प्रश्न-सार
1--उनके
पीछे
संप्रदाय न
बने, इसके
लिए बुद्ध
पुरुष उपाय
क्यों नहीं
करते?
2--आदमी
की जरूरत, समृद्धि
और धर्म में
क्या संबंध है?
3--भगवान
मनुष्य को
वासनाएं
क्यों देता है?
4--ताओ
में प्रवेश
विकास है या
पीछे लौटना?
5--आप
कैसे कहते हैं
कि समझ काफी
है?
6--आश्रम
में सुरक्षा
की व्यवस्था
क्यों है?
पहला
प्रश्न:
आपने
कल
संप्रदायों
को पगडंडी की
संज्ञा दी और
धर्म को राजपथ
की। लेकिन
प्रायः सभी
संप्रदाय
राजपथ से
गुजरने वाले
ज्ञानियों के
पीछे निर्मित
हुए। फिर इन परम
ज्ञानियों ने
इसकी चिंता
क्यों नहीं की
कि उनके पीछे
संप्रदाय न
बनें? और
इसके निवारण
के लिए आप
क्या कर रहे
हैं?
पहली
बात कि ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति
चिंता नहीं
करते कि पीछे
क्या होगा।
पीछे की चिंता
अज्ञानी करता
है;
ज्ञानी कोई
चिंता ही नहीं
करता। चिंता
के विसर्जित
हो जाने पर ही
तो ज्ञान होता
है। ज्ञानी
सिर्फ जीता
है। जो हो, हो।
जो न हो, न
हो।
ज्ञानी
का जीवन कोई
आयोजना नहीं
है। ज्ञानी का
जीवन एक सहज
प्रवाह है।
ज्ञानी तो ऐसे
हो रहता है
जैसे पौधे हैं, वृक्ष
हैं, पहाड़
हैं। न आगा है
कुछ, न
पीछा है कुछ।
न कुछ बुरा है,
न कुछ भला
है। तो ज्ञानी
तो परम
निर्दोषता
में जीता है; इसलिए चिंता
कर भी नहीं
सकता। और
चिंता करे भी
तो भी
संप्रदाय
बनने से रुक
नहीं सकता।
बिना चिंता
किए हुए भी
ज्ञानी इस ढंग
से जीए हैं कि संप्रदाय
न बने; फिर
भी संप्रदाय
बना है।
बुद्ध
ऐसे ही जीए; नहीं
कि चिंता की।
क्योंकि
चिंता ज्ञानी
कर ही नहीं
सकता। पर इस
ढंग से जीए कि
संप्रदाय
निर्मित न हो।
कहा कि कोई
भगवान नहीं है,
और कहा कि
मुझे भी भगवान
मत कहना। कहा
कि पूजा का
कोई उपाय नहीं
है, मेरी
भी पूजा मत
करना। कहा कि
प्रतिमा से
कोई लाभ न
होगा, और
तुम मेरी प्रतिमा
मत बनाना।
लेकिन इससे
कोई फर्क न
पड़ा। इससे
लोगों का
प्रेम और भी
उपजा। इसका
उलटा ही
परिणाम हुआ।
जितनी
प्रतिमा
बुद्ध की बनीं
उतनी कभी किसी
की न बनी थीं।
और बुद्ध को
जितने लोगों
ने भगवान कहा
इतना किसी को
भी कभी लोगों
ने न कहा था।
और बुद्ध की
शरण जितने लोग
गए, किसी
की शरण नहीं
गए।
संप्रदाय
बनेगा ही।
बनने का कारण
ज्ञानी के जीवन
और ढंग में
नहीं है; बनने
का कारण तो
पीछे आने वाले
अन्य
अज्ञानियों
के भीतर है।
उसे रोकने का
कोई उपाय नहीं
है। एक ही
उपाय है कि
कोई अज्ञानी न
हो। वह तो कैसे
किया जा सकता
है? वह तो अज्ञानी
की मर्जी पर
निर्भर है कि
कब वह ज्ञानी
होगा।
अज्ञानी तो
पीछे आएगा ही।
और अज्ञानी पूजा
भी करेगा। और
अज्ञानी
मूर्ति भी
बनाएगा।
इसलिए
दूसरे ज्ञानी
हैं जो इसको
चुपचाप स्वीकार
करके जीए। तो
कृष्ण ने नहीं
कहा कि मेरी मूर्ति
बनाना या मत
बनाना। कृष्ण
ने नहीं कहा
कि मेरी पूजा
करना कि नहीं
करना। जो करोगे
वह तुम करोगे
ही। कोई कहे
कि करो तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता; कोई कहे
कि न करो तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता। क्योंकि
तुम्हारे
अज्ञान में जो
हो सकता है
वही होगा।
ज्ञानी के
कहने से तुम
चलते नहीं हो;
चलो तो तुम
अज्ञानी न रह
जाओ।
तुम्हारा
भी कोई कसूर
नहीं है। तुम
जैसे हो वैसे
हो। जैसे हम
पानी में सीधी
लकड़ी को भी
डालें तो वह
तिरछी होकर
दिखाई पड़ने
लगती है।
क्योंकि पानी
का स्वभाव
पानी का
स्वभाव है।
पानी में जैसे
ही कोई किरण
प्रवेश करती
है प्रकाश की, वह
तिरछी हो जाती
है। लकड़ी को
जब तुम देखते
हो पानी में
तो वह तिरछी
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
प्रकाश की
किरण के
द्वारा ही
देखी जा सकती
है। सीधी लकड़ी
पानी में
तिरछी दिखाई
पड़ती है।
राजपथ
पर चलने वाले
ज्ञानियों के
पीछे पगडंडियां
निर्मित होती
हैं,
क्योंकि
अज्ञानी का मन
और अज्ञानी के
मन के नियम हैं।
और दो ही उपाय
हैं
ज्ञानियों के
लिए; दोनों
उपाय किए जा
चुके हैं।
एक
उपाय है बुद्ध
का जो
कृष्णमूर्ति
कर रहे हैं: मत
करो पूजा, मत
मानो गुरु, मत कहो
भगवान। कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
कृष्णमूर्ति
को मानने वाले
भक्त हैं, जो
उन्हीं को
मानते हैं और
किसी को नहीं
मानते, और
जो उनके
शास्त्रों की
पूजा करेंगे।
जो अभी भी
पूजा कर रहे
हैं; और
जिनके हृदय
में संप्रदाय
पैदा हो ही
चुका है।
कृष्णमूर्ति
के मरते ही
संप्रदाय
गठित हो जाएगा।
एक उपाय यह है
जो बुद्ध, कृष्णमूर्ति
ने किया।
दूसरा
उपाय कृष्ण का, महावीर
का है; जो
मैं कर रहा हूं।
वह उपाय यह है
कि जब तुम
बनाओगे ही
संप्रदाय तो
बेहतर है कि
मैं खुद ही
बना दूं। कम
से कम तुम
जैसा बनाओगे,
उससे बेहतर
मैं बना सकता
हूं। और जब यह
होने ही वाला
हो तो बेहतर
है कि इसे मैं
अपने रहते ही तैयार
कर दूं। तुम
जैसा बनाओगे,
उससे यह
बेहतर होगा।
कृष्णमूर्ति
का संप्रदाय
तुम बनाओगे; मेरा
संप्रदाय मैं
बनाए देता
हूं।
और तुम
पक्का जानना
कि
कृष्णमूर्ति
के पीछे जो
संप्रदाय
बनेगा वह
ज्यादा
खतरनाक होगा।
होगा ही, क्योंकि
कृष्णमूर्ति
ने बनाने में
कोई सहायता न
दी। मेरे पीछे
जो बनेगा, संप्रदाय
तो जितना
खतरनाक होता है
उतना होगा, लेकिन
कृष्णमूर्ति
वाले
संप्रदाय से
कम खतरनाक
होगा।
क्योंकि
मैंने
तुम्हें साथ
दिया। मैंने
तुम्हें
वस्त्र दिए, नाम दिए, संन्यास
दिया। मैंने
तुम्हें सब
सुविधा दी है
संप्रदाय के
बना लेने की।
क्योंकि मैं
जानता हूं, जो होने ही
वाला है वह
होने ही वाला
है। अच्छा यही
होगा कि मैं
साथ दे दूं।
थोड़ा सुगढ़
होगा। थोड़ा
ज्यादा
दूरगामी
होगा। राजपथ
के थोड़ा करीब
होगी पगडंडी।
तुम जो बनाओगे
वह बहुत दूर
निकल जाएगी।
राजपथ के
सहारे ही
बनेगी तो राजपथ
के
किनारे-किनारे
ही होगी। उस
पगडंडी से राजपथ
पर आ जाना
ज्यादा
मुश्किल न
होगा। जब भी
तुम चाहोगे, एक छलांग, और तुम
राजपथ पर आ
जाओगे।
अगर
तुम,
मैं कहूं कि
मत बनाओ
संप्रदाय, फिर
बनाओगे तो
मेरे विपरीत
बनाओगे, जैसा
कि बुद्ध के
विपरीत बना, जैसा कि
कृष्णमूर्ति
के विपरीत बन
रहा है, बनेगा।
जब तुम मेरे
विपरीत
बनाओगे तो
राजपथ से बहुत
दूर हट कर
बनाओगे।
बनाना ही
पड़ेगा, क्योंकि
मेरे विपरीत
बनाओगे।
राजपथ के पास
मैं बनाने भी
न दूंगा। तब
उस पगडंडी से
लौटना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा।
और दो
ही उपाय हैं।
ज्ञानियों ने
दोनों उपाय कर
लिए हैं। कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
अपने-अपने चुनाव
की बात है।
सवाल ज्ञानी की
चिंता का नहीं
है,
सवाल
तुम्हारी समझ
का है।
तुम्हारी समझ
ही अंततः
निर्णायक
होगी।
क्योंकि
ज्ञानी तो जा
चुकेगा; सिर्फ
उसकी याद रह
जाएगी
तुम्हारे
हृदय में गूंजती।
उस याद का तुम
क्या करोगे? उससे तुम
संप्रदाय
बनाओगे? या
उस याद से तुम
धर्म के राजपथ
पर प्रवेश करोगे?
वह
याददाश्त
तुम्हें पुकारेगी
स्वभाव और
धर्म की तरफ; या उस
याददाश्त को
तुम अपनी तिजोड़ी
में छिपा कर
पूजा करने
लगोगे? वह
याददाश्त
पुकार बनेगी,
आवाहन, प्यास;
या वह
याददाश्त एक
खिलौना हो
जाएगी और तुम
उससे अपना मन बहलाओगे? यह तुम पर
निर्भर है।
ज्ञानी धर्म में
जीता है। यह
तुम पर निर्भर
है कि तुम
धर्म में
जीओगे या
संप्रदाय
में। यह
तुम्हारा
निर्णय है। और
ज्ञानी क्या
कर सकता है?
ज्ञानी
के लिए दो
विकल्प हैं।
वे दोनों ही
किए गए हैं।
मेरे
अनुकूल यही है
कि मैं
तुम्हें
सहायता दे दूं, ताकि
तुम पास ही
अपनी पगडंडी
बनाओ।
तुम्हारी
पगडंडी और
मुझमें
ज्यादा फासला
न हो। तो जब
तुम जागो,
या तुम्हें
जरा होश आए, तो तुम
छलांग ले सको,
राजपथ पास
ही हो।
दूसरा
प्रश्न है:
आप
कहते हैं कि
आदमी की
जरूरतें बहुत
थोड़ी हैं। फिर
आदमी यदि
जरूरत भर ही
पैदा करे तो
सभ्यता का, समृद्धि
का निर्माण
असंभव हो
जाएगा। और आप
यह भी कहते
हैं कि समृद्धि
में ही धर्म
का उदय होता
है। फिर आदमी
क्या करे?
निश्चित
ही,
समृद्धि
में ही धर्म
का उदय होता
है। लेकिन जितनी
तुम्हारी
वासनाएं कम
हों उतने ही
जल्दी तुम
समृद्ध हो
जाते हो।
जितनी
वासनाएं
ज्यादा हों
उतनी ही देर लगती
है समृद्ध
होने में। अगर
वासनाएं बहुत
हों तो तुम
समृद्ध कभी
नहीं हो पाते।
तो समृद्धि
तुम्हारे धन
से नहीं आंकी
जाएगी।
समृद्धि तो तुम्हारे
धन और
तुम्हारी
वासनाओं के
बीच का फासला
है। जब फासला
कम होता है तब
तुम समृद्ध हो।
अगर फासला
बिलकुल नहीं
है तो तुम सम्राट
हो, शाहंशाह हो। अगर
फासला बहुत
बड़ा है तो तुम
दरिद्र हो, भिखारी हो।
समझो!
