कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

शिव--सूत्र (ओशो) प्रवचन--02

जीवनजागृति के साधनासूत्र(प्रवचनदूसरा)


दिनांक 12 सितंबर, 1874;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
प्रात: काल।
सूत्र:

जाग्रतस्‍वप्‍नसुषुप्तभेदे तुर्याभोग सवित।
ज्ञानं जाग्रत।
स्वप्रोविकल्पा:।
अविवेको मायासौषुप्तमू।
त्रितयभोक्ता वीरेश:।

 जाग्रत स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है।
विकल्प ही स्‍वप्‍न हैं।’’
अविवेक अर्थात स्व—बोध का अभाव मायामय सुषुप्‍ति है।
तीनों का भोक्ता वीरेश कहलाता है।

जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है। तुर्या है— चौथी अवस्था। तुर्यावस्था का अर्थ है— परम ज्ञान।
तुर्यावस्था का अर्थ है कि किसी प्रकार का अंधकार भीतर न रह जाये, सभी ज्योतिर्मय हो उठे; जरा—सा कोना भी अंतस का अंधकारपूर्ण न हो; कुछ भी न बचे भीतर, जिसके प्रति हम जाग्रत नहीं हो गये; बाहर और भीतर, सब ओर जागृति का प्रकाश फैल जाये।
अभी जहां हम हैं, वहां या तो हम जाग्रत होते हैं या हम स्‍वप्‍न में होते हैं या हम सुषुप्‍ति में होते हैं। चौथे का हमें कुछ भी पता नहीं है। जब हम जाग्रत होते हैं तो बाहर का जगत तो दिखाई पड़ता है, हम खुद अंधेरे में होते हैं; वस्तुएं तो दिखाई पड़ती हैं, लेकिन स्वयं का कोई बोध नहीं होता; संसार तो दिखाई पड़ता है, लेकिन आत्मा की कोई प्रतीति नहीं होती। यह आधी जाग्रत अवस्था है।
जिसको हम जागरण कहते हैं— सुबह नींद से उठकर— वह अधूरा जागरण है। और अधूरा भी कीमती नहीं है; क्योंकि व्यर्थ तो दिखाई पड़ता है और सार्थक दिखाई नहीं पड़ता। कुड़ा—करकट तो दिखाई पड़ता है, हीरे अंधेरे में खो जाते हैं। खुद तो हम दिखाई नहीं पड़ते कि कौन हैं और सारा संसार दिखाई पड़ता है।
दूसरी अवस्था है स्‍वप्‍न की। हम तो दिखाई पड़ते ही नहीं स्‍वप्‍न में, बाहर का संसार भी खो जाता है। सिर्फ, संसार से बने हुए प्रतिबिंब मन में तैरते हैं। उन्हीं प्रतिबिंबों को हम जानते और देखते है— जैसे कोई दर्पण में देखता हो चांद को या झील पर कोई देखता हो आकाश के तारों को। सुबह जागकर हम वस्तुओं को सीधा देखते हैं; स्‍वप्‍न में हम वस्तुओं का प्रतिबिंब देखते हैं, वस्तुएं भी नहीं दिखाई पड़ती।
और तीसरी अवस्था है— जिससे हम परिचित है— बाहर का जगत भी खो जाता है; वस्तुओं का जगत भी अंधेरे में हो जाता है; और प्रतिबिंब भी नहीं दिखाई पड़ते; स्‍वप्‍न भी तिरोहित हो जाता है; तब हम गहन अंधकार में पड़ जाते हैं— उसी को हम सुषुप्ति कहते हैं। सुषुप्ति में न तो बाहर का ज्ञान रहता है, न भीतर का। जाग्रत में बाहर का ज्ञान रहता है। और जाग्रत और सुषुप्ति के बीच की एक मध्य—कड़ी है: स्‍वप्‍न, जहां बाहर का ज्ञान तो नहीं होता, लेकिन बाहर की वस्तुओं से बने हुए प्रतिबिंब हमारे मस्तिष्क में तैरते है और उन्हीं का ज्ञान होता है। चौथी अवस्था है: तुर्या वही सिद्धावस्था है। सारी चेष्टा उसी को पाने के लिए है। सब ध्यान, सब योग
तुर्यावस्था को पाने के उपाय हैं। तुर्यावस्था का अर्थ है: भीतर और बाहर दोनों का ज्ञान; अंधेरा कहीं भी नहीं— न तो बाहर और न भीतर, पूर्ण जागृति; जिसको हमने बुद्धत्व कहा है, महावीर ने जिनत्व कहा है; जिसमें न तो बाहर अंधकार है, न भीतर, सब तरफ प्रकाश हो गया है; जिसमें वस्तुओं को भी हम जानते हैं, स्वयं को भी हम जानते है। ऐसी जो चौथी अवस्था है, वह कैसे पाई जाए— इसके ही ये सूत्र हैं।
पहला सूत्र है. जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जान लेने से तुर्यावस्था का ज्ञान हो जाता है। अभी हम जानते तो हैं, लेकिन पृथक रूप से नहीं जानते। जब हम स्‍वप्‍न में होते हैं, तब हमें पता नहीं चलता कि मैं स्‍वप्‍न देख रहा हूं; तब तो हम स्‍वप्‍न के साथ एक हो जाते है। सुबह जागकर पता चलता है कि रात सपना देखा। लेकिन अब तो वह अवस्था खो चुकी है। जब वह अवस्था होती है, तब हम पृथक रूप से नहीं जान पाते; तादात्‍म्‍य हो जाता है। स्‍वप्‍न में लगता है कि हम स्‍वप्‍न हो गये। सुबह जागकर लगता है कि अब हम स्‍वप्‍न नहीं रहे। लेकिन अब हमारा तादात्‍म्‍य जाग्रत से हो जाता है। हम कहते है: अब मैं जाग गया। लेकिन तुमने कभी सोचा है कि रात तुम फिर सो जाओगे और यह तादात्‍म्‍य भी भूल जायेगा; फिर सपना आयेगा और फिर तुम सपने के साथ एक हो जाओगे। जो भी तुम्हारी आख पर आ जाता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो, जबकि तुम सभी से पृथक हो।
यह ऐसा ही है कि जैसे वर्षा आये और तुम समझने लगो कि मैं वर्षा हो गया, गरमी आये और तुम समझने लगो कि मै गरमी हो गया और फिर शीत आये और तुम समझो कि मैं शीत हो गया। लेकिन ये तीनों मौसम तुम्हारे आसपास है; तुम तीनों से अलग हो। बचपन था तो तुमने समझा कि मै बच्चा हूं। जवान हुए तो तुमने समझा कि मै जवान हूं। बूढ़े हुए तो तुम समझ लोगे कि मै बूढ़ा हूं। लेकिन तुम तीनों के पार हो। अगर तुम पार न होते तो बच्चा जवान होता कैसे? तुम्हारे भीतर कुछ है जो बचपन को छोड़ सका और जवान हो सका। वह कुछ बचपन और जवानी दोनों से अलग है।
स्‍वप्‍न में तुम खो जाते हो। जागकर फिर तुम्हें लगता है कि सपना झूठ था। तुम्हारे भीतर ही कोई चेतना का तत्व है जो यात्रा करता है। स्‍वप्‍न, सुषुप्‍ति, जाग्रत तुम्हारी यात्रा के पडाव है, तुम नहीं हो। और जैसे ही तुम इस बात को समझ पाओगे कि तुम पृथक हो, अलग हो, वैसे ही चौथे का जन्म शुरू हो जाएगा। वह पृथकता ही चौथा है।
महावीर ने इसके लिए बहुत कीमती शब्द का प्रयोग किया है। इसे महावीर कहते है: भेद विज्ञान। वे कहते है कि सारा विज्ञान अध्यात्म के भेद को साफ—साफ कर लेने में है। वही इस शिवसूत्र का अर्थ है कि तुम्हें, तीनों अवस्थाएं अलग—अलग हैं, इसका पता चल जाए। जैसे ही तीनों अवस्थाओं को तुम अलग—अलग जान लोगे, तुम यह भी जान लोगे कि मैं तीनों से अलग हूं— तुम्हें भेद की कला आ गई। अभी हमारी मनोदशा ऐसी है कि जो भी हमारे सामने होता है, हम उसी के साथ एक हो जाते है।
किसी ने तुम्हें गाली दी, क्रोध उठा; उस क्षण में तुम क्रोध के साथ एक हो जाते हो। तुम भूल ही जाते हो कि क्षणभर पहले क्रोध नहीं था, तब भी तुम थे। क्षणभर बाद क्रोध फिर चला जाएगा, तब भी तुम रहोगे। तो क्रोध बीच में आया हुआ धुआं है। उसने तुम्हें कितना ही घेर लिया हो, लेकिन वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।
चिंता आती है तो चिंता का बादल घिर जाता है; सूरज छिप जाता है। तुम भूल ही जाते हो कि मैं पृथक हूं। सुख आता है तो तुम नाचने लगते हो। दुख आता है तो तुम रोने लगते हो। जो भी घटता है, —तुम उसी के साथ एक हो जाते हो। तुम्हें अपनी पृथकता का कोई बोध नहीं है। इसे धीरे— धीरे अलग करना सीखना होगा। हर स्थिति में अलग करना सीखना होगा। भोजन करते वक्त जानना कि जो भोजन कर रहा है, वह शरीर है। भूख लगे तो जानना कि जिसे भूख लगी है, वह शरीर है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चेतना को कोई भूख लग भी नहीं सकती। गरमी लगे और पसीना बहे तो जानना कि वह शरीर पर घट रहा है। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम गरमी में बैठे रहना और पसीना बहने देना; हटना, सुविधा बनाना; लेकिन शरीर के लिए ही सुविधा बनाई जा रही है, तुम सिर्फ जाननेवाले हो।
धीरे—धीरे प्रत्येक घटना जो तुम्हें घेरती है, तुम उससे अपने को अलग करते जाना। कठिन है पृथक करना; क्योंकि बहुत बारीक फासला है, सीमा—रेखा साफ नहीं है; क्योंकि अनंत जन्मों में तुमने तादात्‍म्‍य करना ही सीखा है, तोड़ना नहीं सीखा। तुमने हमेशा अपने को जोडना सीखा है— स्थितियों के साथ; तुम तोड्ने की बात ही भूल गये हो। इसका नाम ही बेहोशी है— यह जो तुमने जोड़ना सीख लिया है।
एक सुबह, मुल्ला नसरुद्दीन अस्पताल में अपने मित्र के पास बैठा था। मित्र ने आख खोली और उसने कहा, 'नसरुद्दीन, क्या हुआ? मुझे कुछ याद भी नहीं आता।नसरुद्दीन ने कहा, 'रात, तुम जरा ज्यादा पी गये और फिर तुम खिड़की पर चढ़ गये। और तुमने कहा कि मैं उड़ सकता हूं। और तुम उड़ गये। तीन मंजिल मकान पर थे। घटना जाहिर है। सब हड्डियां—पसलियां टूट गयी हैं।
मित्र ने उठने की कोशिश की और कहा कि नसरुद्दीन, तुम वहां थे? और तुमने यह होने दिया? तुम किस तरह के मित्र हो?
नसरुद्दीन ने कहा, ' अब यह बात मत उठाओ। उस समय तो मुझे भी लग रहा था कि तुम यह कर सकते हो। यही नहीं, अगर मेरे पायजा में का नाडा थोड़ा ढीला न होता तो मैं भी तुम्हारे साथ आ रहा था। तो कहां कने में पायजामा सम्हालूंगा, इसलिए मैं रुक गया और बच गया। तुम ही थोड़े पी गये थे, मै भी पी गया था।
बेहोशी का अर्थ है: जो भी चित्त में दशा आ जाए, उसी के साथ एक हो जाना। शराबी को एक खयाल आ गया कि उड़ सकता हूं तो अब वह भेद नहीं कर सकता। सोचने के लिए जगह नहीं है। विवेक के लिए सुविधा नहीं है। इसी के साथ एक हो गया!
