेश्याएं।
नाम बड़ा अच्छा
है, वह
स्वर्ग का नाम
है। अर्थ उसका
वेश्या है।
क्योंकि वह
किसी एक से
बंधी नहीं हैं,
पतिव्रता
का नियम नहीं
हैं वहां।
वेश्याएं हैं,
और सोलह साल
पर उनकी उम्र
रुक गई है!
उससे आगे बढ़ती
ही नहीं।
तुम्हारी
कामना है, स्त्री सोलह
साल पर रुक
जाए। उसी
कामना को तुमने
स्वर्ग में
बना लिया है।
वहां वृक्षों
के नीचे बैठकर
तुम जो वासना करते
हो, तत्क्षण
पूरी हो जाती
है। यहां तुम
बहुत भटक लिए
हो। वासना
करते हो, वर्षों
लग जाते हैं
पूरा होने
में। और जब तक
पूरी होने के
करीब आती है, तब तक
तुम्हारी
प्यास ही मिट
गई होती है, या तुम ही
मिटने के करीब
पहुंच गए होते
हो। कोई सार
नहीं दिखता।
इसलिए
वहां तत्क्षण!
समय नहीं
खोता।
कल्पवृक्ष के
नीचे तुमने
चाहा और हुआ।
इन दोनों के
बीच में पल
नहीं खोता।
इधर तुम्हारे
मन में विचार
उठा, उधर पूरा
हुआ।
मैंने
सुना है, कि
एक आदमी भूल
से स्वर्ग में
भटक गया।
पहुंच गया
कहीं भटक कर।
एक कल्पवृक्ष
के नीचे
विश्राम करने
लेट गया। आंख
खुली तो उसे
बड़ी भूख लगी
थी। उसने ऐसे ही,
जैसा तुम
सोचते
हो, सोचा कि
अगर कहीं भोजन
मिल जाता. .
.तत्क्षण थालियां
चारों तरफ लग
गईं। वह इतना
भूखा था कि उस
समय उसने
विचार भी नहीं
किया, ये
कैसे लग गईं? कहां से आ
गईं? उसका
पेट भर गया, तब उसने
सोचा, पानी?
पानी आ गया
स्वादिष्ट, सुस्वादु।
खूब खा गया था,
खूब पानी पी
लिया था तो
उसने कहा, बस,
अब बिस्तर
की कमी है।
बिस्तर आ गया!
बिस्तर
पर लेट रहा था, तब उसे खयाल
आया कि यह हो
क्या रहा है? ऐसे तो हम
पहले भी सोचते
रहे, लेकिन
कभी ऐसा हुआ
नहीं। यहां
कोई भूत-प्रेत
तो नहीं है? कि चारों
तरफ भूत-प्रेत
खड़े हो
गए--कल्पवृक्ष!
वह
घबड़ाया। उसने
कहा, मारे गए!
वह मारा गया।
भूत-प्रेत खा
गए उसको वहीं।
कल्पवृक्ष
के नीचे भी
तुम ही तो
रहोगे। सब भी पूरा
होगा, तो भी
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
जल्दी ही तुम
भी "मारे गए"
की अवस्था में
पहुंच जाओगे।
थोड़ा सोचो कि
तुम
कल्पवृक्ष के
नीचे बैठे हो,
क्या
मांगोगे?
कितनी देर तक
तुम्हारी
मांग पूरी
होती रहेगी और
सब ठीक चलता
रहेगा? तुम्हें
अपने मन का ही
कहां भरोसा है?
और
कल्पवृक्ष के
नीचे ऐसा नहीं
कि तुम कहो तब कल्पवृक्ष
पूरा करता है।
भीतर विचार
उठा, कि
पूरा हुआ।
तुम
कल्पवृक्ष से
जरा दूर ही
दूर रहना। अगर
कहीं मिल जाए
तो एकदम भाग
खड़े होना।
क्योंकि तुम्हारे
मन में क्या
उठ जाएगा, कुछ कहा
नहीं जा सकता।
क्या-क्या
उठता रहता है,
तुम्हें
पता ही है।
कुछ भी
उलटा-सीधा!
तुम्हारा मन
तो विक्षिप्त
है।
कल्पवृक्ष के
नीचे बैठकर
तुम पागल हो
जाओगे।
नहीं, दुख से
भागोगे तो
परलोक में भी
तुम सुख ही खोजोगे।
दुख से मत भागो,
जागो। और जैसे
तुम दुख से
जागोगे, तुम
पाओगे कि दुख
का सार क्या
है? सुख की
आकांक्षा दुख
का सार है।
सुख की कामना दुख
का बीज है।
सुख की मांग
दुख की शुरुआत
है।
अगर सच
में दुख से बच
जाना है, कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है। न
कोई पूजा, न
कोई
प्रार्थना, न कोई योग, न कोई तप।
सिर्फ वह जो
सुख की
आकांक्षा है,
उसे छोड़ दो।
वह जैसे-जैसे
छूटती जाएगी,
वैसे-वैसे
तुम पाओगे कि
तुम सुखी होते
जाते हो। एक
ऐसी घड़ी आती
है आंतरिक
संतुलन की, जहां सुख की
आकांक्षा
पूरी गिर जाती
है। वहीं दुख
समाप्त हो
जाता है। वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
तब तुम
मुक्त हो। उस
मुक्त को ही
मैं संन्यस्त
कहता हूं।
उस
मुक्त को ही
मैं वीतराग
कहता हूं।
दुख से
बचकर जो
वैराग्य पैदा
होता है, वह
राग के विपरीत
है। वह राग का
ही उलटा रूप
है, शीर्षासन
है। दुख को
समझकर, जानकर
जो वैराग्य
उत्पन्न होता
है वह वीतरागता
है। वह दोनों
के पार है। न
तो वह राग है, और न विराग
है।
आज
इतना ही।
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