अगर
तुम्हारी
जरूरतें एक
रुपए में पूरी
हो जाती हैं, और
तुम्हारे पास
दस रुपए हैं।
दूसरा आदमी है
जिसकी
जरूरतें
गैर-जरूरतों
से जुड़ी हैं, सार असार से
जुड़ा है; उसे
दस अरब रुपए
भी मिल जाएं
तो भी पूरा
नहीं हो सकता;
और उसके पास
पांच अरब रुपए
हैं। पांच अरब
रुपए हैं, दस
अरब में भी
वासनाएं पूरी
न हों इतनी
वासनाएं हैं।
तुम्हारे पास
दस रुपए हैं, एक रुपए में
पूरी हो जाएं
इतनी जरूरतें
हैं। दोनों
में कौन
समृद्ध है? वह आदमी
जिसके पास दस
रुपए हैं, उस
आदमी से
ज्यादा
समृद्ध है
जिसके पास
पांच अरब रुपए
हैं। क्योंकि
पांच अरब वाले
के पास आधे हैं
उसकी जरूरतों
से, और इस
आदमी के पास
दस गुने
हैं उसकी
जरूरतों से।
समृद्ध कौन है?
और
निश्चित ही, मैं
फिर कहता हूं,
बार-बार
कहता हूं कि
समृद्ध ही
धर्म में
प्रवेश करेगा।
लेकिन तुम
समृद्धि का यह
मतलब मत समझ
लेना कि जब
तुम सिकंदर हो
जाओगे तब तुम
धर्म में प्रवेश
करोगे। तब तो
तुम कभी
प्रवेश करोगे
ही नहीं।
समृद्धि का
अर्थ है कि
तुम्हारी
जरूरतें इतनी
कम हों कि तुम
जब भी, जैसे
भी हो, वहीं
पाओ कि समृद्ध
हो। जब
जरूरतें पूरी
हो जाती
हैं--थोड़ी हैं
तो जल्दी पूरी
हो जाती हैं, देर ही नहीं
लगती, तुम
पाते हो कि
पूरी ही
हैं--तब
तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा
क्या करेगी? वही
जीवन-ऊर्जा तो
धर्म की
यात्रा पर
निकलती है।
तुम्हारी
जरूरतें पूरी
हैं, अब
तुम क्या
करोगे? अब
तुम्हारे
होने में क्या
होगा? तुम्हारा
होना किस दिशा
में बहेगा? संसार की
जरूरतें
तुम्हारी
पूरी हो गईं, इतनी थोड़ी
थीं कि पूरी
हो गईं, अब
तुम मुक्त हो
उस दूसरे
संसार की
यात्रा के लिए,
अब तुम्हें
यहां रोकने को
कोई भी नहीं
है। अब इस
किनारे पर
तुम्हारी नाव
बंधी रहे, इसकी
कोई जरूरत
नहीं। तुम
तैयार हो
दूसरे किनारे
पर जाने को; नाव खोल
सकते हो, खूंटियां
छोड़ सकते हो, पाल फैला
सकते हो। इस
किनारे की
जरूरतें पूरी हो
चुकीं।
तो
ध्यान रखना।
यही तो मैं
कहता हूं कि
जो मैं कहता
हूं तुम वही सुनोगे, इसमें
संदेह है; जो
मेरा अर्थ है
तुम वही
समझोगे, इसमें
संदेह है। मैं
निरंतर कहता
हूं कि जब तक
तुम समृद्ध न
हो जाओगे तब
तक तुम
धार्मिक न हो
सकोगे। और तुम
जरूर अपने मन
में यही अर्थ
निकालते रहे,
तभी तो यह
प्रश्न उठा, कि पहले
सिकंदर हो
जाना है, सारी
दुनिया को जीत
लेना है, तब
फिर धार्मिक
होंगे। वह
मैंने कहा
नहीं; तुमने
उलटा ही समझा।
तुम समझे कि
जरूरतों को
बढ़ाते जाना है,
समृद्ध
होना है।
मैंने
कहा है कि तुम
जरूरतों को
घटाते जाना, व्यर्थ
को छोड़ देना।
जो बिलकुल
जरूरी है वह
बहुत थोड़ा है।
बहुत थोड़े में
आदमी की
तृप्ति हो जाती
है। तुम्हारी
प्यास के लिए
समुद्र की जरूरत
नहीं है; छोटा
सा झरना काफी
है। और समुद्र
से कभी किसी
की तृप्ति हुई?
वह दिखता ही
बहुत बड़ा है; जाओगे तो
पाओगे, वह
तो प्यास
बुझाता नहीं,
प्यास को
बढ़ाता है। धन
से कभी किसी
की तृप्ति हुई?
धन समुद्र
का खारा पानी
है, जितना
पीते हो उतनी
प्यास बढ़ती
है। क्योंकि नमक
ही नमक है। उतना
ही कंठ सूखता
है। आदमी मर
जाए भला
समुद्र का
पानी पीकर, जी नहीं
सकता। पानी
पीना हो तो
छोटा सा कुआं,
जो तुम अपने
आंगन में खोद
ले सकते हो, जिसके लिए
तुम्हारा
आंगन भी काफी
बड़ा है, छोटा
सा झरना, छोटी
सी झिर
जिससे चुल्लू
भर पानी वक्त
पर निकल आए, उतना काफी
है।
तब तुम
कैसे दरिद्र
रह पाओगे, अगर
तुम थोड़े से
राजी हुए?
और जब
मैं कहता हूं, थोड़े
से राजी हुए, तो तुम यह
मतलब मत समझना
कि मैं तुमसे
कह रहा हूं कि
तुम अपनी
जरूरतों को
दबाना, कि
भूखे सो रहना,
कि नंगे
घूमना। यह मैं
नहीं कह रहा
हूं। मैं तुमसे
इतना ही कह
रहा हूं कि
तुम्हारी
जरूरतें ही
समझ लेना ठीक
से, कौन सी
जरूरतें हैं,
उनको पूरा
करना।
गैर-जरूरी
जरूरतों को
बीच में मत
आने देना, क्योंकि
उनका कोई अंत
नहीं है। शरीर
की सुनना, मन
की मत सुनना।
और सभी धर्मों
ने तुम्हें
कुछ उलटा ही
सिखाया है। वे
कहते हैं, मन
की सुनना, शरीर
की भर मत
सुनना। और
शरीर बिलकुल
थोड़े में तृप्त
हो जाता है।
मन ही अतृप्त
है। कितना
करोगे भोजन? कितना पानी पीओगे? शरीर
के लिए चाहिए
क्या?
इसीलिए
तो तुम देखते
हो कि शरीर
में जीने वाले
पशु-पक्षी
इतने प्रसन्न
हैं,
क्योंकि
जरूरत बिलकुल
थोड़ी है। आदमी
भर अप्रसन्न
है। क्योंकि
आदमी की जरूरत
मन की जरूरत
है। मन का कोई
अंत नहीं है।
वह कामना किए
जाता है। वह
वासना को बढ़ाए
चला जाता है।
तुम जहां भी पहुंचो वह
वहीं कहता है
कि यह मंजिल
नहीं, मंजिल
अभी दूर है।
अभी पहुंचे
कहां? थोड़ा
और दौड़ो।
तुम
दौड़ते-दौड़ते
मर जाते हो, तृप्ति हाथ
नहीं लगती।
तो यह
तो पहली बात
समझ लो कि
समृद्ध वही है
जो अपनी
जरूरतों को
जरूरत समझता
है और
गैर-जरूरतों
को गैर-जरूरत
समझता है, जो
अपनी आधार की
जरूरतों को भर
लेता है, और
जो व्यर्थ की
बातों को जो
सिर्फ दिखावा
है...।
सोने-चांदी से
न तो प्यास
बुझती है, हीरे-जवाहरातों
से न तो भूख
मरती है। तुम
ही मर जाओ उनमें
दबकर, लेकिन
भूख नहीं मर
सकती उनसे।
जिसने यह ठीक
से समझ लिया
कि व्यर्थ के
विस्तार को
छोड़ देना है, जो आवश्यक
है वह शरीर को
दे देना है, उसके जीवन
में परम
तृप्ति का
स्वाद आता है।
वही तृप्ति
समृद्धि है, उसी समृद्धि
के बाद धर्म
की कोई
संभावना है।
नहीं तो नहीं।
और आप
पूछते हैं कि
क्या होगा फिर
सभ्यता का, समृद्धि
का?
असली
सभ्यता की
सुविधा
बनेगी। असली
समृद्धि आएगी; असली
संस्कृति
आएगी। अभी तो
सब नकली है।
क्योंकि नकली
आदमी की
आकांक्षा है।
उसी पर सारा
फैलाव है। तुम
दौड़ रहे हो।
बहुत कुछ होता
हुआ दिखाई
पड़ता है। बड़ा
विराट उपक्रम
है। सभी लोग
काम में लगे
हैं। लेकिन
क्या पैदा कर
रहे हैं?
मैं
हिसाब देखता
था। अमरीका
में पचास
प्रतिशत श्रम
व्यर्थ की
चीजों को पैदा
करने में लगाया
जा रहा है, जिनकी
कोई जरूरत ही
नहीं।
स्त्रियों के
साज-शृंगार का
सामान! उसकी
बिलकुल भी
जरूरत नहीं
है। उससे
स्त्रियां
सुंदर नहीं
होतीं, बल्कि
उनका जो सहज
सौंदर्य है वह
भी खो जाता है,
उनका जो
लावण्य है वह
भी खो जाता
है।
ओंठों
पर लिपिस्टिक
लगाई हुई
स्त्री का
चेहरा तुम
सुंदर समझते
हो?
तो
तुम्हारी
सुंदर की परिभाषा
में कहीं कोई
भ्रांति है।
जिस ओंठ पर लिपिस्टिक
लगा है वह खबर
दे रहा है कि
ओंठ की अपनी
लाली खो गई है, ओंठ
बीमार है; अब
उसको ऊपर की
पालिश से
छिपाना पड़ रहा
है। ओंठ जब
सुंदर होता है
खून की गति से
तब उसकी बात और
है। ऊपर के
रंग-रोगन से
जब ओंठ लाल
दिखाई पड़ता है
तब तुम मूढ़
हो, अगर
तुम उसे सुंदर
समझ रहे हो।
वह तो घोषणा
है इस बात की
कि ओंठ का
अपना लावण्य
खो गया है, अब
ओंठ का अपना
सौंदर्य नहीं
है, यह छिपावा
है।
जब कोई
व्यक्ति
सुंदर होता है
तो आभूषण की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती, तब
ऊपर से
रंग-रोगन का
कोई प्रयोजन
नहीं रह जाता।
पक्षी हैं, पौधे हैं, पशु हैं, बिना
रंग-रोगन के
कितने सुंदर
हैं! आदमी को
क्या जरूरत है?
आदमी ने सभी
वास्तविकता
खो दी है। सब
धोखा है। और
अदभुत हो तुम
कि इसको तुम
सौंदर्य भी
मान लेते हो।
स्वास्थ्य
सौंदर्य हो
सकता है, ऊपर
से पोती गई
कृत्रिम
प्रसाधन की सामग्री
सौंदर्य नहीं
हो सकती।
जब कोई
व्यक्ति
ठीक-ठीक सुंदर
होता है, शांत
होता है, प्रसन्न
होता है, प्रफुल्लित
होता है, तो
उसकी देह से
एक गंध आती है
जो गंध बड़ी
सोंधी है।
जैसे कि जब
पहली वर्षा
होती है और
पृथ्वी से गंध
उठती है, क्योंकि
पृथ्वी
प्रसन्न होती
है, तृप्त
होती है, प्यास
बुझती है; वैसी
ही गंध शरीर
से भी उठती है,
जब कोई
व्यक्ति
तृप्त होता है,
शांत होता
है। वैसी गंध
को तुम खो
चुके हो। वह नहीं
उठती। शरीर से
दुर्गंध उठती
है। तो उसे छिपाने
के लिए
तुम्हें फिर
बाजार से
खरीदी हुई सुगंधों
का उपयोग करना
पड़ता है। वे सुगंधें
केवल इतनी ही
खबर देती हैं
कि तुम्हारा
शरीर दुर्गंध
से भरा होगा।
अन्यथा
छिपाते क्यों?
अन्यथा
दबाते क्यों?