तुम्हारा जीवन इसी शराबी जैसा है। माना कि तुम खिड़कियों से नहीं उड़ते और माना कि तुम अस्पताल में नहीं पाये जाते और हड्डियां नहीं तोड़ लेते; लेकिन बहुत गौर से देखोगे तो तुम अस्पताल में ही हो और तुम्हारी सब हड्डियां टूट गई हैं। क्योंकि तुम्हारा पूरा जीवन एक रोग है। और उस रोग में सिवाय दुख और पीड़ा के कुछ हाथ आता नहीं है। सब जगह तुम गिरे हो। सब जगह तुमने अपने को तोड़ा है। और सारे तोड्ने के पीछे एक ही मूर्च्छा का सूत्र है कि जो भी घटता है, तुम उससे फासला नहीं कर पाते।
थोड़े दूर हटो! एक—एक कदम लंबी यात्रा है; क्योंकि हजारों—लाखों जन्मों में जिसको बनाया है, उसको मिटाना भी आसान नहीं होगा। पर टूटना हो जाता है; क्योंकि वही सत्य है। तुमने जो भी बना लिया है, वह असत्य है। इसलिए हिंदू इसे माया कहते हैं। माया का अर्थ है कि तुम जिस संसार में रहते हो, वह झूठ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि बाहर जो वृक्ष है, वह झूठ है; पर्वत जो है, वह झूठ है और आकाश में चांद—तारे है, वे झूठ है। नहीं, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा जो तादात्‍म्‍य है, वह झूठ है। और, उसी तादात्‍म्य से तुम जीते हो। वही तुम्हारा संसार है।
कैसे तादात्‍म्‍य टूटे? तो पहले तो जागने से शुरू करो; क्योंकि वहीं थोड़ी—सी किरण जागरण की है। स्‍वप्‍न से तो तुम कैसे शुरू करोगे। मुश्किल होगा। और सुषुप्‍ति का तो तुम्हें कोई पता नहीं है। वहां तो सब होश खो जाता है। जाग्रत से शुरू करो। साधना शुरू होती है जाग्रत से। वह पहला कदम है। दूसरा कदम है: रूप। और तीसरा कदम है: सुषुप्‍ति। और जिस दिन तुम तीनों कदम पूरे कर लेते हो, चौथा कदम उठ जाता है, वह चौथा कदम है तुर्यावस्था— वह सिद्धावस्था है।
जाग्रत से शुरू करो; क्योंकि वही रास्ता है। इसलिए उसको जाग्रत कहा है; वह जाग्रत है भी नहीं। क्योंकि कैसी जागृति, जब तुम वस्तुओं में खोये हुए हो और अपने प्रति तुम्हें कोई भी होश नहीं है! उसको क्या जागरण कहना; नाम मात्र को जागरण है। लेकिन उसको जाग्रत कहा है। ठीक जाग्रत तो हमने बुद्धपुरुषों को कहा है। लेकिन यह जागरण है, इस अर्थ में, कि इसमें थोड़ी—सी संभावना जागरण की है।
तो पहले तुम जागरण से शुरू करो। भूख लगे, भोजन देना; लेकिन इस स्मरण को साधे रखना कि भूख शरीर को लगती है, मुझे नहीं। पैर में चोट लगे तो मरहमपट्टी करना, अस्पताल जाना, दवा लेना; लेकिन भीतर एक जागरण को साधे रखना कि चोट शरीर को लगी है, मुझे नहीं। इतने ही स्मरण को रखने से ही तुम पाओगे कि निव्यानबे प्रतिशत पीड़ा तिरोहित हो गई। निव्यानबे प्रतिशत पीड़ा इतना होश रखने से ही तिरोहित हो जाती है कि जो चोट लगी है, वह मुझे नहीं लगी। इतना बोध भी तत्‍क्षण तुम्हारे दुख को विसर्जित कर देता है। एक प्रतिशत बची रहेगी; क्योंकि यह बोध पूरा नहीं है। जिस दिन बोध पूरा हो जाएगा, उस दिन समग्र दुख विसर्जित हो जाता
बुद्ध ने कहा है जाग्रत पुरुष का दुख—निरोध हो जाता है। तुम उसे दुख नहीं दे सकते। तुम उसके हाथ—पैर काट सकते हो; तुम उसकी हत्या कर सकते हो; तुम उसे आग में जला सकते हो; लेकिन दुख नहीं दे सकते हो; क्योंकि प्रतिपल जो भी घट रहा है, वह उससे अलग है।
तो, जागने से शुरू करो। रास्ते पर चलना जरूर; लेकिन ध्यान रखना कि तुम नहीं चल रहे हो, शरीर ही चल रहा है। तुम कभी चले भी नहीं। तुम चलोगे कैसे? आत्मा का कोई पैर है कि चल सके? आत्मा का कोई पेट है कि उसे भूख लगे? आत्मा की कोई भी वासना नहीं है। सभी वासना शरीर की है। आत्‍मा निर्वासना है; इसलिए न चलती है, न चल सकती है। तुम्हारा शरीर ही चल रहा है। इसे जब तक होश रहे, सम्हालने की कोशिश करो। धीरे, धीरे, धीरे, एक बड़ा अनूठा और आहूलादकारी अनुभव होगा कि रास्ते पर चलते हुए अचानक किसी दिन पाओगे कि तुम्हारे भीतर दो हिस्से हो गये— एक चल रहा है और एक नहीं चल रहा है; एक भोजन कर रहा है और एक नहीं भोजन कर रहा है।
उपनिषद कहते हैं एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, दो पक्षी। ऊपर का पक्षी शांत है— न हिलता, न डुलता न रोता न हंसता; न आता, न जाता; बस बैठा है शांत। नीचे का पक्षी बड़ा बेचैन है; इस डाल से उस डाल पर उछलता है। इस फल को पकड़ता है, उसको पकड़ता है। बड़े सपने देखता है। बड़ी दौड़— धूप करता है। वे दोनों पक्षी तुम्हारे भीतर हैं। वह जो वृक्ष है, वह तुम हो। एक तुम्हारे भीतर जो पक्षी है, जो कभी हिला—डुला नहीं है, जो बस बैठा देख रहा है— उस पक्षी को हमने साक्षी कहा है।
जीसस ने कहा है कि एक ही बिस्तर पर तुम सोते हो; उसमें एक मरा हुआ है और एक सदा जीवित है। और एक सदा से मरा हुआ है और एक सदा जीवित रहेगा। वह बिस्तर तुम ही हो। जब रात तुम बिस्तर पर सोते हो, तो एक उसमें मुर्दा है और एक उसमें शाश्वत चैतन्य है। पर फर्क करना, फासला करना; कठिन श्रम—उद्यम की जरूरत है।
तो पहले तो तुम दिन से कोशिश करो। सुबह जब उठते हो, जब पहली किरण आती है होश की, तभी से तुम साधने की कोशिश करो। हजारों प्रयास करोगे, तब कहीं एक प्रयास सफल होगा। पर एक भी सफल हो जाए, तो तुम पाओगे कि हजारों साल की मेहनत करनी महंगी नहीं थी। क्योंकि एक क्षण को भी तुम्हें पता चल जाए कि जो चल रहा था, वह तुम नहीं हो; जो रुका है, वह तुम हो; जो वासना से भरा है, वह तुम नहीं; जो सदा निर्वासना है, वह तुम हो; जो मरण—धर्मा है, वह तुम नहीं; जो अमृत का स्रोत है, वह तुम हो। एक क्षण को भी इसका पता चल जाए तो एक क्षण को भी तुम महावीर या बुद्ध हो जाओ, या शिवत्व को उपलब्ध हो जाओ तो तुमने महान संपदा का द्वार खोल लिया। फिर यात्रा सरल है। स्वाद के बाद यात्रा बड़ी सरल है। स्वाद के पहले ही सारी कठिनाई है।
दिन से शुरू करो; और, अगर तुमने दिन से शुरू किया तो तुम धीरे—धीरे सफल हो जाओगे स्‍वप्‍न में भी। गुरजियेफ— इस सदी का एक बहुत बड़ा गुरु, महागुरु—वह अपने साधकों को पहले तो दिन में होश रखना सिखाता था—फिर स्‍वप्‍न में होश रखना सिखता था। उसकी प्रक्रिया थी कि जब तुम सोने लगो, तब एक ही बात स्मरण रखो कि यह स्‍वप्‍न है। अभी स्‍वप्‍न शुरू नहीं हुआ। तुम अभी जागे हो, तभी से तुम यह सूत्र अपने भीतर दोहराने लगो कि मैं जो देख रहा हूं यह स्‍वप्‍न है। कमरे को चारों तरफ देखो और यह भाव मन में गहरा करो कि जो मैं देख रहा हूं वह स्‍वप्‍न है। बिस्तर को छुओ और यह भाव गहरा करो कि जो मैं छू रहा हूं यह स्‍वप्‍न है। अपने हाथ को ही अपने हाथ से सार्श करो और अनुभव करो कि जो मैं छू रहा हूं यह स्‍वप्‍न है। ऐसे भाव को करते—करते तुम सो जाओ। यह भाव की सतत धारा तुम्हारे भीतर बनी रहेगी। कुछ ही दिनों में तुम पाओगे कि बीच स्‍वप्‍न में तुम्हें अचानक याद आ जाता है कि यह स्‍वप्‍न है। और जैसे ही याद आता है कि स्‍वप्‍न है, स्‍वप्‍न उसी क्षण टूट जाता है। क्योंकि स्‍वप्‍न के चलने के लिए मूर्च्छा जरूरी है; बिना मूर्च्छा के रूप नहीं चल सकता। बीच स्‍वप्‍न में तुम्हें याद आ जाएगा कि यह स्‍वप्‍न है और स्‍वप्‍न टूट जाएगा। और तुम इतने आनंद से भर जाओगे कि उस आनंद को तुमने कभी भी जाना नहीं है। नींद टूट जाएगी, स्‍वप्‍न बिखर जाएगा और एक गहरा प्रकाश तुम्हें घेर लेगा।
ज्ञानी पुरुष के स्‍वप्‍न तिरोहित हो जाते हैं; क्योंकि, नींद में भी वह स्मरण रख पाता है कि यह स्‍वप्‍न है।
भारत ने इसके बड़े अनूठे प्रयोग किये हैं। शंकर—वेदांत में, सारे जगत की माया की जो धारणा है, वह इसी का एक प्रयोग है। संन्यासी को चौबीस घंटे स्मरण रखना है कि जो भी हो रहा है, सब स्‍वप्‍न है। जागते भी, रास्ते से गुजरते, बाजार में बैठे हुए भी स्मरण रखना है कि जो भी है, सब स्‍वप्‍न है। यह क्यों? यह एक प्रयोग है, एक प्रक्रिया है, एक विधि है। अगर तुमने आठ घंटे जागते में स्मरण रखा कि जो भी हो रहा है, यह स्‍वप्‍न है, तो यह स्मरण इतना गहरा हो जाएगा कि जब रात स्‍वप्‍न भी चलेगा, तब तुम वहां भी याद रख सकोगे। वहां भी तुम याद रख सकोगे कि यह स्‍वप्‍न है।
अभी तुम याद नहीं रख पाते। अगर ठीक से समझो तो अभी भी तुम उलटे अर्थों में यही कर रहे हो। चौबीस घंटे, जब तुम जागते हो, तब तुम समझते हो कि जो भी देख रहा हूं यह सत्य है। इसी प्रतीति के कारण रात सपने को देखकर भी तुम समझते हो कि जो भी मैं देख रहा हूं वह सत्य है। क्योंकि यह प्रतीति गहरी हो जाती है। सपने से झूठा और क्या होगा! और तुमने कितनी बार रोज सुबह उठकर नहीं पाया कि सपना झूठा है, व्यर्थ है। लेकिन, फिर दुबारा तुम सोते हो और फिर वही भूल होती है। क्यों यह भूल बार—बार होती है? इस भूल के पीछे कोई बहुत गहरा कारण होना चाहिए। वह कारण यह है कि तुम जो भी देखते हो जाग्रत में, उसको तुम समझते हो कि यह सत्य है। जब सब कुछ देखा हुआ तुम सत्य मानते हो तो रात तुम सपने को देखते हो, उसको तुम असत्य कैसे मानोगे! उसको भी तुम सत्य मान लेते हो।
इससे उलटा प्रयोग माया का है। तुम जो भी देखते हो उसे दिनभर स्मरण रखते हो कि यह असत्य है। बार—बार भूलते हो और फिर याद को सम्हालते हो; फिर—फिर स्मरण लाते हो कि यह असत्य है। यह सब जो मैं देख रहा हूं चारों तरफ, एक बड़ा नाटक है और मैं दर्शक से ज्यादा नहीं हूं। मैं भोक्ता नहीं हूं कर्ता नहीं हूं; सिर्फ साक्षी हूं।
इस भाव को अगर तुम सम्हालते हो तो इसकी भीतर एक धारा बन जाती है। तब रात सपना टूट जाता है। और, जिसका सपना टूट गया, उसकी बड़ी उपलब्धि है। जब सपना टूट जाए तो फिर तीसरा चरण उठाया जा सकता है। जब सपना टूट जाए तो फिर सुषुप्‍ति में होश रखने का चरण उठाया जा सकता है। लेकिन तुम्हें अभी बहुत कठिनाई होगी। सीधा उस प्रयोग को करना संभव नहीं है; एक—एक कदम उठाना पड़ेगा।
जब सपना टूट जाता है, तब दृश्य कोई भी नहीं रह जाता। दिन में आख खोलकर तुम चलते हो। तुम कितना ही मानो कि जो देख रहे हो, वह माया है, तो भी दृश्य तो बचेगा। तुम कितना ही, शंकर भी कितना ही कहते हों कि माया है तो भी दीवार से तो निकलेंगे नहीं, निकलेंगे तो दरवाजे से ही; कितना ही कहते हों कि सब माया है, ककंड़—पत्थर तो नहीं खायेंगे, खायेंगे तो भोजन ही; कितना ही कहते हों कि माया है, फिर भी तुम होओगे, तभी बोलेंगे, तुम नहीं होओगे तो नहीं बोलेंगे।