तुम
जितना उपाय
करते हो, वह सब
प्रवंचना है।
और यह सारी
दौड़-धूप जो
इतनी दिखाई
पड़ती है सारे
संसार में
चलती हुई कि बड़ा
काम हो रहा है,
बड़ी समृद्धि
हो रही है, बड़ा
विकास हो रहा
है, कुछ भी
नहीं हो रहा।
इसमें से पचास
प्रतिशत तो
बिलकुल
व्यर्थ है।
शेष पचास
प्रतिशत में
चालीस
प्रतिशत ऐसा
है जो कि
युद्ध, संघर्ष,
कलह की
तैयारी में जा
रहा है। पचास
प्रतिशत प्रसाधन
के साधन हैं
कि खो गया
सौंदर्य कैसे
बचाया जाए या
कैसे दिखाया
जाए कि नहीं
खो गया है, कैसे
आदमी को
अभिनेता
बनाया
जाए--धोखा, प्रवंचना।
बाकी चालीस
प्रतिशत
युद्ध के लिए है।
पचास प्रतिशत
खो गए जीवन के
सौंदर्य को धोखा
देने के लिए; और चालीस
प्रतिशत जीवन
को अंत करने
के लिए कि जो
थोड़ा-बहुत
जीवन बचा है
उस पर हाइड्रोजन
बम और एटम बम
कैसे गिराया
जाए। यह नब्बे
प्रतिशत
मनुष्य की
सभ्यता है।
बाकी दस प्रतिशत
बचता है। उस
दस प्रतिशत
में आधी
दुनिया भूखी
है। एक जून
रोटी लोगों को
नहीं है, छप्पर
नहीं है, औषधि
नहीं है। और
जीवन कीड़े-मकोड़ों
जैसा है। यह
हमारी सभ्यता
है।
अगर हम
जीवन की
जरूरतों को ही
पूरा करने में
लगें--जैसा
लाओत्से
चाहता है, जैसा
मैं
चाहूंगा--तो न
तो झूठे
सौंदर्य के प्रसाधन,
झूठी
प्रतिष्ठा के
उपाय, झूठी
महत्वाकांक्षा
की तृप्ति में
पचास प्रतिशत
श्रम का अंत
होगा। और उसी
प्रतिस्पर्धा
और
प्रतियोगिता
से पैदा होता
है युद्ध
जिसमें चालीस
प्रतिशत
शक्ति व्यय हो
रही है। अगर
यह पूरी नब्बे
प्रतिशत
शक्ति जीवन की
जरूरतों को
पूरा करने में
लगाई जाए तो
जरूरतें पूरी
हो जाएंगी और
इतनी विराट
ऊर्जा बचेगी मनुष्य
के पास कि उसी
विराट ऊर्जा
से संस्कृति का
निर्माण
होगा।
लेकिन
वह संस्कृति
बड़ी भिन्न
होगी। वह
ऊर्जा
प्रार्थना
में लगेगी। वह
ऊर्जा ध्यान
में लगेगी।
वही ऊर्जा
संगीत बनेगी।
वह ऊर्जा
सृजनात्मक
गतिविधियों
में लीन होगी।
और जब भी तुम
कुछ बना लेते
हो,
एक छोटी
मूर्ति, एक
छोटा चित्र, एक नया गीत, एक नई धुन
निकाल लेते हो,
और जब यह
धुन तुम्हारे भीतर
की तृप्ति से
निकलती है, तब संस्कृति
का जन्म होता
है। संस्कृति
है साहित्य, संस्कृति है
कला, संस्कृति
है सत्य की
खोज।
संस्कृति है
एक प्रेम के
समाज का
निर्माण; एक
शांत, आनंदित,
प्रफुल्लित
समाधि की ओर
उत्सुक समाज
का जन्म।
लेकिन
ऊर्जा हो तभी।
अभी तो ऊर्जा
बचती नहीं।
अभी तो तुम
व्यर्थ के गोरखधंधे
में समय
व्यतीत कर
देते हो।
थके-हारे रात
तुम लौटते हो, किसी
तरह सो भी
नहीं पाते रात
भर; क्योंकि
दिन में जो
तुमने
चिंताएं समाई
हैं, इकट्ठी
की हैं, वे
रात भर
तुम्हारा
पीछा करती
हैं। तो रात
बन जाती है
दुख-स्वप्न।
दिन है एक
व्यर्थ की
दौड़-धूप। ऐसे
ही तुम चुक
जाते हो। एक
दिन पाते हो:
जीवन समाप्त
हो गया, मौत
द्वार पर खड़ी
है। इसे तुम
संस्कृति
कहते हो? इसे
तुम सभ्यता
कहते हो?
न तो यह
सभ्यता है, न
यह संस्कृति
है। क्योंकि न
तो इसमें
प्रेम है, न
इसमें
प्रार्थना है,
न इसमें
पूजा-अर्चना
है, न
इसमें समाधि
का सौरभ है, न इसमें
ध्यान की
गरिमा है।
इसमें भीतर की
कुलीनता
नहीं। इसमें
सब बाहर का
दिखावा है, दरबार का
चाकचिक्य है।
और खेत-खलिहान
सूखे पड़े हैं।
और दरबार में
बड़ी रोशनी है।
लोग तलवारें
लिए खड़े हैं, चोगे पहने
हैं कीमती।
सम्राट हीरे-जवाहरातों
से जड़े
सिंहासन पर
बैठा है। वे
ज्यादा
खा-पीकर अघा
गए हैं और
रुग्ण हैं। और
इधर
खेत-खलिहान
खाली पड़े हैं।
और आदमी की
बुनियादी
जरूरतें पूरी
नहीं हो रही
हैं।
कुछ
हैं जो ज्यादा
खाकर बीमार
हैं;
कुछ हैं जो
भूख की वजह से
बीमार हैं।
सारी दुनिया
बीमार है। कुछ
इसलिए बीमार
हैं कि जीवन
को सम्हालने
के उपाय नहीं;
कुछ इसलिए
बीमार हैं कि
उनके पास इतना
ज्यादा है कि
वे जानते नहीं
करें क्या, वे उस
ज्यादा से दबे
जा रहे हैं।
इसे तुम सभ्यता
कहते हो? इससे
ज्यादा और
बर्बरता क्या
होगी? यह
एक असभ्य
स्थिति है। और
इसमें कैसे संस्कृति
का जन्म होगा?
इससे जो भी
निर्मित होता
है उसमें भी
बर्बरता होती
है। फर्क तुम देखोगे।
पुराना
संगीत
है--पूरब का या
पश्चिम का। बीथोवन है
या मोझर्ट
है। तो उस
संगीत की बात
ही और है। उस
संगीत में एक
शांति है; तुम
सुनोगे
तो शांत हो
जाओगे, तुम
सुनोगे
तो तृप्त हो
जाओगे। फिर आज
का नया संगीत
है; नए
युवक-युवतियां
जो संगीत
पश्चिम में
पैदा कर रहे
हैं। जो संगीत
एक उपद्रव है
और एक अराजकता
जैसा मालूम
होता है, जिसे
सुन कर
तुम्हारे
भीतर भी
अराजकता पैदा
होती है, तुम
भी हिंसात्मक
हो उठते हो या
कामातुर हो उठते
हो।
पुराने
चित्र हैं। अजंता हैं, एलोरा
हैं, ताजमहल
है। किसी एक
और ढंग की
चित्त-दशा से
पैदा हुए।
ताजमहल को तुम
अगर अशांत
होकर भी देखते
रहो थोड़ी देर
तो तुम पाओगे,
भीतर सब
शांत होने
लगा। फिर
आधुनिक
चित्रकला है। पिकासो
है। चित्र को
अगर तुम थोड़ी
देर देखो तो
तुम्हें
लगेगा कि तुम
भीतर पागल हुए
जा रहे हो।
चित्र को ज्यादा
देर देखा नहीं
जा सकता; आंख
गड़ा कर देखोगे, मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि
चित्र में
सिर्फ बेचैनी
है, विक्षिप्तता
है, तनाव
है, अशांति
है, संताप
है।
जब
सभ्यता रुग्ण
होती है तो
संस्कृति भी
रुग्ण हो जाती
है। क्योंकि संस्कृति
तो सौरभ है।
जब फूल बीमार
होता है तो
उसकी सुगंध
में सुगंध
नहीं होती, दुर्गंध
हो जाती है।
सभ्यता फूल है;
संस्कृति
उसकी सुवास
है। लेकिन जब
फूल ही सड़ा
हो तो फिर
सुवास कहां? इसलिए सब
दिशाओं में
संस्कृति भी
रुग्ण हो गई है।
नहीं, संस्कृति
तो तभी पैदा
होगी जब लोग
इतने तृप्त
होंगे और
लोगों के पास
इतना जीवन
बचेगा। जो
बचता है अभी, युद्ध में
खो जाता है।
युद्ध कोई
संस्कृति है?
युद्ध तो एक
भयानक रोग है,
और खबर देता
है कि हमारे
भीतर कितने
नासूर होंगे।
रोग तो कैंसर
है समाज के
भीतर लगा हुआ।
लेकिन
रोग को हम
पहले पालते-पोसते
हैं। अगर तुम
दुनिया भर की
सरकारों के
बजट देखो तो
पचास से साठ
प्रतिशत उनका
बजट युद्ध की
तैयारी में जा
रहा है। यह
बड़ी हैरानी की
बात है। ये
सरकारें जीवन
को सम्हालने
को हैं या मौत
लाने को? इनका
प्रयोजन क्या
है? ये साठ
प्रतिशत
मुल्क की
धन-संपदा को
युद्ध में लगा
रहे हैं। जीवन
के लिए तो कुछ
बचता ही नहीं।
जैसे मरने का
आयोजन करने के
लिए हमने इन
सरकारों को
बनाया हो। यह
किस भांति का
जीवन है, जहां
मरने की
तैयारी इतनी प्रगाढ़ता
से चलती है; मारने और
मरने के सिवाय
कोई दूसरी
महत्वपूर्ण
बात नहीं
दिखाई पड़ती।
अगर लाओत्से
की हम सुनें, संतों
को हम समझें, तो एक दूसरी
ही तरह की
जीने की
व्यवस्था
पैदा होगी। उस
जीवन-व्यवस्था
का मूल आधार
यह होगा कि
तुम्हारी
जरूरतें जरूर
पूरी होनी
चाहिए। लेकिन
जरूरतें तो
बहुत कम में
पूरी हो जाती
हैं। असली काम
गैर-जरूरतों
को छांटना है,
जरूरतों से
अलग करना है।
घास-फूस को
अलग करो।
तुम्हारी
बगिया में
बहुत ज्यादा
घास-फूस है, उसमें गुलाब
पैदा नहीं हो
सकते। वह
घास-फूस ही सब
पृथ्वी की
शक्ति को खा
जाता है। उसे
अलग करो, अगर
तुम चाहते हो
कि फूल खिलें।
फूल तो बड़े कम
में खिल सकते
हैं, लेकिन
उतना भी तो
बचता नहीं।
समृद्ध
है वह व्यक्ति
जिसकी
जरूरतें इतनी
कम हैं कि
अल्प में पूरी
हो जाती हैं, और
जिसका पूरा
जीवन शेष रह
जाता है, पूरी
ऊर्जा बच जाती
है। उस ऊर्जा
को वह सृजन में,
संगीत में,
समाधि में
संलग्न कर
सकता है। वही
ऊर्जा उसे परमात्मा
तक ले जाएगी।
समृद्ध
ही धार्मिक हो
सकता है।
लेकिन
समृद्धि का
तुम ठीक से
अर्थ समझ
लेना।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि भगवान
सदा सबको
जरूरत से
ज्यादा ही
देता है और यह
कि उसकी
स्वीकृति ही
संन्यास है।
तब प्रश्न
उठता है कि
वही भगवान
हमारे भीतर
इच्छाओं और
वासनाओं का एक
समुद्र ही
क्यों भर देता
है,
जिसके चलते
कि जीवन सब
गुड़-गोबर हो
जाता है?
वासना
जरा भी बुरी
नहीं; वासना
से कुछ भी
नहीं बिगड़ रहा
है। वासना तो
तुम्हारे
जीवन को प्रौढ़ता
देने की एक
विधि है। वह
तो विद्यापीठ
है जहां तुम
सीखते हो, जहां
तुम बढ़ते हो, जहां
तुम्हारी
चेतना सुदृढ़
होती है, सुकेंद्रित होती है, क्रिस्टलाइज होती है।
बिना वासना के
तो तुम अबोध
रह जाओगे।
वासना से गुजर
कर ही तुम बोध
को उपलब्ध
होओगे। वासना
तो ऐसे है
जैसे आग है।
और सोना आग से
गुजरे तो ही
निखरता है और
शुद्ध होता
है।
वासना
को तुम बुरा
मत समझना।
वासना को बुरा
समझा तो तुम
अड़चन में पड़
जाओगे। वासना
को जीना, समझपूर्वक जीना, वासना
से गुजरना।
क्योंकि
परमात्मा की
यही मर्जी है
कि तुम वहां
से गुजरो।
तुम आग को देख
कर भाग मत खड़े
होना जैसा कि
बहुत लोग भाग
खड़े होते हैं।
दो तरह के लोग
हैं साधारणतः।
और परमात्मा
की मर्जी है
कि तुम तीसरे
तरह के
व्यक्ति बनो।
एक, जो
आग को ही जीवन
समझ लेता है, जैसे सोना
आग में ही पड़ा
रहे। सोने को
डालना जरूरी
है, निकालना
भी जरूरी है।
डालना आधा
हिस्सा है। और
जब कचरा जल
जाए सोने का
तो उसे खींच
लेना जरूरी
है।
तो एक
तो ऐसा
व्यक्ति है जो
कि समझता है
कि आग ही जीवन
है। उसने डाल
दिया सोने को, फिर
निकालने की
बात ही भूल
जाता है। उसका
सोना जलेगा, शुद्ध भी
होगा, और
फिर अशुद्ध हो
जाएगा।
क्योंकि राख
मिल जाएगी अब,
कूड़ा-कर्कट फिर
वापस मिल
जाएगा। शुद्ध
होने के बाद
एक क्षण भी
वासना के भीतर
रहना फिर
अशुद्ध हो जाना
है।
दूसरे
तरह का आदमी, यह
देख कर कि कुछ
लोग आग में
पड़े-पड़े राख, कचरे-कूड़े
से भर गए हैं, भाग खड़ा
होता है आग
से--हिमालय
चला जाता है, संन्यास ले
लेता है, साधु-मुनि
बन जाता है।
वह भाग खड़ा
हुआ, आग से
डर गया। यह भी
कचरे से भरा
रह जाएगा। क्योंकि
आग कचरा जलाने
को थी। और यह कभी
प्रौढ़ न हो
पाएगा। जो लोग
भाग गए हैं
जीवन से, अगर
तुम उन्हें
ठीक से
निरीक्षण
करोगे तो तुम पाओगे,
उनमें कुछ
कमी रह जाती
है। तुम अपने
साधु-संन्यासियों
को, जो कि
वस्तुतः भाग
गए हैं, हमेशा
पाओगे, उनमें
थोड़ा सा
बचकानापन रह
जाता है। जीवन
उन्हें तपा
नहीं पाया; वे बड़ी छोटी
स्थिति में रह
जाते हैं।
एक जैन
मुनि मेरे पास
मेहमान थे। जब
मुझसे निकटता
उनकी बढ़ गई और
आत्मीय हुए तो
उन्होंने कहा
कि एक दफा
मुझे सिनेमा
देखना है।
क्योंकि मैं
नौ साल का था, तब
संन्यासी हो
गया। मेरे
पिता जैन
संन्यासी थे।
मां मेरी मर
गई थी; पिता
ने संन्यास
लिया। मेरे
लिए कोई उपाय
न था तो पिता
ने मुझे भी
दीक्षा दिलवा
दी।
नौ साल
का बच्चा जब
संन्यासी हो
जाए! और जैन संन्यासी!