इसलिए, बाहर के जगत के साथ तुम कितनी ही मान्यता को गहन कर लो कि यह माया है, बाहर का जगत तो बना रहेगा, मिट नहीं जाएगा। कोई पत्थर मारेगा फेंककर तो सिर टूटेगा, खून बहेगा, तुम दुखी मत होओगे, तुम पीड़ा नहीं लोगे, तुम कहोगे कि सब माया है; तुम अपने को दूर रखोगे। लेकिन; फिर भी घटना तो घटेगी ही। लेकिन, रूप में एक अनूठी बात है— वह बिलकुल माया है। इसलिए वहां एक अनूठा प्रयोग हो जाता है। जैसे ही तुम समझते हो कि सपना माया है, सपना खो जाता है, दृश्य विलीन हो जाता है। और, जब दृश्य विलीन हो जाता है, तभी द्रष्टा के प्रति आख जा सकती है। जब तक दृश्य मौजूद रहता है, तब तक तुम बाहर ही देखते हो; क्योंकि दृश्य आकर्षित करता रहता है। जब दृश्य खो जाता है, पर्दा खाली हो जाता है, पर्दा भी नहीं रह जाता, तब तुम अकेले छूटते हो। इसलिए ध्यानी आख बंद करके ध्यान करता है; क्योंकि, इस संसार को माया कहना एक वि(ध है।
यह संसार वास्तविक है। यह तुम्हारे सोचने पर निर्भर नहीं है। अगर यह स्‍वप्‍न भी है तो ब्रह्म का है; यह तुम्हारा स्‍वप्‍न नहीं है। लेकिन तुम्हारे निजी सपने है; वे रात में घटते हैं। इसलिए बड़ी क्रांतिकारी घटना तो तब घटती है, जब तुम निजी स्‍वप्‍न को तोड़ देते हो। आकाश खाली हो जाता है। वहां देखने को कुछ नहीं बचता। नाटक समाप्त हुआ। घर जाने का वक्त आ गया। अब तुम करोगे भी क्या, बैठे—बैठे! इस घड़ी में अचानक आख मुड़ती है; क्योंकि बाहर कुछ भी खोजने को नहीं रह जाता, देखने को नहीं रह जाता, सोचने को नहीं रह जाता। कोई दृश्य नहीं बचता। तो, जो ऊर्जा दृश्य की तरफ जाती थी, वह स्वयं की तरफ मुड़ती है। स्वयं की तरफ मुड़ती हुई ऊर्जा ही ध्यान है। और, जैसे ही यह स्वयं की तरफ मुड़ती है, तब तुम सुषुप्ति में भी होश रख सकते हो। क्योंकि तुम तो होते हो, संसार नहीं होता सुषुप्ति में, स्‍वप्‍न नहीं होता सुषुप्‍ति में। क्योंकि तुम दोनों को देखने में अटके थे, इसलिए सुषुप्‍ति में बेहोशी रहती थी। अब तुम्हारी अटक टूट गई। अब दृश्य से तुम्हारा कोई संबंध न रहा। अब दृश्य के बिना भी तुम हो सकते हो। अब दीया जलता है; उसकी दीये को कोई फिक्र नहीं कि दीये के प्रकाश में कोई गुजरता है या नहीं गुजरता। अब तुम्हारा जीवन भीतर की तरफ मुडेगा। अब तुम सुषुप्ति में जाग जाओगे।
स्‍वप्‍न के टूटने पर जो प्रयोग करने का है, वह यह है कि जैसे ही स्‍वप्‍न टूट जाए, आख मत खोलना; क्योंकि आख खोली तो जगत बाहर मौजूद है। फिर दृश्य मिल जाएगा। जब स्‍वप्‍न टूट जाए तो आख मत खोलना; गौर से देखे चले जाना शून्य को— स्‍वप्‍न खो गया। जहां स्‍वप्‍न था, अब वहां स्‍वप्‍न नहीं है। तुम गौर से उस शून्य को देखे चले जाना। उस शून्य को देखने में ही तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना भीतर की तरफ मुड़ने लगी, अंतर्मुखी हो गई। तब तुम सुषुप्‍ति में भी जागे रहेगे। यही कृष्ण ने गीता में कहा कि जब सब सो जाते हैं, तब भी योगी जागता है। जो सबके लिए निद्रा है, वह योगी के लिए निद्रा नहीं है। वह सुषुप्ति में भी जागा हुआ है। और, जब तुम तीनों को पृथक—पृथक देख लेते हो, तब तुम चौथे हो गये; अपने—आप चौथे हो गये।
तुर्या का अर्थ है. चौथा, दि फोर्थ। उस शब्द का और कोई अर्थ नहीं है। उसे कोई शब्द का अर्थ देने की जरूरत भी नहीं है। बस चौथा कहना काफी है; क्योंकि सभी अर्थ उसको बांध लेंगे, सभी शब्दों से बांध लेंगे; सिर्फ इशारा काफी है, क्योंकि वह अनंत है, और असीम है।
जैसे ही तुम तीन के बाहर हुए, तुम परमात्मा हो। इन तीनों में तुम प्रविष्ट हो गये हो, इसलिए संकीर्ण हो गये हो। यह ऐसे ही है कि जैसे तुम खुले आकाश से एक टनल में, एक बोगदे में प्रवेश कर जाओ और बोगदा छोटा होता जाए। इंद्रियों तक आते—आते तुम बिलकुल संकीर्ण हो गये हो। पीछे लौटना है। जैसे—जैसे तुम पीछे लौटते हो, तुम्हारा आकाश बड़ा होता जाता है। जिस क्षण तुम तीनों के पार अपने को देख लेते हो, उस दिन तुम महा आकाश हो। उस दिन तुम परमात्मा हो— ऐसे ही जैसे कि कोई आदमी दूरबीन से देखता है आकाश को। दूरबीन का छोटा—सा छेद होता है और वह अपनी सारी आंखों को उसी पर लगा देता है। फिर दूरबीन से आंखें हटाता है, तब उसे पता चलता है कि मैं दूरबीन नहीं हूं। तुम भी आख नहीं हो; लेकिन आख पर तुम कई जन्मों से टिके हो। तुम कान नहीं हो; लेकिन कान से तुम कई जन्मों से सुन रहे हो। तुम हाथ नहीं हो; लेकिन हाथ से तुम कई जन्मों से छू रहे हो। बस, तुम दूरबीन से बंध गये हो। तुम्हारी हालत वैसी हो गयी है, जैसे किसी वैज्ञानिक को दूरबीन बंध गयी हो। अब वह दूरबीन को आख से बांधे हुए घूम रहा है। तुम उसको कितना ही कहो कि दूरबीन उतारकर रखो, यह तुम नहीं हो। पर वह दूरबीन से ही देख सकता है और भूल ही गया है। यह विस्मृति है। इस विस्मृति को तोड्ने की प्रक्रिया है— जाग्रत से शुरू करो, सुषुप्‍ति पर पूर्ण होने दो।
जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति—इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है। इससे शुरू करो—— और धीरे— धीरे बढ़ते जाओ। जिस दिन तुम्हें गहरी नींद में होश रह जाए, उस दिन जान लेना कि तुममें, बुद्ध में, महावीर में, शिव में, अब कोई अंतर न रहा। लेकिन तुम उलटा ही काम कर रहे हो। तुम जागरण में भी ठीक से जागे हुए नहीं हो तो तुम सुषुप्ति में कैसे जागोगे! तुम यहां भी सोये हुए हो। तुम्हारा जागरण नाम मात्र को है। तुम्हें श्रम पैदा होता है कि तुम जागे हो, क्योंकि तुम कामचलाऊ काम निपटा लेते हो। साईकल चला लेते हो तो तुम सोचते हो कि तुम जागे हुए हो; कार चला लेते हो तो तुम सोचते हो कि जागे हुए हो। लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि यह सब आटोमेटिक हो गया है, यंत्रवत हो गया है। साईकल चलानेवाला सोचता भी नहीं कि अब बायें छूना है, अब दायें मुड़ना है। वह अपने मन में लगा रहता है। साईकल बायें मुड़ती है, दायें मुड़ती है; वह अपने घर पहुंच जाता है। सोचना। यहां होशपूर्वक चलने की कोई जरूरत नहीं है; सब यंत्रवत हो गया है, आदत हो गयी है। वह घर पहुंच ही जाता है। कार चलानेवाला चलाता जाता है; कोई जरूरत नहीं है उसको कि वह जागे।
हम सबकी जिंदगी एक रूटीन, एक बंधी हुई लीक पर घूमने लगती है। जैसे कोलू के बैल चलते हैं, ऐसे हम चलने लगते हैं। उसी—उसी लीक पर रोज चलते हैं। किसी की लीक थोड़ी बड़ी, किसी की थोड़ी छोटी, किसी की थोड़ी सुंदर, किसी की थोड़ी कुरूप; लेकिन लीक होने में कोई फर्क नहीं है। तुम्हारी जिंदगी एक कोलू के बैल की भांति है। सुबह उठते हो, एक धारा चलती है; रात सो जाते हो, एक वर्तुल पूरा हुआ। फिर सुबह उठते हो—फिर वही, फिर वही। यह सब इतनी बार तुमने दोहराया है कि अब होश रखने की कोई जरूरत ही नहीं; यह बेहोशी में हो जाता है। समय पर भूख लग जाती है। समय पर नींद आ जाती है। समय पर उठकर तुम बाजार चल पड़ते हो। तुम पूरी जिंदगी को ऐसे सोये—सोये एक वर्तुल में गुजार रहे हो।
कब जागोगे? कब एक झटका दोगे अपने को? कब इस लीक से उठोगे? कब कहोगे कि मैं कोलू का बैल होने को राजी नहीं हूं? जिस दिन तुम्हें झटका देने का खयाल आ जायेगा, उसी दिन से परमात्मा की यात्रा शुरू हो जाती है। मंदिर जाने से तुम धार्मिक नहीं होते; क्योंकि वह भी तुम्हारी कोलू की लीक का हिस्सा है। तुम वहां भी चले जाते हो; क्योंकि तुम सदा जाते रहे हो; क्योंकि तुम्हारे मां—बाप जाते रहे हैं; उनके मां—बाप जाते रहे हैं इसी मंदिर में। इसी शास्त्र को तुम पढ़ते रहे हो, तो तुम पढ़ते चले जाते हो। लेकिन यह कोलू की लीक है। क्या तुम कभी होशपूर्वक मंदिर गए? होशपूर्वक अगर तुम जा सको तो मंदिर जाने की जरूरत न रह जायेगी। जहां होश हो जायेगा, तुम वहीं पाओगे, मंदिर है।
होश मंदिर है। लेकिन ईसाई चला जा रहा है चर्च की तरफ; सिक्ख चला जा रहा है गुरुद्वारा की तरफ; हिंदू चला जा रहा है मंदिर की तरफ—बंधे हुए अपनी—अपनी लीक पर हैं। तुम्हारी यह सोयी—सोयी अवस्था तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं तोड़ सकता।
तो पहली बात जान लेनी जरूरी है कि तुम्हारा जाग्रत भी सोया हुआ है और योगी की सुषुप्ति भी जागी हुई है। तुम बिलकुल उलटे योगी हो। और जिस दिन तुम इससे विपरीत हो जाओगे, उसी दिन जीवन का सार—सूत्र तुम्हारे हाथ आ जायेगा। तीनों को अलग—अलग जान लो तो जाननेवाला तीनों से अलग हो जाता है। तुम मात्र ज्ञान हो इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। तुम सिर्फ होश मात्र हो। लेकिन तीनों से अपने को तोड़ो।
पढ़ता था मैं, एक सूफी फकीर के संबंध में—जुन्नैद के बाबत। कोई उसे गाली दे जाता तो वह कहता है कि कल आकर उत्तर दूंगा। कल जाकर कहता कि अब उत्तर की कोई जरूरत नहीं। तो वह आदमी पूछता कि कल मैंने गाली दी; कल तुमने क्यों उत्तर नहीं दिया? तुम अनूठे आदमी हो। गाली किसी को दो तो वह उसी वक्त उत्तर देता है, क्षणभर नहीं रुकता है। जुन्नैद ने कहा कि मेरे गुरु ने कहा है कि अगर जल्दी की तो मूर्च्छा हो जाती है। तो थोड़ा वक्त देना। कोई गाली दे, उसी वक्त अगर उत्तर दिया तो उत्तर मूर्च्छा में दिया जायेगा; क्योंकि गाली तुम्हें घेरे होगी, उसका ताप तुम्हें पकड़े होगा, उसका धुआं अभी आंखों में होगा। थोड़ा बादल को गुजर जाने दो। चौबीस घंटे का वक्त दो, फिर उत्तर देना।
और जुन्नैद कहता है कि मेरा गुरु बहुत चालबाज आदमी था; क्योंकि तब से मैं उत्तर ही नहीं दे पाया। चौबीस घंटा कोई रुक जाये क्रोध करने को, तो तुम सोचते हो, क्रोध कर पायेगा? चौबीस मिनट भी रुक जाये तो क्रोध असंभव है। चौबीस सैकंड भी रुक जाये तो क्रोध असंभव है। सच तो यह है कि एक सैकंड भी अगर रुक जाये, और देख ले, तो क्रोध असंभव है।