क्योंकि जैन
संन्यास का
मतलब है कि जीवन
से बड़ी गहरी
खाई खोद ली, दीवार
खड़ी कर ली।
हिंदू
संन्यासी को
तो थोड़े उपाय
भी हैं कि
कहीं भी जाकर
सिनेमा देख ले,
जैन
संन्यासी को
कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि समाज
चौबीस घंटे
पीछे रहता है
और जांच रखता
है--कहां जाते,
कहां उठते,
क्या करते,
कैसे बैठते,
कब सोते।
तो नौ
साल का बच्चा, उसके
मन में नौ साल
की अवस्था
अटकी रह गई।
तो वे मुझसे
बोले कि मुझे
बड़ी जिज्ञासा
होती है कि
क्या होता
होगा अंदर!
बाहर से मैं
निकलता हूं
भीड़ लगी देखता
हूं, कि
वहां भीड़ लगी
है, क्यू
लगा है, जरूर
अंदर कुछ...। और
अंदर क्या हो
रहा है, यह
मुझे पता
नहीं। अब यह
एक छोटे बच्चे
की दशा है।
इसमें कुछ भी
बुरा नहीं है।
लेकिन यह आदमी
अगर अपने भक्तों
से कहेगा कि
मुझे सिनेमा
देखना है तो
वे कहेंगे, तुम क्या कह
रहे हो? जैन
मुनि होकर और
सिनेमा?
तो
मैंने कहा कि
ठीक,
मैं
तुम्हें
सिनेमा भिजवा
देता हूं।
इसमें कोई
हर्जा नहीं है,
एक दफे देख
कर झंझट खतम
करो। एक मित्र
को मैंने कहा
कि इन्हें ले
जाओ।
मित्र
भी जैन थे।
उन्होंने कहा, आप
भी क्या कहते
हैं? हमको
भी फंसाएंगे
इनके साथ! पर
वे समझदार थे,
कहा कि मैं
समझता हूं बात,
अगर उनकी
ऐसी जिज्ञासा
है तो देखने
में कुछ हर्जा
नहीं है; एक
बार देख कर
छुटकारा हो
जाएगा। तो
उन्होंने कहा
कि मैं ले जा
सकता हूं, लेकिन
कैनटोनमेंट
एरिया में ले जाऊंगा।
क्योंकि वहां
मुझे कोई
जानता-वानता
नहीं।
पर
वहां
अंग्रेजी
फिल्म चलती
है। जैन मुनि
अंग्रेजी भी
नहीं जानता।
तो वह जैन
मुनि ने कहा कि
कोई हर्जा
नहीं; कम से कम
देख तो लेंगे।
अंग्रेजी हो
कि हिंदी हो, इससे कोई
बड़ा सवाल नहीं
है; देख तो
लेंगे। तो वे
उन्हें छिपा
कर किसी तरह
सिनेमा दिखा लाए।
वे जैन
मुनि लौट कर
मुझसे बोले कि
मेरा मन ऐसा हलका
हो गया है
जैसे कि भार
उतर गया है, कि
कुछ भी नहीं
है। पर लोगों
की कतार लगी
बाहर ही देखता
था--भीतर क्या
हो रहा होगा? जरूर कुछ
महत्वपूर्ण
हो रहा होगा, रसपूर्ण हो
रहा होगा।
नहीं तो ये
इतने लोग
क्यों दीवाने
हैं! यह मैं
किसी से कह भी
नहीं सकता था।
जब
सिनेमा के
संबंध में ऐसी
हालत होगी तो
तुम सोच सकते
हो,
और संबंधों
में कैसी हालत
होगी। नौ साल
का बच्चा अगर
संन्यासी हो
गया हो, संसार
छोड़ कर हट गया
हो, तो
जरूर सोचता
होगा कि क्यों
हर आदमी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ता है? क्या
होता होगा? और उसके
भीतर भी
कामवासना की
ऊर्जा है, जो
उसकी छाती में
धक्के मारती
रहेगी।
क्योंकि उसका
शरीर भी वैसे
ही निर्मित
हुआ है, जैसे
और सब शरीर
हैं। उसके
शरीर में भी
वैसे ही
काम-ऊर्जा
बनती है रोज, जैसे सबके
शरीरों में
बनती है। वह
विक्षिप्त
होगा, वह
भीतर ही भीतर
परेशान होगा।
लेकिन वह किसी
से कह भी नहीं
सकता। और
जितना परेशान
होगा उतना ही
सुबह अपने
प्रवचन में
मंदिर में
ब्रह्मचर्य
का समर्थन
करेगा। यह वीसियस
सर्किल है, यह उसमें
दुष्ट-चक्र
है। वह उतना
ही कामवासना
की निंदा
करेगा।
क्योंकि उसको
लगेगा, यह
कामवासना
मुझे
डांवाडोल कर
रही है, डिगा
रही है।
जब मैं
संभोग से
समाधि पर बोला
तो सारे मुल्क
में भगोड़ों
ने उसका विरोध
किया। जैन
मुनि उसमें
सबसे ज्यादा
आगे थे कि यह
मैं क्या कह
रहा हूं कि
संभोग से
समाधि! लेकिन
ऐसा एक जैन
मुनि नहीं है
जिसने वह
किताब चोरी से
न पढ़ी हो। और
वह किताब सबसे
ज्यादा बिकी; उसके
बहुत संस्करण
हुए। और जो
थोड़े ईमानदार
थे उन्होंने
मुझे पत्र भी
लिखे, जैन
मुनियों ने भी
पत्र लिखे, कि आप किसी
को कहना मत, लेकिन इससे
हमारे मन को
बड़ा साफ
रास्ता हुआ, हम हलके
हुए। मगर किसी
को कहना मत।
दस्तखत भी
नहीं किए कि
कहीं किसी की
पकड़ में आ जाए
पत्र।
जो
आदमी भाग
जाएगा आग में
उतरने से वह
भी वंचित रह
जाएगा; जो आग
में ही पड़ा
रहेगा वह भी
वंचित रह गया।
आग में जाना
जरूरी है और
निकलना जरूरी
है। तब तुम आग
का पूरा लाभ
ले पाओगे।
वासनाएं
अग्नि की तरह
हैं;
वे तुम्हें निखारने
के लिए हैं।
उनसे गुजर कर
तुम कुंदन बनोगे।
स्वच्छ होगा
तुम्हारा
स्वर्ण; तुम
शुद्ध होओगे।
कोई वासना
बुरी नहीं है।
भागे, तो
मुश्किल में पड़ोगे; अटक
गए, तो
मुश्किल में पड़ोगे।
बिना अटके गए
और निकल आए, वही तो कला
है। काजल की
कोठरी में
जाना जरूरी है,
लेकिन काजल
की कोठरी में
रह जाना
आवश्यक नहीं है।
और
काजल की कोठरी
से अगर तुम
अपने को बचा
कर निकल आए, बिना
कालिख लगाए
निकल आए, अगर
तुम कह सके
कबीर की भांति
कि ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया, खूब
जतन से ओढ़ी।
कबीर
तो गृहस्थ हैं।
पत्नी है, बच्चा
है; फिर भी
कह रहे हैं, खूब जतन से ओढ़ी।
क्या
मतलब है? कबीर
कोई भगोड़े
नहीं हैं। भगोड़ा
तो चादर छोड़
कर ही भाग गया,
उसने तो ओढ़ी
ही नहीं। और
कबीर कोई भोगी
भी नहीं हैं
कि चादर ओढ़े
ही पड़े रहे जब
तक कि चादर
कफन न बन जाए।
कबीर ने ओढ़ी
भी, जतन से ओढ़ी, सम्हाल
कर रख दी। और
कहते हैं, परमात्मा
को वैसी की
वैसी वापस
लौटा दी जैसी
उसने दी थी; जरा भी मैली
न होने दी।
तुम्हारी
देह तुम्हारी
चादर है; उसे
जतन से ओढ़ना।
तुम्हारी
वासनाएं
तुम्हारी
चादर हैं; उन्हें
जतन से ओढ़ना।
और परमात्मा
का दान उनमें
भी देखना।
क्योंकि उनके
बिना तुम कभी
भी निखार को
उपलब्ध न हो
सकोगे।
तुम्हें गलत
से गुजरना ही
पड़ेगा, ताकि
तुम अपने ठीक
को ठीक से
पहचान पाओ।
गलत पृष्ठभूमि
है, काला ब्लैकबोर्ड
है, जिसमें
हम सफेद रेखा
खींचते हैं।
तुम्हारी वासना
काला ब्लैकबोर्ड
है। उस पर ही
तुम्हारी
आत्मा की सफेद
लकीर खिंचेगी।
तुम ब्लैकबोर्ड
के दुश्मन मत
हो जाना, नहीं
तो तुम सफेद
लकीर कभी खींच
ही न पाओगे।
वासना
और आत्मा एक
कंट्रास्ट है, एक
विपरीतता है।
तुम वासना को
पृष्ठभूमि
बनाओ और आत्मा
को तुम बनाओ
सफेद लकीर।
फिर तुम धन्यवाद
दे पाओगे
परमात्मा को;
फिर तुम यह
न कहोगे कि
इतनी वासनाएं
हमें क्यों
दीं। तब तुम
यह कहोगे कि
तेरी बड़ी कृपा
है कि तूने
वासनाएं दीं,
अन्यथा हम
इस आत्मा को
कैसे पहचानते?
तूने यह जो
काली रात दे
दी, बड़ी
तेरी कृपा है,
क्योंकि
बिना काली रात
के ये आत्मा
के तारे कैसे
चमकते? हम
इनको कैसे
पहचानते? दिन
में तो इनका
पता ही नहीं
चलता।
अगर
परमात्मा
तुम्हें
शुद्ध ही बना
दे तो तुम्हें
शुद्धि का कोई
अनुभव न होगा।
शुद्धि होगी, लेकिन
तुम अनुभव से
वंचित रह
जाओगे। इसलिए
परमात्मा
तुम्हें
शुद्ध भी
बनाता है और
तुम्हें
अशुद्धि का
अवसर भी देता
है। उस अवसर
से अगर तुम
सम्हल कर
गुजरे--सम्हल
कर गुजरना ही
संतत्व है; सम्हल कर
गुजरना
संन्यास है।
भाग जाना
संन्यास नहीं
है, भोग
संन्यास नहीं
है, सम्हल
कर गुजरना
संन्यास है।
भोग में योग
को साध लेना
संन्यास है।
संसार में वीतरागता
को बना लेना
संन्यास है।
ऐसे रहो संसार
में कि संसार तुम्हारे
भीतर न रहे।
बस फिर तुम
सम्हाल कर जतन
से ओढ़ लोगे
चादर को, लौटा
दोगे धन्यवाद
सहित।
और अगर
तुम जीवन को
लौटाते वक्त
परमात्मा को धन्यवाद
न दे सके तो
फिर-फिर आना
पड़ेगा।
क्योंकि तुम
प्रौढ़ न हो
पाए,
तुम अधकच्चे
रहे। और
अधकच्चा
स्वीकार नहीं
किया जा सकता।
तुम पक जाओ, तभी तुम
स्वीकार
होओगे।
तुम्हारा
नैवेद्य तभी
परमात्मा के
चरणों में
स्वीकार होगा, तभी
तुम उसके हृदय
के हिस्से बन
सकोगे, जब
तुम धन्यवाद
देकर विदा
होओगे, जब
तुम मरते क्षण
कह सकोगे, तेरी
बड़ी अनुकंपा
कि तूने
शुद्धि की
इतनी बड़ी
संभावना दी और
अशुद्धि का
इतना बड़ा अवसर
दिया।
चौथा
प्रश्न:
माना
जाता है कि
मनुष्य विकास
का श्रेष्ठतम
बिंदु है और
मनुष्य ही
विकसित होकर
भगवान हो जाता
है। तब ताओ
में प्रवेश
आगे का विकास
है या पीछे
लौटना है?