लेकिन, तुम रुकते ही नहीं। उधर किसी ने गाली दी, जैसे किसी ने बिजली का बटन दबाया, इधर तुम्हारा पंखा चला। इसमें रत्तीभर का फासला नहीं है। इसमें जरा—सी भी संध नहीं है। और, तुम सोचते हो कि तुम बड़े होशपूर्ण हो। तुम मालिक भी नहीं हो अपने। बेहोश आदमी मालिक हो भी नहीं सकता। कोई भी बटन दबाता है और तुम्हें चलाता है। कोई आया और तुम्हारी खुशामद की, तुम खिलखिला गये, गदगद हो गये। किसी ने तुम्हारा अपमान किया और तुम आंसुओ से भर गये। तुम मालिक हो अपने? या हर कोई तुम्हें चलाता है? और जो तुम्हें चला रहे हैं, वे भी अपने मालिक नहीं है अपने। तुम गुलामों के गुलाम हो। और बड़ा मजा है कि सब एक—दूसरे को चलाने में कुशल हैं, और उनमें से एक भी होश में नहीं है। इससे बड़ा और कोई अपमान नहीं हो सकता आआ का, कि हर कोई तुम्हें चलाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में काम करता था। सभी नाराज थे उसके काम से; क्योंकि काम भी कुछ था ही नहीं। या तो वह सोया रहता था या झपकी खाता रहता था। आखिर दफ्तर के लोग परेशान इतने हो गये कि धीरे— धीरे लोगों ने उसे कहना भी शुरू कर दिया। मालिक ने भी कहा, डांटा—डपटा लेकिन उसमें कुछ फर्क नहीं हुआ। इतना अपमान और इस सब उपद्रव के कारण उसने इस्तीफा दिया। बदलना तो मुश्किल था, इस्तीफा देना आसान था। बहुत—से लोग, जो संसार से भागते हैं संन्यास की तरफ, वे इस्तीफा दे रहे हैं। बदलना तो मुश्किल है, इस्तीफा देना सदा आसान है। उसने इस्तीफा दिया। सारा दफ्तर प्रसन्न हुआ इस्तीफे से। लोग इतने प्रसन्न हो गए कि मालिक ने कहा कि जब वह अपनी तरफ से ही जा रहा है, तो विदाई—समारोह करना उचित है। और हम इतने परेशान थे इससे और यह छोड़ रहा है। और छुड़ाने का कोई उपाय नहीं था। वह बोझ हो गया था। इसलिए, ठीक से, सच में ही खुश थे वे। विदाई—समारोह काफी अच्छी तरह से आयोजित किया—मिठाई, खाना—पीना; सब इकट्ठे हुए। नसरुद्दीन बड़ा हैरान हुआ। और सभी ने दो—दो शब्द उसकी प्रशंसा में भी कहे; क्योंकि विदाई का वक्त था। नसरुद्दीन खड़ा हुआ—गदगद। आख से आंसू झर रहे हैं। उसने कहा, 'मैं अपना इस्तीफा वापस लेता हूं। मुझे पता ही नहीं था कि तुम सब इतना प्रेम मेरे लिए करते हो। अब इस जीवन में यहां से जाने का कोई कारण नहीं है।
हम संचालित हो रहे हैं। और अक्सर यह होता है कि चारों तरफ, पूरा संसार, एक—एक व्यक्ति को चला रहा है और मौसम चारों तरफ बदलता रहता है। हजारों तरह के लोग हैं। इसलिए तुम्हारे भीतर एक गहरा विभ्रम और एक कंफ्यूजन है। होगा ही; क्योंकि तुम एक से चालित नहीं हो। एक से चालित तो वही है, जो भीतर जागा हुआ है। उसकी जिंदगी में एक स्पष्टता होगी, निरभ्रता होगी। उसके जीवन मे एक सफाई होगी, एक निर्णय होगा। उसके जीवन में एक दिशा होगी। तुम्हारे जीवन में कोई दिशा नहीं, हो भी नहीं सकती। तुम तो ऐसे हो, जैसे कोई आदमी भीड़ में, धक्के में चलता है। वह चल भी नहीं रहा; लेकिन भीड़ इतना धक्का दे रही है कि खड़ा भी नहीं रह सकता। कोई बायें धक्का देता है तो वह बायें चला जाता है; कोई दायें धक्का देता है तो वह दायें चला जाता है। तुम्हारी पूरी जिंदगी भीड़ में चलती हुई है। तुम गौर से देखो, समझ में आ जाएगा। कोई कुछ कह रहा है, वह तुम करते हो। फिर कोई कुछ और कहता है, वह भी तुम करते हो। फिर तुम्हारे भीतर इतने विरोधाभास हो जाते हैं।
एक आदमी मेरे परिचित थे। चोट लग गयी थी, थोड़ी—सी चोट थी। रिक्शा उलट गया था। फिर अस्पताल से भी छूट गये। फिर छह महीने भी बीत गये। भले—चंगे भी हो गये। लेकिन, फिर भी वे अपनी बैसाखी...। तो मैंने उनसे पूछा कि बैसाखी कब छोड़ोगे? वे कहते हैं, 'छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं। मेरा डाक्टर कहता है, बेकार है; लेकिन मेरा वकील कहता है, अभी रखो, जब तक मुकदमा तय न हो जाये। तो किसकी अं?'
तुम्हारा वकील कुछ कहता है, तुम्हारा डाक्टर कुछ कहता है; पली कुछ कहती है, पति कुछ कहता है; बेटा कुछ कहता है, बाप कुछ कहता है। चारों तरफ तुम्हें चलाने वाले मालिक हैं—करोड़ों मालिक है और तुम अकेले हो! और तुम सबकी सुनते हो। जो भी दबा देता है, उसी को सुनते हो। तब तुम्हारे भीतर सब दरारें पड़ जाती हैं; खंड—खंड हो जाता है व्यक्तित्व। जब तक तुम भीतर की न सुनोगे तब तक तुम अखंड नहीं हो सकते।
मैं संन्यासी उसे कहता हूं जिसने भीतर की आवाज सुननी शुरू कर दी और जब वह भीतर की आवाज पर सब दांव लगाने को राजी है। लेकिन भीतर की आवाज तुम्हें समझ में भी न आयेगी, जब तक तुम बेहोश हो। तब तक अगर तुमने भीतर की आवाज समझी भी कि यह भीतर की आवाज है, तो वह भीतर की न होगी; वह भी बाहर की आवाज होगी। बेहोश आदमी को भीतर की आवाज का क्या पता! नहीं तो दिल्ली में बैठे सभी राजनीतिज्ञ अंतरात्मा की आवाज की बात करते; इंदिरा, गिरी—अंतरआत्‍मा की आवाज! अंतरात्मा का पता कैसे सोये हुए आदमी को! कौन—सी आवाज अंतरआत्मा की है, तुम्हें कैसे पता? जो भी आवाज तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करती हुई मालूम पडती है, अंतर्वासना की आवाज है। उसे तुम अंतरात्मा की आवाज कहते हो।
सिर्फ जागे हुए आदमी के भीतर कोई आवाज होती है। और वह आवाज तुम्हें मिल जाये तो तुम्हारे जीवन में सब जो कलुष है, वह जो उपद्रव है और हजार तरह के विक्षिप्त स्वर हैं; कि तुम एक भीड़ हो गये हो, एक व्यक्ति नहीं; तुम एक बाजार की तरह हो जिसमें सब चल रहा है। बंबई का शेयर बाजार हो तुम.. और सब चलता है। कुछ समझ में नहीं आता। कोई नया आदमी कुछ समझ नहीं पायेगा कि तुम क्या हो। कोई कुछ चिल्ला रहा है कोई कुछ चिल्ला रहा है। सब तरह की आवाजें हैं। तुम्हारी आवाज बिलकुल खो गई है।
तुर्यावस्था का अर्थ है आत्मा को पहचानना। और इन तीन से तुम अपने को तोड़ो, तो ही तुम आत्मा को पहचान सकोगे। छोटे—छोटे प्रयोग शुरू करो। क्रोध आये, रुको; जल्दी क्या है! घृणा आये, थोड़ा रुको; थोड़ा संधिकाल चाहिए। तभी उत्तर दो जब कि तुम होश में आ जाओ। उसके पहले उत्तर मत दो। और तुम पाओगे कि तुम्हारी जिंदगी से पाप खोना शुरू हो गया; गलत अपने—आप विसर्जित होना शुरू हो गया। तुम अचानक पाओगे कि अब क्रोध का उत्तर देने की जरूरत न रही। यह भी हो सकता है कि जिसने तुम्हारा अपमान किया था तुम उसे धन्यवाद देने भी जाओ; क्योंकि उसने भी तुम्हारा उपकार किया है, तुम्हें जागने का एक मौका दिया है।
कबीर ने कहा है. निंदक नियरे रखिये, आंगन कुटी छवाय। वह जो तुम्हारी निंदा कर रहा है, उसे तुम पास में ही सम्हाल कर, इंतजाम कर दो। उसको घर में ही ठहरा लो; क्योंकि वह तुम्हे जागने का मौका देगा। जो—जो तुम्हे मूर्च्छित होने का मौका देता है, अगर तुम चाहो तो उसी मौके को तुम जागरण की सीढी भी बना सकते हो। जिंदगी ऐसी है जैसे रास्ते पर एक बड़ा पत्थर पड़ा हो। जो ना समझ हैं, वे पत्थर को देख कर लौट जाते है। वे कहते हैं, रास्ता बंद है। जो समझदार है, वे पत्थर पर चढु जाते हैं। वे उसकी सीढी बना लेते है। और जैसे ही सीढी बना लेते हैं, और भी ऊपर का रास्ता उुपर हो जाता है।
साधक के लिए एक ही बात स्मरण रखनी है कि जीवन का हर एक क्षण जागृति के लिए उपयोग कर लिया जाये। चाहे भूख हो, चाहे क्रोध हो, चाहे काम हो, चाहे लोभ हो—हर स्थिति को जागरण के लिए उपयोग कर लिया जाये। रत्ती—रत्ती तुम इस तरह इकट्ठा करोगे जागरण, तो तुम्हारे भीतर ईंधन इकट्ठा हो जायेगा। उस ईंधन से जो ज्वाला पैदा होती है, उसमें तुम पाओगे कि तुम न तो जाग्रत हो, न तुम स्‍वप्‍न हो, न तुम सुषुप्ति हो; तुम तीनों के पार पृथक हो।
ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है—बाहर की वस्तुओं के ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है। विकल्प ही स्‍वप्‍न हैं। मन में विचारों का तंतु जाल विकल्पों का, कल्पनाओं का फैलाव स्‍वप्‍न है। अविवेक अर्थात स्व—बोध का अभाव सुषुप्‍ति है।
ये तीन अवस्थाएं हैं। जिनमें हम गुजरते हैं। लेकिन जब हम एक से गुजरते है तो हम उसी के साथ एक हो जाते हैं। जब हम दूसरे में पहुचते है, तो हम दूसरे के साथ एक हो जाते है। जब हम तीसरे में पहुचते है, तो तीसरे के साथ एक हो जाते हैं। इसलिए हम तीनों को अलग—अलग नहीं देख पाते हैं। अलग देखने के लिए थोड़ा फासला चाहिए, परिप्रेक्ष्य चाहिए। अलग देखने के लिए थोडी—सी जगह चाहिए। तुम्हारे, और जिसे तुम देखते हो, दोनो के बीच मे थोड़ा रिक्त स्थान चाहिए। तुम आइने में भी अगर बिलकुल सिर लगा कर खडे हो जाओ, तो अपना प्रतिबिंब न देख पा ओगे थोड़ी दूरी चाहिए। और तुम इतने निकट खड़े हो जाते हो—जाग्रत के, स्‍वप्‍न के, सुषुप्‍ति के कि तुम बिलकुल एक ही हो जाते हो। तुम उसी के रंग मे रंग जाते हो। और, यह दूसरे के रंग में रंग जाने की हमारी आदत इतनी गहन हो गयी है कि हमें पता भी नहीं चलता और इसका शोषण किया जाता है। अगर तुम हिंदू हो, और तुमसे कहा जाए कि यह मस्जिद खड़ी है, इसमें आग लगा दो, तो तुम हजार बार सोचोगे, विचार करोगे कि यह क्या उचित है। और मस्जिद भी उसी परमात्मा के लिए समर्पित है। ढंग होगा और, सीढ़ी का रंग होगा और, रास्ते की व्यवस्था होगी और लेकिन मंजिल वही है। लेकिन हिंदुओं की एक भीड़ मस्जिद को आग लगाने जा रही हो, तुम इस भीड़ में हो, तब तुम नहीं सोचते; क्योंकि तुम भीड़ के रंग में रंग जाते हो। तब तुम मस्जिद को जला दोगे और बाद में कोई अगर तुमसे पूछेगा कि तुम यह कैसे कर सके, तो तुम सोचोगे और कह लै कि यह आश्‍चर्य है कि मैं कैसे कर सका। अकेले तुम यह न कर पाते। लेकिन भीड में तुम क्यों खो गये? क्योंकि खोने की तुम्हारी आदत है।
कोई मुसलमान इतना बुरा नहीं है अकेले में, जितना भीड़ के साथ बुरा होता है। कोई हिंदू इतना बुरा नहीं है अकेले में, जितना भीड़ के साथ बुरा होता है। किसी अकेले आदमी ने इतने पाप नहीं किये, जितने भीड़ ने पाप किये। क्यों? क्योंकि भीड़ तुम्हें रंग देती है। तुम भीड़ के रंग में एक हो जाते हो। अगर भीड़ क्रोध से भरी है, तुम अचानक पाते हो कि तुम्हारे भीतर भी क्रोध जग रहा है। अगर भीड़ रो रही है, चीख रही है, चिल्ला रही है, तो तुम रोने, चीखने—चिल्लाने लगते हो। अगर भीड़ प्रसन्न है, तुम अपने दुख भूल जाते हो और प्रसन्न हो जाते हो।
खयाल करो, तुम किसी के घर गये हो, कोई मर गया है, वहां अनेक लोग रो रहे हैं, अचानक तुम पाते हो, तुम्हारे भीतर भी रुदन उठा आ रहा है। शायद तुम सोचते होओगे कि तुम बडे करुणावान हो। शायद तुम सोचते हो कि तुम बड़ी दया और प्रेम से भरे हुए व्यक्ति हो। शायद तुम सोचते हो कि सहानुभूति के कारण ये आंसू आ रहे हैं, तो तुम गलती में हो; क्योंकि घर भी तुमने यह खबर सुनी थी कि वह आदमी मर गया है। तब तुम्हें कुछ . भी नहीं हुआ था, क्योंकि तुम अकेले थे। तब तुमने सोचा होगा कि ठीक है, मरना—जीना लगा ही रहता है। बजाए इसके कि यह आदमी मर गया है, इससे तुम्हें दुख होता, तुम्हें यही झंझट आयी होगी कि अब जाना पड़ेगा और संवेदना प्रकट करनी पड़ेगी। और, पच्चीस दूसरे काम थे, और यह एक और उपद्रव बीच में आ गया। और यह आदमी था ही ऐसा, बेवक्त मरा। कोई वक्त था आज मरने का!
ये तुम्हारे विचार रहे होंगे। लेकिन जब तुम घर में पहुंचोगे और वहां तुम लोगों को रोते देखोगे, भीड़ जब वहां दुखी हो रही होगी तो तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे भीतर भी बड़े भाव उठ रहे हैं। ये भाव दो कौड़ी के हैं और खतरनाक है; क्योंकि, भीड़ तुम्हें रंगे दे रही है। तुम अपने को बचाना। ऐसी सहानुभूति किसी मतलब की नहीं है, जो भीड़ से आती हो, जो तुम्हारे हृदय से न आती हो।
तुमने देखा है कि दुखी, परेशान, बेचैन लोग भी होली के हुल्लड़ में बड़े आनंदित दिखाई पड़ते है! वे भी नाचने—गाने लगते हैं, गुलाल उड़ाने लगते हैं। जिनकी जिंदगी में गुलाल बिलकुल भी नहीं है और जिनकी जिंदगी में कभी कोई खुशी, कोई गीत नहीं देखा गया है, अचानक रास्तों पर रंग फेंक रहे हैं। हुआ क्या इनको? यही आदमी कल चला जा रहा था मरा—मरा, उसका पैर नहीं उठ रहा था; उसकी जिंदगी ऐसी थी जैसे सुषुप्ति और यही आदमी आज नाच रहा है! भीड़ ने रंग दिया इसे।
साधक को भीड़ से सावधान होना चाहिए। तुम अपनी आवाज खोजो, अपना स्वर खोजो। भीड़ तुम्हें सदा से धक्के दे रही है, और तुम भीड़ के साथ...। भीड़ तुम्हें जो बनाती है, वही तुम हो जाते हो। यह क्यों हो पाता है? यह इसलिए हो पाता है कि तुम पृथकता अपनी अनुभव नहीं करते और जहां भी तुम्हें अपनी पृथकता खोने का मौका मिलता है, तुम तत्क्षण खो देते हो। तुम तैयार बैठे हो की कहीं भी डूब जाओ। नींद आयी तो नींद में डूब गये। जाग्रत आया तो जाग्रत में डूब गये। स्‍वप्‍न आया तो स्‍वप्‍न में डूब गये। लोग दुखी हैं तो तुम दुखी हो गये। लोग सुखी हैं तो तुम सुखी हो गये। तुम हो? या सिर्फ तुम एक डूबने का बिंदु हो! तुम्हारा कोई अस्तित्व है? तुम्हारा कोई केंद्र है?. .उस केंद्र का नाम ही आत्मा है।
अपने अस्तित्व को जगाओ। डूबने से बचो। इसलिए सारे धर्म शराब के विरोध में हैं। शराब में ऐसी कोई खराबी नहीं है। लेकिन सभी धर्म विरोध में हैं। कारण कुल इतना ही है कि वह डूबने का रास्ता है। सभी धर्म जगाने के पक्ष में हैं। और जो आदमी शराब पी रहा है, वह डूब रहा है। जो—जो चीजें डुबाती हैं तुम्हें, जिन—जिन चीजों से तुम और भी ज्यादा मूर्च्छित होते हो, धर्म उनके विरोध में हैं। तुम वैसे ही काफी मूर्च्छित हो, रत्तीभर, तुममें जरा—सा होश है, तुम उसी को भी खोने के लिए तैयार रहते हो।
और, आश्‍चर्य की बात तो यह है कि जब भी तुम उसे खो देते हो, तभी तुम प्रसन्न होते हो। तुम जैसा छू खोजना असंभव है; क्योंकि जब भी तुम उसे खो देते हो, तभी तुम कहते हो कि बड़ा आनंद है। क्यों? क्योंकि वह जो थोड़ा—सा होश है, वह तुम्हें जिंदगी की समस्याओं को देखने में सहायता देता है। वह तुम्हें जिंदगी के प्रति चैतन्य बनाता है और चिंता से भरता है। वह तुम्हें होश से भरता है कि तुम होश में नहीं हो। वह जो छोटी—सी तुम्हारे भीतर किरण है, वह तुम्हारे अंधकार को प्रकट करती है, जो कि गहन है। तुम उस किरण को भी बुझा देना चाहते हो कि न रहेगी किरण— न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी— न रहेगी किरण, न अंधेरे का पता चलेगा। क्योंकि उस किरण की वजह से अंधेरा पता चलता है, हटाओ इस किरण को, पी लो शराब, डूब जाओ किसी भीड़ के उपद्रव में, राजनीति में, इसमें,उसमें— कहीं भी अपने को लगा दो, ताकि तुम अपने को भूल जाओ।
पश्र्चिम में मनोवैज्ञानिक लोगों को कहते हैं कि तुम अगर अपने को भुला सको, तो ही तुम स्वस्थ रह सकोगे और पूरब के धर्मगुरुओं ने कहा है कि तुम अपने को अगर जगा सको तो ही तुम स्वस्थ हो सकोगे। बड़ी उलटी बातें हैं। लेकिन दोनों बातें सार्थक हैं। पश्चिम का मनोवैज्ञानिक, तुम जैसे हो, उसको स्वीकार करता है। तुम जैसे हो, ऐसे ही तुम रह सको, जी सको, किसी तरह गुजार सको जिंदगी, उसमें वह सहायता पहुंचाता है। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है कि किसी तरह अपने को भुला दो। ज्यादा चैतन्य खतरनाक है; क्योंकि तुम चिंता से मर जाओगे; क्योंकि तब सब चीजें तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। और, कुछ भी ठीक नहीं है इस जिंदगी में; सब गड़बड़ है, सब अस्तव्यस्त है। तो बेहतर है कि तुम आख बंद कर लो, प्रसन्न रही। क्या जरूरत है इस सारी समस्या को देखने की।
लेकिन पूरब के धर्मगुरु तुम्हें स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं: तुम तो रुग्ण हो। तुम तो विक्षिप्त हो ही, तुम्हें पहले शांति की जरूरत नहीं है। कोई चिंता नहीं, अगर चिंता बढ़े और तुम्हारे भीतर बेचैनी आए। कोई हर्जा नहीं है; क्योंकि उसी के द्वारा तुम बदलोगे, क्रांति होगी।
यह तो ऐसा है जैसे एक आदमी कैंसर से पड़ा है, और हम कुछ भी नहीं कर सकते, तब हम उसे मार्फिया देते हैं कि तुम अपने आराम से पड़े रहो। लेकिन पूरब के धर्मगुरु कहते हैं. मार्फिया से जीवन—क्रांति नहीं होती। जगाओ— रूपांतरण हो सकता है। और आदमी जैसा है, यह उसकी अंतिम अवस्था नहीं है। यह उसकी प्रथम अवस्था तक नहीं है। यह तो यात्रा के बिलकुल बाहर ही खड़ा है— द्वार के बाहर। अभी इसने भीतर प्रवेश भी नहीं किया। महानंद की संभावना है; लेकिन तुम जैसे हो— सोये इससे महानंद नहीं होगा।
सुख और आनंद का फर्क समझ लो। सुख उस अवस्था का नाम है, जब तुम्हारे भीतर जो छोटी—सी किरण जाग गयी है, वह भी सो जाती है। तब तुम्हें कोई दुख पता नहीं चलता। आनंद उस अवस्था का नाम है, जब तुम्हारे 'भीतर जो छोटी—सी किरण है, वह महासूर्य हो जाती है और अंधकार पूरा खो जाता है। सुख नकारात्मक, निगेटिव हे — दुख का पता न चलना। तुम्हारे सिर में दर्द है; ऐस्‍प्रो की टिकिया सुख है, आनंद नहीं। क्योंकि ऐस्प्रो की टिकया तुम्हें सिर्फ दर्द का तुम्हें पता नहीं चलने देती। वह तुम्हें बेहोशी दे देती है।
तुम बीमार हो, तुम परेशान हो, जिंदगी चिंता से भरी है— तुम शराब पी लेते हो, फिर सब ठीक है। दुखी, शराबी जाता है शराबघर की तरफ, लौटता है नाचता—गाता। इस प्रकार, तुम्हारी जो छोटी—सी प्रकाश की किरण हैं, उसे खोकर तुम सुख खरीदते हो। उससे तुम्हें आनंद कभी भी न मिलेगा। क्योंकि सुख सिर्फ दुख का भूल जाना में है, स्मरण है। और, आनंद आत्मा का स्मरण है। वह भूल जाना नहीं है; वह पूरी स्मृति है। कबीर ने उसे सुरति कहा है। वह पूर्ण स्मरण है।
ये सूत्र तुम्हें पूर्ण स्मरण की तरफ ले जाएंगे। तो ध्यान रखना, जो चीज बेहोश करती हो, उससे बचना। और, बेहोश करने के इतने सुगम उपाय हैं कि तुम्हें पता भी नहीं है; तुम उनमें इतने ज्यादा मस्त हो गये हो कि तुम्हें खयाल भी नहीं।
एक आदमी खाने के पीछे पागल है। वह खाता ही रहता है। तुम्हें खयाल नहीं है कि वह खाने से शराब का उपयोग कर रहा है। ज्यादा भोजन निद्रा लाता है। ज्यादा भोजन सुषुप्‍ति देता है। इसलिए अगर किसी दिन तुमने उपवास किया तो रात तुम सो न सकोगे। क्योंकि भोजन की एक अपनी तंद्रा है। तो जो आदमी चौबीस घंटे खाने में लगा है, वह खाने के माध्यम से बेहोशी खोज रहा है।
एक आदमी महत्वाकांक्षा की यात्रा में लगा है। वह कहता है कि जब तक करोड़ रुपये न हों तब तक मैं रुकनेवाला नहीं। तब तक वह दीवाने की तरह लगा है— सुबह हो, रात हो, दिन हो, अंधेरा हो, उजाला हो, कुछ फिक्र नहीं, उसके मन में एक गणित चल रहा है— एक करोड़! वह उस एक गणित के प्रति समर्पित है। उसे कोई चिंता नहीं घेरती। उसको कोई चिंता नहीं। बस, उसको— एक करोड़! उसको चिंता उस दिन घेरेगी, जब वह एक करोड़ पाने में सफल हो जाएगा। तब अचानक वह पाएगा कि बेकार गए; अब क्या करना!