दोनों।
पीछे लौटना ही
आगे का विकास
है। पीछे जाना
ही आगे जाना
है। क्योंकि
पीछे मूल
स्रोत है।
जहां से तुम
आए हो, वही
पहुंच जाना
अंतिम लक्ष्य
है। क्योंकि
मूल उदगम ही
आखिरी मंजिल
है। तुम
वर्तुल बन
जाओगे, तभी
तुम पूर्ण
होओगे। तुम एक
वर्तुल
खींचते हो; तो जहां से
तुम शुरू करते
हो, जिस
बिंदु से
वर्तुल को, वहीं वर्तुल
वापस लौट जाता
है। और वर्तुल
इस जगत में
पूर्णता का
चिह्न है।
इसलिए तो हमने
वर्तुल को
शून्य का भी
चिह्न बनाया
है। शून्य और
पूर्ण एक ही
चीज को कहने
के दो ढंग
हैं। तुम्हें
वहीं लौट जाना
है जहां से
तुम आए हो। और
ध्यान रखना, जब तुम
लौटोगे तो तुम
वही न रहोगे
जैसे कि तुम तब
थे जब आए।
क्योंकि यह
सारी यात्रा,
यह
यात्रा-पथ
तुम्हें
प्रौढ़ कर देगा,
तुम्हें
जगा देगा, होश
से भर देगा।
संसार
से गुजरना है, और
पहुंच जाना है
वापस मूल
स्रोत पर।
इसलिए तो कहते
हैं कि जब कोई
दुबारा बच्चा
हो जाता है
फिर से बुढ़ापे
में, जब
कभी बूढ़ा फिर
बालक जैसा हो
जाता है, तो
संतत्व का उदय
हुआ। फिर से
वर्तुल पूरा
हो गया। अगर
तुम बुढ़ापे तक
चालाक रहे, जैसा कि
अक्सर होता है,
तो वर्तुल
पूरा नहीं
हुआ। तुम
फिर-फिर फेंके
जाओगे, तुम
स्वीकार नहीं
किए जा सकते।
तुम अभी योग्य
नहीं हुए। तुम
आधे हो। जब
कोई बुढ़ापा
आते-आते फिर
इतना ही सरल
हो जाता है
जैसे छोटा बच्चा;
इसी को हम
संतत्व कहते
हैं। इसी को
लाओत्से परम
उपलब्धि कहता
है। बच्चे के
पास सब है, सिर्फ
होश नहीं है।
होश अनुभव से
आएगा। अगर तुम
फिर से
होशपूर्वक
बालक हो गए तो
सब पा लिया।
तो
पीछे लौटना है, वही
आगे जाना है; मूल को पाना
है, क्योंकि
वही अंत है।
स्वभाव को
उपलब्ध करना है।
स्वभाव था ही
तुम्हारे पास,
लेकिन तब
तुम होशपूर्ण
न थे।
होशपूर्वक
पुनः स्वभाव
को उपलब्ध कर
लेना है।
कहावत है कि
जब कोई
व्यक्ति
दूसरे
मुल्कों में
जाता है और
वापस लौटता है
अपने देश, तभी
अपने देश को
ठीक से समझ
पाता है।
क्योंकि पहले
अपना ही देश
था, तौलने
का कोई उपाय न
था; ठीक है
कि गलत, अच्छा
है कि बुरा, सुंदर है कि
कुरूप, नैतिक
कि अनैतिक; कुछ भी पता
नहीं चलता था।
क्योंकि
तुलना ही न थी।
जब कोई
व्यक्ति अनेक
देशों में
भटकता
है--यात्रा का
वही तो फायदा
है--और फिर घर
वापस लौटता है,
तभी अपने
देश को ठीक से
पहचान पाता
है।
ठीक
यही यात्रा
संसार है।
इसीलिए तो हम
उसे आवागमन
कहते हैं। वह
यात्रा है। और
जब तुम अपने देश
वापस
लौटोगे...।
जैसे
मानसरोवर से
हंस आता है; भटकता
है अनेक-अनेक
स्थानों में,
और अनेक
स्थानों में
भटक-भटक कर
उसे याद आनी शुरू
होती है
मानसरोवर की,
घर की याद
आती है; और
जब वापस
मानसरोवर
पहुंचता है, तो तुम
जानते हो उसका
आनंद! इतनी
अशुद्धियों से
गुजरकर, इतने
अशुद्ध
वातावरणों से
गुजरकर, इतनी
धूल-धवांस
और व्यर्थ की
दुनिया से
गुजर कर पहली
दफा मानसरोवर
की शुद्धि, निर्मलता, निर्दोष
वातावरण, मानसरोवर
का महासुख
पहली दफा उसकी
समझ में आता
है।
कबीर
कहते हैं
बार-बार: चल
हंसा वा देश!
अपने घर लौट
चल,
उस देश लौट
चल जहां से हम
आए हैं। अब
बहुत हो गई यात्रा,
देख लिया सब,
पाया कुछ भी
नहीं; अब
अपने घर लौट
चलें।
यह घर
लौटना यद्यपि
उसी घर में
लौटना है जहां
से तुम आए, लेकिन
बड़ा नया है।
क्योंकि तुम
नए हो गए; तुम्हारे
अनुभव ने
तुम्हें
निखारा। पीछे
लौटना ही आगे
जाना है। और
आगे जाने का
एक ही उपाय है
कि तुम पीछे लौटो।
स्वभाव में
पहुंच जाना ही
मनुष्य का चरम
उत्कर्ष है।
वही परमात्मा
हो जाना है।
पांचवां
प्रश्न:
लाओत्से
कहते हैं, कुछ
भी करने की
जरूरत नहीं है,
समझ काफी
है। समझाएं कि
समझना होना कब
और कैसे बन
पाता है?
कब
और कैसे का
सवाल ही नहीं; समझना
होना है।
लेकिन
तुम्हें सवाल
उठता है।
तुम्हें सवाल
इसलिए उठता है
कि तुम सोचते
हो कि समझना एक
चीज है और
होना दूसरी
चीज है। तुम
सोचते हो, समझना
शुरुआत है
यात्रा का, प्रारंभ है,
और होना अंत
है। नहीं, समझने
होने में
रत्ती भर का
भी फासला नहीं,
इंच भर का
भी फासला
नहीं। हां, तुम्हें ऐसा
अनुभव में आता
है कि समझ
लेते हो तुम
कई चीजें, फिर
भी हो तो नहीं
पाते। तो उसका
एक ही अर्थ हुआ
कि तुम समझ ही
न पाए।
बौद्धिक
समझ को समझ
नहीं कहा
जाता। मैं कुछ
बोल रहा हूं, तुम
समझ रहे हो; क्योंकि तुम
भाषा समझते
हो। हो सकता
है, मुझसे
बेहतर समझते
होओ। तुम भाषा
का गणित समझते
हो, भाषा
का तर्क समझते
हो। तुम पढ़े-लिखे
हो, बुद्धिमान
हो, विचार
कर सकते हो; सब तुम्हें
समझ में आ
जाता है। मैं
कोई कठिन बातें
तो नहीं बोल
रहा हूं; कोई
पहेलियां
तो नहीं बूझ
रहा हूं।
सीधी-साधी बात
है; बिलकुल
समझ में आ
जाती है।
तब
सवाल उठता है, अब
करें कैसे? जैसे ही सवाल
उठता है करें
कैसे, खबर
आ जाती है कि
तुम समझे
नहीं। बुद्धि
से समझे, विचार
से समझे, लेकिन
आत्मसात न हुआ,
तुम्हारे
हृदय तक न
पहुंचा; खोपड़ी
में अटक गया।
वहां कोई समझ
नहीं है; वहां
समझ का धोखा
है। हृदय में
उतर जाए।
ऐसा
समझो कि घर
में आग लग गई
और मैंने तुमसे
कहा कि घर में
आग लगी है।
क्या तुम
मुझसे कहोगे
कि समझ गए, अब
बाहर कैसे निकलें?
समझ गए, यह
तो शुरुआत हुई,
अब
धीरे-धीरे
कोशिश करेंगे
बाहर निकलने
की; तो
बाहर निकलने
का उपाय
बताइए। क्या
तुम ऐसा कहोगे?
जैसे ही तुम
समझे कि घर
में आग लगी है,
तुम मुझे तो
पीछे ही छोड़
दोगे, तुम
छलांग लगा कर
पहले बाहर
निकल जाओगे।
घर में आग लगी
हो तो जैसी
समझ आती है वह
समझ बुद्धि की
नहीं है।
तुम्हारे
तन-प्राण से, तुम्हारे
रोएं-रोएं से,
तुम्हारी
श्वास-श्वास
से समझ उठती
है; तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व से
समझ आती है; तुम अपनी
समग्रता में
समझते हो।
खोपड़ी का सवाल
नहीं है।
खोपड़ी को मौका
भी नहीं दिया
जा सकता सोचने
का, क्योंकि
समय है नहीं।
और खोपड़ी बड़ा
समय लेती है।
तो
जहां भी कहीं
तत्क्षण कुछ
करना हो वहां
तुम बुद्धि को
सोचने का मौका
ही नहीं देते; वहां
तुम बुद्धि को
हटा देते हो
और कुछ कर गुजरते
हो; खिड़की
से कूद कर
बाहर हो जाते
हो।
सांप
रास्ते पर आ
गया हो, दिखाई
पड़ते ही तुम
छलांग लगा
लेते हो। इतना
भी शब्द भीतर
नहीं बनता कि
सांप आ रहा है,
कि सांप
खतरनाक है, कि अनुभव
कहता है, सांप
से उछल कर बच
जाना चाहिए।
इतना भी तर्क
नहीं चलता, इतना भी
विचार नहीं
चलता। विचार
को मौका ही
नहीं मिलता।
तुम अपनी समग्रता
से, इधर
सांप दिखा
नहीं कि उधर
तुम कूदे
नहीं। इन
दोनों के बीच
फासला नहीं
होता। हां, कूदने के
बाद फिर तुम
बैठ कर वृक्ष
के नीचे आराम
से सोच सकते
हो सांप के
संबंध में, दर्शन-शास्त्र
खड़ा कर सकते
हो। लेकिन जब
सांप सामने था
तब तुम छलांग
लगा कर कूद
गए। न तुमने गुरु
से पूछा, गुरु
कोई इतना
आसानी से
मिलेगा भी
नहीं वहां। न
तुम शास्त्र
को अध्ययन
करने गए, क्योंकि
कहां अध्ययन
करने जाओगे, सांप सामने
खड़ा है! न
तुमने अपनी
स्मृति से पूछा,
क्योंकि हो
सकता है पहले
कभी सांप का
मुकाबला ही न
हुआ हो। तो
स्मृति क्या
कहेगी कि क्या
करो। नहीं, अब तुमने
किसी से न
पूछा; अब
तो तुम्हारी
समग्रता ने एक
कृत्य किया।
समझ
समग्रता का
कृत्य है।
जब मैं
कहता हूं, तुम्हारे
जीवन में आग
लगी है, तो
तुम बुद्धि से
समझते हो। जब
मैं कहता हूं,
तुम्हारे
घर में आग लगी
है, तब तुम
समग्रता से
समझते हो। जब
मैं कहता हूं,
यह जीवन
सांप जैसा है,
इससे बचो, तब तुम
बुद्धि से
समझते हो।
लेकिन जब सांप
रास्ते पर मिल
जाता है तब!
जिस दिन तुम
इस तरह समझोगे
धर्म को भी, उसी दिन
तुमने समझा।
फिर तुम्हारी
समझ और करने
में फर्क न
होगा। समझ ही
करना है। समझ
मुक्ति है।
अगर
तुमने समझ
लिया कि क्रोध
जहर है तो
क्या तुम
मुझसे पूछोगे
कि अब क्रोध
को कैसे रोकें? अगर
पूछते हो तो
साफ है, अभी
भी समझे नहीं;
अभी भी लगाव
बना है; अभी
भी तुम सोचते
हो कि हां, कहते
हैं लोग कि
जहर है; लेकिन
यह तुम्हारा
अनुभव नहीं
बना है। और
अभी भी
तुम्हें रस है
उसमें और क्रोध
में अभी भी
तुमने कुछ
नियोजित किया
हुआ है, अभी
भी तुम्हारा इनवेस्टमेंट
है। अभी भी
तुम मानते हो
कि
किन्हीं-किन्हीं
समय में क्रोध
करने की जरूरत
है। अब बच्चा
कुछ गलती कर
रहा हो, क्रोध
कैसे न करें? कि अगर
क्रोध न करें
तो पत्नी
सुनती ही
नहीं! और अगर
क्रोध न करेंगे
तो किसी का
सुधार कैसे
होगा?