मैंने सुना है, एक पागलखाने में तीन आदमी बंद थे— एक ही कोठरी में; क्योंकि, एक ही साथ पागल हुए थे, तीनों पुराने साथी थे। एक—दूसरे को रंग दिया होगा। एक मनोवैज्ञानिक उनका अध्ययन करने आया था। तो उसने पागलखाने के डाक्टर से पूछा कि इनमें नंबर एक की क्या तकलीफ है। डाक्टर ने कहा, 'यह नंबर एक, एक रस्सी में लगी हुई गांठ को खोलने का उपाय कर रहा था और खोल नहीं पाया— उसी में पागल हुआ।
' और यह दूसरा क्या कर रहा था?
'यह भी वही गांठ खोल रहा था रस्सी में लगी हुई और खोलने में सफल हो गया, इसलिए पागल हुआ।वह मनोवैज्ञानिक थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, 'ये तीसरे सज्जन?'
डाक्टर ने कहा कि ये वे सज्जन हैं, जिन्होंने यह गांठ लगायी थी।
कोई गांठ लगा रहा है, कोई खोल रहा है; कोई सफल हो जाता है, कोई असफल हो जाता है— इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; सब पागल हो जाते हैं। लेकिन लोग गांठ लगाने—खोलने में उलझे क्यों है?. अपने से बचने के लिए। स्वयं से बचने की तरकीबें हैं! नहीं तो, स्वयं का सामना करना पडेगा। न कोई महत्वाकांक्षा है, न दिल्ली जाना है, न कोई राजनीति करनी है, न कोई चुनाव लड़ना है, न धन कमाने का कोई पागलपन है— फिर आप अपने से कैसे बचोगे २: फिर कहीं न कहीं खुद से मिलना हो जायेगा। वह भय है कि कहीं खुद से मिलना न हो जाये। उससे हाथ—पैर कांपते हैं।
तुम सुनते हो बहुत कि आला को जानो; लेकिन अगर तुम खुद को समझोगे तो तुम आत्मा को जानने से बचने का सब उपाय करते हो। कहते हैं बुद्धपुरुष कि आत्मा को जानने से महानंद की वर्षा होती है, अमृत बरसता है। कबीर कहते हैं कि बादल गरजते हैं अमृत के और अमृत बरसता है। लेकिन यह घटना बहुत अंत में घटती है, पहले तो बहुत दुख से गुजरना पड़ता है। क्योंकि तुमने जितने धोखे दिये हैं जिंदगी में, अनंत जन्मों में, उन सब धोखों को तोड़ना पड़ेगा और हर धोखे को तोड्ने में दुख होता है। हर धोखे को तोड्ने में दुख होता है; क्योंकि धोखे ने एक मधुरता दी थी, एक नींद दी थी, एक बेहोशी दी थी और अब उसको तोड़ो! और बिना उनको तोड़े तुम पहुंच न पाओगे— उस जगह, जहां आकाश अमृत के बादलों से भर जाता है और जहां आनंद की वर्षा होती है। वह बीच का मार्ग ही तपश्‍चर्या है। जागने से शुरू करो। तुम्हारे तप को फिर स्‍वप्‍न में ले जाओ, फिर सुषुप्‍ति में ले जाओ।
विकल्प स्‍वप्‍न है। चित्त का विकल्पों से भरे रहना स्‍वप्‍न की दशा है। तो यह मत सोचना कि तुम रात में ही सपना देखते हो, तुम दिन में भी देखते रहते हो। जरूरी नहीं है कि तुम यहां बैठे हो, तो तुम यहां बैठे हो तो हो सकता है कि तुम मुझे सुन भी रहे हो और सपना भी देख रहे हो। तुम्हारे भीतर चौबीस घंटे, एक अंतर्धारा सपने की चलती रहती है। जागने में भी, भीतर तो एक सपना तुम्हें घेरे ही रहता है, कुछ न कुछ चलता ही रहता है। कभी भी आख बंद करो और तुम पाओगे कि भीतर कुछ चल रहा है।
यह हालत ऐसी ही है जैसे कि रात में तो आकाश में तारे दिखायी पड़ते है, दिन में दिखायी नहीं पड़ते; क्योंकि सूरज के प्रकाश में ढक जाते है। इससे तुम यह मत समझना कि खो जाते हैं; वे अपनी जगह हैं। खोयेंगे कहां! जायेंगे कहां! तुम किसी गहरे कुएं में चले जाना और गहरे कुएं में से खड़े होकर दिन में देखना तो तुम्हें तारे, आकाश में दिन में भी दिखायी पड़ जाएंगे। क्योंकि तारों को देखने के लिए अंधेरा चाहिए। सूरज की रोशनी की वजह से तारे दिखायी नहीं पड़ते।
यही हालत स्‍वप्‍न की है। रात में ही सपने दिखायी पड़ते है?r ऐसा नहीं है। लेकिन रात का अंधकार चाहिए आंखें बंद हों तो दिखायी पड़ते है। दिन में आंखें खुली है, पच्चीस और काम करने जरूरी है। सपने तो भीतर बने रहते है, दिखायी नहीं पड़ते। दिन में भी तुम अगर आख बंद करके आराम—कुर्सी पर बैठ जाओ, तत्क्षण दिवा—स्‍वप्‍न शुरू हो जायेगा। वह चल ही रहा था। वह भीतर चलता ही रहता है। उसका एक अंतर्द्व है।
इस अंतर्सूत्र को तोड़ना बहुत जरूरी है; क्योंकि दिन में तुम तोड़ सको तो ही रात में तुम तोड़ पाओगे। दिन में ही न तोड़ सकी तो रात में कैसे तोडोगे!
सभी मंत्रों का उपयोग इस अंतर्सूत्र को तोड्ने के लिए किया जाता है। जैसे कि कोई एक आदमी को मंत्र दे दिया उसके गुरु ने कि तू एक काम कर, बाजार जा, सामान बेच, खरीद; लेकिन भीतर राम—राम की अंतर्ध्वनि चलने दे। यह क्या है? अगर तुम काम करते वक्त भीतर राम की अंतर्ध्वनि चलने दो तो वह जो शक्ति स्‍वप्‍न बनती थी, वह राम की धारा बन जायेगी। क्योंकि, वही शक्ति है जो भीतर सपना बनती है। तो भीतर तुमने एक अपना ही एक सपना पैदा कर लिया— राम, राम, राम, राम। बाहर तुम सब काम करते हो और भीतर तुम राम का अनुस्मरण करते हो, तो वह जो शक्ति तुम्हारे भीतर खाली पड़ी सपना देखती थी, वह राम का स्मरण बन जायेगी। इससे कुछ राम नहीं मिल जायेंगे; लेकिन सपने को तोड्ने में सहायता मिलेगी। और जिस दिन तुम रात नींद में भी पाओगे कि सपना नहीं चलता, बल्कि राम की धारा चल रही है, उस दिन समझ लेना कि दिन में सपना टूट गया।
तो, मंत्र की सफलता नींद में पता चलती है, दिन में पता नहीं चलती। कैसे पता चलेगी! अगर तुम दिनभर राम का जप करते रहे हो तो रात सोते समय सपना पैदा नहीं होगा, राम की धारा चलेगी। यह धारा इतनी सघन हो सकती है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।
स्वामी राम 'राम—राम' जपते रहे थे। एक रात हिमालय में ठहरे वे, अपने एक मित्र के पास— सरदार पूर्णसिंह के पास। अकेली कोठरी में थे। दूर पहाड़ में बनी कोठरी थी। वहां कोई पास था भी नहीं मीलों तक। सरदार पूर्णसिंह को कुछ नींद नहीं आयी— कुछ मच्छर थे, कुछ गर्मी थी। तो वे बड़े हैरान हुए— 'राम—राम' की आवाज चल रही है कोठरी में। स्वामी राम तो सो गये हैं। तो वे उठे, थोड़ा भय भी लगा कि यहां कोई तीसरा आदमी तो है नहीं और यह 'राम' की आवाज! तो दीया लेकर सब तरफ देख आये। बाहर कोई भी नहीं है। कमरे में फिर आये तो और हैरानी हुई कि बाहर आवाज कम सुनायी पड़ती, कमरे में ज्यादा सुनायी पड़ती थी। वे जैसे राम की खाट के पास पहुंचे तो आवाज और ज्यादा सुनायी पड़ने लगी। उन्होंने दीये से राम को देखा कि कहीं वे जागकर राम का स्मरण तो नहीं कर रहे हैं। वे तो गहरी नींद में सो रहे हैं, खर्राटा आ रहा है। वे बहुत हैरान हुए। करीब आकर बैठ गये। कान लगाकर सुनने लगे— पूरे शरीर के रोएं—रोएं से राम—राम की आवाज आ रही है।
अगर अनुस्मरण बहुत गहरा हो जाए तो यह घटना घटती है; क्योंकि स्‍वप्‍न में बड़ी ऊर्जा नष्ट हो रही है। तुम्हारे सपने तुम्हें मुक्त नहीं मिले है। उनमें है कुछ भी नहीं, लेकिन कीमत बहुत चुकानी पड़ती है; क्योंकि रातभर तुम सपना देखते हो।
अभी स्‍वप्‍न पर बड़ी वैज्ञानिक शोध होती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि रात में हर आदमी— साधारण स्वस्थ आदमी कम से कम आठ सपने देखता है और एक स्‍वप्‍न का अंतराल करीब—करीब पंद्रह मिनिट का होता है। एक स्‍वप्‍न पंद्रह मिनट का, तो आठ सपने का मतलब हुआ कि कम से कम दो घंटे रात सपना देखा जा रहा है। और यह बिलकुल सामान्य स्वस्थ आदमी, जिसमें कोई मानसिक विकार नहीं है! ऐसा स्वस्थ आदमी भी खोजना मुश्किल है— आम आदमी तो रात के आठ घंटे की नींद में करीब—करीब छह घंटे सपना देखता है। यह छह घंटे जो सतत स्‍वप्‍न की धारा चल रही है, इसमें तुम्हारी शक्ति —नष्ट हो रही है। यह मुफ्त नहीं है। यह तुम खरीद रहे हो, अपने जीवन को देकर।
मंत्र इस शक्ति को राम में केंद्रित कर लेता है या कृष्ण में या क्राइस्ट में या ओंकार में— कोई भी शब्द काम दे देगा। कोई जरूरत नहीं है भगवान का नाम, खुद का नाम भी अगर तुमने दोहराया तो काम दे देगा।
एक अंग्रेज कवि हुआ— टैनिसन। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे बचपन से ही न मालूम कैसे यह हो गया कि जब मुझे नींद न आती थी तो मैं अपने को जोर—जोर से कहता था; टैनिसन, टैनिसन, टैनिसन, और मुझे नींद आ जाती थी। फिर मुझे तरकीब हाथ पड़ गयी कि जब भी मैं बेचैन होता तो मैं भीतर कहता, टैनिसन, टैनिसन, टैनिसन— मेरी बेचैनी खो जाती थी। फिर मैंने इसका मंत्र बना लिया।
अपना ही नाम भी अगर तुम लोगे तो उतना ही लाभ हो सकता है। हालांकि होगा नहीं; क्योंकि तुम्हें अपने नाम पर उतना भरोसा नहीं हो सकता। बाकी फर्क कुछ भी नहीं है। राम कहो, रहीम कहो—उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी नाम, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल नाम का नहीं है। शब्द सभी एक जैसे है। और, सभी नाम परमात्मा के है; तुम्हारा नाम भी। कोई भी एक शब्द को पकडकर अगर दोहराया जाए तो उसका एक संगीत भीतर पैदा हो जाता है, एक ध्वनि पैदा हो जाती है। उस ध्वनि में स्‍वप्‍न की जो ऊर्जा है, वह लीन हो जाती है। मंत्र सपनों को नष्ट करने के उपाय हैं। उनसे कोई परमात्मा को नहीं पाता। लेकिन रूप्र को नष्ट करना परमात्मा को पाने के मार्ग पर एक बडा कदम है।
मंत्र एक प्रक्रिया है, एक विधि है, एक औजार है, एक हथौड़ी है, जिससे हम सपनों को चकनाचूर कर देते हैं। और सपने भी क्या हैं, शब्द हैं! इसलिए शब्दों की हथौड़ी उन्हें चकनाचूर कर सकती है। उनके लिए कोई लोहे की असली हथौड़ी भीतर ले जाने की जरूरत भी नहीं है। नकली हैं, नकली हथौड़ी काम कर देगी। नकली बीमारी के लिए असली दवा हमेशा खतरनाक है। नकली बीमारी के लिए नकली दवा ही उचित होगी; क्योंकि वही उसकी नष्ट कर सकती है।
स्‍वप्‍न क्या हैं, विकल्प है! और मंत्र क्या है, मंत्र संकल्प है। वह भी विकल्प का ही एक रूप है। लेकिन स्‍वप्‍न बदलते हुए हैं, क्षणभंगुर है; मंत्र सतत है और एक ही है। धीरे—धीरे सभी स्वप्रों की ऊर्जा मंत्र में लीन हो जाती है। और जिस दिन रात्रि में, नींद में भी स्‍वप्‍न न आएं और मंत्र चलने लगे, तुम समझना कि तुमने स्‍वप्‍न पर विजय पा ली। तुम समझना कि तुम्हारा सपना टूटा, सत्य शुरू हुआ। उसके बाद सुषुप्ति में प्रवेश हो सकता है।
लेकिन, तुम उलटा ही कर रहे हो। तुम विकल्पों को शक्ति देते हो। तुम्हारे भीतर व्यर्थ के विचार चलते हैं, उनको भी तुम साथ देते हो। बैठे हो खाली तो यही सोचने लगते हो कि अगले इलैव्यान में खड़े हो जायें। फिर सपना शुरू हुआ। फिर राष्ट्रपति हुए बिना काम नहीं चलेगा। फिर तुम सपने में राष्ट्रपति हो जाते हो। स्वागत—समारोह हो रहे हैं, और तुम सबका स्वाद ले रहे हो। तुम कभी भी नहीं सोचते कि यह कैसी मूढ़ता है! क्या तुम कर रहे हो! तुम एक व्यर्थ के विकल्प को ऊर्जा दे रहे हो, साथ दे रहे हो। और, ऐसे ही व्यर्थ के विकल्पों से भरा हुआ तुम्हारा चित्त है।
अगर हम आदमी के जीवन की पूरी खोजबीन करें, तो निन्यानवे प्रतिशत इसी तरह के सपनों में खो जाता है। धन के सपने, साम्राज्य के सपने, शक्ति के सपने—तुम पा भी लोगे तो क्या मिलेगा!