अभी
क्रोध से
तुम्हारे
लगाव भीतर बने
हैं। अभी
क्रोध का जहर
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ा। क्योंकि
अगर जहर दिखाई
पड़ जाए तो तुम
यह न कहोगे कि जहर
तो है माना, लेकिन
बच्चे को
सुधारने के लिए
थोड़ा पिलाना
पड़ेगा। जहर
कोई पिलाता है
सुधारने के
लिए? और
जहर से कभी
किसी ने किसी
को सुधारा? क्रोध से
कभी कोई बच्चा
सुधरा है? तुम्हें
पता है? बिगड़
सकता है, क्रोध
से कभी कोई
बच्चा नहीं
सुधरा।
क्रोध
से कोई
व्यवस्था बनी
है?
बिगड़ सकती
है; बनने
की क्या
संभावना है? और अगर
क्रोध से कोई
व्यवस्था
बनेगी भी तो
धोखा होगा, झूठ होगा।
तुम्हारी
पत्नी अगर
तुम्हारे क्रोध
के कारण शांत
भी रहेगी तो
वह शांति शांति
नहीं हो सकती;
उसके भीतर
आग जलती
रहेगी। और उस
शांति से प्रेम
का कोई जन्म
नहीं हो सकता।
वह तुम्हारी
गुलाम हो
जाएगी, लेकिन
तुम्हारी
प्रेयसी न हो
पाएगी। और
गुलाम घृणा
करता है, प्रेम
नहीं।
अगर
तुमने किसी
तरह
जबर्दस्ती
क्रोध के आधार
पर कुछ कर भी
लिया तो यह
बहुत ही
अस्थायी है। और
इसके भीतर
इसका विरोध
मौजूद है जो
इसे तोड़ देगा।
तुमने एक ऐसा
भवन बनाया
जिसकी कोई
बुनियाद नहीं
है,
जो रेत पर
खड़ा है, और
किसी भी दिन
गिरेगा। इससे
तो बेहतर था
तुम खुले आकाश
के नीचे सो
जाते; कम
से कम खतरा तो
न था। यह महल
खतरनाक है। यह
गिरेगा। और
इसके गिरने
में तुम
मिटोगे।
क्रोध
को पूरा देखो।
तब क्रोध को
देखने से तुम्हें
एक समझ आएगी।
कामवासना को
पूरा देखो, जानो,
पहचानो। जल्दी कुछ
नहीं है। किसी
की मान कर मत
चल पड़ो।
तब तुम पाओगे
कि यह तो
व्यर्थ है। यह
इतनी व्यर्थ
है कि इसकी
व्यर्थता ही
काफी है इससे
मुक्ति के
लिए। अगर
अतिरिक्त कुछ
करना पड़े, कि
जाकर मंदिर
में कसम लेनी
पड़े कि अब मैं
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेता
हूं, तो वह
तुम्हारा कसम
लेना ही बता
रहा है कि तुम
अभी समझ नहीं
पाए, और
समझ की जो कमी
है वह तुम
व्रत से पूरा
कर रहे हो।
जिसने जान
लिया, वह
व्रत लेगा
ब्रह्मचर्य
का? जिसने
जान लिया, बात
खतम हो गई। वह
मंदिर जाएगा?
वह किसी के
सामने घोषणा
करेगा?
वह
घोषणा और
मंदिर और किसी
गुरु के सामने
व्रत लेना
सिर्फ तरकीब
है। वह तरकीब
है कि अब चार
आदमियों के
सामने इज्जत
का सवाल हो
गया। तो अब
इज्जत के नाम
से किसी तरह
अपने को
रोकेंगे।
लेकिन
ब्रह्मचर्य
कहीं इज्जत के
कारण आता है? ब्रह्मचर्य
समझ से आता
है।
ब्रह्मचर्य
कहीं अहंकार,
प्रतिष्ठा--कि
अब लोग हमको
ब्रह्मचारी
मानते हैं
इसलिए अब कैसे
ब्रह्मचर्य
को
छोड़ें--इससे
आता है? ऐसा
ब्रह्मचर्य
दो कौड़ी
का है; आ ही
नहीं सकता। तब
तुम रास्ते
निकाल लोगे।
तब तुम
प्रतिष्ठा को
भी बचाओगे,
छिपे
रास्ते भी
निकाल लोगे
ब्रह्मचर्य
से बचने के।
तब तुम्हारे
जीवन में
पाखंड होगा।
और पाखंड इस
जगत में सबसे
बड़ा पतन है; पाप नहीं।
पापी भी
सीधा-साफ है।
पाखंडी इस जगत
में सबसे
ज्यादा कठिन
अवस्था में
है। उसके जीवन
में बड़ी
जटिलता है।
दिखाता कुछ है;
करता कुछ
है। कहता कुछ
है; होता
कुछ है। उसका
जीवन बिलकुल
अस्तव्यस्त है।
समझ को
पहले समझ लो
कि समझ क्या
है। जब समग्र
की है तभी हम
उसे समझ कहते
हैं। तुम
बुद्धि की समझ
को समझ मत
मानना। वह
काफी नहीं है।
क्योंकि तुम
बुद्धि से
बहुत बड़े हो।
इसलिए
तो अनेक बार
तुमने तय कर
लिया कि अब
क्रोध न
करेंगे, समझ
कर तय कर लिया
कि अब क्रोध न
करेंगे। फिर टूट
जाता है दूसरे
दिन। घड़ी भर
बाद टूट सकता
है। इधर तुम
तय किए बैठे
थे कि क्रोध न
करेंगे, और
कोई आ गया और
उसने गाली दे
दी, तुम्हें
याद ही नहीं
रहता कि हमने
क्या तय किया
था। उस क्षण
में सब भूल
जाता है। फिर
पछताते हो; फिर कसम
खाते हो। यही
तो तुम कर रहे
हो--करो, पछताओ,
कसम खाओ।
फिर कसम टूट
जाती है, फिर
पछताते हो।
इसी तरह तो
तुम दीन होते
गए हो।
बुद्धि
बहुत छोटी है।
और बुद्धि जो
तय करती है, वह
तुम्हारे
प्राणों तक
पहुंचता ही
नहीं। यह ऐसा
ही है कि घर का
मालिक तो भीतर
बैठा है; द्वार
पर पहरेदार
बैठा है; और
तुम पहरेदार
से मिल कर लौट
आते हो।
पहरेदार कहता
है, ठीक, चलो मकान
तुम्हें बेच
दिया। और घर
के मालिक को
पता ही नहीं
है। तुम्हारी
बुद्धि
पहरेदार से ज्यादा
नहीं है। वह
राडार है। वह
तुम्हारे बाहर
की जांच-परख
के लिए है।
मालिक तो भीतर
बैठा है।
बुद्धि कोई
निर्णय ले
कैसे सकती है
मालिक से पूछे
बिना? मालिक
निर्णय लेता
है। बुद्धि
क्या निर्णय लेगी?
इसीलिए तो
बुद्धि के
निर्णय रोज
टूटते हैं; छोटे-छोटे
निर्णय टूट
जाते हैं।
एक
आदमी सिगरेट
पीता है; वह
कसम खाता है।
एक तो सिगरेट
पीने के लिए
कसम खाना ही मूढ़ता है।
इतनी क्षुद्र
बात के लिए व्रत
लेना ही मूढ़ता
है। व्रत
बताता है कि
तुम हद दर्जे
के नासमझ हो।
धुआं निकालते
हो बाहर-भीतर,
कुछ खास कर
भी नहीं रहे
हो; इतना
कुछ मूल्य का
भी नहीं है।
और इसके लिए
तुम्हें कसम
लेनी पड़ती है,
और वह भी
टूट जाती है।
तुमसे
तो मुल्ला नसरुद्दीन
ज्यादा
होशियार है। वह
मुझसे कह रहा
था कि मैंने
सब पढ़ा।
धूम्रपान कैसा
बुरा है, कैसा
घातक है, कैसे
अस्थमा पैदा
कर सकता है, कैंसर आ
सकता है; सब
पढ़ डाला। फिर
मैंने निर्णय
कर लिया।
मैंने पूछा, क्या निर्णय
किया--धूम्रपान
छोड़ने का? उसने
कहा कि नहीं, पढ़ना छोड़ दिया।
पक्का कर लिया,
अब पढ़ना
ही नहीं। वह
तुमसे ज्यादा
समझदार है। कम
से कम पछताएगा
नहीं।
एक
मेरे मित्र
हैं;
दिमाग थोड़ा
खराब है।
अक्सर पागल
समझदारों से ज्यादा
समझदार साबित
होते हैं। जैन
हैं। तीर्थयात्रा
को गए। वहां
जैन मुनि कोई
ठहरे थे उनके;
उनको
नमस्कार करने
गए। तो जैसा
जैन मुनि कहते
हैं कि कोई
नियम ले लो, कोई व्रत ले
लो; तीर्थयात्रा
में आए हो तो
कुछ करके जाओ।
तो उन्होंने
कहा, अच्छी
बात, ले
लिया व्रत। तो
मुनि ने पूछा,
क्या व्रत
लिया? उन्होंने
कहा, अब तक
धूम्रपान
नहीं करता था,
अब से
करूंगा।
पागल
हैं। लेकिन जब
वे मेरे पास
आए तो मैंने
पूछा, तुमने
ऐसा क्यों
किया? तो
उन्होंने कहा
कि इसमें कम
से कम पछताने
का मौका नहीं
आएगा। कुछ छोड़ो;
छूटता नहीं
है। तो उसमें
पछतावा होता
है, और
व्रत टूट जाता
है। यह कम से
कम टूटेगा
नहीं, इतना
पक्का है।
पीते रहेंगे
मरते दम तक।
इतना तो रहेगा
कि एक व्रत
पूरा किया।
तुम्हारे
व्रत टूटते
हैं,
क्योंकि
बुद्धि से तुम
सोचते हो।
व्रत लेती ही
बुद्धि है, और बिना
जाने कि
बुद्धि केवल
पहरेदार है, घर का मालिक
नहीं है।
मालिक से पूछे
बिना तुम क्या
कर रहे हो? मेरी
सुन कर अगर
तुमने समझा कि
समझ आ गई तो
तुम गलती में पड़ोगे।
मुझे सुन कर
समझ आती होती
तो समझ बड़ी
सस्ती चीज है।
शास्त्र को पढ़
कर आती, बड़ी
सस्ती चीज है।
समझ तो जीवन
को जीने से
आएगी।
मैं
तुमसे नहीं
कहता कि क्रोध
बुरा है। मैं
तुमसे इतना ही
कहता हूं कि
क्रोध को परखो, जानो,
पहचानो। जल्दी
क्या है? क्रोध
करो। क्रोध की
पीड़ा झेलो। पछताओ।
क्रोध को जीओ।
क्रोध के
अंग-अंग जानो।
क्रोध को सब
दिशाओं से पहचानो।
तब समझ का उदय
होगा। वह समझ
मुझे सुन कर न
आएगी। वह तो
तुम क्रोध के
साथ सत्संग
में रहोगे, तभी आएगी।
हां, होशपूर्वक
रहना, उतना
मैं तुमसे
कहता हूं।
नहीं तो क्रोध
के साथ तो तुम
जन्मों से रह
रहे हो, समझ
नहीं आई।
क्योंकि जब
तुम क्रोध
करते हो, तुम
समझ का हिसाब
ही छोड़ देते
हो। तुम
बेहोशी में
क्रोध करते
हो। उतना ही
मैं तुमसे
कहता हूं मत
करो। क्रोध जब
आए तो तुम होश
के धागे को सम्हाले
रहो।
पहले
कठिन होगा।
धीरे-धीरे
सुगम हो
जाएगा। धीरे-धीरे
तुम क्रोध भी
करोगे और भीतर
तुम जानते भी
रहोगे कि क्या
हो रहा है। इस
जानने वाले
तत्व का ही
नाम तुम्हारा
मालिक है। यह
साक्षी ही
भीतर बैठा
मालिक है। इस
साक्षी को
जगाओ। क्रोध
को छोड़ने की फिक्र
मत करो, साक्षी
को जगाओ। सो
रहा है भीतर; दरवाजे खोलो,
उसे उठाओ, और उसे और क्रोध
को सामने-आमने
कर दो; बस।
तब तुम पाओगे
एक दिन, कोई
सांप इतना
जहरीला नहीं
जितना क्रोध
है।
वस्तुतः
सत्तानबे
प्रतिशत सांप
में तो कोई
जहर होता ही
नहीं; केवल
तीन प्रतिशत सांपों
में जहर होता
है। हालांकि
लोग मर जाते
हैं उन सांपों
के काटे हुए
भी जिनमें जहर
नहीं होता। वे
अपने खयाल से
ही मर जाते
हैं; कोई
उन्हें
मारता-वारता
नहीं। सांप ने
काट लिया, बस
इसलिए मर जाते
हैं। यह बड़ा
चमत्कार है।
चिकित्सा-शास्त्र
के सामने बड़ा
सवाल है।
क्योंकि सांप
तो बहुत कम
हैं जिनके जहर
से कोई मरता है--तीन
प्रतिशत। आम
तौर से वे
तुम्हें काटते
भी नहीं।
क्योंकि उतना
जहरीला सांप
बहुत छिप कर
रहता है। जो
सांप तुम
आस-पास घूमते
देखते हो ये
कोई जहरीले
नहीं हैं।
इनके काटने
में कोई मामला
ही नहीं है।
लेकिन मर तुम
जाओगे अगर
सांप काट ले।
यह मन का ही
भाव है कि
सांप ने काट
लिया, अब
मरे! अब कैसे
बच सकते हैं!
यह सम्मोहन
है।
सूफियों
की एक कहानी
है कि एक फकीर
बैठा था एक नगर
के द्वार पर
और उसने एक
बड़ी भयंकर
काली छाया
गुजरते देखी।
उसने कहा कि
रुक,
तू कौन है? सूफी फकीर
था, तो
उसने कहा फकीर
का जवाब दे
देना उचित।
उसने कहा, मैं
मौत हूं, इस
नगर में जा
रही हूं। इस
नगर में मुझे
पांच सौ आदमी
मारने हैं।
फकीर ने कहा, ठीक। कुछ
दिनों बाद मौत
वापस निकली तो
फकीर ने रोका,
कहा कि रुक,
तूने धोखा
दिया। कहा था
पांच सौ मारने
हैं, पांच
हजार मार
डाले। उसने
कहा, बाकी साढ़े चार
हजार अपने आप
मरे हैं; मैंने
तो पांच सौ ही
मारे। लेकिन
हवा फैल गई
मौत की। बाकी साढ़े चार
हजार का
जिम्मा तुम
मुझे मत देना।
बहुत
से लोग
अस्पतालों
में हवा के
कारण पड़े हैं।
बहुत से लोग
इसलिए मर जाते
हैं कि और लोग
मर रहे हैं।
प्लेग फैल गई; हैजा
फैल गया।
संक्रामक हो
जाता है रोग; शरीर में कम,
मन में
ज्यादा। सांप
ने काट लिया, मर गए। कैसे
बच सकते हैं
जब सांप ने
काट लिया?
सांप
इतना जहरीला
नहीं है। सांप
का काटा बच जाता
है;
क्रोध का
काटा नहीं
बचता, लोभ
का काटा नहीं
बचता, मोह
का काटा नहीं
बचता, काम
का काटा नहीं
बचता। तुम
कितनी बार मर
चुके हो? सांप
ने कब काटा था?
तुम इतनी
बार क्यों मरे?
किसी ने
तुम्हें जहर
नहीं दिया; जहर तुम
अपने को ही
देते रहे। लोभ,
क्रोध, माया,
मोह, सब
जहर हैं।
लेकिन
धीरे-धीरे तुम
जहर पीते रहे
और उससे ही
मरते रहे।
अगर
तुम चाहते हो
अमृत को पा
लेना, तो जागो,
इन जहरों
को देखो; साक्षी
को उठाओ।
निर्णय की कोई
जरूरत न आएगी।
करने को कुछ
है ही नहीं, सिर्फ
साक्षी देख ले
और पहचान ले
भरपूर आंख--जहर
कहां है? आग
कहां है? बात
खतम हो गई।
आगे सवाल नहीं
उठता। तुम
छलांग लगा कर
बाहर हो जाते
हो। समझ
क्रांति है।
समझ ही
एकमात्र
क्रांति है।
शेष सब
क्रांतियां ऊपर-ऊपर
हैं, धोखे
की हैं। और तुम
उन पर भरोसा
मत करना। उन
पर भरोसे के
कारण तुम बहुत
भटके हो। अगर
और भटकना
चाहते हो तो
बात अलग।
अन्यथा
बुद्धि की
बातों पर
भरोसा मत करना।
बुद्धि
पहरेदार है।
मालिक को
जगाओ। मालिक
से पूछो कि
तेरी मर्जी
क्या है। और
मालिक की मर्जी
तत्क्षण
कृत्य बन जाती
है।
आखिरी
सवाल:
लाओत्से
पर बोलते हुए
आपने कहा कि
जिस पर भरोसा
न हो उसके लिए
नीति, नियम
और पुलिस की
व्यवस्था की
जाती है; और
आपने यह भी
कहा कि बुरे
आदमी में भी
शुभ देखना
गरिमा है। तो
प्रश्न यह
उठता है कि
यहां आश्रम
में सुरक्षा
की इतनी कड़ी
व्यवस्था
क्यों है?
बहुत
सी बातें
समझनी पड़ें; और
समझ लेनी उचित
हैं।
मेरे
लिए तो कोई
बुरा नहीं है, कोई
शत्रु नहीं
है। आश्रम में
जो व्यवस्था
है वह किसी
शत्रु से बचने
की व्यवस्था
भी नहीं है।
तुम्हें ऐसा
दिखाई पड़ता
होगा, वह
तुम्हारी
व्याख्या है।
आश्रम में जो
व्यवस्था है,
वह मित्रों से
बचने की है।
और शत्रुओं से
कभी कोई किसी
को बचा भी
नहीं सका; कैसे
बचा सकते हो?
जीसस
को सूली लग गई; बारह
ही पहरेदार, बारह शिष्य
पहरा दे रहे
थे। तो अब
क्या करोगे? बारह शिष्य
क्या करोगे? दुश्मन पांच
सौ की भीड़
लेकर आ गया
था। सब व्यवस्था
तोड़ी जा सकती
है।
फिर जीसस
तो फकीर थे, लेकिन
अमरीका के पास
जितनी
व्यवस्था है
लिंकन को, केनेडी
को बचाने
की--वे भी नहीं
बचा सकते। बचाना
तो करीब-करीब
असंभव है
शत्रु से। कभी
नहीं बचा
सकते।
गांधी
के लिए बचाने
के सब उपाय
थे। क्या
करोगे? एक
पागल आदमी खतम
कर दे सकता
है। जिनसे तुम
बचा लेते हो, उनसे बचाने
की कोई जरूरत
ही नहीं है; क्योंकि वे
कोई खतम करने
को हैं नहीं।
लेकिन जो खतम
करना चाहता है,
उससे तुम
नहीं बचा
पाते। अभी
ललित नारायण
मिश्र की जो
मृत्यु हुई, उसमें एक
हजार सैनिक
चारों तरफ खड़े
थे। क्या करोगे?
एक पागल
आदमी बम फेंक
देता है।
शत्रु
से बचाने का
तो कोई उपाय
ही नहीं है।
उस भूल में तो
कोई कभी पड़े
ही नहीं कि
कोई शत्रु से
कभी किसी को
बचा सकता है।
उसकी कोई
जरूरत भी नहीं
है। मेरे लिए
कोई शत्रु है
भी नहीं। उस
दिशा में
सोचने का कोई
कारण नहीं है।
यह
व्यवस्था है
मित्रों से
बचाने की।
मेरी परेशानी
मित्रों से
है। और
परेशानी का
कारण मुझे
नहीं है, वह भी
समझ लेना
चाहिए।
वर्षों
तक मैं अकेला
घूम रहा था
सारे मुल्क में।
काम करना
असंभव हो गया; काम--जिसको
करने के लिए
इस शरीर में
मैं रुका हूं।
रात सो रहा
हूं, कोई
दो बजे रात
कमरे में घुस
जाता है। वह
कहता है, पैर
दबाने हैं। वह
बड़े भाव वाला
आदमी है। वह रात
भर पैर ही
दबाता रहता है;
सोना ही
मुश्किल है।
रात मैं कुछ
और कर रहा हूं,
वह भी करना
मुश्किल है।
ट्रेन
में सवार हूं, चार
आदमी ट्रेन
में चढ़ आते
हैं। वे कमरे
में बैठे हैं;
वे बातचीत
कर रहे हैं।
ट्रेन में
मुझे इतने
लोगों ने
बातचीत की कि
जब मैं
पहुंचूं जहां
मुझे बोलना है,
तो मेरा गला
ही बिठा दिया
उन्होंने!
ट्रेन में जरा
जोर से बोलना
पड़ता है। और
उन्हें
सुविधा मिल गई
कि आठ-दस घंटे
वे बातचीत में
लगाए हुए हैं।
उनको मैं
कितना ही कहूं
कि अब मुझे
छोड़ दें, कृपा
करें! पर वे
प्रेमी हैं, वे कहते हैं,
छोड़ने का मन
नहीं होता।
यहां
भी खुला छोड़ा
जा सकता है।
मैं वृक्ष के
नीचे हो सकता
हूं। लेकिन तब, जो
मैं कर रहा
हूं, वह
करना असंभव हो
जाएगा।
बिलकुल असंभव!
और जो मैं कर
रहा हूं, उनमें
से बहुत सी
बातों का
तुम्हें कोई
खयाल नहीं है।
शंकराचार्य
के जीवन में
एक उल्लेख है।
एक बड़ा महत्वपूर्ण
विवाद हुआ
मंडन मिश्र के
साथ। बड़ा
मुश्किल था, किसको
खोजें
अध्यक्षता के
लिए? क्योंकि
शंकर और मंडन
का विवाद
था--दो बड़ी महिमाशाली
प्रतिभाएं!
खोज मुश्किल
थी। लेकिन
मंडन की पत्नी
एकमात्र
दिखाई पड़ती थी,
जो अध्यक्ष
हो सकती।
लेकिन शंकर के
अनुयायियों
को चिंता थी
कि मंडन की
पत्नी कहीं
पक्षपात न करे!
क्योंकि पति
एक प्रतियोगी
है।
कोई
उपाय न सोच
कर--शंकर को तो
चिंता न थी, शंकर
ने कहा कि
ठीक। विवाद
हुआ। और मंडन
मिश्र की
पत्नी ने
जितना
निष्पक्ष
होकर निर्णय
दिया, बड़ा
कठिन है। उसने
मंडन मिश्र को
पराजित घोषित
किया। लेकिन
एक शर्त लगा
दी, और
शर्त बड़ी
मुश्किल की हो
गई। उसने कहा
कि ये तो मंडन
तो हार गए, लेकिन
यह हार आधी है,
क्योंकि
अभी पत्नी...।
और शंकर से
कहा, यह तो
आप भी मानेंगे
कि पत्नी
अर्धांग है; तो अब मुझे
भी हराना
पड़ेगा आपको; तभी पूरी
जीत समझना; नहीं तो आधी
जीत है।
शंकर
इसके लिए
तैयार भी न
थे। यह कभी
सोचा भी न था
कि यह
दांव-पेंच हो
सकता है
इसमें। विवाद
के लिए तैयार
होना पड़ा। और
मंडन मिश्र की
पत्नी ने बड़ी
कुशलता की; उसने
ब्रह्म और
माया, ये
सब बातें ही
नहीं पूछीं;
उसने तो काम-ऊर्जा
और कामवासना
के संबंध में
सवाल उठाए।
शंकर
ब्रह्मचारी, मुश्किल
में पड़ गए।
उन्होंने कहा
कि तुम ऐसे सवाल
उठा रही हो
जिनका मुझे
अनुभव नहीं
है। तो मंडन
मिश्र की
पत्नी ने कहा,
तुम समय
चाहो तो समय
ले लो। अनुभव
करके आ जाओ।
छह
महीने का समय
मांग कर शंकर
किसी तरह विदा
हुए। बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए कि क्या
किया जाए! तो
छह महीने तक
शंकर ने अपनी
देह छोड़ दी और
उनकी लाश पर
छह महीने तक
सतत उनके बारह
शिष्य पहरा
देते रहे।
चौबीस घंटे
पहरा देना पड़ा।
क्योंकि शंकर
एक दूसरे आदमी
के शरीर में प्रविष्ट
हुए जो कि
गृहस्थ था--जो
अभी-अभी मरा
था--एक राजा।
उसके शरीर में
प्रविष्ट हो
गए। उसकी
पत्नी के साथ
काम के सारे
रहस्यों का
अनुभव करके
वापस अपनी देह
में लौटे। वह
सतत पहरा था, कि
उसमें एक क्षण
भी पहरे में
चूक हो जाती
तो वह देह
अस्तव्यस्त
हो जाती, वापस
लौटना
मुश्किल हो
जाता।
बहुत
क्षणों में
मैं देह के
बाहर हूं। अब
मैंने जितने
लोगों को
दीक्षा दी है, जितने
लोगों को
संन्यास दिया
है, उन पर
बहुत तरह के
काम मुझे करने
हैं। कोई हजारों
मील दूर है और
उसे जरूरत है;
तो मैं इस
शरीर के बाहर
हूं। और मेरे
कमरे में उस
समय अगर कोई
भी घुस जाए तो
मेरा लौटना
मुश्किल है।
अगर मेरे शरीर
को कोई हिला
दे, कोई
पैर ही दाबने
लगे, तो
फिर मेरे
लौटने का कोई
उपाय नहीं है।
इन
सारी बातों का
तुम्हें कोई
खयाल नहीं है।
इसलिए तुम
अपनी बुद्धि
से जितना सोच
सकते हो, सोच
लेते हो। तुम
सोचते हो कि
इतने पहरेदार
यहां खड़े हैं;
इसकी क्या
जरूरत? तुम
बड़े तर्क अपने
मन में उठा
लेते हो।
ये
पहरेदार अभी
कम हैं। जैसा
काम मैं कर
रहा हूं, उसके
लिए और भी
व्यवस्था की
जरूरत है।
क्योंकि अभी
इनको भी पार
करके लोग
पहुंच जाते
हैं। दो महीने
पहले ही यहां
मीटिंग पूरी
हुई, दो
महिलाएं पीछे
की गैलरी में
पहुंच गईं।
मैं अंदर कमरे
में पहुंचा और
वे दोनों वहां
पीछे से
दरवाजा खटखटा
रही हैं। वे
सब प्रेमी हैं,
भाव से भरे
हुए लोग हैं!