अमरीका का एक बहुत प्रसिद्ध प्रैजीडेंट हुआ—कालविन कूलिज; बड़ा शांत आदमी था। भूल से ही वह राष्ट्रपति हो गया; क्योंकि उतने शांत आदमी उतनी अशांत जगहों तक पहुंच नहीं सकते। वहां पहुंचने के लिए बिलकुल पागल दौड़ चाहिए। वहां जो जितना ज्यादा पागल है, वह छोटे पागलों को दबाकर आगे निकल जाता है। कूलिज कैसे पहुंच गया, यह चमत्कार है। बिलकुल शांत आदमी था—न बोलता, न चालता। कहते है कि किसी—किसी दिन ऐसा हो जाता दस—पांच शब्दों से ज्यादा ने बोलता। जब दुबारा फिर राष्ट्रपति के चुनाव का समय .'गया तो मित्रों ने कहा कि तुम फिर खड़े हो जाओ। उसने कहा कि नहीं। तो उन्होंने कहा कि क्या बात है। पूरा। मूल्‍क राजी है; तुम्हें फिर से राष्ट्रपति बनाने को उत्सुक है। उसने कहा कि अब नहीं, एक बार भूल हो गई काफी; पहुंचकर कुछ भी न पाया। अब पांच साल और खराब मैं न करूंगा। और, फिर राष्ट्रपति के आगे बढ़ती का कोई उपाय भी नहीं है। जो रह चुके, रह चुके; अब उसके आगे जाने की कोई जगह भी नहीं है। जगह होती आगे तो शायद सपना बना रहता।
इसलिए, तुम्हें पता नहीं है, जो लोग सफल हो जाते है सपनों में, उनसे ज्यादा असफल आदमी खोजना मुश्‍किल है। क्योंकि सफलता की आखिरी कगार पर उन्हें पता चलता है कि जिसके लिए दौड़े, भागे, पा लिया, वहां कुछ भी नहीं है। यद्यपि अपनी मूढ़ता छिपाने को वे, पीछे जो लोग अभी भी दौड़ रहे हैं, उनकी तरफ देखकर मुस्‍कुराते रहते हैं, हाथ हिलाते रहते है, विजय का प्रतीक बताते रहते है। वे हार गये हैं, और विजय का प्रतीक बताते हैं—उनको, जो पीछे नासमझ अभी और दौड़ रहे है। अगर दुनिया के सभी सफल लोग ईमानदारी से कह दें कि उनकी सफलता से उन्हें कुछ भी न मिला तो बहुत—से व्यर्थ सपनों की दौड़ बंद हो जाए। लेकिन यह उनके अहंकार के विपरीत है कि वे कहें, उनको कुछ भी न मिला। पीछे तो वे यही बताते रहते हैं कि उन्होंने परम आनंद पा लिया। जिसकी पूंछ कट गयी हो, वह दूसरों की पूंछ कटवाने का इंतजाम करता रहता है। अन्यथा पूछकटा अकेला होगा तो बड़ी ग्लानि होगी। सबकी कट जाए तो....।
जब भी तुम्हारे भीतर सपनों की धारा चले, तब जरा जागकर देखना, देखना कि क्या तुम कर रहे हो। बच्चे शेखचिल्लियो की कहानियां पढ़ते हैं, वे सब कहानियां तुम्हारे संबंध में है। मन शेखचिल्ली है। और जब तक तुम स्‍वप्‍न देखते हो तब तक तुम शेखचिल्ली ही रहोगे। शेखचिल्ली का मतलब है व्यर्थ के सपने देख रहा है और उन सपनों को सच मान रहा है। भगवान न करे कि वे सपने सच हो जहां—; क्योंकि उनको सच करने में बड़ी शक्ति लगानी पड़ेगी, और जब वे सच हो जाएंगे, तब तुम पाओगे, उनसे कुछ भी न पाया। हाथ राख लगती है सदा। इस संसार की सभी सफलताएं राख में बदल जाती हैं। लेकिन, जब तक राख हाथ में आती हैं, तब तक जीवन हाथ से निकल चुका होता है; लौटने का उपाय नहीं होता। और तब तो सिर्फ छिपाने की बात रह जाती है कि लोगों से छिपा लो कि तुम्हारा जीवन व्यर्थ नहीं गया; तुम बड़े सार्थक हो गये हो, तुमने कुछ पा लिया है!
विकल्प ही स्‍वप्‍न है। इन विकल्पों को शक्ति मत देना और जब भीतर स्‍वप्‍न चले, तब हिलाकर अपने को जगा लेना और रूप को तोड़ देना, जितनी जल्दी हो सके। मंत्र उपयोगी हो सकता है स्‍वप्‍न को तोड्ने में। मंत्र के संबंध में हम आगे विचार करेंगे, कैसे मंत्र कारगर हो सकता है। मंत्र निशित ही स्‍वप्‍न को तोड़ देता है।
और, अविवेक अर्थात स्व—बोध का अभाव सुषुप्‍ति है—जहां सभी कुछ खो जाता है, कोई विवेक नहीं रह जाता, कोई होश नहीं रह जाता—न बाहर का कोई होश, न भीतर का कोई होश; जहां तुम सिर्फ एक चट्टान की भांति हो जाते हो, गहन तंद्रा में। लेकिन, तुम देखो कि तुम्हारा जीवन कैसा उपद्रव होगा! क्योंकि जब भी तुम गहरी तंद्रा में हो जाते हो, तभी सुबह उठकर तुम कहते हो कि रात बड़ी आनंददायी नींद आयी। थोड़ी देर सोचो कि तुम्हारा जीवन कैसा नरक होगा कि तुम्हें सिर्फ नींद में सुख आता है। बेहोशी में भर सुख आता है, बाकी तुम्हारा जीवन एकदम दुख ही दुख है। अच्छी नींद आ जाती है तो तुम कहते हो, काफी हो गया। और नींद का अर्थ है—बेहोशी। लेकिन, ठीक ही है, तुम्हारे लिए काफी हो गया; क्योंकि तुम्हारी पूरी जिंदगी सिर्फ चिंता, तनाव और बेचैनी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है! उसमें तुम आराम कर लेते हो थोडी देर के लिए तो तुम समझते हो कि तुमने सब पा लिया, जबकि वहां कुछ भी नहीं है।
नींद का अर्थ है: जहां कुछ भी नहीं है; न बाहर का जगत है, न भीतर का जगत है; जहां सब अंधकार में खो गया। हां, लेकिन, विश्राम मिल जाता है। विश्राम लेकर भी तुम क्या करोगे! सुबह तुम फिर उसी दौड़ में लगोगे। विश्राम से जो शक्ति तुम्हें मिलती है, तुम उसे नये तनाव बनाने में लगाओगे, नयी चिंताएं ढालोगे। रोज तुम विश्राम करोगे और रोज तुम नई चिंताएं डालोगे। काश! तुम इतनी—सी ही बात समझ लो कि नींद में जब इतना आनंद मिलता है, बेहोश तंद्रा में जब इतना आनंद मिलता है—क्यों? क्योंकि, वहां कोई तनाव नहीं है, वहां कोई चिंता नहीं है; वहां तुम भूल गये सब उपद्रव—अगर बेहोशी में भी उपद्रव भूलकर इतना आनंद मिलता है, तो तुम सोचो, जिस दिन उपद्रव खो जाएंगे और तुम होश में रहोगे, उस दिन कैसा आनंद तुम्हें उपलब्ध हो सकेगा। उसे हमने मोक्ष कहा है; वह निर्वाण है, वह ब्रह्मानंद है।
नींद मैं इतना मिल जाता है, क्योंकि उपद्रव नहीं दिखायी पड़ते तो उपद्रव जब सच में ही खो जाते हैं; तनाव जब सच में ही विसर्जित हो जाते हैं और तुम चौबीस घंटे उतने विश्राम में रहने लगते हो, जैसे गहरी निद्रा में कभी— कभी कोई व्यक्ति पहुंचता है—जब वैसी चौबीस घंटा सतत तुम्हारी शांत स्थिति बनी रहती है, तब तुम्हें कैसे —आनंद के राज्य का अनुभव नहीं होगा! उसे थोड़ा सोचो। क्योंकि समाधि सुषुप्‍ति जैसी है। सिर्फ एक फर्क है उसमें कि वहां होश है। तुर्यावस्था सुषुप्‍ति जैसी है; सिर्फ एक फर्क है कि वहां प्रकाश है और सुषुप्ति में अंधकार है।
समझो कि तुम्हें एक स्ट्रेचर पर बेहोश अवस्था में, इस बगीचे में लाया जाए। सूरज की किरणें तुम्हें छुएंगी; क्‍योंकि सूरज की किरणें बेहोश नहीं, बेहोश तुम हो। हवाओं के झोंके तुम्हारे ऊपर से गुजरेंगे, हलकी थपकियां देंगे; क्योंकि वे बेहोश नहीं हैं, बेहोश तुम हो। फूल की पंखुडियों से गंध तुम्हारे नासापुटों तक आयेगी; क्योंकि फूल बेहोश नहीं है, बेहोश तुम हो। सुबह की पड़ी हुई ओस की ताजगी तुम्हें छुएगी क्योंकि ओस बेहोश नहीं है। बेहोश तुम हो। सब घटित होगा।
लेकिन तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। दो घंटे बाद जब तुम होश में आओगे, तो तुम कहोगे कि बड़ा विश्राम था। इस विश्राम में उस ओस का भी दान होगा—फूल की गंध का भी, सूरज की किरण का भी, हवा के झोंकों का भी; लेकिन उनका तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम बेहोश थे, तब भी तुम होश में लौटकर आकर कहते हो कि बड़ा सुख आया।
थोड़ी देर कल्पना करो कि तुम होश से बैठे हो, फूल की गंध बरस रही है, सूरज की किरणें बरस रही हैं, ओस ने सब ताजा कर दिया है, सब नया कर दिया है; हवाओं के झोंके वृक्षों में गीत पैदा करते हैं और तुम होश से भरे बैठे हो! तब तुम्हारे आनंद...।
सुषुप्ति में तुम वहीं पहुंचते हो, जहां बुद्ध और महावीर और शिव जाग्रत अवस्था में पहुंचते हैं। नींद में भी तुम खूबह थोड़ी—सी खबर लाते हो कि बड़ा सुख था; हालांकि, तुम साफ नहीं कह सकते कि कैसा सुख था, तुम कुछ बता नहीं सकते, कुछ व्याख्या नहीं कर सकते, कुछ स्वाद की खबर नहीं दे सकते। नींद में गहरी, लेकिन फिर भी। तुम सुबह थोड़ी—सी ताजगी लेकर आते हो। सुबह उठते हुए आदमी की—जो रात गहरी नींद सोया हो—उसके चेहरे पर बुद्धत्व की थोड़ी—सी झलक होती है। खासकर छोटे बच्चे, जो कि सच में गहरी नींद सोते हैं—क्योंकि जैसे —जैसे तुम्हारी चिंताएं बढ़ने लगती हैं, गहरी नींद भी मुश्किल हो जाती है—छोटे बच्चों को सुबह उठते समय देखो, इसके पहले कि उनकी नींद टूटे, उनके चेहरे को देखो, उस पर बुद्धत्व की ताजगी होती है। कहीं भीतर कोई आनंदपूर्ण घटना घट रही है, जिसका उसे होश नहीं है; लेकिन, घटना घट रही है।
सुषुप्ति में सब तनाव खो जाते है, लेकिन विवेक नहीं होता। और समाधि में—तुरीयावस्था में—सब तनाव खो जाते हैं और विवेक होता है। विवेक + सुषुप्ति = समाधि।
और तीनों का भोक्ता वीरेश कहलाता है। जाग्रत को, स्‍वप्‍न को, सुषुप्‍ति को—तीनों का भोक्ता, तीनों से जो पृथक है। तीनों से जो अन्य है, तीनों से जो गुजरता है, तीनों को जो भोगता है, लेकिन तादात्म्य नहीं करता; जो तीनों के पार जाता है, लेकिन अपने को अन्य मानता है; तीनों से भिन्न जो है—वही वीरेश है।
वीरेश का अर्थ है. वीरों में वीर है, महावीर है। वीरेश शिव का एक नाम है। हमने महावीर उन्हीं पुरुषों को कहा, जिन्होंने समाधि पा ली। हम महावीर उनको नहीं कहते, जो गौरीशंकर पर चढ़ गया; ठीक है, साहस किया, लेकिन गौरीशंकर कोई आखिरी ऊंचाई नहीं। हम महावीर उसको भी नहीं कहते जो चांद पर पहुंच गया; साहस किया, लेकिन चांद पर पहुंचना कोई आखिरी मंजिल नहीं है। हम तो वीरेश उसे कहते हैं, महावीर उसे कहते है, जिसने आत्मा को पा लिया; क्योंकि, परमात्मा से और ऊंचा गौरीशंकर कहां! और, परमात्मा से और आगे मंजिल कहां! जिसने आखिरी पा लिया,हम उसी को महावीर कहते हैं। उससे कम पर हम राजी नहीं हैं। क्योंकि चांद पर पहुंच कर क्या होगा। चांद पर पहुंचकर सिर्फ और आगे पहुंचने के रास्ते खुलते हैं; अब मंगल पर पहुंचना होगा। मंगल पर पहुंचकर क्या होगा! अनंत विस्तार है!