यह जो पहरा है,
यह कोई
शत्रुओं से
बचाने के लिए
नहीं है; यह
तुमसे ही
बचाने के लिए
है और
तुम्हारे ही काम
के लिए है। और
तुम अपने
भावावेश में
कुछ कर सकते
हो। लेकिन
तुम्हारा
भावावेश सवाल
नहीं है; तुम्हारा
भावावेश
बिलकुल ठीक
है। लेकिन तुम
कुछ कर सकते
हो जो
तुम्हारे लिए
ही अंततः घातक
हो जाए।
मुझे
लोग पूछते हैं
कि आपसे
मिलने-जुलने
में इतनी अड़चन
क्यों है? साधु-संतों
से मिलने-जुलने
में कोई अड़चन
नहीं होती।
मैं भी
जानता हूं।
मैं भी झाड़ के
नीचे बैठ सकता
हूं। पर तब
मैं सिर्फ
तुम्हारी
पूजा ले सकता
हूं;
तुम्हारे
लिए कुछ कर
नहीं सकता। सो
तुम्हारे साधु-संत
तुम्हारे लिए
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं।
मगर तुम बड़े
प्रसन्न हो, क्योंकि जब
चाहो तब तुम
जाकर मिल सकते
हो। लेकिन काम
असंभव है।
तुम्हारे
लिए कुछ करना
हो मुझे तो
मैं झाड़ के नीचे
नहीं हो सकता।
तुम्हारी
बुद्धि से तुम
सोचते हो कि
क्यों मैं एयरकंडीशंड
कमरे में हूं? साधु-संत
को एयरकंडीशंड
कमरे की क्या
जरूरत?
लेकिन
तुम्हें कुछ
भी अंदाज नहीं, इसलिए
तुम्हारी
अपनी
मुश्किलें
हैं। और बहुत
सी बातें
तुमसे कही भी
नहीं जा सकतीं।
अगर मैं शरीर
छोड़ता हूं तो
मेरे कमरे का टेंपरेचर
वही का वही
रहना चाहिए।
जिस टेंपरेचर
में मैंने
छोड़ा, उसी टेंपरेचर
में मैं शरीर
में प्रवेश हो
सकता हूं, नहीं
तो संभव नहीं
है।
तो दो
ही उपाय हैं।
या तो मैं हिमालय
की गुफा में
चला जाऊं जहां
टेंपरेचर
बराबर रहता
है। इसीलिए
हिमालय की
गुफा खोजते रहे
लोग। लेकिन तब
तुम पर इतना
काम न कर
सकूंगा। अगर
मुझे अपने पर
ही काम करना
हो तो हिमालय की
गुफा ठीक है।
लेकिन वह काम
पूरा हो चुका
है। मुझे अपने
पर कोई काम
नहीं करना है।
अगर तुम पर
काम करना है
तो यहां भीड़
और बाजार और
बस्ती में
मुझे होना
जरूरी है।
तुम्हारी
धारणाएं
तुम्हारी समझ
के ऊपर नहीं जा
सकतीं।
तुम्हारा भी
कोई कसूर नहीं
है। लेकिन जब
भी तुम्हें
यहां कुछ ऐसा
मालूम पड़े जो
तुम्हारी समझ
के पार जा रहा
है तो जल्दी
निर्णय लेने
की कोशिश मत
करना; कोशिश
करना कि समझ
थोड़ी और बढ़
जाए।
जैसे-जैसे तुम्हारी
समझ बढ़ेगी
वैसे-वैसे
चीजें
तुम्हें साफ
होने लगेंगी;
वैसे-वैसे
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगेगा कि क्या
प्रयोजन है।
शत्रु
से बचने का
कोई सवाल नहीं
है;
कोई कभी
किसी को शत्रु
से बचा नहीं
सकता। उसकी
कोई जरूरत भी
नहीं है।
मित्रों से
बचाने का सवाल
है। क्योंकि
वे ही अपने
भावावेश में
सारे काम को
बाधा डाल दे
सकते हैं। तो
मुझे निरंतर
सख्त होता
जाना पड़ेगा।
अगर मैं सच
में ही
तुम्हें इसी
जीवन में कहीं
पहुंचा देना
चाहता हूं तो
मुझे और सख्त
होता जाना
पड़ेगा। वह भी
तुम तभी समझ
पाओगे जब तुम
उस ऊंचाई पर
पहुंचोगे।
तभी तुम मुझे
धन्यवाद दे
पाओगे, उसके
पहले तुम
धन्यवाद भी
नहीं दे सकते।
तब तक तुम न
मालूम कितने
तरह की आलोचना
करते रहोगे।
और तुम ऐसा मत
सोचना कि
तुम्हारी
आलोचना का मुझे
पता नहीं चलता
है। तुम्हारी
बुद्धि को मैं
जानता हूं।
इसलिए मुझे
पता है कि उस
बुद्धि से क्या-क्या
सवाल उठ सकते
हैं।
तुम्हारे
बिना कहे मैं
जानता हूं कि
तुम्हारे
सवाल क्या
हैं।
निर्णय
भर मत लेना।
कोई मत मत
बनाना। जल्दी
मत करना। समझ
को थोड़ा बढ़ने
दो,
थोड़ी ऊंचाई
पर आने दो; थोड़ा
प्रकाश फैलने
दो। तुम्हें
सब चीजें साफ
दिखाई पड़ने
लगेंगी कि
क्यों ऐसा है।
लाओत्से
कुछ काम नहीं
कर सका, क्योंकि
झाड़ के नीचे
बैठा था। बहुत
से ज्ञानी इस
संसार से ऐसे
ही चले गए हैं
बिना काम किए।
क्योंकि
तुम्हारी
मान्यताएं
बड़ी अजीब हैं।
तुम्हारी
मान्यताओं के
अनुसार काम ही
करना मुश्किल
है। तुम अपनी
ही मान्यताओं
के कारण हजार
तरह की हानियां
झेलते रहे हो।
एक
संन्यासी को
मैं अपने बचपन
से जानता रहा
हूं,
परम ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति वे हो
गए। तुम में
से शायद कभी
कोई जबलपुर
आता-जाता रहा
हो, तो
शायद कभी उनका
देखना भी हुआ
हो। जबलपुर
में एक परम
योगी थे; उनका
नाम भी किसी
को पता नहीं।
लेकिन चूंकि
वे अपने हाथ
में हमेशा एक
मग्गा लिए
रहते थे इसलिए
उनका नाम
मग्गा बाबा
था। वे कहीं
भी बैठे रहते
थे--खुले झाड़
के नीचे, या
किसी दुकान के
बाहर, छप्पर
के नीचे, किसी
की दहलान
में। और जब भी
मैं उनके पास
कभी जाता तो
उनको हमेशा
परेशानी में
पाता; और
परेशानी यह थी
कि उनको लोग
छोड़ते ही नहीं
थे। रात-दिन
लोग बैठे हैं।
क्योंकि
लोगों को यह
खयाल था कि
उनके चरण
दबाने से बड़े
पुण्य का अर्जन
होता है और
तुम्हारी मनोकामनाएं
पूरी हो जाती
हैं!
तुम
सोच सकते हो
कि उनकी क्या
गति कर दी!
चौबीस घंटे
लोग उनके पैर
दबा रहे हैं।
न वे सो सकते हैं--उनको
मतलब ही नहीं
लोगों को
उनसे--न वे कोई काम
कर सकते हैं।
कोई उपाय ही
नहीं है। वहां
कतार लगी रहती
लोगों की, एक
ने पांव दबा
लिए तो दूसरा
कतार लगाए खड़ा
है। और रात
में, जो
लोग दिन भर
काम करते हैं--रिक्शेवाले
हैं, ड्राइवर
हैं, फलां
हैं, ढिकां
हैं--वे सब रात
में वहां
इकट्ठे हैं।
रात में कोई
किसी के
रिक्शे को काम
नहीं है, रिक्शेवाले अपनी कतार
लगाए खड़े
हैं--मग्गा
बाबा का पैर
दबा रहे हैं।
मैं
उनसे कहा कि
यह आपका जीवन
यूं ही जा रहा
है;
इस
जीवन-ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं
हो पा रहा। वे
साधारणतः
किसी से बोलते
नहीं थे। एक
दिन एकांत
पाकर मैंने
उनको कहा तो
उन्होंने कहा
कि ऐसे ही
जाएगा; पहले
से ही गलती हो
गई। कुछ भी
लाभ नहीं हो
पा रहा है। और
ये जो लोग हैं,
इनको भी कोई
लाभ नहीं हो
रहा है।
उनको
ये सब छोटे
खयाल हैं कि
बस पैर दबाने
से किसी की
बीमारी ठीक हो
जाएगी।
बीमारी ठीक भी
हो गई तो क्या
ठीक हो गया? किसी
को खयाल है
मुकदमा अदालत
में जीत
जाएगा। जीत भी
गए तो क्या हो
गया? मग्गा
बाबा जैसा
आदमी इन कामों
के लिए नहीं
है। ये तो
बिना उसके भी
हो जाएंगे। और
हों या न हों, उनका मूल्य
ही कुछ नहीं
है।
उनको
देख कर मैंने
तभी तय कर
लिया था कि
जिस दिन भी
मुझे काम करना
हो उस दिन
पहले से ही
सावधानी
बरतनी जरूरी
है। इसलिए जब
तक मैं यात्रा
करता रहा
मैंने कोई
व्यवस्था
नहीं की, क्योंकि
मैंने दूसरी
तरह का काम
शुरू नहीं किया।
तब तक तो मैं
लोगों को
निमंत्रण
देता रहा घूम
कर; तब तक
मैं अकेला ही
घूम रहा था।
सुरक्षा की जरूरत
तो तब थी। अगर
शत्रु से
सुरक्षा करनी
हो तो जरूरत
तब थी जब कि
मैं बिना एक
आदमी को लिए
घूम रहा था
पूरे मुल्क
में; चौबीस
घंटे भीड़ में
था। लेकिन तब
कोई सुरक्षा का
सवाल न था।
क्योंकि
शत्रु कोई नहीं
है; उससे
कोई सुरक्षा
की जरूरत भी
नहीं है।
पूना
आते ही मैंने
अपनी
व्यवस्था का
पूरा आयाम बदल
दिया है। अब
मैं काम कर
रहा हूं। अब
मुझे भीड़ में
उत्सुकता
नहीं है; और न
मैं चाहता हूं
कि यहां भीड़
हो। गलत लोगों
को मैं किसी
भी कारण भीतर
नहीं आने देना
चाहता हूं। एक
क्षण भी उनको
देने को मेरे
पास नहीं है।
अब मैं सिर्फ
उन पर काम कर
रहा हूं जिन
पर कुछ हो सकता
है। और मेरी
सारी शक्ति उन
पर ही लगा
देनी है।
इसलिए मेरी
शक्ति का एक
कण भी
यहां-वहां व्यर्थ
न जाए, इसलिए
सारी
व्यवस्था
जरूरी है।
मैं
व्यवस्था से
ही रहूंगा। और
यह तुम्हारे
लिए है, यद्यपि
तुम्हें यह
जंचेगा न। तुम
पसंद करते कि
मैं वृक्ष के
नीचे बैठा
होता; जब
तुम्हारी मौज
होती आ जाते, मिल जाते, बकवास कर
जाते, पैर
दबा लेते, फूल
चढ़ा जाते।
हालांकि उससे
तुम्हें कुछ
भी न होता।
लेकिन तुम
प्रसन्न होते!
तुम्हारे
अज्ञान की कोई
सीमा नहीं है!
आज
इतना ही।
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