हम महावीर उसे कहते है, जो वहां पहुंच गया, जिसके आगे पहुंचने को अब कोई जगह न बची। और, क्यों कहते हैं महावीर उसे, क्योंकि उससे बड़ा कोई दुस्साहस नहीं। स्वयं को पा लेने से बड़ा कोई दुस्साहस नहीं। उससे बड़ा कोई साहसिक अभियान नहीं। क्योंकि उसके मार्ग पर जितनी कठिनाइयां हैं, उतनी कठिनाइयां किसी मार्ग पर नहीं है। उस तक पहुंचने में जितनी तपश्रर्या से तुम्हें गुजरना पड़ेगा, और कहीं पहुंचने से वैसी तपश्रर्या से नहीं गुजरना पड़ता है। स्वयं की यात्रा सबसे दुर्भर यात्रा है। वह खड्ग की धार है। शायद इसलिए, तुम स्वयं से भागे हुए हो। और संसार में अपने को यहां—वहां उलझा रहे हो। शायद इसी कारण आत्मज्ञान की बात मन को पक्कती भी है, फिर भी तुम ?? नहीं जुटाते। कहीं कोई डर पकड़ लेता है।
कठिन है! अकेले जाना होगा! सबसे बड़ी तो कठिनाई तो यह है कि दुनिया में सब जगह तुम किसी के साथ जा सकते हो, सिर्फ एक जगह है, जहां तुम्हें अकेले जाना होगा। वहां पली साथ न होगी, भाई साथ न होगा, मित्र साथ न होगा, गुरु तक भी वहां साथ नहीं हो सकता; वह सिर्फ इशारा कर सकता है कि मंजिल कहां है। बुद्ध इशारा करते हैं, जाना तुम्हें होगा।
अकेले होने में डर लगता है। और चारों तरफ इतने लोग है, इतने सपने है! सपनों में कई तो बड़े मधुर सपने हैं। उसमें बड़ा रस है। उन सबको तोड़कर, इस सब सपने के जाल को गिराकर, सत्य की यात्रा पर थोड़े—से दुर्लभ लोग निकलते है। उनमें से भी बहुत बीच यात्राओं से वापस लौट आते हैं। लाखों में एक उस यात्रा पर जाता है; क्योंकि बड़ी कठिन है। और लाखों जाते हैं, उनमें से कोई एक पहुंच पाता है। इसलिए, हमने उस अवस्था को वीरेश कहा है।
तीन के पार जो चौथा तुम्हारे भीतर छिपा है, वही गौरीशंकर है—वही पहुंचना है। और पहुंचने का रास्ता यह है कि तुम जागने में और जागो। अभी तुम कुनकुने—कुनकुने हो। जलती हुई लपट हो जाओ जागरण की, ताकि यह लपट स्‍वप्‍न में प्रवेश कर जाए। स्‍वप्‍न में भी जागो ताकि स्‍वप्‍न टूट जाएं। स्‍वप्‍न में इतने जागो कि जागने की एक किरण सुषुप्‍ति में भी पहुंच जाये। बस, जिस दिन तुम सुषुप्‍ति में दीया लेकर पहुंच गये, तुमने वीरेश होने का द्वार खोल लिया। तुमने मंदिर पर पहली दस्तक दी।
अनंत आनंद है। लेकिन, बीच का मार्ग चलना ही पड़ेगा। कीमत चुकानी ही पड़ेगी और जितना बड़ा आनंद पाना हो, उतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। सस्ता कोई सौदा नहीं हो सकता।
बहुत लोग सस्ते सौदे की कोशिश भी करते है। बहुत लोग शार्टकट खोजते है। उनको शोषण करने वाले गुरु भी मिल जाते है, जो कहते हैं कि बस, इससे सब हो जाएगा कि तुम यह ताबीज बांध लो; कि तुम मुझ पर भरोसा रखो, बस; कि तुम दान कर दो, कि तुम पुण्य कर दो, कि तुम मंदिर बना दो—ये सब सस्ती बातें हैं। इनसे कुछ हल होनेवाला नहीं है। इनसे सिर्फ तुम धोखे में पड़ते हो। यात्रा करनी ही पड़ेगी।
फिर .और भी सस्ते मार्ग खोजने वाले लोग हैं। कोई गांजा पीकर सोचता है कि समाधि लग गयी; कोई भंग खाकर सोचता है कि ज्ञान उत्‍पन्न हो गया। हजारों साधु—संन्यासी हैं—गांजा, अफीम, भंग का उपयोग कर रहे है। अभी पश्‍चिम में उनका प्रभाव बहुत बढ़ गया है; क्योंकि पश्चिम में और भी अच्छे मादक द्रव्य खोज लिये गये हैं। हशीश, मारिजुआना, एलएसडी, और भी वैज्ञानिक केमिकल खोज लिये गये हैं, जिनका तुम एक इंजेक्‍शन ले लो और तुम समाधिस्थ हो गये! एक गोली ले लो, समाधि उपलब्ध हो गयी! जैसे तत्‍क्षण काफी तैयार की जा सकती है, वैसे तत्‍क्षण समाधि भी तैयार की जा सकती है।
काश, इतना सस्ता होता! और काश! नशे में खोने से कोई ज्ञान को उपलब्ध होता तो सारी दुनिया कभी की हो गयी होती। इतना सस्ता नहीं है; लेकिन सस्ते की खोज मन करता है। मन चाहता है, किसी तरह बीच का रास्ता कट जाए और हम जहां हैं, वहां से हम सीधे मोक्ष में प्रवेश कर जाएं। बीच का रास्ता नहीं कट सकता; क्योंकि इस रास्ते से गुजरने में ही तुम्हारा मोक्ष आयेगा। क्योंकि रास्ता सिर्फ रास्ता नहीं है, रास्ता तुम्हारा विकास भी है।
यही तकलीफ है। बाहर तो हो सकता है। लंदन से हवाई जहाज उड़ता है, सीधा बम्बई उतर जाए—बीच का रास्ता काट दिया। लेकिन लंदन से जो आदमी बैठा है, वह बम्बई में वही आदमी उतरेगा जो लंदन से बैठा था, कोई दूसरा आदमी नहीं उतर सकता। उसमें कोई विकास नहीं हुआ। यह यात्रा बाहर की है। लेकिन तुम जहां हो, वहां से मोक्ष में उतरने की कोई यात्रा नहीं हो सकती। और, जो भी कह्ते है कि हो सकती है, वे धोखा देते हैं। क्योंकि यह यात्रा एक बिदु से दूसरे बिंदु की यात्रा नहीं है; एक जीवन—स्थिति से दूसरी जीवन—स्थिति में प्रवेश है। बीच के मार्ग से गुजरना ही होगा; क्योंकि उस गुजरने में ही तुम निखरोगे, जलोगे, बदलोगे। उस गुजरने की पीड़ा से ही तुम्हारा विकास होगा। वह पीड़ा अनिवार्य है। उस पीड़ा से गुजरे बिना कोई वहां नहीं पहुंच सकता। और, तुमने अगर कोई संक्षिप्त रास्ता खोजा तो तुम सिर्फ अपने को धोखा दे रहे हो।
पश्‍चिम में संक्षिप्त की बड़ी तलाश है। इसलिए महेश योगी जैसे व्यक्तियों का बड्रा प्रभाव है। उस प्रभाव का कुल कारण इतना है कि वे कहते हैं हम जो कह रहे है, यह जैट—स्पीड है। हम जो कुह रहे हैं, यह जो छोटा—सा मंत्र है, इसे रोज पंद्रह मिनट कर लेने से, तुम सीधे पहुंच जाओ गे। कुछ और करने की जरूरत नहीं। न तुम्हारे आचरण को बदलने की जरूरत है, न तुम्हारे जीवन को बदलने की जरूरत है, न तुम्हें कुछ खोना है बाहर की दुनिया में, कुछ करना नहीं है; बस, तुम्हें बैठकर पंद्रह मिनट विश्राम में इस मंत्र का जाप कर लेना है। बस, यह मंत्र सब कुछ है।
मंत्र कीमती चीज है, पर सब कुछ नहीं है। और, मंत्र से सपने काटे जा सकते हैं, सत्य नहीं मिलता। सपना। काटना सत्य के मिलने के मार्ग पर एक हिस्सा है। लेकिन, मंत्र को ही दोहराकर कोई समझता हो कि सब हो गया; कि माला फेर कर समझता हो कि सब हो गया, तो वह बचकाना है। वह अभी योग्य भी नहीं है। समझ के भी योग्‍य नहीं है—पहुंचने की तो बात बहुत दूर है।
दूभर है मार्ग। उस दूभर से गुजरना होगा। और, इसीलिए यह सूत्र कहता है—उद्यम चाहिए। इतनी महान प्रयत्‍न करने की आकांक्षा चाहिए, अभीप्सा चाहिए कि तुम अपने को पूरा दांव पर लगा दौ। मोक्ष खरीदा जा सकता है, लेकिन तुम अपने को पूरा दांव पर लगाओ तो ही; इससे कम में नहीं चलेगा। कुछ और तुमने दिया, वह देना नहीं है, वह कीमत नहीं चुकायी तुमने। अपने को पूरा दे डालोगे तो ही कीमत चुकती है और उपलब्धि होती है।

 आज इतना ही।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें